RRB group d admit card 2018: 10 अक्टूबर के एडमिट कार्ड जारी, यूं करें डाउनलोड

नई दिल्ली। आरआरबी ग्रुप डी भर्ती परीक्षा के 10 अक्टूबर को होने जा रहे सीबीटी (कंप्यटूर बेस्ड टेस्ट) के एडमिट कार्ड जारी कर दिए गए हैं. गौरतलब है कि परीक्षा से चार-चार दिन पहले एडमिट कार्ड जारी किए जा रहे हैं. रेलवे इससे पहले जिस-जिस दिन परीक्षा है, उसके एडमिट कार्ड जारी कर चुका है. तमाम आरआरबी 10 अक्टूबर की तक की परीक्षा के एडमिट कार्ड जारी कर चुके हैं.

इस बीच रेलवे ने 05 अक्टूबर शुक्रवार को 16 अक्टूबर के बाद का ग्रुप डी भर्ती परीक्षा का शेड्यूल जारी कर दिया. लेकिन अभी भी ये पूरा जारी नहीं किया गया है. 17 अक्टूबर से 26 अक्टूबर तक की परीक्षा तिथियों, शहर और शिफ्ट की डिटेल्स जारी की गई हैं. 27 और 28 अक्टूबर को परीक्षा नहीं होगी. 29 अक्टूबर को और उसके बाद किस उम्मीदवार की परीक्षा किस दिन होगी, ये जानकारी 18 अक्टूबर के पता चलेगी. यानी 28 अक्टूबर के बाद की परीक्षा तिथि, शहर और शिफ्ट की डिटेल्स 18 अक्टूबर को जारी होगी.

rrb group d admit card 2018: यूं डाउनलोड करें

STEP 1- उम्मीदवार ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक कर अपने आरआरबी की वेबसाइट पर जाएं. होम पेज पर दिए गए Click here to Download E-Call Letter के लिंक पर क्लिक करें. STEP 2 – अपना यूजर आईडी और जन्मतिथि डालें. STEP 3- लॉग-इन करते ही आपका एडमिट कार्ड आपके सामने आ जाएगा. इसका प्रिंट आउट ले लें. परीक्षा में इसे साथ लेकर पहुंचे.

Read it also-वर्धा के बौद्ध अध्ययन केन्द्र के अध्‍ययन-अध्‍यापन का दसवें वर्ष का समारोह सम्‍पन्‍न
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

राजस्थान, MP समेत 5 राज्यों में चुनाव की घोषणा, 11 दिसंबर को नतीजे

नई दिल्ली। चुनाव आयोग ने पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का ऐलान कर दिया है. राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना में नवंबर से दिसंबर के बीच मतदान पूरा हो जाएगा, जिसके बाद 11 दिसंबर को सभी राज्यों के नतीजे एक साथ घोषित किए जाएंगे. चुनाव आयोग की घोषणा के साथ आज से ही इन पांच राज्यों में चुनाव आचार संहिता लागू हो गई है.

छत्तीसगढ़

पहला चरण: छत्तीसगढ़ में पहले चरण के मतदान के लिए 16 अक्टूबर को चुनाव अधिसूचना जारी होगी. 23 अक्टूबर को नामांकन पत्र भरने की आखिरी तारीख है और 26 अक्टूबर तक नामांकन वापस लिए जा सकेंगे. इस चरण में 18 विधानसभा सीटों पर मतदान होगा.

दूसरे चरण: छत्तीसगढ़ में दूसरे चरण के मतदान के लिए 26 अक्टूबर को चुनाव अधिसूचना जारी होगी. 2 नवंबर को नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख है. जबकि 5 नवंबर तक नामांकन वापस लिए जा सकेंगे. इस चरण में 72 विधानसभा सीटों पर 20 नवंबर को मतदान होगा.

मध्य प्रदेश- मिजोरम चुनाव

मध्य प्रदेश में एक ही चरण में मतदान होगा. यहां 230 विधानसभा सीट हैं, जिनके नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख 9 नवंबर है, जबकि 14 नवंबर तक नाम वापस लिए जा सकेंगे. यहां सभी सीटों पर एक साथ 28 नवंबर को मतदान होगा. मिजोरम में भी मध्य प्रदेश के साथ ही मतदान कराया जाएगा.

राजस्थान-तेलंगाना चुनाव

राजस्थान में 12 नवंबर को चुनाव अधिसूचना जारी होगी. जिसके बाद नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख 19 नवंबर होगी. नाम वापसी 22 नवंबर तक होगी. इन दोनों राज्यों में 7 दिसंबर को मतदान होगा.

इन सभी पांच राज्यों में 11 दिसंबर को मतगणना होगी.

प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने जानकारी देते हुए बताया कि 15 दिसंबर से पहले चुनावी प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी. उन्होंने बताया कि चुनाव में आधुनिक ईवीएम व वीवीपैट का इस्तेमाल किया जाएगा. साथ ही मतदान की वीडियोग्राफी भी कराई जाएगी.

Read it also-बिहार में महागठबंधन को लेकर अपने पत्ते नहीं खोलना चाहती बसपा
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

वर्धा के बौद्ध अध्ययन केन्द्र के अध्‍ययन-अध्‍यापन का दसवें वर्ष का समारोह सम्‍पन्‍न 

वर्धा। 5 सितंबर 2018: महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के डॉ. भदन्‍त आनंद कौसल्‍यायन बौद्ध अध्‍ययन केंद्र में अध्‍ययन अध्‍यापन के दस वर्ष पूरे होने पर 5 सितंबर को कुलपति प्रो. गिरीश्‍वर मिश्र की मुख्‍य उपस्थिति में समारोह का आयोजन किया गया. कार्यक्रम की अध्‍यक्षता संस्‍कृति विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. एल. कारुण्‍यकारा ने की. इस अवसर पर प्रतिकुलपति प्रो. आनंद वर्धन शर्मा एवं वरिष्‍ठ प्रोफेसर मनोज कुमार विशिष्‍ठ अतिथि के रूप में तथा केंद्र के संस्‍थापक प्रो. एम. एल. कासारे मुख्‍य वक्‍ता के रूप में उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन केंद्र प्रभारी निदेशक डॉ. सुरजीत कुमार सिंह ने किया. बुद्ध वंदना से कार्यक्रम का प्रारंभ भिक्षु राकेश आनंद एवं मुदिता बोधी ने की.

नागपुर में अशोक विजयदशमी के दिन 14 अक्टूबर, 1956 को बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी. उसी ऐतिहासिक स्थल से मात्र 75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है वर्धा. जहाँ वर्धा की राष्‍ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा 14 अप्रैल, 2004 को बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की जयंती के दौरान कार्यक्रम के अध्‍यक्ष व महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय के तत्‍कालीन कुलपति प्रो. जी. गोपीनाथन द्वारा भारतीय संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के अगाध हिंदी-प्रेम एवं हिंदी के प्रति उनकी सं‍वैधानिक प्रतिबद्धता को देखकर और भारत में बौद्ध धम्‍म एवं दर्शन को पुनर्जीवित करने के, उनके कार्य को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए विश्‍वविद्यालय में ‘डॉ. भदन्‍त आनन्‍द कौसल्‍यायन बौद्ध अध्‍ययन केन्द्र’ की आधारशिला रखी गई. इसका प्रस्ताव महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा और राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा अगले वर्ष 2005 में डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन की जन्मशताब्दी समारोह 29-30 मार्च, 2005 को मनाते हुए, एक प्रस्ताव पारित किया कि वर्धा में उनके नाम से एक बौद्ध अध्ययन केंद्र स्थापित किया जाए. इस केंद्र की स्थापना का प्रस्ताव को महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की नई दिल्ली में आयोजित चौथी विद्या परिषद ने तत्‍कालीन कुलपति प्रो.जी.गोपीनाथन की अध्यक्षता में 14 जुलाई, 2005 को पास किया. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली की इपोक मेकिंग सोशल थिंकर्स योजना के अंतर्गत 11वीं पंचवर्षीय योजना में अनुदान की स्‍वीकृति मिली. 05 अक्‍टूबर, 2008 को विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्‍यक्ष प्रो. सुखदेव थोरात ने वर्धा आकर केंद्र के प्रथम पाठ्यक्रम बौद्ध अध्‍ययन में स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा की कक्षायें विधिवत आरंभ करने का उद्घाटन किया.

Read it also-8वीं पास के लिए 16 हजार की नौकरी यहां है
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

बिहार के छपरा में जातीय गुंडागर्दी

छपरा (बिहार)। सारण जिले गड़खा प्रखंड में एक मामूली सी बात पर सवर्ण राजपूतों ने जातीय गुंडागर्दी का अपना चेहरा दिखा दिया. जातिवादी गुंडों ने प्रखंड के ईश्वरीय उच्च विद्यालय में पढ़ने वाले दलित समाज के छात्र के साथ मारपीट की. हैरत की बात यह है कि दलित छात्र को भरे स्कूल में प्रिंसिपल और अन्य शिक्षकों के सामने स्कूल से खिंचकर पीटा गया. हालांकि मामला सामने आने के बाद प्रशासन सक्रिय हुआ और अंचलाधिकारी ने स्कूल में पहुंच कर मामले की पूरी जानकारी ली. गड़खा पुलिस ने भी कार्रवाई करते हुए झौवा बसंत के रहने वाले आरोपी गणेश सिंह को गिरफ्तार कर लिया. घायल छात्र बनवारी बसंत का रहने वाला है और उसका नाम विकास कुमार मांझी है. विकास हाई स्कूल में आठवीं का छात्र है.

आरोपी गणेश सिंह फाइल फोटो

जानकारी के अनुसार गड़खा प्रखंड के ईश्वरीय हाई स्कूल में बुधवार को दर्जनों बच्चो फुटबॉल खेल रहे थे. इसी क्रम में विकास कुमार मांझी अपने पास आई गेंद को संभाल नहीं पाया और उससे बॉल छूट कर एक युवती को लग गई. युवती ने यह बात अपने पिता एवं भाई को बताई. जिस पर वो आक्रोशित होकर स्कूल में आये और हंगामा करने लगे. उस दौरान हेडमास्टर ने समझाकर मामले को शांत करा दिया. लेकिन इसके बाद गुरूवार को दोपहर में लंच के समय युवती के पिता, भाई सहित दर्जनों गुंडें स्कूल में पहुंच गए और छात्र को खींच कर बेरहमी से पीटा, जिससे वह बुरी तरह घायल हो गया. फिलहाल छात्र का इलाज चल रहा है. पुलिस घायल छात्र के बयान पर एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई कर रही है.

