2024 लोकसभा चुनाव में पार्टियों को हराने और जीताने का खेल शुरू हो गया है। इस खेल को खेलने वाली सर्वे कंपनियां अपने-अपने दावों के साथ बाजार में उतर गई हैं। कोई किसी को हरा रहा है तो कोई किसी को जीता रहा है।
हमेशा की तरह सबकी निगाहें इस बार भी उत्तर प्रदेश पर लगी हुई है। ऐसे में इस बात के सर्वे आने शुरू हो गए हैं कि अगर आज उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए तो प्रदेश में सीटों की स्थिति क्या होगी, इसको लेकर इंडिया टुडे और सी वोटर्स ने मिलकर एक सर्वें किया है। इसके जो आंकड़े सामने आए हैं, वो चौंकाने वाले हैं। खासतौर पर बहुजन समाज पार्टी के लिए।
इंडिया टुडे-सी वोटर सर्वे के मुताबिक उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से एनडीए को 72 सीटें, समाजवादी पार्टी को 7 सीटें जबकि कांग्रेस को 1 सीट मिलने की बात कही गई है। वहीं इस बार सबसे बड़ा झटका बसपा को लगने का जिक्र है। सर्वे के मुताबिक बसपा को एक भी सीट नहीं मिलेगी।
लेकिन जिस सर्वे में 2024 के चुनाव में बसपा को यूपी में एक भी सीट नहीं मिलने की बात कही जा रही है, जरा उस सर्वे की सच्चाई जान लिजिए। इंडिया टुडे-सी वोटर ने ‘मूड ऑफ द नेशन’ सर्वे में 543 लोकसभा सीटों पर जाकर आनन-फानन में 25951 सैंपल इकट्ठे किए। अगर सर्वे में ईमनादारी से हर सीट पर एक ही संख्या में लोगों की राय ली गई होगी तो एक सीट पर करीब 47-50 लोगों की राय पूछी गई होगी।
अब जरा उत्तर प्रदेश के लोकसभा क्षेत्रों को समझिए। प्रदेश के ज्यादातर लोकसभा क्षेत्रों में 4-6 के बीच विधानसभा सीटें होती है। यहां वोटरों की संख्या लाखों में होती है। अब यहां सवाल यह है कि जिस उत्तर प्रदेश के लिए इंडिया टुडे का सी-वोटर सर्वे बसपा को जीरो सीटें मिलने का दावा कर रहा है, उसे बताना चाहिए कि आखिर प्रति लोकसभा में उसने जिन 50 या मान लिया कि 100 लोगों का सैंपल लिया है, वो किस क्षेत्र में लिया है। क्योंकि बसपा के ज्यादातर वोटर तो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं।
एक बात और चौंकाने वाली है। जिस सर्वे का हवाला देकर बसपा को जीरो, कांग्रेस को एक और समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में 7 सीटें मिलने का दावा किया जा रहा है, उसे महज 15 जुलाई से लेकर 14 अगस्त सिर्फ एक महीने में पूरा कर लिया गया है।
ऐसे में अगर सर्वे के तरीके और लिये गए सैंपल के नंबर पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि ऐसे सर्वे बेमानी हैं। सर्वे एजेंसिया अगर ईमानदार हैं, तो उन्हें बताना चाहिए कि उनके द्वारा लिये गए सैंपल का सामाजिक समीकरण क्या है, और वो किस गांव और शहर में गए थे। वैसे भी सर्वे एजेंसिया अक्सर बहुजन समाज के नेतृत्व वाले दलों को लेकर ऐसे नतीजे देती रही हैं। जहां तक बसपा का सवाल है तो अपनी स्थापना से लेकर अब तक बहुजन समाज पार्टी ने कई मौकों पर सर्वे एजेंसियों और देश को चौंकाया है। इंतजार करिये।
आरएसएस और भाजपा के कार्य कलाप उनके एजेंडे में पहले से ही रहते हैं। चाहे ओबीसी के आरक्षण का विरोध हो, बाबरी मस्जिद का विध्वंश हो, राम मंदिर हो, ज्ञानवापी, या मथुरा की मस्जिद हो, धारा तीन सौ सत्तर हो, या संविधान बदलने का मुद्दा हो, वो सब उनके एजेंडे में पहले से ही है। उनके कार्य करने का भी एक अलग तरीका है। उन्हें जिस काम को करना होता है, उसके बारे में वे सालों पहले से वातावरण बनाना शुरू कर देते हैं। और खासियत यह भी है कि वे अपने एजेंडे के कार्यान्वयन में पिछड़ी जातियों के नेताओं का ही ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। उनकी किसी भी विध्वंसक घटना का अध्ययन कर लीजिए, आप पाएंगे कि उसके पक्ष में उन्माद तैयार करने से लेकर उसे अंजाम तक पहुंचाने का सारा काम पिछड़ी जातियों द्वारा किया गया था। फिलहाल ज्ञानवापी और मथुरा मुद्दे भाजपा और आरएसएस के एजेंडे के मुताबिक अदालतों में चल रहे हैं, और परिणाम वही आना है, जो बाबरी मस्जिद बनाम रामलला मामले में आया था।
भारतीय संविधान का विरोध और सत्ता में आने पर उसे हटाने का मुद्दा भी आरएसएस के एजेंडे में 1949 से ही है, जब संविधान सभा द्वारा उसे पारित किया गया था। उस समय के अखबारों में छपे आरएसएस-नेताओं के बयान देखे जा सकते हैं, जिनमें कहा गया था कि “भारतीय संविधान में भारतीय जैसा कुछ भी नहीं है।“ आरएसएस के मुख पत्र ‘दि आर्गेनाइजर’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में संविधान के विरोध में जो सम्पादकीय छपा था, उसमें कहा गया था कि “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खास बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली है। इसमें प्राचीन भारत के मनु के कानूनों का उल्लेख नहीं है, जिन्होंने दुनिया को प्रेरित किया है। किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों (आंबेडकर और नेहरू) के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है।” यह विरोध लिखने और बोलने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसके विरोध में आरएसएस ने प्रदर्शन भी किये थे, और दिल्ली में आंबेडकर का पुतला भी फूंका था।
इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि आरएसएस की मुख्य चिंता मनुस्मृति है, जिसका कोई कानून, कोई संस्था और कोई शब्दावली भारतीय संविधान में नहीं ली गई है। 1950 के बाद के दशकों में ही नहीं, बल्कि नई सदी के दशकों में भी आरएसएस और भाजपा के नेताओं के स्वर भारतीय संविधान के समर्थन में कभी नहीं रहे। उन्होंने हर अवसर पर इसका विरोध किया। दशवें दशक में जब मंदिर का उन्माद जोरों पर वातावरण में फैला हुआ था, और बाबरी मस्जिद तोड़ी जा चुकी थी, तब 29 जनवरी 1993 को भाजपा के ओबीसी नेता कल्याण सिंह ने फ़ैजाबाद में कहा था, “मैं ललकार कर कहता हूँ कि मुझे ढांचे के टूटने का कोई पछतावा नहीं है। हम केन्द्र में आयेंगे, तो संविधान भी बदलेंगे।“
भाजपा सरकार ने संविधान और बुद्ध के प्रति अपनी सोच अपनी दो घटनाओं से प्रकट कर दी थी। वह 1992 में अयोध्या में अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर बाबरी मस्जिद गिराकर संविधान में अपनी अनास्था प्रकट कर चुकी थी और 1998 में बुद्ध जयंती के दिन पोखरन में परमाणु विस्फोट करके यह स्पष्ट कर चुकी थी कि बुद्ध की अहिंसा में उसका विश्वास नहीं है।
और वास्तव में जब 1998 में केन्द्र में पहली बार भाजपा की सरकार कायम हुई, तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पहला काम भारतीय संविधान को बदलने के लिए एक समीक्षा समिति बनाने का ही किया। पर साल भर पहले से आरएसएस ने अपने लोगों को संविधान के खिलाफ मुहिम चलाने पर लगा दिया था। इनमें एक थे अरुण शौरी और दूसरे थे हिंदी के गैर-ब्राह्मण लेखक शैलेश मटियानी।
अरुण शौरी मुसलमानों के बरेलवी संप्रदाय के खिलाफ “The World of Fatwas” लिखकर हिंदू-मुस्लिम दंगा पहले ही करा चुके थे। उसके बाद आंबेडकर और संविधान के खिलाफ लेखमाला चलाई, जो हिंदी में दैनिक जागरण में छपी, और बाद में अंग्रेजी में “Worshipping False Gods : Ambedkar” नाम से किताब छपी। अरुण शौरी के खिलाफ दलितों का रोष-प्रदर्शन देश भर में हुआ, और पूना में विरोधियों द्वारा उनके मुंह पर कालिख भी पोती गई थी। अरुण शौरी के संविधान-विरोध की आलोचना मैं अपनी छोटी सी किताब “आंबेडकर को नकारे जाने की साजिश” में कर चुका हूँ, जो 1996 में प्रकाशित हुई थी।
शैलेश मटियानी के संविधान-विरोधी विचारों का खंडन मैंने अपने नियमित स्तंभ में किया था, जो उन दिनों मैं कई पत्रों के लिए लिखा करता था। शैलेश मटियानी ने वही कहा था, जो अभी मौजूदा सरकार में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकर समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने कहा है कि “संविधान एक औपनिवेशिक रचना है।” मटियानी संविधान को भारतीय संस्कृति, असल में हिंदू संस्कृति का विरोधी मानते थे, और उसके मौजूदा स्वरूप पर पुनर्विचार चाहते थे। और यह अद्भुत संयोग था, कि जिस दिन शैलेश मटियानी का लेख छपा, उसके ठीक पन्द्रह दिन बाद, वही बात, भाजपा नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने 22 फ़रवरी 1997 को दिल्ली में आरएसएस के पूर्व मुखिया गोलवरकर की स्मृति-व्याख्यान में बोलते हुए कहा कि “संविधान को बनाने में काफी हड़बड़ी दिखाई गई। गहराई से सोचे-समझे बगैर ब्रिटेन की नकल करके जो संसदीय प्रणाली जनता पर थोपी गई, वह भ्रष्टाचार में मददगार साबित हो रही है।”
अध्यक्षीय प्रणाली की वकालत वर्तमान भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई अवसरों पर कर चुके हैं। और तो और, हमारे एक अंग्रेजी दलित चिंतक और डिक्की के मेंटर चन्द्रभान प्रसाद भी इस बात को जोर देकर कह चुके हैं कि आंबेडकर भी अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली के पक्ष में थे। और यह उन्हीं दिनों की बात है, जब केन्द्र में भाजपा की सरकार थी।
अटल बिहारी वाजपेयी ने, 1998 में, प्रधानमंत्री बनने के बाद, जो संविधान-समीक्षा आयोग गठित किया था, उसमें ग्यारह सदस्य थे। और गौरतलब बात यह है कि उन ग्यारह सदस्यों में एक भी सदस्य दलित वर्ग से नहीं था। उस वक्त मैंने अपने नियमित स्तंभ में लिखा था कि यह आयोग अभिजात और सवर्ण वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है, और सरकार की ओर से रिपोर्ट को लोकतंत्र-विहीन बनाने का संकेत देता है। सरकार ने संविधान की समीक्षा के लिए आयोग को अपना जो एजेंडा सौंपा था, उसमें संविधान के मूल ढांचे “धर्मनिरपेक्षता” को ही खत्म करने का सुझाव था। एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश का बयान अख़बारों में छपा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें भी आयोग में शामिल किया गया था, पर, वह सरकार के एजेंडे से सहमत नहीं थे, इसलिए उसमे शामिल नहीं हुए थे।
