Monday, August 4, 2025

दिल्ली में नीतीश, भाजपा में हड़कंप, मोदी-शाह चौकन्ने

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तीन दिनों की यात्रा पर दिल्ली में हैं। यहां नीतीश तमाम दलों के नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं। नीतीश के दिल्ली पहुंचते ही भाजपा में हड़कंप मच गया है तो पीएम नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह चौकन्ने हो गए हैं।

दिल्ली में नीतीश कुमार ने सीपीआई के नेता सीताराम येचुरी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिले। राहुल गाँधी और नीतीश कुमार के बीच 50 मिनट लंबी मुलाकात हुई है। इसके अलावा नीतीश हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला से गुरुग्राम में मुलाकात करेंगे। नीतीश के सपा नेता मुलायम सिंह यादव से भी मिलने का कार्यक्रम है।

नीतीश कुमार के दिल्ली पहुंचते ही जहाँ भाजपा सतर्क हो गई है तो नीतीश के एक-एक कदम पर पीएम मोदी और अमित शाह की भी नजर है। इससे पहले दिल्ली आने से पहले नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव से उनके आवास पर जाकर मुलाकात की थी, जिसका वीडियो भी खूब वायरल हो रहा है। लग रहा है जैसे नीतीश को पूरा लालू कुनबा मिलकर दिल्ली रवाना कर रहा है।

इधर दिल्ली में मीडिया से बातचीत में नीतीश देश का मॉडल बनाने की बात कर रहे हैं। तो कुछ दिन पहले बिहार जेडीयू के अध्यक्ष ललन सिंह कह चुके हैं कि बिहार में जो गठबंधन हुआ है, वह पूरे देश के लिए रोल मॉडल बनेगा और उसी आधार पर 2024 का रोड मैप तैयार किया जाएगा।

निश्चित तौर पर नीतीश की दिल्ली यात्रा और विपक्षी दलों के तमाम नेताओं से उनकी मुलाकात के खास मायने हैं। दरअसल नीतीश कुमार वो चेहरा बन सकते हैं जो विपक्ष को एकजुट कर सकते हैं। उनका ओबीसी होना भी उनके पक्ष में है। 2024 में अब महज डेढ़ साल का वक्त बचा है जो चुनाव के लिहाज से ज्यादा नहीं है। इस चुनाव में हर विपक्षी दल मोदी को रोकना चाहता है। और देश भर में सबको चकमा देने वाली भाजपा को जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार में चमका दिया, वह अब भी भाजपा के गले में अटका हुआ है। भाजपा को डर है कि जिस तरह नीतीश ने बिहार में उसे चकमा दिया, कहीं राष्ट्रीय राजनीति में भी नीतीश भाजपा के गले की हड्डी न बन जाएं। यह कयास इसलिए भी लग रहा है, क्योंकि नीतीश कुमार…. बिहार की राजनीति से संन्यास लेने का मन बना चुके हैं। और उनकी सम्मानजनक राजनैतिक विदाई तभी संभव है, जब वो दिल्ली में कुछ करिश्मा कर दिखाएं।

दिलीप मंडल ने मचाई मनुवादियों के बीच खलबली, Twitter पर हुए ट्रेंड

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भारत के मनुवादियों को बहुजन समाज के पत्रकार दिलीप मंडल की बातें कितनी चुभती है, यह आज मनुवादियों ने खुद जाहिर कर दिया। सोशल मीडिया प्लेटफार्म ट्विटर पर भारत में दिलीप मंडल को लेकर बवाल मच गया है। ट्विटर पर दिलीप मंडल भिखारी है, ट्रेंड कर रहा है। 23 हजार से ज्यादा लोगों ने दिलीप मंडल भिखारी है को रि-ट्विट किया है। जिसके बाद यह ट्रेंड करने लगा। मजेदार बात यह है कि खुद दिलीप मंडल ने भी इस मुहिम में हिस्सा लेते हुए इस ट्रेंड को रि-ट्विट किया है।

 उन्होंने लिखा है- क्रिया और प्रतिक्रिया! जाति जनगणना की बात करते ही दोस्त लोग नाराज़ हो गए।

इसके साथ ही दिलीप मंडल ने अपने एक ट्विट का स्क्रीनशार्ट शेयर किया है। जो आरक्षण को लेकर है। इस ट्विट में दिलीप मंडल ने लिखा था- अरे भिखमंगों। शर्म करो। 30 % मांग रहे हो। 15% तो आबादी नहीं है तुम लोगों की। जाति जनगणना हुई तो हो सकता है आबादी 10% ही निकले। इसी लिए तो जाति जनगणना से डरते हो। दक्षिणा ले लेकर आदत हो गई है माँगने वाली।

हैड टैग- EWS_आरक्षण_30_प्रतिशत_करो।

दिलीप मंडल ने यह ट्विट 30 अगस्त को किया था, जिसे अब तक करीब 12 हजार लोग लाइक कर चुके हैं, जबकि साढ़े तीन हजार से ज्यादा इसे रि-ट्विट कर चुके हैं और साढ़े चार सौ से ज्यादा कोट ट्विट कर चुके हैं।

तो वहीं दिलीप मंडल ने जब खुद दिलीप मंडल भिखारी है को ट्विट किया तो उनके फॉलोवर भी दिलीप मंडल के समर्थन में आ गए। कई लोगों ने दिलीप मंडल को अपना हीरो तक कहा है।

जहां तक दिलीप मंडल के विरोधियों का सवाल है तो उन्होंने दिलीप मंडल को लेकर अपने-अपने भीतर की भड़ास जमकर निकाली है। किसी ने दिलीप मंडल को आरक्षणवंशी कहा है तो किसी का गुस्सा इस बात को लेकर है कि दिलीप मंडल अक्सर ब्राह्मणों और ऊंची जातियों के खिलाफ बहाने ढूंढ़ ढूंढ़ कर ट्विट करते रहते हैं, जिसे वो बर्दास्त नहीं करेंगे। कई लोगों ने दिलीप मंडल पर जानबूझकर विद्वेष फैलाने का भी आरोप लगाया है।

फिलहाल वरिष्ठ पत्रकार और इंडिया टुडे हिन्दी मैगजीन के पूर्व मैनेजिंग एडिटर दिलीप मंडल के खिलाफ जिस तरह ट्विटर पर अपर कॉस्ट के लोगों ने मुहिम चला रखी है, उससे साफ है कि जिस तरह दिलीप मंडल जातिवाद, मनुवाद और पाखंडवाद की धज्जियां उड़ाते हैं, और सरकारी खामियों को उजागर करते हैं, वह मनुवादियों को हजम नहीं हो रहा है। और जैसा कि मनुवादियों की पुरानी परंपरा है कि जब तर्क से न जीत सको तो गालियां देना शुरू कर दो, वह उसी पर अमल करने में जुटे हैं।

बहुजन समाज बनाने की मुहिम में कब तक बली चढ़ते रहेंगे दलित

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दलित-आदिवासी औऱ पिछड़े समाज के महापुरुषों ने एक सपना देखा था। उनका सपना था कि देश का वंचित समाज एक साथ आ जाए। वजह यह थी कि इन समाजों के सामने तकरीबन एक जैसी चुनौती थी। बाद में इसमें मुसलमानों को भी जोड़ा गया। सोच यह थी कि भारत के ज्यादातर मुसलमान वो लोग हैं जो पहले दलित थे। इन समूहों को नाम दिया गया- बहुजन।

