
केंद्र सरकार के वह अध्यादेश, जिसके खिलाफ किसान और व्यापारी दोनों उठा रहे हैं आवाज

अम्बेडकरवादी तैराक सत्येंन्द्र सिंह के हिस्से एक और बड़ा अवार्ड, बधाई सतेन्द्र
अम्बेडकरी समाज से ताल्लुक रखने वाले अंतरराष्ट्रीय स्तर के दिव्यांग तैराक सतेन्द्र सिंह लोहिया के पदकों की लिस्ट में एक और महत्वपूर्ण सम्मान जुड़ गया है। युवा एवं खेल मंत्रालय ने सतेन्द्र सिंह को तेनजिंग नौरगे नेशनल एडवेंचर अवार्ड (Tenzing Norgay National Award) 2019 देने की घोषणा की है। यह अवार्ड अर्जुन अवार्ड के समकक्ष होता है। आमतौर पर यह अवार्ड सेना के जवानों (जल, थल और वायु) को दिया जाता है। लेकिन खास बात यह है कि देश में पहली बार किसी पैरा खिलाड़ी को यह अवार्ड देने की घोषणा की गई है।
इस अवार्ड की घोषणा 18 अगस्त को की गई। हर साल दिया जाने वाला यह अवार्ड खेल दिवस (मेजर ध्यानचंद जयंती) के मौके पर 29 अगस्त को राष्ट्रपति द्वारा दरबार भवन में दिया जाता है। यह अवार्ड तीन कैटेगरी में दिया जाता है, जिसमें एडवेंचरस स्पोर्ट्स शामिल होता है। पहली बार यह पैरा खिलाड़ी को मिल रहा है। इस अवार्ड में अर्जुन अवार्ड की तरह ही पांच लाख रुपये नकद, एक शिल्ड और ब्लेजर दिया जाएगा। साथ ही प्रसस्ति पत्र भी दिया जाता है।
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गौरतलब है कि सतेन्द्र जाटव को इससे पहले मध्यप्रदेश सरकार का सबसे प्रतिष्ठित विक्रम अवार्ड (2014) में और भारत सरकार द्वारा बेस्ट स्पोर्ट्स पर्सन ऑफ द ईयर (दिव्यांग कैटेगरी) अवार्ड (2019) में मिल चुका है। विशेष बात यह है कि सतेन्द्र सिंह व्हीलचेयर पर रहते हैं और 70 फीसदी दिव्यांग हैं। ऐसे में सतेन्द्र का जीवन कईयों के लिए प्रेरणा स्रोत है। हालांकि सतेन्द्र सिंह अपना प्रेरणास्रोत कांशीराम जी को मानते हैं। सतेन्द्र सिंह का कहना है कि मान्यवर कांशीराम जी हमेशा कहा करते थे कि जिसकी तमन्ना सच्ची हो उसे रास्ते मिल जाते हैं, और जिसकी तमन्ना सच्ची नहीं हो उसे बहाने मिल जाते हैं। इस वाक्य को जीवन में उतारते हुए सतेन्द्र सिंह ने दिव्यांगता को कभी अपनी कमी नहीं मानी और हर मुकाम हासिल किया। सतेन्द्र इसके पहले इंग्लिश चैनल और कैटलिना चैनल को भी पार कर चुके हैं। आप भी सतेन्द्र जी से प्रेरणा ले सकते हैं। बधाई सतेन्द्र।
बर्बाद हो रही है गांव की बहुजन युवा पीढ़ी
गांव की पूरी की पूरी युवा आबादी, घोर लंपटई की गिरफ्त में है। पढ़ाई -लिखाई से नाता टूट चुका है। देश-दुनिया की कुल समझ व्हाट्सएप से बनी है। वहां पाकिस्तान माफ़ी मांगता है और चीन थरथर कांपता है। दहेज में बाइक मिली है, भले ही तेल महंगा हैं, धान-गेंहू बेच, एक लीटर भरा ही लेते हैं और गांव में एक बार फटाफटा लेते हैं। गांवई माफिया उनका इस्तेमाल करते हैं। उन्हें आखेट कर किसी न किसी धार्मिक सेनाओं के पदाधिकारी बना कर, अपनी गिरफ्त में रखते हैं।
हमारे गांव के उत्तर में बढ़ई टोला है। वहां से अक्सर कुछ युवाओं के फ्रेंड रिक्वेस्ट आते हैं। उनकी हिस्ट्री देखिए तो सिर पर रंगीन कपड़ा बांधे , जयकारा लगाते, मूर्ति विसर्जन में दारू पीते फोटो मिलेगी। यह है नई पीढ़ी! इसी पर है देश का भविष्य। एक बीमार समाज। ऐसी पीढ़ी अपने बच्चों को कहां ले जा रही?जमीन-जायदाद इतनी नहीं कि ठीक से घर चला सकें या बीमारी पर इलाज हो। तो इनके लिए बेहतर जीवन क्या है? ये किसी औघड़ सेना के सचिव हैं तो किसी धार्मिक संगठनों में फंसा दिए गए हैं। इनकी पीढियां अब उबरने वाली नहीं। दास बनने को अभिशप्त हैं ये। इन्हें हम जैसों की बातें सबसे ज्यादा बुरी लगती हैं। इनका कोई स्वप्न नहीं।घमण्ड इतना कि IAS , PCS उनकी जेब में होते हैं। एक अपाहिज बाप के जवान बेटे को दिनभर चिलम और नशा करते देख कर टोका था तो उसकी मां बोली- हमार बेटा, जवन मन करी उ करी, केहू से मांग के त पिये ला ना? (मेरे बेटे के मन में जो होगा करेगा, किसी से मांग के तो नहीं पीता न?)