Read it also-बिहार में NDA का खेल खराब कर सकते हैं उपेंद्र कुशवाहा: सर्वे

  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 
 

बिहार में महागठबंधन को लेकर अपने पत्ते नहीं खोलना चाहती बसपा

पटना। मध्यप्रदेश व राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन नहीं करने की बसपा सुप्रीमो मायावती की घोषणा के बाद बिहार में भी महागठबंधन में शामिल होने को लेकर राजनीतिक कयासबाजी शुरू हो गयी है. पर बसपा लोकसभा चुनाव को लेकर अपने पत्ते बिहार में अभी नहीं खोल रही है. लोकसभा चुनाव में बसपा महागठबंधन में शामिल होगी या फिर अकेले चुनाव लड़ेगी, इसको लेकर पार्टी में अभी असमंजस की स्थिति है. प्रदेश संगठन को पार्टी सुप्रीमो मायावती की घोषणा का इंतजार है. बसपा का बिहार में उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिलों में प्रभाव है. पार्टी बिहार में लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार उतारती रही है. पार्टी का आधार वोट रोहतास, कैमूर, बक्सर, छपरा, गोपालगंज, पश्चिम चंपारण जिलों में है. लेकिन, राज्य में बसपा का न तो कोई सांसद है और नहीं विधानसभा का सदस्य. बसपा नेताओं का कहना है कि पार्टी अकेले चुनाव लड़ने के लिए बिहार की लोकसभा की सभी 40 सीटों पर जोर-शोर से तैयारी कर रही है. पार्टी पिछले दो बार से लोकसभा चुनाव व विधानसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ी रही है. इधर, बिहार कांग्रेस का मानना है कि जनविरोधी भाजपा सरकार को हटाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल के नेतृत्व में बसपा को साथ आना चाहिए. अगर वह महागठबंधन का हिस्सा बनती है तो उनका स्वागत होगा. वहीं, राजद का कहना है कि लोकसभा चुनाव तक स्थिति जरूर बदलेगी. लोकसभा चुनाव तक बदलेगी परिस्थिति राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने बसपा सुप्रीमो मायावती के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि उनका हालिया बयान छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में है. मुझे लगता है कि लोकसभा चुनाव तक स्थिति जरूर बदलेगी. हालांकि, बेहतर होता कि विधानसभा चुनावों में भी वे गठबंधन बनाकर चुनाव लड़तीं. उन्होंने कहा कि भाजपा विपक्ष को समाप्त करने की राजनीति कर रही है, जो सभी विपक्षी दलों के लिए नुकसानदायक है. ऐसे में सभी विपक्षी दलों को मिलकर मुकाबला करना चाहिए. यह भी सही है कि महागठबंधन बनाने का प्रयास सभी दलों को मिल कर ही करना होगा. राहुल के नेतृत्व में महागठबंधन में आने पर होगा स्वागत प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष डॉ मदन मोहन झा ने बताया कि महागठबंधन में बसपा के शामिल होने पर कांग्रेस इसका स्वागत करेगी. केंद्र की जनविरोधी सरकार को हटाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में बसपा आना चाहेगी तो उसका स्वागत किया जायेगा. लेकिन, सीटों का बंटवारा शीर्ष नेतृत्व करेगा. वहीं, प्रदेश कांग्रेस चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष डॉ अखिलेश सिंह ने कहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा महागठबंधन में जरूर शामिल होगी. राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव के लिए पहले से महागठबंधन को लेकर कोई चर्चा नहीं थी. मध्यप्रदेश व राजस्थान में उनका अपना निर्णय है, लेकिन लोकसभा चुनाव में बसपा साथ रहेगी. संगठन को मजबूत करने के लिए जोर-शोर से चल रही तैयारी बिहार में संगठन को मजबूत करने के लिए जोर-शोर से तैयारी चल रही है. खासकर लोकसभा चुनाव को देखते हुए बूथ स्तर तक यूथ को तैयार किया जा रहा है. बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सह बिहार प्रभारी राम अचल राजभर ने बताया कि लोकसभा चुनाव को लेकर सभी सीटों पर जोर-शोर से तैयारी चल रही है. जिलावार बैठक की जा रही है. बिहार के प्रदेश अध्यक्ष भरत बिंद की मानें तो जिला स्तर, विधानसभा स्तर व बूथ स्तर पर कमेटी गठित की जा रही है. पूरे प्रदेश में पार्टी पदाधिकारियों का कार्यक्रम रखा गया है.

Read it also-बिहारः नीतीश की योजना को पूरा करने में गई दलित वार्ड सदस्य की जान, राजपूत मुखिया ने पीट कर मार डाला
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

बिहार में महागठबंधन पर पसोपेश में तेजस्वी यादव

नई दिल्ली। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता लालू यादव और तेजस्वी यादव हमेशा इस बात के हिमायती रहे कि अगर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक साथ महागठबंधन का हिस्सा बन जाएं तो यूपी और बिहार मिलकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का विजयी रथ रोक सकते हैं. लेकिन जिस तरह मायावती ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को झटका दिया है, उससे आरजेडी भी सकते में है. तेजस्वी ने तो इससे संबंधित सवाल पर चुप्पी साध ली.

विपक्षी एकता की कोशिश कर रहे तेजस्वी बिहार में सीट शेयरिंग को लेकर किसी भी सीमा तक बलिदान देने को तैयार हैं, पर मायावती के स्टैंड ने सबकुछ गड़बड़ कर दिया है. हालांकि बिहार में बसपा का कोई विधायक या सांसद नहीं है, लेकिन यूपी से सटे रोहतास, बक्सर, पश्चिम चंपारण और कैमूर में पार्टी कई बार निर्णायक भूमिका में दिखाई देती है.

जब बुधवार को मायावती ने कांग्रेस पर आरोपों की झड़ी लगाते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को बीजेपी का एजेंट तक बता डाला. संयोग से दिग्विजय सिंह उस दिन पटना में ही थे और तेजस्वी से मुलाकात भी की थी.

जब दिल्ली जाने से पहले तेजस्वी से ये पूछा गया कि महागठबंधन से मायावती ने दूरी बना ली है तो उन्होंने कहा, समय आने दीजिए, समय पर पता चल जाएगा.

फिर दिग्विजय सिंह के बारे में मायावती के बयान पर तेजस्वी सकपका गए और इतना ही कहा कि मुझे इस पर कुछ नहीं कहना है.

लिहाजा मायावती के मूड को भांपने से पहले तेजस्वी कुछ नहीं कहना चाहते. एक कारण ये भी है कि बिहार में कांग्रेस के साथ आरजेडी की सियासी साझीदारी लंबे अरसे से है और तेजस्वी अपने किसी बयान से राहुल के साथ बनी केमिस्ट्री नहीं बिगाड़ना चाहेंगे.

Read it also-दलित दस्तक मैग्जीन का अक्टूबर 2018 अंक ऑन लाइन पढ़िए
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

दलित सम्मेलन के जरिए दलितों को लुभाने को तैयार कांग्रेस

लखनऊ। प्रदेश कांग्रेस अनुसूचित जाति विभाग शनिवार से दलित सम्मेलन कराएगा. विभाग की मीडिया प्रभारी सिद्धिश्री ने बताया कि छह से 24 अक्टूबर तक सभी 18 मंडलों में दलित सम्मेलन होंगे. इसके तहत 6, 7, 8 को गांव-गांव में भ्रमण करके व्यापारिक व सामाजिक संगठनों से जुड़े दलितों से बातचीत करके संपर्क उनसे बातचीत होगी, पारिवारिक सम्मेलन होगा और रात्रि भोज किया जाएगा. 9 और 10 अक्टूबर को सभी आरक्षित विधान सीटों पर संविधान से स्वाभिमान यात्रा निकाली जाएगी. 14 अक्टूबर को सभी जिला मुख्यालयों पर संविधान सम्मान सभा का आयोजन किया जाएगा. इसमें दलित कांग्रेसी नेता और स्वतंत्रा संग्राम सेनानियों को सम्मानित किया जाएगा. 22 अक्टूबर को प्रदेश के छह मंडलों में संविधान बचाओ देश बचाओ सम्मेलन होगा. इसी तरह से 23 और 24 अक्टूबर को भी आयोजन होंगे.

Read it also-बसपा व जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ गठबंधन के मायने
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

बिहार में NDA का खेल खराब कर सकते हैं उपेंद्र कुशवाहा: सर्वे

नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री और आरएलएसपी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा बीते कुछ समय से बिहार की सियासी गलियारे में चर्चा में बने हुए हैं. एनडीए में सीट चल रहे सीटों के बंटवारे के कवायद के बीच कुशवाहा पर सबकी नजरे हैं. सियासी खीर बनाने की बात कहकर कुशवाहा ने राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया था. हाल ही में उनकी पार्टी की तरफ से दिए गए बयान से ऐसी अटकलें लगाई जा रही है कि वे बिहार में महागठबंधन का दामन थाम सकते हैं. हालांकि खुद कुशवाहा ये साफ कर चुके हैं कि वे नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने तीन सीटों पर जीत हासिल की थी. अब कुशवाहा की पार्टी का कहना है कि वक्त बदल चुका है, इसलिए उन्हें ज्यादा सीटें चाहिए. बता दें कि कुर्मी से ज्यादा बिहार में कोइरी की आबादी है.

ये तो वक्त बताएगा कि सीटों के बंटवारे में कुशवाहा की पार्टी के खाते में कितनी सीटें आती हैं और क्या वे एनडीए के साथ बने रहते हैं या नहीं. लेकिन अगर कुशवाहा एनडीए का साथ छोड़ते हैं और अभी चुनाव हुए तो एनडीए को नुकसान होगा. सिर्फ कुशवाहा की ही पार्टी नहीं अगर केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की पार्टी भी एनडीए का साथ छोड़ दे तो बिहार में नुकसान होगा. एबीपी न्यूज़ और सी-वोटर के सर्वे में ये बात सामने आई है. यानी बिहार में एनडीए को अगर ज्यादा सीटें जीतनी हैं तो सिर्फ नीतीश कुमार ही नहीं बल्कि एलजेपी और आरएलएसपी को साथ रखना होगा.

अगर LJP और RLSP यूपीए में गई तो?

कुल सीट- 40

एनडीए- 22 यूपीए- 18

हालांकि अगर बिहार में अगर मौजूदा सर्वे बरकरार रहा तो एनडीए को 40 में से 31 सीटें मिलेंगी.

अगर मौजूदा एनडीए बना रहा तो ?

कुल सीट- 40

एनडीए- 31 यूपीए- 9

कैसे हुआ सर्वे?

