जिस महिषासुर का दुर्गा ने वध किया उन्हें आदिवासी अपना पूर्वज और भगवान क्यों मानते हैं?

देश भर में दुर्गोत्सव के साथ दशहरा की भी धूम रही. पर झारखंड में गुमला की सुदूर पहाड़ियों पर बसने वाले आदिम जनजाति असुर दस दिनों तक शोक में डूबे रहे. दरअसल महिषासुर को अपना पुरखा मानने वाले असुरों को इसका दुख है कि उनके पूर्वज को छल से मारा गया.

महिषासुर का शहादत दिवस झारखंड के सिंहभूम इलाके में भी मनाया गया. कई जगहों पर महिषासुर पूजे जाते रहे हैं.

इसी सिलसिले में नवरात्र के नवमी पूजन के दिन यानि शुक्रवार को चाकुलिया में आयोजित शहादत दिवस कार्यक्रम में आदिवासी संथाल, भूमिज, कुड़मी के साथ दलित समुदाय के लोग भी शामिल हुए.

महिषासुर को पूजे जाने की खबर झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कई आदिवासी इलाकों से भी मिलती रही है. अलबत्ता बंगाल के काशीपुर में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन बड़े पैमाने पर होने लगा है.

सखुआपानी गुमला की सुषमा असुर कहती हैं कि उनकी उम्मीदें बढ़ी है कि अब देश के कई हिस्सों में आदिवासी इकट्ठे होकर पुरखों को शिद्दत से याद कर रहे हैं.

झारखंड की राजधानी रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गुमला जिले के सखुआपानी, जोभापाट आदि पहाड़ी इलाके में असुर बसते हैं. इंटर तक पढ़ी सुषमा कथाकार हैं और वे आदिवासी रीति, पंरपरा, संस्कृति को सहेजे रखने के अलावा असुरों के कल्याण व संरक्षण पर काम करती हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में असुरों की आबादी महज 22 हजार 459 है. झारखंड जनजातीय शोध संस्थान के विशेषज्ञों का मानना है कि आदिम जनजातियों में असुर अति पिछड़ी श्रेणी में आते हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था न्यूनतम स्तर पर है. असुरों में कम ही लोग पढ़े-लिखे हैं.

जगन्नाथपुर कॉलेज में इतिहास विभाग के प्राध्यापक और आदिवासी विषयों के जानकार जगदीश लोहरा का कहना है कि असुरों के अलावा कई और आदिवासी समुदाय भी मानते हैं कि वे लोग महिषासुर के वंशज हैं. इन समुदायों को ये भी जानकारी मिलती रही है कि वह आर्यों-अनार्यों की लड़ाई थी. इसमें महिषासुर मार दिए गए. कई जगहों पर लोग महिषासुर को राजा भी मानते हैं.

आदिवासी विषयों के एक अन्य जानकार लक्ष्मीनारायण मुंडा के मुताबिक इसे आदिवासी समुदाय द्वारा उनके पुरखों के इतिहास को सामने लाने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए. क्योंकि कथित तौर पर मिथकों के जरिए एक बड़े तबके की भावनाएं दबाई जाती रही हैं.

छल से मारे गए!

सुषमा असुर कहती हैं कि महिषासुर की याद में नवरात्र की शुरुआत के साथ दशहरा यानि दस दिनों तक वे लोग शोक मनाते हैं.

इस दौरान किसी किस्म की रीति-रस्म या परपंरा का निर्वहन नहीं होता. बड़े-बुजुर्गों के बताए गए नियमों के तहत उस रात एहतियात बरते जाते हैं जब महिषासुर का वध हुआ था. मूर्ति पूजक नहीं हैं, लिहाजा महिषासुर को दिल में रखते हैं.

बकौल सुषमा किताबों में भी पढ़ा है कि देवताओं ने असुरों का संहार किया, जो हमारे पूर्वज थे. सुषमा का जोर इस बात पर है कि वह कोई युद्ध नहीं था.

वो बताती हैं कि महिषासुर का असली नाम हुडुर दुर्गा था. वह महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे. इसलिए दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई.

वाकिफ कराने की चुनौती

इस असुर महिला के मुताबिक आने वाली पीढ़ी को पुरखों के द्वारा बताई गई बातों तथा परंपरा को सहेजे रखने के बारे में जानकारी देने की चुनौती है. कई युवा लिखने-पढ़ने को आगे बढ़े भी, पर पिछली कतार में रहने की वजह से जिंदगी की मुश्किलों के बीच ही वे उलझ जा रहे हैं. वे खुद भी कठिन राहों से गुजरती रही है.