अब ऐसे मर रहे समाज में जान फूंकना आसान काम नहीं है? शिक्षा बिना बात का असर नहीं हो सकता। अब सवाल उठता है कि जिस समाज को सचेतन ढंग से बर्बाद किया गया हो, शिक्षा से वंचित किया गया हो तो यह सचेतन गुलाम बनाने का कृत्य है। यह अमानवीय भी है और शातिराना भी। गुलाम बाहुल्य समाज, दुनियाभर में निम्न ही रहेगा, बेशक कुछ की कुंठाएं तृप्त हों। फिलहाल ये उबरने से रहे।
- वरिष्ठ साहित्यकार सुभाष चंद्र कुशवाहा जी के फेसबुक पेज से
जयंती विशेषः पिछड़े समाज को रामस्वरूप वर्मा के नायकत्व से सीख लेनी चाहिए
Written By- दयानाथ निगम
देश का सबसे बड़ा सूबा है उत्तर प्रदेश। इस प्रदेश ने कई नायकों को जन्म दिया। यही वह प्रदेश है, जहां से पिछड़े समाज को जगाने वाले नायक बड़ी संख्या में निकले। राम स्वरूप वर्मा का नाम उसमें प्रमुखता से शामिल है। यूपी के कानपुर देहात के गौरी करन गाँव में 22 अगस्त 1923 को एक साधारण कुर्मी किसान परिवार में रामस्वरूप वर्मा का जन्म हुआ। माता पिता की इच्छा थी कि उनका बेटा उच्च शिक्षा ग्रहण करे, सो उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम०ए॰ और आगरा विश्विद्यालय से एल॰एल॰बी॰ की डिग्री प्राप्त की। यह उस समय की बात है जब ब्रिटिश हुकूमत के कारण शूद्रों और महिलाओं की शिक्षा का रास्ता प्रशस्त हो रहा था जिसका लाभ माननीय रामस्वरूप वर्मा को मिला। रामस्वरूप वर्मा की जयंती और परिनिर्वाण की तारीख चार दिनों के भीतर ही आती है। उनकी जयंती 22 अगस्त को होती है, जबकि परिनिर्वाण दिवस 19 अगस्त को होता है। इस नाते यह हफ्ता रामस्वरूप वर्मा जी के नाम होता है।
पढ़ाई पूरी करने के बाद उनके सामने तीन विकल्प थे। पहला विकल्प प्रशासनिक सेवा में जाना, दूसरा वकालत करना तथा तीसरा विकल्प था राजनीति के द्वारा मूलनिवासी बहुजनों व देश की सेवा करना। वर्मा जी ने आई॰ए॰एस॰ की लिखित परीक्षा भी उर्त्तीण कर ली थी किन्तु साक्षात्कार के पूर्व ही वे निर्णय ले चुके थे कि प्रशासनिक सेवा में रहकर वे ऐशो आराम की जिन्दगी तो व्यतीत कर सकते हैं पर मूलनिवासी बहुजन समाज के लिए कुछ नहीं कर सकते।
मा॰ रामस्वरूप वर्मा में राजनैतिक चेतना का प्रार्दुभाव डॉ॰ अम्बेडकर के उस भाषण से हुआ, जिसे उन्होंने मद्रास के पार्क टाउन मैदान में 1944 में शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन द्वारा आयोजित कार्यकर्ता सम्मेलन में दिया था। डॉ॰ अम्बेडकर ने कहा था, ‘तुम अपनी दीवारों पर जाकर लिख दो कि तुम्हें कल इस देश का शासक जमात बनना है जिसे आते जाते समय तुम्हें हमेशा याद रहे।’
माननीय रामस्वरूप वर्मा पर डॉ॰ अम्बेडकर के उस भाषण का भी बहुत ही प्रभाव पड़ा जिसे उन्होंने 25 अप्रैल 1948 को बेगम हजरत महल पार्क में दिया था। डॉ॰ अम्बेडकर ने कहा था, ‘जिस दिन अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग एक मंच पर होंगे उस दिन वे सरदार बल्लभ भाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू का स्थान ग्रहण कर सकते हैं।’ यही वजह रही कि एस॰सी॰, एस॰टी॰ एवं ओ॰बी॰सी॰ के बीच सामाजिक चेतना और जागृति पैदा करने के लिए उन्होंने 1 जून 1968 को सामाजिक संगठन ‘अर्जक संघ’ की स्थापना की।

