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बीजेपी और कांग्रेस ने दलित, आदिवासी, ओबीसी महापुरुषों की उपेक्षा की है: सुश्री मायावती

- टीम दलित दस्तक
“दिल्ली में धूमधाम से मनाई गई महापुरुषों की जयंती”


देवनागरी लिपि बौद्ध लिपि है: झारखंड में बौद्ध मूर्तियों से मिले संकेत
भारत की महान बौद्ध विरासत बार-बार सामने आती रहती है। बौद्ध धर्म भारत का पहला वैश्विक धर्म रहा है जिसने भारत में सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान का विकास किया था। इस बात के सबूत पत्थरों की मूर्तियों, शिलालेखों और अन्य प्राचीन साहित्यिक रिकार्ड्स में देखने को मिलते हैं। भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के कई सदियों बाद ब्राह्मण धर्म का भारत में व्यापक प्रसार हुआ। ब्राह्मण धर्म द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण के बाद भारत में श्रमण बौद्ध एवं श्रमण जैन धर्म का पतन हुआ। इसके बाद भारत के श्रमण धर्मों की भाषा और साहित्य को ब्राह्मणों द्वारा बदल दिया गया। लेकिन चूंकि श्रमणों की पत्थर की मूर्तियाँ, शिलालेख, मंदिर एवं मठ पूरी तरह से मिटाए नहीं जा सके। इसीलिए में जब भी कोई पुरातात्विक खोज होती है तब तब भारत की महान बौद्ध विरासत की पूंजी धरती और इतिहास का सीना चीरकर निकाल आती है।
हाल ही में झारखंड में हजारीबाग़ जिले के एक पहाड़ी इलाके में एक गाँव में एक बौद्ध मठ का पता चला है। इससे भारत में नागरी और देवनागी लिपि के जन्म और विकास के बारे में एक नई जानकारी सामने आई है। इस खोज से पता चलता है कि नागरी एवं देवनागरी लिपि का संबंध बौद्ध धर्म से है। इस गाँव में एक पुराने टीले के नीचे दबे 900 साल पुराने बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं। इसके दो महीने पहले इसी जगह से लगभग 100 मीटर की दूरी पर एक अन्य बौद्ध मंदिर की खोज हुई थी। इस तरह दो मेहीने के भीतर इस गाँव में यह दूसरी बड़ी खोज है। पूरे भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक इस तरह की खोजें हो रही हैं।
पिछले साल 2020 में भी खुदाई के दौरान इसी इलाके में चार-पांच शब्दों की एक स्क्रिप्ट मिली थी। इस ऐतिहासिक पांडुलिपि को समझने के लिए इसका सैंपल पैलियोग्राफिक डेटिंग के लिए मैसूर भेजा गया था। वहाँ यह पता चला था कि यह एक नागरी लिपि में लिखी गई पंक्तियाँ है जो कि 10 वीं से 12 वीं सदी की हैं। यह नागरी लिपि असल में आज मौजूद देवनागरी लिपि का की माँ है। इससे पता चलता है कि नागरी और देवनागरी दोनों बौद्ध धर्म से जुड़ी हुई हैं। हजारीबाग़ में अभी जो भगवती तारा की मूर्ति मिली है उसपर भी नागरी लिपि अंकित है। इससे पुनः स्पष्ट होता है कि आज की देवनागरी लिपि असल में बौद्धों द्वारा विकसित की गई नागरी लिपि से जन्मी है।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक असल में भारत का चप्पा चप्पा बौद्ध विरासत से भरा हुआ है। जहां कहीं भी ऐतिहासिक, व्यापारिक या धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण कोई नगर या स्थान मिलता है तो उसका संबंध बौद्ध धर्म और परंपरा से निकाल ही आता है। ठीक यही खोजें अयोध्या और मथुरा से भी आ रही हैं। हाल ही में अयोध्या में खुदाई के दौरान बौद्ध अवशेष मिले थे और इसके पहले भी बीते कई दशकों में केवल मथुरा इलाके में पाँच हजार छोटी बड़ी बुद्ध की मूर्तियाँ मिलीं हैं। इस तरह आज नजर आने वाले सभी मंदिर या तीर्थ स्थल असल में बौद्ध स्थल रहे हैं।
इसी कड़ी में पिछले दिनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पटना शाखा इस स्थान पर खुदाई कर रही थी। इस टीम ने जिला मुख्यालय हजारीबाग से करीब 12 किमी दूर सीतागढ़ी पहाड़ियों के जुलजुल पहाड़ के पास बुरहानी गांव खुदाई की। इस खुदाई में बौद्ध देवी तारा और भगवान बुद्ध की दस पत्थर की मूर्तियाँ मिलीं हैं। पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों ने कहा है कि, 25 फरवरी को उन्हें एक मूर्ति मिली जो शैव देवी महेश्वरी की तरह नजर आती है। इस मूर्ति में एक कुंडलित मुकुट और चक्र साथ साथ नजर आते हैं।
इसके बारे में अनुमान लगाया जा रहा है कि यह असल में प्राचीन बौद्ध देवी भगवती तारा को बाद में वैदिक ब्राह्मण धर्म द्वारा महेश्वरी बनाकर अपने धर्म में मिला लिए जाने का संकेत है। यह कोई नई बात नहीं है, इसी तरह पूरे भारत में बौद्ध देवी देवताओं को ही नहीं बल्कि भगवान बुद्ध की मूर्तियों को भी थोड़ी तोड़ फोड़ करके रूप रंग बदलकर दूसरे धर्म के देवी देवता बना दिया जाता है। पूरे भारत में ऐसे लाखों मूर्तियाँ हैं जो मूल रूप से भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ हैं लेकिन उन्हे किसी अन्य देवी या देवता की मूर्ति की तरह दिखाया जाता है।
पुरातत्वविदों ने कहा कि यह निष्कर्ष महत्वपूर्ण है क्योंकि यह मठ सारनाथ से 10 किमी दूर वाराणसी के पुराने मार्ग पर स्थित है। इस क्षेत्र में भगवान बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन दिया था जिसे कि धम्म चक्र प्रवर्तन कहा जाता है। पुरातत्वविदों का कहना है कि बौद्ध देवता तारा की मूर्तियों की उपस्थिति इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म की एक ताकतवर शाखा वज्रयान की मौजूदगी का संकेत देती है। इस बात कि संभावना है कि यहाँ पर वज्रयान का प्रसार हुआ हो। यहाँ यह भी नोट करना चाहिए कि झारखंड, ओरिसा, बंगाल, आसाम आदि में वज्रयान एक शक्तिशाली बौद्ध संप्रदाय था जिसमें देवियों की आराधना पर जोर दिया जाता था। इस संप्रदाय में भगवान बुद्ध के स्त्री रूप तारा को सर्वोच्च ज्ञान का प्रतीक माना जाता है।
कई विद्वान कहते हैं कि इसी वज्रयान से ब्राह्मण धर्म के तंत्र एवं तांत्रिक संप्रदायों का जन्म हुआ है। इस प्रकार कई सबूत मिलते हैं जो बताते हैं कि योग का जन्म बौद्ध योगाचार संप्रदाय में एवं तंत्र का जन्म वजरायां संप्रदाय में हुआ है। झारखंड के हजारीबाग़ में मिले बौद्ध मंदिर और बौद्ध मठ के प्रमाण बहुत गहराई से यह सिद्ध कर रहे हैं कि भारत के इतिहास को बौद्ध इतिहास की तरह देखा चाहिए। पुरातत्व विभाग पटना के पुरातत्वविद् नीरज कुमार मिश्र ने बताया कि पिछले साल दिसंबर में उन्हें जुलजुल पहाड़ के पूर्वी हिस्से में एक कृषि भूमि के पास तीन कमरों के साथ एक बौद्ध मंदिर मिला था।
यहाँ पर मिले केंद्रीय मंदिर में तारा की मूर्ति थी और दो अन्य धार्मिक स्थलों में बुद्ध की मूर्ति स्थापित थी। उन्होंने कहा, “पहले, संदर्भ स्पष्ट नहीं था, उनका ध्यान फिर दूसरे टीले पर चला गया और 31 जनवरी को खुदाई शुरू कर दी गई । मिश्रा ने कहा, “हमने जुलजुल पहाड़ तलहटी के पास एक टीले पर ध्यान केंद्रित किया जहां हमें एक बौद्ध मठ और उसके साथ एक मंदिर के अवशेष मिले जहां किनारों पर कमरा बना है और साथ ही एक खुला आंगन भी नजर आता है। इस स्थान पर वरद मुद्रा में बौद्ध देवी तारा की चार मूर्तियां और भूमिस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की छह मूर्तियां मिलीं हैं। ये मुद्रा भगवान बुद्ध के ज्ञान का प्रतीक मानी जाती है जिसमें कि पृथ्वी की ओर दाहिने हाथ की पांच उंगलिया नजर आती हैं।
यह एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष है क्योंकि देवी तारा की मूर्तियों का मतलब है कि यह बौद्ध धर्म के वज्रयाना संप्रदाय का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। वज्रयान तांत्रिक बौद्ध धर्म का एक रूप है, जो भारत में 6 वीं से 11 वीं शताब्दी तक फला-फूला। मिश्रा ने कहा कि पुरातत्व विभाग ने अभी तक इन संरचनाओं की वैज्ञानिक कार्बन डेटिंग नहीं की है, लेकिन यह पहले के निष्कर्षों के आधार पर यह पाल राजवंश के समय के अवशेष नजर आते हैं।
ये सभी बातें भारत में बहुजनों के लिए विशेष रूप से महत्व रखती हैं। बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर ने अपनी जीवन भर की खोज के आधार पर सिद्ध किया था कि भारत का इतिहास असल में बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के संघर्ष का इतिहास मात्र है। प्राचीन काल में जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था तब असल में वह बौद्ध भारत था। इसी दौरान तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशीला इत्यादि शिक्षा केंद्रों कि शुरुआत हुई थी और भारत इस दौर में विषवगुरु बना था। उस बौद्ध भारत में दुनिया भर से लोग शिक्षा और ज्ञान हासिल करने आते थे। चीन, यूनान, और अरब से भारत आकार बौद्ध धर्म की शिक्षा लेने वाले यात्रियों की कहानियाँ दुनिया भर में मशहूर हैं।
