संसद का सेंट्रल हॉल आजादी के बाद से ही कई खास लम्हों का गवाह रहा है। इसी कड़ी में 25 जुलाई को एक और खास पल उसकी दीवारों में दर्ज हो गया। देश की 15वीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद सभी को जोहार कर सबको चौंका दिया। नई राष्ट्रपति के ये कहते ही संसद का सेंट्रल हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। मुर्मू को देश के चीफ जस्टिस एनवी रमन ने शपथ दिलाई। मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज जिले से देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली पहली आदिवासी महिला बनी हैं।
मुर्मू ने शपथ लेने के बाद संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में दोनों सदनों के नेताओं को संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने जैसे ही जोहार शब्द कहा, पूरा कक्ष तालियों की गड़गड़ागट से गूंज उठा। केंद्रीय मंत्री इरानी तो काफी खुश दिख रही थीं। दरअसल, महिला राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने की घोषणा के बाद ही इरानी ने इसका जोरदार स्वागत किया था। जैसे ही मुर्मू ने जोहार शब्द बोला तो इरानी बेहद खुश दिखीं। दरअसल, जोहार का मतलब नमस्कार होता है। आदिवासी इलाकों में इसका इस्तेमाल होता है।
मुर्मू के जय जोहरा शब्द ने कई संदेश दे दिए हैं। देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति बनने का गौरव पाने वालीं मुर्मू ने जोहार शब्द से उस तबके को भी जोड़ा जिनसे उनका ताल्लुक है।
देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली द्रौपदी मुर्मू की सादगी उनके राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बाद भी जारी रही। आज जब वह देश की सर्वोच्च पद की शपथ लेने पहुंची तो उनकी सादगी सबको भा गई। संथाली साड़ी, सफेद हवाई चप्पल में संसद के केंद्रीय कक्ष में उन्होंने देश के 15वें राष्ट्रपति की शपथ ली। ओडिशा के मयूरभंज जिले से रायसीना हिल्स की सबसे बड़ी इमारत में कदम रखने वालीं मुर्मू की सरलता में कोई कमी नहीं आई।
द्रौपदी मुर्मू का जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा के मयूरभंज जिले के बैदापोसी गांव में एक संथाल परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बिरंचि नारायण टुडु है। उनके दादा और उनके पिता दोनों ही उनके गाँव के प्रधान रहे। मुर्मू मयूरभंज जिले की कुसुमी तहसील के गांव उपरबेड़ा में स्थित एक स्कूल से पढ़ी हैं। यह गांव दिल्ली से लगभग 2000 किमी और ओडिशा के भुवनेश्वर से 313 किमी दूर है। उन्होंने श्याम चरण मुर्मू से विवाह किया था। अपने पति और दो बेटों के निधन के बाद द्रौपदी मुर्मू ने अपने घर में ही स्कूल खोल दिया, जहां वह बच्चों को पढ़ाती थीं। उस बोर्डिंग स्कूल में आज भी बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं। उनकी एकमात्र जीवित संतान उनकी पुत्री विवाहिता हैं और भुवनेश्वर में रहती हैं।
आदिवासी समाज से आने वाली द्रौपदी मुर्मू देश की पंद्रहवीं राष्ट्रपति निर्वाचित हो गई हैं। चुनाव आयोग ने उन्हें जीत का सर्टिफिकेट जारी कर दिया है। इसके साथ उन्हें चारों ओर से बधाई मिलने लगी है। उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री रह चुकी बसपा प्रमुख मायावती ने द्रौपदी मुर्मू को बधाई दी है। बहनजी ने ट्विट कर लिखा-
“शोषित व अति-पिछड़े आदिवासी समाज की महिला द्रौपदी मुर्मू को देश के राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में भारी मतों से आज निर्वाचित होने पर उन्हें हार्दिक बधाई एवं ढेरों शुभकामनाएं। वे एक कुशल व सफल राष्ट्रपति साबित होंगी, ऐसी देश को उम्मीद। देश में एसटी वर्ग की पहली महिला राष्ट्रपति उम्मीदवार होने के नाते बीएसपी ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उनको अपना समर्थन व वोट दिया। अब सरकार संविधान की सही मंशा के हिसाब से उनके उत्तरदायित्वों को निभाने में उन्हें सहयोग करे ताकि जन अपेक्षा पूरी हो व देश का मान-सम्मान भरपूर बढ़े।
1. शोषित व अति-पिछड़े आदिवासी समाज की महिला द्रौपदी मुर्मू को देश के राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में भारी मतों से आज निर्वाचित होने पर उन्हें हार्दिक बधाई एवं ढेरों शुभकामनाएं। वे एक कुशल व सफल राष्ट्रपति साबित होंगी, ऐसी देश को उम्मीद।
आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाले सोशल एक्टिविस्ट हंसराज मीणा ने इसे संविधान का चमत्कार बताया। उन्होंने मनुस्मृति और संविधान की तुलना का भी जिक्र किया। हंसराज मीणा ने लिखा-
केवल ब्राह्मण ही मंदिर का पुजारी बन सकता है यह “मनुस्मृति” की देन है, लेकिन दलित, आदिवासी भी भारत का राष्ट्रपति बन सकता है, यह डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के “संविधान” की देन है। भारत गणराज्य की प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने पर श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी, को बधाई। जोहार। जय भीम।
आदिवासी समाज के एक अन्य बुद्धिजीवी और सोशल एक्टिविस्ट सुनील कुमार सुमन ने उन विरोधियों को करारा जवाब दिया है, जिसमें कई लोग सोशल मीडिया पर तंज कसते हुए यह सवाल उठा रहे थे कि द्रौपदी मुर्मू भी आदिवासियों के लिए उतनी ही लाभकारी होंगी जितने दलितो के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हुए थे। सुमन ने पहले विरोधियों की लाइन लिखी है, फिर उसका जवाब दिया है।
”आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में कोई अंतर नहीं आएगा !”-तो क्या गैर-आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में उजाला आ जाएगा?
सत्ता पक्ष की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू भारत की 15वीं राष्ट्रपति होंगी। मुर्मू की जीत इस मायने में भी अहम और ऐतिहासिक है क्योंकि वह भारत की पहली ऐसी राष्ट्रपति बन गई हैं, जो आदिवासी समाज से हैं। मुर्मू 64 फीसदी वोट लेकर जीतीं। द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति चुनाव में कुल 6,76,803 मतों के साथ जीत दर्ज की, जो कुल वोट का 64.03 फीसदी था। वहीं उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाले विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को कुल 3,80,177 वोट मिले। जोकि कुल वोट का 36 फीसदी था। आपको बता दें कि किसी भी उम्मीदवार को जीत दर्ज करने के लिए कुल 5,28,491 वोटों की जरूरत थी, जिसे मुर्मू ने आसानी से पार कर लिया। मुर्मू की इस जीत पर देश भर से उन्हें बधाई मिल रही है। वह 25 जुलाई को शपथ लेंगी।
मुर्मू ने ओडिशा में पार्षद के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरु किया था। वह 1997 में रायरंगपुर अधिसूचित क्षेत्र परिषद में पार्षद बनीं। साल 2000 से 2004 तक वह ओडिशा की बीजद-बीजेपी गठबंधन सरकार में मंत्री रहीं। वह झारखंड की राज्यपाल भी रह चुकी हैं। 2015 में उन्हें झारखंड का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इस पद पर वह 2021 तक रहीं। राष्ट्रपति चुनाव में वह भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की उम्मीदवार थीं।
राष्ट्रपति पद के लिए 21 जून को राजग उम्मीदवार के रूप में नामित होने के बाद से, उन्होंने कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया। उनकी जीत निश्चित लग रही थी और बीजू जनता दल (बीजद), शिवसेना, झारखंड मुक्ति मोर्चा, वाईएसआर कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) जैसे विपक्षी दलों के समर्थन से उनका पक्ष मजबूत माना जा रहा था। मुर्मू ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए पूरे देश में प्रचार किया। सबको आभास था कि मुर्मू देश की अगली राष्ट्रपति बनने वाली हैं, इसको देखते हुए राज्य की राजधानियों में उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया था।
हालांकि द्रौपदी मुर्मू के रुप में एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति के उम्मीदवार को तौर पर आगे करने को विपक्षी दल और कई संगठन एवं बुद्धिजीवि भाजपा की राजनीति बता रहे थे। तमाम लोग इसकी अपने तरीके से व्याख्या कर रहा था। इस पर आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाले बुद्धिजीवी एवं हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में असिस्टेंट प्रोफेसर सुनील कुमार ‘सुमन’ ने सटीक टिप्पणी की थी। ”आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में कोई अंतर नहीं आएगा!” के तमाम लोगों के बयान पर उन्होंने उल्टा सवाल खड़ा किया कि, “तो क्या गैर-आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में उजाला आ जाएगा?” फिलहाल देश को नया राष्ट्रपति मिल गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज के सबसे आखिरी छोड़ पर खड़े आदिवासी समाज से आने वाली राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अपने कार्यकाल में वंचितों और शोषितों के हितों की रक्षा करेंगी।
गुजरात के बनासकांठा की एक पंचायत का फरमान 30 जून को वायरल हुआ है। इस फरमान में कहा गया है कि मुस्लिम फेरीवालों से सामान नहीं खरीदना है। जो ऐसा नहीं करेगा उस पर 5100 रुपये जुर्माना लगाया जाएगा। हालांकि इस मामले में पुलिस कार्रवाई करने की बात कह रही है।
घटना गुजरात के बनासकांठा वाघासन समूह की ग्राम पंचायत का है। पंचायत के लेटरपैड पर जारी इस फरमान में मुस्लिम फेरीवालों से सामान खरीदने पर जुर्माने की बात कही गईं थी। इसमें कहा गया हे कि वाघासन गांव के दुकानदारों को उदयपुर में टेलर की हत्या को देखते हुए मुस्लिम समुदाय के फेरीवालों से सामान नहीं खरीदना चाहिए। इसे पंचायत के लेटरपैड पर जारी किया गया है और इस पर पूर्व सरपंच माफीबेन पटेल के हस्ताक्षर और मोहर है। इस लेटर में कहा गया है-
‘अगर किसी दुकानदार को मुस्लिम व्यापारियों से सामान लेते हुए देखा गया तो उस पर 5100 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा और वो पैसा गोशाला को दिया जाएगा।’
ये लेटर जब सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ तो प्रशासन ने इस पर संज्ञान लिया। दूसरी ओर बनासकांठा प्रशासन की ओर से 2 जुलाई को कहा गया था कि वाघासन समूह की ग्राम पंचायत का वायरल हो रहा लेटर पैड आधिकारिक नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक, बनासकांठा जिला विकास अधिकारी स्वप्निल खरे ने कहा कि लेटर पैड पर जिस व्यक्ति ने हस्ताक्षर हैं, उसके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि सरपंच पद अभी खाली है। इसके लिए चुनाव होना है और फिलहाल, पंचायत वर्तमान में एक प्रशासक के अधीन है। खरे ने कहा, इस पर प्रशासक ने एक स्पष्टीकरण जारी किया है। इसमें कहा गया है कि (पहले) जारी किया गया पत्र निराधार है और किसी को भी इसका पालन करने की जरुरत नहीं है। अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की बात भी कहीं गईं थी।
उसी तरह की ऐक और घटना गुजरात के बनासकांठा के सेद्रासना गांव 3 जुलाई को सामने आई है। सेद्रासना गांव में पोस्टर लगाए गए हैं, जिसमें कुछ पोस्टरों की तस्वीरें भी सामने आई हैं जिसमे लिखा गया है-
‘व्यापार के लिए मुस्लिम समुदाय के लोगों को इस गांव में आना सख्त मना हे,हिंदू राष्ट्र का सेद्रासण गांव.