आयोग के अध्यक्ष वेंकट चलैया थे, जिनके हिंदू-आग्रह सर्वविदित थे। हालाँकि उस आयोग ने क्या समीक्षा की, और क्या रिपोर्ट दी, उसका पता नहीं चल सका। शायद सरकार ने ही समय को अपने अनुकूल न समझकर उसे रोक दिया हो। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि आयोग का गठन होते ही, जहाँ आरएसएस ने अपने तमाम लेखकों, पत्रकारों, विश्लेषकों और संत-महात्माओं को संविधान का विरोध करने के काम पर लगा दिया था, वहाँ भाजपा ने अपने नेताओं को मैदान में उतार दिया था। उस फ़ौज के सामने अरुण शौरी और शैलेश मटियानी तो कुछ भी नहीं थे।
उनकी कुछ बानगी देखिए: इलाहाबाद के माघ मेले में शंकराचार्य अखिलेश्वर नन्द ने संविधान को हिंदूविरोधी बताया और मनुस्मृति को लागू करने पर जोर दिया। इसी अवसर पर स्वामी वेदान्ती ने धर्मनिरपेक्षता का विरोध करते हुए धर्मविहीन राजनीति को विधवा के समान बताया और कहा कि भारत में धर्म का शासन होना चाहिए, जैसे रामराज्य में वशिष्ट का और चन्द्रगुप्त के राज्य में चाणक्य का था। दूसरे शब्दों में उन्होंने ब्राह्मण-राज्य का खुलकर समर्थन किया। पत्रकार राजीव चतुर्वेदी ने लिखा कि संविधान में मौलिक कुछ भी नहीं है। उसमें दूसरे देशों के संविधानों से लिए गए टुकड़ों के पैबंद लगाए गए हैं। उन्होंने यह भी लिखा कि संविधान जातीय समानता की बात करता है, पर जाति के नाम पर आरक्षण देने का जातीय भेदभाव भी करता है। संघ के हिंदूवादी लेखक बनवारी ने लिखा, ‘संविधान न अपना है, न ऊँचा है। यह एक ही व्यक्ति आंबेडकर का बनाया हुआ है, जिन्हें भारतीय समाज और भारतीय ज्ञान-परम्परा की कोई समझ नहीं थी।‘ असल में इन्हें मूल परेशानी आंबेडकर से थी।
अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार अगर संविधान-समीक्षा के मुद्दे पर कामयाब नहीं हुई, तो उसके दो कारण थे; पहला यह कि उस दौर में आज की तरह सारा प्रचार माध्यम और तंत्र सरकार के नियंत्रण में नहीं था, और सरकार फासीवाद की ओर अग्रसर तो थी, पर पूरी तरह फासीवादी नहीं हुई थी। और दूसरा कारण यह था कि दलित-पिछड़ों का आज की तरह हिंदूकरण नहीं हुआ था, पर प्रक्रिया जारी थी। यही कारण था कि वर्ष 2000 में देश भर में दलित संगठनों द्वारा आंबेडकर-जयंती ‘संविधान-बचाओ’ दिवस के रूप में मनाई गई थी, और इससे भाजपा के राजनीतिक अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी बज गई थी।
लेकिन आज की परिस्थितियां एक दम भिन्न हैं। आज भारत के मुख्यधारा के प्रचार माध्यमों और तंत्र पर नरेन्द्र मोदी का नियंत्रण है; आरएसएस का आईटी सेल सरकार के पक्ष में पूरी मजबूती से सक्रिय भूमिका में है, जो पहले नहीं था; सत्ता पूरी तरह फासीवादी स्वरूप में विरोधियों को कुचलने में जिस तरह आज काम कर रही है, पहले नहीं थी; और सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि दलित-पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण हो गया है, जो सरकार के विरोध में जाने की स्थिति में नहीं हैं।
इसलिए आज संविधान-विरोध के मुद्दे को फिर से उभारा जा सकता है। आज आरएसएस और भाजपा दोनों ही समय को अपने अनुकूल देख रहे हैं। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने कुछ नया नहीं कहा है, बल्कि वही कहा है, जो पिछले सत्तर सालों से आरएसएस और भाजपा के नेता बोलते आ रहे हैं। देबराय का लेख “There is a case for the people to embrace a new constitution” शीर्षक से एक आर्थिक पत्रिका में छपा है। इसका अर्थ है, लोगों को एक नए संविधान को अपनाने की जरूरत है। इस लेख को मैं नहीं देख सका हूँ। पर हिंदी ‘अमर उजाला’ में कुछ पंक्तियों में उसका जो विवरण छपा है, उसमें देबराय ने “मौजूदा संविधान को औपनिवेशिक विरासत करार दिया है।” “यह पूछा जाना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक, न्याय, स्वतंत्रता, और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब है? हमें खुद को एक नया संविधान देना होगा।”
यह चिंता बिबेक देबराय की नहीं है, बल्कि यह चिंता आरएसएस और भाजपा की है। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांत आरएसएस और भाजपा की आँखों में चुभते हैं, क्योंकि उनके अनुसार इन सिद्धांतों में भारतीयता यानी हिंदुत्व नहीं है। वे सही कहते हैं, क्योंकि भारत में मुस्लिम शासन से पहले तक राजतन्त्र ही थे, जो धर्म के राज्य थे। उनमें न समाजवाद था, न समानता थी, न लोकतंत्र था, और न न्याय था। मैं शाक्य और लिच्छवियों के गणराज्य को लोकतंत्र नहीं मानता, क्योंकि उनमें समाज के सभी वर्गों और खास तौर से निम्न वर्गों को मतदान का अधिकार नहीं था। उनमें भी न्याय, स्वतंत्रता और समानता नहीं थी। हिंदू राजतंत्रों में तो मनु का कानून लागू ही था, जो स्वतंत्रता और समानता पर आधारित नहीं, बल्कि सामाजिक भेदभाव पर आधारित थे।
भारत को पहली बार समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सिद्धांत पश्चिम के राजनीतिक दर्शन ने ही दिए, जिन्हें भारत की हिन्दुत्ववादी सरकार अपने साम्प्रदायिक बहुमत के बल पर खत्म करना चाहती है। आरएसएस का मकसद सामाजिक समानता को खत्म करके जाति-विभाजन पर आधारित सामाजिक समरसता का सिद्धांत लागू करना है। हमारा मौजूदा संविधान अपने मौलिक अधिकारों को पाने के लिए और सामाजिक-आर्थिक दमन के खिलाफ संघर्ष करने का जो कानूनी शक्ति देता है, वह सामाजिक समरसता के लागू होते ही खत्म हो जायेगा।
इसलिए मैं देबराय के लेख को संविधान बदलने के पक्ष में एक साम्प्रदायिक बहुमत के लिए वातावरण बनाने की एक ‘पहल’ के रूप में देख रहा हूँ। हो सकता है, मीडिया और अख़बार भी इस पर एक उन्मादी बहस चला दें।
अंत में मैं अपने दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों से भी एक आग्रह करना चाहता हूँ कि वे संविधान-विरोध को आंबेडकर-विरोध का मुद्दा न बनायें, हालाँकि आरएसएस और भाजपा का मुख्य विरोध आंबेडकर से ही है। पर, यह राष्ट्रीय लोकतंत्र का मुद्दा है, और इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।
15 अगस्त 2023 को जब भारत अपनी आजादी के 77वें वर्ष का जश्न मनाने की तैयारी में था, उससे ठीक एक दिन पहले 14 अगस्त को भारत का संविधान बदलने को लेकर एक शिगूफा फिर से छोड़ दिया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के अखबार लाइव मिंट में लेख लिखकर संविधान बदलने की वकालत की।
उनका तर्क था कि हमारा मौजूदा संविधान काफी हद तक 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है। अपने इसी तर्क के आधार पर वह संविधान बदलने की बात कर रहे थे। कुछ संशोधन नहीं, आधा नहीं, बल्कि पूरा का पूरा संविधान।
पीएम मोदी के सलाहकार ने लेख में आगे कहा कि हमें पहले सिद्धांतों से शुरुआत करनी चाहिए जैसा कि संविधान सभा
Bibek Debroy
की बहस में हुआ था। 2047 के लिए भारत को किस संविधान की जरूरत है? देबरॉय का कहना है कि कुछ संशोधनों से काम नहीं चलेगा। हमें ड्राइंग बोर्ड पर वापस जाना चाहिए और पहले सिद्धांतों से शुरू करना चाहिए, यह पूछना चाहिए कि प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब है। हम लोगों को खुद को एक नया संविधान देना होगा।
उन्होंने यह भी लिखा कि 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित एक आयोग द्वारा एक रिपोर्ट आई थी, लेकिन यह आधा-अधूरा प्रयास था।
साफ है कि देश के प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष ने जब यह बात छेड़ी तो इसका सीधा कनेक्शन सरकार और प्रधानमंत्री मोदी से समझा गया। बहस छिड़नी थी, बहस छिड़ी, तमाम लोगों ने बिबेक देबरॉय की लानत-मलानत की। लेकिन सवाल यह रह जाता है कि देश चलाने में प्रधानमंत्री को सलाह देने वाले बिबेक देबरॉय जैसा अहम शख्स देश का संविधान बदलने की बात करता है, तो क्या वह ऐसे ही है?
एक शब्द होता है, लिटमस टेस्ट। राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने उसी की ओर इशारा किया। मनोज झा का कहना है कि यह सारी बातें बिबेक देबरॉय की जुबान से बुलवाया गया है। ठहरे हुए पानी में कंकड़ डालो और अगर लहर पैदा कर रही तो और डालो और फिर कहो कि अरे ये मांग उठने लगी है।
लेकिन बिबेक देबरॉय के साथ उल्टा हो गया। लहर पैदा नहीं हो पाई। उल्टे उनकी फजीहत हो गई। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की वकालत करने वाले और संविधान को लेकर अक्सर गलत बयानी करने वाले दिग्गजों का साथ भी बिबेक देबरॉय को नहीं मिला। खुद को घिरता देख और लहर उठता नहीं देख उन्होंने मांफी मांग ली।
आंबेडकरवादियों ने धर दबोचा तो @bibekdebroy कह रहे हैं वह तो मेरे निजी विचार थे। एकदम शुद्ध पर्सनल मैटर था जी!
तो लेख में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार वाला परिचय क्या …….. के लिए दिया था?
सब कुछ संशोधन करने की इतनी बड़ी सुविधा संविधान निर्माताओं ने खुद अनुच्छेद 368 में दी… pic.twitter.com/mkRcsW6a5A
लेकिन क्या यह पहला मौका था जब संविधान बदलने की मांग की गई? जी नहीं।
सितंबर 2017 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने एक बयान में कहा था कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा था कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और इसे बदले जाने की ज़रूरत है। मोहन भागवत के मुताबिक आज़ादी के 70 साल बाद इस पर ग़ौर किया जाना चाहिए।
इसके तीन महीने बाद ही 28 दिसंबर, 2017 को भाजपा के तात्कालिन केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कहा था कि वो सत्ता में संविधान बदलने के लिए हैं। We are here to change Constitution.