आज हमारे बहुजन भाई बहनों को, विशेष रूप से ओबीसी और अनुसूचित जाति के लोगों को अपनी बौद्ध विरासत को पहचानकर भगवान बुद्ध के शांति और भाईचारे के संदेश को अपनाना चाहिए। इस तरह अगर हम अपनी वास्तविक भारतीय विरासत को अंगीकार करते हैं तो यह भविष्य में एक सुखी, समृद्ध और शांतिपूर्ण भारत के निर्माण की दिशा में एक आश्वासन होगा।
आभार TheIndianEXPRESSभारत में बनेगा बौद्ध धर्म के सभी पाठ्यक्रमों का डाटाबेस
भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में बौद्ध धर्म से संबंधित सभी पाठ्यक्रमों का एक डाटाबेस तैयार करने की योजना बन रही है। भारत का शिक्षा मंत्रालय देश में सभी विश्वविद्यालयों से जानकारी जुटाकर ऐसा डाटाबेस तैयार करने जा रहा है। इस डाटाबेस में बौद्ध धर्म के सभी विद्वानों, पाली भाषा के विद्वानों, पूर्व छात्रों और वार्षिक सम्मेलन और सहित विश्वविद्यालय द्वारा बौद्ध धर्म पर आयोजित सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, कांक्लेव इत्यादि का पूरा लेखा-जोखा रखा जाएगा। इस संबंध में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग मैं सभी विश्वविद्यालय में उसे कहा है कि वह बौद्ध धर्म से संबंधित अपने सभी कार्यक्रमों एवं पाठ्यक्रमों के बारे में जरूरी जानकारी डेटाबेस के लिए भेजें।
यूजीसी द्वारा सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को एक पत्र लिखा गया है। इस पत्र में यूजीसी के सचिव रजनीश जैन ने अन्य जानकारियों के अलावा पाठ्यक्रम का नाम, छात्रों की संख्या, शोध विद्वानों की संख्या, इत्यादि का विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत करना जरूरी होगा। यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से यह भी कहा गया है कि वे इस पत्र के जुड़े ऑनलाइन फॉर्म के माध्यम से अपने विश्वविद्यालय में प्रस्तावित ऐसे पाठ्यक्रमों की जानकारी भी दें। इस प्रकार ना केवल अभी तक चलाए जा रहे बौद्ध धर्म से संबंधित पाठ्यक्रमों के बारे में, बल्कि भविष्य में आने वाले ऐसे पाठ्यक्रमों की जानकारी भी शिक्षा विभाग ने विश्वविद्यालयों से मांगी है।
इस योजना के बारे में कहा जा रहा है कि भारत सरकार विभिन्न प्रयासों के माध्यम से बौद्ध संस्कृति से जुड़ी परंपराओं को प्रकाश में लाना चाहती है। हालांकि इस बात की भी संभावना है कि इस प्रकार जानकारी जुटाने की पहल भारत में बढ़ रहे बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव के डर के कारण की जा रही हो। बीजेपी एवं आरएसएस की विचारधारा से हटकर अगर कहीं किसी विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जा रही हो तो उसकी जानकारी सरकार को देने के लिए संभवत यह योजना बनाई गई है।
आभार NDTV Educationरैदास जयंती की सोशल इंजीनियरिंग और किसान आंदोलन
जब भी हम किसान के बारे में बात करते हैं तो पंजाब में इसका मतलब जाट सिक्ख होता है। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि पंजाब में ज्यादातर किसान इसी समुदाय से आते हैं। इस जाट सिख की तस्वीर का संत रैदास से कोई सीधा रिश्ता नजर नहीं आता था। हालांकि जाट सिख भी संत रैदास में श्रद्धा रखते हैं लेकिन फिर भी जाटों और रविदासिया समाज में कुछ दूरियाँ बनी हुई हैं। अभी तक जाट सिख बड़े पैमाने पर संत रैदास की जयंती मनाने के लिए भी आगे नहीं आ रहे थे। सामाजिक भेदभाव और छुआछूत के कारण जाट सिख समुदाय के लोग रविदासिया समाज के सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पा रहे थे।
लेकिन हाल ही में मजबूत हो रहे किसान आंदोलन में स्थिति बदल गई है और अब जाट सिख समुदाय भी संत रैदास के प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन कर रहा है। यह भारत के आंतरिक सामाजिक ताने-बाने और लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक बहुत बड़ी बात है। अभी 24 फरवरी को संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले किसान नेताओं ने घोषणा की कि वे संत रैदास की 645 वी जयंती सिंघु बॉर्डर पर मनाएंगे। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक निर्णय है। इस निर्णय की घोषणा करते हुए उन्होंने सभी किसानों से अपील की कि वह लोग सिंघु बॉर्डर पर जाएं और रैदास जयंती मनाए। उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई नहीं आ सकता है तो अपने ही गांव और शहर में रैदास जयंती के कार्यक्रम में शिरकत करें।
अब सोचने वाली बात यह है कि किसान नेता रैदास जयंती के दिन ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए एक नई सोशल इंजीनियरिंग है? क्या यह किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए दो समुदाय में भाईचारा पैदा करने की रणनीति है? और इसका किसान आंदोलन सहित भारत के लोकतंत्र की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है?
आईए इस बात को समझने की कोशिश करते हैं।
पंजाब हरियाणा क्षेत्र में जब भी हम किसानों की बात करते हैं तो मन में तस्वीर उभरती है एक पगड़ी वाले सरदार की जो हाल जोत रहा है, या ट्रैक्टर चला रहा है। एक दलित या रविदासिया समाज के आदमी को किसान की तरह देखना लोगों की आदत में शुमार नहीं है। इस इलाके में जातिवाद भी भयानक तौर पर फैला हुआ है इसके कारण जाट सिख लोग गुरु रैदास जयंती मनाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में नहीं आते थे। रैदास जयंती मनाने के लिए सिर्फ दलित समझे जाने वाले रैदास या समुदाय के लोग एक बड़े पैमाने पर इकट्ठा हुआ करते थे। इसी पंजाब और हरियाणा इलाके में अगर गौर से देखें तो पता चलता है कि दलित समुदाय पर जाट सिख समुदाय द्वारा अत्याचार किए जाते हैं।
इसी तरह पूरे भारत में दलित और ओबीसी समुदाय के आपसे रिश्ते हमेशा नरम गरम होते रहे। किसान आंदोलन के बीच दलित समुदाय और ओबीसी किसान समुदाय के द्वारा आपस में रणनीतिक साझेदारी और रैदास जयंती एक साथ बड़े पैमाने पर मनाने का बहुत बड़ा मतलब भी निकाला जा सकता है। इस विषय में बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटी एंप्लॉय फेडरेशन अर्थात बामसेफ के एक प्रमुख नेता ने जो कहा वह समझना जरूरी है। बामसेफ के श्री जसवंत राय ने कहा कि “यदि किसान लोगों के बीच में गुरु रैदास की जयंती मनाई जाती है तो, यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम होगा। इसके जरिए जाट समुदाय भी गुरु रैदास जयंती में शिरकत कर सकेगा।” आगे उन्होंने यह भी कहा कि या भाईचारा केवल किसानों ताकि नहीं रहना चाहिए बल्कि समाज में गहराई से इसे हर गली हर मोहल्ले तक पहुंचना होगा।
सदियों से दलितों और जाट सिख समुदाय के रिश्तो में कड़वाहट बनी हुई है। आजादी के दौरान और आजादी के बाद जब दलितों में चेतना आई, तब पंजाब हरियाणा के जाट समुदायों ने इसका खुले मन से स्वागत नहीं किया। जाट सिख समुदायों के लोगों ने इसे अपने खिलाफ एक बगावत की तरह देखा। उन्हें लग रहा था कि अगर यह दलित चेतना फैल गई तो परंपरागत जमीदारो को आसानी से जो मजदूर मिलते थे वह सब मिलने बंद हो जाएंगे। इस तरह बड़े जमीदारों को अपनी जमीदारी खत्म होने का डर सताने लगा। इसीलिए संपन्न ओबीसी तब का दलितों में आजाद चेतना के जन्म से डरने लगा। ओबीसी के दिल में बैठा यही डर दलितों और ओबीसी के बीच में रिश्ते नहीं सुधरने दे रहा था।
इस विषय में जालंधर के प्रोफेसर इसी कौल बताते हैं कि दलितों पर ऊंची जाति के जाति के जमीदारों और वह भी सिंह के जमीदारों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों के कारण आदि धर्म मंडल आंदोलन 1920 में पैदा हुआ था। एक अलग धर्म की स्थापना इसका लक्ष्य था। अभी हाल ही में यूरोप में वियना में रविदासिया समुदाय के एक बड़े संत की हत्या के बाद स्थिति और बिगड़ गई थी। डेरा सचखंड बलान के प्रमुख संत की पंजाबी समुदाय द्वारा की गई हत्या के बाद रविदासिया समुदाय और जाट सिख समुदाय के बीच में संबंध और खराब हो गए थे। इस डेरा ने 2010 में सद्गुरु रैदास के जन्म स्थल बनारस में रविदासिया धर्म को एक अलग धर्म घोषित कर दिया था। इसके बाद इन लोगों ने गुरु ग्रंथ साहिब के 200 लोगों को अलग करके एक नई अमृतवाणी बनाई थी। इस प्रक्रिया के दौरान दोआबा क्षेत्र में सिखों और रावदासिया समुदाय के बीच में बहुत संघर्ष भी हुआ था।
