जयंती विशेषः ज्योतिबा राव फुले और गुलामगिरी

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 1 जून, 1873 को ज्योतिराव फुले (11अप्रैल 1827 – 28 नवम्बर 1890) की रचना ‘गुलामगिरी’ का प्रकाशन हुआ था। यह किताब मराठी में लिखी गयी। इसकी प्रस्तावना फुले ने अंग्रेजी में और भूमिका मराठी में लिखी है। इस किताब को लिखने का मूल उद्देश्य बताते हुए फुले ने लिखा है कि ‘इस किताब को लिखने का एकमात्र उद्देश्य सभी उत्पीड़ित लोगों को उनकी गुलामी का अहसास दिलाना, उनको इस योग्य बनाना कि वे अपनी इस हालात के कारणों को पूरी तरह समझ सकें और अपने आप को ब्राह्मणों की गुलामी, उत्पीड़न एवं अन्याय से मुक्त करने के लिए सक्षम बना सकें (गुलामगिरी की भूमिका)।
फुले ने करीब 12 किताबें लिखी हैं। इन सभी किताबों में उन्होंने ऐसी शैली और भाषा का प्रयोग किया है, जिससे ये किताबें व्यापक दलित-बहुनजों और मेहनतकशों स्त्री-पुरुषों को समझ में आ जाएं। अपने इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए फुले ने गुलामगिरी भी संवाद शैली में लिखा और उसे विभिन्न छोटे-छोटे परिच्छेदों में विभाजित किया। गुलामगिरी में कुल सोलह परिच्छेद हैं। इसके अलावा उन्होंने इसमें एक लंबा पंवाड़ा और बहुजन संत तुकाराम की शैली पर लिखित तीन अभंग भी समाहित किया है।

फुले ने इस किताब को यूनाइटेड स्टेट्स (अमेरिका) के उन लोगों को समर्पित किया है, जो नीग्रो गुलामों की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्हें समर्पित करते हुए फुले ने लिखा है कि “यूनाइटेड स्टेट्स के उन महान लोगों के सम्मान में, जिन्होंने नीग्रो लोगों को गुलामी से मुक्त कराने के कार्य में उदारता और निष्पक्षता के साथ सहयोग किया और उनके लिए कुर्बानी दी। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे देशवासी उनके इस सराहनीय कार्य का अनुकरण करें और अपने शूद्र भाइयों को ब्राह्मणी जाल से मुक्त कराने में अपना सहयोग करें” (गुलामगिरी, समर्पण पृष्ठ)।

यह किताब सोलह परिच्छेदों में विभाजित है। इन सोलह परिच्छेदों में प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल में ब्राह्मणों और शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच चले संघर्षों की कथा कही गई है। यहां एक तथ्य रेखांकित कर लेना जरूरी है कि फुले पश्चिमोत्तर भारत, विशेषकर आज के महाराष्ट्र की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना के संदर्भ में यह किताब लिख रहे हैं। जहां मूलत: शू्द्रों-अतिशूद्रों पर वर्चस्व कायम करने और उन्हें अपना गुलाम बनाने वाली जाति ब्राह्मण रही है। वहां द्विज क्षत्रिय जैसी जाति नहीं रही है। समाज का विभाजन मूलत: शोषक-उत्पीड़क ब्राह्मण और शोषित-उत्पीड़ित शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच था।

 

फुले अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में बताते हैं कि इस क्षेत्र में ब्राह्मणों के आगमन और बाद में उनके द्वारा वर्चस्व स्थापित करने से पहले यहां वर्ण या जाति का विभाजन नहीं था। यहां एक समता आधारित राज्य था। जिसके प्रतीक बलि का राज्य या बलि राजा हैं। यह एक आर्थिक तौर पर समृद्ध इलाका था। जहां सभी खेती-किसानी करते थे और जरूरत पड़ने पर बाहरी दुश्मनों से युद्ध करते थे। इसके चलते सभी क्षत्रिय थे। फुले ने सबको क्षत्रिय के रूप में संबोधित भी किया है। परिच्छेद छह में बलि राजा और उनके राज्य का वर्णन करते हुए फुले ने लिखा है कि “इस देश का एक बड़ा भाग बलिराज के अधिकार में था।…दक्षिण में बलि के अधिकार में दूसरा एक प्रदेश था, उसको महाराष्ट्र कहा जाता है। वहां के मूल निवासियों को महाराष्ट्रियन कहा जाता था। बाद में अपभ्रंश रूप हो गया मराठे।” फुले गुलामगिरी में यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मणों के वर्चस्व के पहले मराठों में कोई वर्ण-जाति विभाजन नहीं था। मराठों की संख्या ब्राह्मणों से दस गुनी अधिक थी। मराठों को हमेशा-हमेशा के लिए अपने अधीन बनाने के लिए ब्राह्मणों ने शिक्षा का अधिकार छीन लिया और उन्हें हजारों जातियों में विभाजित कर दिया।