लेकिन 4 जुलाई को सेद्रासण गांव के सरपंच ने कहा कि पोस्टर और बैनर रात को दस बजे के बाद अपरिचित व्यक्ति द्वारा लगाया गया है क्योंकि रात दस बजे तक वो गांव में मौजूद थे, तब तक कुछ भी नहीं था। सुबह मुझे ख़बर मिलते ही मैंने पोस्टर और बैनर हटा दिया है। अब आगे कोई इश्यू ना बने इसके लिए में भी चिंतित हूं।
लेकिन जब सोशल मीडिया पर वायरल हुई तस्वीरों के बारे में सरपंच से सवाल किया गया तो उन्होंने उसपर कोई जवाब नहीं दिया। इन दोनों दोनो घटना पर प्रशासन कार्रवाई करने की बात कर रहा है लेकिन अभी तक इस संबध में कोई भी कारवाई नहीं हुई है।
युवा आदिवासी लेखक-विचारक एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’ को दलित-आदिवासी एवं पिछड़े समाज के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए ‘‘हरिचाँद ठाकुर-गुरुचाँद ठाकुर सम्मान’’ से सम्मानित किया गया है। हावड़ा, पश्चिम बंगाल स्थित रामगोपाल मंच सभागार में मूलनिवासी कर्मचारी कल्याण महासंघ (मक्कम) की प. बंगाल ईकाई,बाबासाहेब डॉ. बी.आर.अम्बेडकर मिशन, हुगली, भारतीय दलित साहित्यकार मंच (प.बं.) तथापश्चिम बंगाल सफाई कर्मचारी एकता संघ द्वारा 17 जून को संयुक्त रूप से आयोजित एक भव्य अभिनंदन समारोह में डॉ सुनील को यह सम्मान प्रदान किया गया।
इस कार्यक्रम का कुशल संचालन लेखक व कवि रामजीत राम ने किया। इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित भंते रखित श्रमण, समाजसेवी शारदा प्रसाद, वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘पैरोकार’ पत्रिका के संपादक अनवर हुसैन, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के राजभाषा अधिकारी डॉ. ब्रजेश कुमार यादव, महाराजा श्रीश चंद्र कालेज के राजनीतिशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ प्रेम बहादुर मांझी, सहायक प्रोफ़ेसर एवं युवा आलोचक डॉ. कार्तिक चौधरी सहित तमाम दिग्गज मौजूद रहें। गणमान्य वक्ताओं ने डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’ के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि डॉ. सुमन की सक्रियता एवं मार्गदर्शन से बंगाल के बहुजन समाज को वैचारिक ऊर्जा व ताकत मिली। इससे हमारा बौद्धिक संवर्द्धन भी हुआ।
अपने संबोधन में डॉ सुनील कुमार ‘सुमन’ ने आयोजकों का धन्यवाद देते हुए कहा कि बंगाल के दो महापुरुषों के नाम पर स्थापित इसनअमूल्य सम्मान को हासिल करना मेरे लिए बहुत ही गौरव की बात है। इससे मेरी सामाजिक ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है। हमें ‘पे बैक टू सोसाइटी’ को लेकर लगातार सक्रिय रहना है और अपने बौद्धिक-वैचारिक कारवां को हमेशा आगे बढ़ाने का काम करते रहना है। उल्लेखनीय है कि डॉ सुनील कुमार ‘सुमन’ पिछले पाँच वर्षों से वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र प्रभारी के रूप में अपना योगदान दे रहे थे। ‘दलित दस्तक’ परिवार भी सुनील कुमार ‘सुमन’ को बधाई देता है।
चुनाव आयोग ने देश में नए राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर तारीख का एलान कर दिया है। 18 जुलाई को देश के 15वें राष्ट्रपति के लिए मतदान होगा और 21 जुलाई को देश को नया राष्ट्रपति मिल जाएगा। लेकिन क्या आपको पता है कि भारत का राष्ट्रपति कैसे चुना जाता है? इस वीडियो में हम आपको राष्ट्रपति के चुने जाने की प्रक्रिया, उनके अधिकार और योग्यता सहित तमाम जानकारी देंगे। साथ ही यह भी बताएंगे कि राष्ट्रपति चुनाव में सांसद और विधायक का क्या महत्व होता है।
कैसे होता है राष्ट्रपति का चुनाव
राष्ट्रपति का निर्वाचन इलेक्टोरल कॉलेज के द्वारा किया जाता है। इसके सदस्य लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य के अलावा सभी विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। यानी राष्ट्रपति के मतदान में लोकसभा सांसद, राज्यसभा सांसद और राज्यों के विधायकों को वोट करने का अधिकार होता है। ध्यान रहे कि राष्ट्रपति चुनाव में एमएलसी यानी विधान परिषद के सदस्यों और लोकसभा एवं राज्यसभा में नामित सदस्यों को वोट का अधिकार नहीं होता।
हर राज्य के विधायकों की वैल्यू अलग-अलग होती है
दिलचस्प बात यह है कि इन सभी के मतों का मूल्य अलग-अलग होता है। लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों के वोट का मूल्य एक समान होता है और विधानसभा के सदस्यों का अलग होता है। विधायकों के वोटों का मूल्य राज्य की जनसंख्या के आधार पर तय होता है।
वर्ष 1952 में हुए पहले राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक संसद सदस्य के मत का मूल्य 494 था। तब से अलग-अलग परिस्थियों में यह बढ़ता रहा। इस चुनाव में एक सांसद के वोटों की वैल्यू 700 होगी। इसके पहले यह 708 था, लेकिन जम्मू कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश होने से और वहां विधायक नहीं होने से वोटों का मूल्य घट गया है। एक समय यह 702 भी रह चुका है।
जहां तक विधायकों के वोटों के मूल्य का सवाल है तो यह प्रदेश की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित होता है। जैसे देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट का मूल्य 208 है। इसी तरह बिहार के एक विधायक के वोट की वैल्यू 173 है। तो सबसे कम जनसंख्या वाले प्रदेश सिक्किम के वोट का मूल्य मात्र सात। यानी की अगर यूपी का एक विधायक वोट डालेगा तो उसकी गिनती सीधे 208 होगी और वहीं सिक्किम का एक विधायक वोट डालेगा तो उसकी गिनी सात होगी। इसी आधार पर आप राज्य के विधायकों के मूल्य का आंकलन कर सकते हैं। मतदान के वक्त बैलेट पेपर पर पहली, दूसरी और तीसरी पसंद का जिक्र किया जाता है। इसके बाद जिसकी जीत होती है उसकी घोषणा की जाती है।
क्या कार्यकाल खत्म होने के बाद राष्ट्रपति का राजनीतिक जीवन थम जाता है
राष्ट्रपति के बारे में एक धारणा यह भी है कि राष्ट्रपति का कार्यकाल खत्म होने के बाद उनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो जाता है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। वो चाहे तो किसी भी तरह से राजनीतिक जीवन में रह सकते हैं। लेकिन देश के सर्वोच्च पद पर रहने के बाद स्वाभाविक है कि वो सांसद या विधायक या राज्यपाल बनना पसंद नहीं करेंगे, क्योंकि ये सब तो राष्ट्रपति के नीचे के पद हैं।
राष्ट्रपति के अधिकार
राष्ट्रपति के अधिकारों की बात करें तो भले वह सरकार के कैबिनेट और प्रधानमंत्री की मंजूरी से काम करते हैं लेकिन कोई भी अधिनियम उनकी मंजूरी के बिना पारित नहीं हो सकता। वो वित्त बिल को छोड़कर किसी भी बिल को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं। राष्ट्रपति का मूल कर्तव्य संघ की कार्यकारी शक्तियों का निर्वहन करना है। फौज के प्रमुखों की नियुक्ति भी वो करते हैं।
राष्ट्रपति उम्मीदवार की योग्यता
राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की उम्र और योग्यता की बात करें तो राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को भारत का नागरिक होना चाहिए। उनकी उम्र कम से कम 35 साल होनी चाहिए। और इसके साथ इलेक्टोरल कॉलेज के पचास प्रस्तावक और पचास समर्थन करने वाले होने चाहिए।
राष्ट्रपति को पद से कैसे हटाया जा सकता है