सन 2021 की जनगणना के लिए भी कई रविदासिया लोग अलग धर्म के कॉलम की मांग कर रहे हैं। इसके लिए कई गीत भी बनाए गए हैं जो कि समाज में इस विषय में मांग उठाते रहते हैं। लेकिन इस सब के बावजूद जैसे ही कुछ समय पहले किसान आंदोलन शुरू हुआ इन समुदायों को आपसी भाईचारे का महत्व पता चला। अब यह समुदाय नजदीक आ रहे हैं और अपनी जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर इकट्ठा संघर्ष करना चाहते हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि अगर यह दोनों समुदाय रैदास साहब की जयंती मनाते हैं तो इनके बीच में दुश्मनी कम होगी और प्यार बढ़ जाएगा। इस बारे में प्रोफेसर कौल कहते हैं कि “इन दोनों समुदाय के द्वारा रैदास जयंती मनाया जाना बहुत सारी सामाजिक समस्याओं को और भेदभाव को खत्म कर देगा”।
विशेषज्ञ भी बताते हैं कि नासिर भाई इससे इन समुदायों में कड़वाहट कम होगी, बल्कि इससे किसान आंदोलन को मजबूत करने में और मदद मिलेगी। एक ही उद्देश्य के लिए आवाज उठाने वाले करोड़ों लोग जब एक साथ आते हैं अब कोई भी आंदोलन बहुत मजबूत होकर उभरता। अगर यह दोनों समुदाय अलग-अलग बटे रहे तो आंदोलन स्वाभाविक रूप से कमजोर होगा। इसीलिए रैदास जयंती पर इन दोनों समुदायों का एक साथ आना कोई साधारण घटना नहीं है। के जरिए करोड़ों लोग एक मंच पर एक साथ आ जाएंगे। इसका एक और बहुत महत्वपूर्ण परिणाम निकलेगा। अभी तक किसान आंदोलन को सिखों और जाटों से जोड़कर देखा जा रहा है। रैदास जयंती मनाने से यह साबित हो जाएगा इस आंदोलन में बड़ी संख्या में दलित समुदाय भी शामिल है। इस प्रकार इस आंदोलन को किसी एक या दो समुदाय से जोड़कर देखने और दिखाने वाली षड्यंत्र पूर्ण रणनीति अपने आप कमजोर हो जाएगी।
इस प्रकार संत रैदास जयंती, न सिर्फ इंसानियत के लिए, और बहुजन भारत के भविष्य के लिए एक बहुत खूबसूरत सौगात लेकर आई है बल्कि भारत में करोड़ों गरीब और मजबूर किसानों के लिए एक बहुत बड़ा मौका लेकर भी आई है। संत रैदास की जयंती पर हजारों साल से दुश्मन बने हुए दो समुदाय अगर गले मिल जाते हैं तो यह संत रैदास को भी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। संत रैदास का अपना सपना था कि बेगमपुरा में सभी जन निवास करें जहां पर कोई गम ना हो। संत रैदास जयंती पर इस तरह के सोशल इंजीनियरिंग को सामने होते देखना भारत के लोकतंत्र को मजबूत होते हुए देखने के समान है। संत रैदास और बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों पर चलते हुए सभी समुदायों को आपसी मतभेद भुलाकर अपने साझा उद्देश्यों के लिए इकट्ठा संघर्ष करना चाहिए।
बेगमपुरा बनाम रामराज्य
डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ में भारत के इतिहास को क्रांतियों और प्रतिक्रांतियों के इतिहास के रूप में चिन्हित किया है। वे बहुजन-श्रमण परंपरा को क्रांतिकारी परंपरा के रूप में रेखांकित करते हैं, जिसके केंद्र में बौद्ध परंपरा रही है। वे वैदिक परंपरा को प्रतिक्रांतिकारी परंपरा के तौर चिन्हित करते हैं। वे सनातन, ब्राह्मणवादी और हिंदू परंपरा को बदलते समय के साथ वैदिक परंपरा के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द के रूप में देखते हैं, हालांकि सबका मुख्य तत्व एक है- वर्णाश्रम व्यवस्था का गुणगान और ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता का दावा। इसके विपरीत बहुजन-श्रमण पंरपरा है, जो वर्ण-जाति व्यवस्था को खारिज करती रही है और ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता के दावे को पूरी तरह नकारती रही है और सभी इंसान को समान दर्जा देने की हिमायती रही है। वैदिक और बहुजन-श्रमण परंपरा के बीच, प्राचीन काल में शुरू हुआ संघर्ष किसी न किसी रूप में आज भी जारी रहा। हिंदी पट्टी में मध्यकाल में यह संघर्ष बहुजन संत कवियों की निर्गुण धारा और द्विज भक्त कवियों की सगुण धारा के रूप में सामने आया। हिंदी भाषा-भाषी समाज में बहुजन निर्गुण संत कवियों की धारा के प्रतिनिधि कवि रैदास और कबीर हैं, तो सगुण भक्त कवियों के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास और सूरदास हैं, विशेष तौर पर रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास।
सिर्फ जन्म के आधार ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का दावा वैदिक परंपरा का केंद्रीय तत्व है, जिसकी अभिव्यक्ति तुलसदीस इन शब्दों में करते हैं-
पूजहिं विप्र सकल गुणहीना, सूद्र न पूजहिं ज्ञान प्रवीना
(रामचरित मानस)
इसके विपरीत गुण-कर्म आधारित श्रेष्ठता बहुजन-श्रमण परंपरा का केंद्रीय तत्व है, जिसकी अभिव्यक्ति रैदास इन शब्दों में करते हैं-
रैदास बाभन मत पूजिए जो होवे गुनहीन, पूजिए चरन चंडाल के जो हो गुन परवीन।
(संत रैदास)
वैदिक परंपरा परजीवी मूल्यों की वाहक रही है और जबकि बहुजन-श्रमण पंरपरा श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य के रूप में स्वीकार करती है। यही कारण है कि द्विज जातियां दलित-बहुजनों के श्रम पर पलती रही हैं, और इस परजीवीपन पर अभिमान करती रही हैं और इसके आधार पर अपनी श्रेष्ठता का दावा करती रही हैं। उनकी नजर में जो व्यक्ति श्रम से जितना ही दूर है, वह उतना ही श्रेष्ठ है और जो सबसे ज्यादा श्रम करता है, उसे सबसे निम्न कोटि का ठहरा दिया गया। इसके विपरीत दलित-बहुजन परंपरा श्रम संस्कृति की वाहक रही है। रैदास स्वयं भी श्रम करके जीवन-यापन करते थे और श्रम करके जीने को सबसे बड़ा मूल्य मानते थे। वे घर-बार छोड़कर वन जाने या संन्यास लेने को ढोंग-पाखण्ड कहते थे-
नेक कमाई जउ करइ गृह तजि बन नहिं जाए।
रैदास अभिमानी परजीवी ब्राह्मण की तुलना में श्रमिक को ज्यादा महत्व देते हैं-
धरम करम जाने नहीं, मन मह जाति अभिमान। ऐ सोउ ब्राह्मण सो भलो रविदास श्रमिकहु जान।।
ब्राह्मणवादी द्विज परंपरा के विपरीत दलित-बहुजन परंपरा के कवि सतगुरु रैदास श्रम की संस्कृति में विश्वास करते हैं। उनका मानना था कि हर व्यक्ति को श्रम करके ही खाने का अधिकार है—
रविदास श्रम कर खाइए, जौ-लौ-पार बसाय। नेक कमाई जो करई, कबहु न निष्फल जाय।।
बुद्ध की तरह रैदास ने भी ऊंच-नीच अवधारणा और पैमाने को पूरी तरह उलट दिया। वे कहते हैं कि जन्म के आधार पर कोई नीच नहीं होता है, बल्कि वह व्यक्ति नीच होता है, जिसके हृदय में संवेदना और करुणा नहीं है-
दया धर्म जिन्ह में नहीं, हद्य पाप को कीच। रविदास जिन्हहि जानि हो महा पातकी नीच।।
उनका मानना है कि व्यक्ति का आदर और सम्मान उसके कर्म के आधार पर करना चाहिए, जन्म के आधार पर कोई पूज्यनीय नहीं होता है। बुद्ध, कबीर, फुले, आंबेडकर और पेरियार की तरह रैदास भी साफ कहते हैं कि कोई ऊंच या नीच अपने मानवीय कर्मों से होता है, जन्म के आधार पर नहीं। वे लिखते हैं —
रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच। नर कूं नीच कर डारि है, ओछ करम की कीच।।
सतगुरु रैदास का कहना था कि जाति एक ऐसा रोग है, जिसने भारतीयों की मनुष्यता का नाश कर दिया है। जाति इंसान को इंसान नहीं रहने देती। उसे ऊंच-नीच में बांट देती है। एक जाति का आदमी दूसरे जाति के आदमी को अपने ही तरह का इंसान मानने की जगह ऊंच या नीच के रूप में देखता है। बाबासाहब आंबेकर ने भी बाद में इसी बात को दोहराया था। सतगुरु रैदास का कहना है कि जब तक जाति का खात्मा नहीं होता, तब तक लोगों में इंसानियत जन्म नहीं ले सकती।
जात-पात के फेर मह उरझि रहे सब लोग। मानुषता को खात है, रैदास जात का रोग।।
वे यह भी कहते हैं कि जाति एक ऐसी बाधा है, जो आदमी को आदमी से जुड़ने नहीं देती है। वे कहते हैं एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से तब तक नहीं जुड़ सकता, जब तक जाति का खात्मा नहीं हो जाता—
रैदास ना मानुष जुड़ सके, जब लौं जाए न जात।
दलित-बहुजन परंपरा के अन्य कवियों की तरह रैदास भी हिंदू-मुस्लिम के बीच कोई भेद नहीं करते। वे दोनों के पाखण्ड को उजागर करते हैं। वे साफ शब्दों में कहते हैं कि न मुझे मंदिर से कोई मतलब है, न मस्जिद से; क्योंकि दोनों में ईश्वर का वास नहीं है—
मस्जिद सो कुछ घिन नहीं, मन्दिर सो नहीं प्यार। दोउ अल्ला हरि नहीं, कह रविदास उचार।।
रैदास मंदिर-मस्जिद से अपने को दूर रखते हैं, लेकिन हिंदू-मुस्लिम दोनों से प्रेम करते हैं—
मुसलमान से दोस्ती, हिन्दुवन से कर प्रीत। रविदास ज्योति सभ हरि की, सभ हैं अपने मीत।।
रैदास बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं है। जिन तत्त्वों से हिंदू बने हैं, उन्हीं तत्त्वों से मुसलमान। दोनों के जन्म का तरीका भी एक ही है –
हिन्दू तुरुक महि नाहि कछु भेदा दुई आयो इक द्वार। प्राण पिण्ड लौह मास एकहि रविदास विचार।।
दलित-बहुजन परंपरा के अन्य कवियों की तरह संत रैदास के मन में भी अपनी जाति और पेशे को लेकर कोई हीनताबोध का भाव नहीं है। वे यह कहते हैं —
ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।
तुलसी के वर्णाश्रम आधारित रामराज्य के विपरीत रैदास बेगमपुरा के रूप में एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जिसे बाद में जोतीराव फुले के आदर्श बलि राज, डॉ. आंबेडकर के आदर्श समाज की कल्पना और मार्क्स के समाजवादी समाज की कल्पना दोहराती दिखती है-
बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ। ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु।।
अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई। काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही।।
आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर। तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावै, महरम महल न को अटकावै।
कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा। बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।
ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु। अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई।
काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही। आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर।
तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावै, महरम महल न को अटकावै। कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।
इस पद में संत रैदास ने अपने समय की व्यवस्था से मुक्ति की तलाश करते हुए जिस दुखविहीन समाज की कल्पना की है; उसी का नाम ‘बेगमपुरा’ या बेगमपुर शहर है। रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका आदर्श देश बेगमपुर है; जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छूतछात का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है; जहां कोई संपत्ति का मालिक नहीं है। कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास अपने शिष्यों से कहते हैं- ‘ऐ मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है यानी उस व्यवस्था को पा लिया है, जो हालांकि अभी दूर है; पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरे–तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है; बल्कि सब एक समान हैं। वह देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहें जाते हैं। जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं। उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं। रैदास चमार कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वही हमारा मित्र है।’
रैदास के बेगमपुरा के विपरीत तुसलीदास के रामराज्य की परिकल्पना वर्णाश्रम धर्म यानि वर्ण-जाति व्यवस्था पर आधारित है। राम-राज्य का सबसे बड़ा लक्षण बताते हुए तुलसीदास लिखते हैं कि राम-राज्य में सभी लोग अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए वेदों के दिखाए रास्ते पर चलते हैं-
वर्णाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग। चलहिं सदा पावहिं सुखद नहिं भय शोक न रोग।।
रामराज्य में वर्णाश्रण व्यवस्था को कोई उल्लंघन नहीं कर सकता है।हम सभी जानते हैं कि वर्णाश्रण धर्म के पालन का मतलब है कि शूद्र द्विजों की सेवा करें और महिलाएं पुरुषों की सेवा करें। उत्पादन और सेवा के सारे कार्य गैर-द्विज शूद्र-अतिशूद्र करें। वर्ण-धर्म का पालन ही राम-राज्य है।
तुलसीदास कहते हैं कि राम राज्य के आदर्श राजा राम का जन्म ही ब्राह्मणों और गाय के हितों के लिए हुआ है-
“विप्र, धेनु, सुर, संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।”
इतना ही नहीं ऐसा उल्लिखित है कि रामराज्य के आदर्श राजा राम स्वयं ही घोषणा करते हैं कि उन्हें द्विज (सवर्ण) सबसे प्रिय हैं-
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥
इतना ही नहीं, तुसलीदास शूद्रों-अतिशूद्रों की समता की मांग को कलयुग एक बड़ा लक्षण बताते हुए कहते हैं कि कलयुग में शूद्र द्विजों (सवर्णों) से कहते हैं कि हम तुमसे कम नहीं है और जो ब्राह्मण ब्रह्म ज्ञानी हैं; उनको शूद्र आंख तरेरते हुए डाटते हैं –
बादहिं सृद्र द्विजन्ह सन, हम तुम्ह ते कछु घाटि। जानइ ब्रह्म सो विप्रवर, आँखि देखावहिं डाटि।
तुलसी के आदर्श रामराज्य के राजा राम उन्हीं शूद्रों-अतिशूद्रों ( पिछड़े-दलितों) को गले लगाते हैं, जो खुद को उनके दास या सेवक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। तुलसी के राम स्वयं कहते हैं कि शूद्र (नीच प्राणी) तभी मुझे प्रिय हो सकता है, जब वह उनका दास बन जाए और उनका भक्त बन जाए। राम साफ शब्दों में कहते हैं कि —
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥
संत रैदास के उलट तुलसी के राम चरित मानस और राम का चरित्र पूरी तरह द्विजों और मर्दों के वर्चस्व की स्थापना करने वाला है। सच तो यह है कि राम के चरित्र का गुणगान करने वाला रामचरित मानस मनु-स्मृति और पुराणों की कलात्मक अभिव्यक्ति है। राम के चरित्र को न्याय का प्रतीक बताकर और रामचरित मानस को प्रगतिशील साहित्य घोषित कर रामविलास शर्मा, शिवकुमार मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी और नामवर सिंह जैसे वामपंथी आलोचकों ने भी उत्तर भारत में द्विज पुरुषों के सांस्कृतिक वर्चस्व की परंपरा को और मजबूत बनाया। अनेक अन्य हिंदी लेखकों ने भी अपने सृजनात्मक साहित्य के माध्यम से यही किया। ऐसा करके उन्होंने हिंदी समाज के वर्ण-जातिवादी और पितृसत्तात्मक चरित्र को मजबूत बनाया। इसके बरक्स बहुजन परंपरा के आलोचकों चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, कंवल भारती और डॉ. धर्मवीर जैसे बहुजन आलोचकों ने संत रैदास को बहुजन-श्रमण परंपरा के शीर्ष कवि के रूप में स्थापित किया और भारत की क्रांतिकारी बहुजन-श्रमण परंपरा को स्थापित करने की कोशिश किया।
न्याय, समता, बंधुता और समृद्धि के समान बंटवारे पर आधारित प्रबुद्ध भारत का निर्माण रैदास के बेगमपुरा का निर्माण करके किया जा सकता है, रामराज्य की स्थापना करके नहीं।
पूर्व कांग्रेस नेता अशोक तंवर ने बनाया अपना भारत मोर्चा

भगवान बुद्ध की महापरिनिर्वाण स्थली कुशीनगर को मिला अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा
दुनिया भर के बुद्ध प्रेमियों के लिए एक बड़ी खबर आई है। अब भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण स्थल कुशीनगर में एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाया जाएगा। डाइरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एवीएशन ने इस योजना को अनुमति दे दी है। केन्द्रीय मंत्री हरदीप पूरी ने इस संबंध में ट्वीट करते हुए जानकारी दी है कि कुशीनगर अब उत्तर प्रदेश का तीसरा लाइसेंस प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनने जा रहा है। इस प्रकार राज्य में पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलेगा।
गौरतलब है कि कुशीनगर, सारनाथ, लुम्बिनी, बोधगया, वाराणसी आदि स्थल भगवान बुद्ध से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े हुए हैं। भगवान बुद्ध के जन्म, बोध प्राप्ति, धम्म चक्र प्रवर्तन एवं परिनिर्वाण से जुड़े स्थल चार महातीर्थ कहलाते हैं। ऐसे ही अन्य चार लघु तीर्थ हैं जिन्हे मिलाकर बौद्धों के अष्ट-महातीर्थ बनते हैं। ये सभी उत्तर भारत में हैं। दुनिया भर के बुद्ध प्रेमी हमेशा से सपना देखते आए हैं कि उन्हे हवाई जहाज से सीधे ही बुद्ध से जुड़े स्थानों पर उतरने का मौका मिले ताकि उनका समय और पैसा अनावश्यक खर्च न हो।

दुनिया भर के बौद्ध धर्म के अनुयायी एवं बुद्ध की शिक्षाओं को प्रेम करने वाले लोग भारत में आते हैं। लाखों की संख्या में आने वाले इन पर्यटकों से स्थानीय व्यापार व्यवसाय और अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। इसके अलावा पूरे विश्व में भारत में जन्मे सच्चे विश्वगुरु भगवान बुद्ध कि शिक्षा का प्रसार भी होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो कुशीनगर में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की स्वीकृति भारत के बहुजनों के लिए भी एक खुशखबरी है।
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को मिला अध्यक्ष, विजय सांपला ने संभाला पद
तकरीबन नौ महीने तक खाली रहने के बाद आखिरकार राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को नया अध्यक्ष मिल गया है। केंद्र सरकार में पूर्व राज्यमंत्री विजय सांपला को आयोग का नया चेयरमैन चुना गया है। राष्ट्रपति ने 16 फरवरी को विजय सांपला को नियुक्ति का पत्र दिया, जिसके बाद सांपला ने 24 फरवरी 2021 को एससी-एसटी कमीशन के चेयरमैन का पद संभाला है। उन्होंने रमाशंकर कठेरिया की जगह ली है, जिनका कार्यकाल 9 नवंबर 2014 से 24 May 2019 तक था। सांपला ने 22 फरवरी को सबका धन्यवाद करते हुए ट्विटर पर इसकी जानकारी साझा की।