फरवरी 2023 में यही बुखार तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव को चढ़ा। केसीआर ने भी देश के लिए एक नए संविधान की आवश्यकता पर जोर दिया था।
इसके अलावे कुछ छुटभैये नेता और कथावाचक अक्सर संविधान बदलने की मांग करते ही रहते हैं। लेकिन केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े से लेकर पीएम मोदी के सलाहकार बिबेक देबरॉय तक जिसने भी संविधान बदलने की मांग की, ऐसा विरोध हुआ कि उन्हें मांफी मांगनी पड़ी।
लेकिन जिस तरह बार-बार संविधान में बदलाव की वकालत की जाती है, सवाल उठता है कि क्या यह संभव है? और अगर संभव है भी तो कितना?
दरअसल आरएसएस जिस तरह के बदलावों की बात कर रहा है। या उसकी विचारधारा के नेता जैसा संविधान बनाना चाहते हैं, वो दरअसल सेक्यूलर संविधान को ख़त्म करके हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। लेकिन यह संभव ही नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फ़ैसलों में कहा है कि धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का मूल आधार है और इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। चाहे किसी चुनी हुई सरकार के पास दो तिहाई बहुमत ही क्यों ना हो, संविधान को इस तरह से नहीं बदला जा सकता कि उसके मूल आधार ही ख़त्म हो जाएं।
1. आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन बिबेक देबरॉय द्वारा अपने लेख में देश में नए संविधान की वकालत करना उनके अधिकार क्षेत्र का खुला उल्लंघन है जिसका केन्द्र सरकार को तुरन्त संज्ञान लेकर जरूर कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि आगे कोई ऐसी अनर्गल बात करने का दुस्साहस न कर सके। (1/2)
मोहन भागवत के संविधान बदलने वाले बयान के बाद 15 सितंबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने बीबीसी हिन्दी पर इस बारे में एक आर्टिकल लिखा था। उनका कहना था कि, संविधान बदलने की प्रक्रिया की बात करें तो संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा में संविधान में संशोधन का प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होता है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता, लोगों में बराबरी, अभिव्यक्ति और असहमति के हक़ जैसी बुनियादी बातों में बदलाव नहीं किया जा सकता। कई संशोधनों में राज्यों की सहमति की भी ज़रूरत होती है। प्रशांत भूषण का कहना था कि आरएसएस भारतीय संविधान के मूल आधार को ही बदल देना चाहता है। वो हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। लेकिन उनको 100 प्रतिशत बहुमत मिले, तब भी वो ऐसा बदलाव नहीं कर सकते।
यानी साफ है कि संविधान को पूरी तरह बदल डालना फिलहाल मुमकिन नहीं है। वैसे भी मुट्ठी भर लोग संविधान बदलने की वकालत करते हैं जबकि करोड़ों लोग भारतीय संविधान को बचाने के लिए खड़े हैं। जिनकी हुंकार हमेशा संविधान बदलने की बात कहने वालों को मांफी मांगने को मजबूर कर देती है।
चुप रहने से, ख़ामोश बैठे रहने से, सब कुछ सहते रहने से बदलाव नहीं आता… जब राजा निरंकुश हो जाये, जब ग़रीबों, वंचितों पर अत्याचार चरम पर हो, रोज़गार के मौक़े बढ़ने के बजाय कम हो गए हो… और राजा चैन की नींद सो रहा हो तो परिवर्तन ज़रूरी हो जाता है…
इस हुंकार के साथ बहुजन समाज पार्टी के नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद ने राजस्थान में चुनावी बिगुल फूंक दिया है। आकाश आनंद ने राजस्थान में 16 अगस्त को 14 दिनों की लंबी यात्रा का ऐलान करते हुए धौलपुर से इसकी शुरूआत कर दी। बसपा ने इस यात्रा को ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय संकल्प यात्रा’ का नाम दिया है।
यह पूरी यात्रा साढ़े तीन हजार किलोमीटर की होगी, जो प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से होकर गुजरेगी। इसमें आकाश आनंद बसपा कार्यकर्ताओं के साथ चलेंगे। यात्रा के शुरुआत के समय बहुजन समाज पार्टी के कद्दावर नेता अशोक सिद्धार्थ और रामजी गौतम भी मौजूद थे। आकाश आनंद का कहना है कि वह राजस्थान की सोई सरकार को नींद से जगाने निकले हैं। इस दौरान उन्होंने समर्थकों से साथ आने का आवाह्न भी किया। यात्रा का समापन 29 अगस्त को जयपुर में बड़ी रैली के साथ होगा।
दरअसल राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के सामने अशोक गहलोत से हिसाब भी चुकता करने की चुनौती होगी। 2018 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने छह विधानसभा सीटें जीती थीं और उसे चार प्रतिशत वोट मिले थे। लेकिन चुनाव बाद कांग्रेस पार्टी ने सभी को अपने में मिला लिया था। साफ है कि 2023 के चुनाव में आकाश आनंद उस अपमान और धोखे का बदला भी कांग्रेस पार्टी से जरूर लेना चाहेंगे। देखना यह होगा कि इस यात्रा में आकाश आनंद को समर्थकों का कितना समर्थन मिलता है। क्योंकि इस यात्रा के जरिये आकाश आनंद जिन समर्थकों को जगाने निकले हैं, उसे कितना जगा पाते हैं, वह प्रदेश के चुनाव में बसपा का भविष्य तय करेगी।
मध्यप्रदेश के सागर जिले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में 100 करोड़ लगाकर सतगुरु रविदास जी की प्रतिमा का शिलान्यास किया, उसके चंद दिन बाद ही समाज में दलितों को लेकर सोच सामने आ गई। मध्य प्रदेश के विदिशा में एक दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले सरपंच ने आरोप लगाया है कि उनकी जाति की वजह से उन्हें 15 अगस्त को झंडा नहीं फहराने दिया गया। घटना विदिशा जिले के सिरोंज में भगवंतपुर ग्राम पंचायत की है।
ग्राम पंचायत के सरपंच बारेलाल अहिरवार का आरोप है कि स्कूल की प्रिंसिपल उनके अनुसूचित जाति का होने के कारण चिढ़ती हैं। सरपंच का आरोप है कि प्रिंसिपल कहती हैं कि तुम दलित हो, तुम क्या जानो। दलित समाज के सरपंच ने आरोप लगाया कि स्वतंत्रता दिवस पर मुझे स्कूल में नहीं बुलाया और किसी और से तिरंगा झंडा फहरवा दिया गया। इस घटना से आहत सरपंच बारेलाल ने कहा कि यह मेरे पद और जाति का अपमान है। उन्होंने आरोप लगाया कि मध्य प्रदेश में ऐसा आम हो गया है, जब दलितों के साथ अन्याय होता है। उनको उनका हक नहीं मिल पा रहा है।
मामले के तूल पकड़ने के बाद स्थानीय एसडीएम हर्षल चौधरी ने मामले की जांच करवाने और कार्रवाई करने की बात कही है। जबकि स्कूल की प्रिंसिपल ने सफाई देते हुए कहा कि मैंने आपको फोन किया था, लेकिन आपने फोन नहीं उठाया।
दरअसल पंचायती राज अधिनियम के मुताबिक सरपंच को स्कूलों में झंडा फहराने का अधिकार दिया गया है। लेकिन अक्सर हर साल स्वतंत्रता दिवस के दूसरे दिन देश के किसी न किसी हिस्से से दलित समाज के सरपंच को तिरंगा फहराने से रोकने की घटना सामने आ ही जाती है।
भारत अपनी आजादी के 77 साल का जश्न मना रहा है। इस मौके पर जहां देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिला पर तिरंगा फहराया तो तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने अपने-अपने प्रदेश में तिरंगा फहरा कर आजादी का जश्न मना रहे हैं। लेकिन आजादी के साल-दर-साल बीतने के बावजूद देश के सामने अब भी तमाम ऐसे सवाल खड़े हैं, जिनका जवाब अब तक नहीं मिल पाया है। वह सवाल देश की आम जनता से जुड़े हुए हैं।
देश की कद्दावर नेता और बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर उन्हीं सवालों को उठाया है।
उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री रहीं बहन मायावती ने इस मौके पर कहा कि, देश व दुनिया भर में रहने वाले सभी भारतीय भाई-बहनों को आज 77वें स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। आज हर कोई पेट पालने तथा अपना व अपने परिवार का जीवन बेहतर बनाने में व्यस्त है। ऐसे में यह सरकार का दायित्व है कि वह उन्हें शान्ति, सदभाव, तनावमुक्त व सुविधायुक्त जीवन दे।
संविधान निर्माता और राष्ट्रनिर्माता भारत रत्न बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को इस मौके पर याद करते हुए मायावती ने कहा कि, भारत खासकर परमपूज्य बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अति मानवतावादी संविधान को लेकर दुनिया में आज भी एक आदर्श मिसाल है, किन्तु अपार गरीबी, बेरोजगारी, पिछड़ापन, अमीर-गरीब के बीच आय की जबरदस्त खाई व रुपए के अवमूल्यण आदि के अभिशप्त जीवन से लोगों की मुक्ति अब बहुत जरूरी हो गई है।
3. देश की लगभग 140 करोड़ गरीब व मेहनतकश जनता के लिए स्वतंत्रता की सही स्थापना तथा उसका समुचित लाभ तभी संभव जब संविधान की पवित्र मंशा के अनुसार देश में केवल राजनीतिक लोकतंत्र ही नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र भी जमीनी स्तर पर कायम हो, जैसाकि बाबा साहेब की असली मंशा थी।
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश की आम जनता का जिक्र करते हुए बहनजी ने कहा कि, देश की लगभग 140 करोड़ गरीब व मेहनतकश जनता के लिए स्वतंत्रता की सही स्थापना तथा उसका समुचित लाभ तभी संभव है, जब संविधान की पवित्र मंशा के अनुसार देश में केवल राजनीतिक लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र भी जमीनी स्तर पर कायम हो, जैसाकि बाबा साहेब की असली मंशा थी।
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जब देश के प्रधानमंत्री से लेकर तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्री बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने में व्यस्त हैं, बसपा सुप्रीमों मायावती ने जिस तरह भारत की असली तस्वीर पेश करते हुए आम जनता से जुड़े मसलों को उठाया है, साफ है कि उन मसलों को हल किये बिना देश को असली स्वतंत्रता नहीं मिलेगी।
A question that is often raised in some circles is, “Why should one celebrate Independence Day of India?” Although this is a rather complex topic that can’t be answered simply, a broader reflection on pre-independence and post-independence is needed. Upon reflecting, the following comes to my mind:
On June 9, 2000, the Honourable KG Balakrishnan was appointed to the post of Chief Justice of India. This was made possible when the then President of India, His Excellency, the Late Shri KR Narayanan, probed and asked a question as to why the list of potential candidates for the post of Chief Justice of India had no representation from the Scheduled Castes and Scheduled Tribes.
