15 अगस्त 2023 को जब भारत अपनी आजादी के 77वें वर्ष का जश्न मनाने की तैयारी में था, उससे ठीक एक दिन पहले 14 अगस्त को भारत का संविधान बदलने को लेकर एक शिगूफा फिर से छोड़ दिया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के अखबार लाइव मिंट में लेख लिखकर संविधान बदलने की वकालत की।
उनका तर्क था कि हमारा मौजूदा संविधान काफी हद तक 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है। अपने इसी तर्क के आधार पर वह संविधान बदलने की बात कर रहे थे। कुछ संशोधन नहीं, आधा नहीं, बल्कि पूरा का पूरा संविधान।
पीएम मोदी के सलाहकार ने लेख में आगे कहा कि हमें पहले सिद्धांतों से शुरुआत करनी चाहिए जैसा कि संविधान सभा

की बहस में हुआ था। 2047 के लिए भारत को किस संविधान की जरूरत है? देबरॉय का कहना है कि कुछ संशोधनों से काम नहीं चलेगा। हमें ड्राइंग बोर्ड पर वापस जाना चाहिए और पहले सिद्धांतों से शुरू करना चाहिए, यह पूछना चाहिए कि प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब है। हम लोगों को खुद को एक नया संविधान देना होगा।
उन्होंने यह भी लिखा कि 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित एक आयोग द्वारा एक रिपोर्ट आई थी, लेकिन यह आधा-अधूरा प्रयास था।
साफ है कि देश के प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष ने जब यह बात छेड़ी तो इसका सीधा कनेक्शन सरकार और प्रधानमंत्री मोदी से समझा गया। बहस छिड़नी थी, बहस छिड़ी, तमाम लोगों ने बिबेक देबरॉय की लानत-मलानत की। लेकिन सवाल यह रह जाता है कि देश चलाने में प्रधानमंत्री को सलाह देने वाले बिबेक देबरॉय जैसा अहम शख्स देश का संविधान बदलने की बात करता है, तो क्या वह ऐसे ही है?
एक शब्द होता है, लिटमस टेस्ट। राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने उसी की ओर इशारा किया। मनोज झा का कहना है कि यह सारी बातें बिबेक देबरॉय की जुबान से बुलवाया गया है। ठहरे हुए पानी में कंकड़ डालो और अगर लहर पैदा कर रही तो और डालो और फिर कहो कि अरे ये मांग उठने लगी है।
लेकिन बिबेक देबरॉय के साथ उल्टा हो गया। लहर पैदा नहीं हो पाई। उल्टे उनकी फजीहत हो गई। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की वकालत करने वाले और संविधान को लेकर अक्सर गलत बयानी करने वाले दिग्गजों का साथ भी बिबेक देबरॉय को नहीं मिला। खुद को घिरता देख और लहर उठता नहीं देख उन्होंने मांफी मांग ली।
आंबेडकरवादियों ने धर दबोचा तो @bibekdebroy कह रहे हैं वह तो मेरे निजी विचार थे। एकदम शुद्ध पर्सनल मैटर था जी!
तो लेख में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार वाला परिचय क्या …….. के लिए दिया था?
सब कुछ संशोधन करने की इतनी बड़ी सुविधा संविधान निर्माताओं ने खुद अनुच्छेद 368 में दी… pic.twitter.com/mkRcsW6a5A
— Dilip Mandal (@Profdilipmandal) August 17, 2023
लेकिन क्या यह पहला मौका था जब संविधान बदलने की मांग की गई? जी नहीं।
सितंबर 2017 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने एक बयान में कहा था कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा था कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और इसे बदले जाने की ज़रूरत है। मोहन भागवत के मुताबिक आज़ादी के 70 साल बाद इस पर ग़ौर किया जाना चाहिए।
इसके तीन महीने बाद ही 28 दिसंबर, 2017 को भाजपा के तात्कालिन केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कहा था कि वो सत्ता में संविधान बदलने के लिए हैं। We are here to change Constitution.
फरवरी 2023 में यही बुखार तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव को चढ़ा। केसीआर ने भी देश के लिए एक नए संविधान की आवश्यकता पर जोर दिया था।
इसके अलावे कुछ छुटभैये नेता और कथावाचक अक्सर संविधान बदलने की मांग करते ही रहते हैं। लेकिन केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े से लेकर पीएम मोदी के सलाहकार बिबेक देबरॉय तक जिसने भी संविधान बदलने की मांग की, ऐसा विरोध हुआ कि उन्हें मांफी मांगनी पड़ी।
लेकिन जिस तरह बार-बार संविधान में बदलाव की वकालत की जाती है, सवाल उठता है कि क्या यह संभव है? और अगर संभव है भी तो कितना?
दरअसल आरएसएस जिस तरह के बदलावों की बात कर रहा है। या उसकी विचारधारा के नेता जैसा संविधान बनाना चाहते हैं, वो दरअसल सेक्यूलर संविधान को ख़त्म करके हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। लेकिन यह संभव ही नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फ़ैसलों में कहा है कि धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का मूल आधार है और इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। चाहे किसी चुनी हुई सरकार के पास दो तिहाई बहुमत ही क्यों ना हो, संविधान को इस तरह से नहीं बदला जा सकता कि उसके मूल आधार ही ख़त्म हो जाएं।
1. आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन बिबेक देबरॉय द्वारा अपने लेख में देश में नए संविधान की वकालत करना उनके अधिकार क्षेत्र का खुला उल्लंघन है जिसका केन्द्र सरकार को तुरन्त संज्ञान लेकर जरूर कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि आगे कोई ऐसी अनर्गल बात करने का दुस्साहस न कर सके। (1/2)
— Mayawati (@Mayawati) August 18, 2023
मोहन भागवत के संविधान बदलने वाले बयान के बाद 15 सितंबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने बीबीसी हिन्दी पर इस बारे में एक आर्टिकल लिखा था। उनका कहना था कि, संविधान बदलने की प्रक्रिया की बात करें तो संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा में संविधान में संशोधन का प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होता है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता, लोगों में बराबरी, अभिव्यक्ति और असहमति के हक़ जैसी बुनियादी बातों में बदलाव नहीं किया जा सकता। कई संशोधनों में राज्यों की सहमति की भी ज़रूरत होती है। प्रशांत भूषण का कहना था कि आरएसएस भारतीय संविधान के मूल आधार को ही बदल देना चाहता है। वो हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। लेकिन उनको 100 प्रतिशत बहुमत मिले, तब भी वो ऐसा बदलाव नहीं कर सकते।
यानी साफ है कि संविधान को पूरी तरह बदल डालना फिलहाल मुमकिन नहीं है। वैसे भी मुट्ठी भर लोग संविधान बदलने की वकालत करते हैं जबकि करोड़ों लोग भारतीय संविधान को बचाने के लिए खड़े हैं। जिनकी हुंकार हमेशा संविधान बदलने की बात कहने वालों को मांफी मांगने को मजबूर कर देती है।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