बाद के दिनों में मान्यवर कांशीराम ने बहुजन शब्द को काफी प्रचारित किया। उन्होंने दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और मुसलमानों को जोड़ने की भी कोशिश की। शुरुआत से लेकर अब तक बहुजन समाज को एक बनाए रखने में किसी ने सबसे ज्यादा कुर्बानी दी है तो वह है दलित समाज। लेकिन दलितों पर पिछड़े समाज के मनुवादियों और मुसलमानों द्वारा किये जा रहे अत्याचार की खबरों से बहुजन समाज बनाने का सपना टूटने लगा है।

यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है क्योंकि ऐसी दो घटनाएं सामने आई है, जिस पर बात होनी चाहिए। झारखंड के पलामू से खबर है कि मुसलमानों ने दलित समाज के करीब 50 लोगों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया है, जिससे वो जंगल में रहने को मजबूर हैं। मामला दर्ज हो चुका है और राज्यपाल ने भी इस पर रिपोर्ट मांगी है।

तो दूसरी खबर उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले से आई है। यहां बंदूक की नोक पर प्रधान संतोष यादव और संत कुमार यादव ने दलित समाज की महिला से मारपीट की और उसके घर पर ताला लगा दिया। दलित समाज की पीड़ित महिला को गांव से बेदखल किये जाने की भी सूचना मिल रही है।

लेकिन इन दोनों घटनाओं की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं हो रही है। क्योंकि ऐसा होने पर कुछ लोगों के बहुजन समाज बनाने की मुहिम को चोट लग सकती है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि बहुजन समाज बनाने के लिए आखिर कब तक अपनी बली चढ़ाते रहेंगे? चाहे मुसलमानों के हक की बात हो या फिर पिछड़ों की, उनके हक में लड़ने के लिए सबसे पहले कोई खड़ा होता है तो वो दलित समाज है। बावजूद इसके वह लगातार पिछड़ों के निशाने पर रहता है। ऐसे में आखिर बहुजन के नाम पर दलित कब तक चुप रहे। और दलितों के खिलाफ होने वाले इन अत्याचारों पर इसी समाज के बुद्धिजीवियों की चुप्पी कितनी जायज है….

यह चुप्पी क्या जायज है??

सोचिएगा जरूर….

पेरियार ललई सिंह यादव: बहुजन परंपरा के एक महान नायक

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पेरियार की सच्ची रामायण के हिंदी में पहले प्रकाशक

द्रविड़ आंदोलन के अग्रणी, सामाजिक क्रांतिकारी पेरियार ईवी रामासामी नायकर की किताब सच्ची रामायण को पहली बार हिंदी में लाने का श्रेय ललई सिंह यादव को जाता है. उनके द्वारा पेरियार की सच्ची रामायण का हिंदी में अनुवाद कराते ही उत्तर भारत में तूफान उठ खड़ा हुआ था. 1968 में ही ललई सिंह ने ‘द रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का हिन्दी अनुवाद करा कर ‘सच्ची रामायण’ नाम से प्रकाशित कराया. हिंदुओं द्वारा सच्ची रामायण के प्रकाशन पर हंगामा और सरकार द्वारा प्रतिबंध एवं जब्ती

छपते ही सच्ची रामायण ने वह धूम मचाई कि हिन्दू धर्म के तथाकथित रक्षक उसके विरोध में सड़कों पर उतर आए. तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने दबाव में आकर 8 दिसम्बर 1969 को धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में किताब को जब्त कर लिया. मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट में गया.

राज्य सरकार के वक़ील ने कोर्ट में कहा यह पुस्तक राज्य की विशाल हिंदू जनसंख्या की पवित्र भावनाओं पर प्रहार करती है और इस पुस्तक के लेखक ने बहुत ही खुली भाषा में महान अवतार श्रीराम और सीता एवं जनक जैसे दैवी चरित्रों पर कलंक मढ़ा है, जिसकी हिंदू की पूजा करते हैं. इसलिए इस किताब पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है.

ललई सिंह यादव की हाईकोर्ट में जीत

ललई सिंह यादव के एडवोकेट बनवारी लाल यादव ने ‘सच्ची रामायण’ के पक्ष में जबर्दस्त पैरवी की. 19 जनवरी 1971 को कोर्ट ने जब्ती का आदेश निरस्त करते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी जब्तशुदा पुस्तकें वापस करे और अपीलकर्ता ललई सिंह को तीन सौ रुपए मुकदमे का खर्च दे.

सुप्रीमकोर्ट में ललई सिंह यादव की जीत

इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की. सुनवाई तीन जजों की पीठ ने की, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर ने की और इसके दो अन्य जज थे पीएन भगवती और सैयद मुर्तज़ा फ़ज़ल अली. सुप्रीम कोर्ट में ‘उत्तर प्रदेश बनाम ललई सिंह यादव’ नाम से इस मामले पर फ़ैसला 16 सितम्बर 1976 को आया. फ़ैसला पुस्तक के प्रकाशक के पक्ष में रहा. इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने सही माना और राज्य सरकार की अपील को ख़ारिज कर दिया.

हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध बन गए ललई सिंह

इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सच्ची रामायण के पक्ष में मुकदमा जीतने के बाद पेरियार ललई सिंह दलित-पिछड़ों के नायक बन गए. ललई सिंह यादव ने 1967 में हिंदू धर्म का त्याग करके बौद्ध धर्म अपना लिया था. बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उन्होंने अपने नाम से यादव शब्द हटा दिया. यादव शब्द हटाने के पीछे उनकी गहरी जाति विरोधी चेतना काम कर रही थी. वे जाति विहीन समाज के लिए संघर्ष कर रहे थे.

अशोक पुस्तकालय का प्रारंभ

पेरियार ललई सिंह यादव ने इतिहास के बहुजनों नायकों की खोज की. बौद्ध धर्मानुयायी बहुजन राजा अशोक उनके आदर्श व्यक्तित्वों में शामिल थे. उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था कायम की और अपना प्रिन्टिंग प्रेस लगाया, जिसका नाम ‘सस्ता प्रेस’ रखा था.

नाटकों-किताबों का लेखन

उन्होंने पांच नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक. गद्य में भी उन्होंने तीन किताबें लिखीं – (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? उनके नाटकों और साहित्य में उनके योगदान के बारे में कंवल भारती लिखते हैं कि यह साहित्य हिन्दी साहित्य के समानान्तर नई वैचारिक क्रान्ति का साहित्य था, जिसने हिन्दू नायकों और हिन्दू संस्कृति पर दलित वर्गों की सोच को बदल दिया था. यह नया विमर्श था, जिसका हिन्दी साहित्य में अभाव था. ललई सिंह के इस साहित्य ने बहुजनों में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना पैदा की और उनमें श्रमण संस्कृति और वैचारिकी का नवजागरण किया.

