सच जानने के हमारे अधिकार को किस एक्ट के तहत बाधित किया गया है?

प्रमोद रंजन फरवरी, 2020 में जब अखबारों में दुनिया में एक नए वायरस के फैलने की सूचना आने लगी और मेरे सहकर्मियों के बीच इसकी चर्चा होने लगी तो मैंने इन खबरों के संबंध में प्रमाणिक सूचनाएं पाने के लिए विश्व स्वास्थ संगठन की वेबसाइट का रूख किया था। यह वह समय था, जब हम मज़ाक-मज़ाक में कहा करते थे कि शायद आने वाले समय में हाथ न मिलाकर, एक दूसरे को नमस्कार करना होगा। उस समय कौन जानता था कि जल्दी ही वह दिन आने वाला है, जब ऐसे नियम बना दिए जाएंगे, जिसमें मास्क नहीं पहनने पर दंडित किए जाने का प्रावधान होगा। उस समय तक कार्यालय में उपस्थिति के लिए बायोमैट्रिक्स पंच मशीन लगाए जाने का जिक्र आने पर हम इसके औचित्य और दुष्परिणामों पर चर्चा किया करते थे। उस समय कौन जानता था कि मोबाइल फोनों में एक जासूस-एप रखना आवश्यक कर दिया जाएगा और, बायोमैट्रिक्स मशीन तो कौन कहे, हम हर प्रकार के सर्विलांस के लिए राजी हो जाएंगे। मेरे मित्रों का विशाल संसार हिंदी पट्टी की पत्रकारिता, समाज-कर्म और अकादमियों में फैला है, लेकिन इनमें एकाध को छोड़कर कोई भी नहीं है, जो इनके दूरगामी प्रभावों को लेकर चिंतित हो। एक शहर में चेहरे की पहचान करने वाली कैमरे सड़कों पर लगा दिए गए हैं, नागरिकों पर निगरानी रखने के लिए कैमरे लगे ड्रोनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। हमारी हिंदी पट्टी में सवाल उठाने वालों की इतनी कमी क्यों है? यह कमी की ध्वनि हमारी भाषा में भी झलकती है। इसमें ऐसे शब्दों का टोटा है, जाे इस सर्वसत्तावाद सर्विलांस के खतरे को ठीक से व्यक्त कर सके। क्या इसकी जड़ें हमारे किसी छुपे हुए संस्कार में है? एक बीमारी आई, जिसे महामारी कहा गया और हम पर कथित “विशेषज्ञता” और “वैज्ञानिक-तथ्यों” की बमबारी की जाने लगी। हम घबराकर घरों में दुबक गए, लेकिन क्या हमें इस बम-बारी के स्रोत और उद्देश्यों की ओर नहीं देखना चाहिए था? हमें बताया गया कि दुनिया भर में यही हो रहा है। लेकिन इंटरनेट के जमाने में यह जानना हमारे लिए संभव नहीं था कि दुनिया में कहीं भी अपने नागरिकों पर ऐसा कहर नहीं ढाया जा रहा है। भारत के विश्वगुरू होने का सबसे अधिक दावा हिंदी पट्टी से उठता है, जिसके आधार हममें से कुछ वेदों में तो कुछ बौद्ध दर्शन में तलाशते हैं। हमने यह क्यों नहीं कहा कि हमें दूसरों का पिछलग्गू नहीं बनना है। हमें कहा गया कि यह बीमारी जानलेवा है, और हमने मान लिया। हम यह देखने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे कि इसी हिंदी पट्टी में टीबी, चमकी बुखार, न्यूमोनिया, मलेरिया आदि से मरने वालों की संख्या कितनी है। एक अनुमान के मुताबिक इन बीमारियों से सिर्फ हिंदी पट्टी में हर साल 5 से 7 लाख लोग मरते हैं। हमें बताया गया कि यह बीमारी बहुत तेजी से फैलती है, लेकिन हम यह क्यों नहीं देख रहे कि इसका आर (R) फैक्टर (संक्रमण-दर) टीबी से पांच गुणा कम है। हमें कहा गया कि इससे बहुत सारे लोग मर रहे हैं। हमने यह देखने की कोशिश क्यों नहीं की कि इन्हीं कुछ महीनों में हमारे आसपास कितने लोग कोविड से मरे और कितने लोग लॉक-डाउन से? हमें कहा गया कि यह खतरनाक है, क्योंकि यह ‘वायरस’ से होता है और लाइलाज है। हमने क्यों यह सवाल नहीं उठाया कि हिंदी पट्टी के सैकड़ों गरीब बच्चों को मारने वाला चमकी बुखार (एईएस) एवं जापानी इंसेफ्लाइटिस (जेई) भी वायरस से होता है और यह भी लाइलाज है। कोविड-19 की अधिकतम मृत्यु दर (CFR) हमें 3 प्रतिशत से कम बताई गई, जबकि इन बुखारों में मृत्यु दर 30 प्रतिशत से भी अधिक है। हमने क्यों नहीं पूछा कि गरीबों को मारने वाली बीमारियों से संबंधित आंकड़ों को छुपाने के जो आरोप भारत सरकार पर रहे हैं, उनका सच क्या है? हम यह सवाल क्याें नहीं उठा रहे कि न्यूमोनिया, इंफ्लुएंजा और हृदय-घात आदि से मरने वालों की संख्या को क्यों कोविड-19 की मौतों में जोड़ा जा रहा है? इन भ्रामक आंकड़ों से किनके खिलाफ युद्ध लड़ा जा रहा है? हमें कहा जा रहा है कि यह विश्व स्वास्थ संगठन के दिशानिर्देर्शों पर हो रहा है। तो हम उनसे यह क्यों नहीं पूछ रहे कि इस संगठन की विश्वसनीयता कितनी है? क्या यह झूठ है कि इस संगठन पर बिग फर्मा के हितों का ख्याल रखने के आरोप हैं? इस संबंध में जर्मनी में शोधरत मेरे एक मित्र रेयाज-उल-हक एक मेल लिखा, जो लिखा है, उसे यहां दे देना प्रासंगिक होगा। उन्हाेंने मेरा ध्यान इस ओर दिलाया है कि गरीब देशों में होने वाली इन बीमारियों की विश्व स्वास्थ संगठन आदि द्वारा की जाने वाली उपेक्षा की वजह यह है कि पश्चिमी देशों ने इन बीमारियों और उनकी वजहों पर कमोबेश क़ाबू पा लिया है। साफ़ पानी की आपूर्ति, पोषण और पर्याप्त भोजन और स्वस्थ्य जीवन शैली, मज़बूत स्वास्थ्य सेवाएँ और इलाज की सुविधा से युक्त ये देश अब हैज़ा, टीबी आदि से परेशान नहीं होते। मलेरिया और यहाँ तक कि एड्स भी अब कोई बड़ी मुश्किल नहीं है इन देशों के लिए। लेकिन वे उन बीमारियों से डरते हैं जिन पर इनकी कोई पकड़ नहीं है। इसलिए ये संक्रामक सार्स और कोरोना से डर जाते हैं, क्योंकि अभी इनके पास उसका कोई उपाय नहीं है। चूंकि इन पश्चिमी देशों का दुनिया में दबदबा है, इनकी प्राथमिकताएँ सब लोगों की प्राथमिकताएँ बन जाती हैं। इसलिए अब कोरोना सबके लिए ख़तरा है। एक बार इसका टीका और इलाज इनको मिल जाने दीजिए, फिर कोरोना से कौन मरता और जीता है दुनिया में, इनको इसकी कोई परवाह भी नहीं होगी। ..आज यह यह यूरोप और अमेरिका की बीमारी है। जब तक यह चीन तक सीमित थी, इनको इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था। हम उनसे क्यों नहीं पूछ रहे कि इन यूरोपीय देशों की समस्याओं को आपने हमारे सिर पर क्यों थोप दिया? इसके अलावा, हम उनसे यह भी तो पूछ सकते हैं कि आप सोशल-मीडिया पर कथित तौर पर कथित ‘इंफोडेमिक’ फैलाने वालों पर कार्रवाई कर रहे हैं, लेकिन उन मीडिया संस्थानों पर क्यों कोई कार्रवाई नहीं कर रहे, जो विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा कही गई बातों को चुनिंदा रूप में प्रकाशित करते हैं? पिछले चार महीने से डबल्यू.एच.ओ. कोविड-19 के संबंध में रोजना प्रेस बीफिंग करता है। इस वर्चुअल प्रेस बीफ्रिंग का प्रसारण उसके मुख्यालय, जेनेवा (स्विटज़रलैंड) से उसके सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर होता है, जिसमें दुनिया भर से पत्रकार भाग लेते हैं। इस ब्रीफिंग के दौरान संगठन के डायरेक्टर जनरल टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस ने जब-जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ की है, तब-तब भारत के समाचार-माध्यमों में प्रसन्नता से खिली हुई खबरें विस्तार से प्रसारित हुई हैं। 30 मार्च को किसी भारतीय पत्रकार (उनका नाम फोन नेटवर्क की गड़बड़ी के कारण ठीक से सुना नहीं जा सका था) ने इस प्रेस ब्रीफिंग में डबल्यू.एच.ओ. के पदाधिकारियों से कहा कि आपको ज्ञात होना चाहिए कि भारत लॉकडाउन के दौरान अपने प्रवासी मजदूरों के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने को लेकर अभूतपूर्व मानवीय संकट देख रहा है। मैं यह जानता हूं कि आपको किसी देश विशेष पर टिप्पणी करना पसंद नहीं है,… लेकिन यह एक अभूतपूर्व मानवीय संकट है। हमारी सरकार को आपकी क्या सलाह होगी?” चूंकि इस दौरान भारत में गरीबों-मजदूरों के ऊपर जिस प्रकार की अमानवीय घटनाएं घट रहीं थीं, और उसकी जो छवियां सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आ रहीं थीं, उसने सबको मर्माहत और चौकन्ना कर दिया था। लाखों की संख्या में मजदूर, जिनमें बच्चे, बूढ़े  महिलाएं (जिनमें बहुत सारी गर्भवती महिलाएं भी थीं) सभी शामिल थे, हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर पैदल निकल पड़े थे, जिन्हें रोकने के लिए जगह-जगह सीमाएं सील की जा रहीं थीं। हजारों लोग अलग-अलग शहरों में से अपने गांवों के लिए निकलना चाह रहे थे, लेकिन पुलिस उन पर डंडे बरसा रही थी। ऐसा लग रहा था कहीं गृह-युद्ध जैसे हालात न पैदा हो जाए! डबल्यू.एच.ओ. के अधिकारी इससे संबंधित प्रश्न आने पर खुद को रोक नहीं पाए। डबल्यू.एच.ओ के एग्ज़ीक्युटिव डायरेक्टर माइकल जे. रयान ने इस प्रश्न के उत्तर में लॉकडाउन का समर्थन किया लेकिन यह भी कहा कि देशों को अपने विशिष्ट आवश्यकताओं को देखते हुए सख्त या हल्का लॉकडाउन लगाना चाहिए और हर हाल में प्रभावित लोगों के मानवाधिकार का सम्मान करना चाहिए। माइकल रयान के बाद संगठन के डायरेक्टर जनरल डॉ. टेड्रोस ने भी भावुकता भरे शब्दों में कहा कि मैं अफ्रीका से हूं, और मुझे पता है कि बहुत से लोगों को वास्तव में अपनी रोज की रोटी कमाने के लिए हर रोज काम करना पड़ता है। सरकारों को इस आबादी को ध्यान में रखना चाहिए।मैं एक गरीब परिवार से आता हूं और मुझे पता है कि आपकी रोजीरोटी की चिंता करने का क्या मतलब है ! सिर्फ जी.डी.पी. के नुकसान या आर्थिक नतीजों को ही नहीं देखा जाना चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि गली के एक व्यक्ति के लिए इसका [लॉकडाउन का] क्या अर्थ है  !..मेरी यह बात सिर्फ भारत के बारे में नहीं है,यह दुनिया के सभी देशों पर लागू होता है।विश्व स्वास्थ संगठन के इस बयान को भारतीय मीडिया में कहीं जगह नहीं मिली। लेकिन इस बयान के बाद भारत सरकार सक्रिय हुई और लॉकडाउन के दौरान उठाए गए कथित कदमों को प्रेस ब्रीफिंग में रखने के लिए डबल्यू.एच.ओ पर दबाव बनाया। परिणामस्वरूप 1 अप्रैल, 2020 की प्रेस ब्रीफिंग में डब्लूएचओ प्रमुख डॉ. टेड्रोस ने भारत सरकार द्वारा जारी किए गए राहत पैकेज के बारे में जानकारी दी। यह वह पैकेज था, जिसे भारत सरकार पांच दिन पहले 26 मार्च को ही घोषित कर चुकी थी। टेड्रोस ने कहा किभारत में, प्रधानमंत्री मोदी ने 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर के पैकेज की घोषणा की है, जिसमें 800 मिलियन वंचित लोगों के लिए मुफ्त भोजन, राशन; 204 मिलियन गरीब महिलाओं को नकद राशि हस्तांतरण और 80 मिलियन घरों में अगले 3 महीनों के लिए मुफ्त खाना पकाने की गैस शामिल है।..इसके अलावा इंडिया टुडे के पत्रकार अंकित कुमार के एक प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि भारत में लॉकडाउन के परिणामों के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन जो जोखिम में हैं उन पर लॉकडाउन के प्रभावों को सीमित करने के लिए भारत ने बड़ा प्रयास किया है। अगले दिन भारत के सभी हिंदीअंग्रेजी समाचार माध्यम इस खबर से अटे पड़े थे कि डबल्यू.एच.ओ. ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की है, और कहा है प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोरोना के खिलाफ उठाए गए कदम अच्छे हैं। अनेक न्यूज चैनलों ने डबल्यू.एच.ओ. के वक्तव्य की रिर्पोटिंग करते हुए यहां तक कहा कि कोरोना वायरस को कैसे रोका जाए इसके लिए पी.एम. मोदी और उनके विशेषज्ञों की एक टीम लगातार काम कर रही है। 21 दिन के लॉकडाउन का फैसला भी पी.एम. मोदी ने अपनी इसी टीम की सलाह पर लिया है। प्रधानमंत्री हर रोज करीब 17-18 घंटे काम कर रहे हैं। कोरोना के खिलाफ संघर्ष में विश्व स्वास्थ संगठन भी पी.एम. मोदी और भारत की तारीफ कर चुका है।ये वही मीडिया संस्थान थे, जिन्होंने डब्लूएचओ द्वारा दी गई मानवाधिकारों का ख्याल रखने की सलाह को प्रकाशित करने से परहेज किया था। लॉकडाउन से दुनिया के अनेक देशों की बर्बादी के बाद अब विश्व स्वास्थ संगठन कह रहा है कि उसने लॉकडाउन की सलाह नहीं दी थी। हम अपनी सरकार से क्यों नहीं पूछ रहे हैं कि भारत जैसे गरीबों की विशाल जनसंख्या वाले देश में, जहां अधिकांश लोग रोज की रोटी कमा कर खाते हैं, वहां लॉकडाउन का मतलब क्या होगा, अगर आपको यह पता नहीं था, तो आपके निर्देशों के सही साबित होने की क्या गारंटी है? स्वीडन, जापान, तंजानिया, बेलारूस, निकारगुआ, यमन आदि देशों ने या तो बिल्कुल लॉकडाउन नहीं किया, या फिर ऐसे नियम बनाए, जिनसे नागरिकों की स्वतंत्रता कम से कम बाधित हो। भारत इस राह पर क्यों नहीं चला? हम क्यों नहीं पूछ रहे कि जब कई देशों ने मास्क को जनता के लिए आवश्यक नहीं बनाया है और कोविड-19 के अधिक फैलने के कोई प्रमाण नहीं हैं, तो आपके पास इसके लिए कौन-सा ‘वैज्ञानिक’ आधार है? हम क्यों नहीं पूछ रहे हैं कि क्या यह वायरस निशाचर है, जो आपने रात का कर्फ्यू लगाया है? इसका क्या वैज्ञानिक आधार है? आप क्यों भय को बरकरार रखना चाहते हैं? आप कहते हो कि आपको भारत की जनता पर भरोसा नहीं है। यह अशिक्षित, अविवेकी, अराजक है, यूरोप की तरह सभ्य नहीं है। आपके पास इसके पक्ष में क्या प्रमाण हैं? क्या यह सच नहीं है कि देशव्यापी लॉकडाउन से पहले ही भारत में लोगों ने बाहर निकलना बहुत कम कर दिया था। लॉकडाउन से पहले ही कम सवारी मिलने के कारण सैकड़ों ट्रेनें कैंसिल करनी पड़ीं थीं। यह देशवासियों के उस अनुशासन और विवेक का परिचायक था। इसके बावजूद उनपर लॉकडाउन क्यों थोपा गया? हमें यह सवाल भी अवश्य ही उठाना चाहिए कि सच जानने के हमारे जन्मसिद्ध अधिकार को किस एक्ट के तहत बाधित किया जा रहा है? हम क्यों नहीं पूछ रहे कि इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च का बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन से क्या रिश्ता है? कोविड-19 से संबंधित डबल्यू.एच.ओ. की जिस प्रेस बीफ्रिंग का जिक्र मैंने आरंभ में किया, उसमें 10 अप्रैल, 2020 को स्विटज़रलैंड की एक न्यूज वेबसाइट ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ के संपादक और सह-संस्थापक बेन पार्कर ने बिल गेट्स के बारे में एक सवाल पूछा था। डबल्यू.एच.ओ. के पदाधिकारियों ने उनके प्रश्न का उत्तर जिस तत्परता से दिया, वह तो देखने लायक था ही, साथ ही प्रश्नकर्ता के बारे में पड़ताल से यह भी संकेत मिलता है कि कितने-कितने छद्म रूपों से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के पक्ष में खबरों के प्रसारण को सुनिश्चित किया जा रहा है। बेन पार्कर ने पूछा थ किहम बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, वैक्सीन और आईडी 2020 नामक एक डिजिटल पहचान परियोजना के आसपास बहुतसी अफवाहों और कांस्पीरेसी थ्योरी देख रहे हैं। क्या आप इन नई भ्रामक सूचनाओं पर नजर रख रहे हैं तथा इन्हें हटाने के लिए कुछ कर रहे हैं?” इस प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि हम बिल एंड मिलिंडा गेटस फाउंडेशन के कृपापूर्वक समर्थन के लिए आभारी हैं। हम निश्चित रूप से उस प्लेटफार्म को देखेंगे, जिसका आपने उल्लेख किया है। हम लगातार भ्रामक सूचनाओं से निपटने के लिए कदम उठा रहे हैं तथा उन्हें हटाने के लिए डिजिटल क्षेत्र की कई कंपनियों के साथ काम कर रहे हैं। बेन पार्कर के सवाल पर डॉ. टेड्रोस ने भी अपनी बात विस्तार से रखी और गेट्स की प्रशंसा के पुल बांध दिए। उन्होंने कहा कि मैं अनेक वर्षो से बिल और मिलिंडा को जानता हूं। ये दोनों मनुष्य अद्भभुत हैं।..मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि इस कोविड19 महामारी के दौरान उनका समर्थन वास्तव में बड़ा है। हमें उनसे वह सभी सहायता मिल रही है, जिनकी हमें आवश्यकता है। हमारा साझा विश्वास है कि हम इस तूफान को मोड़ सकते हैं। .. गेट्स परिवार के योगदान से दुनिया परिचित है, उन्हें प्रशंसा और सम्मान मिलना ही चाहिए  (जोर हमारा) प्रश्नकर्ता बेन पार्कर के बारे में गूगल पर सर्च करने पर पता चलता है कि उनका दुनिया भर में मानवीय संकटों से प्रभावित लाखों लोगों की सेवा में स्वतंत्र पत्रकारिताका संस्थान ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ मुख्य रूप से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन के पैसे से चलता है। वह उनका सबसे बड़ा डोनर है। इसके एवज में प्रश्नकर्ता बेन पार्कर टिवीटर से लेकर अपनी वेबसाइट तक पर बिल गेट्स के पक्ष में कथित ‘फैक्ट चेकिंग’ में सक्रिय रहते हैं, ताकि गेट्स परिवार को बदनामी के गर्त से बाहर निकाला जा सके। भारत में भी इस कथित महामारी के दौर में ऐसी कथित फैक्ट चेकिंग संस्थाएं विदेशी अनुदान से तेजी से बढ़ रही हैं। हमें स्वयं से यह पूछना चाहिए कि सच और झूठ का यह घालमेल इतनी तेजी से क्यों बढ़ रहा है? क्या इसके लिए सिर्फ सरकार जिम्मेवार है, या हम स्वयं अपनी गुलामी के अनुबंध पर लगातार हस्ताक्षर करते जा रहे हैं?
[इस आलेख के लेखक प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और आधुनिकता के विकास  में रही है। साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’, ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर : मिथक व परंपराएंऔर शिमलाडायरीउनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। संपर्क : +919811884495, janvikalp@gmail.com]