ये सर्वे अगस्त के आखिरी हफ्ते से लेकर सितंबर के आखिर हफ्ते तक किया गया है. ये सर्वे देश भर में सभी 543 लोकसभा सीटों पर किया गया है और 32 हजार 547 लोगों की राय ली गई है.

Read it also-दलित दस्तक मैग्जीन का सितम्बर 2018 अंक ऑन लाइन पढ़िए
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

दलित दस्तक मैग्जीन का सितम्बर 2018 अंक ऑन लाइन पढ़िए

0
दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2018 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए सांतवें साल का दुसरा अंक लेकर आए हैं. इस अंक के साथ ही दलित दस्तक ने एक नया बदलाव किया है. इसके तहत अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

ई-मैगजीन पूरा पढ़े सिर्फ 10/-रुपये के सहयोग राशि 9711666056 पर PAYTM के माध्यम से सहयोग करें

मैगजीन सब्स्क्राइब करने के लिये यहां क्लिक करें मैगजीन गैलरी देखने के लिये यहां क्लिक करें

आरक्षण की प्रासंगिकता..

आरक्षण एक गंभीर विषय है. आरक्षण के संबंध में लोगों की गलत धारणा को दूर करने के लिए इसका पोस्टमार्टम करना जरूरी है. आरक्षण अवसर की समानता का मामला है. आरक्षण प्रतिनिधित्व का मामला है . आरक्षण भागीदारी का मामला है. आरक्षण कोई योग्यता का मामला नही है. आरक्षण कोई भीख नहीं है. आरक्षण विशेषाधिकार के बदले (In place of) मिला एक छोटा सा अधिकार है. 24 सितंबर 1932 को यरवदा सेंट्रल जेल में गांधी टीम और डॉ.भीमराव अंबेडकर के बीच हुए समझौते का मामला है. तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने डॉ अंबेडकर को कम्युनल अवार्ड (सांप्रदायिक पंचाट) के माध्यम से चार प्रकार के विशेषाधिकार प्रदान किए थे.- 1. राइट ऑफ एडल्ट फ्रेंचाइजी 2. राइट ऑफ डुवल वोट 3. राइट ऑफ सेपरेट सेटलमेंट 4. राइट ऑफ सेपरेट इलेक्टोरल

इन चार प्रकार के विशेषाधिकारों के बदले (In place of) गांधी एंड टीम ने डॉ आंबेडकर को सामाजिक, शैक्षिक एवं आर्थिक बराबरी के लिए यह (आरक्षण )देने का वादा किया था कि हम आने वाले 10 वर्षों में इस देश के दबे कुचले पिछड़े समाज को देश की मुख्यधारा में सम्मिलित कर देंगें. उन्हें बराबर कर देंगें.

आज आजादी के 70 साल से भी अधिक का समय बीत रहा है . लेकिन दबे कुचले पिछड़े समाज की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति जस की तस बनी हुई है . गांधी एंड टीम के द्वारा किये गये वादे को गांधी एंड टीम की संतानों ने पूरा नही किया . गांधी एंड टीम के लोगों ने पूना समझौते में हुए डॉ अंबेडकर के साथ अपने वादे से मुकर कर अंबेडकर और अंबेडकर के लोगों के साथ धोखा किया है.

आरक्षण को देश की सामाजिक, शैक्षिक ,आर्थिक और राजनीतिक समानता के लिए एक हथियार बनाया गया था . इसके माध्यम से देश में समता, ममता, भाईचारा और न्याय स्थापित होगा. देश की संपूर्ण संपदा पर सबका बराबर हक और अधिकार होगा. यह मानक निर्धारित किया गया था.

आज आरक्षण को बहुत ही संकुचित नजरिए से देखा जा रहा है, जो कि सर्वथा गलत है. आरक्षण योग्यता का मामला नही है. आरक्षण कोई भीख और खैरात नही है . आरक्षण अवसर की समानता और प्रतिनिधित्व का मामला है . आरक्षण कोई नया मामला नहीं है .आरक्षण वैदिक काल से चली आ रही व्यवस्था है.

जिस तरह से एक व्यक्ति की दो संताने हैं, तो पिता की संपूर्ण संपत्ति में दोनों संतानों का बराबर हक और अधिकार है . ऐसा नही है कि एक संतान अधिक योग्य है तो उसे तीन चौथाई हिस्सा दे दिया जाए और एक संतान कम योग्य है तो उसे केवल एक चौथाई हिस्सा ही दे कर समझा बुझा दिया जाए. पिता की संपत्ति में दोनों संतानों का बराबर का हिस्सा है . यही न्याय संगत है और यही तर्कसंगत भी है.

जिस तरह व्यक्ति के शरीर में दो पैर हैं . एक पैर में जूता पहनाया जाए दूसरे में नही. एक में पायल पहनाई जाए दूसरे में नही . एक हाथ में कंगन पहनाई जाए दूसरे में नही . एक आंख में काजल लगाया जाए दूसरे में नही . चश्मे में एक शीशा लगाया जाए दूसरे में नही, तो अटपटा लगेगा. बुरा लगेगा. भद्दा लगेगा. जब तक दोनों पैरों में जूते नहीं होंगें. दोनों पैरों में पायल नही होगी . दोनों हाथों में कंगन नही होगा. दोनों आंखों में काजल नही होगा . चश्मे में दोनों शीशा नही होगा . शोभा नही देगा. उसी प्रकार देश का संपूर्ण विकास तब तक नही होगा, जब तक हर व्यक्ति का, हर समाज का विकास नहीं होता है.

जिस प्रकार एक असमतल जमीन में अच्छी फसल नही पैदा हो सकती है, उसी प्रकार असमान देश कभी विकास और तरक्की नही कर सकता है. जहां पर ऊंची जमीन होगी, वहां पानी नही पहुंचेगा और फसल सूख जाएगी. जहां जमीन नीची होगी वहां पानी अधिक रुकेगा और फसल सड़ जाएगी. वही हाल समाज और देश का है . समाज और देश को प्रगति के पथ पर ले जाना है तो समता, ममता, न्याय और भाईचारे का माहौल बनाना होगा.

जो देश समता, ममता, न्याय और भाईचारे के अनुसार चल रहे हैं वे निरंतर आगे बढ़ रहे हैं . जो देश इसके खिलाफ हैं वे निरंतर पतन की ओर जा रहे हैं . यही वजह है कि आजादी के 70 सालों में भारत देश विकसित होने के बजाय विकास सील से भी नीचे जा रहा है.

वर्ष 1945 में जापान में परमाणु बम से हमला हुआ था . जापान पूरी तरह से ध्वस्त हो गया था. परमाणु बम का असर आज भी जापान में दिखाई देता है. नागासाकी हिरोशिमा में अभी भी बच्चे अपंग और अपाहिज पैदा होते हैं . लेकिन उसके बावजूद भी जापान आज विश्व के विकसित देशों में शुमार होता है . वहीं भारत 1947 में अंग्रेजों से आज़ाद होता है. आजाद होने के बावजूद भी सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, आर्थिक रूप से बहुत ही पिछड़ा है . भारत आज विकासशील देशों की श्रेणी से भी हट गया है . दुनिया के 100 विश्वविद्यालयों में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय नही सम्मिलित है.

सेना में कोई आरक्षण नहीं है . उसके बावजूद भी चीन कई किलोमीटर भारत पर कब्जा कर चुका है. पाकिस्तान आए दिन हमला करके हमारे सैनिकों को मार गिराता है . बांग्लादेश घुसपैठ कर जाता है . श्रीलंका से घुसपैठिए आ जाते हैं. जो लोग यह कहते हैं कि आरक्षण से अयोग्य लोग आ जाते हैं तो सेना में तो कोई आरक्षण नहीं है फिर ऐसा क्यों हो रहा है. खेलों में कोई आरक्षण नही है . भारत विश्वकप फुटबाल कभी नही जीत पाया है . ओलंपिक खेलों में भारत कभी भी शीर्ष पर नही रहा है. टेनिस के चारों ग्रैंड स्लैम कभी नही जीत पाया है. आदि आदि.

न्यायपालिका में कोई आरक्षण नही है , उसके बावजूद भी लाखों की संख्या में मामले लंबित क्यों हैं. अपराध कम क्यों नहीं हो रहे हैं. लोगों को समय पर न्याय क्यों नहीं मिल पा रहा है. आदि आदि.

राजनीतिक आरक्षण जो केवल 10 वर्षों के लिए निर्धारित किया गया था . उसे हर 10 साल बाद क्यों बढ़ा दिया जाता है. इस राजनैतिक आरक्षण के खिलाफ शायद ही कोई बयान देता हो लेकिन सामाजिक शैक्षिक आर्थिक समानता के लिए किए गए वादे वाले आरक्षण के खिलाफ सभी लोग अनाप-शनाप बयान देते रहते हैं.

जब तक देश में जातियां हैं . आरक्षण को खत्म नहीं किया जा सकता है. जातियां खत्म कर दीजिए आरक्षण अपने आप खत्म हो जाएगा. अगर समाप्त करना ही है तो आरक्षण नही जातियां खत्म करिये.

सुनील दत्त (प्रवक्ता )भूगोल एवं सामाजिक चिंतक, Read it also-सपा-बसपा समर्थकों को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा का नया दांव
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

कांशीराम पुण्यतिथि से शुरू होगा बसपा का 2019 के लिए चुनावी कैंपेन

नई दिल्ली। अगले साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव अभियान की शुरूआत करन के लिए बसपा ने पूरी तरह से कमर कस लिया है. बसपा प्रमुख मायावती ने अपने जनाधार को वापस लाने के लिए पार्टी संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि के दिन को चुना है.

9 अक्टूबर को कांशीराम की 12वीं पुण्यतिथि को राजधानी लखनऊ में बसपा विशाल रैली आयोजित कर रह रही है. लखनऊ के कांशीराम इको गार्डन में होने वाली रैली में मायावती शक्ति प्रदर्शन करके विपक्ष दलों को अपनी ताकत का एहसास कराना चाहती है. इसके बाद प्रदेश के सभी 18 मंडलों में अलग-अलग तारीख में रैली करने की योजना बनाई गई है.

लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बसपा के लिए औपचारिक प्लेटफॉर्म तैयार करने की गरज से यह रैली काफी अहम मानी जा रही है. इसीलिए बसपा के मंडल प्रभारियों को निर्देश दिए गए है. प्रत्येक जोनल कोऑर्डिनेटर को अपने मंडल से 15 से 20 हजार पार्टी कार्यकर्ताओं को लाने के लिए बसपा के प्रदेश अध्यक्ष आरएस कुशवाहा ने निर्देश दिया है.

