राष्ट्र के रूप में भारत दलितों का कर्जदार है

Written By- सूरज येंगड़े
आरक्षण और भूमि सुधारों के माध्यम से संवैधानिक वादे हमें इकठ्ठा करने के लिए कुछेक तरीकों में से एक थे। किन्तु ये बहुत ज़्यादा विवादित रहे हैं। सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए भूल-सुधार/क्षतिपूर्ति का माध्यम सबसे व्यवहारिक तरीकों में से एक है।

एक राष्ट्र के रूप में भारत दलितों का कर्ज़दार है- जिनके कन्धों पर उसके सभ्यतागत स्तंभ खड़े किए गए हैं। दलित प्रतिभा, कौशल और आंतरिक-बल आदि भारत को अंग्रेजों सहित बाहरी लोगों के लिए सबसे वांछनीय स्थानों में से एक बनाता है। कला के विभिन्न स्वरुप, साहित्य, संगीत, कविता इत्यादि की उत्पत्ति दलित, आदिवासी और शूद्रों के जन-जीवन से हुई है। अपने आविष्कारशील प्रतिभा और प्रदर्शन के उत्साह में, दलितों ने अपनी त्रासदियों को एक लय में पिरोया है, तथा अस्पृश्यता की यातनाओं के बीच अपनी संस्कृति को संरक्षित किया है। वे रोये हैं, और आग्रह किया, विरोध-प्रदर्शन किये और लड़ाई भी की है। इस सबके द्वारा उन्होंने संवेदी अनुभवों के नए स्वरूपों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है।

लगभग सभी “प्रतिष्ठित और शास्त्रीय” भारतीय कला के स्वरूपों का उद्गम दलितों के जन-जीवन में दिखता है। दलित कला की चोरी और उसके ब्रह्मणिकरण के बहुत से उदाहरण मौजूद हैं। इसके बावजूद दलितों के दावों को रोकने के लिए, उन्हें विभिन्न कलाओं में भाग लेने और अभ्यास करने से रोक दिया गया। इसने दलित प्रतिभा की किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त को समाप्त किया है। यही कारण है कि आज भी, कई उत्कृष्ट और प्रतिष्ठित कलाओं में दलितों की भागीदारी नहीं है।

अन्य नयी खोजों में भी, दलितों ने विज्ञान को फलने-फूलने और तर्कवाद को तरजीह/प्रधानता हासिल करने में मदद की है। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक गतिविधियों और प्रार्थनाओं में, आत्मज्ञान के सार को सर्वशक्तिमान माना है। ऐसे में, हम दलित अस्मिता और अस्तित्व की हत्या करने की अपनी पिछली गलतियों को कैसे सुलझाएं ताकि भविष्य के लिए स्थिति को ठीक किया जा सके? इस सवाल का उत्तर, “जिनके साथ गलत हुआ है उन्हें आर्थिक सहायता या किसी अन्य तरीके से सहयोग करके अपनी गलतियों को सुधार कर” भूल-सुधार/क्षतिपूर्ति के बारे में सोचने का एक संभावित तरीका है। यह अतीत और आगे बढ़ने वाले अन्याय को ठीक करने का एक माध्यम है। भूल-सुधारों को तीन व्यापक प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:-

नैतिक भूल-सुधार:- ज़ख़्मी दिलों और दिमागों के उपचार करने हेतु पिछली गलतियों को स्वीकारना और क्षमा माँगना।
आध्यात्मिक भूल-सुधार:- उन समुदायों को नेतृत्व और सम्मान देना, जिनके अध्यात्म के प्रति प्रयासों को अपराध घोषित कर दिया गया।
सशर्त भूल-सुधार:- यह धन और भौतिक सामग्री की अदायगी के रूप में एक मुआवज़ा/भूल-सुधार है। यह उन सामाजिक और आर्थिक कारकों से निकलता है जो एक पूरे समुदाय की भूमि, श्रम और मूल्य लूटते हैं।