एक विचार की तरह याद किए जाएंगे शांति स्वरूप बौद्ध

अजय कुमार दिनांक 06 जून 2020 को सम्यक प्रकाशन के संस्थापक शांति स्वरूप बौद्ध का परिनिर्वाण हो गया। उनका जन्म 2 अक्टूबर 1949 को दिल्ली में हुआ था। उन्होंने हिंदी में दलित प्रिंट के लिए के लिए एक मुक्कम्मल जगह बनायी थी। शांति स्वरूप बौद्ध डॉ. अंबेडकर के बाद की पीढ़ी के उन दलित बुद्धिजीवियों में हैं जो आरक्षण के माध्यम से सरकारी नौकरियों में आगे आए और फिर ‘पे बैक टू सोसाइटी’ की भावना के तहत उस समाज को बेहतर और न्यायपूर्ण करने की मुहिम में जुट गए जो अपनी बाहरी और अंदरूनी संरचना में बहिष्करण और हिंसा, भेदभाव और हिंसा, गरीबी और उत्पीड़न को बढ़ावा देता है। किताबों के माध्यम से उन्होंने इसे बदल देना चाहा। केंद्र सरकार के राजपत्रित अधिकारी से इस्तीफा देकर सांस्कृतिक क्रांति के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले शांति स्वरूप बौद्ध ने अंबेडकर साहित्य और बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथों का प्रकाशन करने के उद्देश्य से सम्यक प्रकाशन की स्थापना की और दलित समाज को चेतनाशील और जागरूक करने के लिए जुट गए। उनका यह काम पारंपरिक नेताओं वाला या किसी सामाजिक संगठन की तरह का काम करने जैसा नहीं था बल्कि उन्होंने वह काम किया जिसके माध्यम से समाज में विचारों से लैस नेताओं, कार्यकर्ताओं की एक फौज खड़ी की जा सके। इस काम को करने के लिए उन्होंने साहित्य और उसके प्रचार-प्रसार को अपना कार्यभार बनाया। इस संदर्भ में शांति स्वरूप बौद्ध के कहे वे शब्द याद आते हैं- : हम अंबेडकरवादी हैं, संघर्षों के आदी हैं हम अंबेडकरवादी हैं, ये सीने फौलादी हैं अब तक जो हुआ, उसका गम नहीं अब दिखना है, किसी से कम नहीं विचारों के युद्ध में किताबों से बड़ा हथियार कोई नहीं वास्तव में जो काम कभी उत्तर भारत के मूक समुदायों को जागरूक करने के लिए स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ और फिर उनके बाद उनके शिष्य चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ किया करते थे, उस काम को आजादी के बाद बड़े पैमाने पर बढ़ाने का काम शांति स्वरूप बौद्ध ने किया। चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने लखनऊ में बहुजन कल्याण प्रकाशन के नाम से एक प्रिंटिंग प्रेस लगाया था जिसके माध्यम से वह यह काम किया करते थे। लेकिन उनके परिनिर्वाण के बाद यह काम बीच में ही रुक गया। इस रुके हुए काम को दिल्ली के शांति स्वरूप बौद्ध ने समझा और फिर उन्होने 1990 के दशक में इसकी शुरुवात की। शांति स्वरूप बौद्ध द्वारा स्थापित सम्यक प्रकाशन आज हिंदी में 35 पृष्ठों के हिंदी कैटलाग और अंग्रेजी में 6 पृष्ठों के कैटलाग के साथ प्रकाशन के क्षेत्र में दमदार दस्तक दे रहा है, उसने दलित प्रिंट की दुनिया को एक नया चेहरा दे दिया है। सम्यक प्रकाशन में लोकप्रिय दलित-बहुजन साहित्य से लेकर गंभीर शोधपूर्ण एवं अकादमिक लेखन और बौद्ध साहित्य की किताबें उचित और सस्ती दामों में मिल जाएंगी। स्वयं शांति स्वरूप देश के बड़े बुद्धिस्ट विद्वान थे और भारत के समाज परिवर्तन में उन्होनें बौद्ध साहित्य की भूमिका को महसूस किया था। सम्यक प्रकाशन का एक बड़ा हिस्सा बुद्ध, बौद्ध धर्म की पुस्तकों से मिलकर बनता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर विवेक कुमार ने ‘दलित दस्तक’ को दिए गए साक्षात्कार में शांति स्वरूप बौद्ध को याद करते हुए उन्हें ‘अंबेडकराइट, बुद्धिस्ट, दलित-बहुजन आंदोलन का पुरोधा’ कहा है। उन्होंने नए और युवा लेखक तैयार किए जिन्हें मुख्यधारा के प्रकाशनों में जगह नहीं मिलती थी। सम्यक प्रकाशन ने एक नए दलित बौद्धिक वर्ग का निर्माण किया। इस प्रकाशन ने पुस्तक प्रकाशन, वितरण के क्षेत्र में चली आ रही मोनोपोली को भी चुनौती दी है। सम्यक प्रकाशन के स्टाल आज देश के हर क्षेत्रीय, राष्ट्रीय पुस्तक मेलो में मौजूद रहते हैं। सम्यक प्रकाशन के स्टाल हिन्दी पट्टी के प्रमुख प्रकाशकों के बराबर की जगह की बुकिंग कराते है। कभी-कभी तुलनात्मक रूप से यह अधिक ही रहती है। दिल्ली में हर वर्ष लगने वाले विश्व पुस्तक मेले में ऐसे कम ही पाठक और साहित्यप्रेमी होंगे जो सम्यक के स्टाल पर न जाते हो नहीं तो वहाँ साहित्यप्रेमियों और पाठको की भीड़ जमा रहती है।कहते हैं कि आज डिजिटल समय में प्रकाशन उद्योग में मायूसी सी है लेकिन यदि आप सम्यक के स्टाल पर जाएँ तो वहाँ आपको कभी मायूसी हाथ नहीं लगेगी बल्कि वहाँ आपको एक नई ऊर्जा से भरपूर लोग मिलेंगे, कोई किताबें पैक करता हुआ, कोई बिल बनाता हुआ तो कोई किताबों को पाठकों से परिचय करता हुआ। सम्यक प्रकाशन में साहित्य के साथ ही अंबेडकरवादी आंदोलन से जुड़ी हुई प्रतीकात्मक वस्तुएँ भी मिल जाएंगी जैसे अंबेडकर की तश्वीर के साथ प्रिंटेड टी-शर्ट, टोपी, अशोक चक्र, पेन डायरी, भीम कलेंडर, लकड़ी की बनी हुई बुद्ध और अंबेडकर की मूर्तियाँ, शादी कार्ड, सभी महापुरूषों के आकर्षक पोस्टर साइज, जय भीम कलैंडर, जय भीम डायरी, जय भीम पाकेट कलैंडर, आकर्षक नोट बुक कई प्रकार के, चाबी के छल्ले, कई प्रकार के, पंचशील झंडी के पैकेट, पंचशील झण्डे अलग अलग साइज, पंचशील पटके, शगुन के लिफाफे कई प्रकार के, कार शेड, मूर्तियां छोटी बड़ी (बुद्ध और आंबेडकर), थ्री डी पिक्चर आदि । यह प्रकाशन वास्तव में दलित सांस्कृतिक आंदोलन का विस्तार है। सम्यक प्रकाशन के पास लेखकों की एक बड़ी पूंजी है जो भारत के महानगरों से लेकर नगरों, कस्बों, अंचलों तक जाती है। यह सब हिंदी दलित प्रिंट के लिए, इक्कीसवीं शताब्दी में एक बड़ी उपलब्धि है। यह सब प्रयास ही दलित आंदोलन की निर्मिति करते हैं, उसे बनाते है। शांति स्वरूप बौद्ध इन उपलब्धियों को संभव बनाने वाले महापुरुष थे।
लेखक डॉ. अजय कुमार, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में 2017 से 2019 के दौरान फेलो रहे हैं। वह ‘समाज विज्ञानों में दलित अध्ययनों की निर्मिति’ पर काम कर रहे थे।

ढह गया आंबेडकरी आंदोलन का एक और स्तम्भ!

विगत ढाई महीनों से कोरोना के दहशत भरे माहौल में लिखते-पढ़ते भारी राहत के साथ दिन इसलिए कट रहे थे क्योंकि अपना कोई आत्मीय – स्वजन, इसकी चपेट में नहीं आया था। किन्तु 6 जून की शाम 4 बजे जिस खबर से रूबरू हुआ, वह हमारे लिए कोरोना काल की सबसे बुरी खबर साबित हुई। शाम 4 बजे फेसबुक खोलते ही मेरी नजर डॉ कबीर कात्यायन के छोटे से पोस्ट पर पड़ी, जिसके साथ शांति स्वरूप बौद्ध व एक अन्य व्यक्ति की तस्वीर लगी थी। तस्वीरें देखकर बुरी आशंका से घिर गया। जल्दी से पोस्ट पर नजर दौड़ाया तो लिखा मिला, ’बेहद ही दुखद! आज क्या हो रहा है चारों ओर से दुखद ही दुखद समाचार मिल रहे हैं! भारतीय बौद्ध महासभा के दो बड़े स्तम्भ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार, बौद्ध विद्वान, प्रखर वक्ता, सफल प्रकाशक उद्यमी, बौद्धाचार्य शान्ति स्वरूप बौद्ध व रामपाल सिंह गौतम नहीं रहे …। खबर पढ़कर स्तब्ध रह गया। थोड़ी बाद आँखों से अविरल आँसू  बहने लगे। उसी स्थिति में अपने टाइम लाइन पर जाकर लिखा– ‘आंबेडकरी आंदोलन का एक स्तम्भ ढह गया! आंबेडकरी साहित्य प्रकाशन की सबसे बड़ी शख्सियत शांति स्वरूप बौद्ध सर हमारे बीच नहीं रहे। आँखों से आँसू निकल रहे हैं, मैं इससे ज्यादा कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हूँ!’ कोरोना के समक्ष: जीवन युद्ध हार गए बौद्धाचार्य शांति स्वरूप बौद्ध !    पोस्ट लिखने के बाद इस विषय में विस्तार से जानने के लिए एक-एक करके प्रोफेसर विवेक कुमार, सुदेश तनवर, अशोक दास को फोन लगाया पर, दिल्ली के जिस व्यक्ति से पहले संपर्क हो सका, वह हीरालल राजस्थानी रहे। किन्तु उन्हें भी ज्यादे जानकारी नहीं  थी। उनसे बस इतनी जानकारी मिली कि बौद्ध जी का दोपहर बाद निधन हो गया और शाम 5 बजे निगम बोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार होगा। निराश होकर मैंने भारी मन से डॉ. जय प्रकाश कर्दम को फोन लगाया और संपर्क हो गया। उन्होंने बताया कि 1 जून को उन्हें  गंभीर हालत में दिल्ली के दिलशाद गार्डेन अवस्थित राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हास्पिटल में एडमिट कराया गया था। निमोनिया से उन्हे सांस लेने मे दिक्कत हो रही थी, इसलिए उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया। एडमिट होने के दिन ही शाम को उन्हें कोरोना से आक्रांत होने की रिपोर्ट आ गयी। उन्हें वहाँ लगातार वेंटिलेटर पर रखा गया, किन्तु अपेक्षित सुधार नहीं हुआ और आज दोपहर उनके निधन की दुखद खबर से दो चार होना पड़ा। उन्होंने इस बात के लिए अफसोस जताया कि श्मसान घाट पर सीमित व्यक्तियों की अनुमति के कारण चाहते हुये भी वहां जाकर उनको अंतिम विदाई नहीं दे सकते। उसके बाद तो हम देर तक बौद्ध जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करते रहे। शांति स्वरूप बौद्ध से मेरी पहली मुलाक़ात    डॉ. जय प्रकाश कर्दम ही वह शख्स रहे जिन्होंने मेरा परिचय, 2 अक्तूबर, 1949 को अपने जन्म से बहुजन समाज को धन्य करने वाले इतिहास पुरुष उस शांति स्वरूप बौद्ध से कराया, जिनका नामकरण स्वयं बाबा साहब डॉ अंबेडकर ने उनके जन्म के तीन दिन बाद अर्थात 5 अक्तूबर, 1949 को गुलाब सिंह से शांतिस्वरूप के रूप में किया था। 1999 के शेष दिनों में जब कर्दम साहब ने उनसे मेरा संपर्क कराया, उन दिनों वह मेरी पहली किताब ‘आदि भारत-मुक्ति: बहुजन समाज’ की भूमिका लिख रहे थे। तब तक किताब के लिए कोई प्रकाशक तय नहीं हुआ था और मुझे कम्पोजर को दस हजार रुपये भुगतान करने थे। मैंने अपनी समस्या कर्दम साहब के समक्ष रखी। उन्होंने कुछ दिनों बाद मुझे बौद्ध जी से मिलने के लिए कहा और मैं उनसे मिलने सम्यक प्रकाशन के ऑफिस पहुँच भी गया। पहली मुलाक़ात में ही उनका तेजस्वी व्यक्तित्व और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार देखकर अभिभूत हुये बिना न रह सका। उनकी जीवंतता और ऊर्जा युवाओं को भी म्लान करती प्रतीत हो रही थी। वहाँ पहुँचकर चाय-पानी ले ही रहा था कि उन्होंने नोटों की एक गड्डी सामने रख दी और कहा,’ इसमें दस हजार हैं, ले जाइए अपना काम चलाइए और यदि कोई उपयुक्त प्रकाशक नहीं मिलता है तो मैं आपकी किताब प्रकाशित करूंगा। अभी मेरा प्रकाशन नया-नया है, इसलिए मोटी किताबें छापने से बच रहा हूँ। ‘मेरा सिर आभार से झुक गया। हालांकि वह किताब उनसे प्रकाशित करवाने की नौबत नहीं आई: उनसे मुलाक़ात के कुछ दिनों बाद ही मुझे एक प्रकाशक मिल गया। किन्तु, उस पहली मुलाक़ात के बाद हम एक दूसरे के निकट आते चले गए। निकटता इतनी बढ़ी कि उन्हें जब सन 2000 के जून में अपने बड़े बेटे की  शादी में आमंत्रित किया, वह भीषण गर्मी की उपेक्षा कर लखनऊ आकर सोत्साह विवाह सम्पन्न कराये। इसी तरह 2005 में भी वह मेरी लड़की का विवाह कार्य सम्पन्न कराने फिर लखनऊ आए। आज भी याद आता है बौद्ध जी द्वारा कराये गए : मेरी किताबों का विमोचन समारोह 2000 के अक्तूबर से मैंने सामयिक मुद्दों पर लिखना शुरू किया और देखते ही देखते दो-ढाई वर्षों में ही लेखों की संख्या एक किताब प्रकाशित करने भर की हो गयी। बौद्ध जी मेरे लेखों के मुरीद थे। जब भी कोई लेख अखबारों में छपता, वह फोन करके बधाई देने के साथ कुछ मूल्यवान सुझाव भी देते। 2003 की शुरुआत में मैंने सम्यक प्रकाशन से उन लेखों का संग्रह निकालने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा, जिसे उन्होंने सोत्साह स्वीकार कर लिया। फलतः अगस्त 2003 में ‘वर्ण- व्यवस्था: एक वितरण’ तथा ‘हिन्दू आरक्षण और बहुजन संघर्ष’ जैसी औसतन ढाई-ढाई सौ पृष्ठों की दो शानदार किताबें तैयार कर मुझे सुखद आश्चर्य में डाल दिये। ये दोनों किताबें इसलिए खास थीं क्योंकि इससे पहले किसी दलित के पत्रकारीय लेखों की ऐसी किताबें नहीं आई थीं। इन किताबों को प्रकाशित कर उन्हें भी भारी संतोष मिला था, लिहाजा उन्होंने इनका विमोचन शानदार तरीके से दिल्ली बुक फेयर में नामवर सिंह के हाथों करवाने की परिकल्पना की और नामवर सिंह जी ने चंद्रभान प्रसाद, मोहनदास नैमिशराय, डॉ. श्योराज सिंह बेचैन, डॉ. रजत रानी मीनू, रूप चंद गौतम व अन्य हस्तियों की उपस्थिति में विमोचन किया भी। उसके बाद न जाने कितनी बार मेरी किताबों का विमोचन हुआ, उसकी संख्या मुझे याद नहीं है, किन्तु बौद्ध जी द्वारा कराये गए विमोचन की यादें मेरी स्मृति में आज भी ताज़ी हैं। बौद्ध जी ने न सिर्फ मेरे लेखों को दो शानदार किताबों का रूप देकर मुझे धन्य किया था, बल्कि उनके प्रकाशकीय में मेरे पत्रकारीय कर्म को इन शब्दों में सराह कर- “एच एल दुसाध जी ऐसे अकेले रचनाकार हैं, जो विचारों का निर्माण करने वाली पक्षपाती मीडिया को आड़े हाथों लेकर, दलित- पिछड़ों के चहेते चिंतक व पत्रकार बन गए हैं। संघ परिवार का कोई भी हथकंडा अथवा उसकी कूटचाल दुसाध जी की सूक्ष्म दृष्टि से बच नहीं पायी है.. भारतीय मीडिया की अमानवीयता एवं संवेदनहीनता को दुसाध जी जैसे मजबूत जीवट वाले लेखक ही उजागर कर सकते हैं। मीडिया के क्रूर पापों पर से पर्दा हटाने के लिए मैं दुसाध जी को कोटि-कोटि साधुवाद देता हूँ।” मेरे ऊपर जिम्मेवारी का एक खूबसूरत बोझ डाल दिया। कहना न होगा बौद्ध जी द्वारा जिम्मेवारी का डाला गया मुझ पर बोझ परवर्तीकाल में पत्रकारिता के इतिहास मेँ एक अध्याय रचने का सबब बना। एक जिंदा देवी मायावती के पीछे बौद्ध जी की अद्भुत परिकल्पना!   ‘वर्ण-व्यवस्था: एक वितरण-व्यवस्था’ तथा ‘हिन्दू आरक्षण और बहुजन संघर्ष’ के बाद  बौद्ध जी ने मेरे अखबारी लेखों को लेकर एक और शानदार किताब 2005 में प्रकाशित की, जिसका नाम था,’ सामाजिक परिवर्तन और बीएसपी’। इस किताब के कई संस्करण आए और दावे के साथ कहा जा सकता है कि बसपा की राजनीति पर ऐसी दूसरी किताब आज तक नहीं आयी। किन्तु बौद्ध जी ने मेरी जो तीन किताबें प्रकाशित की थी, लेखक होने के नाते उनका अधिकांश श्रेय मुझको ही जाता था, पर, 2006 में सम्यक प्रकाशन की ओर से बसपा की राजनीति पर जो मेरी सबसे चांचल्यकर किताब आई, उसका 80 प्रतिशत श्रेय मैं बौद्ध जी को देता हूँ। वह किताब थी ‘कांशीरामवाद को साकार करती एक ज़िंदा देवी: मायावती’। यह किताब चिरकाल के लिए बसपा विरोधियों का मुंह बंद करवाने के मकसद से बौद्ध जी मुझसे लिखवाई थी, जो अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब रही। इस किताब को लेकर यूपी विधानसभा में सवाल खड़े हुये तथा इसके ढेरों संस्करण प्रकाशित हुये। इस किताब के पीछे अपनी परिकल्पना का खुलासा करते हुये उन्होंने उसकी प्रकाशकीय में लिखा था।‘ इस पुस्तक के जन्म लेने का कारण भी भी बहुत रोचक रहा। मुझे ‘आज का सुरेख भारत’ नामक पत्रिका का एक अंक देखने को मिला, जिसके मुख पृष्ठ पर मायावती जी को चंडी के रूप में चित्रित किया हुआ था।उन्हीं दिनों ने बहन जी ने यह कहना जारी रखा हुआ था कि मैं ही जिंदा देवी हूँ। बस फिर क्या था ? मैंने इस विषय पर दुसाध जी को कलम चलाने का आग्रह किया। उन्होंने अपने स्वभाव के मुताबिक तुरंत ही यह पुस्तक रच डाली। इस पुस्तक के त्वरित लेखन से लेखक महोदय की बिलकुल भिन्न प्रकार की  चिंतन क्षमताओं का आभास मिलता है।‘ मैंने आलोड़न सृष्टिकारी 200 पृष्ठीय जिंदा देवी.. पुस्तक सिर्फ तीन महीने में तैयार कर दिया था। सम्यक प्रकाशन से वह मेरी आखिरी किताब थी। ज़िंदा देवी मायावती के प्रकाशन के कुछ माह बाद मेरी प्राथमिकता में डाइवर्सिटी आ गयी और जुनून की हद तक डाइवर्सिटी मिशन को आगे बढ़ाने में जुट गया। इस मकसद से ही मैंने दुसाध प्रकाशन को आगे बढ़ाने का मन बनाया। फिर तो हर साल औसतन मेरी पाँच किताबें दुसाध प्रकाशन और बहुजन डाइवर्सिटी मिशन से छपने लगीं।जिंदा देवी मायावती के बाद अगर मैं डाइवर्सिटी मिशन को आगे बढ़ाने मे जुट गया तो बौद्ध जी सम्यक प्रकाशन और धम्म से जुड़ी गतिविधियों को बढ़ाने मे व्यस्त हो गए। उसके बाद हमारी बहुत कम मुलाकातें होतीं। कभी किसी सेमिनार में मिल लिए तो कभी फोन पर एक दूसरे का हाल पूछ लिए। किन्तु नियमित अंतराल पर न मिल पाने के बावजूद उनकी गतिविधियों से अन्य आंबेडकरवादियों की भांति मैं भी विस्मित होता रहा। उनका काम साल दर साल चौकाते गया। आज जब उनके आकस्मिक निधन के बाद उनके कार्यों का आंकलन करता हूँ तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि मान्यवर कांशीराम और ग्रेट पैंथर नामदेव ढसाल के बाद शांति स्वरूप बौद्ध का जाना बहुजन मुव्हमेंट की सबसे बड़ी क्षति है। सम्यक प्रकाशन के जरिये देश के कोने-कोने तक पहुंचा : फुले-आंबेडकर-बुद्ध का विचार! 21 वर्ष के सेवाकाल के बाद केंद्रीय सरकार के राजपत्रित पद का मोह विसर्जित कर शेष जीवन आंबेडकरी मिशन के लिए समर्पित करने वाले बौद्ध जी आंबेडकरी मूवमेंट में योगदान का आंकलन करने पर मान्यवर कांशीराम और नामदेव ढसाल के बाद उनका ही काम मुझे  सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे जिन दुर्लभ शख़्सियतों को निकट से जानने-सुनने का सौभाग्य-लाभ हुआ, उनमेँ नामदेव ढसाल के बाद शांति स्वरूप बौद्ध जी ही सबसे खास शख्सियत रहे। आज जिस आंबेडकरी आंदोलन की पूरी दुनिया कायल है, जिसकी चर्चा सर्वत्र हो रही है, वह मुख्यतः एक वैचारिक आंदोलन है, जो साहित्य के द्वारा फैलाया जा रहा है। बहरहाल साहित्य के माध्यम से फैलने वाला आंबेडकरी आंदोलन आज जिस मुकाम पर पहुंचा है, उसमें एकल रूप से यदि किसी व्यक्ति को चिन्हित किया जाय तो सबसे बड़ा योगदान बौद्ध जी का ही नजर आएगा। उन्होंने यह कारनामा सम्यक प्रकाशन के जरिये अंजाम दिया। मैं उन चंद लोगों में हूँ, जिन्होंने सम्यक प्रकाशन की प्रगति बहुत निकट से देखी हैं। बौद्ध जी ने महज दो दशकों मे इस संस्थान के जरिये लगभग डेढ़ हजार  किताबों का प्रकाशन किया है। बिना किसी सरकारी व संस्थागत सहयोग के अपने एकल प्रयास से यह काम देने वाले वह सम्पूर्ण भारत के संभवतः इकलौते प्रकाशक रहे।  बौद्ध जी ने सम्यक प्रकाशन के जरिये फुले- आंबेडकरी और बौद्ध विचारधारा के प्रसार में अभूतपूर्व भूमिका अदा करने के साथ ही इसके माध्यम से बहुजन लेखकों की मुख्यधारा के प्रकाशको पर से निर्भरता खत्म करने का भी ऐतिहासिक काम अंजाम दिया है। सम्यक प्रकाशन के वजूद में आने के पहले शैक्षणिक क्षेत्र से हजारों साल से बहिष्कृत शूद्रातिशूद्र समुदाय के लोग छ्पने के लिए तरस कर रह जाते थे, क्योंकि मुख्यधारा के प्रकाशक इनकी घोरतर अनदेखी करते रहे। किन्तु बौद्ध जी ने जब प्रकाशन क्षेत्र से बहिष्कृत समुदायों के लेखकों छापना शुरू किया तब, ढेरों लोग लेखक बनने का सपना देखने लगे। इससे देखते ही देखते सैकड़ों बहुजन लेखक राष्ट्रीय फ़लक पर अपनी उपस्थिती दर्ज कराने में समर्थ हुये। यही नहीं सम्यक प्रकाशन से अभिप्रेरणा पाकर दर्जनों की तादाद में नए प्रकाशक उभर आए। बौद्ध जी ने सम्यक प्रकाशन के जरिये सिर्फ किताबें ही नहीं, बल्कि लोगों को मुव्हमेंट से जोड़ने के लिए अन्य किस्म की सामग्रियाँ भी प्रकाशित किया, जिनमें कैलेंडर बहुत खास रहा। उनके द्वारा प्रकाशित कैलेंडरों ने अपने क्षेत्र मे क्रांति ही घटित कर दिया। इन कैलेण्डरों के जरिये उन्होंने बहुजन लेखकों को घर-घर तक पहुंचाने की जो अद्भुत परिकल्पना की, वह बेनजीर घटना है। मुझ जैसे ढेरों लेखकों ने कभी सपना भी नहीं देखा था कि कभी हम कैलेंडर पर छपेंगे किन्तु,बौद्ध जी ने अपनी कलात्मक सोच के जरिये वह कर दिखाया। प्रकाशक के साथ ही विरल लेखक बौद्ध जी ने तो बतौर प्रकाशक एक इतिहास ही रच दिया, जिसको अतिक्रम करने का सपना भी देखने का दुस्साहस शायद कोई नहीं करेगा। किन्तु वह महान प्रकाशक के साथ एक विलक्षण प्रतिभा के लेखक भी रहे। उन्होंने बौद्ध धम्म व सामाजिक न्याय के स्तम्भ माने जाने वाले 60 से अधिक पात्रों के जीवन बृतांत पर जो सचित्र पुस्तकें तैयार किया, वह उन्हे बहुजन साहित्य सृजन की दुनिया में एक अलग मुकाम दिलाने के लिए काफी है। सहज भाषा में घटनाओं के चित्रांकन के जरिये कम पढे़-लिखे लोगों और बच्चों तक महापुरुषों के संदेश को प्रभावी तरीके से पहुंचाने का ऐसा काम, उनके जैसा कोई जन्मजात चित्रकार और लेखक ही अंजाम दे सकता था, जो उन्होंने दिया। उन्होंने सम्यक प्रकाशन संस्थान की ओर से सहस्राधिक किताबों के साथ जो कैलेंडर, बहुजन महापुरुषों के भूरि- भूरि चित्र प्रकाशित किए उससे देश का शायद ही कोई कोना और कस्बा बचा होगा, जहां बाबा साहब, फुले और बुद्ध का संदेश न पहुंचा हो। उनके इन कामों को देखते हुये द्विधा- मुक्त चित्त से कहा जा सकता है कि उनका दुनिया से जाना कांशीराम और नामदेव ढसाल के बाद बहुजन आंदोलन की  सबसे बड़ी क्षति है।  अंतर्राष्ट्रीय स्तर के चित्रकार! बहुतों को पता नहीं कि बौद्ध जी ने सम्यक प्रकाशन को धनार्जन के स्रोत के रूप में नहीं, आंबेडकरी विचारधारा के प्रसार के लिए एक मिशनरी संस्थान के रूप में विकसित किया था।उनकी आय का स्रोत चित्रकारी रही। वह खुद भी एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार रहे, जिनकी चित्रकारी के कद्रदान पूरी दुनिया में फैले हुये थे। उनके घर जाने पर कई बार मुझे उनके विदेशी क्लाइंटों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। मान्यवर कांशीराम ने जिन भूरि-भूरि मूलनिवासी नायकों को इतिहास के कब्र से निकालकर बहुजनों के समक्ष लाया था, उन्हें शक्ल प्रदान करने का काम बौद्ध जी के किया। उन्होंने अपनी तूलिका के जरिये संत रविदास, मातादीन भंगी, बाबा चौहरमल इत्यादि जैसे वंचित जातियों में जन्में में ढेरों नायकों को जो आकार प्रदान किया, वह आज बहुजनों के जेहन में स्थापित होते जा रहा है। समर्थ चित्रकार बौद्ध जी अपने अधीन 40-50 चित्रकारों को लेकर निर्यातयोग्त हस्तनिर्मित कला चित्रों का निर्माण करते रहे, जो न सिर्फ उनके जीविकोपार्जन बल्कि सम्यक प्रकाशन को खड़ा करने का मध्यम बना। चित्रकारों की इस टीम को लेकर उन्होंने बहुजनों को मुव्हमेंट से जोड़ने लायक भूरि–भूरि चित्रों का का भी निर्माण किया। बुद्धिज़्म के चैंपियन प्रचारक इटली के क्रांतिकारी विचारक अंटोनियो ग्राम्सी ने कहा है, ‘यदि शोषितों को शासक वर्ग से मुक्त होना है तो उन्हे वैकल्पिक सांस्कृतिक वर्चस्वता स्थापित करनी होगी।‘ भारत में बहुजनों की दुर्दशा के मूल में रही है,हिन्दू धर्म-संस्कृति। हिन्दू धर्म-संस्कृति के कारण बहुजन न सिर्फ शक्ति के स्रोतों- आर्थिक,राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक-सांस्कृतिक इत्यादि- से चिरकाल के लिए बहिष्कृत हुये, बल्कि उनकी मानवीय सत्ता मनुष्येतर प्राणी के रूप में स्थापित हुई। बहुजन विरोधी अमानवीय हिन्दू धर्म-संस्कृति का विकल्प खड़ा करने के लिए सदियों से बहुजन महापुरुष प्रयासरत रहे। स्वाधीनोत्तर भारत में मान्यवर कांशीराम की प्रेरणा से ढेरों लोग व संगठन वैकल्पिक संस्कृति खड़ा करने की दिशा में अग्रसर हुये। किन्तु, इस मामले में भी व्यक्तिगत रूप से किसी को चिन्हित करने का प्रयास हो तो बौद्ध जी ही सबसे आगे नजर आएंगे। जिन लोगों को उनकी निकटता प्राप्त हुई है,उन्हें पता है कि उनके जीवन का हर पल हिन्दू धर्म-संस्कृति की तोड़ खड़ा करने के प्रति समर्पित रहा। वे सदा इसका विकल्प बौद्ध धर्म-संस्कृति में देने के लिए प्रयासरत रहे। उन्होंने अपने नाम के साथ जुड़े ‘बौद्ध’ शब्द को सार्थक करने के लिए बौद्धमय भारत निर्माण में खुद को जिस हद समर्पित किया, उससे वह 21 वीं सदी के चैंपियन बौद्ध के रूप में अपनी छाप छोड़ गए।  मेरी तो धारणा है कि गत चार दशकों में भारत में बुद्धिज़्म को पॉपुलर करने के काम में वही चैंपियन रहे। उन्होंने इस काम के लिए भी सम्यक प्रकाशन और अपनी चित्रकारी का बेहतरीन इस्तेमाल किया। उनके बनाए तथागत बुद्ध के एक से बढ़कर एक चित्र घर-घर तक पहुंचे। आज बहुजनों के घरों में गौतम  बुद्ध के भांति-भांति के जो चित्र दिखते है, उनमें 90 प्रतिशत से अधिक चित्र बौद्ध जी के संस्थान के बने होते हैं। सम्यक प्रकाशन के जरिये आम जन के लायक सैकड़ों छोटे-बड़े आकार की किताबें प्रकाशित करने के साथ उन्होंने विशाल आकार के गुणवत्ता पूर्ण ऐसे कुछ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं, जिन्हें हाथ में लेने पर गर्व की एक विचित्र अनुभूति होती है। बौद्ध जी बौद्ध इतिहास से सम्बद्ध पुस्तकों और  चित्रों का निर्माण करने के साथ ही बुद्धिज़्म के प्रसार के लिए हिन्दी त्रैमासिक धम्म दर्पण का सम्पादन भी अपने स्तर के अनुरूप किया। एक बड़े संगठनकर्ता! बहु-गुणों के धनी बौद्ध जी को कुदरत ने एक असाधारण वक्ता के गुणों से भी समृद्ध किया था और बुद्धिज़्म के प्रसार के लिए उन्होंने इस खास गुण का सदुपयोग भी खूब किया।इसके लिए उन्होंने भारत के चप्पे-चप्पे के साथ विदेशों के अनेक देशों, खास कर आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, जर्मनी, हाँगकाँग, सिंगापुर, नेपाल इत्यादि की एकाधिक बार धम्म यात्राएं की। धम्म यात्राओं के क्रम में वह हर जगह धम्म प्रवचन करते। उनकी वाणी मे इतना ओज था कि लोग जोश में भरकर उन्हे मुग्धभाव से सुनते रहते। अपनी वाणी के साथ बौद्ध जी ने बुद्धिज़्म के प्रसार के लिए अपनी संगठनिक क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करते रहे। हाल के कुछ वर्षों में उन्होंने इस क्षमता का सदव्यवहार करते हुये साहित्यिक और धम्म सम्मेलनों का सिलसिला शुरू किया। उनके सम्मेलनों में देश के विभिन्न अंचलों के बहुजन लेखक,एक्टिविस्ट, सांस्कृतिक कर्मी भरी उत्साह के साथ शिरकत करते। उनके ये आयोजन पिछले आयोजन को म्लान कर नया कीर्तिमान बनाते। इन भव्य आयोजनों की विपुल सफलता को देखते हुये हम भविष्य में उनके आह्वान पर धीरे-धीरे लाखों लोगों के एक जगह असेंबल होने का सपना देखने लगे थे। किन्तु, कोरोना ने हमसे वह सपने छीन लिए। ऊर्जा में जवानों को भी म्लान करते रहने वाले बौद्ध जी की दिन चर्या और स्वास्थ्य ऐसा था कि वह हमारा मार्गदर्शन आने वाले डेढ़- दो दशकों तक बहुत आसानी से कर सकते थे। इसलिए उनके आकस्मिक निधन से पूरा बहुजन भारत स्तब्ध और शोकाकुल है। उन्होंने अपने कार्यों से हमारे दौर पर कितना असर छोड़ा था, इसका अनुमान हम देश के विशिष्ट आंबेडकरवादियों द्वारा दी गयी गयी आदरांजलि से लगा सकते हैं। आदरांजलि ! इन पक्तियों के लिखने के दौरान सुप्रसिद्ध दलित चिंतक चन्द्रभान प्रसाद का फोन आया था। बातों के क्रम उन्होने कहा,’ क्या 50 सांसद भी एक साथ मिलकर शान्ति स्वरूप बौद्ध जी के मुक़ाबले खड़ा हो सकते थे? उन्हीं चंद्रभान जी ने बौद्ध जी के प्रति आदरांजलि देते  हुये कहा है, ’ बौद्ध जी दलितों के अशोक स्तम्भ थे। वह जब संबोधित करते थे तो उनके मस्तक पर बाबा साहब का चित्र उभरता प्रतीत होता था’। उनके आकस्मिक निधन से स्तब्ध चर्चित दलित साहित्यकार सूरज पाल चौहान का उद्गार रहा, ‘यह जानकार संज्ञाशून्य हो गया कि सम्यक प्रकाशन के शान्ति स्वरूप बौद्ध हमारे बीच नहीं रहे’‘बहुजन समाज ने अपना एक बड़ा बौद्धिक नेता खो दिया’ कहना है सुप्रसिद्ध पत्रकार उर्मिलेश का का’। महान पत्रकार दिलीप मण्डल ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुये कहा है-‘ उत्तर भारत, खासकर हिन्दी पट्टी में बौद्ध धर्म के विस्तार में प्रमुख भूमिका निभाने वाले बौद्धजी हम जैसे कई लोगों के प्रेरणा स्रोत रहे।‘ ‘समाज और भारतीय बौद्ध जगत की कभी न पूर्ति होने वाली क्षति हो गयी,’ ऐसा साहित्यकार सुदेश तनवर का कहना है। ‘वर्तमान समय के आंबेडकरवादियों ने अपना सबसे बड़ा मार्गदर्शक और संरक्षक खो दिया। आज देश भर में बहुजन महापुरुषों की जो किताबें और तस्वीरें नजर आती हैं, वह सिर्फ आपके कठिन परिश्रम से ही मुमकिन हो सका है,’ ऐसा कहना है विदुषी मनीषा गौतम का। महेश कुमार राजन के अनुसार।‘ वे ज्ञान के अथाह सागर,अद्भुत व निडर वक्ता,बहुजन महापुरुषों के इतिहास को सम्यक प्रकाशन के जरिये जन-जन तक ले जाने वाले, प्रेरणा के स्रोत,एक महान पुरुष थे ।उनको बहुजन समाज हमेशा याद रखेगा।‘ ‘शांति स्वरूप बौद्ध सर ने बहुजन साहित्य का विशाल भंडार हमें दिया है। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ बहुजन प्रकाशन खड़ा किया है। जब तक बहुजन समाज रहेगा, बहुजन साहित्य की तलब  भी रहेगी। जब तक बहुजन साहित्य की तलब बनी रहेगी, तब तक शांति स्वरूप बौद्ध जी हमारे बीच जिंदा रहेंगे,’ ऐसा मानना है विशिष्ट बहुजन चिंतक चंद्र भूषण सिंह यादव का। ‘बौद्ध साहित्य की महान हस्ती रहे शांति स्वरूप बौद्ध जी। उन्होंने सम्यक  प्रकाशन के जरिये बहुजन महापुरुषों के विचारों को फैलाने का जो काम किया है, उसे समाज कभी नहीं भूलेगा,’ ऐसा सोचना है महान बौद्ध विद्वान बुद्ध शरण हंस का। ‘दलित साहित्य एवं दलित साहित्यकारों को साहित्य के गगन पर पहुँचने वाली शख्सियत रहे शांति स्वरूप बौद्ध’ ,ऐसा कहना है युवा एक्टिविस्त राजीव रंजन का। सुप्रसिद्ध लेखक डॉ. विजय कुमार त्रिशरण के अनुसार वह बाबा साहब और मान्यवर कांशीराम के बाद मूलनिवासी – बहुजन सामाजिक- सांस्कृतिक मिशन और मुव्हमेंट को तीव्रतर करने वाले एक मुकम्मल और मजबूत भीम स्तम्भ रहे।‘सम्यक प्रकाशन के संस्थापक शांति स्वरूप बौद्ध जी का परिनिर्वाण एक विराट क्षति है,’ ऐसा कहना है लालजी प्रसाद निर्मल का।‘ एक इंसान के रूप में जितनी खूबियाँ एक व्यक्ति में हो सकती हैं, वह उनमे उससे ज्यादा थी,’ ऐसा मानना है दलित दस्तक के संपादक अशोक दास का। ‘सम्यक प्रकाशन के संस्थापक और क्रांतिकारी लेखक शांति स्वरूप बौद्ध आंबेडकरवादी मूवमेंट के क्रूसेडर रहे’, ऐसा कहना है अंतर्राष्ट्रीय लेखक फ्रैंक हुजूर का। उनके आकस्मिक निधन पर शोक व्यक्त करते हुये बसपा सुप्रीमो मायावती जी ने कहा है,’श्री शांति स्वरूप बौद्ध, जो कमजोर तबकों को जागरूक करने मे लगातार सक्रिय रहे, उनकी दिल्ली में अचानक हुई मौत की खबर अत्यंत दुखदायी है। इनके परिवार व परिचितों के प्रति गहरी संवेदना। कुदरत इनके करीबी लोगों को इस दुख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे।‘ ‘यह बात किसी भी आंबेडकरवादी को गर्वित करती रहेगी कि उन्होंने सम्यक प्रकशन के रूप में एक ऐसा संस्थान छोड़ा है जिससे 2000 से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं। हम उम्मीद करते हैं कि उनके परिवार और मित्र भारत में आंबेडकरवादी बौद्ध सांस्कृतिक आंदोलन को मजबूत करने के लिए उनसे प्रेरणा लेंगे और उनके कार्यों को आगे बढ़ाते रहेंगे’, ऐसी चाहत है विशिष्ट सामाजिक कार्यकर्ता विद्या भूषण रावत की। विद्या भूषण रावत जैसे बौद्ध जी के ढेरों गुणानुरागियों की भांति प्रोफेसर विवेक कुमार का भी कहना है कि बौद्ध जी के किए गए कार्यों और कहे गए शब्दों को आगे बढ़ाएँ, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यह सही है कि शांति स्वरूप बौद्ध जी के आकस्मिक निधन से बहुजन भारत की अपूरणीय क्षति हुई है ,पर, यदि हम प्रोफेसर विवेक कुमार के शब्दों में उनके कार्यों और कहे गए शब्दों को आगे बढ़ा सके तो अवश्य ही कुछ भरपाई हो जाएगी । (लेखक एच. एल. दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन क राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सपर्क – 9654816191)   