उत्तर भारत के पेरियार कहलाये ललई सिंह

उन्हें पेरियार की उपाधि पेरियार की जन्मस्थली और कर्मस्थली तमिलनाडु में मिली. बाद में वे हिंदी पट्टी में उत्तर भारत के पेरियार के रूप में प्रसिद्ध हुए. बहुजनों के नायक पेरियार ललई सिंह का जन्म 1 सितम्बर 1921 को कानपुर के झींझक रेलवे स्टेशन के पास कठारा गांव में हुआ था. अन्य बहुजन नायकों की तरह उनका जीवन भी संघर्षों से भरा हुआ है. वह 1933 में ग्वालियर की सशस्त्र पुलिस बल में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे, पर कांग्रेस के स्वराज का समर्थन करने के कारण, जो ब्रिटिश हुकूमत में जुर्म था, वह दो साल बाद बर्खास्त कर दिए गए. उन्होंने अपील की और अपील में वह बहाल कर दिए गए. 1946 में उन्होंने ग्वालियर में ही ‘नान-गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ’ की स्थापना की, और उसके सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने.

इस संघ के द्वारा उन्होंने पुलिसकर्मियों की समस्याएं उठाईं और उनके लिए उच्च अधिकारियों से लड़े. जब अमेरिका में भारतीयों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में ‘गदर पार्टी’ बनाई, तो भारतीय सेना के जवानों को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘सोल्जर ऑफ दि वार’ पुस्तक लिखी गई थी. ललई सिंह ने उसी की तर्ज पर 1946 में ‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जो छपी तो नहीं थी, पर टाइप करके उसे सिपाहियों में बांट दिया गया था. लेकिन जैसे ही सेना के इंस्पेक्टर जनरल को इस किताब के बारे में पता चला, उसने अपनी विशेष आज्ञा से उसे जब्त कर लिया. ‘सिपाही की तबाही’ वार्तालाप शैली में लिखी गई किताब थी. यदि वह प्रकाशित हुई होती, तो उसकी तुलना आज महात्मा जोतिबा फुले की ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ किताबों से होती.

जगन्नाथ आदित्य ने अपनी पुस्तक में ‘सिपाही की तबाही’ से कुछ अंशों को कोट किया है, जिनमें सिपाही और उसकी पत्नी के बीच घर की बदहाली पर संवाद होता है. अन्त में लिखा है- ‘वास्तव में पादरियों, मुल्ला-मौलवियों-पुरोहितों की अनदेखी कल्पना स्वर्ग तथा नर्क नाम की बात बिल्कुल झूठ है. यह है आंखों देखी हुई, सब पर बीती हुई सच्ची नरक की व्यवस्था सिपाही के घर की. इस नरक की व्यवस्था का कारण है- सिंधिया गवर्नमेंट की बदइन्तजामी. अतः इसे प्रत्येक दशा में पलटना है, समाप्त करना है. ‘जनता पर जनता का शासन हो’, तब अपनी सब मांगें मंजूर होंगी.

ब्रिटिश शासन द्वार पांच साल की जेल की सजा

इसके एक साल बाद, ललई सिंह ने ग्वालियर पुलिस और आर्मी में हड़ताल करा दी, जिसके परिणामस्वरूप 29 मार्च 1947 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. मुकदमा चला, और उन्हें पांच साल के सश्रम कारावास की सजा हुई. 9 महीने जेल में रहे, और जब भारत आजाद हुआ, तब ग्वालियर स्टेट के भारत गणराज्य में विलय के बाद, वह 12 जनवरी 1948 को जेल से रिहा हुए

1950 में सरकारी सेवा से मुक्त होने के बाद उन्होंने अपने को पूरी तरह बहुजन समाज की मुक्ति के लिए समर्पित कर दिया. उन्हें इस बात का गहराई से आभास हो चुका था कि ब्राह्मणवाद के खात्मे के बिना बहुजनों की मुक्ति नहीं हो सकती है. एक सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और प्रकाशक के रूप में उन्होंने अपना पूरा जीवन ब्राह्मणवाद के खात्मे और बहुजनों की मुक्ति के लिए समर्पित कर दिया. 7 फरवरी 1993 को उन्होंने अंतिम विदा ली.

( द प्रिंट में प्रकाशित, रिपोस्ट)

आदिवासी महिला पर 8 साल अत्याचार करने वाली BJP की नेता गिरफ्तार, जानिए पूरा मामला

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आखिरकार पुलिस ने आदिवासी युवती पर सालों तक जुल्म ढाने वाली भाजपा की महिला नेता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है। आदिवासी समाज की युवती सुनीता खाखा का वीडियो सामने आने के बाद देश भर में भाजपा नेत्री सीमा पात्रा के खिलाफ गुस्सा था। सोशल मीडिया पर उसकी गिरफ्तारी को लेकर अभियान चल रहा था। इस दबाव के आगे आखिरकार प्रशासन को जुल्मी भाजपा नेता सीमा पात्रा को गिरफ्तार करना पड़ा।

रांची में बीजेपी नेता सीमा पात्रा पर आदिवासी महिला सुनीता खाखा से जीभ से फर्श साफ करवाने, पेशाब पिलाने और दांत तोड़ने का आरोप है। यह सिलसिला सालों चलता रहा। एक, दो नहीं पूरे आठ साल। सुनीता पात्रा आदिवासी महिला सुनीता को सूरज की रोशनी तक नहीं देखने देती थी।

जब जुल्म के इस दलदल से आठ सालों बाद सुनीता आजाद हुई तो सबकी आंखें उसे देखकर नम हो गई। लेकिन भाजपा के तमाम बड़े नेताओं के साथ तस्वीरें साझा करने वाली रिटायर्ड IAS महेश्वर पात्रा की पत्नी सीमा पात्रा पर जल्दी कोई हाथ डालने को तैयार नहीं था। हंगामे के बाद जुल्मी सीमा पात्रा की गिरफ्तारी तो हो गई है, लेकिन पुलिस और अदालत के सामने यह चुनौती है कि आदिवासी समाज की सुनीता खाखा ने आठ सालों तक जो जुल्म झेला है, उसकी आंखों में जो डर है, उसका हिसाब पुलिस और अदालत आरोपी जुल्मी सीमा पात्रा से कैसे वसूल करेगी, ताकि सुनीता को न्याय मिल सके।

ध्यान देना होगा कि जिस राजनीतिक दल ने एक आदिवासी समाज की महिला को भारतीय गणतंत्र के शीर्ष पद राष्ट्रपति के पद पर बैठाया, उसी की महिला नेता एक आदिवासी महिला को आठ सालों से बंधक बनाकर रखा था। मामला खुलने के बाद देश भर में हंगामा मचा, जिसके बाद महिला को गिरफ्तार कर लिया गया है। यह घटना यह भी बताती है कि भले ही राजनीतिक रूप से दलितों और आदिवासियों के चेहरे को इस्तेमाल करने का चलन बढ़ गया हो लेकिन समाज के भीतर इनको लेकर हो रहे अत्याचार में न कोई कमी आई है, और न ही इनके प्रति भेदभाव का मामला ही कम हो रहा है।