कुशवाहा ने बताया कि कांशीराम इको गार्डन में होने वाली रैली में दो लाख से ज्यादा लोगों के शामिल होने का अनुमान है. हर मंडल के पदाधिकारी को रैली को सफल बनाने के लिये अपने क्षेत्र से लोगों को लाने के दिशा निर्देश दिये गये है.

उन्होंने बताया कि इस मौके पर पार्टी प्रमुख के मौजूद रहने की पूरी संभावना है. हालांकि उनके शामिल होने की आधिकारिक घोषणा अभी नहीं की जा रही है.

बता दें कि बसपा के संस्थापक कांशीराम का निधन अक्टूबर 2006 को हुआ था. बसपा अध्यक्ष मायावती उनकी याद में करीब हर साल लखनऊ में एक बड़ी रैली करती रही आ रही हैं. लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव के लिहाज से बसपा की रैली काफी महत्वपूर्ण मानी जा रही है.

बसपा ने इस रैली को सफल बनाने के लिए काफी तैयारियां कर रखी हैं. लोगों की भीड़ जुटाने के लिए करीब एक दर्जन ट्रेन, 210 बसें बुक की गई हैं. इसके अलावा पार्टी नेताओं से छोड़ी गाड़ियों के जरिए भी पहुंचने के लिए कहा गया है.

बता दें कि मौजूदा समय में बसपा के एक भी सांसद नहीं है. जबकि इससे पहले पार्टी के पास 21 सांसद थे. 2017 के विधानसभा चुनाव बसपा का पूरी तरह से सफाया हो गया था. महज 19 विधायक की जीत सके थे, लेकिन राज्य के हुए उपचुनाव में बीजेपी को मिली हार के बाद से बदले समीकरण में एक बार फिर बसपा की राजनीतिक अहमियत बढ़ी है.

माना जा रहा है कि बसपा 2019 में यूपी में सपा के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतर सकती है. हालांकि मायावती ने खुद ही कहा है कि अगर सम्मानजनक सीटें मिलेंगी तभी वह गठबंधन करेंगी.

Read it also-सपा-बसपा समर्थकों को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा का नया दांव

  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

कांग्रेस के साथ गठबंधन पर बसपा ने लगाया फुल स्टॉप

लखनऊ। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के इस बयान को लेकर कि मायावती कांग्रेस से इसलिए समझौता नहीं कर रही हैं क्योंकि उन्हें सीबीआई का डर है, बसपा प्रमुख मायावती ने कांग्रेसी नेता को आड़े हाथों लिया है. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यानि राहुल गांधी व श्रीमती सोनिया गांधी भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस और बसपा का समझौता चाहते हैं लेकिन वरिष्ठ कांग्रेसी नेता व मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे श्री दिग्विजय सिंह जैसे निजी स्वार्थी नेता नहीं चाहते है कि ऐसा हो। 3 अक्टूबर को मीडिया को जारी प्रेस कांफ्रेंस में बसपा प्रमुख ने ये बात कही.

दिग्विजय सिंह के इस आरोप पर कि बी.एस.पी. केन्द्र की बी.जे.पी. सरकार व उसकी सी.बी.आई व ई.डी. आदि एजेन्सी से डरी हुई है, बसपा प्रमुख ने उन्हें जमकर खरी-खोटी सुनाई. बसपा प्रमुख ने कहा कि यह पूरी तरह से असत्य, निराधार व तथ्यहीन है. साथ ही यह कांग्रेस पार्टी का दोहरा चरित्र व मापदण्ड है.

बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष ने दोहराया कि बी.एस.पी. एक राजनीतिक पार्टी के साथ-साथ एक मूवमेन्ट भी है और इसका नेतृत्व किसी के भी दबाव के आगे ना तो कभी झुका है और ना ही कभी कोई समझौता ही किया है जो जग-जाहिर है। उऩ्होंने कहा कि अब जबकि देश में लोकसभा के साथ-साथ राजस्थान, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में विधानसभा के आम चुनाव सर पर हैं तो चुनावी गठबन्धन के मामले में कांग्रेस पार्टी का रवैया, हमेशा की तरह, बीजेपी को परास्त करने का नहीं बल्कि अपनी सहयोगी पार्टियों को ही चित करने का ज़्यादा लगता है, जो काफी दुर्भाग्यपूर्ण है.

उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी अपनी इस प्रकार की गलत नीतियों का नुकसान बार-बार उठा रही हैं फिर भी यह पार्टी अपने आपमें सुधार नहीं कर रही है। बसपा प्रमुख ने आरोप लगाया कि देश की आम जनता बीजेपी सरकार से बुरी तरह से पीड़ित व त्रस्त है और इस अहंकारी, जातिवादी व निरंकुश सरकार को उखाड़ फेंकना चाहती है, लेकिन इसके लिए कांग्रेस पार्टी की ग़लतफहमी के साथ-साथ उसका अहंकार भी अब सर चढ़कर बोलने लगा है कि वह अकेले ही अपने बलबूते पर बीजेपी को हराने का काम कर लेगी। इससे साफ है कि कांग्रेस की रस्सी जल गई है लेकिन ऐंठन अभी भी नहीं गई है.

कांग्रेस पार्टी के इसी प्रकार के दुःखद रवैये के परिणामस्वरूप ही बी.एस.पी. ने पहले कर्नाटक और फिर छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया और अब बी.एस.पी. मूवमेन्ट के व्यापक हित में राजस्थान व मध्य प्रदेश में भी बी.एस.पी. ने अकेले अपने बलबूते पर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है, क्योंकि कांग्रेस पार्टी के नेताओं के रवैये से लगता है कि वे लोग बीजेपी को सत्ता से हटाने के लिये गंभीर होने के बजाय, बी.एस.पी. को ही खत्म करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं.

बसपा प्रमुख ने साफ किया कि बी.एस.पी. ने व्यापक देशहित को ध्यान में रखकर व बीजेपी जैसी घोर जातिवादी व साम्प्रदायिक पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिये हमेशा ही कांग्रेस पार्टी का साथ दिया है और इस सम्बंध में काफी बदनामी भी मोल ली है, लेकिन इसके एवज़ में बी.एस.पी. नेतृत्व का एहसानमन्द व शुक्रगुजार होने के बजाय कांग्रेस पार्टी ने बीजेपी की तरह ही, हमेशा दग़ा किया व पीठ पीछे छुरा घोंपने का काम किया है। ऐसी स्थिति में पार्टी व मूवमेंट के हित में बी.एस.पी. कांग्रेस पार्टी के साथ किसी भी स्तर पर कहीं भी मिलकर चुनाव नहीं लडे़गी.

Read it also-सपा-बसपा समर्थकों को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा का नया दांव
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