इस तरह के नारे देकर उन्होंने समाज में ज्योति जलाई। महामना वर्मा जी ने वैचारिक क्रांति के लिये वैचारिक पुस्तकों का प्रकाशन किया। इसमें क्रांति क्यों और कैसे, ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे? ‘‘मानवतावाद बनाम ब्राह्मणवाद’’, ‘‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’’ आदि पुस्तकें शामिल हैं। माननीय रामस्वरूप वर्मा सम्पूर्ण क्रांति के पक्षधर थे। उनकी सम्पूर्ण क्रांति में भ्रांति का कोई स्थान नहीं था। वर्मा जी के अनुसार, जीवन के चार क्षेत्र होते हैं। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक। उनका मानना था कि इन चारों क्षेत्रों में गैरबराबरी समाप्त करके ही हम सच्ची और वास्तविक क्रान्ति निरूपित कर सकते हैं। रामस्वरूप वर्मा निःसन्देह डॉ॰ राम मनोहर लोहिया के राजनैतिक दल संसोपा से जुड़े थे, किन्तु लोहिया जी के साथ वर्मा जी का वैचारिक मतभेद था। लोहिया गान्धीवादी थे, वर्मा जी अम्बेडकरवादी। लोहिया के आर्दश मर्यादा पुरूषोत्तम राम और मोहन दास करमचन्द गांधी थे, जबकि रामस्वरूप वर्मा के आदर्श भगवान बुद्ध, फूले, अम्बेडकर और पेरियार थे।