Shanti Swarup Bauddh: He spent his whole life for the Bahujans

I am so shocked and heart broken to inform you of the passing away of Br. Bauddhacharya Shanti Swarup Bauddhji on Saturday, June 6, 2020 at about 7:00 am in the hospital due to COVID-19.

Baudhji, an Ambedkarite Buddhist was a writer, fiery orator, activist, great Bahujan publisher, and painter of world repute. He left the government position of a gazetted officer; and dedicated his entirety with all means to make cultural, artistic, literary, and social revolution successful among the Bahujans.

He was born on October 2,1948 in a relatively better off Jatav family of political background in Old Delhi. He has been living in Paschim Puri for more than 25 years.

He left behind- his wife, 4 sons, 4 daughter–in-laws, and 8 grandchildren. His father has been working as the President of the Republican Party of India (RPI), Delhi from 1965 to 1967.

Baudhji was made the General Secretary of the RPI, Delhi in 1970.

He founded Samyak Prakashan. In 1975, to identify the identity of the idigenous people / Moolniwasis of India, the process of starting Samyak Prakashan was initiated, but regular publication of books started in 1997. More than 1000 books have been published by 2013, and about 300 writers are associated with the publication. He published illustrated books on the life stories of more than 60 characters.

The Samyak Prakashan publications won bronze medal in 2017, silver medal in 2018, and silver medal in 2019 in World Book Fairs for literature and display. Many texts published by Samyak Prakashan have been awarded by national and international institutions.

This Prakashan has been striving to publish glorious Buddhist culture, and literature related to the native revolutionary heroes. It is dedicated to the wide publicity of the Bahujan mission, and for publishing Buddhism, Dr Babasaheb Ambedkar, Ashoka, Phule, Sahuji Maharaj, and other social reformers, revolutionaries of the country, and their mission.

In fact, the literature published by this Publication has played the role of an alternative media for the depressed, oppressed, underprivileged and women society of the country. This publication played a respectable role in establishing the Bahujan-Moolniwasi identity through language and words.

He has been working as the National Vice- President of the Buddhist Society of India (BSI) of which Ms Meera Tai Ambedkar, the daughter-in-law of Dr Babasaheb Ambedkar has been the President.

He was the Patron of the ‘Youth for Buddhist India’, of which Mr Hari Bhartiji is the President. He has been organizing the Samyak Sammelan in Talkatora Stadium, Delhi every year to honour those who work in the society.

Also, he has been very actively participating without any position in Samta Buddha Vihar, Paschim Puri, New Delhi.

He had deeply studied Buddhism, and was considered as one of the pillars of Buddhism. He had been working as a member of the Board of Editors of representative journal of the Buddhist movement ‘Dhamma Darpan’; also was a member of the Board of Editors of ‘Dalit Dastak’, a famous Youtube news channel. He was the winner of several national and international awards.

 He was my friend and neighbour in Delhi. Last, I had a conversation with him on April 30, 2020.  He spent his whole life for the Bahujans, and lived the life as a true Ambedkarite Buddhist.

‘Life is uncertain; death is certain’

The sudden demise of Bauddhji is not only the loss of his family, but it is an unfulfilled loss to the Bahujan movement in near future.

My deepest sympathies are to the family.

With regards, Your’s in the mission, (PROF. ARUN GAUTAM) C: 647-853-2329 A: 201- 35 Jansusie Road, Toronto ON M9W 4V4, Canada E: gautam.arunkumar45@gmail.com


 President, -Dr Ambedkar International Mission (AIM), Toronto (Registered), Canada Convenor,     -Confederation of Bahujan (Ambedkarite, Buddhist, Ravidassi, Valmiki, Backward, & Minorities) Organizations (CBO) of Greater Toronto Area (GTA), Canada

Statement in support for the Bhima Koregaon 12 Activists

We the undersigned twenty-five organizations strongly condemn the shameful imprisonment of India’s finest public intellectuals and social justice defenders, Dr. Anand Teltumbde and Mr. Gautam Navalakha who’ve been in custody since April 14, 2020. Dr. Teltumbde & Mr. Nalvlakha join nine others – journalists, lawyers, writers, academics & organizers- Surendra Gadling, Arun Fereira, Vernon Gonsalves, Mahesh Raut, Sudha Bharadwaj, Dr. Shoma Sen, Sudhir Dhawale, Rona Wilson and Varavara Rao- who have been imprisoned in the same fabricated Bhima-Koregaon case. The case is an attempt by the ruling regime to silence some of its strongest critics that revealed the continued exploitation, humiliation, and oppression of a majority of India’s population, especially Dalits, Adivasis, workers and women. Indeed, we see the Bhima-Koregaon case as a reaction to the anti-casteist united front of Dalits and other caste groups that was emerging through the Elgar-Parishad. We also strongly condemn the recent shameful arrests of students from some of India’s universities such as Safoora Zargar, Devangana Kalita and Natasha Narwal who have staked their lives and careers for preserving the Constitutional right to dissent, which is at the heart of democracy and citizenship. On May 30, 2020, we came together to hear testimonies from the United States of America, Canada, United Kingdom, Japan and India. The speakers were inspired to act of their own accord as people who care deeply about India and who are moved by the alarming breakdown of basic guarantees of the Indian Constitution and the impunity of actions undertaken by the Indian state. Each one of them, in their own language of comfort, spoke the language of defiance, of anguish, of protest and of solidarity. Each one of them demanded the immediate and unconditional release of Dr. Anand Teltumbde – a figure who remains an inspiration to us as a scholar, a writer, a thinker, a prophet of our times, and a human being who relentlessly strove to make us think and feel the true spirit of the Indian Constitution and those of democratic social revolutionaries such as Babasaheb Ambedkar , Periyar and Marx. Many speakers reminded people that the work and lives of social justice defenders being imprisoned in the Bhima-Koregaon case is a testimony against the immorality of the violence perpetrated in India today by the ruling regime – the violence of development policies, violence of casteism against Dalits, the violence of patriarchy against women, the violence of capitalism against workers, and the violence of an ultranationalism against those seeking to live a life of freedom and choice. Our effort has only begun. We are very diverse in our biographies but united in our focus. We stand clearly in solidarity with all victims of the unjust and draconian Unlawful Activities Prevention Act (UAPA) – a law that must go for a democratic India to emerge. India is going through a very dark phase of its history, a phase that ominously threatens to extinguish any glimmer of hope for a majority of its citizens, undercut all promises of the Constitution, and consign all social justice and human rights defenders to oblivion in Indian jails. The rule of fear by the use and abuse of particular laws and institutions of governance is an attempt to silence all voices that have dared to imagine an India that is based on Babasaheb Ambedkar’s vision of liberty, equality and fraternity. We demand:
  1. Immediate release and dropping of all charges against all the Bhima-Koregaon-12
  2. Charges to be brought on Milind Ekbote and Sambhaji Bhide as per the FIRs filed against their actions.
  3. A repeal of the UAPA which infringes on the fundamental Democratic freedoms of Indian citizens, including their right to dissent and their right to a fair trial.  
Organization Endorsement:
  1. Ambedkar King Study Circle (AKSC)
  2. Ambedkar International Center (AIC)
  3. Coalition of Seattle Indian-Americans
  4. India Civil Watch (ICW)
  5. Periyar Ambedkar Study Circle (PASC)
  6. Ambedkar Buddhist Association of Texas (ABAT)
  7. Begumpura Cultural Society of New York
  8. Shri Guru Ravidass Sabha of New York
  9. Organizations for Minority of India (OFMI)
  10. Ambedkar Mission, Toronto (AM)
  11. Ambedkarite International Coordination Society (AICS)
  12. Political Action Platform for Tamils
  13. Ambedkar International Social reform organization (AISRO)
  14. Ambedkar International Mission Society (AIMS)-Canada
  15. Bahujan Federation America
  16. International Commission for Dalit Rights ICDR
  17. Equality Labs
  18. Jaibhim Atlanta
  19. Bhim International USA
  20. Shri Guru Ravidas Sabha-Bay Area California America
  21. Samaj Weekly/The Asian Independent – United Kingdom
  22. Ambedkar Times
  23. Ambedkar International Mission(AIM) – Japan
  24. FABO-United Kingdom
  25. Anti-Caste Discrimination Alliance-United Kingdom

ओडिशा में नरबलि और अंधविश्वास का धंधा

विश्व महामारी कोरोना संक्रमण को ठीक करने के लिए पूरी दुनिया के वैज्ञानिक दवा की खोज में लगे हुए हैं। लेकिन भारत में दैवीय चमत्कार की उम्मीद भी की जाने लगी है। कोई कह रहा है कि कोरोना गो-मूत्र से ठीक हो जाएगा तो कोई कोरोना भगाने के लिए यज्ञ कर रहा है। लेकिन हद तब हो गई, जब कोरोना भगाने के लिए नरबली दे दी गई। जी हां, ठीक सुना आपने, नरबलि, यानी कि कोरोना भगाने के लिए एक पुजारी ने एक इंसान की गला काट कर बलि दे दी। यह घटना घटी है ओडिशा के प्रमुख शहर कटक में। कटक के बाहुड़ा गांव में एक मंदिर है। मंदिर का नाम है ब्राह्मणी देवी मंदिर। यहीं पर यह हैरान कर देने वाली घटना घटी है। बलि देने के आरोप में 70 साल के पुजारी को गिरफ्तार किया गया है। पुलिस को दिये अपने बयान में पुजारी ने कहा है कि चार दिन पहले हमें मां मंगला देवी का सपना आया था कि नरबलि देने से यह इलाका कोरोना महामारी से मुक्त हो जाएगा। इसके बाद बुधवार 27 मई की रात को जब गांव के ही 55 वर्षीय सरोज प्रधान मंदिर में पहुंचे तब पुजारी ने धोखे से धारदार कटारी से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। हालांकि घटना के बाद पुलिस ने पुजारी को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन ऐसी घटनाएं एक दिन में नहीं घटती। अखिल विश्व गायत्री परिवार की ओर से 31 मई को कोरोना सहित अन्य विषाणुओं, हानिकारक जीवाणुओं और रोगाणुओं के नाश तथा पर्यावरण के परिशोधन के लिए एक साथ गायत्री मंत्र, सूर्य गायत्री मंत्र एवं महामृत्युंजय मंत्र से हवन यज्ञ किया जाएगा। इसे विश्व के 100 से भी ज्यादा देशों के करोड़ों लोग अपने-अपने घरों में करेंगे। कहा जा रहा है कि हर शहर से 551 लोगों की भागेदारी रहेगी। सवाल है कि क्या मलेरिया, टीबी, एड्स, कोरोना, कैंसर आदि के विषाणु इस यज्ञ से खत्म हो जाएंगे। मार्च के दूसरे हफ्ते में तो अखिल भारत हिन्दू महासभा द्वारा जंतर मंतर पर गो-मूत्र पार्टी की गई। और इस महासभा के स्वघोषित संत ने तो यहां तक मांग कर दी कि जो भी भारत में कदम रखे, उसको गो-मूत्र पिलाया जाए, गोबर से स्नान कराया जाए, फिर आने दिया जाए। चिंता की बात यह है कि इस तरह के आयोजनों को भारतीय मीडिया भी बढ़-चढ़ कर प्रचारित करता है। मीडिया द्वारा इसकी आलोचना नहीं की जाती, बल्कि इस तरह के अंधविश्वासों पर घंटे भर के कार्यक्रम बनाए जाते हैं और चर्चाएं आयोजित की जाती है। जिससे इस तरह के काम करने वालों को बल मिलता है। दरअसल भारत में अंधविश्वास फैलने से कुछ लोगों का फायदा होता है। देश में अंधविश्वास धंधा बन चुका है। इसके खिलाफ काम करने वाले नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या इस बात का पुख्ता सबूत है कि अगर दाभोलकर सफल हो जाते तो कईयों का धंधा बंद हो जाता। वरना एक नेक काम करने वाले इंसान की हत्या समझ से परे है। दाभोलकर एक लेखक  और तर्कवादी व्यक्ति थे। वह महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक थे। 20 अगस्त 2013 को उनकी हत्या कर दी गई। लेकिन दिक्कत यह है कि भारत में इस तरह की हत्याओं पर कोई जन आक्रोश नहीं होता।