राष्ट्रपति को उसके पद से महाभियोग के ज़रिये हटाया जा सकता है। इसके लिए लोकसभा और राज्यसभा में सदस्य को चौदह दिन का नोटिस देना होता है। इस पर कम से कम एक चौथाई सदस्यों के दस्तख़त ज़रूरी होते हैं। इसके बाद महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होती है। अब तक हुए राष्ट्रपति चुनावों को देखें तो नीलम संजीव रेड्डी अकेले राष्ट्रपति हुए जो निर्विरोध चुने गए थे और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अकेले राष्ट्रपति थे जो दो बार चुने गए।
महीने और तारीख के हिसाब से देखें तो हर साल संभवतः जून महीने में सद्गुरु कबीर की जयंती होती है। जाहिर सी बात है कि जयंती के दौरान तमाम धाराओं के लोग अपने-अपने तरीके से कबीर की बातें कहते हैं। लेकिन कबीर को कैसे समझा जाए, किसके जरिये समझा जाय, यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि कई लोग ऐसे भी मौजूद हैं जो बहुजन समाज के संतों और नायकों को लेकर षड्यंत्र में जुटे रहते हैं। मुझे भी इसका अनुभव हो चुका है।
कुछ साल पहले मध्यप्रदेश के मालवा के गांवो में मैं कबीर के संबंध में कुछ अध्ययन कर रहा था। कई गरीब दलित कबीरपंथियों के साथ एक ऊंची जाति के राधास्वामी डेरे के भक्त भी बैठे हुए थे। हम सब बैठकर आपस में बातें कर रहे थे। मैं उनकी चर्चा ध्यान से सुन रहा था, वे अपने अध्यात्म और लोक परलोक की लंबी लंबी बातें कर रहे थे। मैंने थोड़ी देर बाद उनसे पूछा इस सब का गरीब और अछूत आदमी को क्या फायदा है? सारे दलित कबीरपंथी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, वे कुछ बोलना तो चाह रहे थे लेकिन राधास्वामी संप्रदाय के उस एक बनिया मित्र की उपस्थिति में कुछ बोल नहीं पा रहे थे।
मैंने उन राधास्वामी के भक्त मित्र से पूछा कि आप ही बताइए आप सब लोग इतनी आत्मा परमात्मा और अध्यात्म की बात करते हैं क्या आप एक दूसरे के घर में खाना खा सकते हैं? क्या आपके बेटा बेटी एक दूसरे से शादी कर सकते हैं? वे ऊंची जाति के सज्जन बोले कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता। वे सज्जन इस प्रश्न से चिंतित हो गए लेकिन गरीब दलितों के सामने महान बनते हुए कहने लगे कि मैं जात पात बिल्कुल नहीं मानता मैं तो यहां आप लोगों के बीच में बैठकर चाय तक पी लेता हूं। बात उन्होंने बड़े गर्व से बोली, हालांकि मेरे साथ बैठे अन्य गरीब दलित कबीरपंथी कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे। मैंने मौके की नजाकत को समझते हुए वह चर्चा बंद कर दी, थोड़ी देर बाद राधास्वामी के भक्त वहां से चले गए।
मैंने फिर से वही बात निकाली। अब गरीब दलित कबीरपंथी मेरे साथ अकेले थे। मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या लगता है आत्मा परमात्मा नाम साधना घट साधना भक्ति भजन करके आपको क्या मिलता है? वे सब एक स्वर में कहने लगे कि इससे आत्मा की कमाई होती है। अगले जन्म में अच्छा लोक मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा। अपने कर्म अच्छे होंगे तो कर्म का पुण्य मिलेगा।मैंने उनसे पूछा है कि अभी यह जो जिंदगी सामने है इसमें क्या मिलेगा? वे लोग इसके उत्तर में कुछ नहीं कह पाए। वे बार-बार कहने लगे परमात्मा की भक्ति भजन का इस संसार से कोई मतलब नहीं है, यह तो अंतर लोक की बात है। फिर इस बात को समझाने के लिए वह कबीर के दोहे दोहराने लगे। बीच-बीच में वे जाति पाती और धर्म के झगड़े कि निंदा करने वाली साखियां भी गाते जाते थे।उनमें से एक युवा व्यक्ति ने मेरे प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया। उन्होंने बताया कि यहां पर कुछ नाम जपने वाले डेरे हैं हफ्ते में एक बार उनका सत्संग होता है। सत्संग घर के अंदर जब सब लोग बैठे होते हैं तब सभी एक साथ बैठे होते हैं, वहां पर जात पात का कोई भेदभाव नहीं होता। लेकिन जैसे ही सत्संग घर का गेट लगाकर बाहर निकलते हैं फिर से जात पात शुरू हो जाता है।
मैंने पूछा कि क्या आपके ऊंची जाति के सत्संगी मित्र आपके बच्चों को पढ़ने लिखने के बारे में या नौकरी व्यवसाय के बारे में कोई सलाह देते हैं? उन्होंने कहा नहीं वे भक्ति भजन के बारे में सलाह देते हैं। फिर उन्होंने यह भी बताया कि गांव में करीबन 10 हैंडपंप है सारे के सारे ऊंची जाति के लोगों के मोहल्लो में लगे हुए हैं। धीरे-धीरे चर्चा में पता चला कि जितने भी सत्संगी लोग हैं उनमें ऊंची जाति के लोगों का अपना एक नेटवर्क है, यह लोग गरीब सत्संगी लोगों को ना तो बेहतर मजदूरी देते हैं ना उनकी शिक्षा, रोजगार, पानी, खेती किसानी के लिए कोई मदद करते हैं। बल्कि आए दिन इन गरीबों की महिलाओं के साथ छेड़छाड़ जरूर करते हैं।मैंने इन लोगों से सीधे-सीधे पूछा कि आप कबीर की बात करते हैं, कबीर तो समाज में बदलाव की बात उठाते थे। आप यह भक्ति भाव में कब से लग गए? वे इस बात को समझना ही नहीं चाहते थे। वे कहने लगे कि भैया इस समाज को क्या बदलेंगे घर में खाने को रोटी नहीं है यह जो लोग हमारी औरतों और बेटियां को छेड़ते हैं उन्हीं के घर हमको मजदूरी करनी होती है। मैंने फिर पूछा अगर ऐसा है आप इन लोगों के भजन और सत्संग करने वाले लोगों से शिकायत क्यों नहीं करते?
इस पर उन्होंने बड़े दुखी मन से जवाब दिया, कि ये सब लोग एक ही हैं ये लोग समय और माथा देखकर तिलक लगाते हैं। जब हम इनसे कोई शिकायत करते हैं वो कहते हैं कि कहां मोह माया में फंसे हो परमात्मा का नाम जपो। लेकिन जब यही ऊंची जात के सत्संगीअकेले में बात करते हैं अब एक एक रुपए का हिसाब ठीक से करते हैं, किसको कितनी मजदूरी देनी है, किसको काम कर रखना है नहीं रखना है, किसने किसके घर में घुसकर चाय पी ली, किसकी बेटी किसके बेटे से बात कर रही है, या फिर किसको किसके साथ नहीं बैठना चाहिए यह सब बातें हैं वे दिन भर करते रहते हैं। इसी तरह की बातें जब गरीब कबीरपंथी जब उनसे करना चाहते हैं, तो उनसे कहा जाता है कि तुम मोह माया छोड़कर ध्यान भजन करो।कुछ पुराने बहुत बूढ़े मित्र कहने लगे कि जात पात और धर्म का भेद तभी तक रहता है जब तक की आत्मा में ज्ञान का उदय नहीं होता। वे कबीर के कुछ पद बताकर मुझे समझाने लगे कि परमात्मा ने सबको एक जैसा बनाया है, उस परमात्मा का ज्ञान होते ही मनुष्य के बीच का भेद मिट जाता है। इसलिए जात पात खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका है परमात्मा का ज्ञान हासिल करना।
मैंने तुरंत उनसे पूछा कि आपको परमात्मा का ज्ञान कब हुआ है? तो उन्होंने हंसते हुए कहा ‘अरे यह तो जन्मों-जन्मों की बात है, ऐसे ही थोड़ी परमात्मा का ज्ञान मिल जाता है। वर्षों तक साधना करनी पड़ती है।’इस पर मैंने उनसे पूछा कि अगर एक इंसान को परमात्मा का ज्ञान पाँच जन्मों की साधना से होता है,और यह इंसान अगर सबको भाई-बहन मानने लगता है तो इस एक इंसान से पूरे समाज को क्या फायदा होगा? आप जैसे करोड़ों गरीबों की जिंदगी में क्या बदलाव आ जाएगा? यह बात सुनकर वह एक दूसरे का मुंह देखने लगे। वह गरीब कबीरपंथी समझना ही नहीं चाहते थे कि उनका आत्मा परमात्मा पाप पुण्य और पुनर्जन्म का यह खेल कबीर को पसंद नहीं था। उनके मन में गहरा बैठा हुआ है कि यह सब कबीर ने ही सिखाया है।अब हमारे लिए सवाल यह है कि कबीर की शिक्षा मोक्ष और परलोक के लिए है, ऐसी बात उन्हे किसने और क्यों सिखाई है?