Video- मनुवाद को धूल चटाने वाले नायक थे रामस्वरूप वर्मा
मा॰ रामस्वरूप वर्मा का मानना था सामाजिक चेतना से ही सामाजिक परिवर्तन होगा और सामाजिक परिवर्तन के बगैर राजनैतिक परिवर्तन सम्भव नहीं। अगर येन केन प्रकारेण राजनैतिक परिवर्तन हो भी गया तो वह ज्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं होगा। रामस्वरूप वर्मा सामाजिक सुधार के पक्षधर नहीं थे। वे सामाजिक परिवर्तन चाहते थे। वे हमेशा समझाया करते थे जिस प्रकार दूध से भरे टब में यदि पोटेशियम साइनाइट का टुकड़ा पड़ जाये तो उस टुकड़े को दूध के टब से निकालने के बाद भी दूध का प्रयोग करना जानलेवा होगा। इसलिए ब्राह्मणवादी मूल्यों में सुधार की कोई गुंजाइश नही हैं। ब्राह्मणवाद सुधारा नहीं जा सकता बल्कि नकारा ही जा सकता है। माननीय रामस्वरूप वर्मा ने कभी भी सिद्धांतो से समझौता नहीं किया। रामस्वरूप वर्मा ने बाबासाहब डॉ. आम्बेडकर की तरह 22 प्रतिज्ञाओं के साथ बौद्ध धर्म तो स्वीकार नहीं किया लेकिन उन्होंने विवाह संस्कार, यशाकायी दिवस, त्यौहार आदि को लेकर समाज में अपनी अर्जक पद्धति विकसित की। जैसे एक जून अर्जक संघ स्थापना दिवस को समता दिवस, बाबासाहब डॉ. आम्बेडकर जन्म दिवस 14 अप्रैल को चेतना दिवस, तथागत बुद्ध जयंती को मानवता दिवस के रूप में मनाना शुरू किया। रामस्वरूप वर्मा ने अर्जक संघ के कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि पूरे देश में जहां-जहां अर्जक संघ के कार्यकर्ता हैं वे बाबासाहब डॉ॰ अम्बेडकर के जन्मदिन के दिन मूलनिवासी बहुजनों को जगाने के लिए 14 अप्रैल से 30 अप्रैल तक पूरे महीने रामायण और मनुस्मृति का दहन करें। अर्जक संघ के कार्यकर्ताओं ने रामस्वरूप वर्मा के आदेशों का पालन करते हुए रामायण और मनुस्मृति को घोषणा के साथ जलाया। उन्होंने वैवाहिक संस्कार की भी पद्धति बनाकर अपनी संस्कृति स्थापित की। उन्होंने ताउम्र अपने सिद्धांतों की राजनीति की। 19 अगस्त 1998 को उनका परिनिर्वाण हो गया।- लेखक दयानाथ निगम उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से प्रकाशित “अम्बेडकर इन इंडिया” मासिक पत्रिका के संपादक हैं। संपर्क- 9450469420
दलित उत्पीड़न और सवर्ण जातियों की चुप्पी
– Written By- सुरेश कुमार
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सवर्णों की प्रताड़ना का बिंदु दलित समाज है। यह उच्च श्रेणी की मानसिकता वाला समाज दलितों पर अन्याय और जुल्म करने के मामले में इतिहास के पन्ने काले से काले करते आया है। अभी पिछले दिनों आगरा के अछनेरा तहसील के रायभा गांव में जिस तरह से एक दलित महिला के शव को उच्च जाति के सवर्णों ने श्मशान में अंतिम संस्कार नहीं करने दिया, उस से पता चलता है कि देश में जातिवाद की जड़े कितनी गहरी और अंदर तक धंसी हुई है। इस तरह की घटनाओं और सवर्णों का जातिगत भेदभाव दलितों को मनुकाल में ले जाकर धकेल देता हैं। उच्च श्रेणी के सवर्णों द्वारा दलितों को बार-बार याद दिलाया जाता है कि इस देश में तुम्हारे लिये कोई जगह नहीं है। यहां तक दलितों लिये मरने के बाद दो गज जमीन उनकी नहीं है। कमाल की बात यह है कि संविधान और लोकतंत्रवादी व्यवस्था के भीतर भी सवर्णों का जातीय दंभ और उच्च श्रेणी की मानसिकता कमजोर होने के बजाय बलवती होती जा रही है।
दलितों को अपमानित करने वाली घटनायें समाज के सभी हलको में दिन प्रतिदिन घटती रहती है। अभी हाल में ही कानपुर देहात के मगतापुर गांव में दलित समाज के लोग सनातन कथा कराने के बजाय बौद्ध या भीम कथा करवा रहे थे। यह बात गांव के उच्च श्रेणी के लोगों को इतनी नगवार लगी कि उन्होंने पूरे गांव के दलितों की जमकर पिटाई कर दी थी। उच्च श्रेणी की मानसिकता और सामंती ठसक दलितों के संस्कृति क्षेत्र को भी नियंत्रण करने का उपक्रम करती आई है। बौद्ध कथा या बाबासाहब की कथा कराने से सवर्णों को लगता है की उनके वर्चस्व को चुनौती दी जा रही है। और, उनके नायकों और प्रतिमानों के समक्ष दलित अपने नायक या प्रमिमान क्यों स्थापित कर रहें है? दलित के नायक और प्रमिमान स्थापित न हो जाये इसलिए उनके संस्कृतिक क्षेत्र को नियंत्रित करने की कोशिस की जाती रही है। उच्च श्रेणी की मानसिकता और दंभ दलितों को मनुकाल की याद दिलाये रखने के लिये उनकों प्रताड़ित और अपमानित करने का उपक्रम करता रहता है।

बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि दलित की कोई मातृभूमि नहीं है। इस कथन के पीछे उनकी गहरी चिंता और पीड़ा महसूस की जा सकती है। बाबासाहब के कहने का अर्थ था कि इस देश में दलितों का कुछ नहीं है। यहां के सवर्ण दलितों को देश का नागरिक नहीं बल्कि गुलाम और अछूत के सिवा कुछ नहीं समझते है। दलित न तो सार्वजनिक संपत्ति का प्रयोग कर सकते थे, और न तो मन्दिर जा सकते, और न ही वे शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। बाबासाहब ने यह भले यह बात बीसवीं सदी के तीसरे दशक में कही हो लेकिन सच्चाई यह है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी सवर्णों की मानसिकता में ज्याद बदलाव नहीं हुआ है। 21वीं सदी में भी दलितों के साथ वैसा ही सलूक देखने को मिल रहा है जैसा उनके साथ मनुकाल में होता था। आज भी सवर्ण मानसिकता के लोग दलितों के साथ बड़ी क्रूरता और निर्ममता से पेश आते हैं। यह कटु सच्चाई है कि दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार देखकर सवर्ण मानसिकता से भरे लोगों को खून खौल जाता है। सवर्णवादी संरचना दलितों को अछूत और बंधुवा गुलाम के तौर देखने की अभ्यस्त रही है। वर्णगत और सवर्णवादी व्यवस्था की ओर से तय की गयी परिभाषा पर जो दलित नहीं चलता है, उसको सवर्णों के द्वारा सबक सिखा दिया जाता है। दलितों के लिये इस से बड़ी त्रासदी और पीड़ा क्या हो सकती है कि वे जिस मिट्टी में पैदा हुये, जिसके लिये अपना खून पसीना एक कर दिया हो, और, मारने के बाद सवर्णों के द्वारा उनके शव को चिता से उठवा दिया जाये। डॉ. आंबेडकर की चिंता थीं कि हिन्दुओं के शासन में दलितों को प्रताड़ित और अपमानित किया जायेगा। आज बाबासाहब की बात शत प्रतिशत सही साबित हुई है। जहां जातिगत और वर्णगत व्यवस्था का ढांचा सवर्णों को सम्मान और प्रतिष्ठा दिलवाता है, वहीं दलित और स्त्रियों को सम्मान और अधिकारों से वंचित करने का काम भी करता है। देखा जाय तो जातिगत संरचना दलितों और स्त्रियों के लिये मरण-व्यवस्था की तरह है। इसकी संरचना जहां दलितों के अधिकारों का दायरा सीमित कर देती है वहीं उच्च श्रेणी के हिंदुओं को विशेष अधिकारों का समर्थन करती है। वर्ण-व्यवस्था की संरचना दलितों को संसाधनों से भी वंचित कर देती है। संसाधनों से वंचित हो जाने पर दलित समाज की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति की कमर टूट गई है। जमीन से लेकर संस्थाओं तक के सारे संसधानों पर सवर्णों का कब्जा है। दलित के पास जमा पूंजी के नाम पर भूख और सवर्णों की प्रताड़ना के सिवा और क्या है? भूमि विहीन दलित आखिर अपने मृत शरीर को कहां दफन करें। यदि दलितों के प्रति सवर्णों का रवैया नहीं बदल रहा है, और वे दलितों के शव को अपने शमशान में जलाने नहीं दे रहें है, तो सरकार बहादुर को दलितों के लिये अलग से श्मशान भूमि के आवंटन की ओर ध्यान देना चाहिये।