शहर छोड़ने वाले मजदूरों को पीसने के लिए तैयार है गांव की जातिवादी चक्की

  – अभय कुमार बिहार के गाँवों से बहुत सारे मज़दूर दो पैसा कमाने के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों में पलायन करते हैं। कोरोना संकट के बाद अब वे मजबूरन घर लौट रहे हैं। मगर क्या गाँव उनको राह़त दे पायेगा? इतना तो ज़रूर है कि घर लौटकर प्रवासी मज़दूर और उनके घर वाले अपार ख़ुशी का अनुभव कर करेंगे। मगर यह तब संभव है जबकि वह सही सलामात घर पहुंच जाएं। हजारों मील का सफ़र पैदल तय करना जान को जोखिम में डालना है। ट्रेनों की जो स्थिति है, अगर उन्हें ट्रेन मिल भी गयी तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह सही टाइम पर अपनी मंज़िल तक पहुंच जाएगी। ट्रेनें लेट हो रही हैं, रास्ता भटक जा रही हैं, लोग गाड़ियों में भूखे मर जा रहे हैं। जो मज़दूर जीवित घर पहुंच भी जाये तो कब तक वह और उसका परिवार गाँव में भूख से लड़ पायेगा यह भी एक बड़ा सवाल बना हुआ है। इस समय मुझे मीठी (नाम काल्पनिक) की याद आ रही है, जो मेरे ही गाँव के एक प्रवासी मज़दूर की फूल सी नन्ही बेटी है। उम्मीद करता हूं कि उसके पापा सकुशल घर पहुंच गये होंगे। पापा को घर पर देखकर वह गौरैया की तरह फुदक रही होगी। उसकी मुस्कान पापा के सारे कड़वे अनुभव में शक्कर घोल रही होगी। जब कभी मीठी के दोस्त ‘कुरकुरे’ और ‘मोटू-पतलू’ उसे खाने को नहीं देते हैं तो वह फ़ौरन उन्हें धमकी देती है, “मेरे पापा जब कमा के आयेंगे तो बहुत सारा कुरकुरे, मोटू पतलू, फ्रूटी लायेंगे…मैं भी तुम लोगों को नहीं दूंगी।” मीठी की माँ भी ख़ुश ज़रूर होंगी। अपने जीवनसाथी के बिना लम्बा समय काटने का एहसास शब्दों से बयान नहीं किया जा सकता है। मीठी के पापा मेरे हम-उम्र हैं। सालों पहले मैं आला तालीम ह़ासिल करने के लिए शहर आ गया। वह किसी स्टील फैक्ट्री में काम करने के लिए परदेश निकल पड़े। मीठी के पापा को देखने के लिए आस-पड़ोस के लोगों का जमावड़ा भी लगा होगा। जब भी कोई बाहर से कमा कर घर लौटता है तो मिठाई बांटना लाज़मी होता है। अभी भी मेरे गाँव के अधिकतर लोग मिठाई अकसर सपनों में ही खाते हैं। ख्वाबों से बाहर उनको मिठाई किसी परदेशी के घर लौटने पर ही मिलती है। यह कहना मुश्किल है कि इस बार मीठी के पापा घर मिठाई ले कर गये होंगे। मगर गाँव के अपने कड़वे अनुभव भी हैं। मुमकिन है कि गाँव वाले मीठी के पापा को सरहद पर ही रोक दिए हों। उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस भी बुलाई गयी हो। डर इस बात का भी है कि उनको किसी गाँव के स्कूल में ‘क्वारंटाइन’ भी कर दिया गया हो। अगर वे बदकिस्मत निकले तो उन्हें मक्खी, मच्छर, छिपकली, चूहा, सांप, बिच्छू के साथ भी समय काटना पड़ेगा। खाने में उन्हें बेरंग खिचड़ी भी परोसा गया हो। नरक से भी ज्यादा गंदे शौचालय में जाने के लिए उन्हें विवश किया गया हो। अगर मान भी लें कि मीठी के पापा को इन सब अज़ीयतों से न गुज़रना पड़ा हो, फिर भी गाँव की बेशुमार मुसीबतों से वह कैसे बच सकते हैं? किताब में गाँव को पढ़ने और जानने वालों के लिए गाँव एक ‘स्वर्ग’ है। यह ‘इंद्रलोक’ के सामान है। यह “सद्भाव” और “सहयोग” का संगम है। यह भारत की “आत्मा” है। यह “पश्चिमी सभ्यता” और “मैटेरियलिज़म” का सही विकल्प है। फिर गाँव को “शांति” और “सुख” का पर्यायवाची कहा गया। यह ग़लतफ़ह़मी दरअसल उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने फ़ैलाया। लंदन में पढ़े और फिर धोती-धारण करने वाले एक ‘फक़ीर’ ने इसे क़ौमी तह़रीक में सच बताकर प्रचारित किया। इसका इस्तेमाल देशी बनाम विदेशी और राष्ट्रीयता बनाम साम्राज्यवाद की राजनीति के तहत किया गया। मगर मीठी के पापा को और अन्य मजदूरों के लिए गांव शहर की ही तरह शोषण और अत्याचार का अड्डा है। जहाँ गाँव और शहर की समस्याओं के ‘फॉर्म’ में कुछ अंतर है, वहीं गहराई में जाने पर उनके बीच बहुत सारी समानतायें भी दिखती हैं। यह बात सुकूनदायक है कि गाँव की हवा शहर की तरह ज़हरीली नहीं है। पानी भी गाँव में चांपाकल और कुएं से मिल जाता है। मगर यह भी सत्य है कि ज़्यादातर कुएं ‘ठाकुर’ के हैं। चांपाकल और नलके भी सवर्णों की बस्तियों में अधिक संख्या में हैं। अब गाँव में भी पानी पैसे से बिकना शुरू हो गया है। एक और राहत है कि गाँव में लोग फुटपाथ, फ्लाईओवर, नाला और गटर पर सोने के लिए मजबूर नहीं हैं। मगर गाँव में भी ‘डिसेंट’ मकान ज़्यादातर द्विज को ही मयस्सर है। कुछ के पास सोने के लिए “दीवान” पलंग है, जिस पर मखमली बिस्तर सजा हुआ रहता है। दूसरी तरह बहुत तो बांस के मचान पर फटी चादर डाल कर लेट जाते हैं। मीठी के पापा भी इन मुसीबतों से अनजान नहीं हैं। रुपये के बगैर चावल और आटा न शहर में मिल सकता है, और न ही गाँव में। अब भी गाँव की ज़्यादातर ज़मीनों पर क़ब्ज़ा उन ‘खुशनसीबों’ का है जो कुछ खास जातियों में पैदा होते हैं। एक तरफ “मालिकों” के पास कई-कई एकड़ में फुलवारी और बाग-बगीचा लगाया गया है। वहीं बाकी जनता के पास ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा है। कुछ तो ऐसे भी हैं जिन के पास मिट्टी, तालाब, अनाज, खेत, खलिहान, कुआं, घर कुछ भी नहीं है। वे मज़दूरी करते हैं तो पेट भर पाते हैं। जो लोग ‘गाँव’ का बखान करते नहीं थकते, वे इन हकीकतों को दबा जाते हैं। वे यह भी नहीं बताते कि दलित बस्ती में रहने वाला मज़दूर प्यास बुझाने के लिए कैसे पानी के लिए तरसता है। वहीं जब हलकी बारिश हो जाये, तो उसका घर तालाब सा बन जाता है। बिस्तर के नीचे थाली और बर्तन कागज की कश्ती की तरह तैरने लगते हैं। गाँव को सुकून और सहयोग की जगह कहने वाले यह भी नहीं कहते कि खेत में पसीना किसी और का बहता है और अनाज पर नाग की तरह कुंडली मार कोई और बैठ जाता है। यही नहीं मज़दूरों को बेगारी भी तो करनी होती है। दिन भर खून-पसीना बहाने पर हाथ में सिर्फ 200 से 300 रूपये आते हैं। खेत में काम करने वाले मज़दूरों को और भी कम पैसा मिलता है। 100 रुपये मज़दूरी पाने के लिए 20 मुट्ठा धान के पौधे पहले उखाड़ने होते हैं और फिर उसे कीचड़ में रोपना होता है। धान रोपते-रोपते पैर की अंगुलियाँ सड़ जाती हैं। फिर इलाज के नाम पर जलती तेल की बूंदें घाव पर टपकाई जाती हैं जो बड़ा कष्टदायक होता है। गाँव में मज़दूरी भले ही कम मिले, मगर चीज़ों के दाम थोड़े कम हैं। चावल, आटा, दाल की क़ीमतें शहरों के बराबर ही हैं। दूध भी 40 रुपये लीटर मिलता है। पॉकेट की चायपत्ती भी शहरों के रेट में ही बिकती है। साग-सब्ज़ी की क़ीमत में भी कोई ज़्यादा अंतर नहीं है। मेरे गाँव में तो अब छोटे शहरों से सब्जी उल्टा ख़रीद कर रेहड़ी वाले बेचते हैं। इससे क़ीमतें और भी बढ़ जाती हैं। मोबाइल रीचार्ज भी गाँव में उतना ही महंगा है जितना शहर में है। यह सब देख कर मुझे डर है कि मीठी के पापा क्या उसे ‘कुरकुरे’, ‘मोटू-पतलू’ और ‘फ्रूटी’ नहीं दे पायेंगे। जेब में पैसे न भी हों तब भी खर्च नहीं रुकता है। इस तरह गाँव के ज़रूरतमंदों को क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। गाँव में क़र्ज़ में डूबना वैसा ही है जैसा चूहा रोटी की तलाश में चूहेदानी में फंस जाता है। मूलधन के अलावा हर माह 5 से 10 रुपए सैकड़ा सूद देना सब के लिए थोड़े आसान है। हर महीने सूद मूलधन में जुड़ता चला जाता है, जिसे हिसाब में ‘चक्रवृद्धि ब्याज’ कहते हैं। एक पल के लिए कोई भूख घास खाकर भी मिटा  सकता है, मगर जब कोई अपना बीमार पड़ जाये तो मोह़ताजों को धनाड्य सेठ के पैरों में मजबूरन नाक रगड़ना पड़ता है। ऊपर से गाँव में छुआछूत और भेदभाव का चलन आज भी बरकरार है। मजाल है कि कोई अवर्ण सवर्णों के घर जा कर उनके ग्लास में पानी पी ले। जाति और वर्ग पर आधारित असमानता सूरज चाँद की तरह ही आज भी प्रत्यक्ष है। इस गुलामी से मुक्ति पाने के लिए ही तो मीठी के पापा वर्षों पहले शहर भागे थे। मगर देश के पत्थर-दिल शहर ने भी मजदूरों को सिर्फ लूटा। कोरोना के दौर में  जान बचाकर मीठी के पापा और उनके जैसे करोड़ों मज़दूर आज गाँव पहुंचे हैं। एक बार फिर गाँव की अमीरी-ग़रीबी और ऊंच-नीच की चक्की उन्हें पिसने के लिए तैयार रहना है। (Source: Janchowk.com)
(अभय कुमार जेएनयू से पीएचडी हैं। इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में है। आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं।)

अजीत जोगी: डीएम जो सीएम भी बना

भारतीय प्रशासनिक सेवा की अपनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड़कर राजनीति में आए अजीत प्रमोद कुमार जोगी यानी अजीत जोगी (जन्मः 29 अप्रैल 1946 – निर्वाणः 29 मई 2020) जिलाधिकारी से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले संभवत: अकेले शख्स थे। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के एक गांव में शिक्षक माता-पिता के घर पैदा हुए जोगी को अपनी इस उपलब्धि पर काफी गर्व था और जब तब मौका मिलने पर अपने मित्रों के बीच वह इसका जिक्र जरूर करते थे। करीब दो दशक पहले अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल करने वाले जोगी का शुक्रवार को निधन हो गया। वह 74 वर्ष के थे। कुछ दिन पहले ही उन्हें हृदयाघात के बाद रायपुर के एक निजी अस्पताल में भर्ती किया गया था। राजनीति में आने से पहले और बाद में भी लगातार किसी न किसी से वजह से हमेशा विवादों में रहे जोगी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बहुत प्रभावित थे और पत्रकारों और अपने नजदीकी मित्रों के बीच अक्सर एक किस्सा दोहराते थे। उनकी इस पसंदीदा कहानी के मुताबिक अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रोबेशनर अधिकारी के तौर पर जब उनका बैच तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिला तो एक सवाल के जवाब में इंदिरा गांधी ने कहा, ‘‘भारत में वास्तविक सत्ता तो तीन ही लोगों के हाथ में है– डीएम, सीएम और पीएम।’’ युवा जोगी ने तब से यह बात गांठ बांध रखी थी। जब वह मुख्यमंत्री बनने में सफल हो गए तो एक बार आपसी बातचीत में उन्होंने टिप्पणी की कि हमारे यहां (भारत में) ‘‘सीएम और पीएम तो कुछ लोग (एच डी देवेगौड़ा, पी वी नरसिंहराव, वी पी सिंह और उनके पहले मोरारजी देसाई) बन चुके हैं, पर डीएम और सीएम बनने का सौभाग्य केवल मुझे ही मिला है।’’ हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार रखने वाले और अपने छात्र जीवन से ही मेधावी वक्ता रहे जोगी की राजनीतिक पढ़ाई मध्य प्रदेश कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले अर्जुन सिंह की पाठशाला में हुई थी। नौकरशाह के तौर पर सीधी जिले में पदस्थापना के दौरान वह अर्जुन सिंह के संपर्क में आए थे। सीधी अर्जुन सिंह का क्षेत्र था और युवा अधिकारी के तौर पर जोगी उन्हें प्रभावित करने में पूरी तरह सफल रहे थे। बाद में रायपुर में कलेक्टर रहते हुए वह तब इंडियन एअरलाइंस में पायलट राजीव गांधी के संपर्क में आए। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब जोगी इंदौर में जिलाधिकारी के तौर पर पदस्थ थे और सबसे लंबे समय तक डीएम बने रहने का रिकॉर्ड उनके नाम हो चुका था। जून 1986 में उन्हें पदोन्नति के आदेश जारी हो चुके थे और जोगी इंदौर जिले में उनकी विदाई के लिए हो रहे आयोजनों में व्यस्त थे जब प्रधानमंत्री कार्यालय से उन्हें फोन कर नौकरी से इस्तीफा देने और राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करने को कहा गया। अपने एक संस्मरण में जोगी ने लिखा है कि वह बहुत धर्मसंकट में थे और अंत में पत्नी रेणु जोगी व मित्र दिग्विजय सिंह की सलाह मानते हुए उन्होंने नामांकन दाखिल करने का फैसला किया। जोगी ने लिखा है कि दिग्विजय सिंह ने उन्हें समझाते हुए न केवल राज्यसभा का प्रस्ताव स्वीकार करने की सलाह दी थी बल्कि यह भविष्यवाणी भी की थी कि राजनीति में उनका भविष्य बहुत उज्ज्वल है। जोगी के अनुसार, दिग्विजय ने कहा था, ‘‘भविष्य में कभी प्रदेश में किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने की बात आई तो उसका गौरव भी मुझे ही हासिल होगा।’’ यह संयोग ही था कि जब छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री के तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अजीत जोगी के नाम पर मुहर लगाई तो राज्य के नेताओं और विधायकों के बीच सहमति बनाने की जिम्मेदारी उन्होंने उस समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को ही सौंपी। कांग्रेस में आगे बढ़ने में जोगी को उनकी आदिवासी पृष्ठभूमि और नेतृत्व (गांधी परिवार) से नजदीकी का भरपूर फायदा मिला। लंबे समय तक वह गांधी परिवार के विश्वस्त नेताओं में रहे। एक समय कांग्रेस के भविष्य के नेताओं में उनकी गिनती होने लगी थी। मुख्यमंत्री बनने के पहले कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर पर उनका कार्यकाल आज भी याद किया जाता है। पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस के प्रवक्ताओं के तौर पर जो प्रमुख नेता पत्रकारों के बीच लोकप्रिय रहे उनमें महाराष्ट्र से पार्टी के प्रमुख नेता वी एन गाडगिल और उनके बाद जोगी ही थे। नौकरशाह के तौर पर मिले प्रशिक्षण ने जोगी की वरिष्ठ नेताओं के बीच पहुंच आसान बनाने में काफी सहायता की और इसका पूरा फायदा उन्होंने जानकारियां हासिल करने और उन्हें सुविधानुसार मीडिया तक पहुंचाने में उठाया। प्रवक्ता के तौर पर उनकी जो राष्ट्रीय छवि बनी उसने उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाने में काफी मदद की। जोगी जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने तब उनके सामने तीन बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके श्यामा चरण शुक्ल, उनके भाई विद्या चरण शुक्ल और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज थे। लेकिन इन सबका दावा खारिज कर सोनिया गांधी ने जोगी को प्राथमिकता दी। जोगी का सबसे बड़ा तर्क होता था कि ‘‘ये लोग कैसे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बन सकते हैं, इनमें से कोई भी स्थानीय छत्तीसगढ़ी भाषा में बात नहीं कर सकता।’’ यह सही भी था। शुक्ल बंधु मूलत: उत्तर प्रदेश से थे और वोरा राजस्थान से। लेकिन, जोगी को प्राथमिकता मिलने का कारण छत्तीसगढ़ी बोलने और समझने की उनकी योग्यता नहीं बल्कि उनका गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान होना था। कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी की ओर से की गई यह पहली महत्वपूर्ण नियुक्ति थी। छत्तीसगढ़ विधानसभा के लिए पहले चुनाव 2003 में हुए और जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस यह चुनाव हार गई। मगर, जोगी को तब तक यह गुमान हो चला था कि उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता। इस दौरान हुए एक स्टिंग ऑपरेशन से पता चला कि वह और उनके बेटे अमित जोगी भाजपा की सरकार गिराने के लिए कथित तौर पर विधायकों को पैसे की पेशकश कर रहे थे। इस कांड के छींटे सोनिया गांधी पर भी पड़े और यहीं से जोगी व गांधी परिवार के बीच दूरियां बननी शुरू हुईं। बावजूद इसके किसी विकल्प के अभाव में कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें अगले चुनाव में भी मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया। लेकिन तब तक यह साफ हो चुका था कि न तो कांग्रेस नेतृत्व जोगी को और सहने के पक्ष में है और न ही जोगी की नेतृत्व में कोई आस्था बची है। कांग्रेस में ठीक से बने रहने के लिए उनके पास एकमात्र सबसे बड़ी पूंजी के तौर पर सोनिया गांधी का विश्वास था और इसे गंवाने के बाद उनका जो हश्र होना था वही हुआ। जोगी खुद को छत्तीसगढ़ के ली-क्वान यू (आधुनिक सिंगापुर के निर्माता) के तौर पर देखते थे। जोगी का मानना था कि राजनीति के क्षेत्र में दांव पेंच, कूटनीति और छलकपट के बिना सफलता प्राप्त करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होता है। लेकिन, उनका मानना था कि, ली क्वान यू ने साबित किया कि इन सबके बिना भी आप सफल हो सकते हैं अगर आप कर्तव्यनिष्ठ और निष्ठावान हों तो। मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने प्रशासनिक अनुभव के आधार पर जोगी ने नए राज्य की आधारशिला को मजबूत करने के लिए कई दूरदर्शी फैसले लिए, लेकिन इस बीच में वह ली-क्वान यू के उन दो गुणों को भूल गए जो उनके ही शब्दों में सिंगापुर के महान नेता को बाकी राजनीतिज्ञों से अलग बनाते थे- कर्तव्यनिष्ठ और निष्ठावान होना। (एजेंसी ‘भाषा’ में प्रकाशित यह आलेख, साभार प्रकाशित)

बहुजन समाज को बेकार करती सरकारी योजनाएं !

सच्ची घटना है। एक गांव में मुझे बचपन का परिचित मिल गया। परदेस में वह ठीक ठाक कमा लेता था लेकिन गांव में मुफ्त की सरकारी सुविधाओं का सुनकर गांव आ गया। बीपीएल में नाम लिखवा दिया। फिर क्या था, उसके तो सपने साकार होने लगे। घर की छत सरकार ने बनवा दी। दो रूपये किलो आटा चावल से वह धन्य होने लगा। राशन की सस्ती चीनी उसे गुड़ से भी मीठी लगने लगी। राशनकार्ड मानो अलादीन का चिराग हो गया। सब कुछ फोकट में या सस्ता। ऊपर से बुढे माता पिता की पेंशन। अब कमाने की कसरत क्यूं करे। गांव के खूंटे में वह राजी राजी बंध गया। कभी कभार छुट्टा काम कर लेता था वरना सारे दिन गांव की चौपाल पर गप्पें। उसके जैसे ही चार पांच मिलकर रोज इंटरनेशनल कॉन्फ्रेस करने लगे। शाम होते ही देशी ठर्रे की महफिल जम जाती। परिवार में क्लेश बढ गये। बच्चों की पढाई लिखाई का कोई अता पता नहीं। मैंने उसे कहा, भाई! सारे दिन चौपाल पर बैठकर गप्पे मारते हो। यहां फ्रूट्स की एक लॉरी क्यों नहीं खड़ी कर देते? अच्छी कमाई होगी। वह एक धुरंधर अर्थशास्त्री की तरह मुझे ढंग से समझाते हुए बोला,डॉक्टर साहब।।! यदि मैं फ्रूट्स की लॉरी लगाऊंगा तो मेरी इनकम बढ जाएगी। गांव में पता चल जाएगा और ये मनुवादी मेरा नाम बीपीएल से काट देंगे।  मुझे वापस शहर जाना पड़ेगा। आज हर गांव में मुफ्त की सरकारी सुविधाओं के अंधे मोह में फंसकर कई हुनरमंद बहुजन जीवन बर्बाद कर रहे हैं। बीपीएल, राशनकार्ड, सब्सिडी, सस्ती चीनी, चावल के लोभ में खुद के बाद बच्चों का भी भविष्य बर्बाद कर रहे हैं। राशनकार्ड बनवाने व बीपीएल में नाम जुड़वाने के लिए ही जिंदगी दांव पर लगा रहे हैं। हमारे आसपास पशुपालन, खेती, किराणा, गारमेंट्स, शूज ,स्टेशनरी, कॉस्मेटिक्स, फल सब्जी आदि कई तरह के बिजनेस खूब बिखरे पड़े है जरूरत साहस व समझ की हैं। गरीब रहकर जीवन गुजारना कोई आदर्श नहीं है। बदहाली व गरीबी से निजात पाना जरूरी हैं। अब बहाना नहीं चलेगा, हर ओर ऑनलाइन बिजनेस हो रहा हैं। बुद्धिमानी व हुनरमंद लोग सिर्फ काजू बादाम या गोल्ड ज्वैलरी के ही बिजनेस नहीं करते है बल्कि गोबर के उपलें भी ऑनलाइन बेचकर लाखों कमा लेते हैं और हम छोटी सी सरकारी नौकरी के लिए माता पिता को धोखे में रख कई साल कोचिंग करते रहते हैं। आप सभी में भी अपार प्रतिभा है।सरकारी नौकरी के अलावा भी कई अच्छे विकल्प है। अपनी क्षमता को पहचानो। जागो !समय किसी का इंतजार नहीं करता। हुनर आजमाओ, मेहनत करो। धनवान बनो। नशा छोड़ो और जीवन मोड़ो। सबका मंगल हो।।।।। सभी प्राणी सुखी हो
इस आलेख के लेखक डॉ. एम एल परिहार, जयपुर हैं। डॉ. परिहार बहुजन आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। बुद्धम पब्लिकेशन के नाम से प्रकाशन के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। उनसे संपर्क- 9414242059 पर किया जा सकता है।  