इसी इलाके से मिलन असुर को विश्वास है कि उनके पुरखों का नरसंहार किया गया. इसलिए शोक मनाना लाजिम है और इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए , जबकि नरसंहारों के विजय की स्मृति में दशहरा मनाया जाता है.

गौरतलब है कि साल 2008 में विजयादशमी के मौके पर झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने रांची के मोराबादी मैदान में होने वाले रावण दहन समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि रावण आदिवासियों के पूर्वज हैं. वे उनका दहन नहीं कर सकते.

जबकि पिछले दिनों तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्‍मृति ईरानी ने महिषासुर को ‘शहीद’ के तौर पर बताए जाने पर काफी नाराजगी जताई थी.

पुरखे-परंपरा के लिए संघर्ष

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति ‘अखड़ा’ की अगुआ वंदना टेटे कहती हैं कि आप इसे पूर्वज-पंरपरा को याद रखने के तौर पर देख सकते हैं. बेशक आदिवासियों को अपने रूट्स में जाने की जरूरत है, ताकि एक ठोस नतीजे पर पहुंचा जा सके, क्योंकि कई चीजें गुम होती जा रही है और कई विषयों को अलग-अलग तरीके से उनके सामने रखा जाता रहा है.

बकौल वंदना वे अक्सर असुरों के बीच जाती रही हैं. वाकई में वे लोग महिषासुर को अपना पूर्वज मानते रहे हैं साथ ही कई मौके पर भाषा, संस्कृति, पंरपरा और पुरखौती अधिकारों के लिए सृजनात्मक संघर्ष करने के लिए खड़े होते हैं.

दसाई और काठी नृत्य

उधर झारखंड के चाकुलिया में देशज संस्कृति रक्षा मंच के बैनर तले महिषासुर शहादत दिवस मनाने वालों में कपूर टुडू ऊर्फ कपूर बागी बताते हैं कि दशहरा के मौके पर संथाल समाज के लोग दशकों से नृत्य-गीत के माध्यम से महिषासुर के मारे जाने पर दुख जताते हैं.

इसे दसाई और कांठी नाच कहा जाता है. इन समुदायों में शोक गीत के बोल-‘ हर रे हय रे हय ओकार नमरे हय, ओकाय नमरे हुदुड़ दर्गी’… लोकप्रिय हैं.

उनका जोर है कि आदिवासियों को विश्वास है कि महिषासुर फिर लौटेंगे, क्योंकि उनके राजा को छल-कपट से मारा गया. रावण वध जैसी पौराणिक घटनाओं को भी मिथकीय रूप दिया जाता रहा है.

रावण दहन क्यों?

सिहंभूम इलाके के कुमारचंद्र मार्डी कहते हैं कि महिषासुर वीर पुरूष थे और छल से ही मारे गए. बुराई पर अच्छाई की जीत बताकर और रावण का पुतला बनाकर जलाये जाने को भी वे लोग सहज तौर पर नहीं लेते, क्योंकि रावण भी हमारे पूर्वज थे.

मार्डी के मुताबिक इस पूरे मामले में बड़ा इतिहास है, जिसे जानने की जरूरत है.मार्डी इस मुहिम को सकारात्मक बताते हैं कि कुड़मी-भूमिज समेत कई समाज-समुदाय के लोग भी इस मसले पर उनका साथ देते रहे हैं.

मार्डी कहते हैं कि अब उत्तर भारत में भी महिसासुर का शहादत दिवस मनाया जाने लगा है.

देशज संस्कृति रक्षा मंच से ही जुड़े दिलीप महतो बताते हैं कि कुड़मी समाज में इस तरह की परंपरा रही है. वे लोग किसी देवी की पूजा या उत्सव का विरोध नहीं करते, लेकिन जिस तरह से महिषासुर का वध दर्शाया जाता है, वह आहत करता रहा है.

इस बारे में असलियत सामने लाये जाने की जरूरत है. क्योंकि इतिहास को गलत तरीके से दर्शाया जा रहा है. हालांकि इस विषय पर बहसें होती रही है.

इस बीच असुर आदिवासी विजडम डॉक्यूमेटेंशन इनीसियेटिव में खंडवा मध्य प्रदेश की आदिवासी महिला सुंगधी वीडियो के मार्फत यह बताने की कोशिश कर रही हैं वे लोग असुरों की संतान हैं तथा मेघनाद को पूजते हैं.

लिहाजा नस्लीय भेदभाव और इंसानी गरिमा के हनन की कोशिशों के खिलाफ वे आवाज मुखर करना चाहती हैं.

नीरज सिन्हा का यह लेख ‘द वायर’ से साभार है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं)

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