भारतीय समाज का सवर्ण तबका जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था और रुढ़ियों का पोषक और रक्षक रहा है। यह समाज शास्त्रों और पुरोहितों के दिशा निर्देश में संचालित होता आ रहा है। पुरोहित और पोथाधारी शास्त्रों और स्मृतियों का हवाला देकर दलित विरोधी वातावरण तैयार करने में अहम भूमिका निभाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि सवर्ण समाज का पढ़ा लिखा तपका भी जाति के जामे को पहना ओढ़ना और बिछना अब तक नहीं छोड़ सका है। संविधान और ज्ञान-विज्ञान की छत्रछाया में भी सवर्ण समाज जातिवाद और भेदभाव की संस्कृति का त्याग नहीं कर सका है। 21वीं सदी में भी दलितों के साथ यह समाज वैसे ही पेश आता है, जैसे मनुकाल में दलितों के साथ व्यवहार किया जाता था। दलितों के प्रति घृणा का भाव चेतन और अवचेतन के स्तर पर हावी रहता है; जिसके फलस्वरुप दलितों के ऊपर जुल्म और अत्याचार किया जाता है। सवर्णों का श्रेष्ठता का भाव ही दलितों की गरिमा को लांक्षित और अपमानित करने का काम करता है। संविधान और लोकतंत्र की व्यवस्था किसी भी व्यक्ति और समाज को यह अधिकार नहीं देता है कि वह किसी मनुष्य के साथ भेदभाव और उसकी गरिमा को लांक्षित और अपमानित करने का उपक्रम करे। हमारे देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का वर्चस्व रहा है। इनके वर्चस्व ने दलितों और स्त्रियों के साथ घोर सामाजिक अन्याय किया है। उच्च श्रेणी के लोगों की संवेदनायें दलितों के साथ नहीं बल्कि वर्णवादियों के साथ रही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने जातिगत वर्चस्व को कायम रखने के लिये दलितों के साथ बड़ी निर्ममता और संवेदनहीनता से पेश आते रहे हैं। जातिवादी वर्चस्व ने दलित शोषण और प्रताड़ना की एक अंतहीन जमीन तैयार की है। वर्णवादी शाक्तियां समाज का वातावरण दलितों के अनुकूल नहीं होने देती है।