लोकसभा अध्यक्ष ही आरक्षण के प्रावधानों अवगत नहीं तो बाकी का क्या

विदित हो कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों व शिक्षा में प्रदत्त संवैधानिक आरक्षण का सवर्णों के अनेकानेक संगठनों द्वारा देश के हर कौने में हमेशा नाना प्रकार से विरोध किया जाता रहा है.  ऐसे में कुछ ही दिन पूर्व संघ् प्रमुख मोहन भागवत कहते हैं, ‘सामाजिक विषमता हटाने के लिए संविधान के तहत सभी प्रकार के आरक्षण को संघ का समर्थन है…और रहेगा. उनका कहना है कि आरक्षण नहीं, बल्कि आरक्षण की राजनीति समस्या है. ऐतिहासिक – सामाजिक कारणों से समाज का एक अंग पीछे है. बराबरी तब आएगी, जब जो लोग ऊपर हैं, वो झुकेंगे. समाज के सभी अंगों को बराबरी में लाने के लिए आरक्षण जरूरी है. हजार वर्ष से यह स्थिति है कि हमने समाज के एक अंग को विफल बना दिया है. जरूरी है कि जो ऊपर हैं वह नीचे झुकें और जो नीचे हैं वे एड़ियां उठाकर ऊपर हाथ से हाथ मिलाएं. इस तरह जो गड्ढे में गिरे हैं उन्हें ऊपर लाएंगे. समाज को आरक्षण पर इस मानसिकता से विचार करना चाहिए. सामाजिक कारणों से एक वर्ग को हमने निर्बल बना दिया. स्वस्थ समाज के लिए एक हजार साल तक झुकना कोई महंगा सौदा नहीं है. समाज की स्वस्थता का प्रश्न है, सबको साथ चलना चाहिए.’..
भागवत जी के इस कथन को पढ़ने के बाद तो जैसे लगा कि संघ भारत का सबसे आदर्श संगठन है, किंतु संघ की कथनी और करनी में जमीन और आसमान का अंतर है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आरक्षण के विरोध में जितने भी आन्दोलन हो रहे हैं अथवा किए जाए जा रहे हैं, सब के सब संघ और सत्ता द्वारा प्रायोजित ही लगते हैं… राजनीतिक लाभ लेने के लिए इन आन्दोलनों के पीछे विपक्षी दलों का हाथ भी हो सकता, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता.
आर एस एस और भाजपा की नीयत और निति में वैसे तो अंतर नहीं है क्योंकि आर एस एस भाजपा की पैत्रिक संस्था है। किंतु एक दूसरे को अलग-अलग दिखाने के प्रयोग हमेशा करते रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण ये कि जब आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत  अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों व शिक्षा में प्रदत्त संवैधानिक आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं तो भाजपा सरकार में लोकसभा में अध्यक्ष पर विराजमाज माननीय सुमित्रा महाजन आरक्षण का विरोध कर रहीं हैं। हिन्दी न्यूज – 01.0.2018 के माध्यम से यह जान पड़ा है कि सुमित्रा जी ने कहा है कि डा. आंबेडकर भी सिर्फ 10 साल के लिए आरक्षण चाहते थे. सुमित्रा महाजन ने पार्लियामेंट की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि संसद भी आरक्षण को सिर्फ आगे बढ़ाता रहा. हर बार दस साल के लिए आरक्षण बढ़ा दिया जाता रहा है. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सवाल किया है कि क्या शिक्षा और नौकरियों में हमेशा के लिए आरक्षण दिया जाना ठीक है?  उन्होंने कहा, “बी आर आंबेडकर भी केवल 10 साल के लिए आरक्षण चाहते थे.” देश को आगे बढ़ाने और सामाजिक समरसता के लिए उन्होंने बी  आर आंबेडकर के पदचिह्नों पर चलने का आह्वान करते हुए कहा, “जब तक हम देशभक्ति की भावना को नहीं बढ़ायेंगे तब तक देश का विकास संभव नहीं है.” यहाँ सुमित्रा जी को यह जानने की खासी जरूरत है कि डा. अम्बेडकर ने ‘सामाजिक समरसता’ की बात कभी भी नहीं अपितु ‘सामाजिक समानता’ की बात थी।
सुमित्रा महाजन ने पार्लियामेंट की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि संसद भी आरक्षण को सिर्फ आगे बढ़ाता रहा. हर बार दस साल के लिए आरक्षण बढ़ा दिया गया. एक बार तो इसे 20 साल के लिए आगे बढ़ा दिया गया, आखिर ऐसा कब तक चलेगा. इसे आगे बढ़ाते रहने के पीछे क्या सोच है? उन्होंने कहा, “हमारे लिए सभी धर्म समान हैं. आज देश और समाज को तोड़ने वाली ताकतें सक्रिय हैं. सरल स्वभाव वाले आदिवासियों का धर्म परिवर्तन किया गया. लेकिन, हमारी सरकार ने धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाया है.”  इससे पहले उन्होंने कहा था कि आरक्षण को लेकर सभी दलों को मिलकर विचार विमर्श करना चाहिए.
मैं विनम्र भाव से सुमित्रा महाजन जी को अवगत कराना चाहता हूँ कि संविधान के तहत अनुसूचित/अनुसूचित जनजातियों को नौकरियों में प्रदत्त आरक्षण की कोई नियत समय सीमा नहीं है. हाँ! संविधान के तहत अनुसूचित/अनुसूचित जनजातियों को राजनीति में प्रदत्त आरक्षण की समय सीमा जरूर दस वर्ष थी. इस समय सीमा के बाद इसे भी समाप्त करने की व्यवस्था नहीं है, अपितु इसे जारी रखने के लिए समीक्षा करने का प्रावधान है जिसके आधार पर वर्चस्वशाली राजनीतिक दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए इसे निरंतर बढ़ाते आ रहे हैं.
अफसोस कि बात तो ये है देश की लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन जैसे विद्वान लोग भी यदि तथ्यों की जानकारी किए बिना ही ऐसे-वैसे भ्रामक बयान देकर जनता को गुमराह करने का काम करते हैं तो देश की बाकी जनता क्या करेगी. उन्हें मालूम होना चाहिए कि संविधान के तहत अनुसूचित/अनुसूचित जनजातियों को नौकरियों में आरक्षण की प्रदत्त व्यवस्था इन लोगों की गरीबी हटाने के लिए नहीं अपितु शासन-प्रशासन में समुचित भागीदारी के भाव से की गई थी. संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान भी समाविष्टश किए गए हैं जिससे कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोग राष्ट्रा की मुख्या धारा से जुड़ने में समर्थ हो सकें. भारतीय समाज में उसी सम्मान और समानता के साथ रह सकें जैसे कि समाज के अन्य संप्रभु समाज जी रहा है.
इन्हें जान लेना चाहिए कि संविधान का अनुच्छे द 46 प्रावधान करता है कि राज्यत समाज के कमजोर वर्गों में शैक्षणिक और आर्थिक हितों विशेषत: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का विशेष ध्यारन रखेगा और उन्हेंक सामाजिक अन्यावय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित रखेगा. शैक्षणिक संस्थाजनों में आरक्षण का प्रावधान अनुच्छे्द 15(4) में किया गया है जबकि पदों एवं सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान संविधान के अनुच्छे्द 16(4), 16(4क) और 16(4ख) में किया गया है. विभिन्न् क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के हितों एवं अधिकारों को संरक्षण एवं उन्न(त करने के लिए संविधान में कुछ अन्या प्रावधान भी समाविष्टं किए गए हैं जिससे कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोग राष्ट्र  की मुख्यय धारा से जुड़ने में समर्थ हो सके. भारतीय समाज में उसी सम्मान और समानता के साथ रह सकें जैसे कि समाज के अन्य संप्रभु समाज जी रहा है.
किंतु क्या ऐसा आजतक संभव हो पाया है? सच तो ये है कि आज तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को नौकरियों में प्रदत्त आरक्षण का एक बड़ा भाग रिक्त ही पड़ा है. यहाँ यह समझने की जरूरत है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों को नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था केवल  आर्थिक अवस्था को सुधारने भर के लिए नहीं की गई थी अपितु जाति प्रतिशत के आधार पर समाज और शासन में भागीदारी के लिए की गई थी. संविधान के अनुच्छेपद 23 के तहत और भी जन हितकारी प्रावधान किए गए, जिनका यहाँ उल्लेख करना विषयांतर ही कहा जाएगा. गौरतलब है कि संविधान के 117वें संविधान संशोधन के तहत समाज के एस सी और एस टी को सरकारी नौकरियों में पदोन्नत्ति में आरक्षण की वकालत की गई किंतु सरकारी नौकरियों में पदोन्नत्ति  की बात तो छोड़िए, उच्च शिक्षा तक में आरक्षण पर छुरी चलती जा रही है. वैसे भी सरकारी नौकरिय़ां तो ना के बराबर रह गई हैं.
ज्ञात हो कि निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. ऐसे में भाजपा के शीर्ष नेता सुब्रहमनियम स्वामी का यह कहना, ‘सरकारी नौकरियों में एस सी और एस टी को मिलने वाले आरक्षण के नियमों को इतना शिथिल कर दिया जाएगा कि आरक्षण को किसी भी नीति के तहत समाप्त करने की जरूरत ही नहीं होगी, धीरे-धीरे स्वत: ही शिथिल हो जाएगा.’…आजकल यह सच होता नजर आ रहा है. इस पर भी दलित समाज सामाजिक हितों को आँख दिखाकर अपने – अपने निजी हितों के लिये राजनीतिक खैमों में बँटता ही जा रहा है, जबकि जरूरत तो सामाजिक और राजनीतिक पटल पर एक होने की है. और इस सबके लिए दलित समाज का तथाकथित बुद्धिजीवी और राजनीतिक वर्ग ही जिम्मेवार है.
हाल के दिनों में ही नहीं दसकों से विभाजनकारी ताकतें देश में आरक्षण की ‘मियाद’  को लेकर चिल्लपौं कर रही है, सुमित्रा महाजन ने बिना किसी पुष्ठ जानकारी के उसे हवा देने का ही काम किया है। यानी आरक्षण ‘मियाद’ तय करने की वकालत करने में लगी हुई हैं. उनका मानना है कि ‘पिछड़ी जातियों को दिए गए आरक्षण की कोई अवधि तय नहीं की गई. इसके कारण भारतीय समाज में संतुलन तेजी से नष्ट हो रहा है.’ वास्तव में यह उन लोगों की मानसिक बौखलाहट इसलिए है कि आज उन्होंने कभी भी कोई सार्थक दलील के हक में कोई सबूत पेश नहीं किया और न  किसी सन्दर्भ का हवाला दिया.
आज तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिससे आरक्षण सामाजिक ‘संतुलन’ को बिगाड़ने का काम करता है, बल्कि सामाजिक संतुलन बनाने में मदद करता है. आरक्षण जातिवाद भी नहीं फैलाता, क्योंकि जातिवाद तो पहले से ही भारतीय समाज में व्याप्त है. सच तो ये है आरक्षण जातीय भेदभाव और गैरबराबरी को दूर करने की दिशा में काम करता है. आरक्षण सैकड़ों वर्षो से वंचित रहे समुदायों को सामाजिक प्रतिनिधित्व प्रदान करता है और प्रशासन में कायम कुछ खास जातियों के एकाधिकार को खत्म करने की कोशिश करता है. इसलिए आरक्षण खत्म करने या फिर उसकी मियाद तय करने की बात करना न सिर्फ अतार्किक है, बल्कि समता-विरोधी भी है.
स्मरण रहे कि संविधान ने तीन समाजिक वर्गो को आरक्षण मुहैया कराया है. पहला वर्ग एससी (अनुसूचित जाति/दलित) का है, दूसरा एसटी (अनुसूचित जनजाति/आदिवासी) और तीसरा ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) है. एससी को आरक्षण इसलिए दिया गया, क्योंकि वे हमेशा छुआछूत के शिकार रहे हैं और वे हर क्षेत्र में वंचित रहे हैं. दूसरी तरफ एसटी जातीय समाज से पृथक जंगलों पहाड़ों व दुर्गम स्थानों में रहते रहे हैं, मगर वे भी एससी की ही तरह हर क्षेत्र में वंचित रहे हैं. ओबीसी सामाजिक और शैक्षणिक तौर से पिछड़े हैं. इन वर्गो के आरक्षण पर कुछ लोग सवाल तो उठाते हैं, मगर वे इस बात का जिक्र नहीं करते कि क्या वाकई में ये सामाजिक वर्ग समाज में बराबरी पा चुके हैं? वे लोग तर्क देते हैं कि ‘हर चीज की एक उम्र होती है, लेकिन आरक्षण की कोई उम्र तय नहीं की गई है.’
यदि उनके इस तर्क को मान भी लिया जाय तो क्या उन लोगों के पास इस बात का उत्तर है कि जातिवाद की मियाद क्या है. उनसे कौन पूछे कि जब हजारों-साल पुरानी जाति अभी तक भी जिंदा है तो उससे उम्र में कहीं छोटा आरक्षण के औचित्य पर क्यों सवाल उठाया जा रहा है? आरक्षण विरोधियों से यदि यह पूछ लिया जाए कि आरक्षण के प्रावधान क्या हैं?… तो शायद इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं होगा. कारण यह है कि उनका विरोध किसी ज्ञान पर आधारित नहीं, केवल पूर्वाग्रही है. उनको यह भी मालूम होना चाहिए कि देश की 85 % जनता को महज 50% आरक्षण का प्रावधान है, वो भी रुग्ण मानसिकता वाले प्रशासन द्वारा पूरा नहीं किया जाता और  शेष 15%  भारतीय सवर्ण आवादी  को 50%. फिर यहाँ मैरिट की बात को लेकर टकराव कहाँ है? एक बात और कि निजी सेक्टर में समाज के उपेक्षित वर्ग की नुमाइंदगी काफी कम है. जिसका साफ-साफ कारण है कि निजी सेक्टर में आरक्षण का प्रावधान ही लागू नहीं है.
ऐसे लोगों को यह भी जान लेना चाहिए कि आरक्षण भारतीय समाज में समता, समानता और मैत्री भाव उत्पन्न करने का एक साधन ही नहीं अपितु समाज के उपेक्षित वर्ग की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में भागीदारी निश्चित करने की एक विधि है. यह भी कि आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान के बावजूद भी तय कोटा आज तक भी पूरा नहीं किया गया है. और तो और भाजपा के शासन में बकाया पदों को निरस्त कर अनारक्षित वर्ग को दे दिया जा रहा है. अटल सरकार से पहले एस सी/ एस टी का मिलाजुला आरक्षण 22.5% था किंतु अटल जी सरकार के दौरान इसे दो हिस्सों में बांट दिया गया… यथा एस सी को 15% और एस टी को 7.5% …. इस प्रावधान से एस सी और एस टी की न भरे जाने वाली सीटें या तो खाली रहेंगी या अनारक्षित वर्ग को दे दी जाएंगी. पहले ये होता था कि यदि एस सी और एस टी की सीटे एक दूसरे को प्रदान कर दी जाती थीं…अब नहीं. आज न तो एस सी, एस टी और ओ बी सी का कोटा शतप्रतिशत पूरा किया गया है और न इसके प्रयास ही किए जा रहे है. ऐसे में आरक्षण का जारी रहना अत्यंत ही जरूरी है.
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