राष्ट्रपति से मिलीं बहन मायावतीजी, दिया यह बड़ा बयान

भारत के पंद्रहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से तमाम नेताओं के शिष्टाचार मुलाकात का सिलसिला जारी है। ऐसे में 29 अगस्त को तब अनोखा संयोग बना जब बसपा प्रमुख सुश्री मायावती राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से मुलाकात करने राष्ट्रपति भवन पहुंची। बहनजी ने राष्ट्रपति महोदया से मुलाकात की तस्वीर सोशल मीडिया पर साझा कर इसकी जानकारी दी है। इस दौरान बहनजी ने राष्ट्रपति मुर्मु को लेकर बड़ा बयान दिया है। मुलाकात की तस्वीर साझा करते हुए उन्होंने लिखा- माननीया राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी से राष्ट्रपति भवन में आज काफी अच्छी मुलाकात हुई। अनुसूचित जनजाति समाज से ताल्लुक रखने वाली देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनने पर उनसे मिलकर उन्हें औपचारिक तौर पर बधाई एवं शुभकामनाएं दी। वे समाज व देश का नाम रौशन करें, यही कामना। बहनजी ने राष्ट्रपति चुनाव का जिक्र करते हुए लिखा- वैसे तो बीएसपी व अन्य पार्टियों ने भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उन्हें अपना समर्थन दिया और वे भारी मतों से विजयी हुई, किन्तु अगर थोड़ा और सही व सार्थक प्रयास किया गया होता तो वे सर्वसम्मति से यह चुनाव जीत कर एक और नया इतिहास ज़रूर बनातीं। देश को उनसे बहुत सारी आशाएं। इस मुलाकात की तस्वीर सामने आने के बाद तमाम लोग इस पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। बहुजन समाज के चिंतक एवं जाने-माने समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार ने इस तस्वीर को साझा करते हुए लिखा- <iframe दो बहुजन महिलायें राष्ट्रपति भवन में। यह चित्र अपने आप में भारतीय बहुजन महिलाओं की लम्बी यात्रा के इतिहास को बयां करता है। साथ ही भारतीय संविधान की ताकत को भी। यह भारतीय प्रजातंत्र में एक ऐतिहासिक एवं सुखद क्षण है, व्यक्तित्यों के तुलनात्मक अध्यन का नहीं है। अगर हम केवल ऐतिहासिक काल-खंड को भारतीय संविधान एवं उसमें प्रजातान्त्रिक मूल्यों के माध्यम से परिवर्तन को समझने का प्रयास करें तो हमें नवीन दिशा मिल सकती है। निश्चित तौर पर देश की दो दिग्गज महिलाओं को एक साथ देखना अपने आप में ऐतिहासिक है। खासतौर पर ऐसी महिलाओं का जिसमें एक भारत गणराज्य की माननीय राष्ट्रपति हैं, जबकि दूसरी देश की तीसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष हों। और दोनों समाज की सबसे वंचित जाति से संबंध रखती हों, अपने आप में दुर्लभ क्षण है।  

(जयंती विशेष) अय्यंकाली: जिन्होंने अपनी बैलगागाड़ी से ब्राह्मणों एवं नायरों के अंहकार को कुचल दिया