In view of the recent Manipur Violence and Tragedy, the Chief Justice of India, Hon. Chandrachud, rightfully intervened and raised questions. Recently, a number of measures were undertaken, including the appointment of the former Maharashtra DGP and NIA officer Mr. Dattatray Padsalgikar to monitor the probe by the investigating agencies. (www.thehindu.com).
During a conversation in 1930, Dr. Ambedkar told Gandhiji: “I have no homeland… how can I call this land my own homeland and this religion my own, wherein we are treated worse than cats and dogs, wherein we cannot get water to drink?”
Upon further reflections, the question that comes to my mind is: Do Dalits now believe they have a homeland? Is the representation of Dalits enhanced in independent India in comparison to colonial India? Are institutional pillars (judiciary, bureaucracy, and political leadership) effective in implementing the values of justice, liberty, equality, and fraternity? While there are incidents which suggest more effectiveness of these structures is needed, the overall trend suggests that there are now significant gains made in India for everyone. Would these gains have been made in the colonial era? Perhaps not to the same degree, or for the same reasons.
For me, it is more important that the caravan of transformation be kept moving forward recognizing, the pace can vary from time to time. This will also add to the tributes to, and for, many people who sacrificed and lost their lives for independence- and during the days of partition.
It is also important to see, at least on some occasions, a “glass half full”; celebrate accomplishments; learn, strategize, and commit our pledges for continuous improvements at both the individual and the systemic levels. Occasions such as Independence Day provide opportunities for these considerations.
With India’s population of over 1.4 billion and a strong diaspora, there is untapped potential to work together and attain outcomes that are aligned with the United Nations Sustainable Goals for 2030.
Let us celebrate the gains that India has made – and pledge to continue to strengthen the structures of democracy and achieve a more inclusive India!
Happy 77th Independence Day of India and greetings to all!
Jai Bhim
Jai Birdie, General SecretaryChetna Association, Canada
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज हो गई है। इस बीच बहुजन समाज पार्टी की मुखिया बहन मायावती ने एक साथ कांग्रेस और भाजपा दोनों पर जमकर हमला बोला है। एक बयान जारी कर बहनजी ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को बेनकाब किया है।
मायावती ने आरोप लगाया है कि मध्यप्रदेश सरकार में 50 प्रतिशत कमीशनखोरी के आरोप को लेकर कांग्रेस व भाजपा के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप, मुकदमों आदि की राजनीति से कमरतोड़ महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण-अत्याचार आदि जनहित से जुड़े ज्वलन्त मुद्दे चुनाव के समय पीछे छूट जा रहे हैं। उन्होंने सवाल उठाया है कि जरूरी मुद्दों का छूट जाना कितना उचित है। ऐसा क्यों हो रहा है?
दोनों दलों पर जमकर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा है कि भाजपा-शासित मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि कांग्रेस शासित राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी भ्रष्टाचार अहम मुद्दा है। बहनजी ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस व भाजपा की जनविरोधी नीतियों व विकास के हवा-हवाई दावों के कारण सर्वसमाज के गरीबों, बेरोजगारों, किसानों व महिला सुरक्षा आदि का मुद्दा तीनों राज्यों में असली चुनावी मुद्दा है।
चुनावी मुद्दों का जिक्र करने के बाद देश की कद्दावर नेता और बसपा प्रमुख मायावती ने ऐलान किया कि बीएसपी इन तीनों राज्यों में भाजपा व कांग्रेस सरकारों के खिलाफ जनहित व जनकल्याण के खास मुद्दों को लेकर अकेले अपने बूते पर विधानसभा का यह चुनाव लड़ रही है। उम्मीदवारों के नाम भी स्थानीय स्तर पर घोषित किए जा रहे हैं। पार्टी को भरोसा है कि वह अच्छा रिजल्ट हासिल करेंगी।
दरअसल उत्तर प्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीन ऐसे राज्य हैं, जहां बहुजन समाज पार्टी का दबदबा आज भी माना जाता है। एक वक्त में इन तीनों राज्यों की सियासत में तेजी से उभरी बहुजन समाज पार्टी आज भले ही थोड़ी कमजोर दिखने लगी हो, इन राज्यों में न तो बसपा के समर्थक कम हुए हैं और न ही बसपा को लेकर जुनून। हाल ही में बसपा के नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद की भोपाल में हुई रैली में उमड़े जनसैलाब ने इस पर मुहर भी लगाई है।
मध्यप्रदेश का सागर जिला कई मायनों में प्रदेश का एक अहम जिला है। इस जिले को एक और व्यक्ति के नाम से भी जाना जाता है। वो हैं, डॉ. हरिसिंह गौर। मध्यप्रदेश के सागर को डॉ. हरिसिंह गौर की नगरी के रूप में जाना जाता है। जिले में कई सालों से डॉ. हरिसिंह गौर साहब को भारत रत्न दिये जाने की मांग की जा रही है। इसके लिए उनके चाहने वालों ने खून से हस्तक्षार अभियान भी चलाया। यह मांग अब इतनी तेज हो चुकी है कि यह अभियान संभागीय स्तर से निकलकर अब यह राज्य का एक अहम मुद्दा बन गया है।
कौन है डॉ. हरिसिंह गौर
डॉ. हरिसिंह गौर सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, शिक्षाशास्त्री, ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, साहित्यकार (कवि, उपन्यासकार) तथा महान दानी एवं देशभक्त थे। वह बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में से थे। गौर दिल्ली विवि के उपकुलपति तथा नागपुर विवि के उपकुलपति व कुलपति रहे। वे भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फॉर लिटरेचर के फेलो भी रहे थे। गौर साहब ने कानून, शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार, संस्कृति, राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान निर्माण आदि में भी अपना अहम अवदान दिया।
डॉ॰ गौर का जन्म 26 नवम्बर 1870 को सागर जिले के शनिचरीटोरी के पास एक निर्धन परिवार में हुआ था। उन्होंने सागर, जबलपुर, नागपुर से पढ़ाई करने के बाद, इंग्लैंड से 1892 में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर 1902 में एल. एल. एम किया। आगे उन्होंने अंतर-विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। फिर, चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल में वकालत की।
गौर साहब ने 1929 में “स्पिरिट ऑफ बुद्धिज़्म” किताब लिखी। इस किताब की प्रस्तावना महान कवि रवींद्र नाथ टैगोर द्वारा लिखी गई। इस पुस्तक को पढ़कर बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर काफी प्रभावित हुए। जापान में इस बौद्ध दर्शन से गौर साहब को धर्मगुरु का सम्मान दिया गया।
डॉ. हरिसिंह गौर का जीवन में सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि, उन्होंने अपने जीवन की सारी कमाई और जमा पूँजी शिक्षा के लिए दान कर दी। गौर साहब ने जीवन की संपूर्ण जमा पूंजी 20 लाख रुपये से प्रदेश के बहुत पिछड़े इलाके बुंदेलखंड (सागर) में 18 जुलाई 1946 को सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की। महान दानी के रूप प्रसिद्ध हुए हरीसिंह गौर का 25 दिसम्बर 1949 को निधन हो गया। इसके बाद सागर विश्वविद्यालय का नाम डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। बाद में डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय की मान्यता प्राप्त हुयी।
हरिसिंह गौर को भारत रत्न क्यों देना चाहिए, इसको लेकर एक परिचर्चा के दौरान हरिसिंह गौर भारत रत्न समिति के संयोजक इंजी. संतोष प्रजापति कहते हैं कि, “डॉ गौर ने सागर जैसे पिछड़े इलाके में विवि की स्थापना की थी। इस विवि से आचार्य रजनीश (ओशो) जैसे महान दार्शनिक ने शिक्षा प्राप्त की। इस विवि से निकले छात्र प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति कर रहे हैं। हम किसी राजनीतिक पार्टी को दोष नहीं दे रहे कि उन्होंने डॉ. गौर को भारत रत्न नहीं दिया। कारण यह है कि हमने कभी अपनी आवाज को इतना बुलंद ही नहीं किया कि हमारी आवाज केंद्र सरकार तक पहुंच सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 12 अगस्त को सागर आ रहे हैं, हमारे मन में विचार आया कि क्यों न हम उनके सामने अपनी बात रखें की वे डॉ. गौर को भारत रत्न प्रदान करें ताकि हमारे सागर और विवि का देश—दुनिया में गौरव बढ़े।
हरिसिंह गौर भारत रत्न समिति के सदस्य विनोद प्रजापति का कहना है कि डॉ. हरिसिंह गौर को ‘भारत रत्न’ दिलाए जाने की मांग को लेकर सागर में इंजी. संतोष प्रजापति के संयोजन में डॉ. हरिसिंह गौर भारत रत्न समिति चरणबद्ध आंदोलन कर रही है। हाल ही में समिति ने पीएम के नाम कलेक्टर को ज्ञापन सौंपकर मांग को आगे बढ़ाया।
हरिसिंह गौर को भारत रत्न देने की मांग के प्रति जब हमने विश्वविद्यालय में एक संवाद किया। तब, राष्ट्रपति के पूर्व ओएसडी और विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर रहे और वर्तमान में केन्द्रीय विवि पंजाब में पदस्त डॉ. कन्हैया त्रिपाठी ने बताया कि, “हरिसिंह गौर का संविधान और भारत के निर्माण में अभूतपूर्व योगदान रहा है। गौर साहब को भारत रत्न देने की मांग केवल स्थानीय स्तर से नहीं उठनी चाहिए, बल्कि देश के कोने-कोने से यह मांग उठनी चाहिए। मुझे नहीं समझ आता कि भारत सरकार ने अब तक गौर साहब को भारत रत्न क्यों नहीं दिया। भारत सरकार को यह फैसला बहुत पहले लेना चाहिए था। हालांकि कन्हैया त्रिपाठी यह भी जोड़ते हैं कि भारत रत्न मांगने से नहीं मिलता। यह सरकारों की मंशा के ऊपर है। देश के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर को भी भारत रत्न मरणोपरांत दशकों बाद दिया गया।