सवर्णवादी मानसिकता के लोग संविधानवादी व्यवस्था को ताक पर रखकर दलितों को मनुकाल की याद तरोताजा कराने का कोई अवसर नहीं छोड़ते है। वर्णवादी लोग समता और सामाजिक न्याय की सदा धज्जिया उड़ाते आयें है। दलितों पर अत्याचार करने में संवदेनहीनता की सारे हदे पार कर जाते हैं। श्मशान भूमि से दलित स्त्री का शव चिता से उठवा देना, यह सवर्णवाद और सामन्ती ठसक की संवेदनहीनता की पराकष्ठा का उत्कर्ष नहीं तो और क्या है? सवर्णवादी मानसिकता दलितों और पिछड़ों के सामाजिक और शैक्षिक विकास में सदैव अवरोध पैदा करती रही है। इसी मानसिकता के पक्षधर और समर्थकों ने दलितों को बुनियादी हकों से वंचित करने का काम किया है। यह तय है कि वर्णगत और जातिगत जुगलबंदी जब तक कायम है, तब तक दलितों को अधिकार और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती है। दलितों के सर्वजानिक क्षेत्र के विकास के लिये जातिवाद और वर्णवाद का खात्मा होना निहायत ही जरुरी है। समाज के नियंताओं और बुद्धिजीवियों को वर्णगत और जातिगत संरचना के खि़लाफ विमर्श का माहौल तैयार करना होगा। सबसे पहले सवर्णो को जातीय दंभ और सामन्ती ठसक के खोल से मुक्त करना होगा। जब तक सवर्ण समाज के लोग अपने भीतर बैठे जातिवाद के दानव को नहीं खत्म करेगें, तब तक समाज के भीतर बदलाव की लहर नहीं आ सकती है। क्योंकि सवर्णवादी मानसिकता ही दलितों के सामाजिक और शैक्षिक विकास में सर्वाधिक बाधा को तौर पर उपस्थिति होती है। सवर्ण समाज को अमेरिका के रंगभेद आंदोलन से सीख लेनी चाहिये। यदि वहां कोई स्वेत अस्वेतों के साथ भेदभाव करता है तो सबसे पहले मुखर विरोध स्वेतों की ओर से होता है। लेकिन भारत में दलितों के साथ जो अत्याचार और जुल्म होता उसको लेकर सवर्ण समाज के अधिकांश बु़द्धिजीवि चुप्पी साध लेते हैं। सवर्ण समाज के बुद्धिजीवियों को जातिवादी मानसिकता से ग्रसित लोगों के प्रति ‘गैर-आलोचनात्मक’ नहीं होना है। उन्हें दलित समाज पर अत्याचार और जुर्म करने वालों अपने स्वजातीय लोगों की सर्वजानिक तौर पर भर्स्ाना करने की पहल शुरु करनी होगी। सवर्ण बुद्धिजीवियों को जाति विरोधी गोलबंदी में दलितों का साथ देना होगा। मिल जुलकर दलित दलित शोषण के विरुद्ध विमर्श का माहौल तैयार करना होगा, तभी समाज समतावादी व्यवस्था कायम होगी।
लेखक सुरेश कुमार स्वतंत्र रूप से नियमित लेखन करते हैं। संपर्क- 8009824098
“सुप्रीम कोर्ट 2014 से ही संघ के आंगन में नाच रहा है”

बहुजन शोधार्थियों के लिए बना मंच, पीएचडी में मदद करेंगे बहुजन विद्वान

राष्ट्र के रूप में भारत दलितों का कर्जदार है


- लेखक सूरज येंगड़े अंबेडकरवादी युवा हैं। वर्तमान में हार्वर्ड युनिवर्सिटी में पोस्ट डाक्ट्रेट फेलो हैं। “कॉस्ट मैटर्स” किताब के लेखक हैं। हिन्दी अनुवाद- कोमल रजक (डॉक्टोरल स्कॉलर, दिल्ली विश्वविद्यालय)
कोरोना के दौर में डॉक्टरों की अग्निपरीक्षा



- By- डॉ. सिद्धार्थ
जब ब्राह्मण युवक ने फोन कर कहा, आपने दलित दरोगा कि ब्राह्मणों से मारपीट की खबर क्यों नहीं चलाई

नई शिक्षा नीति से उठते सवाल

वंचितों के हक की लड़ाई लड़ने वाले हैनी बाबू की गिरफ्तारी के मायने




[फारवर्ड प्रेस नामक पत्रिका के प्रबंध संपादक रहे प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और आधुनिकता के विकास में रही है। पेरियार के लेखन और भाषणों का उनके द्वारा संपादित संकलन तीन खंड में हाल ही में प्रकाशित हुआ है। संपर्क: 9811884495, janvikalp@gmail.com
टॉपर है डॉ. आंबेडकर की नई पीढ़ी
पिछले कुछ दिनों से आप सोशल मीडिया पर घूमती कुछ तस्वीरों को देख रहे होंगे। देश के तमाम राज्यों और जिले से टॉपरों की सूची में शामिल ये नाम गर्व करने वाले हैं। ये वो नाम हैं, जिन्होंने हाल ही में आए दसवीं और 12वीं की परीक्षाओं में टॉप किया है। कुछ ने अपने राज्य में तो कईयों ने अपने जिलों में। खास बात यह है कि इसमें कुछ नाम ऐसे भी शामिल हैं, जिन्होंने तमाम अभाव और गरीबी के बावजूद लाखों मेरिटधारियों को पछाड़ दिया है।