याद कीजिए आपको स्कूल मे कबीर के कौनसे दोहे सिखाए गए हैं? क्या उन्मे सामाजिक बदलाव की बातें थीं? या फिर गुरु गोविंद दौ खड़े वाले दोहे मात्र थे? इसी मालवा में एक विश्वविख्यात शास्त्री गायक भी रहने आए थे, उन्होंने कबीर को जिस तरह से गाया है उसमें अध्यात्म लोक परलोक आत्मा परमात्मा गुरु की भक्ति रहस्यवाद कूट कूट कर भरा गया है। उनकी ‘दिव्य’ आवाज में कबीर के बाद सुने तो लगता है कि कबीर कोई बहुत बड़े रहस्यवादी थे, और ऐसे रहस्यवादी थे जिसका समाज से कोई मतलब ही नहीं था। पूरे मीडिया ने और यहां तक कि बड़े-बड़े साहित्यकारों ने भी कबीर की उन्हीं साखियों को खूब ऊंची आवाज मे गाया है जिससे बनियों ब्राह्मणों और क्षत्रियों की स्थानीय शक्ति संरचना पर कोई बुरा प्रभाव ना पड़े।
दुनिया भर के शास्त्री गायक, साहित्यकार नाम जाप सिखाने वाले डेरे हो,या कबीरपंथी महंत हो, या फिर कबीर को गाने वाले अन्य कलाकार हों, ये सब बहुत सावधानी से सबसे गरीब लोगों को ध्यान साधना आत्मा परमात्मा सिखाते हैं, ये लोग गलती से भी समाज में बदलाव की बात नहीं करते। लेकिन दूसरी तरफ जो शक्तिशाली तबका होता है उसके साथ इन्ही लोगों की चर्चा बहुत ही अलग होती है। यह षड्यन्त्र असल मे जमीन और खेत खलिहान से लेकर साहित्य कला और विमर्श के सबसे ऊंचे प्रतिष्ठानों तक फैला हुआ है।ऐसा नहीं है कि यह खेल सिर्फ कबीर तक सीमित है, यह खेल अब गौतम बुद्ध के साथ भी भयानक ढंग से शुरू हो चुका है। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं को भी आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की दिशा में मोड़ जा रहा है। धर्म संस्कृति इतिहास और अध्यात्म की राजनीति ना समझने वाले बौद्ध मित्र भी इस खेल में अपने दुश्मनों की मदद कर रहे हैं। ये लोग बुद्ध के धर्म को लोक परलोक ध्यान साधना मोक्ष और निर्वाण तक ही सीमित रखते हैं। परिवार समाज और आचार व्यवहार में बदलाव की बात पर ये लोग अचानक चुप हो जाते हैं।
यह भी उन गरीब कबीरपंथीओं की तरह कहते हैं कि अपने अनुभव से अपनी साधना से अंतर्मन को साफ करो, अपना दीपक खुद जलाओ यह बुद्ध का मार्ग है। लेकिन यह लोग यह नहीं देखते गौतम बुद्ध स्वयं बुद्धत्व प्राप्ति के पहले ही अपने जीवन में कितना बड़ा बदलाव लाए थे। सुख सुविधा का जीवन छोड़कर कष्ट का मार्ग चुना,अपना भोजन अपना पहनावा अपने मित्र अपनी सोच अपनी दिनचर्या सब बदल डाली। लेकिन आज के अधिकांश कबीरपंथी और बौद्ध मित्र नाम साधना या फिर विपस्सना मे ही लगे रहते हैं। वे अपने घर अपने बीवी बच्चों को अपने परिवार को, उनके त्योहारों उनके कर्मकांड इत्यादि को बदलने की कोशिश नहीं करते।जैसे कबीर की सामाजिक क्रांति को भ्रष्ट करने के लिए दुनिया भर के शास्त्रीय महापंडित रहस्यवादी गीत गाते हैं, उसी तरह गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति को नष्ट करने के लिए दाढ़ी वाले बाबा लोग गौतम बुद्ध को बड़ा रहस्यवादी बताते हैं। ये एक ही खेल के दो चेहरे हैं। दुर्भाग्य से भारत के कबीरपंथी और बौद्ध धर्म इस खेल में गहराई तक फंसे हुए हैं। ये लोग कबीर और बुद्ध को ढंग से पेश करते हैं जैसे कि उनका अपने समाज राजनीति अर्थव्यवस्था स्त्रियों की स्थिति गरीबों की स्थिति इत्यादि से कोई संबंध ही नहीं रहा है।
असल में यह ऊंची जाति के लोगों द्वारा रचा हुआ खेल है। वे सबसे गरीब लोगों को कबीर और बुद्ध के बारे में यही सिखाते रहते हैं कि कबीर और बुद्ध तो मोह माया से दूर रहते थे और साधना के द्वारा स्वर्ग की बात करते थे, अगर तुम इनके सच्चे शिष्य हो तो तुम्हें समाज और दुनिया की मोह माया में नहीं पड़ना चाहिए।इसलिए मुझे बार-बार लगता है कि, संत कबीर हो या गौतम बुद्ध हो जब तक उन्हें आप बाबा साहेब आंबेडकर के नजरिए से देखना जरूरी है। जब तक यह नहीं होगा तब तक भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग संत कबीर या गौतम बुद्ध के नाम से भी स्वयं का नुकसान ही करते रहेंगे। कोई दवाई कितनी भी शक्तिशाली या अच्छी क्यों ना हो, जब तक एक कुशल चिकित्सक उसका उपयोग करना आपको नहीं सिखाता तब तक आप सुरक्षित नहीं हो सकते।
जो लोग कहते हैं कि कबीर को सीधे-सीधे पढ़ लो या गौतम बुद्ध को सीधे-सीधे पढ़ लो या विपससना कर लेने से सच्चा ज्ञान मिल जाएगा, वे लोग या तो बहुत ही मासूम है या फिर बहुत ही बड़े धूर्त हैं।कबीर या गौतम बुद्ध के साहित्य को सीधे-सीधे पढ़ने पर हजारों दिशाओं में हजारों बातें नजर आती हैं। उनके साहित्य में भयानक मिलावट भी की गई है, इसलिए सामान्य आदमी को यह पता लगाना मुश्किल होता है कि इनकी असली शिक्षा क्या है? ऐसे असमंजस में वे समाज में ऊंची जाति के लोगों मे प्रचलित बातों को ही गौतम बुद्ध या कबीर की असली शिक्षा मान लेते हैं। यही वह असल षड्यन्त्र और खेल है जिससे बाबा साहब अंबेडकर हमें बचाना चाहते हैं।
बहुजन समाज पार्टी फिर से खुद को मजबूती से लड़ाई में लाने की कोशिश में जुट गई है। उत्तर प्रदेश में हालिया विधानसभा चुनाव की करारी हार के बाद बसपा प्रमुख मायावती लगातार पार्टी नेताओं के साथ बैठक कर स्थिति को मजबूत करने में लगी हैं। बसपा प्रमुख ने एक बार फिर लखनऊ में दो दिनों तक पार्टी के नेताओं के साथ मंथन किया। इसके बाद 29 मई को बयान जारी कर उन्होंने भाजपा के खिलाफ हुंकार भरा। बहनजी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बसपा ने उखाड़ फेंका था, और भाजपा की भी जड़ हिलाने में बसपा ही सक्षम है। इस दो दिवसीय बैठक में बहनजी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश भी दिये।
बहनजी ने कहा कि बी.एस.पी. सीमित संसाधनों वाली पार्टी है, जबकि इसका मुकाबला ज्यादातर बड़े-बड़े पूंजीपतियों व धन्नासेठों के धनबल पर चलने वाली विरोधी पार्टियों से है। जो कि साम, दाम, दण्ड, भेद आदि हथकण्डे अपनाती है। इसीलिए पार्टी व इसके जनाधार को शाहखर्ची आदि से दूर छोटी-छोटी कैडर बैठकों के बल पर ही मजबूत बनाना होगा।
यूपी विधानसभा आमचुनाव के नतीजों को बसपा प्रमुख ने दुर्घटना कहा। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति व मिशन इसी उतार-चढ़ाव का ही नाम है तथा परमपूज्य बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के जीवन संघर्ष व उनके मिशन की तरह हिम्मत कतई नहीं हारना है। कार्यकर्ताओं में उत्साह भरते हुए उन्होंने कहा कि कोई एक राजनीतिक घटनाक्रम पार्टी में दोबारा जान फूंक देगा, जिसके लिए सतत् प्रयास जारी है।
बसपा प्रमुख ने भाजपा सरकार को जमकर घेरा। बेरोज़गारी का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने आरोप लगाया कि बेरोजगार युवा जो अब मजबूरीवश छोटे-छोटे काम कर स्वरोजगार में लगे हैं, अतिक्रमण हटाने के नाम पर उन पर हर दिन सरकारी जुल्म-ज्यादती हो रही है और उन्हें बुलडोजर के आंतक का शिकार बनाया जा रहा है। उन्होंने भाजपा की सरकार को गरीब विरोधी कहा और सरकार द्वारा हाल ही में लिए गए कई फैसलों पर उसकी आलोचना की।
चुनावी मौसम में जिस वर्ग और समाज की सबसे ज्यादा बात होती है, वह है इस देश का वंचित समाज। यानी दलित, आदिवासी और पिछड़ा समाज। लेकिन चुनावी नतीजे आते ही सत्ता में आने वाले दल इन जातियों को हाशिये पर धकेल देते हैं। और सत्ता की सारा लाभ सवर्णों को मिलता है। मंत्री से लेकर बड़े अधिकारियों का पद इन्हीं को मिलता है औऱ दलित एवं आदिवासी समाज मुंह ताकता रह जाता है।
तकरीबन 23 फीसदी आदिवासी और 16.50 प्रतिशत दलित आबादी वाले मध्यप्रदेश में प्रशासन में भागेदारी के नाम पर झुनझुना थमा दिया गया है। प्रदेश के समाचार पत्र अग्निबाण ने एक रिपोर्ट प्रकाशित किया है, जिसमें चौंकाने वाली बात सामने आई है। रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के 52 जिलों में से 33 कलेक्टर ऊंची जाति से हैं। जबकि ओबीसी के 13 कलेक्टरों हैं। दलितों और आदिवासियों की बात करें तो तकरीबन 23 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले मध्यप्रदेश के सिर्फ 2 कलेक्टर हैं, जबकि 21 फीसदी दलित समाज के 4 अधिकारियों के जिम्में कलेक्टर का पद है। थोड़ी और बारीकी से नजर डालने पर एक और चौंकाने वाली बात सामने आती है। प्रदेश में मध्यप्रदेश मूल का ओबीसी कलेक्टर सिर्फ एक है। तो वहीं मध्य प्रदेश मूल का एक भी आदिवासी अफसर कलेक्टर नहीं है। जबकि वहीं दूसरी ओर सामान्य वर्ग के 33 कलेक्टर हैं, जिसमें से 15 ब्राह्मण, 8 ठाकुर, 4 वैश्य और 6 अन्य जातियों के हैं। इस पूरे सिस्टम में सिर्फ एक मुस्लिम अफसर कलेक्टर का पद पा सका है।