हरिसिंह गौर को भारत रत्न क्यों मिलना चाहिए, इसके जवाब में बैचलर ऑफ जर्नलिज्म के छात्र बलदेव तर्क देते हैं कि, “हरिसिंह गौर ने शिक्षा, महिलाओं और इस क्षेत्र के विकास के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। इसका अंदाजा उनके द्वारा संपूर्ण संपत्ति दान किये जाने से लगाया जा सकता है। उन्होंने कई लोकहितकारी कानून भी पास कराये थे।”
विधि विभाग में एल. एल. बी के छात्र दीनदयाल बताते हैं कि, “डॉ. गौर को भारत रत्न देने की मांग आज से नहीं, बल्कि कई सालों से उठती आयी है। गौर साहब का देशहित में समाजिक योगदान बहुत बड़ा है। हरिसिंह गौर वर्तमान यूनिफॉर्म सिविल कोर्ट कानून के प्रति भी सकारात्मक नजरिया रखते थे। डॉ. गौर चहुमुखी दृष्टिकोण वाले व्यक्तित्व थे।”
डॉ. गौर को भारत रत्न देने की मांग को लेकर लगातार विचार-विमर्श, चर्चाएं और सभाएं लगातार आयोजित की जाती है। यह मांग और चर्चाएं देश में तब तक होती रहेगी, जब तक कि, गौर साहब को भारत रत्न मिल नहीं जाता है। खास बात यह भी है कि डॉ. हरिसिंह गौर को भारत रत्न देने की मांग को लेकर तमाम शिक्षाविदों से लेकर स्थानीय राजनेताओं का भी समर्थन मिल रहा है।
यूरोपीय देश स्वीडन में चार दिनों का ग्लोबल इंवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म कांफ्रेंस होने जा रहा है। यह कांफ्रेंस 19-22 सितंबर तक स्वीडन के ऐतिहासिक गोथनबर्ग शहर में होगा। इस कांफ्रेंस में 110 देशों के 2000 पत्रकारों के शामिल होने की संभावना है। कांफ्रेंस के दौरान चार दिनों में लगभग 200 वर्कशॉप, एक्सपर्ट पैनल्स, नेटवर्किंग सेशन और स्पेशल इवेंट होंगे। इस कांफ्रेंस में दुनिया के दिग्गज पत्रकार (Speakers) हिस्सा लेंगे जो तमाम विषयों पर कांफ्रेंस में हिस्सा लेने वाले पत्रकारों को अलग-अलग विषयों पर संबोधित करेंगे। इस कांफ्रेंस में भारत से छह पत्रकारों को फेलोशिप मिली है, जिसमें ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर और संपादक अशोक दास (अशोक कुमार) भी शामिल हैं।
लगातार चार दिनों तक होने वाले इस कांफ्रेंस में हाल के दिनों में चर्चा में आए AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) की पत्रकारिता की अलग-अलग विधाओं सहित न्यूज रूम में होने वाले परिवर्तन को लेकर भी सेशन होंगे। इसके अलावा अलग-अलग क्षेत्र से संबंधित खोजी पत्रकारिता, डिजिटल पत्रकारिता, खोजी पत्रकारिता में रिसर्च का महत्व, पत्रकारिता में नई टेक्नोलॉजी के बढ़ते प्रभाव, डाटा ड्राइवेन जर्नलिस्म, पर्यावरण पत्रकारिता और मोबाइल पत्रकारिता जैसे तमाम विषयों पर इसमें महारत रखने वाले दिग्गज पत्रकार और विशेषज्ञ संबोधित करेंगे। कार्यक्रम में इंवेस्टीगेटिव रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को ‘ग्लोबल शाइनिंग लाइट अवार्ड’ से सम्मानित भी किया जाएगा।
बता दें कि इस अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस में भारत के मूल निवासियों (Indigenous) दलित और आदिवासी समाज के मुद्दों पर केंद्रित मीडिया संस्थान दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक अशोक दास (अशोक कुमार) को भी फेलोशिप मिली है। अशोक दास ने साल 2012 में दलित दस्तक की शुरुआत की थी। मासिक पत्रिका के रूप में शुरू हुए दलित दस्तक का वर्तमान मेंवेबसाइट और यू-ट्यूब चैनल (एक मिलियन सब्सक्राइबर) भी है। अशोक 18-25 सितंबर तक स्वीडन में रहेंगे। भारत से पत्रकारों का चयन Global Investigative Journalism Networ (GIJC) के भारत के हिन्दी संपादक दीपक तिवारी ने किया है।
जहां तक ग्लोबल इंवेस्टिगेशन जर्नलिज्म कांफ्रेंस की बात है तो यह कांफ्रेंस खोजी पत्रकारिता के लिए दुनिया में होने वाली सबसे बड़ी कांफ्रेंस है। सम्मेलन में नवीनतम उपकरणों और तकनीकों, अत्याधुनिक कार्यशालाओं और व्यापक नेटवर्किंग और विचार-मंथन सत्रों पर प्रशिक्षण की सुविधा है। यह वैश्विक (ग्लोबल) कांफ्रेंस हर दो साल बाद होता है। पहली बार इसका आयोजन साल 2001 में कोपेनहेगेन (डेनमार्क) में हुआ था। तब से यह सिलसिला लगातार जारी है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 8 फरवरी 2023 को सागर में आयोजित आंबेडकर महाकुंभ में छह बड़ी घोषणाएं की।ये सभी घोषणाएं दलितों को लुभाने वाली घोषणाएं थी। इसमें, राज्य के औद्योगिक समूहों में एससी-एसटी के लिए 20% भूखंड आरक्षित करना। MSME नीति के तहत अनुसूचित जाति के कारोबारी संगठनों के लिए ‘क्लस्टर’ चिन्हित करना। अनुसूचित जाति के सदस्यों को आवंटित पेट्रोल पंप स्थापित करने के लिए जमीन देना। एससी- एसटी समुदायों के सदस्यों को सरकार के स्टोर खरीद नियम में छूट देना जैसी घोषणाएं शामिल थी।
लेकिन इन घोषणाओं के साथ शिवराज सरकार ने जो सबसे बड़ी घोषणा की थी, वह थी मध्यप्रदेश के सागर में 100 करोड़ रुपये की लागत से सतगुरु रविदासजी का मंदिर बनाना। यानी अपने राजनीतिक स्वार्थ और दलित समाज के वोटरों को लुभाने के लिए बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के बाद अब राजनीतिक दलों के निशाने पर सतगुरु रविदास हैं। पहले भी कुछ क्षेत्रों में रहे हैं, लेकिन अब ये सुनियोजित योजना के तहत किया जा रहा है। और मध्यप्रदेश में तो लगता है कि भाजपा को विधानसभा चुनाव में अपने जीत के लिए सतगुरु रविदास और उनके अनुयायियों का ही सहारा है।
यही वजह है कि चुनाव के मुहाने पर खड़े मध्य प्रदेश में चुनावी गहमा-गहमी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 12 अगस्त को सागर में सतगुरु रविदास मंदिर की नींव रखेंगे।
इस मंदिर के लिए नरयावली के बड़तूमा गांव में 11 एकड़ सरकारी जमीन अलॉट की गई है। भारतीय जनता पार्टी इस मंदिर के जरिये क्या हासिल करना चाहती है और उसके निशाने पर क्या है, यह बताने के लिए इस मंदिर के निर्माण को लेकर भाजपा की रणनीति को देख कर समझा जा सकता है।
भाजपा और संघ ने जैसे अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा एकत्र किया था। उसी तर्ज पर संत रविदास मंदिर के लिए समरसता यात्राएं निकाल रही है। यह यात्रा प्रदेश के 5 अलग-अलग अंचलों यानी नीमच, धार, श्योपुर, बालाघाट और सिंगरौली से शुरू की गई है। ये यात्राएं 53 हजार गांवों में पहुंचेंगी। साथ ही यह यात्रा 187 विधानसभा क्षेत्रों से होकर भी गुजरेंगी।
इस दौरान वहां की मिट्टी और नदियों का जल एकत्र करके सागर लाया जाएगा। यानी साफ है कि दलितों और खासकर सतगुरु रविदास में आस्था रखने वाले समाज को भाजपा अपनी इस मुहिम के जरिये साथ जोड़ना चाहती है। और इसके लिए उनकी आस्था को निशाना बनाया जा रहा है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 25 जुलाई को सिंगरौली से इस यात्रा को हरी झंडी दिखाई थी, जिसका का समापन 12 अगस्त को सागर में होगा, जहां प्रधानमंत्री मोदी मंदिर की नींव रखने के बाद एक सभा को संबोधित करेंगे।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर मध्य प्रदेश में सतगुरु रविदास मंदिर ही क्यों और वो भी सागर में ही क्यों? इसका जवाब भी जान लिजिए।
मध्य प्रदेश में दलित समाज की आबादी 1 करोड़ 13 लाख 42 हजार है।
यह प्रदेश की कुल जनसंख्या में लगभग 16 प्रतिशत हैं।
प्रदेश में विधानसभा की 84 सीटों पर दलित वोटर हार-जीत तय करते हैं।
आरक्षित सीटों की बात करें तो मध्यप्रदेश विधानसभा में 35 सीट आरक्षित है।
अब सवाल यह उठता है कि सतगुरु रविदास का मंदिर सागर जिले में ही क्यों। इसकी भी अपनी एक वजह है। रिपोर्ट के मुताबिक सागर जिले में दलितों का वोट 21 प्रतिशत है। सागर में 5 सीटें ऐसी हैं, जहां पर अहिरवार समाज का वोट निर्णायक भूमिका में है। इसमें नरयावली में दलित समाज का वोट 59 हजार है। बंडा में 54 हजार, सुरखी में 45 हजार और सागर में 44 हजार दलितों के वोट हैं। जबकि इससे सटे दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर और रायसेन जिले में भी दलित समाज का वोट निर्णायक है।
दूसरी ओर मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में यह दलित समाज का वोट 22 प्रतिशत है। आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 41.6 और बसपा को 5.1% वोट मिले थे। बीएसपी के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2003, 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में 69 सीटें ऐसी थीं, जहां पर बसपा का वोट शेयर औसतन 10% से अधिक रहा है।
मध्य प्रदेश में बसपा की यही ताकत कांग्रेस और भाजपा दोनों को हमेशा से परेशाना करती रही है। इस बार सतगुरु रविदास मंदिर के जरिये भाजपा बसपा के इसी वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयारी में है।
लेकिन दलितों के सामने अब भी सवाल वही है कि उन्हें मूर्तियां चाहिए या रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा। क्योंकि आजादी के बाद से जैसे-जैसे बाबासाहेब आंबेडकर के समाज की ताकत और हैसियत बढ़ने लगी, तमाम राज्यों में तमाम राजनैतिक दलों ने उनकी बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं बना कर खुद को अंबडकरवादियों का हितैषी बताते हुए अंबेडकरवादी समाज का वोट हासिल करने का काम किया। लेकिन वहीं दूसरी ओर दलितों तक उनके जायज अधिकारों को भी पूरा नहीं पहुंचने दिया गया।
मंदिर का स्वागत है, लेकिन भाजपा सरकार और उसके नेता अगर सच में दलितों की हितैषी हैं तो उसे इस समाज को मिलने वाले हकों को कागज से बाहर जमीन पर उतारना होगा।
मेरा सवाल यह भी है कि ये तमाम नेता ये क्यों नहीं बताते कि सरकार में रहते हुए उन्होंने दलितों के लिए क्या किया। मध्य प्रदेश सरकार और मुख्यमत्री शिवराज सिंह चौहान को यह बताना चाहिए कि अपने कार्यकाल में उनकी सरकार ने दलितों के लिए क्या किया। 12 अगस्त को जब पीएम मोदी सागर में सतगुरु रविदास मंदिर की नींव रखेंगे, तब उन्हें बताना चाहिए कि उनकी केंद्र सरकार ने दलितों और आदिवासियों के हित में क्या-क्या काम किया। याद रहे, जब भी कोई नेता, मंत्री, सीएम या पीएम मंच से नए वादे करे, जनता को उनसे बीते सालों का हिसाब जरूर मांगना चाहिए।
Michigan based Indian Diaspora Condemn Violence & the genocide of Kuki-Zomi tribes in Manipur, India and demand Freedom Equality and Justic, Sunday 7/30/2023, 3:00 PM to 5:00PM EST at Hart Plaza, Detroit Michgan
The Michigan based Indian diaspora and the members from NAMTA, AANA, IAMC, CAPI and ICA in the United States denounces the ongoing genocide against the Kuki-Zomi tribes in Manipur, India.