संक्रामक बीमारियों से लैस भारत में कोरोना के खतरे की हकीकत

क्या सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर समूहों को भी कोरोना वायरस से उतना ही खतरा है, जितना कि अन्य बीमारियों और भुखमरी से, जिसकी अब आहट सुनाई देने लगी है। या, इन वर्गों में इस खतरे को महसूस करने के स्तर में गुणात्मक भिन्नता है? बहुत ज़िम्मेदारी के साथ भी इतनी बात तो कही ही जा सकती है कि भारत समेत दूसरे गरीब व विकासशील देशों के मेहनतकश और विभिन्न तबके को कोरोना वायरस से बहुत कम ख़तरा महसूस होगा। टी. बी., डायरिया, न्यूमोनिया जैसी घातक बीमारियों से ग्रस्त इस क़ौम को वह बीमारी कितनी खतरनाक लग सकती है, 80 फीसदी मामलों में शरीर में जिसके कोई लक्षण ही नहीं दिखते, जिसके 95 प्रतिशत मरीज स्वत: ठीक हो जाते हैं! जिसमें  संक्रमित व्यक्ति के मृत्यु का जोखिम (infection fatality rate ) 0·39–1·33 प्रतिशत के बीच है। हालांकि विश्व स्वास्थ संगठन ने इसकी मृत्यु दर 3.4 होने का अनुमान जताया है, लेकिन जैसे-जैसे संक्रमण की संख्या बढ रही है, उसके अनुपात में मृत्यु की दर नहीं बढ रही, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कोविड की औसत मृत्यु दर और कम होगी। कोविड से मौत का शिकार होने वालों में अधिकांश बहुत बुज़ुर्ग लोग हैं, उनमें भी अधिकांश वे जो हृदय-रोग, कैंसर, किडनी, हाइपरटेंशन आदि ‘अभिजात’ बीमारियों के बुरी तरह पीड़ित लोग थे। भारत, पाकिस्तान,  बांग्लादेश, इंडोनेशिया, नाइजीरिया व दक्षिण अफ्रीका व अन्य देशों के ग़रीबों के लिए सबसे घातक टी.बी. का संक्रमण है। यह कोरोना की तुलना में बहुत घातक है। विश्व में हर साल लगभग 1 करोड लोगों को टी.बी. के लक्षण उभरते हैं,  जिसे हम सामान्य भाषा में “टी.बी. हो जाना” कहते हैं। इन एक करोड़ लोगों में से लगभग 15 लाख लोगों की हर साल मौत होती है। जिन अन्य संक्रामक बीमारियों से दुनिया के गरीब लोग सबसे अधिक मरते हैं, उनका आधिकारिक आंकड़ा इस प्रकार है- डायरिया से हर साल लगभग 10 लाख, न्यूमोनिया से 8 लाख, मलेरिया से 4 लाख, हेपेटाइटिस-सी से 3.99 लाख और हैजा से लगभग 1.43 लाख लोग मरते हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई जानलेवा संक्रामक बीमारियाँ हैं, जिनमें से अनेक अभी भी ला-इलाज़ हैं। इसे समझने के लिए लेख के साथ प्रकाशित चार्ट में कुछ प्रमुख बीमारियों से संबंधित आंकड़े देखें। चार्ट में दर्शाये गई ‘मृत्यु दर’ का अर्थ है कुल संक्रमित रोगियों (रिपोर्टेड और अनरिर्पोटेड सम्मिलत) में से मरने वालों का प्रतिशत। अभी तक के शोधों के अनुसार कोविड की मृत्यु दर 0·39 से 1·33 प्रतिशत के बीच है, जबकि टीबी में अगर पूर्ण इलाज न मिले तो इसकी मृत्यु की दर 60 प्रतिशत है। चार्ट में उल्लिखित ‘संक्रमण फैलने की दर’ का अर्थ है कि किसी बीमारी से संक्रमित एक व्यक्ति/जीव कितने अन्य व्यक्तियों को संक्रमित करता है। कोरोना वायरस से संक्रमित एक व्यक्ति औसतन 1.7 से लेकर 2.4 व्यक्तियों तक को संक्रमित कर देता है। जबकि टीवी का एक मरीज 10 अन्य व्यक्तियों को संक्रमित करता है। चार्ट में इन रोगों से हर साल मरने वालों की औसत संख्या भी दी गई है। अधिकांश पैमानों में कोविड की घातकता गरीब और निम्न मध्यमवर्ग को होने वाली अन्य बीमारियों से कम हैं। कुछ संक्रामक बीमारियों का वैश्विक आंकड़ा
बीमारी मृत्यु दर (case fatality rate) संक्रमण फैलने की दर basic reproductive ratio हर वर्ष मरने वालों का औसत (लगभग) yearly fatalities rate, Rounded संक्रमण का वाहक primary mode of transmission रोग-जनक pathogen type
कोविड : 19 0·39–1·33%(अद्यतन अध्ययनों के अनुसार) 1.7- 2.4 (अद्यतन अध्ययनों के अनुसार) चार महीने में दो लाख (लॉक डाउन के बावजूद) थूक की बूंदों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क में आने/ हवा में उडने वाले अतिसूक्ष्म कणों के संक्रमण के अभी तक प्रमाण नहीं वायरस
टीबी (इलाज नहीं होने पर) 60% 10 15 लाख प्रति वर्ष हवा में उडने वाले सूक्ष्म बूंदों से, जो बहुत समय तक बरकार रहती हैं बैक्टीरिया
मौसमी इन्फ्लूएंजा (फ्लू) 0.10% 2.5 2.90 लाख से 6.5 लाख  प्रति वर्ष हवा में उडने वाले सूक्ष्म बूंदों से, जो बहुत समय तक बरकार रहती हैं वायरस
न्यूमोनिया 8 लाख प्रति वर्ष
मलेरिया 0.50% 80 4 लाख प्रति वर्ष मच्छर काटने से परजीवी
हेपेटाइटिस-सी 3.99 लाख प्रति वर्ष
हैजा (इलाज नहीं होने पर) 50% 2.13 1.43 लाख प्रति वर्ष मल-कण से बैक्टीरिया
रैबीज 100% 1.6 55 हजार प्रति वर्ष कुत्ते के काटने से वायरस
टायफ़ायड 20% 2.8 1.61 लख प्रति वर्ष मल-कण से बैक्टीरिया
अब भारत के आंकडों पर नजर डालें। अकेले भारत में हर साल 25 लाख से अधिक लोगों को टी.बी. होती है, जिनमें से हर साल पांच लाख लोगों की मौत हो जाती है। टी.बी. से मौतों के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है। भारत में न्यूमोनिया से हर साल 1.27 लाख लोग मरते हैं, जिनमें सबसे अधिक बच्चे होते हैं। न्यूमोनियो से मरने वालों में विश्व में भारत का नंबर दूसरा है। पहले नंबर पर नाइजीरिया है। भारत में हर साल मलेरिया से लगभग 2 लाख लोग मरते हैं, जिनमें ज्यादातर आदिवासी होते हैं। इस रोग के मरने वालों में ज्यादातर युवा होते हैं। भारत में हर साल एक लाख से अधिक बच्चे डायरिया से मर जाते हैं। इसी तरह हैजा से भी यहां हर साल हजारों लोग मरते हैं। इतना ही नहीं, अनेक गरीब और विकासशील देशों की तरह भारत सरकार का रिकार्ड भी इन बीमारियों की रिर्पोटिंग करने के मामलें में बहुत खराब रहा है। अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें भारत द्वारा विश्व स्वास्थ संगठन को भेजे गए बीमारियों के आंकडे वास्तविक संख्या से कई सौ गुणा कम थे। वर्ष 2015 में भारत ने विश्व बैंक को बताया कि उस साल यहां सिर्फ 561 लोग मलेरिया से मारे गए, जबकि वास्तविकता थी कि यहां हर साल यहां लगभग 2 लाख युवा व अधेड आदिवासी मलेरिया से मर रहे थे। भारत सरकार के इस गैरजिम्मेवाराना और शर्मनाक व्यवहार को अल-जरीरा के अपनी रिपोर्ट में उजागर किया था। इसी प्रकार हैजा के मामलों को बहुत कम करके रिपोर्ट करने पर आपत्ति जताते हुए एक शोध-पत्र विश्व स्वास्थ संगठन के बुलेटिन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें शोधकर्ताओं ने पाया था कि भारत द्वारा हैजे के मामले की गई रिर्पोटिंग न सिर्फ अधूरी है, बल्कि घटनाओं का आँकड़ा रखने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तरीके भी गलत हैं। दरअसल, सारा खेल आँकड़ों का ही है। कोरोना वायरस को लेकर जो वैश्विक हड़बड़ी और अफरातफरी फैली है, उसका कारण विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा रीयल-टाइम में कोरोना से संबंधित आंकडों को संकलित करना व उसे जारी करना है। अन्यथा, कोरोना से होने वाली ‘संभावित’ मौतों का आंकडा भी इन संक्रामक बीमारियों से हर रोज हो रही ‘वास्तविक’ मौतों की बराबरी नहीं कर सकता। यह एक दीगर अनुसंधान का विषय है कि कॉरोना को लेकर आखिर पूरी दुनिया में ऐसी अफरा तफरी कैसे बनी, कैसे और क्यों यह ख़बरें इतनी तेजी से प्रसारित हुईं। इसके तार एक ओर दुनिया के स्वास्थ बाजार के किंगपिन बिल गेट्स द्वारा संपोषित आंकड़ों के संधान और वैक्सीन निर्माण में लगी दर्जनों विशालकाय संस्थाओं से जुड़े हैं। दूसरी ओर मध्यम वर्ग के असुरक्षित और जिंदा रहने को अंतिम मूल्य मानने वाले मनोविज्ञान और पिछले वर्षों में विश्वव्यापी हुई इंटरनेट जनित जनसूचना-क्रांति ने इसे गति प्रदान की है। अन्यथा, अनेक संपन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी इसे बड़ी बीमारी मानने से इंकार कर चुके हैं। उनकी स्वास्थ्य विभागों द्वारा जारी मृत्यु के आंकड़े भी बताते हैं कि इन महीनों की औसत मृत्यु दर में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। लेकिन उनके देश की जनता की मांग थी कि लॉक डाउन किया जाए। उन्हें उनके घरों में बंद कर दिया जाए, ताकि वे और उनके बच्चे सुरक्षित रहें। भारत में ताली और थाली तो समृद्ध देशों की नकल में माहिर प्रधानमंत्री ने बाद में बजवाई। यूरोप में तो यह फरवरी से ही बज रही है। लोग अपनी खिड़कियों- बालकनियों में आकर बाइबल पढ़ रहे हैं, प्रार्थनाएं कर रहे हैं और राष्ट्रगान गा रहे हैं। आखिर, ऐसा क्यों है कि लोग खुद अपनी आजादी त्याग रहे हैं? आर्थिक समृद्धि, तकनीक के विकास और नवउदारवादी मूल्यों ने अमेरिका व यूरोप के अधिकांश देशों में व्यक्तिवाद को चरम अवस्था में पहुंचा दिया है। अति-सुरक्षित जीवन ने उन्हें वास्तव में भीतरी असुरक्षा से भर दिया है। वे जानते हैं कि उनका न कोई सगा है, न कोई समाज। और यह सिर्फ अमेरिका और यूरोप में ही नहीं हुआ है। भारत समेत विभिन्न विकासशील देशों में भी उन्हीं परिस्थितियों ने जिस नए मध्यम वर्ग को बनाया है, उसकी भी यही हालत है। कोरोना की भयवहता पर उंगली उठाकर लोगों की कटू आलोचना झेलने वाले इटली के दार्शनिक प्रोफेसर जियोर्जियो अगाम्बेन के शब्दों में कहें तो यह एक ऐसा समाज बन गया है, जिसका एक मात्र मूल्य जिंदा रहना रह गया है। प्रोफेसर अगाम्बेनम कहते हैं, आज हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जो तथाकथित ‘सुरक्षा के कारणों’ से अपनी आजादी को कुर्बान कर रहा है और खुद को संभवत: हमेशा के लिए भय और असुरक्षा की स्थिति में रहने की सजा देने जा रहा है। दुनिया में हर दिन 4100 से अधिक लोगों के टीबी से तड़प-तड़प कर मरने खबर होती है, जो हम तक नहीं पहुंचती। दुनिया में 180 करोड़ लोग, यानी दुनिया की एक चौथाई आबादी,  टी.बी.के बैक्टेरिया ‘माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस’ की साइलेंट कैरियर हैं। विश्व स्वास्थ संगठन की रिपोर्ट बताती है दुनिया में हर सेकेंड एक नए व्यक्ति को टीबी का संक्रमण हो रहा है। टीबी से मरने वाला हर आदमी मरने से पहले 10 लोगों को यह बीमारी दे चुका होता है। टीबी भी कोरोना की ही तरह, संक्रमित व्यक्ति की खांसी, छींक यहां तक हवा में उडती थूक की बूंदों से फैलता है। इसी तरह दुनिया में डायरिया से हर रोज 2700 लोग, न्यूमोनिया से 2100 लोग, मलेरिया से 1 हजार , हेपेटाइटिस-सी 1 हजार और हैजा से लगभग 450 लोग मरते हैं। और, जिसे हम सामान्य फ्लू मान कर अक्सर फूंक में उड़ा देने वाला समझते हैं, उस मौसमी इन्फ्लूएंजा (फ्लू) से दुनिया में हर रोज 850 से 1800 लोग मर जाते हैं। मौसमी फ्लू दुनिया में कहीं न कहीं हमेशा बना रहता है, जिस साल यह जोर मारता आता है, उस साल इससे मरने वालों की संख्या बढ जाती है। अन्य वायरस जनित बीमारियों की ही तरह आज तक फ्लू की प्रमाणिक दवा नहीं बन सकी है। इसके लिए जो वैकसीन बना है, वह भी सिर्फ एक मौसम में काम करता है, क्योंकि अगले मौसम में यह वायरस रूप बदल कर आता है, जिससे उस वैकसीन का प्रभाव जाता रहता है। जिस अमेरिका में पिछले चार महीने में लगभग एक लाख लोगों की कोविड से मृत्यु होने की दुखद खबरें हमें मिल रही हैं, उसी अमेरिका में हर वर्ष सर्दियों के चार महीनों में इंफ्लुएंजा से हजारों लोगों की मौत होती रही है। कहा जाता है कि 2017-18 की सदियों में वहां 80 हजार लोगों की मौत फ्लू के वायरस से हो गई थी लेकिन उस समय हमें इसकी रीयल-टाइम पर खबर नहीं दी गई थी। इतना ही नहीं, अभी जो कोविड से मौतों के आंकडे सामने आ रहे रहे हैं, उसमें ‘इंफ्लूएंजा जैसी बीमारियों’, हृदय आघात आदि को भी जोड दिया जा रहा है। कुछ और आंकडे देखें; संक्रामक और गैर-संक्रामक बीमारियों से कुल मिलाकर आज दुनिया में हर साल लगभग 5.9 करोड लोगों की मौत होती है। यानी प्रति दिन लगभग 1 लाख 62 हजार लोग इन बीमारियों से मर जाते हैं। जबकि इनमें अधिकांशतः ऐसी बीमारियाँ हैं, जिनका इलाज संभव है। दुनिया में हर साल 1.79 करोड़ लोग हृदय संबंधी बीमारियों से, फेफड़ों के कैंसर से 17 लाख, और मधुमेह (Diabetes) से 16 लाख लोग मर जाते हैं। सबसे तेजी से मनोरोगियों की संख्या बढ़ रही है। दुनिया में 2000 से 2016 के बीच मनोभ्रंश (Dementia) के रोगियों की संख्या दोगुनी बढ़कर 50 लाख हो गई जो हर साल बढ़ रही है। 2014 में यह मौतें के मामले में दुनिया की 14 वीं सबसे बड़ी बीमारी थी, लेकिन आज यह पांचवीं सबसे बड़ी बीमारी है। ये वे बीमारियां हैं, जिन्हें मैंने ऊपर “अभिजात” कहा है। ये संक्रामक नहीं हैं, बल्कि गलत जीवन-शैली के कारण होती हैं। ज्यादातर शारीरिक श्रम न करने वाले खाए-पीए-अघाए लोग तथा कुछ मामलों में बुज़ुर्ग लोग इनका शिकार होते हैं। इनमें से कुछ संक्रामक बीमारियाँ दशकों से और कुछ तो सदियों-सहस्त्राब्दियों से चली आ रही हैं, लेकिन इन्हें रोकने के लिए कभी इस प्रकार के लॉकडाउन का सहारा नहीं लिया गया। लॉकडाउन का अर्थ है आने वाले वर्षों में समाज में भुखमरी से करोड़ों ग़रीब लोगों की मौत और कुटिल राजनेताओं द्वारा नागरिक स्वतंत्रता का हरण। मनुष्यता इन बीमारियों के साथ रहना, इनसे लड़ना जानती है। वह इन लड़ाइयों के लिए नए-नए औजार भी विकसित करती रही है, और दुनिया का कारवां चलता रहा है। जरूरत अगर किसी चीज की है तो वह है स्वास्थ्य सेवाओं के समाजवादीकरण की, जो जनता को उसकी लड़ाई में मदद करे, न कि उसे क़ैद कर  सरकारों और कंपनियों के रहमो-करम पर छोड़ दे।
प्रमोद रंजन लंबे समय तक ‘फारवर्ड प्रेस’ हिन्दी के संपादक रहे हैं।  ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’, ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर : मिथक व परंपराएं’ और ‘शिमला-डायरी’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। वह इन दिनों असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं। उनसे संपर्क-+919811884495, janvikalp@gmail.com पर कर सकते हैं।

लेनिन से सीखने की जरूरत है खारिज करने की नहीं

इंडियन एक्सप्रेस में इधर किसी लेख के जवाब में लेखक, अध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता अपूर्वानंद की टिप्पणी पर नजर पड़ी।  पहले तो मुझे लगा कि शायद लेखक कह रहे हैं कि लेनिन के क्रांति के मॉडल को भारत में दोहराने की जरूरत नहीं है। लेकिन जब पूरा लेख पढ़ा तो मुझे आश्चर्य और बेहद निराशा हुई। लेखक महोदय ने न केवल लेनिन और रूस की अक्टूबर क्रांति को खारिज किया है बल्कि यहां तक कह दिया है कि लेनिन ने जो व्यवहार रूस में अपनी जनता के साथ किया था, वैसा ही व्यवहार पिछले 6 वर्षों से भारत में देश की जनता के साथ किया जा रहा है। यानी मोदी सरकार से भी बदतर सोवियत सरकार रही है। हममें से कुछ उदारवादियों की यह समस्या है कि वह राज्य और सरकार के वर्ग चरित्र से पूरी तौर पर आंख बंद कर लेते हैं। भला कोई आदमी सोवियत यूनियन के राज्य का और यहां (भारत) के सामंती पूंजीवादी राज्य की तुलना कैसे कर सकता है। कहां सोवियत सरकार मजदूर, किसान, शोषित-उत्पीड़ित जनता के राज्य का प्रतिनिधित्व करती है और कहां यहां की सरकार जो कि घोर सामंती, कारपोरेट, पूंजीपतियों की ब्राह्मणवादी सरकार है। हमने भारतवर्ष में अधिकांश उदारवादी राजनेताओं का यहां तक कि गांधीजी, लोहिया व जयप्रकाश की रचनाओं का भी अध्ययन किया है। कहीं भी हमने अक्टूबर क्रांति को और लेनिन को इस तरह से खारिज करते हुए नहीं देखा है। कोई ऐसा कर भी कैसे सकता है। मानव इतिहास में जो भूमिका अक्टूबर क्रांति की है, उसने दुनिया की सभ्यता को मानवता को एक नया युग दिया, एक नई सभ्यता और संस्कृति दी। लेखकों को और बुद्धिजीवियों को दर्शन और अवधारणा के क्षेत्र में तर्क और खंडन करने का पूरा अधिकार है। लेकिन राजनीति वास्तविकताओं और संभावनाओं के ही दायरे में काम करती है। 1789 की स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की फ्रांस की महान क्रांति की जमीन पर तानाशाह सम्राट नेपोलियन ने कब्ज़ा कर क्रांति के मूल्यों को खत्म कर दिया था। यूरोप में 1848 की क्रांति विफल हो गई थी,  पेरिस कम्यून की क्रांति को रौंद दिया गया था। समाजवादी क्रांतिकारियों और में सेविकों के लोकतंत्र का रूसी प्रयोग न केवल बेहद निम्न कोटि का था बल्कि विफल होने के लिए अभिशप्त था।  इसी पृष्ठभूमि में लेनिन ने यूरोप की विफल क्रांतियों से सीख लेते हुए परिवर्तन की राजनीति का जो यथार्थ बनाया, जो अक्टूबर क्रांति की, उसने दुनिया के इतिहास के चित्र को ही बदल दिया। यह अक्टूबर क्रांति ही थी जिसने हमारे जैसे ढेर सारे गुलाम मुल्क के लोगों में आजादी की लड़ाई को नई रोशनी दी, हमारे संघर्ष को स्वतंत्रता तक पहुंचाया। यह लेनिन की राजनीति की विरासत ही थी, जिसने हिटलर और मुसोलिनी के नाज़ीवाद और फासीवाद को शिकस्त देकर उदारता और मानवता की रक्षा की। अगर उस समय फासीवाद को परास्त करने की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी सोवियत यूनियन ने न ली होती तो आज हम उदारवादियों की क्या स्थिति होती, यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। माना कि लेनिन से भी गलतियां हुई होगी, लेकिन उन परिस्थितियों पर भी गौर करने की जरूरत है जहां वह चारों तरफ मानवता विरोधी ताकतों से घिरे हुए थे। यह जरुर है कि लेनिन ने 1918 से 1921 तक वार कम्यूनिज्म का दौर चलाया, जिसमें कुछ ज्यादतियां भी हुई,  लेकिन उन्हीं लेनिन ने सोवियत यूनियन के लिए एक नई अर्थव्यवस्था का भी प्रयोग किया। मार्क्स की वह महान अवधारणा जिसमें कोई राज्य नहीं होगा, जिसमें मनुष्य खुद ही अपनी नियति का कर्ता होगा, जीवन संपूर्णता में जियेगा, उसका पहला सफल राजनीतिक प्रयोग लेनिन ने ही किया। लेनिन का यह प्रयोग मानवता में यह विश्वास पैदा करता है कि एक राज्यविहीन समाज का भी निर्माण आने वाली पीढ़ियां जरूर करेंगी, जिसमें मनुष्य की मर्यादा और सत्ता सर्वोपरि होगी। लेनिन जानते थे कि बगैर वर्ग के विनाश के मनुष्यता की,  मानवता की रक्षा नहीं की जा सकती। जिस विविधता, बहुलता के नागरिक समाज को आज हम दुनिया में देखते हैं, उसकी भी नीव लेनिन ने ही रखी थी। यही नहीं नर-नारी समानता का उद्घोष लेनिन से ही हुआ था। इसलिए दुनिया भर के नारी आंदोलन आज भी लेनिन को अपना पथ प्रदर्शक मानते हैं। भारतवर्ष में डॉक्टर आंबेडकर ने भी यह महसूस किया कि यहां जातियां ही हैं जो वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं और बिना जाति विनाश के नागरिक समाज का निर्माण नहीं हो सकता।  स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के विचार को फलीभूत नहीं किया जा सकता। वर्ग विहीन समाज में ही जाति विनाश और जाति विहीन समाज से ही वर्ग विहीन समाज का निर्माण होता है। वर्ग और जाति के विरुद्ध संघर्ष एक संपूर्ण  इकाई है उसे एक दूसरे के विरुद्ध नहीं खड़ा किया जा सकता है। बुद्ध ने भी ब्राह्मणवाद से, जातिवाद से मुक्ति के लिए ही इस लोक  और व्यक्ति के ज्ञान पर जोर दिया और कहा कि अप्प दीपो भव:।  यह महान दर्शन भी भारत में ब्राह्मणवाद से पराजित हुआ, लेकिन मानव जाति की सेवा में इसकी भूमिका समाप्त नहीं हुई है। इसलिए इस दौर में जहां फासीवाद अपने वीभत्स रूप में भारतीय राज्य, समाज और जीवन को निगलने में लगा हुआ है, लेनिन से सीखने की जरूरत है, खारिज करने की नहीं। नवउदारवाद निकृष्ट और निर्मम उत्पादन प्रणाली है, जो हमारे देश में फासीवाद का कारण बनी हुई है। उससे निपटने में उदार विचार और पूंजीवादी व्यवस्था सक्षम नहीं दिख रहे हैं। इसलिए नई समतामूलक आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए मार्क्स और लेनिन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जैसे हम डाक्टर आंबेडकर, गांधी, लोहिया, जय प्रकाश  के प्रयोग से सीख सकते हैं। स्वयं गांधी जी ने भी बहुत सारी गलतियां की थीं, लेकिन आज हम उन्हें फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में खारिज तो नहीं कर सकते हैं।
  • लेखक एस आर दारापुरी, आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।