केरल के पहले दलित विद्रोही अय्यंकाली को याद करते हुए मलयाली कवि पी. जी. बिनॉय लिखते हैं-
                      तुम्हीं ने जलाया था, प्रथम ज्ञानदीप
                      बैलगाड़ी पर सवार हो
                      गुजरते हुए प्रतिबंधित रास्तों पर
                      अपनी देह की यंत्रशक्ति से
                      पलट दिया था, कालचक्र को
आधुनिक युग ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलितों के विद्रोह का भी युग है। इस युग में देश के अलग-अलग कोनों में दलित विद्रोह की लहर पर लहर उठती रही और आज भी उसका सिलसिला किसी न किसी रूप में चल रहा है, क्योंकि सामाजिक समानता के जिस स्वप्न के साथ ये विद्रोह शुरू हुए थे, वह अभी पूरी तरह हासिल नहीं हुआ है। दक्षिण भारत और पश्चिमोत्तर भारत में यह विद्रोह ज्यादा व्यापक और प्रभावी रहा है।
तमिलनाडु में इसका नेतृत्व आयोथी थास (20 मई 1845-1914) ने किया, तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल 1891-6 दिसंबर 1956) ने किया, जो बाद पूरे देश के दलितों के विद्रोह के मार्गदर्शक बने। केरल में इस विद्रोह का नेतृत्व अय्यंकाली (28 अगस्त 1863-18 जून 1941) ने किया है और उन्होंने वहां उथल-पुथल मचा दी। वहां के सामाजिक संबंधों में काफी हद तक आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया और अपनी बैलगाड़ी से सवर्णों के जातीय श्रेष्ठता बोध के अभिमान को रौंद दिया। 28 अगस्त को इसी महान क्रांतिकारी की जयंती होती है।
केरल में आधुनिकता की नींव डालने वाले पहले व्यक्ति श्रीनारायण गुरु (20 अगस्त, 1856 – 20 सितंबर, 1928) थे, लेकिन इस नींव पर विशाल भवन जिन लोगों ने खड़ा किया, उनमें दलित विद्रोही अय्यंकाली की निर्णायक भूमिका है। जिन्होंने केरल में समानता एवं न्याय की आधुनिक चेतना को सबसे निचले स्तर तक विस्तारित कर दिया। बहुतों के लिए यह कल्पना करना मुश्किल हो सकता है कि जो व्यक्ति न लिख सकता था और न पढ़ सकता था, उसने पढ़ने के अधिकार के लिए ऐसा आंदोलन चलाया हो, जिसकी दुनिया में शायद कोई दूसरी मिसाल न हो, जो व्यक्ति किसी तरह हस्ताक्षर करना सीखा हो, वह व्यक्ति आधुनिक केरल के निर्माताओं में सबसे अगली पंक्ति में खड़ा हो। इस मामले में अय्यंकाली से तुलना के संदर्भ में कबीर और रैदास याद आते हैं, जिन्होंने औपचारिक शिक्षा से वंचित होने के बावजूद भी भारतीय मध्यकालीन बहुजन नवजागरण का नेतृत्व किया।
केरल में दलितों के ऊपर नंबूदरी ब्राह्मणों एवं नायरों ने ऐसी अनेक बंदिशें लाद रखी थीं, जिसकी कल्पना करना भी किसी सभ्य समाज एवं इंसान के लिए मुश्किल है। मुख्य सड़कों पर दलित चल नहीं सकते थे, बाजारों में वे प्रवेश नहीं कर सकते थे, स्कूलों के द्वार उनके लिए बंद थे, मंदिरों में उनका प्रवेश वर्जित था, अदालत के भीतर पांव रखने की उन्हें इजाजत नहीं थी, उनके मुकदमे अदालत के बाहर सुने जाते थे। महिलाएं और पुरुष कमर के ऊपर और घुटने के नीचे वस्त्र नहीं पहन सकते थे। महिलाएं यदि अपना स्तन ढकने की कोशिश करतीं, तो उन्हें टैक्स देना पड़ता था।
कई फीट की दूरी से उनकी छाया नंबूदरी ब्राह्मणों को अपवित्र कर सकती थी। इसी स्थिति को देखकर स्वामी विवेकानंद ने इसे जातियों का पागलपन कहा था। इस स्थिति को तोड़ने की केरल में पहली कोशिश श्रीनारायण गुरु ने की, लेकिन उनकी कोशिशों का ज्यादा फायदा दलितों से ऊपर की मध्य जातियों-विशेष कर इजावा जाति को मिला। हां उन्होंने उस चेतना को ज़रूर जन्म दिया और विस्तार किया, जिससे दलितों के बीच अय्यंकाली जैसा विद्रोही व्यक्तित्व जन्म लिया।
28 अगस्त 1863 को अय्यंकाली का जन्म त्रावणकोर जिले में, त्रिरुवनंतपुरम् से 13 किलोमीटर उत्तर दिशा में स्थित वेंगनूर नामक गांव में  पुलाया जाति (दलित) में हुआ था। भारत में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो दलित जाति में जन्म लिया हो और उसे जातीय अपमान का सामना न करना पड़ा हो, चाहे वह दुनिया के विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों से पढ़कर आए डॉ. आंबेडकर ही क्यों न हों। अय्यंकाली को जातीय अपमान का अनुभव बचपन में ही हो गया था, जब उनकी फुटबाल की गेंद एक नायर परिवार के अहाते में जा गिरी। अपमानित बालक शायद डॉ. आंबेडकर की तरह, लेकिन उनसे पहले इस जातीय अपमान से मुक्ति का संकल्प मन ही मन ले लिया।
हालांकि अय्यंकाली को भी ज्योतिबा फुले (11 अप्रैल 1827-28 नवंबर 1890) की तरह उनके पिता ने समझाया कि यही परिपाटी है, इसे स्वीकार करना होगा यानि जातीय अपमान स्वीकार करने और बर्दाश्त करके जीना सीखना होगा, लेकिन अय्यंकाली ने कुछ और ही ठान लिया था। आयोथी थास, स्वामी अछूतानंद (6 मई 1879-20 जुलाई 1933) और डॉ. आंबेडकर जैसे दलित विद्रोहियों के विपरीत अय्यंकाली को स्कूल जाना मयस्सर नहीं हुआ और उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं मिल पाया। इसका कारण यह था कि न तो उनके पिता अंग्रेजों की सेना में थे और न ही त्रावणकोर राज्य के उस हिस्से में ईसाई मिशनरियों का कोई स्कूल था, क्योंकि सैनिक छावनी और मिशनरी स्कूल ही वे जगहें थीं, जहां दलितों की पहली पीढ़ी शिक्षित हुई थी या महाराष्ट्र जैसी जगहों पर ज्योतिबा फुले ने दलितों के लिए स्कूल खोला।
ऐसा कोई भी स्कूल अय्यंकाली को नसीब नहीं हुआ। उन्होंने अपने समकालीन और बाद के दलित नायकों से कुछ अलग ब्राह्मणवाद के खिलाफ सीधे  विद्रोह का रास्ता चुना और इसके चलते उन्हें और उनके साथियों को नायरों के हिंसक हमलों का सामना भी करना पड़ा, जिसका पुरजोर जवाब उसी तरह से अय्यंकाली और उनके साथियों ने दिया। इस सीधे विद्रोह का शायद एक कारण यह था कि त्रावणकोर राज्य में प्रत्यक्ष तौर पर ब्रिटिश शासन नहीं था, वहां हिंदू राज्य था और उसका राजा ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार राज करता था। ब्रिटिश सुधारों के चलते जो थोड़ी सी सांस लेने की गुंजाइश तमिलनाडु में आयोथी थास, महाराष्ट्र में डॉ. आंबेडकर और उत्तर प्रदेश में स्वामी अछूनानंद को मिली हुई थी, वह भी त्रावणकोणर में अय्यंकाली को प्राप्त नहीं थी।
करीब 27 वर्ष की उम्र में अय्यंकाली ने एक ऐसा कदम उठाया, जो केरल ही नहीं, दुनिया के इतिहास में दर्ज करने वाला बन गया। केरल में मुख्य रास्तों पर दलितों को चलने की मनाही थी, अय्यंकाली ने 1891 में दलितों के लिए वर्जित सड़कों पर बैलगाड़ी दौड़ाने का निर्णय लिया। उन्होंने बैलगाड़ी तैयार कर उन रास्तों पर दौड़ाई, जिस पर उनके पूर्वज चलने की सोच भी नहीं सकते थे। नंबूदरी ब्राह्मण और ब्राह्मण के बाद खुद सबसे श्रेष्ठ समझने वाले नायरों को लगा जैसे यह बैलगाड़ी सड़कों को न रौंद कर, उनकी छाती को रौंद रही हो और वे लाठी-डंडों के साथ उनके ऊपर टूट पड़े।
लेकिन अय्यंकाली भी तैयारी करके निकले थे, उन्होंने हमलावरों से निपटने के लिए अपने पास पहले से रखी कटार ( खुखरी) निकाल मैदान में कूद पड़े। बुजदिल हमलावर भाग खड़े हुए। इस तरह अय्यंकाली ने सवर्णों के जातीय श्रेष्ठता के अभिमान को मिट्टी में मिला दिया। उन्होंने  ब्राह्मणवाद की करीब हर उस व्यवस्था को चुनौती दी, जो दलितों को मनुष्य होने के दर्जे से वंचित करती थी और उन्हें अपमानित करती थी।