ईवीएम पर दिल्ली में राष्ट्रीय सेमिनार में उठे अहम सवाल

नई दिल्ली। ईवीएम को लेकर सामाजिक संगठन मैदान में आने लगे हैं. देश की राजधानी दिल्ली में इसको लेकर 3 अक्टूबर को एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया, जिसमें बुद्धीजिवियों ने ईवीएम पर गंभीर सवाल उठाया. चर्चा का विषय था, ‘मतदान के लिए ई0वी0एम0 कितना लोकतांत्रिक-कितना पारदर्शी’. इस परिचर्चा में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, कुर्बान अली, दिलीप मंडल सहित जे0एन0यू0 के प्रोफेसर और विख्यात समाजशास्त्री डॉ. विवेक कुमार और एन0आर0एम0यू0 के अध्यक्ष कामरेड हरभजन सिंह सिद्धू समेत कई अन्य बुद्विजीवियों ने भी अपने विचार व्यक्त किये.

वरिष्ठ पत्रकार एवं दलित सामाजिक कार्यकर्ता दिलीप मंडल ने कहा कि विश्व के चार देशों में ई0वी0एम0 का प्रयोग होता है. ये देश ब्राजील, वेनुजुएला, भूटान और भारत हैं. उऩ्होंने सवाल उठाया कि अमेरिका जैसे विकसित देश में बैलेट पेपर से मतदान होता है लेकिन भारत में ई0वी0एम0 से. उन्होंने कहा कि जिस देश में ई0वी0एम0 से चुनाव नहीं होता भारत वहां से ई0वी0एम0 की चिप मंगवाता है. अगर चिप में कोई गड़बड़ी नहीं हो सकती तो वो देश खुद ई.वी.एम से चुनाव क्यों नहीं करवाता. दिलीप मंडल ने कहा कि जो लोग खराब ई0वी0एम0 को सही कर सकते हैं वो लोग ई0वी0एम0 में गड़बड़ी क्यों नहीं कर सकते हैं.

बीबीसी के साथ रह चुके वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली ने बताया कि भाजपा सरकार आज ई0वी0एम0 में गड़बड़ी को नकार रही है, जबकि उसी सरकार के नेता जी0वी0एल नरसिंह राव ने ई0वी0एम0 में गड़बड़ी पर एक किताब लिखी, जिसकी भूमिका भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवानी ने लिखी थी.

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने कहा कि ई0वी0एम0 का प्रचलन सन् 1982 में शुरू हुआ. सन् 2004 में पूरे देश में ई0वी0एम0 से मतदान शुरू हुए. भाजपा ने पहले ई0वी0एम0 पर सवाल उठाए, लेकिन अब सत्ता में आने के बाद वो ई0वी0एम0 में गड़बडियों को नकार रही है. उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में भी ई0वी0एम0 में गड़बड़ियां होने के बावजूद केन्द्र सरकार, चुनाव आयोग, अधिकारी, कार्पोरेट और नेता सामूहिक स्वार्थ के चलते ई0वी0एम0 का बचाव कर रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी माना है कि ई0वी0एम0 को हैक किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि भारत सरकार द्वारा निर्वाचन का कानून बनाया गया, जिसमें मतदान की तीन प्रक्रिया स्वतंत्रता, निष्पक्षता और पारदर्शिता को निहित किया गया, लेकिन ई0वी0एम0 इन तीनों का पालन नहीं करती. ई0वी0एम0 में बटन दबाने वाले मतदाता को पता नहीं चलता कि आपने किसको वोट दिया. आप साबित नहीं कर सकते कि आपने किसको वोट दिया. केन्द्र सरकार और भाजपा बैलेट पेपर से मतदान नहीं करवाना चाहती और कहती है कि बैलेट पेपर से मतदान होने से बूथ कैप्चरिंग का खतरा है. वरिष्ठ पत्रकार ने यह भी कहा कि ई0वी0एम0 दलितों और पिछड़ो के पक्ष में नही है. ई0वी0एम0 लोकतंत्र एवं संविधान के खिलाफ है. यह मतदाताओं की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के खिलाफ है.

जे0एन0यू0 के प्रोफेसर विवेक कुमार ने कोडिंग का मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा कि इसे जनता से छिपाया नहीं जा सकता है. परिचर्चा के दौरान कामरेड हरभजन सिंह सिद्धू (अध्यक्ष NRMU) ने भी अपने विचार रखे.ई0वी0एम0 गड़बड़ी का शिकार हुई नगर निगम चुनाव प्रत्याशी अपूर्वा वर्मा ने अपने अनुभवों को साझा किया. कुल मिलाकर ई.वी.एम को लेकर हुई यह बहस काफी सार्थक रही. इसमें श्रोताओं की भी भागेदारी रही. मंच का संचालन हिन्द वॉच के संपादक सुशील स्वतंत्र ने किया.

Read it also-लाल बहादुर शास्त्री : स्वस्थ्य राजनीति का अंतिम पड़ाव
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

बसपा व जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ गठबंधन के मायने

छत्तीसगढ़। मध्यप्रदेश व राजस्थान में विगत माह में विधानसभा चुनाव संपन्न होने हैं,ऐसे में चुनावी सरगर्मी चरम पर है. इस गर्मी का ताप और तब बढ़ गई जब बसपा प्रमुख मायावती व जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष अजीत जोगी का संयुक्त रूप से हस्ताक्षर की प्रति सामने आया. इसी के साथ मायावती व जोगी ने संयुक्त रूप से छत्तीसगढ़ की आगामी विधानसभा गठबंधन में लड़ने का फैसला लिया गया. यह फैसला कांग्रेसियों सहित कम्युनिस्टों को तनिक भी रास नहीं आ रहा ह. सबकी भौंहें इस निर्णय से मायावाती पर चढ़ी है. इस निर्णय से खफा कुछ दलित बहुजनवादी कार्यकर्ताओं व समर्थकों में भी देखी जा रहीं हैं. वहीं मनुवादी चिंतकों में इस मूलनिवासी राजनीतिक गठबंधन को लेकर जलन, कपट व भारी आक्रोश देखी जा रही हैं. यह सदमें में है कहीं उनकी ब्राह्मणवादी राजनीति सिकुड़ कर बंद न हो जाए.

भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सहित भारत के अधिकतम राज्यों के सत्ता में काबिज होने के बाद, साथ ही साथ भारत की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावाती व सपा अध्यक्ष ने उत्तर प्रदेश में लोकसभा के उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन ने दलित-बहुजन राजनीति को आगे बढ़ाया दोनों ही सीटें इस गठबंधन ने अपने नाम किया. इसके बाद कर्नाटक में हुए लोकसभा चुनाव भी दलित- बहुजन राजनीति की बढ़ती हुई साख व सक्रियता को दर्शाती है. 

अब बात करते हैं छत्तीसगढ़ की आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर, लोगों में यह कयास लगाई जा रही है बसपा व जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ गठबंधन केवल कांग्रेस का ही वोट काटेंगे जिससे भाजपा को बढ़त मिलेंगी. इस तरह से भाजपा फिर यहाँ कमल खिलायंगे. लेकिन यह साधारण बोल- चाल में ही अच्छा लगता है. लेकिन मामला यह है कि पिछले विधानसभा में बसपा ने कांग्रेस के भारी वोट काटे थे जिसके परिणामस्वरूप सूबे में कमल ही खिला था. 20 से 22 सीटों पर बसपा निर्णायक भूमिका में थी. इस तरह से कांग्रेस को करारी हार का सामना करा पड़ा था.

ज्ञातव्य हो कि प्रदेश में दलित आदिवासी व पिछड़े समुदाय की बहुलता है. यहाँ सवर्ण वोटर ज्यादा मायने नहीं रखता है.यहाँ 90 विधानसभा सीटें हैं जिनमें 29 अनुसूचित जनजाति के लिए व 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. वर्तमान में 10 दलित समुदाय के लिए आरक्षित सीटों में से 01 सीट बसपा के खाते में व शेष 09 सीट बीजेपी के पास है. लेकिन तब तक जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ नामक पार्टी का उदय भी नहीं हुआ था, कांग्रेस पार्टी का बड़ा चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी कांग्रेस पार्टी में ही थे. वर्तमान में अजीत जोगीकी पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ लोगों की जुंबा पर चढ़ने लगा है. कांग्रेस व बीजेपी राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण स्थानीय मुद्दे को गौण कर देते हैं. वहीं जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ के हित के मुद्दे को यहाँ के मूलनिवासी संस्कृति,जननायक, नायिकाएँ, भाषा- बोली, परिधान आदि को विशेष ध्यान दें रहें हैं. स्थानीय मुद्दे को लेकर यह पार्टी बहुत ही तेजी से पूरे प्रदेश सहित देश भर में अपनी अलग पहचान बनाने लगे हैं. दलित वोट बसपा के खाते में व पिछड़े व आदिवासी वोट जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के खाते में जाने वाली है. विधानसभा चुनाव में यह स्थानीय मुद्दे बहुत ही अधिक महत्त्व रखते हैं. बसपा के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष व पामगढ़ के लोकप्रिय पूर्व विधायक दाऊराम रत्नाकर की फिर से वापसी हो गई है, यह प्रदेश में बसपा का प्रमुख चेहरा माना जाता है. पिछले चुनाव में बसपा से अलग होने के कारण बसपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा था. दाऊराम रत्नाकर की बसपा में वापसी ने छत्तीसगढ़ बसपा सहित बसपा के राष्ट्रीय पैनल में जान फूंक दी है. दाऊराम रत्नाकर का जांजगीर-चांपा, कोरबा, बिलासपुर इन जिलों के सतनामी वोटर सहित प्रदेश भर के सतनामियों में गहरी पैठ मानी जाती है.