ईद तो खुशियां बांटने का नाम है

 
  • अभय कुमार
ईद का मतलब होता है जो “बार बार आए”. मगर इसका मतलब “ख़ुशी मनाना” और “जश्न मनाना” भी होता है. महीने भर रोज़ा रखने के बाद ईद मनाई जाती है. यह ख़ुशी का दिन होता है. दरअसल ख़ुशी कोई अकेले मना नहीं सकता. अगर कोई मना भी ले तो वह बेमज़ा और बेरंग होगा. एक सच्चा इंसान दूसरों की ख़ुशी देखकर ज़्यादा ख़ुश होता है. वह जानता है कि समाज में सब की ख़ुशी में ही ख़ुद की ख़ुशी है. कल मेरे एक कश्मीर के सीनियर दोस्त से बात हुई. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों वहां की लोकल मस्जिद ने उनको एक मशविरा के लिए बुलाया. उनसे पूछा कि “क्या मस्जिद का पैसा किसी जरूरतमंद को दिया जा सकता है जो मुसलमान नहीं है?” बात यह थी कि मस्जिद कमेटी के पास कुछ पैसे थे. कश्मीर में बहुत सारे प्रवासी मज़दूर काम करते हैं. लॉकडाउन में उनकी हालत ठीक नहीं है. मस्जिद कमेटी उनको इस शर्त पर पैसा देने के लिए विचार कर रही थी कि जब भी उनको सहूलियत हो वह इसे लौटा दें. मेरे कश्मीरी दोस्त ने बग़ैर वक़्त लिए अपनी राय दी: “जरूरतमंदों और मोहताजों की मदद करने और उनके चेहरे पर मुस्कान लाने से बेहतर अमल और कुछ हो ही नहीं सकता. इस से बेहतर ईद मनाने का कोई दूसरा तरीक़ा हो ही नहीं सकता”. इस तरह कश्मीर की एक मस्जिद ने मज़हब से ऊपर उठ कर इंसानों की मदद की. मेरे गांव के भी बहुत सारे मज़दूर कश्मीर में पेंटर का काम करते हैं और उन्होंने मुझे ख़ुद बतलाया है कि कश्मीरी लोग न सिर्फ उन्हें मज़दूरी ज़्यादा देते हैं बल्कि उनके लिए खाने पीने और सोने का भी इंतेज़ाम करते हैं. मगर जब ये मजदूर अपने घर लौट कर आते हैं और आसपास में काम करने जाते हैं तो इनके साथ गांव के लोग भेदभाव बरतते हैं. पानी पीने के लिए मालिक अपना बर्तन नहीं देते. अभी कोरोना की आफत में मुस्लिम समाज अपनी संख्या और ताक़त से कहीं ज़्यादा मानवता की सेवा कर रहा है. दो दिन पहले मुझे बिहार के कुछ सिलाई का काम करने वाले कारीगरों ने फोन किया और कहा कि ईद से पहले उनका हाथ खाली है. मैंने बग़ैर कुछ सोचे जामिया इलाक़े में रहने वाले एक साहेब को फोन किया. अगले रोज कारीगरों को राहत पहुंचाई गई. इन दिनों जब लाखों करोड़ों मज़दूर बेहाल हैं, तब भी मुसलमानों ने रोज़े रखते हुए उनके खाने पीने का इंतेज़ाम किया. राह चलते मुसाफिरों के लिए पानी, बिस्कुट, पावरोटी, केला लिए मुस्लिम बस्तियां तैयार रहती थी. बहुत सारे मुसलमानों ने लॉकडाउन के दौरान दिन रात ज़रूरतमंदों को राशन और खाना पहुंचाया. मेरे लिए ईद का यह सब से बड़ा पैग़ाम है कि “ख़ुश रहने के लिए ख़ुशियां बांटो”. अगर यह बात महलों में रहने वालों को समझ में आ जाए तो पीड़ा से रो रही धरती स्वर्ग बन जाए. आइए हमसब मिलकर एक दूसरे को ईद की मुबारकबाद दें. जैसे रोशनी बांटने से रोशनी बढ़ती है वैसे ख़ुशी बांटकर ख़ुशियां बढ़ाएं.
(अभय कुमार जेएनयू से पी.एच.डी. हैं. इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में हैं. आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं)

दलित दस्तक मैग्जीन का मई-जून 2020 अंक ऑन लाइन पढ़िए

[pdf-embedder url=’https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2020/08/may-june2020-revised2.pdf’] दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने आठ साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2020 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने आठ साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए नवें साल का पहला-दुसरा अंक लेकर आए हैं. अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है. मैगजीन सब्स्क्राइब करने के लिये यहां क्लिक करें मैगजीन गैलरी देखने के लिये यहां क्लिक करें

द्रोण मानसिकता या अग्रणी शिक्षा संस्थानों में ऑपरेशन एकलव्य

सुभाष गाताडे तेरह साल का एक वक्फा़ गुजर गया जब थोरात कमेटी रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. याद रहे सितम्बर 2006 में उसका गठन किया गया था, इस बात की पड़ताल करने के लिए कि एम्स अर्थात आल इंडिया इन्स्टिटयूट आफ मेडिकल साईंसेस में अनुसूचित जाति जनजाति के छात्रों के साथ कथित जातिगत भेदभाव के आरोपों की पड़ताल की जाए। उन दिनों के अग्रणी अख़बारों में यह मामला सूर्खियों में था। / देखें, द टेलीग्राफ 5 जुलाई 2006/ आज़ाद भारत के इतिहास में वह अपने किस्म की पहली रिपोर्ट रही होगी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोरात तथा अन्य दो सदस्यों ने मिल कर, इस अग्रणी संस्थान में आरक्षित श्रेणी के छात्रों को झेलने पड़ते भेदभाव के परतों को नोट किया था। / https://thedeathofmeritinindia.wordpress.com/2011/05/17/prof-thorat-committee-report-on-caste-discrimination-in-aiims-new-delhi-2007/) तमाम छात्रों और अध्यापकों के साथ बात करने के बाद अपनी रिपोर्ट में उन्होंने जो पाया था, वह विचलित करनेवाला था: – 72 फीसदी अनुसचित जाति/जनजाति के छात्रों ने इस बात का उल्लेख किया था कि अध्ययन के दौरान उन्हें किसी न किसी किस्म के भेदभाव का सामना करना पड़ा था – जाति आधारित भेदभाव की छात्रावासों के अन्दर भी मौजूदगी। होस्टल में रहनेवाले अनुसूचित तबके के 88 फीसदी छात्रों ने बताया कि कि किन विभिन्न तरीकों से वह सामाजिक अलगाव का अनुभव करते हैं। – कमेटी ने इस बात का भी उल्लेख किया कि संस्थान के अनुसूचित तबके के अध्यापकों को भी भेदभाव से रूबरू होना पड़ता है। वही विगत माह इसी संस्थान में एक महिला डॉक्टर द्वारा की गयी खुदकुशी की कोशिश- जिसकी वजह उसे कथित तौर पर झेलनी पड़ी यौनिक और जातिगत प्रताड़ना थी- दरअसल इसी बात की ताईद करती है कि समस्या अभी भी गहरी है और थोरात कमेटी की अहम सिफारिशों के बाद भी जमीनी हालात में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। हम याद कर सकते हैं कि थोरात कमेटी ने इस बात की सिफारिश की थी कि सामाजिक वातावरण की पड़ताल करने के लिए छात्रों, रेसिडेन्ट डॉक्टरों और फैकल्टी की साझा कमेटियां बनायी जाए; सामाजिक सदभाव बहाल करने के लिए नीति और प्रणाली विकसित की जाए; एक समान अवसर कार्यालय का गठन किया जाए ताकि आरक्षित श्रेणी के छात्रों से जुड़े सभी मसलों पर बात की जा सके; सांस्कृतिक गतिविधियों तथा खेलकूद में शामिल होने के लिए ऐसे छात्रों को प्रोत्साहित किया जाए; सीनियर रेसिडेन्ट और फैकल्टी के चयन के लिए आरक्षण की रोस्टर प्रणाली कायम की जाए और इस बात पर भी जोर दिया था कि स्वास्थ्य मंत्रालय संस्थान के अन्दर आरक्षण के अमल पर बारीकी से देखरेख करे। (https://thedeathofmeritinindia.wordpress.com/2011/05/17/prof-thorat-committee-report-on-caste-discrimination-in-aiims-new-delhi-2007/) प्रस्तुत मामले में यह जानना और विचलित करनेवाला है कि इस आत्यंतिक कदम उठाने के पहले पीड़िता डॉक्टर ने अपने संस्थान के कर्णधारों को बार बार लिखा था, अपनी बात रेसिडेन्ट डॉक्टर एसोसिएशन को भी पहुंचायी थी, जिन्होंने इस सम्बन्ध में संबंधित अधिकारियों को मेमोरेन्डम भी दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो प्रशासन ने इस मुददे के प्रति पर्याप्त संवेदनशीलता का परिचय नहीं दिया या शायद डॉक्टर की शिकायत में जिन वरिष्ठों के नाम आक्रांताओं पर दर्ज थे, उनके खिलाफ कार्रवाई करने में उसने संकोच किया तथा मामले को रफा दफा करना चाहा। क्या इसे प्रशासन की जाति दृष्टिहीनता कहा जा सकता है या हाशिये के छात्रों के वाजिब सरोकारों की जानबूझ कर गयी अनदेखी कहा जा सकता है? निश्चित ही एम्स के प्रशासन द्वारा जिस बेरूखी का परिचय दिया गया वह कोई अपवाद नहीं है। हम इसे उच्च शिक्षण संस्थानों में व्यापक पैमाने पर देख सकते हैं। अभी पिछले ही साल पायल तडवी नामक अनुसूचित तबके से जुड़ी प्रतिभाशाली एवं सम्भावनाओं से भरपूर डॉक्टर ने, जो मुंबई के एक कॉलेज कम अस्पताल में पोस्टग्रेजुएशन की तालीम ले रही थी- उसने अपने वरिष्ठों के दुर्व्यवहार से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। (22 मई 2019) अगर 26 साल की वह प्रसूति रोग विशेषज्ञ जिंदा रहती तो वह भील-मुस्लिम समुदाय की पहली महिला डॉक्टर बनती। एम्स की पीड़िता डॉक्टर की तरह पायल ने भी कॉलेज/अस्पताल के कर्ताधर्ताओं के साथ अपनी सवर्ण सहयोगियों और अपनी रूममेटस से जातीय प्रताडना की शिकायत बार बार की थी। उसने बताया था कि डॉ. हेमा आहुजा, डॉ भक्ति मेहरा और डॉ अंकिता खंडेलवाल नामक यह त्रायी डॉ. पायल को न केवल बार बार अपमानित करती थी बल्कि सर्जरी करने से भी रोकती थी। उसे निरंतर जिस प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा था उसके बारे में उसने अपने माता पिता से तथा डाक्टर पति सलमान तडवी को भी जानकारी दी थी। (https://www.sabrangindia.in/article/opinion-was-dr-payal-tadvi-victim-hate-crimehttps://www.indiatoday.in/india/story/payal-tadvi-suicide-chargesheet-shows-accused-doctor-denied-her-mandatory-medical-leave-1574199-2019-07-27) पिछले साल किसी अख़बार ने डॉ. पायल तडवी की आत्महत्या के बाद प्रोफेसर थोरात का साक्षात्कार लिया था जिसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह ऐसी संस्थानों में हाशिये के छात्रों के प्रति एक किस्म का ‘दुजाभाव’ मौजूद रहता है और यह सवाल पूछा था ‘‘विगत दशक में ऐसे अग्रणी शिक्षा संस्थानों में अध्ययनरत 25-30 छात्रों ने आत्महत्या की है, मगर सरकारों ने शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव की समाप्ति के लिए कोई ठोस नीति निर्णय लेने से लगातार परहेज किया है।’ (https://www.newindianexpress.com/cities/delhi/2019/may/31/there-is-bitterness-towards-quota-students-thorat-1983949.html) शुद्धता और प्रदूषण का वह तर्क- जो जाति और उससे जुड़े बहिष्करण का आधार है, आई आई टी जैसे संस्थानों में भी बहुविध तरीकों से प्रतिबिम्बित होता है। दो साल पहले आई आई टी मद्रास सूर्खियों में था जब वहां शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए मेस में अलग अलग प्रवेश द्वार बनाये जाने का मामला सूर्खियों में था, जिसे लेकर इतना हंगामा हुआ कि संस्थान को यह निर्णय वापस लेना पड़ा। इस पूरे मसले पर टिप्पणी करते हुए अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल- जो संस्थान के अन्दर सक्रिय छात्रों का समूह है, ने कहा था- दरअसल ‘आधुनिक’ समाज में जाति कुछ अलग ढंग से भेस बदल कर आती है। आई आई टी मद्रास में वह मेस में अलग प्रवेश द्वार, शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए अलग अलग बर्तन, खाने पीने के अलग अलग टेबिल और हाथ धोने के अलग बेसिन के तौर पर प्रतिबिम्बित होती है। यही वह समय था जब आई आई टी पर ही केन्द्रित एक अध्ययन सुर्खियों में आया था जिसमें आई आई टी में जाति और प्रतिभातंत्रा के आपसी रिश्ते पर रौशनी डाली गयी थी। अपने निबंध ‘एन एनोटोमी ऑफ द कास्ट कल्चर एट आई आई टी मद्रास’ में अजंता सुब्रम्हणियम, जो हार्वर्ड विश्वविद्यालय में सोशल एन्थ्रोपोलोजी की प्रोफेसर हैं और जो आई आई टी में जाति और मेरिटोक्रेसी/प्रतिभातंत्रा की पड़ताल कर रही हैं, (http://www.openthemagazine.com/article/open-essay/an-anatomy-of-the-caste-culture-at-iit-madras) उन्होंने  इस बात को रेखांकित किया था कि किस तरह ‘‘जाति और जातिवाद ने आई आई टी मद्रास को लम्बे समय से गढ़ा है, और जिसका आम तौर पर फायदा ऊंची जातियों ने उठाया है’। वह संकेत देती हैं कि ‘जब तक 2008 में ओबीसी आरक्षण लागू नहीं हुआ था तब तक जनरल कैटेगेरी अर्थात सामान्य श्रेणी से कहे जाने वाले 77.5 फीसदी एडमिशन में’ अधिकतर ऊंची जातियों का दबदबा रहता था। उनके मुताबिक ‘‘न केवल छात्रा बल्कि आई आई टी मद्रास की फैकल्टी में भी उंची जातियों का वर्चस्व था, जहां एक तरफ जनरल कैटेगरी से जुड़े 464 प्रोफेसर्स थे वहीं ओबीसी समुदाय से 59, अनुसूचित तबके से आनेवाले 11 तथा अनुसूचित जनजाति समुदाय से आने वाले 2 प्रोफेसर थे।’ जनवरी 2016 में रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या इसी सिलसिले का एक और सिरा था। अकादमिक संस्थानों में गहरे में धंसे जातिगत पूर्वाग्रहों के बारे में इस मेधावी छात्र ने, जो छात्र आन्दोलन की अगुआई भी कर रहा था – महसूस किया था: ‘‘किस तरह एक व्यक्ति का मूल्य उसकी फौरी पहचान तक या नजदीकी संभावना तक न्यूनीकृत किया जाता है। एक अदद वोट तक, एक नम्बर तक, एक वस्तु तक। कभी भी मनुष्य को एक मन के तौर पर समझा नहीं गया।’’ (https://thewire.in/caste/rohith-vemula-letter-a-powerful-indictment-of-social-prejudices) हैदराबाद सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के उस बेहद प्रतिभाशाली छात्र ने, जो कार्ल सागान की तरह विज्ञान लेखक बनना चाहता था और जो अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन का हिस्सा था, उसे विश्वविद्यालय ने अगस्त 2015 में उसके अन्य पांच साथियों के साथ अन्यायपूर्ण ढंग से निलंबित किया था। वजह बनायी गयी थी कि हिन्दुत्व दक्षिणपंथ से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं के साथ हुआ उनका विवाद। रोहित की इस अनपेक्षित मौत के बाद- जिसे ‘संस्थागत हत्या’ के तौर पर सम्बोधित किया गया, का घटनाक्रम बिल्कुल अनपेक्षित था और जो अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है। इसने राष्ट्रीय आक्रोश को जन्म दिया और एक तरह से समूचे भारत में छात्रों के अन्दर का आक्रोश सड़कों पर उतरा जिसका फोकस था इस प्रतिभा सम्पन्न युवा की ‘संस्थागत हत्या’ के मामले में न्याय दिलाना। स्त्री विरोधी यौन हिंसा के मामले में बने निर्भया अधिनियम/एक्ट की तर्ज पर उच्च शिक्षण संस्थानों में सामाजिक तौर पर वंचित/उत्पीड़ित तबकों से आने वाले छात्रों की उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए रोहित एक्ट बनाने की मांग उठी। इसका फोकस था शिक्षा संस्थानों में जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव से मुक्ति दिलाने का उपकरण बनना तथा इस बात को सुनिश्चित करना कि जो कोई भी ऐसा कोई कदम उठाता है उसे अभूतपूर्व सज़ा मिले। सवाल आज भी यह मौजूं है कि आखिर सामाजिक तौर पर वंचित एवं उत्पीड़ित तबकों से आनेवाले ऐसे कितने छात्रों को, जो शेष मुल्क के लिए एक रोल मॉडल बन सकते हैं – अपनी कुर्बानी देनी पड़ेगी ताकि शेष समाज इस मामले में अपनी बेरूखी और शीतनिद्रा से जागे। क्या शेष समाज का यह फर्ज़ नहीं बनता कि वह इस पूरे मामले में आत्मपरीक्षण करे और यह देखे कि वह ऐसे अपमानों/इन्कारों/मौतों में किस हद तक संलिप्त है या नहीं है। मशहूर कवयित्री मीना कंडास्वामी ने रोहित की मौत के बाद जो लिखा था वह आज भी मौजूं है: ‘एक दलित छात्रा की आत्महत्या कोई निजी पलायन की रणनीति नहीं होती, दरअसल वह उस समाज के शर्म में डूबने की घड़ी होती है, जिसने उसे समर्थन नहीं दिया।’ (https://kafila.online/2016/01/29/condemning-caste-discrimination-in-higher-education-centres-that-led-to-rohiths-untimely-death-students-of-delhi-school-of-economics-delhi-university/) यह जानना और अधिक विचलित करने वाला हो सकता है कि वक्त़ के साथ जाति उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव की ऐसी घटनाओं में हम कोई कमी नहीं पा रहे हैं, बल्कि उनका सामान्यीकरण हो चला है। राज्य के तीनों अंग- विधायिका, कार्यपालिका और यहां तक कि न्यायपालिका भी – इस मामले में असफल होते दिखते हैं। जातिगत भेदभावों, उत्पीड़नों के इस विकसित गतिविज्ञान का एक अहम पहलू यह है कि मुल्क में जबसे हिन्दुत्व वर्चस्ववादी विचारों/ जमातों का प्रभुत्व बढ़ा है, हम ऐसी घटनाओं में भी एक उछाल देखते हैं। यह कोई संयोग की बात नहीं है कि केन्द्र में तथा कई सूबों में भाजपा के उभार के साथ हम यही पा रहे हैं कि किस तरह वे ‘सुनियोजित तरीकों से दलितों के मामलों में सकारात्मक कार्रवाइयों /एफर्मेटिव एक्शन और उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के अस्तित्वमान प्रावधानों को कमजोर करने में मुब्तिला हैं। दलितों-आदिवासियों पर अत्याचारों को रोकने के लिए बने 1989 के अभूतपूर्व कानून के प्रावधानों को कमजोर करने के लिए मोदी हुकूमत और उससे सम्बद्ध अफसरानों ने समझौतापरस्ती का परिचय दिया है। याद रहे कि 2018 में जब इसके प्रावधानों का मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया तब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने बाकायदा अदालत में बयान दिया कि इस कानून का दुरूपयोग हो रहा है। इतना ही नहीं जब द्विसदस्यीय सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने इसकी धाराओं को कमजोर करने का निर्णय सुनाया, तब मोदी सरकार ने अदालत के इस कदम को चुनौती देने वाली समीक्षा याचिका तक दाखिल नहीं की थी। (https://kafila.online/2018/05/28/statement-on-atrocities-on-dalits-new-socialist-initiative/) हम लोग इस बात के भी गवाह रह चुके हैं कि किस तरह भाजपा सरकार ने ‘‘विश्वविद्यालयों में दलितों की नियुक्ति को बढ़ावा देने वाले कानूनी प्रावधानों को कमजोर किया।’ /-वही-/ दरअसल, मोदी सरकार के पहले चरण में, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यह आदेश पारित किए कि शिक्षा संस्थानों में आरक्षण रोस्टर का आधार विश्वविद्यालय नहीं बल्कि विभाग होगा। इसका नतीजा यह सामने आया था कि मध्यप्रदेश के इंदिरा गांधी नेशनल ट्राईबल यूनिवर्सिटी ने जब 52 फैकल्टी पदों के लिए विज्ञापन जारी किया तब इसमें महज एक पद आदिवासियों के लिए आरक्षित रखा गया था। इस बात में कोई आश्चर्य जान नहीं पड़ता कि एफर्मेटिव एक्शन के प्रावधानों पर जारी इस संगठित हमलों की परिणति ऐसे अग्रणी संस्थानों में हाशिये के तबकों से आनेवाले छात्रों की संख्या की गिरावट में भी देखी जा रही है। देश के अग्रणी विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कहानी इसे बखूबी बयान करती है। याद रहे कि इस विश्वविद्यालय ने एक ऐसी अनोखी आरक्षण प्रणाली लगभग दो दशक पहले कायम की थी जिसके चलते न केवल पिछड़े जिलों बल्कि समाज के कमजोर तबकों, सामाजिक एवं धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों से आने वाले छात्रों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी देखी गयी थी। आप माने या न मानें इसने विश्वविद्यालय के स्वरूप को गुणात्मक तौर पर परिवर्तित कर दिया था। ‘‘अगर हम 2013-14 की वार्षिक रिपोर्ट को पलटें तो पाते हैं कि कुल 7,677 छात्रों में से दलित बहुजन तबकों से आनेवाले छात्रों की तादाद 3,648 थी। अनुसूचित जाति के 1,058 छात्र, अनुसूचित जनजाति के 632 छात्र और अन्य पिछड़ी जाति से आने वाले 1948 छात्र थे। अगर सीधी सरल जुबां में कहें तो गैरउच्चजाति से आनेवाले छात्रों की तादाद स्थूल रूप में 50 फीसदी थी। अगर हम अन्य वंचित समूहों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को शामिल करें तो ऊंची जाति तथा तबके से आने वाले छात्र यहां अल्पमत में हैं’ और यह भी जाहिर है कि विश्वविद्यालय द्वारा हाल में जो बदलाव लाए जा रहे हैं और जिसके तहत उसकी अनोखी आरक्षण प्रणाली पर भी पुनर्विचार शुरू हो चुका है, हम अंदाज़ा ही लगा सकते हैं कि इसका विश्वविद्यालय परिसर की सामाजिक संरचना पर बेहद विपरीत नकारात्मक प्रभाव पड़नेवाला है।
  • लेखक सुभाष गाताडे का यह आलेख साभार प्रकाशित

