टांट्या भील की अनसुनी कहानी

मध्यप्रदेश के उस समय निमाड़ व वर्तमान में खंडवा नाम से पुकारे जाने वाले इस ज़िले की पंधाना तहसील के बडदा गाँव स्थित सन् 1842 में एक यशस्वी बालक ने भील समुदाय (अनुसूचित जनजाति) में जन्म लिया। बचपन में ही माँ का साया सिर से उठ जाने उपरांत टांट्या भील नामक इस मासूम बालक ने अपने किसान पिता भाऊ भील से कहा, “पिताजी एक बात पूछनी है?”
पिता भाऊ भील ने कहा, “पूछो बेटा, क्या पूछना है?”
बालक टांट्या भील ने कहा, “पिताजी भील किसे कहते हैं?”
पिता भाऊ भील ने बालक के गालों को सहलाते हुए कहा, “जान देकर भी जो जल, जंगल और ज़मीन की हिफ़ाजत करते हुए शोषितों की आवाज़ को बुलंद करे।”
बालक टांट्या भील ने वीरतापूर्वक कहा, “मैं करूँगा जल, जंगल, ज़मीन और शोषितों की हिफ़ाजत।”
पिता भाऊ भील ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “जोहार हो।”

पुत्र टांट्या भील को गले से लगाते हुए भाऊ भील ने इसे भाला, तलवार, लाठी, बँदूक, गोफन और तीर – कमान चलाना सिखाया। मुसलमानों के नोगजे पीर में इनके परिवार की बेहद आस्था थी। उन दिनों सामंतवादियों द्वारा बड़े पैमाने पर आदिवासियों की ज़मीनें हड़पी जा रही थी और इनकी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा था। किशोरावस्था से ही टांट्या भील ने दबे – कुचले आदिवासियों को सामंतवादियों के चुंगल से निकालना प्रारंभ कर दिया। जिस कारण सामंतवादियों ने टांट्या भील पर अपराधिक मुकदमा दर्ज़ कराते हुए जेल भिजवा दिया।

उसी दौरान समंतवादियों ने इनकी पुश्तैनी ज़मीन भी हड़प ली। 24 नवम्बर, सन् 1878 को टांट्या भील ने अपने 12 जेल मित्रों के साथ जेल से भागने की योजना बनाई और देर रात लगभग 12:30 बजे जेल की सलाख़ें तोड़कर, बीस फीट ऊँची दीवार फाँद ली। अपने गिरोह के साथ टांट्या भील आगे – आगे और पुलिस पीछे – पीछे। इसके बाद टांट्या भील ने अपने परम मित्र भीमा नायक के साथ मिलकर, समंतवादियों के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया। जख़्मी शेर के रूप में टांट्या भील नाम का यह योद्धा… सामंतवादियों की खोज में इन्हें सबक़ सिखाने निकल पड़ा। बहुत से भील युवाओं ने टांट्या भील के गिरोह में जुड़ते हुए सभी शस्त्रों में निपुणता प्राप्त की और बुलँद आवाज़ में कहा, “जोहार हो।”

टांट्या भील के नेतृत्व में इनके गिरोह ने बड़े पैमाने पर सामंतवादियों की बड़ी – बड़ी हवेलियों को लुटते हुए उस धन को शोषितों में बाँटना प्रारंभ कर दिया। टांट्या भील का नाम सुनते ही सामंतवादियों की हालत पतली हो जाती। टांट्या भील कई बार गिरफ़्तार हुए और प्रशासनिक चुंगल से निकल कर, हवा के झोंके की भाँति फ़रार हुए। दुबले – फुर्तीले टांट्या भील की बँदूक जब भी चलती… सिर्फ़ और सिर्फ़ इंसाफ़ करती। काले सियाह जंगली घोड़ों की सवारी के शौक़ीन टांट्या भील के घोड़े की टापों की ध्वनि सुनते ही सामंतवादी दुबक कर छुप जाते।

नमक के साथ बाजरे की दो रोटियाँ खाने वाले टांट्या भील ने भूख से बिलखते दलितों की थाली में भाँति – भाँति के पकवान सजा दिए। इस योद्धा ने सारी उम्र स्वयं मैले – कुचैले कपड़ों में रहते हुए निर्वस्त्रों को बेशक़ीमती पोशाकों से सजा दिया। महिलाओं का मुँहबोला भाई बनते हुए बड़े स्तर पर इनकी लड़कियों की निःशुल्क शादियाँ कराई। इसलिए ये सभी लड़कियाँ टांट्या भील को मामा कहने लगी।

एक दिन समंतवादियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के साथ मिलकर, गणेश नाम के एक मुखबिर की पत्नी को मोहरा बनाया। जिस कारण इन्होंने टांट्या भील के हाथ पर राखी बांधने के उद्देश्य से अपने घर बुलाया और राखी की जगह हथकड़ी बंधवा दी। टांट्या भील को मोटी – मोटी बेड़ियों में जकड़ लिया गया। दूर तक इनका जुलूस निकाला गया और 19 अक्टूबर, सन् 1889 को जबलपुर सैशन कोर्ट ने इन्हें फ़ांसी की सज़ा सुनाई। दा न्यूयार्क टाइम्स में 10 नवंबर, सन् 1889 को इनकी ख़बर सहित फ़ोटो भी अख़बार में छपी और 04 दिसंबर, सन् 1889 को इन्हें फ़ांसी दे दी गई। समंतवादियों के इशारे पर, इस महान् भील योद्धा के पार्थिव शरीर को खुर्दबुर्द अवस्था में इंदौर शहर के पातालपानी रेलवे स्टेशन पर फेंक दिया गया।

नोट: बहुजन संघर्ष उपरांत टांट्या भील को शहीद का दर्ज़ा मिला था। सरकार ने अब इनकी कहानियाँ पाठ्यक्रम में शामिल करते हुए इनके नाम पर ‘जननायक टांट्या भील’ नामक एक लाख़ रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया है।

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