गुलामगिरी की भूमिका में स्वयं फुले ने यह सवाल उठाया है कि शूद्रों-अतिशूद्रों की संख्या तकरीबन दस गुना ज्यादा है। फिर भी ब्राह्मणों ने शूद्रों- अतिशूद्रों को कैसे मटियामेट कर दिया? स्वंय फुले इसका जवाब देते हैं। वे लिखते हैं ‘सबसे पहले ब्राह्मणों ने शूद्रों-अतिशूद्रों के बीच नफरत की भावना फैलाने के लिए योजना तैयार की। उन्होंने प्रेम की बजाय नफरत के बीज बोये। इसके पीछे उनकी चाल यह थी कि शुद्र-अतिशूद्र समाज आपस में लड़ते रहेंगे, तभी ब्राह्मणों का वर्चस्व मजबूत होगा और स्थायित्व ग्रहण करेगा। उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बना लेंगे और बिना मेहनत किए उनकी (शूद्रों-अतिशूद्रों) कमाई पर बिना किसी रोक-टोक के गुलछर्रे उड़ा पायेंगे। अपनी इसी विचारधारा और चाल को अंजाम तक पहुंचाने के लिए ब्राह्मणों ने जाति-भेद की फौलादी-जहरीली दीवारें खड़ी की। जाति-भेद की इस विचारधारा को शूद्र-अतिशूद्र भीतर से स्वीकार कर लें, इसके लिए जाति-भेद को ईश्वर की रचना बताने के लिए ब्राह्मणों ने बहुत सारे ग्रंथ रचे।

 

इस सबका परिणाम यह हुआ कि कभी एक ही समाज के लोग अब एक दूसरे को नीच समझने लगे, एक दूसरे से नफरत करने लगे और आपस में लड़ने लगे। शूद्र-अतिशूद्र समाज की आपस की फूट का ब्राह्मणों ने कैसे फायदा उठाया। इस पूरी स्थिति पर ‘दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ’ कहावत बहुत सटीक बैठती है। इसका मतलब समझाते हुए फुले कहते हैं कि ब्राह्मण-पंडा पुरोहितों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के बीच आपस में नफरत का बीज (जाति) बो दिया और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशो-आराम कर रहे हैं।
सोलह परिच्छेदों में विभाजित गुलामी के पहले परिच्छेद में फुले ब्रह्मा की उत्पत्ति और आर्यों के आगमन की विस्तार से चर्चा करते हैं। कैसे ब्राह्मणों ने स्वयं को भूदेव या धरती का देवता बनाया, इस पर विस्तार से रोशनी डालते हैं। इस परिच्छेद में ब्राह्मण जाति की धूर्तता और उसके बर्बर चरित्र की चर्चा की गई है। फुले लिखते हैं कि ‘सबसे पहले उन आर्य लोगों ने बड़ी-बड़ी टोलियां बनाकर इस देश में आकर कई बर्बर हमले किए और यहां के मूल निवासी राजाओं के प्रदेशों पर बार-बार हमले करके आतंक फैलाया। (गुलामगिरी, पहला परिच्छेद)। परिच्छेद दो में ब्राह्मणों के अगुवा मत्स्य और उसके हमले की चर्चा की गई। परिच्छेद तीन में कच्छ, भूदेव, भूपति, द्विज, कश्यप और क्षत्रिय आदि का वर्णन किया गया है। इसमें आर्य-ब्राह्मणों के अगुवा कच्छप के नेतृत्व में मूल निवासियों पर होने वाले हमले का वर्णन है। परिच्छेद चार-पांच में आर्यों-ब्राह्मणों के नेता वराह द्वारा मूल निवासियों के राजा हिरण्यकश्यप और हिरण्यगर्भ की छल से हत्या की कहानी की हकीकत को फुले ने उजागर किया है। इसी में हिरण्यकश्यप के बेटे प्रहलाद को अपने जाल में फंसाने की ब्राह्मणों की चाल को दिखाया गया है। इस युद्ध में वराह और नरसिंह आर्यों के अगुवा थे। परिच्छेद छह बलिराजा और उनके राज्य पर केंद्रित है। कैसे ब्राह्मणों के अगुवा वामन ने उनकी हत्या किया, इसका वर्णन किया गया है। महाराष्ट्र के समाज में बलिराजा को लोग कितना प्यार एवं सम्मान देते हैं और उनके राज्य की वापसी की आज भी चाह रखते हैं। इस तथ्य को फुले ने महाराष्ट्र के लोक में व्यापक तौर पर स्वीकृत “अला बला जावे और बलि का राज्य आवे” के माध्यम से प्रकट किया है।