श्रम सुधार नहीं, दास युग का आग़ाज़ बोलिये

कोरोना के बहाने भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों में जो मजदूर विरोधी बदलाव किये हैं, उन्हें श्रम सुधार का नाम दिया जा रहा है. सच्चाई यह है कि किसी भी तरह से ये बदलाव श्रम सुधार नहीं बल्कि मोदी सरकार की सरपरस्ती में यह मजदूरों को बंधुआ बना देने का घिनौना षड़यंत्र है. पूरी दुनिया में साल 2019 के अंत में पैदा हुए कोरोना वायरस ने कोहराम मचा रखा है. पुष्ट आंकड़ों के अनुसार लगभग साढ़े तैंतालीस लाख (4342565) लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं. मानवता के दुश्मन इस वायरस ने अबतक लगभग तीन लाख लोगों की जान ले ली है. अकेले भारत में ही आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 80 हजार से ज्यादा संक्रमित मरीज हैं और मरने वालों की संख्या चार हजार से ऊपर पहुँच गयी है. ये कोई अंतिम आंकड़ा नहीं है बल्कि प्रतिदिन यह ग्राफ उपर की तरफ बढ़ रहा है. दुनिया भर में विभिन्न सरकारों ने कोरोना से जंग को अपनी पहली प्राथमिकता पर रखा है. एक तरफ दुनिया कोरोना संक्रमण से लड़ने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रही है, वहीं भारत में केंद्र और कुछ राज्य सरकारें इस मुश्किल समय का लाभ षड्यंत्रकारी गुप्त एजेंडों को लागू करने के लिए उठा रही हैं. प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में खुलकर यह स्वीकारा है कि “हम आपदा को अवसर में बदल रहे हैं.” दलील यह दी जा रही है कि कोरोना संक्रमण के कारण हुए लॉकडाउन से होने वाले कारोबारी और औद्योगिक घाटों को पूरा करने के लिए यह श्रम सुधार किया जा रहा है. जिस समय भारत का मजदूर सड़कों पर भूखे-प्यासे तकलीफों की इन्तहां झेलकर अपनी मिट्टी की तरफ पलायन कर रहा है, उसी समय सरकार ने उनकी पीठ पर श्रम कानूनों को निरस्त करके छूरा घोंपा है. सदियों की लड़ाई के बाद इन मजदूरों के पुरखों ने जो श्रमिक अधिकार हासिल किये थे, उनको अध्यादेश लाकर एक झटके में खत्म कर देने का कुकर्म इस देश में किया गया है. इन श्रमिक अधिकारों को हासिल करने के लिए ना जानें कितने खून बहे और न जानें कितनीं जानें गयीं हैं. इस तथाकथित श्रम सुधार में मजदूरों के उन अधिकारों को निरस्त किया गया है जिनकी बदौलत वे अपने साथ हुए अन्याय को श्रम अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक चुनौती दे सकता था. इन कानूनों में समान वेतन, न्यूनतम वेतन, ट्रेड यूनियन बनाने का हक़, औद्योगिक नियोजन एवं विवाद, काम के घंटे, अवकाश, मध्यान्ह अवकाश, श्रमिक सुरक्षा, कैंटीन सुविधा, ठेका मजदूर के अधिकार, अन्तर्राज्यीय प्रवासी मजदूरों के अधिकार, कर्मचारी भविष्य निधि कमचारी राज्य बीमा, बोनस, असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़े अधिकार शामिल हैं. विडम्बना यह है कि जिन कानूनों का कोरोना से कोई सरोकार नहीं है उसे भी लॉकडाउन के नाम पर अप्रभावी बना दिया गया है. 1976 में लागू हुए “समान वेतन अधिनियम” में यह प्रावधान था कि एक ही काम के लिए श्रमिकों को अलग-अलग वेतन नहीं दिया जा सकेगा. इस कानून की वजह से पूंजीपति या फैक्ट्री मालिक समान काम के लिए मजदूरों को अलग-अलग वेतन पर नियुक्त नहीं कर सकता था. मतलब स्त्री हो या पुरुष, कम मजबूर हो या अधिक सबको समान काम के लिए समान वेतन मिलेगा. कोरोना के बहाने उत्तर प्रदेश में इस कानून को भी तीन सालों के लिए निरस्त कर दिया गया है, जो कतई तर्कसंगत फैसला नहीं है. श्रम कानूनों की धार को कुंद करने में भारतीय जनता पार्टी द्वारा शासित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात के साथ-साथ कांग्रेस द्वारा शासित राज्य राजस्थान भी शामिल है. कर्नाटक में तो बिल्डरों और ठेकेदारों के साथ बैठक करने के बाद मुख्यमंत्री ने वहाँ से चलने वाले श्रमिक स्पेशल ट्रेनों पर ही रोक लगवा दिया ताकि प्रवासी मजदूर अपने गाँव वापस न जा सकें. इन सभी राज्यों में काम के घंटे को 8 से बढ़ाकर 12 कर दिया गया है. इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि इससे उद्योग जगत के रुके हुए पहिये को गति मिलेगी. सवाल यह है कि आखिर यह कौन सा विकास का इंजन है जो मजदूरों के खून से चलता है? उत्तर प्रदेश में अध्यादेश से पहले 38 श्रम कानून लागू थे. इनमें से कुछ कानूनों को छोड़कर जिनमें 1976 का बंधुआ मजदूर अधिनियम, 1923 का कर्मचारी मुआवजा अधिनियम और 1966 का अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम शामिल है, 35 कानूनों को हजार दिनों के लिए निरस्त कर दिया गया है. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी बयान में यह कहा गया है कि “महिलाओं और बच्चों से संबंधित कानूनों के प्रावधान जैसे कि मातृत्व अधिनियम, समान पारिश्रमिक अधिनियम, बाल श्रम अधिनियम और मजदूरी भुगतान अधिनियम के धारा 5 को बरकरार रखा है, जिसके तहत प्रति माह 15,000 रुपये से कम आय वाले व्यक्ति के वेतन में कटौती नहीं की जा सकती है.” इस अध्यादेश के बाद कई अहम श्रमिक कानून अब निष्प्रभावी हो गए हैं, इनमें मिनिममवेज (न्यूनतम मजदूरी) एक्ट काफी अहम है जिसके मुताबिक एक तय न्यूनतम राशि मजदूरों को देना अनिवार्य था. सभी उद्योग इसी के तहत ही श्रमिक व मजदूरों का भुगतान करते थे लेकिन अब सब अपनी सुविधानुसार करेंगे. जब बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने काम के घंटे को घटा कर 12 से 8 किया था तब मजदूरों के वेतन को नहीं घटाने की सिफारिश की थी लेकिन मोदीकाल में जिस तथाकथित श्रम सुधार में काम के घंटे को वापस बढ़ाकर 8 से 12 किया जा रहा है, इस समय वेतन को बढ़ाने की कोई बात नहीं की जा रही है. इसका मतलब बिल्कुल साफ है कि यह मजदूरों की सरकार न होकर मालिकों की सरकार है. काम के घंटे को बढ़ाना एक अमानवीय फैसला है. 1886 में जब शिकागो में काम के घंटे को लेकर आन्दोलन हुआ था तब श्रमिकों ने “8 घंटा काम, 8 घंटा आराम और 8 घंटा मनोरंजन” के नारे के साथ अपनी जान की बाजी लगाकर इस अधिकार को प्राप्त किया था. मोदीराज में काम के घंटे को बढ़ाकर 12 किये जाने से शिकागो के शहीदों का अपमान हुआ है. कोरोना तो एक बहाना है, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद से ही श्रम कानूनों पर हमला तेज कर दिया गया था. 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को विलय करके 4 श्रम संहिताओं में बदलने की पहल मोदी सरकार ने पहले ही शुरू कर दी थी. लगातार यह कुत्सित प्रयास जारी है कि कैसे ट्रेड यूनियनों की दखल को कम किया जाए और मजदूरों के शोषण का खुला खेल शुरू हो. इसके लिए कोरोनाकाल से पहले ही मोदी सरकार ने लम्बे संघर्ष और शहादत के बल पर हासिल किये गए श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव शुरू कर दिया था. जानकार बताते हैं कि 2014 में सरकार बनाने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्व भ्रमण पर निकल पड़े लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद कोई विशेष पूंजीनिवेश भारत में लेकर नहीं आ सके. आत्मनिर्भरता का नया नारा देने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने कोरोना से पहले बहुत तेजी से लाभ कमाने वाली सरकारी कम्पनियों को निजी हाथों में बेचने का काम शुरू कर दिया था. अब जैसा कि प्रधानमंत्री अपने राष्ट्र के नाम सन्देश में बोल चुके हैं कि आपदा को अवसर में बदलना है, तो कोरोना के बहाने मजदूरों के शोषण के नये युग का आगाज होते हम देख रहे हैं. पूरी दुनिया की कम्पनियां जो एशिया में चीन को अपना व्यापारिक केंद्र मानतीं थीं, अब कोरोना के बाद बहुत तेजी से अपना कारोबार चीन से समेट रहीं हैं. सम्भवतः केंद्र सरकार इस उम्मीद में बैठी हो कि श्रम कानूनों में ढील देकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत की तरफ आकर्षित किया जा सकेगा. बहरहाल, श्रम कानूनों में किये गये मजदूर विरोधी बदलावों से श्रमिकों के शोषण के एक नये युग का आग़ाज हो गया है, जिसमें मजदूरों के खून से देश के विकास का इंजन चलाने की तैयारी की गयी है. ये बदलाव देश के कामगारों को बंधुआ मजदूरी करने के लिए बाध्य कर देंगें. इतिहास के पन्नों पर काली स्याही से यह बात दर्ज की जायेगी कि भारत में संघर्षों और शहादतों की कीमत पर मजदूरों ने जो अधिकार हासिल किये थे, मोदीकाल में वे अधिकार कोरोना के बहाने श्रम सुधार के नाम पर निरस्त कर दिए गये और मजदूरों को गुलामी की राह पर धकेल दिया गया. लेखक सुशील कुमार स्वतंत्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दिल्ली राज्य परिषद के सदस्य और ट्रेड यूनियन नेता हैं।

दलित दस्तक को ‘मूकनायक एक्सीलेंसी इन जर्नलिस्म अवार्ड’ के मायने

अमेरिका में सक्रिय संगठन अम्बेडकर एसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका यानी AANA ने साल 2020 के लिए अपने अवार्ड की घोषणा कर दी है. इस साल चार अवार्ड की घोषणा की है. इसमें आईपीएस अधिकारी और तेलंगाना सोशल वेलफेयर एंड रेजिडेंशियल स्कूल के सेक्रेट्री डॉ. आर.एस. प्रवीण को इस साल का डॉ. आंबेडकर इंटरनेशनल अवार्ड दिया गया है. मानवाधिकार कार्यकर्ता और पेशे से वकील मंजुला प्रदीप को सावित्रीबाई फुले इंटरनेशनल अवार्ड के लिए चुना गया है. जबकि डॉ. अंबेडकर इंटरनेशनल लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड वरिष्ठ पत्रकार और भीम पत्रिका के संपादक एल.आर. बाली को दिया गया है. AANA ने मूकनायक के शताब्दी वर्ष पर “Mooknayak” Excellency in Journalism Award शुरु किया है. इस कैटेगरी का पहला अवार्ड “दलित दस्तक” को दिया गया है.

डॉ. आर.एस. प्रवीण का चुनाव तेलंगाना सोशल वेलफेयर एजुकेशनल सोसाइटी के जरिए वंचित समाज के बच्चों की शिक्षा के लिए किए गए महत्वपूर्ण काम के लिए किया गया है. डॉ. प्रवीण स्वैरो नेटवर्क के फाउंडर भी हैं. जहां तक मंजुला प्रदीप की बात है तो वो एक मानवाधिकार कार्यककर्ता हैं और उन्होंने कास्ट एंड जेंडर डिसक्रिमिनेशन यानी जाति और लिंग के आधार पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ न सिर्फ अपनी आवाज बुलंद की है, बल्कि लड़ाई भी लड़ी है. वह नवसृजन ट्रस्ट की पूर्व एक्जीक्यूटीव डायरेक्टर रह चुकी हैं. यह ट्रस्ट दलित अधिकारों के लिए काम करने वाली एक महत्वपूर्ण संस्था है. तो वहीं एल.आर. बाली द्वारा जीवन भर बाबासाहेब के सिद्धांत पर चलते हुए सामाजिक बदलाव की दिशा में काम करने के कारण लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड के लिए चुना गया है.

जबकि पत्रकारिता के क्षेत्र में मूकनायक एक्सिलेंसी इन जर्नलिस्म अवार्ड दलित दस्तक को मिला. AANA के मुताबिक “दलित दस्तक” को यह अवार्ड प्रिंट और डिजिटल मीडिया के जरिए बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के विजन पर चलते हुए समाज के आखिरी छोड़ पर खड़े लोगों को जागरूक करने और उनकी आवाज को उठाने के लिए दिया गया है. दलित दस्तक एक मासिक पत्रिका, यू-ट्यूब चैनल और वेबसाइट है. दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने इस सम्मान के लिए AANA को धन्यवाद दिया है. उन्होंने कहा कि यह दलित दस्तक के सभी पाठकों और दर्शकों का सम्मान है. उन्होंने अपनी टीम को भी धन्यवाद दिया. खास बात यह है कि इस अवार्ड के लिए सभी का चयन वोटिंग के जरिए हुआ है.

जहां तक ‘दलित दस्तक’ को यह सम्मान मिलने की बात है तो यह अम्बेडकरवादी सिद्धांतों पर चलने वाली मीडिया संस्था के लिए एक बड़ा सम्मान है. क्योंकि खौस तौर से हिन्दी जानने-समझने वाले अम्बेडकरवादियों के बीच दलित दस्तक ने अपना एक मुकाम बनाया है. खबरों की बाढ़ में और सनसनी के वक्त में दलित दस्तक ने अपनी सधी हुई पत्रकारिता के जरिए अपने पाठकों का भरोसा जीता है. अपने पाठकों का यही भरोसा दलित दस्तक की सबसे बड़ी पूंजी है. यह सम्मान मैं दलित दस्तक के सभी पाठकों, दर्शकों और अपनी पूरी टीम को समर्पित करता हूं.

मेहनतकशों को चाहिए नया गणतंत्र!

देश के बहुसंख्य आमजन-मेहनतकशों के लिए ऐसी सरकार, ऐसे राज्य के बने रहने का तर्क (Raison d’être) खत्म हो गया है। कोरोना की आपदा तो वैश्विक है, लेकिन इससे जिस तरह हमारे देश में निपटा जा रहा है, उसने मजदूरों की जिस दिल दहला देने वाली अकल्पनीय यातना को जन्म दिया है, उसका पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है। आने वाले कल कोई संवेदनशील इतिहासकार/पत्रकार/साहित्यकार जब इन दुःख की इन महागाथाओं, शासकों की अनन्त क्रूरता और मजदूरों की अदम्य जिजीविषा को लिपिबद्ध करेगा तो वह विश्व इतिहास का मानव पीड़ा का सबसे महाकाव्य बन जायेगा। आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी के हम साक्षी है। आज बस सभी सम्भव तरीकों से मरने के लिए उन्हें छोड़ दिया गया है- भूख से, बीमारी से, घर की अनंत यात्रा के बीच रास्ते में बेदम होकर दम तोड़ते, भूखे पेट जेल जाते पुलिस की मार खाते, ट्रेन से कटकर, हाइवे पर कुचलकर, पुलिस की मार से नदी में कूदकर, आत्महत्या कर… और अंत में कोरोना से भी सबसे ज्यादा वही मरेंगे क्योंकि उनके पास अच्छी रोग प्रतिरोधक क्षमता देने वाला भोजन व ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ मेंटेन कर सकने लायक घर में रहने की न सुविधा है, न प्राइवेट इलाज के खर्च लायक औकात, न प्राथमिकता में अच्छा सरकारी इलाज-आईसीयू, वेंटिलेटर पाने की हैसियत। आज जब 50 दिनों से अधभूखे-प्यासे, जीवन की भयानक असुरक्षा, अपनों की चिंता में डूबे मजदूर, अपने गाँव लौटना चाह रहे हैं, तो उन्हें सभी सम्भव तरीकों से रोकने की, हतोत्साहित करने की साजिश की जा रही है, ताकि मुनाफाखोरी का पहिया चलता रहे। आज वे चीख चीख कर कह रहे हैं कि अगर उन्हें अपने काम की जगह पर भर पेट भोजन मिलता रहता तो वे इतनी अपार तकलीफें झेलते हुए ‘रोटी की जगह पुलिस के लट्ठ खाते हुए’, दुधमुंहे बच्चों, गर्भवती पत्नियों के साथ हजारों किमी की जानलेवा असुरक्षित यात्रा पर कत्तई न निकलते, जब वे गुहार लगा रहे कि, ‘हमें सरकार से कुछ नहीं चाहिए, न रोटी, न पैसा, बस हमें घर/गाँव जाने दिया जाय’, जब वे चरम हताशा में चीत्कार कर रहे हैं कि या तो’ हमें गाँव जाने दो या गोली मार दो’। अपनी सारी दौलत के सृजनहार जिन मजदूरों को उनके मालिक और सरकार भरपेट भोजन न दे सकी और उन्हें गांवों की ओर भागने के लिए मजबूर कर दी, उन्हें महान दार्शनिक प्रधानमंत्री जी दर्शन समझा रहे हैं कि यह मानव स्वभाव है कि वह अपने गाँव जाना चाहता है। उनके इस मौलिक रहस्योद्घाटन की तुलना उनके ही दूसरे ऐसे ही सुभाषित से की जा सकती है जब उन्होंने बताया था की सीवर साफ करने वाले मजदूर को उसमें आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है। आज ऐसा लग रहा है, जैसा मजदूरों के लिए राज्य अस्तित्वहीन हो चुका है और अपने ही राष्ट्र में वे बेगाने हो गए हैं, ‘उदार’ भारतीय राज्य में श्रमिकों की रक्षा के लिए बने सारे संवैधानिक प्रावधान, नियम-कानून, सारी संवैधानिक संस्थाएं मजदूरों के लिए अर्थहीन हो गयी हैं। आज जब अप्रत्याशित, अकल्पनीय विपत्ति का पहाड़ उनके ऊपर टूट पड़ा है, तब, कोई उनको नहीं बचा पाया, न राष्ट्रवाद, न लोकतंत्र, न संविधान। बेहयाई और क्रूरता की हद तो यह है कि एक ऐसे समय में जब उन्हें सबसे ज्यादा मदद की जरूरत है, उनसे उनकी सेवा- सुरक्षा के न्यूनतम संवैधानिक, कानूनी सुरक्षा कवच को भी छीना जा रहा है। यह संविधान की धारा 21 के तहत उन्हें प्राप्त गरिमामय जीवन के अधिकार का भी निषेध है, जिसे देश के संविधान के अनुसार आपातकाल में भी नहीं छीना जा सकता। डॉo आंबेडकर ने कभी कहा था कि लागू करने वाले बुरे हों तो अच्छा संविधान भी बुरे नतीजे देगा। पर हमारा गणतंत्र इतना अशक्त क्यों निकला, इसकी संस्थाएं इतनी लिजलिजी क्यों हैं, जो अपने सबसे कमजोर नागरिकों को उनके सबसे बुरे वक्त में जीवन की न्यूनतम सुरक्षा भी न दे पायीं, यह system इतना अमानवीय क्यों है? खूबसूरत जुमलों की आड़ में छिपाई गयी भारतीय राज्य की क्रूर वर्गीय सच्चाई सात पर्दों को फाड़कर सामने आ चुकी है, हमारे शासक आभिजात्य की श्रमिको के प्रति सदियों की संचित घृणा और पूंजी की मुनाफाखोरी की कभी न मिटने वाली हवस का क्रूर कॉकटेल है यह। कल तक जिन्हें गलतफहमी थी कि यह महज मुसलमानों के खिलाफ है, आज वे आंख खोल कर देख लें कि आज इसके निशाने पर कौन है। कल सबका नम्बर आएगा। आज इस देश के मेहनतकशों को चाहिए एक नया गणतंत्र। इस औपचारिक गणतंत्र को वास्तविक गणतंत्र बनाने की लड़ाई ही आज का एजेंडा है- इस एजेंडा में सबसे ऊपर होगी मेहनतकशों की गरिमा, उनकी आजीविका और स्वास्थ्य की सुरक्षा !!
  • लेखक लाल बहादुर सिह, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के नेता हैं।

प्रतिक्रियावादी बनने की बजाए समाज निर्माण में उर्जा लगाएं

मनुवादी मानसिकता से सभी लोग परिचित हैं। मनुवादी आए दिन दलितों-पिछड़ों को प्रताड़ित करते हैं। ऐसे में हमारे लोग प्रताड़ित किए जाते हैं। ऐसे में समाज सिर्फ मनुवादी व्यवस्था द्वारा किए गए कार्य के प्रति प्रतिक्रिया देने में अपनी सारी ऊर्जा लगा देता है। लेकिन हमें यह बात समझनी होगी कि समाज प्रतिक्रिया देने की स्थिति में नहीं है। समाज का निर्माण समाज के अनुपात में नहीं किया गया है। उसके कुछ मूलभूत कारण हैं, जिन्हें जानना जरूरी है। आज हमारे पास बहुत सारे संगठन हैं और सारे संगठनों का उद्देश्य सामान्यतः व्यवस्था परिवर्तन है. व्यवस्था परिवर्तन कैसे होता है, व्यवस्था परिवर्तन कैसे होगा, इसके लिए कौन सी गतिविधियों को चलाना पड़ेगा, कैसे रणनीति बनानी पड़ेगी, इसको विस्तार से समझने की जरुरत है.

मुझे लगता है आज तक सिर्फ मान्यवर कांशीराम को छोड़कर कोई भी रणनीति बनाने में सक्षम नहीं हो पाया है, क्योंकि रणनीति जब तक सही नहीं होगी उसका क्रियान्वयन एवं उसके परिणाम उसके अनुरूप नहीं होंगे। इसीलिए हमको सबसे पहले हमारे समाज में जो भी संगठन चल रहे हैं और चूंकि क्योंकि समाज उन्हें खाद पानी दे रहा है इसलिए उन्हें उनके दायित्व के बारे में समझाना होगा, उनकी रणनीति के बारे में उनसे खुलकर बहस करनी होगी। इस पर मंथन करना होगा कि समाज के लिए ऐसी कौन सी रणनीति बनानी चाहिए जिससे इस देश में समता, स्वतंत्रता, बंधुता स्थापित हो सके।

यह एक गंभीर विषय है। समता क्या होती है, उसके क्या मायने हैं, स्वतंत्रता क्या होती है, उसको कैसे समझना चाहिए, और बंधुत्व क्या होती है, ऐसे बहुत सारे प्रश्न हैं जिन्हें समाज को समझने की जरूरत है। हमारा समाज असंगठित समाज है जिसका मुकाबला संगठित समाज से है। असंगठित और संगठित समाज के बीच में यह महत्वपूर्ण अंतर है कि असंगठित समाज में लोग अपने अधिकारों को नहीं जानते, जबकि संगठित समाज अपने अधिकारों को लेने के लिए संगठित है। ज्यादातर लोग प्रायः संगठित और असंगठित के बीच का अंतर नहीं समझ पाते, इसीलिए हमें रणनीति बनानी होगी

मनुवादी व्यवस्था जिन आधारों पर टिकी है, उन आधारों को समाज में से हटाना पड़ेगा, तभी इसे ध्वस्त करना संभव है। इसके लिए एक वृहद कार्यक्रम की जरूरत है। आज समाज में बहुत सारे संगठन एवं चमचे टाइप के नेता पैदा हो रहे हैं, जिनका उद्देश्य सिर्फ अपना भरण-पोषण और ख्याति प्राप्त करना है। ऐसे में अगर समाज को इस दलदल से निकालना है तो प्रबुद्ध लोगों को संकल्प के साथ एक साथ आना होगा, रणनीति बनानी होंगी। अभी समाज जब कोई प्रतिक्रिया देता है, कई संगठन अलग-अलग रूप से उसका विरोध करते हैं, जिससे हमारी खिल्ली उड़ कर रह जाती है। समाज को सही दिशा देने का कार्य समाज के उन प्रबुद्ध लोगों का है जो समाज के हित में चिंतन मनन करते हैं और जो समाज को दिशा देने में सक्षम हैं।

मान्यवर कांशीराम जी के बाद Transactional Leadership भी सही से कार्यरत नहीं है। इसीलिए आज फिर से Transformational Leadership की जरुरत है, जिसे विकिसत करना होगा। हमें बहुत चिंतन मनन से कार्य करने की आवश्यकता है। अलग-अलग रूप से प्रबल प्रबुद्ध लोग कार्य करते हैं तो यह साफ़ झलकता है कि वह इगो स्टेटस में फंसे हुए हैं, जबकि ट्रांसफॉरमेशनल लीडरशिप के लिए Self Reliant Status (स्वयं पर विश्वास) की आवश्यकता है।

Self reliant अवस्था के लिए self enhancement (आत्म वृद्धि), Self verification (स्वयं सत्यापन), Self evaluation (स्वयं का मूल्यांकन) की जरूरत है, जिसके परिणाम स्वरुप Self esteem (आत्म सम्मान), Self efficiency (खुद की क्षमता), Emotional stability (भावनात्मक स्थिरता), lead by example (मिसाल पेश करना), perseverance (दृढ़ता), due diligent (सही मूल्यांकन) जैसे गुण स्थापित होते हैं।

जब इस तरह से प्रबुद्ध लोग तैयार होंगे तभी मिलकर संघ का निर्माण कर सकेंगे। मानव जीवन में व्यक्तिगत रूप से किसी में कोई बड़ी शक्ति नहीं होती, शक्ति को सिर्फ समूह द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। संघ निर्माण की प्रक्रिया को समझने की आवश्यकता है।