साल 1998 में भाजपा ज्वाइन करने के बाद उन्होंने 2014 में उन्होंने होशियारपुर से लोकसभा चुनाव लड़ा और विजय हुआ। विजय सांपला 2014-2019 तक होशियारपुर से सांसद रहे हैं। 2014-2019 तक मोदी सरकार में सोशल जस्टिस स्टेट मंत्री रहे हैं। लेकिन सांपला के राजनीतिक करियर पर उस समय विराम लग गया था, जब 2019 के लोकसभा चुनावों में उनकी टिकट काटकर सोम प्रकाश को दे दिया गया था। वह अब केंद्र में मंत्री हैं। लोकसभा चुनावों में टिकट न मिलने के बावजूद उन्होंने न पार्टी छोड़ी और न ही किसी और दल से चुनाव लड़ा। विजय सांपला ने पार्टी और मैदान में अपना संघर्ष जारी रखा। सांपला को इसका फायदा नई जिम्मेदारी के रूप में मिला है।
विजय सांपला की नियुक्ति के साथ ही यह भी माना जा रहा है कि भाजपा ने 2022 में पंजाब विधानसभा चुनावों के लिए अपना तुरुप का पत्ता भी चल दिया है। तो वहीं राष्ट्रीय राजनीति में विजय सांपला के कद को बढ़ाकर यह साफ कर दिया है कि भाजपा उनको लेकर कुछ बड़ा करने की योजना बना रही है।
।। ਸੇਵਕ ਕੋ ਸੇਵਾ ਬਨ ਆਈ ।।
— Vijay Sampla (@vijaysamplabjp) February 22, 2021
आप सब के आशीर्वाद एवं प्रेम से मुझे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति कमीशन का चेयरमैन नियुक्त किया गया है।
मेरे मनोयन के लिए राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जी एवं प्रधानमंत्री Narendra Modi जी का हार्दिक आभार। pic.twitter.com/D8ivStqLvO
विजय सांपला को राष्ट्रीय चेयरमैन की कुर्सी देकर भाजपा की ओर से पंजाब की 34 विधानसभा सीटों पर प्रभाव डालने की पूरी रणनीति तैयार की गई है। पंजाब में 2022 में भाजपा अकेले चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है। राज्य में पार्टी पहले ही दलित वोट बैंक को लेकर काफी गंभीर रही है। पंजाब में 117 में से 34 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं, जिसमें से अभी तक भाजपा पांच सीटों पर ही चुनाव लड़ती रही है। बाकी सीटों पर शिरोमणि अकाली दल ने अपना कब्जा रखा था। भाजपा इसे अपने खेमे में लाना चाहती है। तो वहीं कृषि कानून पास होने से पंजाब का ग्रामीण वोटर केंद्र सरकार से नाराज चल रहा है। उन्हें भी भाजपा विजय सांपला के जरिए साधना चाहती है, क्योंकि उनमें ज्यादातर दलित समाज से हैं। 6 जुलाई 1961 को पंजाब के जालंधर में जन्में विजय सांपला का जीवन संघर्षों में बीता है। एक वक्त में उन्होंंने सउदी में पलंबर का काम भी किया था। लेकिन आगे बढ़ने की चाह उन्होंने कभी नहीं छोड़ी न हालात से समझौता किया और आज इस मुकाम तक पहुंचे हैं।
जम्मू के अखनूर में मिला नया बौद्ध स्थल
जम्मू से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अखनूर अंबारान में बहुत ही महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल होने की बात सामने आई है। यह बौद्ध स्थल दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 5 ईसवी तक निर्मित हुआ है। इस स्थान पर दो से तीन टूटे हुए बौद्ध स्तूप हैं। कहा जा रहा है कि यह जम्मू क्षेत्र का यह पहला बौद्ध विहार है। इसके बारे में बौद्ध विद्वानों का कहना है कि यह दूसरी शताब्दी ईस्वी तथा कुषाण डायनेस्टी के समय स्थापित हुआ था। इसके बारे में जानकारी मिलने के बाद अंबेडकर फुले कैरियर काउंसलिंग के सदस्यों ने वहां पर जाकर त्रिशरण- पंचशील, बुद्ध वंदना, धम्म वंदना, संघ वंदना की।
नई राह पर पूर्व सांसद और दिग्गज नेता अशोक तंवर, 25 फरवरी को करेंगे बड़ा ऐलान
सिरसा से पूर्व सांसद अशोक तंवर अपना राजनीतिक दल बनाने की राह पर हैं। जानकारी है कि अशोक तंवर 25 फरवरी को दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित कार्यक्रम में नए मोर्चा का ऐलान करेंगे। 2019 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान समर्थकों को टिकट नहीं मिलने से नाराज अशोक तंवर ने पार्टी छोड़ दी थी। अशोक तंवर कांग्रेस पार्टी के हरियाणा प्रदेश के अध्यक्ष रह चुके हैं साथ ही ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सचिव रह चुके हैं। तंवर कांग्रेस युवा मोर्चा के अध्यक्ष भी रहे हैं।
कांग्रेस पार्टी से अलग होने के दो साल बाद अब अशोक तंवर नई राजनीतिक पारी खेलने को तैयार हैं। 25 फरवरी को मावलंकर हाल में आयोजित कार्यक्रम में अपनी नई रणनीति का ऐलान करेंगे। इस दौरान वह नई राजनीतिक पार्टी के नाम का ऐलान करेंगे। कार्यक्रम में देशभर में 25 से अधिक शहरों में वेबीनार के जरिये समर्थकों के अधिक से अधिक संख्या में जुड़ने की जानकारी समर्थकों ने दी है। मुख्य कार्यक्रम दिल्ली, चंडीगढ़, पंजाब, उतराखंड व उतरप्रदेश में आयोजित किए जाएंगे। हरियाणा की बात करें तो चंडीगढ़ के अलावा भिवानी, महेंद्रगढ़ सहित अधिकांश बड़े शहरों में अशोक तंवर समर्थक जुड़ेंगे। दिल्ली में मुख्य कार्यक्रम करने के पीछे उनकी राष्ट्रीय राजनीति में नए मोर्चा की मौजूदगी का अहसास करवाने की सोच है। हालांकि अभी उन्होंने अपनी रणनीति का खुलासा नहीं किया है पर आने वाले समय में हरियाणा में तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को भी तलाशा जा सकता है।
बता दें कि 2019 के विधानसभा चुनावों में अशोक तंवर ने उनके समर्थकों को टिकट नहीं मिलने से नाराज होकर न केवल कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे दिया था, बल्कि कांग्रेस को ही अलविदा कर दिया था। तभी से ही कयास लगाए जा रहे थे कि अशोक तंवर नई पार्टी का गठन करेंगे। अशोक तंवर के समर्थकों का कहना है कि उनका फोकस केवल हरियाणा न होकर राष्ट्रीय राजनीति पर रहेगा।
गौतलब है कि अशोक तंवर का नाम उन नेताओं में शामिल किया जाता है जो दलित समाज से होने के बावजूद तमाम वर्गों में काफी लोकप्रिय हैं। अशोक तंवर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र भी हैं, जहां से उन्होंने इतिहास विषय में एम.ए, एम.फिल और पीएच.डी की डिग्री ली है। अशोक तंवर की नई राजनीतिक पारी के बाद न सिर्फ हरियाणा प्रदेश की सियासत बदलने की उम्मीद जताई जा रही है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी वह मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश जरूर करेंगे।
योगी सरकार के बजट पर बहन मायावती ने घेरा, की यह टिप्पणी
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने सोमवार 22 फरवरी को उत्तर प्रदेश सरकार के बजट पर कठोर निन्दात्मक टिप्पणी की है। उन्होंने हुए कहा कि “यह बजट विशेष रूप से गरीबों, कमजोर वर्गों और किसानों के लिए बेहद निराशाजनक है, यह बजट सिर्फ कोरे वादों से भरा है इसमें समाज के कमजोर वर्गों, किसानों और बेरोजगारों के लिए कोई ठोस योजना नहीं है।”
सुश्री मायावती ने ट्वीट करते हुए कहा कि केंद्र सरकार के बजट की तरह यूपी सरकार का बजट भी कोरे वादों से भरा है और आम जनता को सुंदर सपने दिखाए जा रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि उत्तर प्रदेश की 23 करोड़ जनता से अपने वादों को पूरा करने के बारे में आदित्यनाथ सरकार असफल रही है। केंद्र और राज्य दोनों में बीजेपी सरकार होने के बावजूद ऐसी असफलता दुर्भाग्यपूर्ण है। अक्सर बीजेपी नेताओं द्वारा कहा जाता है कि केंद्र और राज्य दोनों में बीजेपी सरकार हो तो ऐसी ‘डबल इंजन’ की सरकार में बड़ा विकास होता है।
गौरतलब है कि योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार ने उत्तर प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने के लक्ष्य के साथ विधानसभा में 2021-22 के लिए 5.5 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया है। एक साल बाद यहाँ विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इसी के मद्देनजर बजट में 27,598 करोड़ रुपये की नई योजनाओं की घोषणा की गयी है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के दलितों के खिलाफ बढ़ते अत्याचारों और युवाओं में बढ़ रही बेरोजगारी के लिए इस बजट से उम्मीदें लगाई जा रहीं थी। लेकिन इस बजट में इन दोनों मुद्दों को लेकर या हाल ही में उभरी किसानों की समस्याओं को लेकर भी कोई योजना घोषित नहीं हुई है। इस प्रकार इस बजट का आम जनता और किसान मजदूर वर्ग की बेहतरी से कोई संबंध नहीं है।
हरियाणा में दलितों-पिछड़ों की एकता के सूत्रधार बनें सर छोटूराम और डॉ. आंबेडकर
