अन्नाभाऊ साठेः ऐसे दलित साहित्यकार, जिनकी रचनाओं का 27 भाषाओं में हुआ अनुवाद

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दलित समाज में जन्में बहुत से ऐसे रत्न हैं, जिनके बारे में देश को नहीं पता। या तो वह क्षेत्र विशेष तक सीमट कर रह गए हैं या फिर समाज के हीरो बनकर। जबकि उनकी काबिलियत ऐसी है कि बड़े से बड़ा बुद्धिजीवी उनके सामने धाराशायी हो जाए। उनकी प्रसिद्धी सीमट कर रह गई तो सिर्फ और सिर्फ उनकी जाति की वजह से। अन्नाभाऊ साठे ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिनको देश के भीतर उनके कद के मुताबिक मान-सम्मान नहीं मिला। आज भी देश तो क्या खुद दलित-बहुजन समाज के ज्यादातर लोग उनकी महानता से अनभिज्ञ हैं।

18 जुलाई (1969)को उनकी पुण्यतिथि यानी परिनिर्वाण दिवस है। उनका जन्म 1 अगस्त 1920 को महाराष्ट्र के सांगली जिले के वाटेगांव में हुआ था। वह महज 48 साल जिए, लेकिन इतने कम समय में भी उन्होंने इतना शानदार साहित्य रचा कि उसकी धमक दुनिया के 27 देशों तक में पहुंची। जी हां, अन्नभाऊ साठे की रचनाओं का दुनिया की 27 भाषाओं में अनुवाद हुआ। वह सबसे ज्यादा रुस में प्रचलित थे। कहा जाता है कि उनकी वजह से भारत और रुस के संबंध बेहतर हुए।

Anna Bhau Sathe

रूस में पंडित नेहरू, राजकपूर और अन्नाभाऊ साठे खासे लोकप्रिय थे। एक बार जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जब रूस के दौरे पर गए तो लोगों ने उनसे अन्नाभाऊ साठे के बारे में पूछ लिया। पंडित नेहरू असमंजस में पड़ गए कि वो कौन है, जिसके बारे में लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं जानता हूं कि नहीं। प्रधानमंत्री नेहरू ने तुरंत भारतीय दूतावास से पता करने को कहा कि महाराष्ट्र में अन्नाभाऊ साठे कौन हैं, तब जाकर दूतावास ने उन्हें अन्नाभाऊ के बारे में जानकारी मुहैया कराई।

विचारधारा के नाम पर वह मार्क्सवादी विचारधारा के बेहद करीब थे। वह मजदूर आंदोलन से जुड़े रहे। हालांकि बाद के दिनों में उनपर बाबासाहेब आंबेडकर का भी काफी प्रभाव रहा वह मार्क्स के वर्ग संघर्ष के साथ सामाजिक न्याय के सिद्धांत को भी समझने लगे थे। उन्होंने अपनी एक चर्चित रचना बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को समर्पित भी की थी।

उनके बारे में एक और जानकारी चौंकाने वाली है। उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। सांगली से मुंबई आने के बाद उन्होंने फिल्मों के पोस्टर और दीवारों पर लिखे प्रचार को देखकर पढ़ना सीखा। लिखना सीखने के बाद उन्होंने एक बार लिखना शुरू किया तो फिर जीवन के आखिर तक नहीं रुके। ‘फकीरा’ उनका सबसे चर्चित उपन्यास है। 1959 में यह उपन्यास सामने आने के दो साल बाद ही सन् 1961 में उन्हें महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला। हाल तक इसके दो दर्जन संस्करण आ चुके हैं।

फिल्मी दुनिया में भी वह काफी सक्रिय रहें। उनके लिखे तकरीबन आधे दर्जन से ज्यादा उपन्यासों पर फिल्म बन चुकी है। बलराज साहनी, ए.के हंगल, गीतकार कैफी आजमी से उनका करीबी नाता रहा। उन्हें भारत का ‘मैक्सिम गोर्की’ कहा जाता है। आज एक बार सोच कर देखिए, अगर वो सामान्य समाज में जन्में होते तो उनकी प्रसिद्धी चांद तक पहुंच गई होती।

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