तो क्या अंततः ब्राह्मण ही तय करेंगे मूल-निवासी और विदेशी की पहचान!

Written By- आरिफ हुसैन

असम में पिछले साल से नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) पर चल रही कारवाई और अमित शाह की घोषणा ने, कि NRC पुरे देश में लागू की जायेगी, नागरिकता और राष्ट्रीय पहचान के मुद्दे की बहस को नई ऊर्जा दे दी है। आज के राजनीतिक युग में, जिसे ट्रम्प-पुतिन-एर्दोगान-बोलसेनारो-दुतेर्ते-मोदी युग भी कहा जा रहा है, ये बहस और भी सामयिक हो गई है, क्योंकि इन सभी महानुभावों की राजनीति कहीं न कहीं राष्ट्रीय पहचान के मुद्दे पर टिकी है।

वैसे तो किसी भी क्षेत्र में, जहाँ हज़ारों सालों से बसाहट हो, ये तय करना की कौन स्थानीय है और कौन विदेशी काफी कठिन है। दक्षिण एशिया जैसे क्षेत्र में, जो सहस्राब्दियों से पूर्व और पश्चिम एशिया के बीच एक सम्पर्क-सूत्र रहा है और जहाँ अनगिनत मानव समूहों का सम्मिश्रण होता रहा है ये प्रश्न और भी जटिल बन जाता है और वैज्ञानिक रूप से इसका उत्तर देना लगभग असंभव है। अतः NRC सरीखे किसी भी प्रयोजन का उद्देश्य राजनीतिक के अलावा कुछ भी होना अकल्पनीय है।

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भारतीय उपमहाद्वीप में स्थानीय बनाम विदेशी की राजनीति और उसके पीछे के कारकों को समझने के लिये दो विशेष व्यक्तियों के इतिहास और उनकी समकालीन छवि के सरसरी विश्लेषण से कुछ संकेत मिलते हैं। वो दो व्यक्ति हैं; अहोम वंश का संस्थापक सुकाफा और मुग़ल वंश का संस्थापक बाबर। सुकाफा और बाबर दोनों ही दक्षिण एशियाई सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र के बाहर से आये थे और दक्षिण एशिया में प्रचलित उस समय की सांस्कृतिक-सामाजिक मान्यताओं से उनका पूर्व परिचय अधिक नहीं था। अतः सांस्कृतिक-सामाजिक दृष्टिकोण से दोनों ही बाहरी थे।

सुकाफा चीन के यूनान क्षेत्र का निवासी था और अपने पिता के राज्य मोंग-माओ में उत्तराधिकार न मिलने और नामित उत्तराधिकारी सुखानफा के हमले से बचने के लिये नये इलाके की खोज में पटकइ पर्वत को पार कर ब्रह्मपुत्र घाटी में आया और सन 1228 ईस्वीं में नामरूप में अहोम राज्य की स्थापना की। दूसरी ओर सन 1501 ईस्वीं में बाबर अपनी पुश्तैनी रियासत फ़रग़ना और ख़ुद का जीता हुआ समरकन्द दोनों ही उज़्बेक लड़ाकू मोहम्मद शेबानी ख़ान के हाथों हार जाता है। सन 1504 ईस्वीं में क़ाबुल जीतने के बाद बाबर ईरानी सफ़ाविदों के साथ संधि कर समरकन्द फ़िर से जीत लेता है लेकिन 1512 ईस्वीं में शेबानी उज़्बेक उसे फ़िर मात दे देतें हैं और इस बार अपनी जान बचाने के लिये बाबर दिल्ली का रुख़ करता है। सन 1526 ईस्वीं में पानीपत की पहली लड़ाई में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हरा कर बाबर दिल्ली की गद्दी पर कब्ज़ा कर लेता है जिसे मुग़ल वंश की स्थापना भी माना जाता है।

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इस तरह अगर देखा जाये तो सुकाफा और बाबर के राज्य स्थापना की प्रक्रिया में काफी समानता थी। लेकिन आज के समय में, अकादमिक और लोकस्मृतियों की अवधारणाओं में बाबर और सुकाफा को बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण से देखा जाता है। जहाँ एक और सुकाफा को धीरे-धीरे भूमिपुत्र की संज्ञा दे दी गई, और उसके राज्य अहोम के ही नाम पर स्थानीय लोगों को अहोम/असमिया नाम से जाना जाने लगा, वहीं बाबर और उसके द्वारा स्थापित मुग़ल वंश को विदेशियों की श्रेणी में रखा गया। जहाँ एक ओर सन 1996 से असम में हर साल 2 दिसंबर को सुकाफा दिवस (असम दिवस) मनाया जाने लगा, वहीं संघ परिवार का ब्राह्मण-बनिया नेतृत्व बाबर को लगातार विदेशी आक्रांता के रूप में प्रस्तुत करता रहा।