असाक्षर, लेकिन आधुनिकता की चेतना एवं संवेदना से लैश अय्यंकाली ने बहुजन पुनर्जागरण के जनक ज्योतिबा फुले की तरह शिक्षा को मुक्ति का द्वार माना। उन्होंने 1904 में दलितों के लिए पहले स्कूल की नींव रखी, लेकिन सवर्णों के यह सहन नहीं हुआ, उन्होंने उनके स्कूल को दो बार जला दिया, लेकिन वे हार मानने वाली मिट्टी के नहीं बने थे, आखिर उन्होंने त्रावणकोर में दलितों का पहला स्कूल खोल ही दिया।
दुनिया के इतिहास में शायद कोई ऐसी दूसरी घटना घटी, जब मजदूरों ने शिक्षा के अधिकार को लागू कराने के लिए हड़ताल किया हो। शिक्षा के अधिकार को लागू कराने के लिए अय्यंकाली के नेतृत्व में दलितों ने सवर्णों के खेतों में काम करना बंद कर दिया। नायरों ने इस हड़ताल को तोड़ने की हर कोशिश की, लेकिन अय्यंकाली के कुशल नेतृत्व के चलते हड़ताल सफल हुई और दलितों को स्कूलों में प्रवेश का अधिकार प्राप्त हो गया। यह हड़ताल करीब एक वर्ष ( 1907-1908) तक चली।
नायर शास्त्र सम्मत वर्ण-व्यवस्था के अनुसार शूद्र थे, लेकिन आर्थिक-सामाजिक हैसियत में उत्तर भारत के सवर्णों ( राजपूतों) की स्थिति में थे, अय्यंकाली की सीधी टकराहट सबसे अधिक नायरों से हुई, वही ब्राह्मणवाद की अगली पंक्ति के सबसे मजबूत दीवार बनकर उनके सामने खड़े होते थे। शिक्षा के अधिकार को व्यवहार में उतारने के लिए अय्यंकाली पुजारी अय्यपन की 8 वर्ष की बेटी पंजामी को लेकर ऊरुट्टमबलम गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल पहुंचे। उनके पास डाइरेक्टर ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शन मिशेल के विशेष आदेश थे। प्रधानाचार्य ने बच्ची का दाखिला करने में अपनी असमर्थता जाहिर की। अय्यंकाली द्वारा विशेष आदेश दिखाने के बाद वह पंजामी को कक्षा के अंदर बिठाने के लिए तैयार हो गया। परंतु उस बच्ची के कक्षा में बैठते ही, नायर विद्यार्थियों ने कक्षा का बहिष्कार कर दिया। अय्यंकाली हार मानने वाले नहीं थे, उन्होंने दलित बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार व्यवहार में हासिल करके ही दम लिया।
वर्जित सड़कों पर चलने और शिक्षा का अधिकार हासिल करने के बाद अय्यंकाली ने दलित महिलाओं की गरिमा और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष शुरू किया। जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है कि दलित महिलाओं को नंबूदरी ब्राह्मणों की व्यवस्था के अनुसार अपना स्तन ढकने का अधिकार नहीं था और यदि वह ढकने की कोशिश करती, तो उन्हें टैक्स देना पड़ता था। यह टैक्स उनके स्तन के आकार के आधार पर तय होता है। इस मानव गरिमा विरोधी व्यवस्था के खिलाफ अय्यंकाली ने संघर्ष का  बिगुल फूंक दिया।
1915 में उन्होंने दलित एवं आदिवासी स्त्रियों का आह्वान किया कि वे इस घिनौनी व्यवस्था को चुनौती देते हुए, अपने स्तन ढकें और ब्लाउज पहने। उनके आह्वान पर हजारों दलित-आदिवासी महिलाओं ने ऐसा किया। महिलाओं द्वारा ऐसा करने पर  तथाकथित ऊंची जातियों में खलबली मच गई। ऊंची जातियों ने दलितों के घरों पर हमला बोल दिया। कई दलित महिलाओं के स्तन उच्च जातियों के लोगों ने काट डाले। उनके परिवार के सदस्यों को आग के हवाले कर दिया। फिर भी महिलाएं पीछे नहीं हटीं, न अय्यंकाली पीछे हटे।
अय्यंकाली का जीवन दलितों के लिए निरंतर संघर्ष करते हुए बीता, एक संघर्ष खत्म नहीं होता कि दूसरा शुरू हो जाता, क्योंकि वे दलितों को वो सभी अधिकार दिलाना चाहते थे, जिनसे उन्हें वंचित रखा गया था। दलितों को मुख्य बाजारों में प्रवेश का भी अधिकार नहीं था। उन्होंने अपने साथियों के साथ उन बाजारों में प्रवेश किया। इस बार भी सवर्णों ने दलितों पर लाठी-डंडे और अन्य हथियारों के साथ हमला बोल दिया। दलितों ने भी इस बार करारा जवाब दिया। जगह-जगह हिंसक झड़पें हुईं। अय्यंकाली के नेतृत्व में दलित समाज का स्वाभिमान जाग चुका था। आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीने के लिए दलित अय्यंकाली के नेतृत्व में हर तरह संघर्ष के लिए तैयार थे, जिसमें स्त्री-पुरूष दोनों शामिल थे।
शिक्षा और समान अधिकार हासिल करने के लिए संगठन जरूरी है, इसका अहसास अय्यंकाली को बखूबी था। उन्होंने 1904 में ‘साधु जन परिपालन संघ’ (गरीब रक्षार्थ संघ) की स्थापना की। सभी दलित जातियों के लोग इसकी सदस्यता ले सकते थे। संगठन का उद्देश्य दलितों को अंधविश्वास, गुलामी, अशिक्षा और गरीबी से मुक्ति हासिल कराना और जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता का अधिकार प्राप्त करना था। सवर्णों के हमलों के डर से पहले इस संगठन की गुप्त बैठकें होती थीं, लेकिन बाद में खुले में भी बैठकें होने लगीं।
इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि केरल भारत का एक ऐसा प्रदेश है, जिसका काफी हद तक आधुनिकीकरण हुआ है और वहां एक आधुनिक नागरिक समाज का निर्माण हुआ है। वहीं यह भी सच है कि वर्ण-जाति व्यवस्था एवं पितृ सत्ता के बहुत सारे अवशेष आज भी शेष भारत की तरह केरल में भी अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। इसके बावजूद भी केरल भारत का सबसे आधुनिकीकृत प्रदेश है और शीर्ष आधुनिक देशों से बहुत सारे मामलों में बराबरी करता है। मानव विकास सूचकांक में भारत के सभी प्रदेशों में शीर्ष पर है और दुनिया के शीर्ष देशों की बराबरी करता है। कोविड-19 से निपटने के मामले में भी केरल मॉडल की दुनिया भर में चर्चा हो रही है।
ऐसा केरल एक दिन में नहीं बना है, न ही किसी एक व्यक्ति के प्रयास से बना है। यह सर्वविदित है कि जब किसी देश या प्रदेश के समाज में एक गहरी उथल-पुथल मचती है और वह अपने मध्यकालीन जड़ विचारों से मुक्त होता है तथा आधुनिक बौद्धिक, तार्किक एवं विवेक संगत विचारों को अपनाता है, तभी वह एक आधुनिक देश या प्रदेश बनता है।
किसी देश-प्रदेश के आधुनिक उन्नत एवं समृद्ध देश-प्रदेश में तब्दील होने के लिए वहां के लोगों के मन-मस्तिष्क में बुनियादी बदलाव और उनके सोचने-देखने के तरीके का मानवीय एवं वैज्ञानिक होना जरूरी होता है। यानि उनकी विश्व-दृष्टि बदलनी चाहिए। इसके साथ ही वहां के सामाजिक-आर्थिक संबंधों में परिवर्तन आना चाहिए, जिसके अनुसार ही अक्सर वहां की राजनीति अपना आकार ग्रहण करती है। यह सब कुछ मिलकर एक ऐसे नागरिक समाज का निर्माण करते हैं, जिसे आधुनिक समाज कहा जा सकता है। भारत में केरल एक ऐसा ही प्रदेश है। इस संबंध में सारे उपलब्ध तथ्य इसके साक्षी हैं।
केरल के आधुनिक और मॉडल राज्य बनाने की नींव श्रीनारायण गुरु ने डाली थी, जिसे केरल के पहले दलित विद्रोही अय्यंकाली ने विस्तार एवं नई उंचाई दी। 18 जून, 1941 को अय्यंकली ने अंतिम विदा ली।
संदर्भ-
1. एम. निसार, मीना कंडासामी—अय्यंकाली : ए दलित लीडर ऑफ़ आर्गेनिक प्रोटेस्ट,
2. एम. वेलकुमार, ट्रांसफार्मेशन फ्राम अनटचेबल टू टचेबल: एक स्टडी ऑफ़ अय्यंकाली कंट्रीब्यूशन टू दि रेनेसां ऑफ़ त्रावणकोर दलित्स, 2018
3-कन्नुकुझी मणि, महात्मा अय्यंकाली, डी.सी.बुक्स, कोट्यम, 2008,
4- अय्यंकाली : सामाजिक क्रांति के प्रतीक  महानायक – ओमप्रकाश कश्यप ( लेख)
(जनचौक से साभार प्रकाशित)