कृषि कानूनों का विरोध करने वाले किसान अब दलितों के मुद्दे भी उठा रहे हैं। अब योजना यह है कि दलितों के साथ मिलकर काम किया जाए और समाज में फैले जातिगत भेदभाव के खात्मे पर भी जोर दिया जाए। किसान आंदोलनकारियों ने गुरनाम छबड़ा के नेतृत्व में हरियाणा में हिसार के बरवाला कस्बे मेंदलितों के साथ महापंचायत बुलाई। महत्वपूर्ण बात यह है कि हरियाणा की बीस प्रतिशत आबादी दलित है जिसके खिलाफ भयानक जातीय उत्पीड़न की घटनाएं होती रही हैं।
इस बैठक में गुरनाम सिंह ने किसानों और दलितों के बीच भाईचारे का आह्वान किया। बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें किसानों से कहा गया कि वे अपने घरों में बाबा साहब आंबेडकर की तस्वीर लगाएं वहीं दलितों से कहा गया कि वे सर छोटू राम की तस्वीर लगाएं। गुरनाम सिंह ने कहा कि हमारी लड़ाई न केवल सरकार से है बल्कि पूंजीपतियों के खिलाफ भी है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि सरकार आज तक हमें बांटती रही है, कभी जाति के नाम पर या कभी धर्म के नाम पर। आगे उन्होंने कहा कि किसान और मजदूर सरकार की इस साजिश को समझें। उन्होंने अन्य किसान नेताओं से भी अपील की कि वे हरियाणा और पंजाब में इस तरह की महापंचायत अब न करें बल्कि अब दूसरे राज्यों में ऐसी महा-पंचायतें बुलाएं।
एक खास नजरिए से यह बहुत बड़ी खबर है। भारत के गांवों की शक्ति संरचना में अक्सर ही सवर्ण समाज द्वारा ओबीसी और दलितों, मुसलमानों के बीच झगड़े लगाए जाते रहे हैं। इसी फूट का लाभ धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को होता आया है। ऐसे में ओबीसी जाट समाज द्वारा बाबा साहब आंबेडकर की तस्वीर अपने घरों में लगवाने का ऐलान करना बहुत बड़ी बात है। यह एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन की शुरुआत का संकेत है।
दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को आरक्षण के पक्ष में आएं विशेषज्ञ
हाल ही में सरकार की तरफ से एक निर्णय आया है जिसमें कहा गया है कि दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकेगा। इस निर्णय के बाद भारत भर में आरक्षण सहित जाति आधारित आरक्षण पर नई बहस छिड़ गयी है। राजनीतिक पार्टियों एवं मीडिया चैनल्स की चर्चा में यह विषय ठीक से उजागर नहीं किया जा रहा है इसलिए इसके बारे में दलित ईसाई एवं दलित मुस्लिम समाज में काफी भ्रम की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में इस विषय में संविधान और समाजशास्त्र के विशेषज्ञों की राय समझना आवश्यक है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री सतीश देशपांडे मानते हैं कि दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को आरक्षण दिया जाना चाहिए। श्री देशपांडे तीन दशक से भी अधिक समय से जाति और वर्ग की असमानताओं का अध्ययन कर रहे हैं और जाति की समस्या सहित तीन पुस्तकों के संपादक के रूप में कार्य कर चुके हैं ।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की 2008 की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों’ को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने के पक्ष में काफी प्रमाण हैं। प्रोफेसर देशपांडे इस रिपोर्ट के प्रमुख लेखक थे। शहरी भारत में लगभग 47% दलित मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे आते हैं, वर्ष 2004- 05 के आंकड़ों के हिसाब से यह प्रतिशत असल में हिंदू दलितों और दलित ईसाइयों की तुलना में काफी अधिक है। ग्रामीण भारत में 40% दलित मुसलमान और 30% दलित ईसाई बीपीएल श्रेणी में हैं।
विभिन्न जाति समूहों के बारे में जरूरी आँकड़े अगर उपलब्ध न हों तो सरकार या प्रशासन द्वारा जरूरी नीति और कल्याणकारी उपायों की रचना करने में मुश्किलें आती हैं। प्रोफेसर देशपांडे का कहना है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणियों को उप-वर्गीकृत किया जाना चाहिए ताकि इनके भीतर भी तुलनात्मक रूप से अधिक पिछड़े समूह अधिक लाभ उठा सकें।
गौरतलब है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उप-वर्गीकरण पर अपने फैसले की समीक्षा कर रहा है। प्रोफेसर देशपांडे आगाह करते हुए बताते हैं कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण संवैधानिक नजरिए से उचित नहीं है। आर्थिक आधार पर आए इस नए आरक्षण में पहले से जाति के आधार पर आरक्षित समुदायों को शामिल नहीं किया गया है। यह एक गलत बात है इससे उन जातियों के गरीबों के प्रति अन्याय होता है। इस प्रकार यह नया आरक्षण असल में ऊंची जातियों के लिए एक विशेष कोटा बन गया है।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। फोटो क्रेडिट- scroll.inआदिवासी विकास संगठन के अध्यक्ष मोहन डेलकर के आत्महत्या की खबर
7 बार सांसद रहें मोहन डेलकर ने मुंबई के एक होलट में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। वर्तमान में दादरा एवं नगर हवेली के निर्दलीय सांसद मोहन डेलकर का शव सोमवार को मुंबई के एक होटल से बरामद हुआ है। शुरुआती जानकारी के मुताबिक आत्महत्या की बात कही जा रही है लेकिन सही जानकारी के लिए पोस्टमार्टम का इंतजार हैं।
डेलकर साल 1985 से ही आदिवासी विकास संगठन के अध्यक्ष भी थे। वे मजूर अधिकारों के लिए भी अपनी नौजवानी के दिनों में लड़ते रहे थे। मोहन डेलकर भी कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों में रहे हैं लेकिन अंतिम चुनाव उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में ही जीता था। हालांकि कई लोगों का मानना है कि उन्होंने सुसाइड नहीं किया है। इसके लिए लोकसभा में दिये उनके वक्तव्य को आधार बनाया जा रहा है। 19 नवंबर 2020 को उन्होंने लोकसभा में जो कहा था, उसको आधार बनाकर मोहन डेलकर की आत्महत्या की थ्योरी पर सवाल उठाया जा रहा है। गौरतलब है कि अपने इस संभवतः आखिरी सार्वजनिक भाषण में सांसद ने गंभीर बातों की ओर इशारा किया था।
दादरा एवं नगर हवेली से निर्दलीय सांसद मोहन डेलकर जी, जिनके सुसाइड करने की ख़बर आयी, उनका लोकसभा में दिया गया संभवतः आख़िरी बयान।
— Umashankar Singh उमाशंकर सिंह (@umashankarsingh) February 24, 2021
19 नवंबर 2020 के इस बयान को ध्यान से सुनिए और दो मिनट का मौन धारण कीजिए। यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी। RIP pic.twitter.com/jdvIL6zECj
बना अनोखा रिकार्ड, पहली बार दलितों की भाषा में लिखा गया गीत
हाल ही में स्त्री स्वतंत्रता के मुद्दे पर मलयालम भाषा में बनी मशहूर फिल्म ‘द ग्रेट इन्डियन किचन’ चर्चा में है। साथ ही चर्चा में हैं, इस फिल्म के लिए एक लोकप्रिय गीत की रचना करने वाली दलित समाज की गीतकार ‘मृदुला देवी’। मृदुला को आजकल बहुत सराहा जा रहा है। खास बात यह है कि मृदुला ने एक ऐसी भाषा में गीत लिखा है जिसकी अपनी कोई लिपि नहीं है, यानी कि इस भाषा में आप लिख-पढ़ नहीं सकते। यह भाषा सिर्फ दलितों की पराया जाति द्वारा बोली जाती है।
मृदुला लंबे समय से महिला अधिकार के मुद्दे पर पितृसत्तात्मक व्यवस्था से लड़ रही हैं, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है। दरअसल देश का सबसे ज्यादा शिक्षित राज्य होने के बावजूद केरल में स्त्रियों के खिलाफ अत्याचार कम नहीं हुआ है। फिल्म ‘द ग्रेट इन्डियन किचन’ में इन्ही मुद्दों को उठाया गया है। यह पहली बार है, जब मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में पराया जाति की भाषा में एक दलित गीतकार द्वारा कोई गीत लिखा गया है। इसे केरल सहित दक्षिण भारतीय राज्यों में सामाजिक बदलाव की लहर की सफलता के रूप में देखा जा रहा है।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बात करें तो राज कपूर के दौर में कवि-गीतकार ‘शैलेन्द्र’ ने यादगार गीत रचे हैं। लेकिन शैलेन्द्र के बाद मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कोई गीतकार या कलाकार ज्यादा चर्चित नहीं हो पाया। ऐसे में तमिल, कन्नड़ एवं मलयालम फिल्म इंडस्ट्री से दलित कलाकारों की प्रतिभा को अवसर दिए जाने की खबर सुकून देने वाली है। इसकी एक वजह यह भी है कि तमिल, तेलुगु, कन्नड व मलयाली फिल्म इंडस्ट्री में रामासामी पेरियार की विचारधारा को मानने वाले काफी कलाकार, गीतकार और निर्देशक मौजूद हैं। ऐसे में मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में मृदुला बेनु का उभरना देश भर की दलित महिलाओं के लिए एक प्रेरणा देने वाली खबर है।
एक ब्राह्मण मित्र की परेशानी: ये ओबीसी और दलित मुसलमानों से मुहब्बत क्यों करते हैं?