यानी साफ है कि प्रदेश के 64 प्रतिशत कलेक्टर सामान्य वर्ग से हैं। जिनमें अकेले 30 फीसदी कलेक्टर ब्राह्मण अफसर हैं। जबकि ब्राह्मणों की जनसंख्या प्रदेश में महज 5-6 फीसदी ही है। तो वहीं 15 फीसदी ठाकुर और 8 फीसदी अफसर वैश्य हैं। अनुसूचित जाति वर्ग के 7 फीसदी और अनुसूचित जनजाति वर्ग के 4 फीसदी अफसर ही कलेक्टर हैं। खास बात यह भी है कि आरक्षित वर्ग के एक भी अफसर के पास कोई बड़ा जिला नहीं है। सिर्फ ओबीसी वर्ग के अफसर टी इलैया राजा जबलपुर के कलेक्टर हैं। यह तब है जबकि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद ओबीसी समाज से आते हैं। यानी साफ है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की बातें राजनीतिक दल सिर्फ वोटों के लिए करती हैं और सत्ता में आते ही मंत्रालयो से लेकर प्रशासन में ऊंची जाति के लोगों को बैठा दिया जाता है। दुख की बात यह है कि वंचित समाज सालों बाद भी इस साजिश को समझ नहीं सका है।
सोशल मीडिया पर सरिता माली नाम की जेएनयू की छात्रा का एक पोस्ट तेजी से वायरल हो रहा है। सरिता ने यह पोस्ट 7 मई की रात फेसबुक पर लिखा था। दरअसल बहुजन समाज से ताल्लुक रखने वाली सरिता ने अमेरिका की एक युनिवर्सिटी में शानदार उपलब्धि हासिल की है। बचपन में रेड लाइट पर फूल बेचने से लेकर जेएनयू और फिर अमेरिका तक सरिता का सफर शानदार रहा है। सरिता माली 28 साल की हैं। उनके पिता चाइल्ड लेबर बनकर मुंबई चले गए थे। सरिता का जन्म और परवरिश मुंबई के स्लम इलाके में ही हुई। एक छोटे सी जगह जिसे हम साइज के हिसाब से 10×12 कह सकते हैं, उसमें परिवार के छह लोग रहते थे। सरिता माली ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई तक वह यहीं स्लम में ही रही। अपने इस मुश्किल भरे सफर और फिर शानदार उपलब्धि के बारे में सरिता ने फेसबुक पर लिखा है, जो वायरल हो गया है। सरिता ने जो लिखा है, आप खुद उन्हीं के शब्दों में सुनिए।
मेरा अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में चयन हुआ है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंग्टन। मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया को वरीयता दी है। मुझे इस यूनिवर्सिटी ने मेरी मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप में से एक ‘चांसलर फ़ेलोशिप’ दी है।
मुंबई की झोपड़पट्टी, जेएनयू, कैलिफ़ोर्निया, चांसलर फ़ेलोशिप, अमेरिका और हिंदी साहित्य…। कुछ सफ़र के अंत में हम भावुक हो उठते हैं, क्योंकि ये ऐसा सफ़र है; जहाँ मंजिल की चाह से अधिक उसके साथ की चाह अधिक सुकून देती हैं। हो सकता है आपको यह कहानी अविश्वसनीय लगे लेकिन यह मेरी कहानी है, मेरी अपनी कहानी।
मैं मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से हूँ, लेकिन मेरा जन्म और मेरी परवरिश मुंबई में हुयी। मैं भारत के जिस वंचित समाज से आई हूँ, वह भारत के करोड़ो लोगों की नियति है। लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है, क्योंकि मैं यहाँ तक पहुंची हूँ। जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रौशनी जो दूर से रह -रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है। मैं भी उसी टिमटिमाती हुयी शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी। मैं ऐसे समाज में पैदा हुयी जहाँ भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था।
हमें कीड़े-मकोड़ो के अतिरिक्त कुछ नही समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढाई। मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं। मैं आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर गरीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती हूँ तो मुझे मेरा बचपन याद आता और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आनेवाला भविष्य कैसा होगा? जब हम सब भाई- बहन त्यौहारों पर पापा के साथ सड़क के किनारे बैठकर फूल बेंचते थे, तब हम भी गाड़ी वालो के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे।
पापा उस समय हमें समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है। अगर हम नही पढेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जायेगा। हम इस देश और समाज को कुछ नही दे पायेंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे। मैं यह सब नही कहना चाहती हूँ लेकिन मैं यह भी नही चाहती कि सड़क किनारे फूल बेचते किसी बच्चे की उम्मीद टूटे उसका हौसला ख़त्म हो।
इसी भूख अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में मैं जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई। सही पढ़ा आपने ‘जेएनयू’ वही जेएनयू जिसे कई लोग बंद करने की मांग करते हैं, जिसे आतंकवादी, देशद्रोही, देशविरोधी पता नही क्या क्या कहतें हैं। लेकिन जब मैं इन शब्दों को सुनती हूँ तो भीतर एक उम्मीद टूटती है। कुछ ऐसी ज़िंदगियाँ जो यहाँ आकर बदल सकती हैं और बाहर जाकर अपने समाज को कुछ दे सकती हैं यह सुनने के बाद मैं उनको ख़त्म होते हुए देखती हूँ। यहाँ के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने मुझे इस देश को सही अर्थो में समझने और मेरे अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी।
जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया। यहाँ की प्रगतिशील छात्र राजनीति जो न केवल किसान-मजदूर, पिछडो, दलितों, आदिवासियों, गरीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हक़ के लिए आवाज उठाती है बल्कि इसके साथ-साथ उनके लिए अहिंसक प्रतिरोध करना का साहस भी देती है। जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके। मैं बेहद उत्साहित हूँ कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है। 2014 में 20 साल की उम्र में मै JNU मास्टर्स करने आई थी, और अब यहाँ से MA, M.PhiL की डिग्री लेकर इस वर्ष PhD जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा PhD करने और वहां पढ़ाने का मौका मिला है। पढाई को लेकर हमेशा मेरे भीतर एक जूनून रहा है। 22 साल की उम्र में मैंने शोध की दुनिया में कदम रखा था। खुश हूँ कि यह सफ़र आगे 7 वर्षो के लिए अनवरत जारी रहेगा।
अपने पोस्ट के आखिर में सरिता ने इस मुहिम में साथ देने वाले अपने शिक्षकों और शुभचिंतकों का आभार जताया है। निश्चित तौर पर सरिता माली की उपलब्धि उन तमाम युवाओं के लिए प्रेरणा है, जो जीवन में आगे बढ़ने का ख्वाब देखते हैं।
”अपने भाई के सामने मैं गिड़गिड़ाती रही, मगर मेरा भाई रॉड से और दूसरा आदमी चाकू से मेरे पति नागराजू पर लगातार वार करते रहे। मेरे पति को कोई नहीं बचा पाया। हमने प्रेम विवाह किया था।”
यह कहना है अपने पति की हत्या आँखों के सामने होते देखने वालीं अशरिन सुल्ताना का।
अशरिन सुल्ताना के भाई सैय्यद मोबीन अहमद और एक रिश्तेदार मसूद अहमद ने उनके पति दिल्लीपुरम नागराजू को 4 मई की रात को हैदराबाद में बीच सड़क पर मार दिया। इस निर्मम हत्या ने सभी को चौंका दिया। पुलिस के मुताबिक अशरिन का भाई हैदराबाद के बालानगर में फलों का ठेला चलाता है। जबकि नागराजू के माता-पिता विकाराबाद में कुली का काम करते हैं और नागराजू हैदराबाद में मारुती शोरूम में काम करता था।
दरअसल इस घटना को हिन्दू-मुस्लिम का रंग दिया जा रहा है। लेकिन यहां बात हिन्दू-मुस्लिम की नहीं है। दरअसल सुल्ताना का परिवार अपनी बेटी के दलित युवक से शादी से नाराज था। और दलित समाज के भीतर ही तमाम लोग इस मामले पर चुप्पी साधे सिर्फ इसलिए बैठे हैं क्योंकि इससे उनके #बहुजन_फार्मूले को धक्का लगेगा। माफ करिएगा लेकिन मुस्लिम हो, चाहे पिछड़े… सबने दलितों को रौंदा है। लेकिन हैदराबाद की घटना को हमें अनदेखा नहीं करना चाहिए। आंकड़े उठा कर देखिए। जहां भी दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं, ज्यादातर मजबूत पिछड़ी जातियों के लोगों के नाम आ रहे हैं। इसे आखिर क्या समझा जाए। इसे कब तक अनदेखा किया जाए?
फिर दलित समाज के लोग एक जातिवादी ठाकुर एवं ब्राह्मण और एक जातिवादी ओबीसी में क्या फर्क देखें? मुस्लिम समाज को भी इस बारे में अपनी राय बतानी चाहिए। कई लोग इसे सैय्यद और पठान समाज के लोगों द्वारा दलितों पर अत्याचार की बात कह कर इसे ढकने की कोशिश करते हैं। इसे भी मनुवादी जाति व्यवस्था करार देते हैं। अगर ऐसा है तो मुस्लिम समाज डंके की चोट पर माने की उसके भीतर जातिवाद है और वह खुद को हिन्दु जातिवादियों से अलग दिखाने की कोशिश करना बंद करे। सवाल है कि क्या अगर नागराजू दलित न होकर सवर्ण होता तो भी सुल्ताना के घर वाले उसे सरेआम कत्ल करते??