उन्नाव, हाथरस और जालौर जैसा उत्पीड़न चलता रहेगा

दलितों और आदिवासियों की ख़बर मीडिया में तभी छपती है जब कोई उत्पीड़न होता है। जालोर में इंद्र कुमार मेघवाल की हत्या की ख़बर मीडिया में खूब रही। इतना स्थान मीडियम  इनके शिक्षाविकास व नौकरी आदि के लिए मिली होती तो लाखों का उत्थान हो जाता।करोडों दलित बच्चों का वजीफा नही बढ़ामिलता है तो बहुत बाद में   लाखों बच्चों की स्कालरशिप का गबन हो जाता है। लाखों करोड़ के स्पेशल कॉम्पोमेंट प्लान और ट्राइबल सब प्लान के पैसे का दुरपयोग होता रहता है। लाखों सरकार में पद खाली हैं। मीडिया में ऐसे मुद्दे को स्थान कहां मिलता है। जो मीडिया सामाजिक और राजनैतिक नेताओं का अच्छे काम को स्थान नही देती वही उत्पीड़न होने पर ही क्यों सक्रिय होती हैजालौर की घटना को मीडिया ने इतना जगह दिया कि लाखों लोग बिना संगठित पहुंच गए जालौर अपवाद नहीं है बल्कि और उत्पीड़न के मामले में भी ऐसा होता है कई घटनाएं ऐसी भी होती हैं कि नजर से बच जाती हैं भले ही बहुत संगीन हो। कई बार न चाहते हुए भी कवर करना पड़ता है जब ख़बर किसी एक जगह चल जाए।

सबसे आश्चर्य की बात है कि दलित सक्रियता इसी समय दिखती है। ऐसा इसी समय क्यों दिखती है यही यक्ष प्रश्न है। कभी एक जज बनाने या कुलपति के लिए क्यों नही इकठ्ठे होते एक जज के कलम से पूरा आरक्षण प्रभावित हो जाता है। एक विश्व विद्यालय के कुलपति से कितने प्राध्यापक भर्ती किए जा सकते हैं और छात्रों का तो भला होगा ही। भारत का सचिव या यूपीएससी का सदस्य या चेयरमैन के लिए कभी दलित सक्रियता नही दिखती जिससे करोड़ों के जीवन में परोक्ष या अपरोक्ष भला हो सकता है। दलितआदिवासी को लगभग वैसे मंत्रालय दिए जाते हैं जो ज्यादा भला नही कर सकते। राजनैतिक दल  संगठन ऐसे पद नही देते जिससे अपने समाज का भला हो सकता है। जो सासंद या विधायक इनके लड़े उसके पीछे क्यों नहीं खड़े होते ? जब पार्टी ऐसे लोगों का पत्ता काट देती है तो कोई दलित सक्रियता नही दिखती।

  दलित खुद के जातिवाद करने पर गर्व करते हैं। शायद ही कोई  कथित दलित सक्रियता वाला हो जो जाति के संगठन से  परोक्ष या अपरोक्ष से न जुड़ा हो। एक जाति दूसरे से लड़ते रहते हैं।पंजाब में चुनाव हुआ मज़हबी दलित नाममात्र का वोट दिया क्योंकि चन्नी रविदासी थे। खुद तो जातिवाद करें तो ठीक और जट सिख जट करें तो गलत बहुजन अंदोलन के पहले भले ही चेतना काम थी लेकिन उपजातिवाद कम था कहा गया कि जो अपनी जाति को  जोड़ेगा वो पाएगा फिर क्या था निकल पड़े जाति के नेता अपनी अपनी जाति को संगठित करने के लिए और किए भी।  जब टिकट और सम्मान नहीं मिला तो अपनी जाति का वोट लेकर दूसरे दुकान पहुंच गए। जो भी कीमत लगी समझौता कर लिया कुछ न से कुछ भी भला और जाति इतने पर बौरा जाति है और दनादन वोट डाल देती। छाती चौड़ी हो जाती है और उस पार्टी के लिए झंडा डंडा उठा लेते हैं। थोड़े से लालच के चक्कर में एक दलित की जाति दूसरे के खिलाफ खड़ी हो जाती है।

 हरियाणा में ए और बी का इतना गहरा अंतर्विरोध है कि दबंग और शोषण करने वाली जाति से हाथ मिला लेंगे लेकिन एक दूसरे को फूटी आंख से देखने को तैयार नहीं हैं।

 इनके जातीय सम्मलेन की बातें जानें तो आश्चर्य होगा। व्यवस्था के अनुसार जो जातियां सबसे नीचे पायदान पर हैं वो भी गला फाड़ फाड़ कर भाषण करेगें कि हमें अपनी जाति पर गर्व है। जब इन्हे गर्व है तो राजपूत और बनिया को अपने जाति पर क्यों न गर्व हो ? खुद करें जातिवाद तो गर्व की बात है जब ब्राम्हण करें तो जातिवाद जब तक यह चलेगा जालौरहाथरस और उन्नाव जैसी घटनाएं होती रहेंगी। उत्पीड़न का श्रोत जनतंत्र में नही बल्कि सामाजिक व्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था ज्यों का त्यों बनी रहे तो सरकार किसी की भी हो उत्पीड़न नही रुकेगा। जनत्रंत्र की ताकत जब ढीली हो जाती है तो उत्पीड़न हो जाता है। जाति व्यवस्था का भेदभाव और उत्पीड़न हिस्सा है। संविधान के कारण भेदभाव कम हुआ है और जहां संवैधानिक प्रवधान निष्क्रिय हुए वहीं पर जालौर जैसा कांड हो जाता है।

बहुजन अंदोलन था डॉ अंबेडकर के विचाराधारा के खिलाफ लेकिन लोग समझे कि यही सामाजिक न्यायजाति का उन्मूलन और एकता है। इसे  ऐतिहासिक ठगी या नासमझी कहा जाए। बाबा साहेब हिंदू धर्म तक जाति से मुक्ति के लिए छोड़ दिए। हमारे सारे नेता हिन्दू धर्म में ही मरे कुछ अपवाद को छोड़कर। बाबा साहब के संघर्ष का प्रतिफल जैसे आरक्षण और अन्य सुविधाएं तो लेने में कोई देरी नही। छात्र जीवन से ही लेने लगते हैं और जब बौद्ध धर्म अपनाने की बात आए तो बुढ़ापे का इंतजार बुद्ध धर्म तो आरक्षण लेने से पहले ले लेना चाहिए ताकि जातिवादी संस्कार से मुक्त हो जाएं खुद जातिवादी संस्कार में रहकर जाति के खिलाफ लड़ रहे हैं खुद जाति उन्मूलन न करें और सवर्णों से कहें कि वो जातिवाद न करें।