आज मनुवादी व्यवस्था तेजी से कार्य कर रहे हैं और बहुजन सिर्फ तमाशाबीन बन कर देख रहे हैं। हमारा विरोध भी बहुत निम्न दर्जे का होता है, इसे आसानी से भूलाया जा सकता है। लाखों की संख्या में जो मजदूर लोग सड़कों पर अपने घर जा रहे हैं वे कोई और नहीं बल्कि उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादा एससी एसटी ओबीसी समाज के ही हैं। 99 फीसदी जो लोग आज व्यवस्था से प्रताड़ित है, वह इन्ही वर्गों से आते हैं। मनुवादी रामराज्य की बात करते हैं और हमें यह याद रखना चाहिए कि शूद्रों के मौलिक अधिकार राम राज्य में वर्जित थे। इतिहास में वर्णित है कि शूद्र ऋषि शंबूक के तपस्या करने के कारण राम द्वारा उनकी हत्या कर दी गई थी।

बड़ी विडंबना है कि वह द्रोणाचार्य अवॉर्ड देते हैं, जबकि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा इसलिए ले लिया था कि वह एक निम्न जाति था इसलिए वह धनुर्धर नहीं बन सकता था। सत्ताधारी इतनी विषमता वाली चीजों को समाज में स्थापित कर रहे हैं और हम उनके इस निर्णय को रोकने में सक्षम नहीं है। अगर उन्हें रोकना है तो हमें एक रणनीति पर कार्य करना होगा क्योंकि हम संवैधानिक व्यवस्थाओं पर चलने वाले लोग हैं, इसीलिए हमारी रणनीति भी संवैधानिक व्यवस्थाओं के दायरे में रहकर ही मनुवादी व्यवस्था को परास्त करना होगा।

आज जिस कार्य की जरूरत है, जिस रणनीति की जरूरत है, उसे क्रियान्वित करना होगा। मसलन, हमें आज egalitarian (समानाधिकारवादी) संकल्पना को समझना होगा। पैतृक कर की व्यवस्था के लिए बहुजन समाज को आवाज बुलंद करना ही होगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे एससी एसटी ओबीसी समाज को एक साथ लाया जा सकता है। सवर्ण समाज को पैतृक कर से सबसे ज्यादा मार पड़ेगी।

समाज की व्यवस्था सामाजिक ढांचे एवं योजनाओं द्वारा ही निर्धारित होती हैं। इस  मनुवादी ढांचे को ध्वस्त करने के लिए बहुजनों को design thinking पर कार्य करने की आवश्यकता है। आज की डिज़ाइन व्यवस्था सवर्ण के हित में है। इसे बदलने से ही  सर्वजन का हित साधा जा सकता है। मनुवादी लगातार कार्यरत हैं और हम सोच रहे हैं कि हमें क्या करना होगा और उसी विरोधाभास में उलझ जाते हैं। देशव्यापी कार्यक्रम जिसे पुरे देश में साझा किया जा सके ऐसे कार्यक्रम से ही बहुजन एकता बनना संभव है।

लोग धन संचय में लगे हैं। भ्रष्टाचार की जड़े देश में इसीलिए मजबूत है क्योंकि लोग एक पीढ़ी के लिए नहीं सोचते बल्कि सात पीढ़ियों को सुरीक्षित करना चाहते हैं। अगर इन व्यवस्थाओं को नहीं बदला गया तो अंबानी, अडानी का बेटा हमेशा आगे रहेगा। अमेरिका में 50%, जापान में 70%, यूरोप में 40-50% पैतृक सम्पति कर की व्यवस्था है। भारत में यह नहीं लगाया जाता जिससे लोग खुलेआम धन संचय में लगे हैं। मेरे अनुसार इन गतिविधियों को देश में चलाने की जरूरत है।

  • लेखक अनिल कुमार, देहरादून में रहते हैं। अम्बडेकरी आंदोलन से जुड़े हैं।

जातिवाद और अम्बेडकरवाद की बली चढ़ने वालों के लिए समाज की जिम्मेदारी क्या है

मध्यप्रदेश शिवपुरी में एक दलित युवक को इसलिए मार डाला गया, क्योंकि उसने गाँव में बाबासाहेब की प्रतिमा लगवाई और बुद्ध पूर्णिमा मनाई। बुद्ध पूर्णिमा 7 मई को थी। युवक का नाम गजराज जाटव है। जातिवादियों ने पहले युवक का अपहरण किया, फिर कुछ समय बाद जान से मार दिया। स्थानीय लोगों का आरोप है कि पुलिस मामले की लीपापोती में लगी है। सूचना है कि भाई गजराज जाटव के पांच बच्चे हैं। सभी लड़कियां हैं। सबसे बड़ी बच्ची की उम्र 10 साल की है। गजराज जाटव एक उत्साही अम्बेडकरवादी युवक था, जो बाबासाहब डॉ. आंबेडकर और बुद्ध में विश्वास रखता था। घटना पर तमाम अम्बेडकरवादी पहुंच गए हैं। मौजूद अम्बेडकरवादी पुलिस से आरोपियों को गिरफ्तार करने की मांग कर रही है। इसको दूसरे तरीके से देखेंगे तो शिवपुरी में सिर्फ जगराज जाटव की हत्या नहीं हुई, बल्कि बाबासाहब डॉ. आंबेडकर और बुद्ध में आस्था रखने वाले हर किसी के सम्मान को रौंदा गया। और ऐसा आए दिन होता है। देश के हर हिस्से में बाबासाहब की मूर्तियां तोड़ी जाती हैं। गाड़ियों पर ‘जय भीम’ लिखवाने को लेकर अम्बेडकरी समाज के युवाओं के साथ मार-पीट होती है। और कई मामलों में उनकी हत्या भी हो जाती है। गजराज जाटव की हत्या भी ऐसा ही है। सोचने वाली बात यह है कि किसी जीते-जागते व्यक्ति में इतना ज्यादा जातिवाद कैसे भर जाता है कि वो किसी की हत्या ही कर दे। संभव है कि यह जातीय खुन्नस है और अम्बेडकरवादी युवा गजराज जाटव पहले से ही जातिवादियों के निशाने पर होंगे। मुझे नहीं पता कि सवर्ण जातिवादी इतनी नफरत कहां से लाते हैं? किस धार्मिक उन्माद में वो किसी को अपनी आस्था मानने पर हत्या कर देते हैं। मैं इस घटना पर सवर्ण जातिवादियों को कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि वो शायद वही कर रहे हैं, जो उनके बाप-दादाओं ने उन्हें सिखाया है। लेकिन यहां सवाल यह है कि हम क्या करते हैं? देश के हर हिस्से में होने वाली इन घटनाओं पर हम पीड़ित परिवार के साथ कितना खड़ा होते हैं। हर शहर में अम्बेडकरवादी संगठन है, वकील हैं, दो-चार अधिकारी हैं। इस नाते हमारी जिम्मेदारी है कि पीड़ित व्यक्ति के साथ खड़े हों। अगर पीड़ित की मृत्यु हो जाती है तब तो हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। ऐसी घटनाओं में स्थानीय वकीलों को पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार के साथ खड़ा होना चाहिए। पीड़ित को न्याय दिलवाना चाहिए। अम्बेडकरवादी संगठनों को पीड़ित व्यक्ति की आर्थिक मदद करनी चाहिए। अगर हम एकजुट होकर पीड़ित की मदद करने को तैयार रहेंगे तभी अम्बेडकरवाद आगे बढ़ेगा। क्योंकि जिस व्यक्ति के साथ मार-पीट होती है या फिर उसकी हत्या कर दी जाती है, उसका कसूर बस इतना भर होता है कि वह दलित समाज का व्यक्ति है। उसका कसूर बस इतना होता है कि वह अम्बेडकरवाद का झंडा थामे है और बाबासाहब डॉ. आंबेडकर की विचारधारा को बढ़ाने में लगा है। ऐसे हर व्यक्ति के प्रति पूरे समाज की सामूहिक जिम्मेदारी होती है, हम सबको यह जिम्मेदारी समझनी चाहिए। क्या गजराज जाटव के परिवार के साथ खड़े होने की जिम्मेदारी अम्बेडकरी समाज की नहीं है। क्या समाज को गजराज जाटव के परिवार की आर्थिक मदद नहीं करनी चाहिए, और पूरे समाज को मिलकर हत्यारों को सजा नहीं दिलवानी चाहिए, जिससे गजराज जाटव का बलिदान व्यर्थ न जाए।

एक अच्छा बौद्ध कैसे बनें?

buddhism– –
  • भगवान दास
मैंने लियू शाओ ची से प्रसिद्ध चीनी नेता और पुस्तक “ हाउ टू बी अ गुड कम्युनिस्ट?” के शीर्षक के अलावा कुछ भी उधार नहीं लिया है, जिसने हजारों को कम्युनिज्म में बदल दिया। ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ और “दास कैपिटल” के अलावा शायद एमिल बर्न्स “ व्हाट इज मार्क्सिज्म” एक और विश्व प्रसिद्ध पुस्तक है जिसने शिक्षित लोगों को अपील की और कम्युनिज्म और स्पष्ट शंकाओं को समझाया। सिडनी वेब्स ‘वर्ल्ड कम्युनिज्म’ का विश्व के कम्युनिस्ट साहित्य में अपना अलग स्थान है। लेकिन आम लोगों के लिए मुझे लगता है कि कोई अन्य पुस्तक लियू शाओ ची के “एक अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बनें?’ को पछाड़ सकती है? मैंने भारत के लगभग सभी हिस्सों में यात्रा की है और जहां भी मैं जाता हूं वहां के युवा बौद्ध धर्म के बारे में सवाल करते हैं? बाबा साहेब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म क्यों चुना? क्या धर्म बुराईयों का रामबाण हो सकता है? बौद्ध देशों के युवा बौद्ध कम्युनिस्ट क्यों हो रहे हैं? बौद्ध धर्म का हमारे लिए क्या मतलब है? हमें बौद्धों के रूप में क्या अनुसरण करना चाहिए?’ कई और कठिन प्रश्न अलग-अलग स्थानों पर रखे और दोहराए जाते हैं। मैं इस लेख में इन सभी या इन सवालों में से किसी एक का जवाब देने वाला नहीं हूं। मैं बस यह समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि मैं कितना अच्छा कर सकता हूं, कितना अच्छा बौद्ध कैसे बन सकता हूं? मैं लियू शाओ ची द्वारा अपनाई गई परिपाटी का पालन नहीं कर रहा हूं, लेकिन इसे भारत में जिन परिस्थितियों में हैं, उसे ध्यान में रखते हुए अपने तरीके से रख रहा हूं। शुरू करने के लिए हमें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि बुद्ध शब्द के वास्तविक अर्थ में वह सबसे बड़ा धार्मिक शिक्षक था। वह एक शिक्षक थे और न कि पैगंबर, मसीहा, ईश्वर के पुत्र या जो गलत लोगों को बचाने के लिए अवतार लेने वाले या धर्म को बचाने के लिए पैदा हुए। वह एक ‘योगी’ नहीं थे, जो काम करने वाले चमत्कार और बीमारों का इलाज करके अनुयायी बना सकते थे। वह नैतिकता के शिक्षक थे और पीड़ित जनता को सुखी करने के लिए शिक्षा को अपना हथियार मानते थे। उसने न तो मोक्ष या स्वर्ग में एक आरामदायक जगह का वादा किया और न ही पुनर्जन्म से मुक्ति। उनका शिक्षण अधिक सांसारिक और समझने में आसान था। एकमात्र कठिनाई थी अपने धर्म का अभ्यास करना। ‘पंच शील’, ‘चार आर्य सत्य ‘ और ‘अष्टांग मार्ग’ में उनकी शिक्षाओं का सार है। आप धम्मपद पढ़ सकते हैं और नहीं भी; आप ‘त्रिपिटक’ के साथ बातचीत नहीं कर सकते हैं; आप पाली में सुत्त को सुनाने में सक्षम नहीं हो सकते हैं, अगर आप पंच शील का अर्थ जानते हैं, चार आर्य सत्य के महत्व को समझते हैं और ‘अष्टांग मार्ग’ का पालन करते हैं, तो यह धार्मिक और आदमी बनाने के लिए पर्याप्त है. बुद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ यह था कि मनुष्य एक ‘मनुष्य’ बनना चाहता था, न कि केवल खाने, पीने या खरीदने में दिलचस्पी रखने वाला ‘दोपाया ‘। “बुद्ध,” सभ्यता के सात अध्यायों” के प्रसिद्ध लेखक तनाका देवी के शब्दों में बौद्ध नहीं थे; न ही इस मामले के लिए मसीह एक ईसाई था और मोहम्मद एक मोहम्मद था। यह अनुयायी थे जिन्होंने उन्हें बौद्ध, ईसाई और मोहम्मडन बनाया। ज्यादातर मामलों में यह राजनेता और योद्धा थे जिन्होंने धर्म की भावना को मार दिया और अपने उद्देश्य के लिए खोल की पूजा करने लगे। उसने अपने फायदे के लिए धर्म का शोषण किया। धर्म धीरे-धीरे राजनेता और योद्धा की हाथ की नौकरानी बन गया। यह अज्ञानी है जो धर्म और राजनीतिक पंथ की रक्षा में सबसे कट्टर सेनानी बन जाता है। यह एक ही समय ताकत और किसी भी विचारधारा की सबसे बड़ी कमजोरी है। लोगों का एक छोटा सा हिस्सा धार्मिक सिद्धांत में गंभीरता से रुचि रखता है। अधिकांश लोगों को धर्म या किसी भी राजनीतिक सिद्धांत में गंभीरता से दिलचस्पी नहीं है। उनमें इच्छाशक्ति और समझ की कमी है। खुद को ऊंचा करने के बजाय वे धर्म के स्तर को अपने पैरों के नीचे लाने का प्रयास करते हैं। क्या वे समझ नहीं पाते हैं या वे अभ्यास करना मुश्किल हो जाता है। वे स्वीकार करते हैं और अभ्यास करते हैं जो उन्हें समझने और अनुसरण करने और उन्हें आनंद देने के लिए आसान है। जिन धर्मों ने जनता के लिए एक आसान रास्ता तैयार किया है वे उन लोगों की तुलना में अधिक लोकप्रिय हो जाते हैं जो अध्ययन, अभ्यास, बलिदान और ज्ञान की मांग करते हैं। सबसे आसान पालन हिंदू धर्म है। एलियट के शब्दों का उपयोग करने के लिए, “यह एक जंगल है।” आप किसी भी बात पर विश्वास करने या अविश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं। जो आवश्यक है वह अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों, जाति और समारोहों के अनुरूप है और उसे हिंदू कहने की इच्छा है। संगठित धर्मों, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म और इस्लाम के बीच अनुशासन का कुछ हिस्सा कायम है। लेकिन बहुसंख्यक ईसाई और मुस्लिम अपने धर्मों की परवाह नहीं करते। अन्य धर्मों के अनुयायियों की तरह वे भी मानते हैं कि केवल पुराने रीति-रिवाजों का पालन करना ही धर्म है। सबसे ज्यादा परेशानी खुद धर्मों और धर्मगुरुओं ने पैदा की है। हमें नहीं पता कि क्राइस्ट ने ऐसा कहा या नहीं लेकिन ईसाई पुस्तकों में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति मेरे माध्यम के बिना प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता है। भागवत गीता के कृष्ण ने कहा,” मैं भगवान हूं। मेरे पास आओ और मेरे नाम पर कुछ भी करो और मैं तुम्हें बचाऊंगा। ” उन्होंने दावा किया कि वे भगवान, उद्धारकर्ता हैं। एक अच्छा ईसाई वह है जो बाइबल में परमेश्वर के वचन को मानता है, वह प्रभु यीशु मसीह में विश्वास रखता है और उसे अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करता है। एक व्यक्ति बहुत नैतिक हो सकता है लेकिन अगर वह बाइबल में विश्वास नहीं करता है और प्रभु यीशु मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता है, तो वह एक अच्छा ईसाई नहीं माना जाता है। इसी तरह, एक अच्छा मुसलमान वह है जो ईश्वर के साथ-साथ कुरान में भी विश्वास करता है, पैगंबर मोहम्मद को ईश्वर द्वारा भेजे गए अंतिम पैगंबर के रूप में स्वीकार करता है, जो अपने संदेश के साथ, दिन में पांच बार प्रार्थना करता है, मक्का का हज करता है। एक हिंदू के लिए एक अच्छा हिंदू होने के लिए कोई आज्ञा नहीं है और न ही कठिन और कड़े नियमों का पालन करने के लिए। वह नास्तिक या अज्ञेयवादी हो सकता है, वह मूर्तिपूजक हो सकता है, आस्तिक या मूर्तिभंजक; वह किसी भी पुस्तक, शास्त्र, धार्मिक शिक्षण या दर्शन में विश्वास नहीं कर सकता है, वह एक हिंदू भी हो सकता है, भले ही वह एक जाति का हो और अपनी जाति के हुक्म का पालन करता हो। उसे जाति व्यवस्था में विश्वास करना होगा। buddhismदूसरी ओर, एक अच्छा बौद्ध वह नहीं है जो सही ढंग से सुत्त का पाठ करता है, बुद्ध की मूर्ती के समक्ष मोमबत्तियाँ और अगरबत्ती की छड़ी जलाता है, सारनाथ, श्रावस्ती, गया और कुसिनारा जैसे पवित्र स्थानों पर जाता है; भिक्षुओं के सामने श्रद्धापूर्वक झुकता है, कभी-कभी ‘दाना’ देता है, और इस संतुष्टि के साथ सोता है कि उसने धम्म के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है। अन्य धर्मों के विपरीत बौद्ध धर्म ईश्वर, उसके नबियों, अवतारों, मोक्ष, नर्क और स्वर्ग, मोक्ष और क्षमा, प्रार्थनाओं, उपवासों, बलिदानों को व्यर्थ संस्कार मानता है। बौद्ध धर्म आस्था नहीं है। यह नैतिकता और व्यवहार का धर्म है। बुद्ध ने कभी भी सर्वज्ञ होने का दावा नहीं किया और न ही अपनी शिक्षाओं को महत्व दिया। “सब कुछ बदल जाता है,” उन्होंने कहा, “बदलाव के लिए प्रकृति का नियम है।” उन्होंने अपनी शिक्षाओं को आंकने की एक कसौटी रखी। उन्होंने कुछ सिद्धांतों को भी रखा। उन्होंने लोगों से आस्था पर कुछ भी स्वीकार न करने का आह्वान किया। उनका धर्म कई लोगों की भलाई के लिए था और सभी के भले के लिए था। उनका धर्म अपने आप में अंत नहीं था, बल्कि स्वयं को ऊंचा उठाने के लिए एक सहायता के रूप में था। एक नाव की ‘धम्म’ की तुलना करते हुए, उन्होंने कहा कि नाव का स्थान पानी में था और इसका उद्देश्य यात्रियों को नदी से पार ले जाना था। उन्होंने उन लोगों को तिरस्कृत किया जिन्होंने नाव को अपने सिर पर ढोया था। ‘त्रिशरण’, ‘पंच शील’ और ‘अष्टांग मार्ग’ उनकी धार्मिक कथाओं के महत्वपूर्ण आधार थे। वे पुनरावृत्ति के लिए सरल लेकिन कार्रवाई में समझने और अनुवाद करने में मुश्किल हैं। फिर भी वे ‘आज्ञा’ नहीं थे, लेकिन केवल स्वेच्छा से पढ़ाया जाना स्वीकार किया गया था। उनका अनुपालन न करने से शाप और अपमान नहीं होता था। बुरे विचारों से पैदा हुए बुरे कर्मों के कारण दुख होता है। अच्छे कर्मों ने अच्छे परिणाम दिए। हम बुरे कामों के कारण होने वाले दर्द को दूर नहीं कर सकते हैं और न ही हम पापों के बुरे प्रभाव को कम कर सकते हैं। सबसे अच्छा हम अधिकतर अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों के प्रभाव को कम कर सकते हैं। यदि हम में से हर कोई अपने पड़ोसियों के बारे में अच्छा सोचता है और अच्छा करता है, तो इसका परिणाम अच्छा होगा और चारों ओर खुशी होगी। मन शरीर को आदेशित करता है। मन को नियंत्रित और संस्कारित करना होगा। मन शरीर को नियंत्रित करता है। शरीर मन को नियंत्रित नहीं करता है। अकेले ज्ञान को पर्याप्त नहीं माना जाता है। यह सही इरादे के साथ सही कार्रवाई है जो सबसे ज्यादा मायने रखती है। लाखों नामचीन ईसाई, मुसलमान, सिख, शिंतोवादी, ताओवादी, पारसी और कन्फ्यूशियस हैं। इसी तरह, लाखों नामचीन बौद्ध हैं, जिन्हें अपने पूर्वजों या माता-पिता की संपत्ति की तरह अपना धर्म विरासत में मिला है। वे हमेशा अपने धर्मों के अच्छे प्रतिनिधि नहीं हो सकते हैं। एक अच्छा बौद्ध वह है जो संस्कृति के उच्च स्तर को प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है, वह सच्चा, ईमानदार, ईमानदार साहसी, दयालु और सहनशील है। उसके पास नैतिकता का बहुत उच्च स्तर होना चाहिए। उसे अपने साथ-साथ अपने आसपास के लोगों को भी ऊँचा उठाने की कोशिश करनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति वास्तव में अकेले में महान नहीं हो सकता है। बौद्ध धर्म व्यक्तिवाद का विरोध करता है। एक अच्छा बौद्ध स्वार्थी नहीं हो सकता। वह हठधर्मी नहीं हो सकता। वह सभी के लिए दया और प्रेममय दयालुता के साथ एक तर्कसंगत व्यक्ति है। यदि कोई धम्म की पुस्तकों को पढ़ता है और बुद्ध द्वारा प्रदान किए गए सत्य पर चिंतन करता है, तो वह एक अच्छा बौद्ध हो सकता है। उसे बुद्ध की महान शिक्षाओं का ध्यान और आत्मसात करना सीखना चाहिए। उसे ईमानदारी से उन महान और उदात्त सिद्धांतों को रोजमर्रा की जिंदगी में अमल करने की कोशिश करनी चाहिए। उसे सतर्क रहना चाहिए और धर्म पर किताबों में लिखी हर बात को स्वीकार नहीं करना चाहिए। उसे इस बात का न्याय करना चाहिए कि क्या यह स्वयं के लिए भी अच्छा है और कितने के लिए भी। यह प्रारंभ में अच्छा है, मध्य में अच्छा है और अंत में अच्छा है। कर्म शब्दों से अधिक जोर से बोलते हैं। व्यक्ति को हमेशा अपने विचारों, कर्मों और शब्दों पर पहरा देना चाहिए। जब संदेह में हो तो हमेशा धम्म की मशाल को प्रकाशित करना चाहिए और देखना चाहिए कि क्या विशेष अधिनियम धम्म की शिक्षाओं के अनुरूप होगा। एक अच्छे बौद्ध को हमेशा सतर्क रहना चाहिए और ऐसे कार्यों से बचना चाहिए जो धम्म, उनके शिक्षक भगवान बुद्ध और संघ के लिए बुरा नाम ला सकते हैं। धार्मिक समाजों को उनके व्यवहारों के आधार पर आंका जाता है न कि उनके प्रवचनों के माध्यम से। यदि हम केवल सभी अपने हित को ही ध्यान में नहीं रखते हैं, लेकिन कई लोगों की भलाई और खुशी के लिए काम करते हैं, तो सेवा और प्रेमपूर्ण दया के माध्यम से सभी जीवित प्राणियों के दुखों को दूर करने का आदर्श रखते हुए हम इस जगह को एक सच्चा स्वर्ग बना सकते हैं कवियों और दार्शनिकों की कल्पना ने उनकी कविताओं और पुस्तकों में जो कुछ बनाया या प्रस्तुत किया है, उससे बेहतर और वास्तविक है। यह एक अच्छे बौद्ध का आदर्श होना चाहिए। जो कोई भी बुद्ध के उपदेश के अनुरूप इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए काम करता है वह वास्तव में एक अच्छा बौद्ध है। श्रोत: भीम पत्रिका: दिसम्बर, 1973, खंड। 2।
भगवान दास
( लेखक श्री भगवान दास एक सच्चे आंबेडकरवादी थे। उन्होंने “दुनियां के दलितों एक हो जाओ!” का नारा दिया। वह अस्पृश्यता के मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए एक योद्धा थे। उन्होंने इस मुद्दे को 1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ में जापान के बुराकुमिन्स सहित प्रस्तुत किया। उन्होंने काफी समय तक डॉ. बी आर अंबेडकर के सहायक के रूप में काम किया। उन्होंने सत्तर के दशक में चार खंडों में ” दस स्पोक अंबेडकर” का संकलन और संपादन किया।)