एक ब्राह्मण मित्र हैं वे एक बहुत बड़े बिजनेस स्कूल से बड़ी डिग्री लिए हुए हैं। पिछले कई सालों से बार-बार फोन करके दलितों एवं ट्राइबल समाज के लोगों की समस्याओं के बारे में चर्चा करते रहे हैं।
वे अक्सर यह जानना चाहते हैं कि दलितों ओबीसी और ट्राइबल की समस्याएं क्या है। अक्सर वे अपनी चर्चा के दौरान यह भी बताने की कोशिश करते हैं कि वह कितने संवेदनशील हैं और कितनी गहराई से इन ‘बेचारों’ की समस्याओं को जानने समझने की कोशिश करते रहे हैं।
अब वे मेरे अच्छे मित्र रहे हैं और कई सालों से गंभीरता से बातचीत करते रहे हैं, मैं भी उन्हें अपने मन की बात बताता आया हूं। लेकिन पिछले कुछ महीनों से उनकी चर्चाओं का स्वरूप बदल गया है, जैसे ही राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चर्चा पूरे देश पर हावी हुई है, और जैसे ही NRC के विरोध मे शाहीन बाग और आजकल किसान आंदोलन जैसे उदाहरण पूरे देश में उठ खड़े हुए हैं उनके प्रश्नों का स्वरूप बदल गया है। उन्हे विशेष रूप से इस बात से दिक्कत है कि ओबीसी और दलित लोग मुसलमानों से भाईचारा क्यों दिखाने लगे हैं?
अब उनके प्रश्न शिकायत में बदल गए हैं अब वे मित्र यह पूछना चाहते हैं कि ये दलित ओबीसी और ट्राईबल लोग इन “मुसलमानों” से इतनी मोहब्बत क्यों कर रहे हैं? इन ओबीसी दलितों आदिवासियों को अपने देश की चिंता क्यों नहीं है? इन लोगों को मुसलमानों की इतनी चिंता क्यों होने लगी है?
यह सवाल सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। पिछले कई सालों में उनसे हो रही चर्चाओं को मैंने फिर से याद किया।
मैंने समझने की कोशिश की कि क्या वास्तव में यह सज्जन ओबीसी दलित और ट्राइबल समाज की भलाई चाहते थे? या फिर यह सिर्फ दूसरे खेमे के राज जानना चाहते थे? मैं यह जान पाया कि वह एक राजनीतिक व्यक्ति हैं जो कि अपनी सुविधा के लिए किन्ही खास और जरूरी प्रश्नों का उत्तर ढूंढना चाहते हैं।
मैंने इस बात की राजनीति को समझ कर दूसरे ढंग से उनसे बात करना शुरू कर दिया।
पिछले महीने दो तीन बार उनका फोन आया मैंने उनके सवालों का जवाब देने की बजाय उनसे खुद से सवाल पूछने शुरू किया मैंने पूछा कि ब्राह्मणों के बीच में इतना जातिवाद क्यों है? एक सरयूपाणी ब्राह्मण एक पाठक या जोशी ब्राह्मण को अछूत क्यों समझता है? पंक्ति पोषक और पंक्ति दूषण ब्राह्मण क्या होते हैं? एक देशस्थ ब्राह्मण और कोकणस्थ ब्राह्मण के बीच में विवाह करने में क्या समस्या है? एक ठाकुर क्षत्रिय की बेटी किसी उपाध्याय ब्राह्मण से शादी क्यों नहीं कर सकती? आजादी के बाद भी अभी हाल ही तक ब्राह्मणों के परिवार में स्त्रियों को शिक्षा एवं रोजगार की आजादी क्यों नहीं थी?
यह सवाल सुनते ही वे भड़क गए। मैंने उनके क्रोध को भांपकर पूछा कि भाई यह सवाल तो आपके समाज पर भी उठते ही हैं, आपके समाज में भी वही समस्याएं हैं जो कि दूसरी जातियों और समाजों में है।
अगर आप वास्तव में इन समस्याओं का समाधान करना चाहते हैं तो आपको अपने घर से शुरू करना चाहिए, अगर आपको लगता है कि दलितों ओबीसी और ट्राइबल समाज में जातिवाद की समस्या ने उनका बड़ा नुकसान किया है तो आपको यह भी देखना चाहिए कि खुद ब्राह्मण बनिया एवं क्षत्रिय समाज में भी जातिवाद भयानक रूप से प्रचलित है। अगर वास्तव में आप इन समस्याओं के प्रति गंभीर हैं तो आपको वहां से शुरू करना चाहिए जहां आप खुद खड़े हैं।
मेरी यह बातें सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य और दुख हुआ, उनकी महान बनने की सारी कोशिश बर्बाद हो गई। मेरे सवालों ने उन्हें उन्हीं की नजर में एक बेचारा साबित कर दिया। अभी तक वे दूसरों को बेचारा समझ कर उनका अध्ययन कर रहे थे लेकिन जब मैंने उनका अध्ययन करना शुरू किया तो वह खुद बेचारे बन गए। और इस बात से उन्हें बहुत तकलीफ हुई।
यह बड़ी मजेदार बात है, इस देश को जातिवाद और छुआछूत सिखाने वाले लोग हमेशा दूसरों का अध्ययन करते रहे हैं और खुद अपना अध्ययन कभी नहीं करते। दूसरों का अध्ययन करते हुए वह सिद्ध कर देते हैं कि वह खुद तो पहले से ही महान है बस दूसरों को थोड़ा और सुधारना है, फिर सब ठीक हो जाएगा। यह भारत की ऐतिहासिक समस्या है, भारत की सबसे बड़ी राजनीति का सबसे गंदा चेहरा यही है।
इसीलिए मैं अपने ब्राह्मण एवं सवर्ण मित्रों को बार-बार कहना चाहता हूं कि अगर आपको वास्तव में इस देश की कोई चिंता है और इस देश से जातिवाद छुआछूत और भेदभाव को खत्म करना चाहते हैं तो आपको अपने घर और अपने समाज से ही शुरू करना चाहिए। मैने उन मित्र से कहा कि आपको अगर पूरे समाज में रोशनी फैलानी है तो सबसे पहला दीपक आपको अपने घर में जलाना चाहिए तब आपको पता चलेगा कि जातिवाद छुआछूत और भेदभाव का असली जहर क्या है? और वह कैसे काम करता है?
तभी आप दूसरों की भी मदद कर पाएंगे अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आप सिर्फ एक गंदी राजनीति खेल रहे हैं।आप का सबसे पहला कर्तव्य है कि आप इस बात को सामने लाएं की तथाकथित ऊंची जातियों में स्त्रियों का शोषण किस तरह होता है? तथाकथित ऊंची जातियों में आपस में जाति और वर्ण के क्या भेदभाव हैं? और किस तरह से इन तथाकथित ऊंची जातियों में धर्म और कर्मकांड के गंदे अंधविश्वास फैले हुए हैं?
मेरी यह बात सुनते हुए वे तथाकथित प्रगतिशील मित्र भड़क गए और फोन काट कर भाग गए और फेसबुक पर भी ब्लॉक कर दिया।
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कौन और किस आधार पर कहता है कि वर्ण व्यवस्था आधारित बंटवार टूटा है? देखिए तथ्य क्या कह रहे हैं?