मैंने जिन बच्चों का भी जिक्र किया, उनमें दो बातें कॉमन है। पहली बात सभी टॉपर हैं। किसी ने प्रदेश में तो किसी ने अपने जिले में टॉप किया है। दूसरी बात सब के सब एससी-एसटी समाज के बच्चे हैं, जिन्हें आमतौर पर अंडरमेरिट मान कर खारिज कर देने का रिवाज रहा है। लेकिन इन बच्चों में कईयों ने अभाव के बीच सफलता हासिल कर बता दिया है कि वो बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के वंशज हैं, जिन्हें दुनिया विद्वान मानती है। वो ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के वंशज हैं, जिन्होंने शिक्षा को सबसे ऊपर रखा था। खासबात यह भी है कि इन टॉपर्स में लड़के भी हैं, लड़कियां भी हैं। और तमाम युवा बाबासाहेब सहित बहुजन नायकों को अपना आदर्श मानते हैं। साफ है कि यह बाबासाहेब आंबेडकर के समाज की नई पीढ़ी है, जिसने मौका मिलते ही साबित कर दिया है कि मेरिट किसी के घर की बपौती नहीं होती, बस मौका मिलना चाहिए।
हिंदी पट्टी में पेरियार

Written By- प्रमोद रंजन ‘हिंदी पट्टी में पेरियार’ विषय पर बात करनी हो तो, एक चालू वाक्य को उलट कर कहने पर बात अधिक तथ्यगत होगी। वह यह कि पेरियार के विचार हिंदी की दुनिया में परिचय के मोहताज हैं! उत्तर भारत, दक्षिण भारत के महान सामाजिक क्रांतिकारी, दार्शनिक और देश एक बड़े हिस्से में सामाजिक-संतुलन की विधियों और राजनीतिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाले ईवी रामासामी पेरियार (17 सितम्बर, 1879-24 दिसम्बर, 1973) के बौद्धिक योगदान के विविध आयामों से अपरिचित हैं। यह सुनने में अजीब है, लेकिन सच है। जबकि स्वयं पेरियार चाहते थे कि उनके विचार उत्तर भारत के प्रबुद्ध लोगों तक पहुंचे। उन्होंने अपने जीवनकाल में उत्तर भारत के कई दौरे किए और विभिन्न जगहों पर भाषण दिए। इस दौरान उन्होंने अपने कुछ लेखों व एक पुस्तक को हिंदी में प्रकाशित करने का अधिकार भी उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख बहुजन कार्यकर्ताओं, क्रमशः चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु और ललई सिंह को दिए थे। लेकिन वह बात न हो सकी, जो पेरियार चाहते थे।





(राजकमल समूह द्वारा प्रकाशित पेरियार पुस्तक ऋंखला के संपादकीय का संपादित अंश) राजकमल समूह द्वारा प्रकाशित पेरियार पुस्तक श्रंखला की तीन पुस्तकें

- धर्म और विश्वदृष्टि
- जाति व्यवस्था और पितृसत्ता
- सच्ची रामायणसंपादक : प्रमोद रंजन
(यह दोनों किताब आप बहुजन बुक्स की वेबसाइट से बुक कर सकते हैं। सच्ची रामायण एवं धर्म और विश्व दृष्टि पुस्तक बुक करने के लिए किताबों के नाम पर क्लिक करिए।
कोरोना काल में विस्थापित मज़दूरों के बच्चे

लेखिका पूजा मारवाह चाइल्ड राइट्स एंड यू “क्राई” की सीईओ हैं।
No End to Humiliation of Dalits Even After Death

यूपी में 2007 का करिश्मा दोहरा सकती है बसपा, बशर्ते…


अयोध्या में बौद्ध पक्ष को अदालत की फटकार कितनी जायज



अन्नाभाऊ साठेः ऐसे दलित साहित्यकार, जिनकी रचनाओं का 27 भाषाओं में हुआ अनुवाद