भारत में आए दिन जातिवाद की अलग-अलग तस्वीरें देखने को मिलती है। हर तस्वीर पहली तस्वीर से भयानक होती है। जातिवाद की एक तस्वीर बिहार से आई है। तस्वीर में आपको जो टिन का दरवाजा दिख रहा है, वह किसी के घर का दरवाजा नहीं है, बल्कि दलित समाज के आने-जाने वाले रास्ते को जबरन बंद किया गया है। इसी बीच 21 अप्रैल को यहां एक बुजुर्ग दलित की मौत हो गई, तो भी जातिवादियों का दिल नहीं पसीजा। उन्होंने शव की अंतिम यात्रा नहीं निकलने दी और बांस-बल्लियों से पूरा रास्ता घेर दिया, जिसके कारण 12 घंटे तक शव यहीं पड़ा रहा।
मृतक परिवार के लोग रोते रहें, गिड़गिराते रहें, लेकिन जातिवादियों ने रास्ता नहीं दिया। मामला बिहार के छपरा जिले के गरखा थाने के नारायणपुर गाँव का है। गाँव की महादलित बस्ती में करीब सात महीने से रास्ते को लेकर विवाद चल रहा है। जातीय दंभ में पागल जातिवादी गुंडों ने दलित समाज के लोगों का रास्ता रोक रखा है। काफी मान-मनौव्वल के बाद भी जब जातिवादी समाज के लोग नहीं मानें, तो दलितों ने मजबूती से रास्ता खोलने को कहा।
दलितों की मांग जातिवादियों को बर्दास्त नहीं हुई। और 23 सितंबर 2021 को उन्होंने दलितों के साथ मारपीट की। इसमें दलित समाज के करीब आधा दर्जन लोग घायल हो गए। इसके खिलाफ दलित समाज के लोगों ने गड़खा थाने में एससी-एसटी एक्ट के तहत इसकी रिपोर्ट दर्ज कराई थी। जिसमें पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था, जबकि नौ आरोपियों ने अदालत के सामने समर्पण कर दिया।
बेल पर बाहर आने के बाद खुन्नस खाए आरोपियों ने बांस-बल्ली लगाकर दलित बस्ती के चारो तरफ का रास्ता रोक दिया। तभी से दलित समाज के लोग जैसे-तैसे अपने दिन गुजार रहे थे। रास्ता बंद होने से उन्हें हर दिन मुश्किलों का सामना पर रहा था, लेकिन न तो जातिवादी गुंडे और न ही पुलिस प्रशासन उनकी दुहाई सुन रहा था।
इस बीच 21 अप्रैल को दलित समाज के किशुन राम की मौत हो गई। तब भी शव यात्रा को रास्ता नहीं दिया गया। स्थानीय पुलिस से शिकायत करने पर भी पुलिस ने उनकी कोई मदद नहीं की। शव पूरी रात बस्ती में ही पड़ा रहा। इसके बाद डीएम और सदर एसडीएम को मोबाइल पर घटना की सूचना दी गई। तब जाकर प्रशासन हड़कत में आया और शव यात्रा निकाला जा सका।
दैनिक भास्कर की खबर के मुताबिक हालांकि डीएम के हस्तक्षेप से अंतिम संस्कार तो हो गया, लेकिन इस दौरान भी जातिवादी गुंडे गाली-गलौज करते दिखे। दलित समुदाय के लोग इसका वीडियो बनाने लगे। हद तो तब हुई जब पुलिस गाली-गलौज करने वाले लोगों को रोकने के बजाय जातिवादियों के सुर में सुर मिलाते हुए वीडियो बना रहे दलित युवकों पर ही चढ़ बैठी और उनके मोबाइल छिन लिये और वीडियो को डिलीट कर दिया। इससे दलितों के बीच भारी गुस्सा बना हुआ है।
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में आंबेडकर जयंती के दिन बाबासाहेब की प्रतिमा के अपमान से आहत दलितों ने बड़ा ऐलान कर दिया। योगी सरकार की पुलिस की कार्रवाई से नाराज बौद्ध महासभा ने बुद्ध पूर्णिमा के दिन 20 हजार दलितों के हिन्दू धर्म को ठोकर मार कर बौद्ध धर्म अपनाने की घोषणा कर दी। इस घोषणा के बाद प्रशासन के हाथ पांव फूल गए और वह दलितों के हाथ पांव जोड़ने लगी। अंबेडकरी समाज के लोगों ने प्रशासन के सामने अपनी मांगे रखी, जिसके पूरा होने के बाद धर्मांतरण की घोषणा को वापस ले लिया गया।
मामला यूपी के हमीरपुर जिले के सुमेरपुर कस्बे का है। यहां के त्रिवेणी मैदान में एक समझौते के तहत भारत रत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर की आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई थी, लेकिन कस्बे के ही कथित ठाकुर जाति के व्यक्ति ने अमर सिंह ने समझौते से मुकरकर मामले की शिकायत पुलिस से की थी।
आरोप है कि पुलिस ने जातिवादियों के साथ मिलकर प्रतिमा को 13 अप्रैल की देर रात को वहां से हटा दिया। जिसके बाद अंबेडकरी समाज के लोगों ने पूरी रात धरना दिया। इस संघर्ष में दलित समाज की कई महिलाएं घायल हो गई। घटना से गुस्साए बाबा साहेब के सैकड़ों अनुयायियों ने कानपुर-सागर नेशनल हाइवे जाम कर कई घंटे तक हंगामा किया था। पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों के समझाने और आश्वासन के बाद साढ़े छह घंटे बाद दलितों ने हाइवे छोड़ा था। खिंचतान के बीच दलितों ने धर्मांतरण की घोषणा कर दी। तब जाकर पुलिस ने प्रतिमा वापस की और 14 अप्रैल को बाबासाहेब की प्रतिमा स्थापित की गई।
इस घटना के बाद दलित समाज के स्थानीय लोगों के बीच हिन्दू धर्म को त्यागने और बौद्ध धर्म को अपनाने की चर्चा तेज हो गई और आस-पास के 20 हजार दलितों ने आगामी 16 मई को बुद्ध पूर्णिमा के दिन हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा कर दी। बौद्ध महासभा ने इसकी कमान संभाली। धर्म परिवर्तन के मामले को लेकर खुफिया विभाग भी हरकत में आ गया है। दलितों को हर तरह से मनाने की कोशिश की जाने लगी। उनके मुकदमें वापस ले लिये गए साथ ही बाबासाहेब की प्रतिमा से भविष्य में कोई भी छेड़छाड़ नहीं करने का आश्वासन दिया गया। प्रशासन ने अंबेडकरी समाज के लोगों को हर तरह से धर्मांतरण की जिद को छोड़ने का दबाव बनाया। फिलहाल स्थानीय लोगों ने धर्मांतरण के प्रस्ताव को स्थगित कर दिया है।
कांग्रेस पार्टी अक्सर भाजपा शासित राज्यों में दलितों पर अत्याचार को बड़ा मुद्दा बनाती रही है। लेकिन कांग्रेस के शासन वाले राज्यों में भी स्थिति बेहतर नहीं है। राजस्थान के भरतपुर जिले में अंबेडकर जयंती मना रहे दलित समाज के लोगों पर जातिवादी गुंडों द्वारा हमले के बाद अब गांव के दलित पलायन कर रहे हैं। भरतपुर के कुम्हेर थाना इलाके के गांव सह से दलितों ने गांव छोड़ना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि जातिवादी गुंडों ने उनका गांव में रहना मुश्किल कर दिया है, इसलिए अब वह गांव छोड़ रहे हैं।
दरअसल बीते 14 अप्रैल को बाबसाहेब की जयंती के दिन रैली निकाल रहे दलितों पर गांव के ही गुर्जर समाज के लोगों ने हमला कर दिया था। उनके साथ मारपीट की गई और अंबेडकर जयंती मनाने के लिए लगाए गए पंडाल में आग लगा दी गई। इस हमले में दलित समाज के कई लोग घायल हो गए। पीड़ित दलित समाज के लोगों का आरोप है कि पुलिस आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रही है।
पीड़ित समाज का आरोप है कि गाँव में दलितों के सौ घर हैं जबकि गुर्जरों के 300 घर हैं। वो हमेशा उनके साथ अत्याचार करते हैं और इस बार तो स्थिति हद से पार हो गई। दलित समाज के लोगों का पलायन लगातार जारी है, लेकिन पुलिस प्रशासन आरोपियों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। बताते चलें कि अंबेडकर जयंती को लेकर अक्सर देश के तमाम हिस्सों से इस तरह की खबरें आती है, जब वंचित समाज को हतोत्साहित करने के लिए उन्हें अंबेडकर जयंती मनाने से रोका जाता है। या फिर इस दौरान किसी न किसी बहाने उनसे मारपीट की जाती है।
दूसरी ओर अपने बचाव के लिए गुर्जर समाज के लोग आरोप लगा रहे हैं कि दलित समाज के लोगों ने जयंती के दौरान नशा कर रखा था और उनकी महिलाओं को छेड़ रहे थे। हालांकि यहां सवाल यह है कि दलित समाज के जो लोग सालों भर जातिवादियों का अत्याचार झेलते हैं, वो उनकी महिलाओं को छेड़ने की कोशिश आखिर कैसे कर सकते हैं। देखना होगा कि इस मामले में दलितों को इंसाफ दिलाने के लिए राजस्थान सरकार क्या फैसला लेती है।
एक गरीब लड़का, जिसका पिता नहीं है। माँ मजदूरी करती है। दूसरों के खेतों में काम कर के अपना और अपने बेटे का जीवन चलाती है। बेटे को पढ़ाती है। बेटा दसवीं में पढ़ता है। इस उम्मीद में कि एक दिन अपनी माँ को बेहतर जीवन देगा। पढ़ता है तो जागरूक भी है। उसकी माँ की मजदूरी का पैसा बकाया है। बेटा पैसा मांगने जाता है तो उसे न सिर्फ पिटा जाता है, बल्कि उससे पैर चटवाए जाते हैं।
मामला अखंड भारत की स्थापना में जुटे भारत के सवर्ण समाज के सपनों के प्रदेश उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के जगतपुर कस्बे की है। रायबरेली कांग्रेस की महामहिम सोनिया गांधी का संसदीय क्षेत्र भी है। इसी रायबरेली में दलित समाज के एक युवक की सिर्फ इसलिए बेरहमी से पिटाई की गई क्योंकि उसने अपनी माँ की बकाया मजदूरी की मांग की थी। जातिवादी गुडों से अपनी माँ की मेहनत और हक के पैसे मांगने गए किशोर उम्र के दसवीं के लड़के को जातिवादी सवर्ण समाज के गुंडों ने बेल्ट औऱ बिजली केबल से पिटाई की और उसके बाद पैर चटवाए। जातीय अहंकार में डूबे गुंडों ने उसे जातिसूचक गालियां दी।
घटना 10 अप्रैल के दिन की बताई जा रही है। लेकिन बाद में वीडियो वायरल होने के बाद मामले ने तूल पकड़ा। मारपीट का वीडियो वॉयरल होने के बाद पुलिस ने 6 युवकों के ख़िलाफ़ एससी एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज़ किया है। जगतपुर कस्बे की रहने वाली महिला मेहनत मजदूरी कर किसी तरह अपने परिवार का भरण पोषण करती है।
मामले के तूल पकड़ने के बाद पुलिस ने छह आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। इनमें दो नाबालिग हैं। क्षेत्राधिकारी डलमऊ अशोक सिंह के मुताबिक ऋतिक सिंह और उत्तम सिंह सहित सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। इनमें दो आरोपी नाबालिग हैं। उनको बाल सुधार गृह भेजा जा रहा है। अन्य चार आरोपियों को जेल भेज दिया गया है। बताते चलें कि भारत सरकार की राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश में हर रोज दलितों के खिलाफ 125 मामले दर्ज किये जाते हैं।
दिल्ली के जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के जुलूस के दौरान हुई हिंसा का मामला अब भारत से निकल कर अंतरराष्ट्रीय मामला बन गया है। दुनिया भर से इस हिंसा पर प्रतिक्रिया आ रही है। इसी कड़ी में अब महान अंतरराष्ट्रीय महिला टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा का भी नाम जुड़ गया है। 18 ग्रैंडस्लेम सिंगल्स जीतने वाली मार्टिना नवरातिलोवा ने जहांगीरपुरी हिंसा पर ट्विट करते हुए सीधे पीएम मोदी से सवाल पूछ लिया है।
दरअसल दिग्गज खिलाड़ी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर की पत्रकार राणा अयूब के एक पोस्ट को रि-ट्विट करते हुए पीएम मोदी से सवाल पूछा है। राणा अयूब ने इंडिया टुडे की एक खबर को ट्विटर पर साझा किया है। इस खबर में हिन्दू समाज के युवा 16 अप्रैल को हनुमान जयंती के मौके पर हथियारों से लैस होकर जुलूस निकालते नजर आ रहे हैं। रास्ते की मस्जिद से गुजरने के दौरान ये हिन्दू कट्टरपंथी हथियारों को हवा में लहराते हुए साफ दिख रहे हैं। इस दौरान जय श्रीराम के नारे भी उन्मादी तरीके से लगाया जा रहा है। राणा अयूब ने इसी वीडियो को साझा करते हुए सवाल उठाया है कि हिन्दू कट्टरपंथियों की इस हड़कत के मामले में 14 मुस्लिम को दोषी के तौर पर गिरफ्तार किया गया है।
Communal riots broke out in the national capital, New Delhi. Look at this video, Hindu fundamentalists brandishing pistols and arms while passing through mosques. And guess what, 14 Muslims have been arrested as accused. This is just miles away from the residence of Narendra Modi pic.twitter.com/hx7lupPOdW
मार्टिना नवरातिलोवा ने राणा अयूब के इसी ट्विट को रि-ट्विट करते हुए प्रधानमंत्री मोदी से सवाल पूछा है कि यह स्वीकार्य नहीं है.. है न मोदी दी। मार्टिना ने लिखा है- Certainly this is not acceptable, right Modi?