बसपा व जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ इस बार निर्णायक भूमिका में हैं. सूबे में 90 सीटें हैं उनमें से 39 सीटें दलित व आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. यहाँ पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी व कांग्रेस के सीटों में मामूली अंतर ही देखने को मिलता था. उस समय तक प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नाम अजीत जोगी ही थे. बसपा व जोगी की पार्टी जैसे भी हो कम से कम सीटें भी जीतकर लाती है बावजूद इसके इनके ही सीटों के समर्थन से सूबे का मुख्यमंत्री का चेहरा साफ हो जाएगा. आगामी विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा व विपक्षी कांग्रेस के बीच विधानसभा जीती हुई सीटों का अंतर बहुत ही कम रहेंगी ऐही स्थिति में बसपा व जोगी पार्टी का गठबंधन का समर्थन ही आगामी सूबे के मुखिया सहित मंत्रिमंडल को तय करेंगे.

पिछले विधानसभा में 90 सीटों में सेसत्तारूढ़ भाजपा 49 सीटें, कांग्रेस 39 सीटें व बसपा के खाते में 01 व निर्दलीय 01सीट था. उस समय तक बसपा का स्थानीय कोई बड़ा चेहरा नहीं था साथ ही एकजुटता से चुनाव भी नहीं लड़ो गई थी. इस कारण से अनुसूचित जाति के आरक्षित सीट में 10 में 09 सीटों पर भाजपा ने कब्जा किया था. वहीं कांग्रेस को बस्तर संभाग से बढ़त मिली थी. इस बार भी दलित वोटर को बसपा व आदिवासी व पिछड़े वोटर को जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ साधने के फिराक में है. इसके लिए लोकप्रिय प्रत्याशी को यह पार्टी मैदान में उतार रही हैं. जोगी पार्टी आदिवासी क्षेत्रों में जमकर प्रचार शुरू कर दी है. आदिवासियों में पिछड़ों में जोगी की अच्छी पकड़ मानी जाती है. जिसका फायदा इस बार इस गठबंधन को मिलने वाली है.

जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ ने किसानों के लिए धान का समर्थन मूल्य बढ़ाने, किसानों के लिए बिजली बिल माफ करने सहित किसानों को कर्ज में छूट संबंधी गाँव,गरीब व किसान की हित से जुड़ी घोषणा पत्र जारी किया है. इससे पहले भी जोगी सूबे के मुख्यमंत्री रहते हुए गाँव, गरीब किसान के साथ ही दलित, आदिवासी व पिछड़े के पक्ष में अनेकों काम किए हैं जो कि आज भी लोगों को मुंह जुबानी याद हैं. जिसका फायदा निश्चित रूप से जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ व बहुजन समाज पार्टी को अवश्य मिलेगा.

डॉ. विशाल नंदेश्वर

Read it also-भाजपा को 21 तो कांग्रेस को 13 सीटों पर त्रिकोणीय संघर्ष में उलझाएगी बसपा
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

दलित दस्तक मैग्जीन का अक्टूबर 2018 अंक ऑन लाइन पढ़िए

0
दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2018 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए सांतवें साल का दुसरा अंक लेकर आए हैं. इस अंक के साथ ही दलित दस्तक ने एक नया बदलाव किया है. इसके तहत अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

ई-मैगजीन पूरा पढ़े सिर्फ 10/-रुपये के सहयोग राशि 9711666056 पर PAYTM के माध्यम से सहयोग करें

मैगजीन सब्स्क्राइब करने के लिये यहां क्लिक करें मैगजीन गैलरी देखने के लिये यहां क्लिक करें

लाल बहादुर शास्त्री : स्वस्थ्य राजनीति का अंतिम पड़ाव

अक्सर लोग अपने और अपने परिवार के बारे में सोचते हैं. परिवार के दु:ख-सुख की सीमा ही उनका कार्य-क्षेत्र होता है. कुछ जाति और वर्ग तक सोचते हैं. जहाँ हित सध जाए ठीक. और कुछ लोग राष्ट्र तक ही सोचते हैं – वह भी सत्ता की राजनीति तक. उन्हें समाज के दु:ख-सुख से कुछ लेना-देना नहीं होता. इस परिप्रेक्ष्य में लाल बहादुर शास्त्री कहीं भी नहीं ठहर पाते. उनका सम्पूर्ण जीवन अपने-पराए की भावना से मुक्त रहा. एक आदमी का चरित्र ही जिया उन्होंने. बिना लाग-लपेट की राजनीति (स्वस्थ्य राजनीति), समाज के दु:ख-सुख का अहसास और उसका निवारण ही उनकी राजनीति का हिस्सा बनी रही.

लाल बहादुर शास्त्री के प्रधान मंत्री बनने के बाद, यह चर्चा अवश्य उभरी के जनवरी 1964 में जब शास्त्री जी को, हज़रत मुहम्म्द के बाल की चोरी की आड़ में हज़रत बल दरगाह काण्ड के तहत भड़के उपद्रवों को शांत कराने के लिए, कश्मीर जाना था तो नेहरू जी ने शास्त्री जी को अपना कोट और जूते देकर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. फलत: 27 मई 1964 को नेहरू जी के निधन के उपरांत सर्वसम्मति से शास्त्री जी को प्रधान मंत्री बनाया गया था. किंतु यह एक मिथक भर लगता है. उस समय के राजनीतिक भूगोल पर शास्त्री जी जैसा बेदाग न कोई चाँद था और न ही तारा. इन्दिरा गान्धी अभी अपरिपक्व थीं. परिणामत: काँग्रेस के सामने शास्त्री जी को प्रधान मंत्री बनाने के अलावा कोई विकल्प ही न था. नेहरू जी के कोट और जूते की ओट में शास्त्री जी के उन्नत, निर्मल, गरिमामय और त्यागमय व्यक्तित्व को छिपाया नहीं जा सकता. आज कितने राजनेता हैं जो शास्त्री जी की तरह आए दिन घट रही दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी अपने सिर पर उठाकर कुर्सी का मोह छोड़ने को तैयार हैं. वे शास्त्री जी ही थे कि जिन्होंने दक्षिण-भारत में अरियालूर रेल-दुर्घटना का दायित्व अपने ऊपर लेकर मंत्री पद को त्याग दिया.

अगस्त 1962 में ‘कामराज योजना’ के तहत जब केंद्र के मंत्रियों को स्वेच्छा से अपने पद छोड़ने थे तो लाल बहादुर शास्त्री उनमें सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने तत्काल अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया था. इस त्यागमूर्ति को पदलोलुपता तनिक भी न छू सकी. फिर भी शास्त्री जी का प्रधान मंत्री बनाया जाना आश्चर्यजनक जरूर था. क्योंकि गाँधी ने नेहरू परिवार के राजकुल का पौधा बड़ी कुशलता से रोपा था. उस पौधे को किस तरह की खाद गाँधी जी ने दी, इसका अन्दाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि यह वकील परिवार कुछ वर्षों में ही राजकुल में परिवर्तित हो गया. गाँधी जी ने लगभग वंशवाद की परम्परा को ध्यान में रखा था जिसका उदाहरण शास्त्री जी की मृत्यु के बाद का राजनीतिक काल है. राजीव गाँधी के निधन के बाद का समय भी नेहरू-कुल से ही कोई प्रतिनिधि ढूँढने में ही गुजर रहा था. यह वंश परम्परा का ही परिणाम है कि आए दिन काँग्रेस के वरिष्ठ नेता अलग-अलग झुंड बनाकर सोनिया गाँधी से भेंट-वार्ता के लिए जाते रहे. जबकि वो न तो काँग्रेस से कोई सीधा सम्बन्ध रखती हैं और न ही किसी मंत्री जैसे पद पर हैं. फिर वंश-परम्परा के चलते प्रधान मंत्री से लेकर काँगेस के सभी राजनेता उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के काफी व्याकुल हैं. क्या ऐसे में शास्त्री जी का प्रधान मंत्री बनना एक अजूबा नहीं था.

आज जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व के जो राष्ट्रीय लक्ष्य व आदर्श जो भारतीयों को सामुहिक रूप से स्फूरित करते थे, जैसे बिखर गए हैं. राष्ट्रीय स्वाभिमान जैसे विलुप्त हो गया है. भारतीय राजनीति का शील भंग हो गया है. आस्थाएं दगमगा रही हैं. सामाजिक न्याय का लक्ष्य मात्र भाषणों और कागजों में सिमट कर रह गया है. नीति और नीयत सब डगमगा रहे हैं. भारतीयता जैसे नैपथ्य में चली गई है. धर्मान्धता , पदलोलुपता और विलासता राजनीतिक मंच पर निर्वसन थिरक रही है. समाज में हिंसा और भ्रष्टाचार निरंतर निर्बाध गति से बढ़ता जा रहा है. लोगों की मानसिकता हिंसक होती जा रही है. राजनैतिक नारे दिशाहीनता ही पैदा कर रहे हैं. जाति-प्रथा के पोषक ही जातियता बढ़ने का शोर अलापने लगे हैं. इस सबका कारण यह कतई नहीं है कि हमारे नेता अज्ञानी हैं. उनकी दुर्बलता महज इतनी है कि वो केवल सत्ता की भाषा को ज्यादा अहमियत देते हैं. जनता के दुख-सुख से उन्हें कोई सरोकार नहीं है. वस्तुत: गाँधी ने अपने नेतृत्व में काँग्रेस को जिस ढाँचे मे ढाला, उससे जनता से सीधे सम्पर्क का दायित्व सर्वोच्च नेता के हाथ में चला गया जो जनता से अपनी बात तो करते हैं, उनकी सुनते भी हैं. आज मंत्री तो क्या उनके चमचों की संतानें/साथी/सहयोगी स्वयं को ही मंत्री जानकर व्यवहार करते हैं. ऐसे में शास्त्री जी के विचारों की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है. शास्त्री जी जमीन से जुड़े व्यक्ति थे. जमीन के दुख-दर्द को समझते थे. उनके जीवन की अनेक घटनाएं ऐसी हैं जो उनके व्यक्तित्व की गरिमा को न केवल व्यक्त करती हैं अपितु आज की राजनीति के गिरते आचरण का खुलासा करती हैं.

उत्तर प्रदेश में जब वे गृह मंत्री थे तब उनके घर में कूलर तक भी नहीं था, उन्होंने अपने परिवार जनों को समझाते हुए कहा था – “देखो! तुम देश के अति साधारण नागरिक हो. फिर यह भी संभव है कि मैं आज मंत्री हूँ, शायद कल न रहूँ. तब तुम लोगों को कूलर का अभाव और भी कष्टदायक होगा. फिर यह भी बताओ कि क्या मैं देश के सभी गरीबों के घर कूलर लगवा सकूँगा.”