Indian Constitutional commitment to the principles of liberty, fraternity and equalitycompels us to raise our voice against these atrocious acts of violence and oppression that have been ongoing for over three months where over 60,000 have been rendered homeless, 6200+ houses burned, 320+ churches burned and over 170+villages burned and decimated to the ground.
We are further pained to see videos in social media of women being paraded naked, gangraped, tortured and executed by self-styled firing squads and more. There has been an internet ban for over two months, in the region and we worry that more of these videos will come out once internet connectivity is restored.
India cannot call itself a democracy if it lets such genocide continue.
The principles of- liberty, fraternity and equality –must be uphold to substantialize.
the foundation of a just and inclusive nation. Today, we see those foundations being.
We are appalled at the apathy of the authorities, both at the state and central government level to stop this violence and protect these tribes.
The Kuki and Zomi tribes, like many indigenous communities, have long endured historical injustices and discrimination. Today, they face an existential threat as evidence of violence, rape, and forced displacement emerges daily.
We demand the local State and Central Indian government to uphold the constitutional values and take immediate action to protect the lives and rights of these tribes.
Justice must be served, and the perpetrators of these heinous crimes must beheld accountable for their actions. We call upon the international community and human rights organizations to join us in closely monitoring the situation in Manipur & providing support to safeguard the rights and cultural heritage of the Kuki- Zomi tribes.
In solidarity,
Michigan Indians for Equality and Justice
NAMTA, AANA, IAMC, CAPI, ICA
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार को बड़ी कामयाबी मिली है। प्रदेश में अब जातिगत जनगणना करने को लेकर पटना हाई कोर्ट ने हरी झंडी दिखा दी है। पटना हाई कोर्ट ने जातिगत गणगणना के खिलाफ दायर सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया है। उच्च न्यायालय ने नीतीश सरकार के जातिगत गणना कराने के फैसले को सही करार दिया है। ऐसे में अब बिहार सरकार को बड़ी राहत मिल गई है। हाई कोर्ट के इस आदेश के बाद बिहार में जातिगत जनगणना फिर से शुरू हो पाएगा।
पटना हाईकोर्ट ने जातीय गणना के खिलाफ दायर याचिका पर जुलाई में लगातार पांच दिन सुनवाई की। दोनों ओर के पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अदालत ने 7 जुलाई को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। अगस्त के पहले ही दिन अपने फैसले में हाई कोर्ट ने करीब 100 पन्नों का आदेश जारी किया।
नीतीश सरकार ने पिछले साल बिहार में जातिगत गणना कराने का नोटिफिकेशन जारी किया था। इसके बाद जनवरी 2023 में इस पर काम शुरू हुआ। जातिगत गणना को दो चरणों में आयोजित किया गया। पहला चरण जनवरी में तो दूसरा अप्रैल में शुरू हुआ। दूसरे चरण के दौरान पटना हाईकोर्ट ने जातिगत गणना पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी। जिससे बिहार में इस पर काम रुक गया। साथ ही कोर्ट के आदेश पर तब तक इकट्ठा किए गए आंकड़ों को संरक्षित रखा गया।
इस पूरी बहस में सबसे बड़ी बात यह रही कि कोर्ट ने उन सभी अर्जियों को खारिज कर दिया है, जिनमें यह दलील देते हुए जातिगत जनगणना पर रोक लगाने की मांग की गई थी कि जनगणना का काम सिर्फ केंद्र का है राज्य का नहीं। यानी अब अन्य राज्य भी जाति जनगणना को लेकर अपने फैसले ले सकते हैं और पटना हाई कोर्ट का यह फैसला आने वाले दिनों में नजीर बन सकती है।
ये RPF का मोदी भक्त कांस्टेबल- चेतन सिंह है. इसकी तैनाती- जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस ट्रेन में सुरक्षा देने वाले सिपाहियों में थी. भाजपा और आरएसएस के दुष्प्रचार ने इसकी रगों में नफ़रत भर इसे चलता-फिरता जौम्बी बना दिया. इसके साथ इसके सीनियर- ASI टीकाराम मीना थे. ट्रेन में हुई राजनितिक बहस के बीच ही इसने ASI टीकाराम मीना को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया. इसके बाद इसने मधुबनी के अब्दुल कादिर की भी गोली मारकर हत्या कर दी. फिर ये आगे चला जहाँ इसे रेल बोगी की पैंट्ररी में एक आदमी मिला, उसे भी इसने मौत के घाट उतार दिया. फिर आगे S-6 कोच में गया. वहां इसे असगर अली नाम का जयपुर का एक चूड़ी बेचने वाला मिला उसे भी इसने गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया.
हत्याएं करते हुए चेतन सिंह ये कह रहा है कि- हिंदुस्तान में रहना है तो योगी-मोदी कहना होगा. चेतन सिंह ने पहले अपने सीनियर की हत्या की बाद में बोगी में जो मुस्लिम मिले उन्हें बिना जाने ही उनकी हत्याएं कीं. ये सामान्य घटना नहीं है ये एक नस्लवादी घटना है, एक आतंकवादी घटना है, और इसके लिए आरएसएस-भाजपा का प्रचार तंत्र जिम्मेदार है. इसके लिए टीवी की बहसें जिम्मेदार हैं. भाजपा ने राजनितिक लाभ के लिए इस देश की नस्लों में सालों-साल के लिए नफरत बोई है. ऐसे जौम्बी कभी भी किसी को नोच सकते हैं. इस आतंकवादी घटना की आलोचना बिना इसकी जड़ यानी आरएसएस और भाजपा के दुष्प्रचार की आलोचना किये बिना नहीं की जा सकती. पूरे हिंदुस्तान ही नहीं , पूरी दुनिया के लिए ये शर्मशार करने वाली घटना है. ये आरएसएस के कारखाने के प्रोडक्ट हैं जो मानव-बम बनकर हमारे आसपास घूम रहे हैं.
मध्यप्रदेश के उस समय निमाड़ व वर्तमान में खंडवा नाम से पुकारे जाने वाले इस ज़िले की पंधाना तहसील के बडदा गाँव स्थित सन् 1842 में एक यशस्वी बालक ने भील समुदाय (अनुसूचित जनजाति) में जन्म लिया। बचपन में ही माँ का साया सिर से उठ जाने उपरांत टांट्या भील नामक इस मासूम बालक ने अपने किसान पिता भाऊ भील से कहा, “पिताजी एक बात पूछनी है?”
पिता भाऊ भील ने कहा, “पूछो बेटा, क्या पूछना है?”
बालक टांट्या भील ने कहा, “पिताजी भील किसे कहते हैं?”
पिता भाऊ भील ने बालक के गालों को सहलाते हुए कहा, “जान देकर भी जो जल, जंगल और ज़मीन की हिफ़ाजत करते हुए शोषितों की आवाज़ को बुलंद करे।”
बालक टांट्या भील ने वीरतापूर्वक कहा, “मैं करूँगा जल, जंगल, ज़मीन और शोषितों की हिफ़ाजत।”
पिता भाऊ भील ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “जोहार हो।”
पुत्र टांट्या भील को गले से लगाते हुए भाऊ भील ने इसे भाला, तलवार, लाठी, बँदूक, गोफन और तीर – कमान चलाना सिखाया। मुसलमानों के नोगजे पीर में इनके परिवार की बेहद आस्था थी। उन दिनों सामंतवादियों द्वारा बड़े पैमाने पर आदिवासियों की ज़मीनें हड़पी जा रही थी और इनकी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा था। किशोरावस्था से ही टांट्या भील ने दबे – कुचले आदिवासियों को सामंतवादियों के चुंगल से निकालना प्रारंभ कर दिया। जिस कारण सामंतवादियों ने टांट्या भील पर अपराधिक मुकदमा दर्ज़ कराते हुए जेल भिजवा दिया।
उसी दौरान समंतवादियों ने इनकी पुश्तैनी ज़मीन भी हड़प ली। 24 नवम्बर, सन् 1878 को टांट्या भील ने अपने 12 जेल मित्रों के साथ जेल से भागने की योजना बनाई और देर रात लगभग 12:30 बजे जेल की सलाख़ें तोड़कर, बीस फीट ऊँची दीवार फाँद ली। अपने गिरोह के साथ टांट्या भील आगे – आगे और पुलिस पीछे – पीछे। इसके बाद टांट्या भील ने अपने परम मित्र भीमा नायक के साथ मिलकर, समंतवादियों के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया। जख़्मी शेर के रूप में टांट्या भील नाम का यह योद्धा… सामंतवादियों की खोज में इन्हें सबक़ सिखाने निकल पड़ा। बहुत से भील युवाओं ने टांट्या भील के गिरोह में जुड़ते हुए सभी शस्त्रों में निपुणता प्राप्त की और बुलँद आवाज़ में कहा, “जोहार हो।”
टांट्या भील के नेतृत्व में इनके गिरोह ने बड़े पैमाने पर सामंतवादियों की बड़ी – बड़ी हवेलियों को लुटते हुए उस धन को शोषितों में बाँटना प्रारंभ कर दिया। टांट्या भील का नाम सुनते ही सामंतवादियों की हालत पतली हो जाती। टांट्या भील कई बार गिरफ़्तार हुए और प्रशासनिक चुंगल से निकल कर, हवा के झोंके की भाँति फ़रार हुए। दुबले – फुर्तीले टांट्या भील की बँदूक जब भी चलती… सिर्फ़ और सिर्फ़ इंसाफ़ करती। काले सियाह जंगली घोड़ों की सवारी के शौक़ीन टांट्या भील के घोड़े की टापों की ध्वनि सुनते ही सामंतवादी दुबक कर छुप जाते।
नमक के साथ बाजरे की दो रोटियाँ खाने वाले टांट्या भील ने भूख से बिलखते दलितों की थाली में भाँति – भाँति के पकवान सजा दिए। इस योद्धा ने सारी उम्र स्वयं मैले – कुचैले कपड़ों में रहते हुए निर्वस्त्रों को बेशक़ीमती पोशाकों से सजा दिया। महिलाओं का मुँहबोला भाई बनते हुए बड़े स्तर पर इनकी लड़कियों की निःशुल्क शादियाँ कराई। इसलिए ये सभी लड़कियाँ टांट्या भील को मामा कहने लगी।
एक दिन समंतवादियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के साथ मिलकर, गणेश नाम के एक मुखबिर की पत्नी को मोहरा बनाया। जिस कारण इन्होंने टांट्या भील के हाथ पर राखी बांधने के उद्देश्य से अपने घर बुलाया और राखी की जगह हथकड़ी बंधवा दी। टांट्या भील को मोटी – मोटी बेड़ियों में जकड़ लिया गया। दूर तक इनका जुलूस निकाला गया और 19 अक्टूबर, सन् 1889 को जबलपुर सैशन कोर्ट ने इन्हें फ़ांसी की सज़ा सुनाई। दा न्यूयार्क टाइम्स में 10 नवंबर, सन् 1889 को इनकी ख़बर सहित फ़ोटो भी अख़बार में छपी और 04 दिसंबर, सन् 1889 को इन्हें फ़ांसी दे दी गई। समंतवादियों के इशारे पर, इस महान् भील योद्धा के पार्थिव शरीर को खुर्दबुर्द अवस्था में इंदौर शहर के पातालपानी रेलवे स्टेशन पर फेंक दिया गया।
नोट: बहुजन संघर्ष उपरांत टांट्या भील को शहीद का दर्ज़ा मिला था। सरकार ने अब इनकी कहानियाँ पाठ्यक्रम में शामिल करते हुए इनके नाम पर ‘जननायक टांट्या भील’ नामक एक लाख़ रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया है।
जय भीम ! नमो बुद्धाय !! बुद्धमेव जयते !!!