क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार उपनिवेश देशों की एक अंतरराष्ट्रीय मांग है। “क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार और पुनर्वितरणवादी न्याय के विभिन्न वैश्विक दावों के लिए नैतिक, कानूनी, आर्थिक, ऐतिहासिक, और राजनीतिक साक्ष्यों” की जांच करने के लिए हार्वर्ड के मेडिकल स्कूल में लैंसेट कमीशन ऑन रेपरेशंस की स्थापना की गई जहाँ अफ्रीकी अमरीकियों, रोमन, कैरेबियन दासता के साथ साथ, भारत की जाति व्यवस्था के पीड़ितों को भी सुना गया। इसमें भारतीय सन्दर्भ को अर्थशास्त्री सुखदेव थोराट और अमित थोरात ने पेश किया था।

क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार का यह माध्यम, दलितों, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने में खेत से लेकर उद्योगों तक अपना खून-पसीना एक किया, के अवैतनिक श्रम के भारी बोझ के बारे में चिंतन-मनन करने के लिए, देश के समक्ष अवसर मुहैया कराता है। देश की आत्मा लगातार नष्ट की जा रही है, जिसके पुनः जीर्णोद्धार के लिए पुनर्वितरणकारी न्याय और क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार का ऐसा प्रावधान करना आवश्यक है। दलित महिलाओं के कोख-संबंधी कठोर श्रम को ध्यान में रखते हुए और भूमि पुनर्वितरण के रूप में पुनर्वितरणकारी न्याय करना ज़रूरी है।

विरोध-प्रदर्शनों और न्याय के आंदोलनों के पक्ष में, दलित अभी तक भूल-सुधार/मुआवज़े की मांग के करीब भी नहीं आये हैं। यह एक मौका है उस समाज को एक आईना दिखाने का, जो अपनी आंतरिक असुरक्षा की भावना के कारण दलितों के खिलाफ निरंतर हिंसा और उनसे घृणा करता है। असुरक्षा की ये भावनाएं पीढ़ी दर पीढ़ी निर्मित हुई हैं। क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार की यह प्रक्रिया हमारे लिए एक राष्ट्र के रूप में एक-साथ आने और स्वतंत्रता के खंडित वादों के पुनर्निर्माण में सहयोग का एक अवसर है।

इस देश का प्रत्येक संस्थान दलित हिंसा के इस अपराध में संलिप्त है। यह बहुत आसानी से, देश को एक रखने वाली संरचनाओं में स्थानांतरित हो गया है। आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व दलित जातियों, जिनका श्रम और सम्मान भारत की सत्तारूढ़ जातियों द्वारा शून्य कर दिया गया, को न्याय प्रदान करने का महज़ एक तरीका है।

एक राष्ट्र के रूप में, खुद को साबित करने के लिए हमें सामूहिक रूप से शोक मनाने या दुःखों को साझा करने में सक्षम होने की बहुत जरूरत है। यह देश नाज़ी नरसंहार के पीड़ितों, यहां तक कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के पीड़ितों के लिए शोक मना सकता है, लेकिन दलितों के खिलाफ अत्याचारों पर पत्थर की तरह कठोर हो जाता है।

इस बड़ी उदासीनता को बदलने या खत्म करने के लिए, हमें नए सिरे से शुरुआत करने की जरूरत है। आरक्षण और भूमि सुधारों के माध्यम से संवैधानिक वादे हमें इकठ्ठा करने के लिए कुछ तरीकों में से एक थे। लेकिन ये सर्वाधिक विवादित रहे हैं। सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए क्षतिपूर्ति/भूल-सुधार सबसे व्यवहिरिक तरीकों में से एक हैं।


  • लेखक सूरज येंगड़े अंबेडकरवादी युवा हैं। वर्तमान में हार्वर्ड युनिवर्सिटी में पोस्ट डाक्ट्रेट फेलो हैं। “कॉस्ट मैटर्स” किताब के लेखक हैं।
    हिन्दी अनुवाद- कोमल रजक (डॉक्टोरल स्कॉलर, दिल्ली विश्वविद्यालय)

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