उनके प्रधानमंत्री काल में उनके परिवार के एक बच्चे द्वारा फार्म प्राप्त करने के लिए सामान्य परिवार के बच्चों की पंक्ति में खड़े होना, अपने आप में एक अजब सी दास्तान है. किंतु है सत्य. अध्यापक के पूछने पर उस बच्चे का जवाब भी उदाहरणीय है. बालक ने कहा था – मैंने तो नियम का ही पालन किया है. जब सब जने पंक्ति में खड़े हैं तो मुझे भी पंक्ति में ही खड़ा होना चाहिए. इसी प्रकार की एक और घटना है कि शास्त्री जी मंत्री रहते हुए महीने के अंत में उनके नाती ने उनसे नई स्लेट लाने के लिए कहा. शास्त्री जी का उत्तर था कि दो-चार दिन की और प्रतीक्षा करो, महीने के आखरी दिन हैं, तनख्वाह मिलने पर स्लेट दिला दूँगा.

इन संदर्भों में, एक गरीब का बेटा अंत तक गरीब ही बना रहा. शास्त्री जी कहा करते थे कि जब तक देश उन्नति नहीं कर लेता, तब तक अपनी गरीबी का भी परित्याग नहीं करूँगा. वे भगवान बुद्ध से अति प्रभावित थे. वे कहते थे कि भगवान बुद्ध ने भी कहा था कि जब तक सम्पूर्ण मानवता को मुक्ति नहीं मिल जाती, तब तक मैं इस रसहीन मुक्ति को लेकर क्या करूँगा. शास्त्री जी के संदेश में सबके मन की बात का संप्रेषण होता था, तब ही उनका ‘जय किसान’, ‘जय जवान’ का नारा इतना फला-फूला कि जनता, किसान और भारतीय जवानों के सामने वर्ष 1965 के युद्ध में पाकिस्तान को पराजय का मुँह देखना पड़ा. शांति-वार्ता के दौरान उनका यह कहना कि देश का साधारण व्यक्ति युद्ध नहीं करना चाहता, वह शांति चाहता है. ताशकन्द समझौते का कारण बना. समझौता सम्मानपूर्वक सम्पन्न हो गया. किंतु दुख तो इस बात का है कि जब शांति-वार्ता के बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा और सदैव के चिरनिद्रा में चले गए.

आज जबकि देश के छोटे-बड़े नेता भ्रष्टाचार की लपेट में हैं – चाहे बोफोर्स तोप का मामला हो या हर्षद मेहता को शेयर काण्ड, चाहे चीनी घोटाले का मामला हो या मुलायम सिंह यादव द्वारा बन्दरबाँट, धार्मिक उन्माद का मामला हो , या मंदिर-मस्जिद का मामला, या फिर सामाजिक न्याय के मार्ग में विवाद हो, पुरातन संस्कृति का विध्न हो या फिर सत्ता-प्राप्ति के लिए मुखौटा राजनीति, श्रृषिकेश के शंकराचार्य द्वारा यौन-शोषण का मामला हो या चन्द्रा स्वामी की राजनीतिक दलाली का किस्सा हो, सबके सब में सत्ताधीशों के होने का जग-जाहिर संकेत हैं. मान-मर्यादा चली जाए, पर सत्ता पर कब्जा बना रहे, यह है आज की राजनीति का चरित्र. दिन को रात कहना पड़े या रात को दिन कोई परहेज नहीं, किंतु सत्ता बनी रहे. इसे राजनीति कहने में जीभ अटकती है क्योंकि राजनीति तो किसी भी राज्य/देश की वह नीति होती है जिसके अनुसार प्रजा का शासन तथा पालन और अन्य राज्यों से व्यवहार होता है. इसे कूटनीति (किटिल नीति) कहना ज्यादा उचित होगा.

यूँ तो भारत के कई नेता आजादी से पूर्व ही राजनीति त्याग कर कूटनीति में लिप्त हो गए थे किंतु भारत को आजाद करवाकर सत्ताधीश बनाने की ललक में संगठित थे. वैसे भी उनके सामने मसला मात्र भारत की आजादी का था, सत्ता-सुख भोगने का नहीं. फिर भी राजनीतिक गलियारों में तत्कालीन राजनीति की स्थिति अन्धों में काणें सरदार जैसी थी. उस समय कुछ तो ठीक था ही, किंतु आज बाप-रे-बाप, किसी को कुर्सी के अलावा कुछ नजर ही नहीं आता. ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि लाल बहादुर शास्त्री के निधन के साथ ही स्वस्थ्य राजनीति का पटाक्षेप हो गया. लगता है उनका दौर स्वस्थ्य राजनीति का अंतिम पड़ाव था. Read it also-सियासत / सीट बंटवारे के बाद बसपा ने बदली रणनीति

  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 
 

कल 3 अक्टूबर को EVM पर बड़ी बहस 

नई दिल्ली। ईवीएम सही या गलत, इसको लेकर छिड़ी बहस अब राजनीतिक गलियारे से निकल कर आम जनता और देश के बुद्धिजीवी और चिंतकों तक आ गई है. इसी मुद्दे पर 3 अक्टूबर को देश की राजधानी दिल्ली में एक परिचर्चा आयोजित की गई है. परिचर्चा का विषय है-“मतदान के लिए EVM कितना लोकतांत्रिक- कितना पारदर्शी?”

यह परिचर्चा कंस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हॉल में दोपहर 2 बजे से होगा. इस कार्यक्रम में वक्ता के रूप में मीडिया जगत के दिग्गज पत्रकार उर्मिलेश, कुरबान अली, जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार, वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल, NRMU के प्रेसिडेंट कामरेड हरभजन सिंह सिद्धू और सुप्रीम कोर्ट के वकील मौजूद रहेंगे.

Read it also-दलितों का विरोध राष्ट्रव्यापी मुद्दा क्यों नहीं बन पाता?
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

मध्य प्रदेश से बीजेपी को हटाने के लिए साथ आईं आठ पार्टियां, कांग्रेस की नो-एंट्री

भोपाल। इस साल के अंत में मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ गठबंधन बनाने के लिए आठ राजनीतिक दलों की रविवार को भोपाल में बैठक हुई. इसमें शामिल आठों पार्टियों ने बीजेपी को सत्ता से हटाने का संकल्प लिया लेकिन कांग्रेस को भी इस गठबंधन में शामिल कर महागठबंधन बनाने के मुद्दे पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ने विरोध किया. इस कारण कांग्रेस को इस गठबंधन में मौका नहीं मिल सका.

लोकतांत्रिक जनता दल के सलाहकार गोविन्द यादव ने बताया, ‘संवैधानिक लोकतंत्र बचाने एवं वैकल्पिक राजनीति की खातिर मध्यप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए गैर-बीजेपी राजनैतिक दलों के गठबंधन निर्माण के लिए आठ विभिन्न राजनैतिक दलों की बैठक भोपाल में हुई. इस बैठक में लोकतांत्रिक जनता दल, सीपीआई, सीपीएम, बहुजन संघर्ष दल, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय समानता दल और प्रजातांत्रिक समाधान पार्टी शामिल हुई.’

सीपीआई और सीपीएम ने किया कांग्रेस का विरोध

यादव ने बताया कि सीपीआई और सीपीएम ने संपूर्ण विपक्षी एकता के लिए गैर बीजेपी गठबंधन निर्माण पर सैद्धांतिक सहमति व्यक्त की लेकिन कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व पूर्ण गठबंधन नहीं करने का फैसला लिया. शेष अन्य दलों ने संपूर्ण विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व पूर्ण गठबंधन का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि इन आठों दलों की अगली बैठक 7 अक्टूबर को आयोजित की गई है.

बता दें कि यादव वर्तमान में लोक क्रांति अभियान के संयोजक हैं. वह मध्यप्रदेश जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. उन्होंने कहा कि बीएसपी द्वारा मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए 22 प्रत्याशियों की 20 सितंबर को की गई घोषणा के बाद यह कदम उठाया जा रहा है, ताकि विपक्षी दलों के वोटों का विखराव न हो और बीजेपी को लगातार चौथी बार सत्ता में आने से रोका जा सके.

गैर-बीजेपी वोटों के बिखराव को रोकने की कोशिश

यादव ने बताया कि बीएसपी ने मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान गुरुवार को कर दिया और वह सभी 230 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेगी इसलिए हम गैर बीजेपी वोटों के बिखराव को रोकने के लिए गठबंधन करेंगे, ताकि बीजेपी को हराया जा सके. उन्होंने कहा कि विधानसभा के चुनाव के लिए अब बहुत कम समय बचा है. लंबे समय से महागठबंधन के लिए प्रयास कर रही कांग्रेस अब तक सफल नहीं हो पाई है इसलिए हम इस महागठबंधन के लिए प्रयास कर रहे हैं.

Read it also-मायावती ने फेरा कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं। 

SBI ने ATM से कैश निकालने की दैनिक सीमा में की बड़ी कटौती

0

नई दिल्ली। देश के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) ने एटीएम से कैश निकालने के नियमों में कुछ बड़े बदलाव किए हैं. SBI ने कैश निकालने की दैनिक सीमा में बड़ी करने का फैसला किया है. SBI के ग्राहक 31 अक्टूबर से एक दिन में अधिकतम 20 हजार रुपये कैश ही एटीएम से निकाल सकेंगे, अभी तक यह सीमा 40 हजार रुपये थी.

SBI ने ब्रान्चों में भेजे आदेश दिया है कि एटीएम ट्रांजेक्शन में धोखाधड़ी की बढ़ती शिकायतों को देखते हुए और डिजिटल-कैशलेस ट्रांजेक्शन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कैश निकासी सीमा को घटाने का फैसला किया गया है. ‘Classic’ और ‘Maestro’ प्लेटफॉर्म पर जारी डेबिट कार्ड से निकासी सीमा को घटाया गया है.

कैश निकासी सीमा में कटौती फेस्टिवल सीजन से ठीक पहले हुई है. सरकार द्वारा डिजिटल ट्रांजेक्शन पर जोर दिए जाने के बावजूद कैश की डिमांड अधिक बनी हुई है. कुछ अनुमानों के मुताबिक बाजार में कैश फ्लो नोटबंदी से पहले के स्तर तक पहुंच गया है.

पिछले कुछ वर्षों में कई मामलों में पाया गया है कि कार्ड का क्लोन बनाने वाले धोखेबाज आम बैंक कस्टमर्स के डेबिट कार्ड का PIN चोरी से लगाए गए कैमरों और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज से पता कर लेते हैं.

Read it aslo-मायावती ने फेरा कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी
  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये आप हमें paytm (9711666056) कर सकतें हैं।