दिनांक 30 जुलाई 2023 को सिद्धार्थ टैंपल ट्रस्ट, यमुना विहार, दिल्ली के द्वारा बौद्ध विहार परिसर में Dr Ambedkar Library , Education Centre एवं Computer Centre का उदघाटन पूज्य भिक्खू चंदिमा थेरो, संस्थापक – अध्यक्ष , सारनाथ महाविहार धम्म शिक्षण समिति के सानिध्य में मुख्य अतिथि महोपासक आनन्द श्रीकृष्णा जी – प्राख्यात साहित्यकार एवं सामाजिक चिंतक के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ।
इस अवसर पर पूज्य भिक्खु संघ के द्वारा बुद्ध – धम्म – संघ वंदना संपन्न कराई गई । पूज्य भिक्खू चंदिमा थेरो एवं आनन्द श्रीकृष्णा जी के द्वारा शिलालेख का लोकार्पण किया गया तथा पूज्य भिक्खू चंदिमा थेरो के द्वारा HOLY BAUDDH BOOK ( पवित्र बौद्ध ग्रन्थ) TRIPITAK ( त्रिपिटक ) पुस्तकालय में संरक्षित की गई।
इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री राजेन्द्र पाल गौतम – पूर्व मंत्री दिल्ली सरकार, श्री जे सी आदर्श – अपर जिलाधिकारी (सेवा निवृत्त ) एवं सामाजिक चिंतक, श्री आर ए सेठ – अपर आयुक्त ( GST) , श्री गम्भीर सिंह – अपर जिलाधिकारी, गाजियाबाद, डॉ. आत्मा राम जोशी – पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष , समता सैनिक दल, श्री एस एस गौतम – प्राख्यात साहित्यकार एवं सामाजिक चिंतक, डॉ अजय कुमार -प्रोफेसर , दिल्ली विश्व विद्यालय एवं डॉ. एस पी अशोक – Advocate on Record , Supreme Court of India एवं अन्य न्यायाधीश गण , प्रशासक, साहित्यकार, शिक्षाविद्, सामाजिक चिंतक आदि उपस्थित हुए एवं समाज और छात्र – छात्राओं को मार्ग दर्शन प्रदान किया गया । NCC Cadets के द्वारा पूज्य भंतेजी , मुख्य अतिथि एवं विशिष्ट अतिथियों को Guard of Honour दिया गया। काकार्यक्रम की अध्यक्षता श्री बलजोर सिंह जी (Ex MLA) , अध्यक्ष – सिद्धार्थ टैंपल ट्रस्ट के द्वारा की गई।
कार्यक्रम का संचालन एस एस वरुण – महासचिव , सिद्धार्थ टैम्पल ट्रस्ट, यमुना विहार , दिल्ली के द्वारा किया गया।
इस अवसर पर देश -विदेश से बौद्ध धर्म तथा बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर के जीवन दर्शन में आस्थावान धम्म उपासक – उपासिकाएं उपस्थित हुए।
सादर अभिवादन
एस एस वरुण
महासचिव
सिद्धार्थ टैम्पल ट्रस्ट, यमुना विहार, दिल्ली
उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में एक बड़ा हादसा होने से बच गया, लेकिन इस पूरे मामले में जिले के एसएसपी प्रभाकर चौधरी नप गए। दरअसल इन दिनों सावन का महीना चल रहा है। सड़कों पर कांवड़ियों का तांता लगा है। बीते कल 30 जुलाई को ऐसे ही कांवड़िए बरेली में मस्जिद के पास पहुंचे। कांवड़िए जिद पर अड़े थे कि मस्जिद के बाहर से ही DJ बजता हुआ जाएगा। मुस्लिम समाज को इस पर आपत्ति थी। मामला पुलिस के पास पहुंचा। बरेली में एसएसपी प्रभाकर चौधरी थे। उन्होंने कांवड़ियों को खूब समझाया। कांवड़ियें फिर भी नहीं माने। ऐसे में जिले में धार्मिक सौहार्द बिगड़ने का खतरा था। दंगा होने की भी आशंका थी।
एसएसपी प्रभाकर चौधरी के मुताबिक, ‘कांवड़िए गैर परम्परागत जुलूस निकालना चाहते थे। ये नहीं माने और DJ को जबरदस्ती नए रूट पर ले जाने लगे। 4 घंटे तक ये हंगामा करते रहे। ऐसी भी आशंका है कि कुछ लोग शराब पीये हुए थे और कुछ के पास अवैध हथियार भी थे।
यानी मामला बिगड़ सकता था। ऐसे में पुलिस कप्तान ने अपनी पुलिस को लाठी चार्ज का आदेश दिया और उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में दंगे जैसी स्थिति बनने से बच गई।
ऐसे में होना क्या चाहिए था? निश्चित तौर पर सरकार को एसएसपी प्रभाकर चौधरी की पीठ थपथपानी चाहिए थी। पुलिस के इस फैसले के साथ खड़ा होना चाहिए था। लेकिन ठहरिये। ये उत्तर प्रदेश है और यहां योगी जी की सरकार हैं। वही योगी जी जिनमें हिन्दुव समर्थक तबका मोदी जी का अक्स ढूंढ़ रहा है। इसलिए यहां कुछ और हुआ। दंगे जैसी स्थिति संभालने के बाद एसएसपी प्रभाकर घर भी नहीं पहुंचे होंगे कि उनका ट्रांसफर कर दिया गया।
नया ट्रांसफर पी.ए.सी लखनऊ में 32वीं वाहिनी में हुआ है। बताया जा रहा है कि अपनी नौकरी के 13 सालों में यह उनका 21वां ट्रांसफर है। वजह यह है कि प्रभाकर नेताओं के दबाव में नहीं आते हैं। क़ानून व्यवस्था के लिए जो सही लगता है वही फैसला लेते हैं।
लेकिन यहां बात सही गलत की नहीं थी। मामला धर्म का था। उस धर्म का जो फिलहाल भारत की राजनीति में इंसान और उसकी जान से भी अहम हो गया है। मामला सरकार की नाक का था। क्योंकि यूपी की सरकार ने कांवरियों को फूल बरसाने के आदेश दिये थे, फूल बरसाए भी गए थे। और जिन पर फूल बरसाए गए थे, उन पर एसएसपी प्रभाकर चौधरी ने डंडे बरसा दिये थे। अघोषित तौर पर हिन्दू राष्ट्र बनाने की पुरजोर वकालत कर रही सरकार को यह कैसे बर्दास्त होता। आप दर्शक हैं, आप जनता जनार्दन हैं, खुद सोचिए… कौन सही है, कौन गलत।
भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद अपने तेलंगाना दौरे के दूसरे दिन तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव यानी केसीआर से मिले। इससे पहले चंद्रशेखर आजाद केसीआर की बेटी कविता राव से भी मिल चुके हैं। इस दौरान चंद्रशेखर लगातार केसीआर सरकार की तारीफें करते दिखे। चंद्रशेखर ने अपने बयान में कहा था कि उन्हें कविता दीदी ने खाने पर बुलाया था। लेकिन साफ है कि जब दो राजनीतिक लोग साथ बैठते हैं तो बात राजनीति की भी होती है।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि केसीआर द्वारा चंद्रशेखर आजाद को इतनी तव्वजो देने की वजह आखिर है क्या? क्या कहीं केसीआर तेलंगाना के पूर्व आईपीएस अधिकारी और फिलहाल तेलंगाना में बसपा की कमान संभाल रहे आर.एस. प्रवीण कुमार से डर गए हैं। और इसी वजह से दलितों के बीच उभरते नेता चंद्रशेखर आजाद को अपने साथ लाकर दलितों को संदेश देना चाह रहे हैं?
अगर ऐसा है तो यह विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़े तेलंगाना में बसपा की बड़ी राजनीतिक जीत है। और केसीआर ने बसपा को ताकतवर मानकर राजनीतिक तौर पर सेल्फ गोल कर लिया है।
तेलंगाना में 17 प्रतिशत दलित वोट है जो एक बड़ा फैक्टर है। तेलंगाना में किसी पार्टी की सरकार बनाने में उसकी बड़ी भूमिका होगी। इसे बसपा के पक्ष में लाने के लिए आर.एस प्रवीण लगातार बहुजन राज्याधिकार यात्रा पर चल रहे हैं, इसके जरिये बसपा तेजी से लोगों के बीच पहुंच रही है। तो वहीं इसमें एससी-एसटी सोशल वेलफेयर स्कूल के सेक्रेटी रहने के दौरान आर. एस. प्रवीण ने जिन लाखों बच्चों की जिंदगी बदली थी, उनका और उनके परिवार का समर्थन भी उन्हें खूब मिल रहा है। कुछ मिलाकर तेलंगाना चुनाव में बहुजन समाज पार्टी अपनी मजबूत उपस्थिति से सबको चौंका सकती है।केसीआर इसी से डरे हुए हैं। यही वजह है कि वह भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर को अपने साथ लाए हैं।
तो वहीं अपने दो दिनों के तेलंगाना दौरे के दौरान चंद्रशेखर आजाद ने जिस तरह केसीआर के पक्ष में बयान दिया है, उससे साफ दिख रहा है कि भीम आर्मी प्रमुख केसीआर को अपना समर्थन देने को तैयार है। लेकिन यहां सवाल यह भी है कि राजनीति में समझौते ऐसे ही नहीं होते, बात अपने-अपने फायदे की भी होती है। तो केसीआर के साथ और आर.एस. प्रवीण के खिलाफ खड़े होने में आजाद समाज पार्टी और चंद्रशेखर आजाद का फायदा क्या है?