आज भी भारतीय समाज में आर्थिक संसाधनों, निर्णायक पदों पर नियंत्रण और सामाजिक हैसियत वर्ण-जाति व्यवस्था पर ही आधारित है और राजनीति और प्रशासन पर भी उच्च जातियों का नियंत्रण है। इसे निम्न तथ्यों के आलोक में देख सकते हैं। आइए तथ्यों की रोशनी में वर्ण-जाति आधारित असमानता के श्रेणीक्रम को देखते हैं।
राजनीति सबसे पहले देश की संसद को लेते हैं। संसद देश का सर्वोच्च निकाय ही नहीं, सबसे ताकतवर संस्था है, क्योंकि उसे ही संविधान में संशोधन करने एवं कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। यह जनता के प्रतिनिधियों की सर्वोच्च निकाय है, जिस जनता में भारत की संप्रभुता निहित है। देखते हैं इसमें किसका कितना प्रतिनिधित्व है। वर्तमान लोकसभा (2019) में चुनकर आए कुल 543 सांसदों में 120 ओबीसी, 86 अनुसूचित जाति और 52 अनुसूचित जनजाति के हैं और हिंदू सवर्ण जाति से जीतकर आए सांसदों की संख्या 232 है। आनुपातिक तौर देखें, तो ओबीसी का लोकसभा में अनुपात 22.09 प्रतिशत है, जबकि मंडल कमीशन और अन्य आंकड़ों के अनुसार आबादी में इनका अनुपात 52 प्रतिशत है।

आबादी में करीब 21 प्रतिशत के बीच हिस्सेदारी रखने वाले सवर्णों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उनकी आबादी करीब दो गुना 42.7 प्रतिशत है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को उनकी आबादी के अनुपात से थोड़ा अधिक ही लोकसभा में प्रतिनिधित्व प्राप्त है। आखिर 52 प्रतिशत ओबीसी को अपने आबादी के अनुपात से आधे से भी कम और सवर्णों को उनकी आबादी से दो गुना प्रतिनिधित्व क्यों मिला हुआ है। इसका सीधा कारण है, भारतीय समाज में उच्च जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कुछ अन्य) का वर्ण-जाति आधारित वर्चस्व। एससी-एसटी को उनकी आबादी के अनुपात में लोकसभा में इसलिए प्रतिनिधित्व मिला हुआ है, क्योंकि उनके लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण है। इस बात की पूरी संभावना है कि यदि एससी-एसटी के लिए आरक्षण नहीं होता,तो उनका लोकसभा में प्रतिनिधित्व ओबीसी से भी बहुत कम होता और ओबीसी के लिए उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं, क्योंकि उन्हें आबादी के अनुपात में लोकसभा में आरक्षण प्राप्त नहीं है।
नौकरशाही अब इसे नौकरशाही के संदर्भ में देखिए। भले ही संसद विधान बनाती हो, लेकिन नौकरशाही नीतियों के निर्माण एवं क्रियान्वयन के मामले में सबसे निर्णायक संस्था है। उसमें विभिन्न मंत्रालयों के सचिव से सबसे निर्णायक होते हैं। 2019 में पीएमओ साहित केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में कुल 89 शीर्ष आईएएस अधिकारियों (सचिवों) में एक भी ओबीसी समुदाय से नहीं था और इनमें केवल एक एससी और 3 एसटी समुदाय के थे। क्योंकि इन पदों पर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं है। अब जरा विस्तार से केंद्रीय नौकरशाही को देखते हैं। 1 जनवरी 2016 को केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि ग्रुप-ए के कुल पदों 84 हजार 521 में से 57 हजार 202 सामान्य वर्गों (उच्च जातियों) का कब्जा था यानि कुल नौकरियों के 66.67 प्रतिशत पर 21 प्रतिशत सवर्णों का नियंत्रण था। इसमें सबसे बदत्तर स्थिति 52 प्रतिशत आबादी वाले ओबीसी की थी। इस वर्ग के पास ग्रुप-ए के सिर्फ 13.1 प्रतिशत पद थे यानि आबादी सिर्फ एक तिहाई, जबकि उच्च जातियों के पास आबादी से ढाई गुना पद थे। कमोवेश यही स्थिति ग्रुप-बी पदों के संदर्भ में भी थी। ग्रुप बी के कुल पदों के 61 प्रतिशत दों पर सवर्ण काबिज थे।
उच्च शिक्षा यही स्थिति विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के शिक्षक पदों पर थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की वार्षिक रिपोर्ट (2016-17) के अनुसार 30 केंद्रीय विश्वविद्यालय 82 राज्यों के विश्वविद्यालय (सरकारी) में प्रोफेसरों के कुल 31 हजार 446 पदों में सिर्फ 9 हजार 130 पदों पर ही ओबीसी, एससी-एसटी के शिक्षक है यानि सिर्फ 29.03 प्रतिशत। यहां 52 प्रतिशत ओबीसी की हिस्सेदारी बहुत ही कम है।
कुलपति अब जरा कुछ उन निर्णायक पदों को देखते, जहां किसी समुदाय के लिए कोई आरक्षण नहीं। ऐसा ही एक पद विश्वविद्यलय के कुलपतियों का है। उच्च शिक्षा व्यवस्था में कुलपति सबसे निर्णायक होता है, विशेषकर नियुक्ति एवं पदोन्नति के मामले में। 5 जनवरी 2018 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा दी गई सूचना के अनुसार देश के (उस समय के) 496 कुलपतियों में 6 एससी, 6 एसटी और 36 ओबीसी समुदाय के थे। यानि उच्च जातियों के 90.33 प्रतिशत और ओबीसी 7.23 प्रतिशत, एसी 1.2 प्रतिशत और एसटी 1.2 प्रतिशत। यहां ओबीसी को अपनी आबादी का करीब आठवां हिस्सा प्राप्त है और एससी-एसटी को न्यूनतम से न्यूनतम, क्योंकि उनके लिए भी यहां आरक्षण का प्रावधान नहीं है। इसके पहले हम केंद्र सरकार के 89 सचिवों में एक के भी ओबीसी नहीं होने के तथ्य को देख चुके हैं, क्योंकि वहां भी आरक्षण नहीं है।

संपत्ति-संपदा ओबीसी समुदाय के सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के बहुत सारे अन्य तथ्य उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय संपदा में हिस्सेदारी के मामले में देखें तो पाते हैं कि (2013 के आंकड़े) कुल संपदा में ओबीसी की हिस्सेदारी सिर्फ 31 प्रतिशत है, जबकि उच्च जातियों की हिस्सदारी 45 प्रतिशत है, दलितों की हिस्सेदारी अत्यन्त कम सिर्फ 7 प्रतिशत है, क्योंकि वे वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम में सबसे नीचे हैं। कुल भूसंपदा का 41 प्रतिशत उच्च जातियों के पास है, ओबीसी का हिस्सा 35 प्रतिशत है और एससी के पास 7 प्रतिशत है। भवन संपदा का 53 प्रतिश सवर्णों के पास है, ओबीसी के पास 23 प्रतिशत और एसीसी के पास 7 प्रतिशत है। वित्तीय संपदा (शेयर और डिपाजिट) का 48 प्रतिशत उच्च जातियों के पास है, ओबीसी के पास 26 प्रतिशत और एससी के पास 8 प्रतिशत। भारत में प्रति परिवार औसत 15 लाख रूपया है, लेकिन सवर्ण परिवारों के संदर्भ में यह औसत 29 लाख रूपया है, ओबीसी के संदर्भ में 13 लाख और एससी के संदर्भ में 6 लाख रूपया है यानि उच्च जातियों की प्रति परिवार औसत संपदा ओबीसी से दो गुना से अधिक है। (सुखदेव थोराट)
मीडिया
एक नजर भारतीय समाज की सोच के नियंत्रित करने वाली मीडिया पर डालते हैं। गैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम व न्यूजलॉन्ड्री नामक मीडिया संस्थान ने एक 2018 में सर्वे जारी किया। इसके मुताबिक मीडिया के सभी स्वरूपों फिर चाहे वे अखबार हों या न्यूज चैनल या फिर ऑनलाइन न्यूज पोर्टल सभी में वंचितों की हिस्सेदारी नगण्य है। “हू टेल्स अवर स्टोरीज़ मैटर्स: रिप्रेजेंटेशन ऑफ मार्जिनलाइज़्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन न्यूज़रूम्स” नाम की यह रिपोर्ट बताती है कि भारतीय मीडिया के तमाम न्यूज़रुम वंचितों की आवाज़ से वंचित हैं। यानि यहां काम करने वाले अधिकतर लोग सवर्ण हैं जिनके अपने सरोकार हैं। अपने अध्ययन में ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री ने पाया है कि भारतीय मीडिया में अनुसूचित जनजाति के लोग नज़र ही नहीं आते, जबकि अनुसूचित जातियों के लोगों का प्रतिनिधित्व भी बतौर पत्रकार न के बराबर है।
अपनी इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री ने अंग्रेज़ी के 6 और हिंदी के 7 अख़बारों का अध्ययन किया। इसके अलावा डिजिटल मीडिया से जुड़े 11 संस्थानों, 12 समाचार पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से ब्यौरा जुटाया। साथ ही अंग्रेज़ी के 7 और हिंदी के 7 प्रमुख टीवी चैनलों पर प्रसारित कार्यक्रमों में शामिल होने वाले रिपोर्टर, लेखक और पैनलिस्टों का ब्यौरा जुटाया। इसके बाद जो नतीजे सामने आए वे चौंकाने वाले थे।
न्यायपालिका न्यायपालिका पर सवर्णों के पूर्ण वर्चस्व से हम सब वाकिफ हैं। 90 प्रतिशत जज सर्वण, उनमें से अधिकांश ब्राह्मण और कुछ परिवारों के ( उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय)।
मैंने यहां सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व और वर्ण-जाति आधारित भेद-भाव और हिंसा- बलात्कार का आंकड़ा नहीं देर रहा हूं। वह जगजाहिर है। पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री और दलित समाज के राष्ट्रपति की भूमिका राम की सेना के हनुमान और जामवंत की है। मेरा सवाल है कि आखिर कौन और किस आधार पर कहता है कि वर्ण व्यवस्था आधारित बंटवार टूटा है?