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यदि मध्यकालीन भारतीय इतिहास के मद्देनज़र देखा जाये तो बाबर और उसके वंशजो का पाप यही था की उन्होंने ब्राह्मणवादी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था का हिस्सा बनने और परिणामतः ब्राह्मणों की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभुता को मानने से इंकार कर दिया। वहीं दूसरी ओर अहोम वंश के 14वें राजा सुहंगमुंग (1497–1539) ने ब्राह्मणों की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभुता को मानते हुये ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में सम्मिलित होना स्वीकार किया और बदले में ब्राह्मणों ने उनके लिये एक नई क्षत्रिय वंशावली ‘इन्द्रवँशी’ का आविष्कार कर दिया, जिसे इन्द्र और एक शूद्र स्त्री के सम्मिलन से उत्पन्न बताया गया। इस प्रकार चीन से आये सुकाफा द्वारा स्थापित अहोम राज्य का ब्राह्मणीकरण पूरा हुआ और अहोम वंश के स्थानीयकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। ऐसा ही कुछ 17 वी शताब्दी में भी देखने में आया जब शूद्र राजा शिवाजी भोंसले ने गद्दी संभाली लेकिन स्थानीय ब्राह्मणों ने यह कहते हुए उनका राज्याभिषेक करने से इंकार कर दिया कि वह क्षत्रिय कुल के नहीं है, अंततः शिवाजी को अपने राज्याभिषेक के लिए बनारस से पण्डे बुलवाये जिन्होंने भारी दक्षिणा के एवज में, उनके शूद्र कुल का सम्बन्ध सिसोदिया राजपूतों से जोड़ते हुये उन्हें क्षत्रिय वंशावली का घोषित किया और औपचारिक उपनयन संस्कार और पुनर्विवाह के बाद उनका राज्याभिषेक किया।

लब्बो-लुबाब यही है कि दक्षिण एशिया में इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप कहाँ से आए हैं, आपका धर्म क्या है, आप कौन सी भाषा बोलते हैं। अगर आप ब्राह्मणों की सामाजिक-साँस्कृतिक सत्ता और उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार करने को राज़ी हैं, तो आप यहाँ ग्राह्य हैं। लेकिन अगर आप उस ब्राह्मणवादी सत्ता को चुनौती देते हैं तब फिर आपको एक सतत युद्ध के लिए तैयार रहना पड़ेगा और जैसे ही ब्राह्मणवादी शक्तियों को बढ़त मिलेगी और उनके पास सत्ता आयेगी वह आप को नेस्तनाबूद करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।


पटना में पले-बढ़े-पढ़े आरिफ हुसैन एक स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं। सामाजिक सरोकार के आंदोलन से जुड़े आरिफ आजकल अमरीका के पूर्वी तट पर स्थित शहर केम्ब्रिज में रहते हैं।

2 COMMENTS

  1. Apne men se Kuch bhi likhne se wo samachar nhi ho jata hai ..aap yha samaj k Kuch visesh samuday k bare me galat bat keh the hai ,apni prtishtha bnaye rkhne k liye k liye Apne men k bat ko samachar nhi khna Chahiye.

    • दीपक जी, हमारे यहां असहमति के लिए भी जगह है। इसलिए मैंने आपका कमेंट अप्रूव कर दिया है। हालांकि आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि हर बड़े और प्रतिष्ठित अखबार में दो पेज विशेष तौर पर होते हैं। एक विचार का, दूसरी संपादकीय का। पूरे अखबार में सबसे ज्यादा इसी पन्ने की प्रतिष्ठा होती है। लिखने वाले लोग अनुभवी और प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं। फिर तो आप उन्हें भी नकार देते होंगे??? दरअसल आपको यह समझना होगा कि समाचार देने वाले किसी भी माध्यम में समाचार और विचार दोनो होता है।

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