इस ट्विट के जरिये सवाल उठाने पर कई भारतीयों ने मार्टिना की तारीफ की है।
महेंद्र शाह नामक यूज़र ने ट्वीट किया, “मार्टिना भारत के मामलों में रुचि दिखाने के लिए शुक्रिया। मैं भारतीय हूं और टेनिस का बड़ा फ़ैन हूं। भारत ग़लत दिशा में जा रहा है। एक गंभीर सांप्रदायिक हिंसा भारत में होगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस पर बोलने की ज़रूरत है। एक बार फिर शुक्रिया।”
दरअसल जिस तरह यह घटना घटी और उसके बाद मामले को शांत करने की बजाय सरकार मामले को जिस तरह लगातार लंबा खींच रही है, उससे मोदी सरकार की मंशा पर दुनिया भर से सवाल उठने लगे हैं।
Over 100 plus worldwide, the Bahujan organization celebrates in-person and online to commemorate the 195th Rashtrapita Mahatma Jyotirao Phule’s birth anniversary & 131st Birth Anniversary of Bharat Ratna Dr. B. R. Ambedkar. British Columbia, Canada, Michigan and Colorado states in the United States of America issued a proclamation declaring April 14th as an Equity Day and Equality Day.
Dr. B.R. Ambedkar’s last message (Reference: Reminiscences and Remembrances of Dr. B.R. Ambedkar) “Whatever I have done, I have been able to do after passing through crushing miseries and endless struggle all my life and fighting with my opponents. With great difficulty, I have brought this caravan where it is seen today. Let the caravan march on despite the hurdles that may come in its way. If my lieutenants cannot take the caravan ahead, they should leave it there, but in no circumstances should they allow the caravan to go back. This is the message to my people.”
By looking at the current scenario with the global Ambedkarite movement, I am confident that we all will take his caravan to the next level.
There is a spate of local Ambedkarite organizations in major cities around the world that are not only celebrating their important events with the local community by increasing awareness of Ambedkar’s thoughts and his struggle to get rights for the Bahujan community. Dr. Ambedkar fights to eradicate old caste-based discrimination. He was an architect of India’s Constitution to build modern India based on the principle of liberty, equality, and fraternity despite their language, culture, race, gender, nationality, and religion.
Each anniversary falls in April, and it has been celebrated at various levels like medical camps (Eyecare, blood donation, regular checkup ); 18 hrs. Ongoing studies in Vihara’s and study circles, Running or marathons events, Essay competitions, book distribution, Debates, Speeches, intellectual talks in the local university, musical programs, Cultural Activity, DJ, Dance, and many more. Every local Buddha, Vihara, Phule, and Ambedkar Status have some events to respect their leaders and remember their community contributions. This event brings us together not only to remember him but also to pay back to society.
The Bahujan community comes together from all over the world like The United States, Canada, United Kingdom, Germany, France, Italy, Switzerland, Spain, Portugal, Greece, Holland, Austria, Belgium, Lebanon, Japan, Singapore, Australia, New Zealand, Saudi Arabia, United Arab Emirates, Brunei, Oman, Qatar, Dubai, Bahrain, Kuwait, Malaysia, and of course India. Most of the Indian Embassy and Indian consulates celebrate this day at their respective places.
Please find the event schedule along with the date, timings, and joining details for various events that are being organized around the world
आज देश की एक लोकसभा और चार विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणाम आ गए। जिन चार विधानसभा सीटों पर काउंटिंग हुई, वे हैं पश्चिम बंगाल में बालीगंज, छत्तीसगढ़ में खैरागढ़, बिहार में बोचहां और महाराष्ट्र का कोल्हापुर। वहीं एक लोकसभा सीट पश्चिम बंगाल की आसनसोल है। इन सीटों पर 12 अप्रैल को मतदान हुआ था।
चुनाव परिणामों में भाजपा को बड़ा झटका लगा है। भाजपा एक भी सीट पर जीत नहीं दर्ज कर पाई है और उसका डब्बा गुल हो गया है। कलकत्ता, बिहार और बंगाल तीनों जगहों पर भाजपा की करारी हार हुई है।
महाराष्ट्र में कांग्रेस के उम्मीदवार जयश्री जाधव ने कोल्हापुर उत्तर विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में भाजपा के उम्मीदवार सत्यजीत कदम को 18,000 से अधिक वोटों से हरा दिया। कांग्रेस-एमवीए उम्मीदवार जयश्री जाधव को 96,176 वोट मिले, जबकि भाजपा के सत्यजीत कदम को 77,426 वोट मिल सके।
पश्चिम बंगाल में भी भाजपा की करारी हार हुई। बालीगंज विधानसभा सीट पर बाबुल सुप्रियो ने करीब 20 हजार के मतों से जीत दर्ज की, जबकि शत्रुध्न सिन्हा ने आसनसोल लोकसभा सीट से भाजपा के अग्निमित्रा पॉल को हराया। सिन्हा ने एक लाख से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की।
बिहार की बात करें तो चर्चित बोचहां विधानसभा सीट पर आरजेडी के अमर पासवान ने भाजपा की बेबी कुमारी को 36 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से हराया। इसी सीट को लेकर वीआईपी पार्टी के मुकेश सहनी और भाजपा के बीच तनातनी हो गई थी और दोनों की राहें जुदा हो गई थी।
इस चुनावी परिणाम के बाद बिहार में तेजस्वी, बंगाल में ममता बनर्जी और महाराष्ट्र में कांग्रेस को भाजपा को घेरने का मौका मिल गया है। अब सबकी निगाहें लोकसभा के अगले सत्र पर भी है, जहां भाजपा और शत्रुध्न सिन्हा का आमना-सामना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लगातार निशाना साधने के कारण भाजपा ने शत्रुध्न सिन्हा को किनारे लगा दिया था। इसके बाद सिन्हा ने राजद का दामन थाम कर बीते लोकसभा चुनाव 2019 में पटना साहिब से चुनाव लड़ा लेकिन जनता ने उन्हें खामोश कर दिया था। तभी से संसद में पहुंचने की शॉटगन के इंतजार का अब अंत हो गया है और एक बार फिर वह लोकसभा में गरजने को तैयार हैं। फिलहाल हर सीट पर भाजपा की हार से विपक्ष का मनोबल बढ़ा हुआ है।
14 अप्रैल को जब दुनिया भर में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की जयंती मनाई जा रही थी, नोएडा में बाबासाहेब की प्रतिमा तोड़ दी गई। नोएडा के सेक्टर 63 स्थित छजारसी गाँव में यह घटना घटी घटना के बाद बड़ी संख्या में अंबेडकरवादी इकट्ठा हो गए। उनका आरोप है कि जातिवादियों ने यह काम किया है।
भारत के इतिहास में महापुरुषों की बात करें, जिन्होंने जन्म लिया और अपने जीवन का लंबा समय समाज कल्याण में लगाया तो बुद्ध और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का नाम सामने आता है। इसी तरह अगर भारत में प्रतिमाओं को तोड़ने की घटना की बात करें तो बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की प्रतिमाओं को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया गया।
देश के चप्पे-चप्पे में बाबासाहेब के अनुयायियों के द्वारा लगावाई गई डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा जहां वंचित समाज के लोगों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है तो वहीं मनुवादी लोग इससे जलते हैं। यही वजह है कि मौका मिलते ही बाबासाहेब की प्रतिमाओं को तोड़ने की घटना भी सामने आती है। नोएडा में डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा तोड़ जाने की घटना के बाद ही वहां हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। साथ ही प्रशासन द्वारा एहतियातन कई थानों की पुलिस फोर्स को भी तैनात कर दिया गया। पुलिस अपराधियों को तलाशने में जुटी है। खास तौर पर जिस 14 अप्रैल को पूरा देश डॉ आंबेडकर की जयंती मना रहा था, उस मौके पर ऐसी घटना ने खासकर अंबेडकरवादी समाज में गुस्सा भर दिया है।