ये सभी परिच्छेद इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि आर्य-ब्राह्मणों ने मूल निवासियों के राज्य पर कई बार हमले बोले। उनके बीच युद्ध हुआ। अंततः मूल निवासियों की पराजय और ब्राह्मणों की विजय हुई। आर्य-ब्राह्मणों में सबसे कूर, नृशंस और बेरहम परशुराम था। फुले के अनुसार परशुराम के द्वारा 21 बार जिन क्षत्रियों के विनाश की कथा पुराणों में कही गई है, वे क्षत्रिय कोई और नहीं, बल्कि यहां के मूल निवासी शूद्र-अतिशूद्र थे। परशुराम ने किस नृशंसता से उनका कत्ल किया, इसका विस्तार से वर्णन परिच्छेद आठ में किया गया है। परिच्छेद नौ, दस, ग्यारह, बारह में ब्राह्मणों के पूर्ण वर्चस्व की स्थापना की कथा कही गई है।
परिच्छेद तेरह से लेकर पंद्रह तक, आधुनिक युग में अंग्रेजों के आगमन, शूद्रों-अतिशूद्रों की स्थिति में थोड़ा सुधार एवं परिवर्तन, अंग्रेजों के राज्य में भी कैसे ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व कायम किया, इसका वर्णन किया गया है। इन परिच्छेदों में अंग्रेजी राज कैसे शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए थोड़ी राहत लेकर आया? कैसे इन समुदायों को थोड़ी आजादी और सांस लेने का मौका मिला और इस अवसर का फायदा शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा पाने के लिए उठाया इसका भी वर्णन किया है। गुलामगिरी के एक भाग में फुले लिखते हैं-
मनु जलकर खाक हो गया, जब अंग्रेज आया।
ज्ञान रूपी मां ने हमको दूध पिलाया।।

इन्हीं परिच्छेदों में ब्राह्मणवादी पेशवाई की पराजय और अंग्रेजों की विजय के परिणामों की भी चर्चा है। सब कुछ के बावजूद भी अंग्रेजी शिक्षा का फायदा उठाकर ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के राज्य में कैसे अपना वर्चस्व कायम रखा फुले इसके कारणों की भी विस्तार से चर्चा करते हैं।
परिच्छेद सोलह में ब्राह्मणों के चुंगल से शूद्रों-अतिशूद्रों की कैसे मुक्ति हो, इस विषय पर केंद्रित है। इसमें वे शूद्रों-अतिशूद्रों के प्रतिनिधि के रूप में तीन प्रतिज्ञा लेते हैं-
ब्राह्मणों ने जिन तीन प्रमुख धर्मग्रंथों के आधार पर शूद्र-अतिशूद्र लोग ब्राह्मण के गुलाम हैं और उनके जिन ग्रंथों में हमारी गुलामी के समर्थन में लिखा गया है, हम उन सभी धर्मग्रंथों को खारिज करते हैं।

जो कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नीचा समझने का आचरण करता है। हम उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं देंगे।
जो गुलाम ( शूद्र, दास, दस्यु) के अपने रचयिता को मानकर नीति के अनुसार चलने और जीविकोपार्जन का उचित साधन अपनाने का निर्णय करते और उसके अनुसार अपना आचरण करते हैं। उनको हम अपने परिवार के भाई की तरह मानेंगे, उन्हें प्यार करेंगे और उनके साथ खाना-पीना करेंगे। चाहे वे लोग किसी भी देश के रहने वाले क्यों न हों। (गुलामगिरी परिच्छेद: सोलह)
इस किताब का अंत अभंग की इन निम्न पंक्तियों से होता है-
हम शिक्षा पाते ही, पाएंगे वह सुख।
पढ़ लो मेरा लेख, ज्योतिराव कहे।।

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