सोशल मीडिया पर सरिता माली नाम की जेएनयू की छात्रा का एक पोस्ट तेजी से वायरल हो रहा है। सरिता ने यह पोस्ट 7 मई की रात फेसबुक पर लिखा था। दरअसल बहुजन समाज से ताल्लुक रखने वाली सरिता ने अमेरिका की एक युनिवर्सिटी में शानदार उपलब्धि हासिल की है। बचपन में रेड लाइट पर फूल बेचने से लेकर जेएनयू और फिर अमेरिका तक सरिता का सफर शानदार रहा है। सरिता माली 28 साल की हैं। उनके पिता चाइल्ड लेबर बनकर मुंबई चले गए थे। सरिता का जन्म और परवरिश मुंबई के स्लम इलाके में ही हुई। एक छोटे सी जगह जिसे हम साइज के हिसाब से 10×12 कह सकते हैं, उसमें परिवार के छह लोग रहते थे। सरिता माली ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई तक वह यहीं स्लम में ही रही। अपने इस मुश्किल भरे सफर और फिर शानदार उपलब्धि के बारे में सरिता ने फेसबुक पर लिखा है, जो वायरल हो गया है। सरिता ने जो लिखा है, आप खुद उन्हीं के शब्दों में सुनिए।
मेरा अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में चयन हुआ है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंग्टन। मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया को वरीयता दी है। मुझे इस यूनिवर्सिटी ने मेरी मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप में से एक ‘चांसलर फ़ेलोशिप’ दी है।
मुंबई की झोपड़पट्टी, जेएनयू, कैलिफ़ोर्निया, चांसलर फ़ेलोशिप, अमेरिका और हिंदी साहित्य…। कुछ सफ़र के अंत में हम भावुक हो उठते हैं, क्योंकि ये ऐसा सफ़र है; जहाँ मंजिल की चाह से अधिक उसके साथ की चाह अधिक सुकून देती हैं। हो सकता है आपको यह कहानी अविश्वसनीय लगे लेकिन यह मेरी कहानी है, मेरी अपनी कहानी।
मैं मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से हूँ, लेकिन मेरा जन्म और मेरी परवरिश मुंबई में हुयी। मैं भारत के जिस वंचित समाज से आई हूँ, वह भारत के करोड़ो लोगों की नियति है। लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है, क्योंकि मैं यहाँ तक पहुंची हूँ। जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रौशनी जो दूर से रह -रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है। मैं भी उसी टिमटिमाती हुयी शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी। मैं ऐसे समाज में पैदा हुयी जहाँ भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था।
हमें कीड़े-मकोड़ो के अतिरिक्त कुछ नही समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढाई। मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं। मैं आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर गरीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती हूँ तो मुझे मेरा बचपन याद आता और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आनेवाला भविष्य कैसा होगा? जब हम सब भाई- बहन त्यौहारों पर पापा के साथ सड़क के किनारे बैठकर फूल बेंचते थे, तब हम भी गाड़ी वालो के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे।
पापा उस समय हमें समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है। अगर हम नही पढेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जायेगा। हम इस देश और समाज को कुछ नही दे पायेंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे। मैं यह सब नही कहना चाहती हूँ लेकिन मैं यह भी नही चाहती कि सड़क किनारे फूल बेचते किसी बच्चे की उम्मीद टूटे उसका हौसला ख़त्म हो।
इसी भूख अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में मैं जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई। सही पढ़ा आपने ‘जेएनयू’ वही जेएनयू जिसे कई लोग बंद करने की मांग करते हैं, जिसे आतंकवादी, देशद्रोही, देशविरोधी पता नही क्या क्या कहतें हैं। लेकिन जब मैं इन शब्दों को सुनती हूँ तो भीतर एक उम्मीद टूटती है। कुछ ऐसी ज़िंदगियाँ जो यहाँ आकर बदल सकती हैं और बाहर जाकर अपने समाज को कुछ दे सकती हैं यह सुनने के बाद मैं उनको ख़त्म होते हुए देखती हूँ। यहाँ के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने मुझे इस देश को सही अर्थो में समझने और मेरे अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी।
जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया। यहाँ की प्रगतिशील छात्र राजनीति जो न केवल किसान-मजदूर, पिछडो, दलितों, आदिवासियों, गरीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हक़ के लिए आवाज उठाती है बल्कि इसके साथ-साथ उनके लिए अहिंसक प्रतिरोध करना का साहस भी देती है। जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके। मैं बेहद उत्साहित हूँ कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है। 2014 में 20 साल की उम्र में मै JNU मास्टर्स करने आई थी, और अब यहाँ से MA, M.PhiL की डिग्री लेकर इस वर्ष PhD जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा PhD करने और वहां पढ़ाने का मौका मिला है। पढाई को लेकर हमेशा मेरे भीतर एक जूनून रहा है। 22 साल की उम्र में मैंने शोध की दुनिया में कदम रखा था। खुश हूँ कि यह सफ़र आगे 7 वर्षो के लिए अनवरत जारी रहेगा।
अपने पोस्ट के आखिर में सरिता ने इस मुहिम में साथ देने वाले अपने शिक्षकों और शुभचिंतकों का आभार जताया है। निश्चित तौर पर सरिता माली की उपलब्धि उन तमाम युवाओं के लिए प्रेरणा है, जो जीवन में आगे बढ़ने का ख्वाब देखते हैं।
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