बाबासाहेब की शख्सियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कनाडा सरकार ने पूरे महीने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर जयंती मनाने का फैसला किया है। तो अमेरिका में भी बाबासाहेब की जयंती मनाई गई। विश्व के नौ विश्वविद्यालयों में बाबासाहेब आंबेडकर की प्रतिमा (बस्त) स्थापित की गई है। इस साल दुनिया भऱ में बाबासाहेब आंबेडकर की 131वीं जयंती मनाई जा रही थी। डॉ. आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू में हो गया था।
“ये कितना दुखद है कि पार्टियों को ये समझ में आ गया है कि सिर्फ जय भीम बोलने, बाबा साहेब की फ़ोटो और मूर्ति लगाने, उनका नाटक दिखाने, उनकी जयंती मनाने से भारत के 20 करोड़ अनुसूचित जाति के वोट लिए जा सकते हैं। इतना सस्ता सौदा कौन करता है? अपनी महत्वाकांक्षा बड़ी कीजिए। चाहत बड़ी कीजिए।”
सोशल मीडिया पर यह सवाल वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने पिछले दिनों उठाया। सवाल जायज है, और इस पर चर्चा करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अप्रैल का महीना अंबेडकर माह है। दुनिया भर में लोग बाबासाहेब को याद करते हैं, उनकी कही-लिखी बातों को दोहराते हैं। अक्सर जब लोग बाबासाहेब को याद करते हैं तो एक बात जरूर कहते हैं कि बाबासाहेब ने व्यक्ति पूजा से मना किया था। लेकिन अभी तक का जो राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य है, वह व्यक्ति पूजा पर आकर टिक गया है। तमाम लोगों के लिए अंबेडकरी आंदोलन की परिभाषा यह होती जा रही है कि जो जितनी तेज आवाज में ‘जय भीम’ बोले, वह उतना बड़ा अंबेडकरवादी। जिसने बाबासाहेब का जितना बड़ा पोस्टर लगा दिया, वह उतना बड़ा बाबासाहेब को मानने वाला। और हाँ, जय भीम बोलने वाला और बाबासाहेब के पोस्टर लगाने वाला अगर गैर दलित है, तब तो दलित समाज झूम उठता है।
दलित समाज का व्यक्ति अगर अपने शरीर को नीला कर ले, अपना जीवन बाबासाहेब के मिशन में लगा दे, तब भी वो समाज के ज्यादातर लोगों की नजर में कोई खास इज्जत हासिल नहीं कर पाता। क्योंकि लोगों को लगता है कि ऐसा करना दलित समाज के व्यक्ति की ड्यूटी है। लेकिन हाँ, अगर वही व्यक्ति जब दूसरी धारा के बारे में जरा सी भी बात कर ले तो यही लोग उसे दलित समाज का दुश्मन और एजेंट करार देने में कोई देर नहीं लगाते हैं।
हाल ही में बीते चुनाव के परिणामों की तपीश अभी भी समाज के भीतर से गई नहीं है। अंबेडकरी आंदोलन की पार्टी होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल भले मंथन न करें, आम जनता खूब मंथन कर रही है। पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने पहली बार दलित समाज का मुख्यमंत्री बना दिया था और उसे फिर से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया था। बावजूद इसके कांग्रेस पार्टी पंजाब में नहीं जीत सकी। बहुजन समाज पार्टी ने अकाली दल से गठबंधन कर रखा था और माना जा रहा था कि वह बड़ी ताकत बनकर उभरेगी, लेकिन वह भी बुरी तरह हार गई। शानदार जीत आम आदमी पार्टी को मिली, जिसने पिछले तमाम चुनावों के परिणामों को ध्वस्त करते हुए रिकार्ड जीत दर्ज की। हो सकता है कि आम आदमी पार्टी ने जमीनी तैयारी की हो, लेकिन क्या कांग्रेस और बसपा – अकाली गठबंधन इतने कमजोर थे कि उनका सूपड़ा ही साफ हो जाए। क्या कई दफा चुनाव जीतने वाले जमीनी नेता और मुख्यमंत्री रहे चरणजीत सिंह चन्नी इतने कमजोर थे कि वह एक अंजाने इंसान से चुनाव हार जाएं। क्या अकाली दल के कद्दावर नेता अमरिंदर सिंह इतने कमजोर प्रत्याशी थे कि बसपा से गठबंधन के बाद भी वह अपनी सीट न जीत पाएं?
तो आखिर पंजाब के लोगों के दिमाग में क्या चल रहा था? पैंतीस प्रतिशत आबादी वाले पंजाब को दलित मुख्यमत्री क्यों नहीं चाहिए था? या फिर एक वक्त में जिस बसपा-अकाली गठबंधन को लोगों ने अपना खूब समर्थन दिया था, उसी गठबंधन से लोगों का मोह क्यों भंग हो गया? यह समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए बड़े शोध का विषय है।
अब आते हैं राजनीतिक सवाल पर। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में बाबासाहेब आंबेडकर को कभी भी उचित सम्मान नहीं दिया। उन्हें भारत रत्न देने से भी कांग्रेस कतराती रही। और आखिरकार जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी और वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बनें तो उन्होंने बाबासाहेब को भारत रत्न सम्मान दिया। भाजपा ने केंद्र के अपने अब तक के आठ साल के कार्यकाल में बाबासाहेब को लेकर कई बड़े काम किये। 15 जनपथ की जिस जमीन को कांग्रेस ने जंगल बनने के लिए छोड़ दिया था, भाजपा ने उस पर डॉ. आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर जैसा भव्य इमारत बनवाया। 26 अलीपुर रोड; जहां बाबासाहेब का परिनिर्वाण हुआ था, भाजपा ने वहां भी डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक बनवाया। देश के ऱाष्ट्रपति पद पर दलित समाज के ही रामनाथ कोविंद को बैठाया गया। तमाम राज्यों में दलितों नेताओं को सांकेतिक तौर पर आगे बढ़ाने की रणनीति पर काम किया। अपने इन कामों के बूते भाजपा ने दलितों के भीतर भी सबका साथ सबका विकास के संदेश को दिया। दलित भी ये सब देखकर फुल कर कुप्पा हो गए।
यानी दलितों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और कम जागरूक होने का फायदा उठाकर कांग्रेस ने जहां बाबासाहेब को अनदेखा किया, उनकी शख्सियत को सामने नहीं आने दिया तो कांशीराम के बहुजन आंदोलन के बाद जब दलितों-पिछड़ों का एक बड़ा तबका जागरूक हो गया और इसके बाद भाजपा का दौर आया तो उसने सबसे पहले दलितों या यूं कहें कि दलितों और अति पिछड़ों के जीवन में सबसे अधिक मायने रखने वाले बाबासाहेब को स्वीकार करने की रणनीति अपनाई। भाजपा ने बाबासाहेब से जुड़ी इमारतें बनाई और वंचित समाज खुश हो गया। उसने मकान, अनाज और शौचालय जैसी चीजें जो देश के हर नागरिक का हक है, देने की बात कही और वंचित समाज खुश हो गया।
लेकिन अंबेडकरवादियों को यह नहीं दिखा कि भाजपा पीछे दरवाजे से इसकी कीमत भी वसूल करने लगी है। संविधान बदलने की बात हो या एससी-एसटी आरक्षण को खत्म करने की बात हो, भाजपा कीमत वसूल करने पर अमादा हो गई। उसने खाली सीटों का बैकलॉग नहीं भरा, न ही नौकरियां दी। महंगाई आसमान छू रही है, लेकिन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता।
तो सवाल है कि आखिर दलितों-पिछड़ों को चाहिए क्या? उनके हितैषी आखिर क्या करें जो लोगों की समझ में आए। मैं ऐसे दर्जनों संगठनों को जानता हूं जो अपने-अपने शहर में या प्रदेश में समाज को आगे बढ़ाने के लिए शिक्षा से लेकर सामाजिक क्षेत्र तक में शानदार काम कर रहे हैं। उनके प्रयास से सैकड़ों बहुजन युवाओं की जिंदगी बदली है। देश भर में ऐसे काफी बुद्धिजीवि हैं जो लोगों को अपनी बातों से, अपनी लेखनी से जागरूक करने की कोशिश करते रहते हैं। अपना काम करते हुए अपने समाज को कैसे और बेहतर बनाया जा सके, इस कोशिश में जुटे रहते हैं। यू-ट्यूब पर बोलते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं, सैकड़ों किलोमीटर सफर कर के उनके बीच जाते हैं। उन्हें बाबासाहेब की बातों के बारे में, बहुजन आंदोलन के बारे में समझाते हैं, वोट की कीमत बताते हैं। लेकिन जब अपनी ताकत दिखाने का मौका आता है तो वह सब भूलकर सांकेतिक चिन्हों के लिए काम करने वाले को ज्यादा तरहीज देते हैं। आज सोशल मीडिया का दौर है और कहा जा रहा है कि लोग खूब जागरूक हुए हैं। लेकिन क्या जागरूकता इसी को माना जाए कि कोई आपको बहका ले जाए? इससे बेहतर तो पहले के कम जागरूक लोग ही थे जो अपने नेताओं और समाज के हित के लिए संघर्ष करने को तैयार रहते थे। समाज नेताओं पर सवाल उठाता है कि नेता ठीक नहीं है, क्या एक सवाल समाज पर भी नहीं है? क्या समाज को अपने भीतर नहीं झांकना चाहिए? क्या समाज को बेहतर ढंग से एक बार फिर अंबेडकरवाद का सही पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं है?