जहां तक चंद्रशेखर आजाद की राजनीति की बात है तो अब तक आजाद समाज पार्टी कोई खास कमाल नहीं दिखा पाई है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से गठबंधन नहीं होने पर चंद्रशेखर का मायूस होने के वीडियो ने उल्टा उनकी छवि को कमजोर ही किया। कुल मिलाकर उनका कोई भी राजनीतिक फैसला ऐसा नहीं रहा है, जिससे लगे कि पार्टी राजनीतिक तौर पर परिपक्व हो रही है। अब तेलंगाना जाकर चंद्रशेखर ने एक और राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दिया है। क्योंकि तेलंगाना में बहुजन समाज पार्टी के प्रमुख रिटायर्ड आई.पी.एस अधिकारी आर.एस. प्रवीण हैं।
आर.एस प्रवीण लंबे समय तक तेलंगाना सोशल वेलफेयर एंड रेजिडेंशियन इंस्टीट्यूट के सेक्रेट्री रहे हैं। इस दौरान उन्होंने लाखों एससी-एसटी बच्चों की जिंदगी बदल दी थी। इस नाते देश भर के अंबेडकरवादियों के बीच वह खासे लोकप्रिय हैं। ऐसे में चंद्रशेखर आजाद का केसीआर के साथ आने पर देश भर के अंबेडकरवादी सवाल उठा रहे हैं। तो क्या यह राजनीतिक तौर पर चंद्रशेखर के लिए एक और गलत फैसला है। अगर हां, तो चंद्रशेखर आजाद ने कहीं सेल्फ गोल तो नहीं कर लिया।
खुद को अंबेडकरवादी आंदोलन का सिपाही कहने वाला कोई व्यक्ति जब तेलंगाना में जाता है, खासतौर पर हैदराबाद में, तो उसकी एक कोशिश पूर्व आईपीएस अधिकारी और एससी-एसटी सोशल वेलफेयर एंड एजुकेशनल इंस्टीट्यूट के सेक्रेट्री रहे आर.एस.प्रवीण कुमार से मिलने की जरूर होती है। क्योंकि सोशल वेलफेयर इंस्टीट्यूट का सेक्रेट्री रहने के दौरान उन्होंने जिस तरह तेलंगाना में लाखों एससी-एसटी बच्चों की जिंदगी बदल कर रख दी, उसकी चर्चा दुनिया भर में हुई थी।
लेकिन भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद 27 जुलाई को जब हैदराबाद पहुंचे, तो उन्होंने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी कविता से मुलाकात की। वो के. चंद्रशेखर राव, जिसके सामने आर.एस प्रवीण मजबूती से खड़े हैं। आईपीएस की नौकरी छोड़कर बहुजन समाज पार्टी में शामिल होकर राजनीति शुरू करने वाले आर.एस. प्रवीण तेलंगाना के बहुजनों के हकों के लिए लड़ रहे हैं।
तो क्या दिल्ली के जंतर-मंतर पर 21 जुलाई को अपनी ताकत दिखाने के बाद चंद्रशेखर आजाद चार राज्यों के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले जिस तरह राजनीति के पुराने खिलाड़ियों के बीच अपनी धमक कायम करना चाहते थे, उसकी शुरूआत हो गई है? कमोबेश लग तो कुछ ऐसा ही रहा है। लेकिन चंद्रशेखर का यह कदम बहुजनों को रास नहीं आ रहा है और बहुजन समाज के लोग चंद्रशेखर को जमकर ट्रोल कर रहे हैं।
दरअसल कुछ समय पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने संविधान में बदलाव की बात कही थी, जिसका अंबेडकरी समाज के भीतर भारी विरोध हुआ था। उसी के.सी.आर की सरकार का समर्थन करना और उनकी बेटी से मुलाकात करने को बहुजन समाज के लोग पचा नहीं पा रहे हैं।
इंजीनियर स्नेहा नाम की ट्विटर यूजर का कहना है कि बहुजन आंदोलन को कमजोर करने तेलगांना पहुंचे चंद्रशेखर! क्या संविधान बदलने की बात करने वाले KCR को मिलेगा अब भीम आर्मी का साथ? क्या प्रवीण कुमार से डर गए है KCR? क्या KCR चंद्रशेखर का कर रहे है उपयोग?
तो क्या स्नेहा के उठाए सवाल सही हैं? क्या केसीआर आर.एस. प्रवीण के मैदान में उतरने के बाद तेलंगाना में बहुजन समाज पार्टी की बढ़ती ताकत से डरे हुई हैं। और दलित वोटों को अपने पाले में रोके रखने के लिए चंद्रशेखर आजाद के चेहरे का सहारा लेना चाहती है?
इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि राजनीति में कुछ भी यूं ही नहीं होता। यूं ही कोई सहारनपुर से हैदराबाद नहीं पहुंच जाता। और इसकी तस्दीक केसीआर की बेटी कविता जो कि विधान परिषद की सदस्य भी हैं, उनके ऑफिस से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति को देखने से साफ हो जाता है। इस विज्ञप्ति में कहा गया है कि दोनों नेताओं यानी चंद्रशेखर और कविता ने अपनी-अपनी नीतियों और तेलंगाना में बहुजनों और दलितों के लिए राज्य सरकार द्वारा किये जा रहे कार्यक्रमों पर चर्चा की। इसमें कहा गया है कि आजाद ने राज्य सरकार की महत्वकांक्षी दलित बंधु योजना की विशेष प्रशंसा की।
इस विज्ञप्ति से साफ है कि केसीआर की सरकार चंद्रशेखर के सहारे दलितों के लिए चलाई जा रही सरकारी योजनाओं को और हाल ही में हैदराबाद में बनी बाबासाहेब आंबेडकर की 125 फीट ऊंची प्रतिमा को प्रचारित करना चाह रही है। साथ ही बसपा सुप्रीमो मायावती के बरक्स एक अन्य दलित चेहरे चंद्रशेखर की मुहर लगावाना चाह रही है।
अपने इस दौरे में चंद्रशेखर आजाद का बाबासाहेब के स्टैच्यू से करीब चार मिनट का एक वीडियो स्टेटमेंट भी सामने आया है, जिसमें वह केसीआर की सरकार को अपना समर्थन देते हुए दिखाई दे रहे हैं। उसके भविष्य की बेहतर कामना करते हुए नजर आ रहे हैं।
अब अगर चंद्रशेखर इस मुलाकात को गैर राजनीतिक मुलाकात कह कर अपना हाथ झटकने की कोशिश करेंगे तो सवाल उठेगा कि फिर इतनी राजनीतिक बातें क्यों?
इस बीच सोशल मीडिया पर भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद का एक पुराना ट्विट भी वायरल हो रहा है, जिसमें चंद्रशेखर ने केसीआर पर जमकर निशाना साधा था।
27 जनवरी 2020 को किये इस ट्विट में चंद्रशेखर ने तेलंगाना की सरकार को तानाशाह बताया था। उन्होंने ट्विट किया था- तेलंगाना में तानाशाही चरम पर है, लोगों के विरोध प्रदर्शन करने के अधिकार को छीना जा रहा है। पहले हमारे लोगों को लाठियां मारी गई, फिर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। अब मुझे एयरपोर्ट ले आएं हैं, दिल्ली भेज रहे हैं। @TelanganaCMO याद रखे बहुजन समाज इस अपमान को कभी नहीं भूलेगा। जल्द वापिस आऊंगा।
आधुनिक भारत के इतिहास में दिनांक 26.07.1902ई का दिन का काफी महत्व है। इसी दिन राजर्षि छत्रपति शाहू जी महाराज ने ब्राह्मणवादी मनुवादी व्यवस्था के विरुद्ध यहां के मूलनिवासियों के लिए सामाजिक न्याय अर्थात समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा की आधारशिला रखी थीं। आज के दिन हम अपने महानायक कोल्हापुर नरेश शाहूजी महाराज के प्रति मूलनिवासी बहुजन समाज की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि और नमन पेश करते हैं।
ब्राह्मणवादी मनुवादी व्यवस्था ने 3500 वर्षों पूर्व उत्तर वैदिक काल में यहां के मूलनिवासियों अर्थात आज के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्गों एवं महिलाओें को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक , सांस्कृतिक एवं शिक्षा के अधिकारों से वंचित कर दिया था और उनसे मानवीय मूल्यों एवं सम्मान को छीन लिया था। किन्तु महानायक शाहूजी महाराज ने राष्ट्रपिता ज्योतिबा फूले और उनकी पत्नी राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फूले के कार्यों को राजनीतिक शक्ति यानी कानून के जरिए एक निर्णय लेकर बहुजन समाज के उन तमाम गुलामी की जंजीरों को अपने कोल्हापुर राज्य में तोड़ दिया था और 26 जुलाई ,1902 ई में मूलनिवासी बहुजनों लिए 50 प्रतिशत आरक्षण सभी पदों पर नियुक्ति में लागू कर दिया था।
हम सभी जानते हैं कि बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने उनके कार्यों और विचारों को आगे बढ़ाते हुए अपने जीवन भर त्याग एवं संघर्षों के बल पर पूना पैक्ट और भारतीय संविधान के माध्यम से पूरे देश में हम मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों लिए राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक न्याय के दरवाजे खोल दिए। हमें समानता,स्वतंत्रता, भाईचारा, मानवीय प्रतिष्ठा और गरिमा के संवैधानिक अधिकार देकर उन्होंने तथागत बुद्ध,संत कबीर एवं संत रविदास,राष्ट्रपिता ज्योतिबा फूले एवं माता सावित्रीबाई फूले और आधुनिक भारत की नींव रखने वाले छत्रपति शाहूजी महाराज के सपनों को साकार रूप दिए।
आज भी ब्राह्मणवादी मनुवादी पार्टियों एवं शक्तियों द्वारा मूलनिवासी बहुजन समाज के संवैधानिक अधिकारों पर हमले किए जा रहे हैं। किन्तु बहुजन समाज में जो चेतना और जागृति आयी है एवं जिस तरह लोग संगठित हो रहे हैं ,आने वाले दिनों में सभी प्रकार के षड्यंत्रकारी कारनामे विफल साबित होंगे। निश्चित तौर पर आज के दिन हमारे लिए संकल्प लेने का अवसर है कि हम लगातार संघर्ष कर अपने संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित रखेंगे और समतामूलक लोकतांत्रिक भारत का निर्माण करेंगे। इसके लिए आज हम संकल्प लें कि अपने इन अधिकारों एवं मांगों की प्राप्ति के लिए हम लगातार संगठित संघर्ष चलाएंगे —
1.जातिगत जनगणना कराना होगा
2.सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए गठित कोलेजियम सिस्टम को खत्म करो और “भारतीय न्यायिक सेवा आयोग” गठित कर उसके माध्यम से जनसंख्या के अनुपात में जजों की नियुक्ति में आरक्षण लागू करो!
3.सभी आर्थिक संसाधनों-जमीन, जंगल, उद्यमों एवं व्यापारों सहित विकास के कार्यों में सभी श्रेणियों- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्गों एवं अल्पसंख्यक समुदायों को जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण लागू करो!
4.पिछड़े वर्गों( ओबीसी) के लिए जनसंख्या के अनुपात में 54% आरक्षण सभी सेवाओं और शिक्षण संस्थानों में लागू हों!
5.पिछड़े वर्गों के आरक्षण में लागू किए गए क्रीमीलेयर को समाप्त करो!
6.अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के लिए प्रमोशन में आरक्षण लागू करने के लिए अध्यादेश लाओ और संविधान में संशोधन करो!
7.आरक्षण के प्रावधानों और प्रमोशन में आरक्षण को संविधान की 9 वीं अनुसूची में शामिल करो ताकि उसके साथ कोई छेड़छाड़ कोई भी सरकार नहीं कर सके!
8.पूर्व में की गई सामाजिक- आर्थिक जनगणना की रिपोर्ट प्रकाशित करो!
9.सभी निजी क्षेत्रों में भी सभी श्रेणियों के लिए जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व आरक्षण लागू करो!
10.शिक्षा एवं सरकारी संस्थानों का निजीकरण बंद करो!
आइए,हम अपने महानायक और आधुनिक भारत के निर्माता राजर्षि छत्रपति शाहू जी महाराज के प्रति पुनः शत-शत नमन और श्रद्धांजलि अर्पित करें और अपनी उपर्युक्त मांगों की पूर्ति के लिए लगातार संघर्ष करें।
जय शाहूजी महाराज! जय भीम! जय भारत!
विलक्षण रविदासबिहार फुले अम्बेडकर युवा मंचबहुजन स्टूडेंट्स यूनियन, बिहार