जब तक मेघवाल , बेरवाबलाईखटीकचमार , महारमतंग रहेंगे तो एकता कहां होगी और बिना एकता के अन्याय से लड़ कैसे पाएंगेजिन संस्कारों के कारण अत्याचार हो रहा है उसी को माने तो सामाजिक व्यवस्था मजबूत रहेगी और उत्पीड़न होता रहेगा , हैं कभी कम कभी ज्यादा होता रहेगा।  दलित पीएम और सीएम भी बन जाएं तो उत्पीड़न बंद नही जाएगा और कम हो सकता है। दलित उत्पीड़न की घटना से किसी राजनैतिक दल को फायदा हो सकता है जो लोग दर्द और सहानुभूति प्रकट करने जालोर गए , उनका नाम मीडिया में छप गया और नेता बन जाने का अवसर  मिल जाए लेकिन दलितों के शोषण को रोकने का उपाय यह नही। ऐसे घटना का विरोध होना चाहिए और  हुआ भी लेकिन स्थाई समाधान खोजना होगा।

 

जेएनयू की वीसी ने कहा- कोई देवता ब्राह्मण नहीं, देखिए दलित चिंतक रतन लाल ने क्या दिया जवाब

देश के नंबर एक विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर शांतिश्री धउलिपुड़ी पंडित का हिन्दू देवी देवताओं को लेकर दिया बयान चर्चा का विषय बना हुआ है। जेएनयू की वीसी ने बीते सोमवार (22 अगस्त 2022) को अंबेडकर लेक्चर सिरिज में हिन्दू देवी देवताओं को लेकर कहा कि कोई भी देवी-देवता ऊंची जाति के नहीं हैं। उन्होंने भगवान शिव को लेकर कहा कि वह एससी या एसटी हो सकते हैं तो वहीं भगवान जग्गनाथ को आदिवासी मूल का बताया। उन्होंने कहा कि मानवशास्त्रीय रूप से देवता ऊंची जाति के नहीं हैं। हिन्दी एक धर्म नहीं है, बल्कि जीवन का तरीका है। ऐसे में हिन्दू आलोचना से क्यों डरते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि देवताओं की उत्पत्ति को मानवशास्त्रीय रूप में जानना चाहिए।

मनुस्मृति का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि कोई भी महिला यह दावा नहीं कर सकती कि वह ब्राह्मण या कुछ और है। महिला को पहचान पिता या पति से मिलती है। उन्होंने कहा कि मनुस्मृति में महिलाओं को शूद्र का दर्जा दिया गया है। महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए उन्होंने यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने की वकालत की।

अपने संबोधन में उन्होंने तथागत बुद्ध का जिक्र करते हुए कहा कि गौतम बुद्ध हमारे समाज में अंतर्निहित भेदभाव पर हमें जगाने वाले पहले लोगों में से एक हैं। तो वहीं डॉ. आंबेडकर का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आधुनिक भारत में कोई नेता डॉ. आंबेडकर जितना महान नहीं।

जेएनयू की कुलपति के हिन्दू देवी देवताओं पर की गई टिप्पणी पर दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में इतिहास विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. रतन लाल से बात की। इस पर रतन लाल ने कहा कि मैं कुलपति महोदया की बात से सहमत हूं। मैं पिछले कई सालों से कह रहा हूं कि शिव जैसे देवता मूलनिवासियों के हैं। अब समय आ गया है जब दलित बहुजन समाज को  ऐसे देवताओं की घर वापसी करानी चाहिए। डॉ. रतन लाल से हुई पूरी बातचीत को आप नीचे दिए गए यू-ट्यूब के लिंक पर जाकर देख सकते हैं।

दिल्ली में मना दलित लेखक संघ का रजत जयंती वर्ष समारोह, एक मंच पर आएं दिग्गज साहित्यकार

विगत 21 अगस्त को दिल्ली के गाँधी पीस फाउंडेशन में दलित साहित्यकार इकट्ठा हुए। देश के कई हिस्सों से पहुंचे ये साहित्याकर दलित लेखक संघ के रजत जयंती वर्ष का समारोह मनाने इकट्ठा हुए थे। इस दौरान एक दिवसीय वार्षिक अधिवेशन  का आयोजन हुआ, जिसमें तमाम साहित्यकारों एवं लेखकों ने अपनी बात रखी। पूरे दिन के इस कार्यक्रम में मुख्य तौर पर चौथी राम यादव, डॉ. रामचंद्र, अनिता भारती, रजनी अनुरागी, राजेश कुमार, अजमेर सिंह काजल, कवितेंदु इंदू, प्रियंका सोनकर, बिनील विस्वास, चंद्रकांता, प्रेमचंद गांधी, स्नेहलता नेगी आदि साहित्यकारों ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम में दिल्ली सरकार में सामाजिक न्याय विभाग के मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम और दिल्ली विवि के हिन्दू कॉलेज के असि. प्रोफेसर डॉ. रतन लाल भी मौजूद रहें।

इस मौके पर कई साहित्यकारों को साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित भी किया गया। सम्मानित होने वाले साहित्यकारों में कर्मशील भारती, शीलबोधि, सुशीला टाकभोरे, एल.आर. बाली, संतराम आर्य, जसवंत सिंह जन्मजेय एवं रजनी तिलक (मरणोपरांत) शामिल रहें। दलित लेखक संघ की अध्यक्ष अनिता भारती ने सभी अतिथियों का स्वागत किया।

मासूम इंद्र मेघवाल मामले में जानिए ताजा अपडेट, हैरान कर देगी यह खबर

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मटकी से पानी पी लेने के कारण मार दिये गए नौ साल के मासूम इंद्र कुमार के मामले में हर रोज नई जानकारी सामने आ रही है। इस घटना से देश भर में दलित समाज के भीतर गुस्सा है और हर रोज देश के तमाम हिस्सों में लगातार प्रदर्शन जारी है।

राजस्थान की बात करें तो वहां कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़, टोंक, बांसवाड़ा, सवाईमाधोपुर, करोली, दौसा में प्रदर्शन किए गए। इस घटना से नाराज बारा-अटरु के विधायक पन्नालाल मेघवाल ने इस्तीफा दे दिया है। तो ताजा घटनाक्रम में उनका समर्थन करते हुए बारां नगर निकाय के 25 कांग्रेस पार्षदों में से 12 ने दलितों के खिलाफ अत्याचार के विरोध में इस्तीफा दे दिया। तो वहीं बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए विधायकों ने भी पीड़ित को न्याय न मिलने पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार से इस्तीफा लेने की बात कही है।

इंद्र कुमार की मौत के 40 घंटे बाद उसके अंतिम संस्कार को राजी हुए उसके परिजन बेटे को खो चुकने के बाद टूट गए हैं। परिजन 50 लाख मुआवजा, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी और स्कूल की मान्यता रद्द करने की मांग कर रहे हैं। दूसरी ओर सरकार से लेकर प्रशासन तक मामले की लीपापोती में लगा है और जाति के कारण हत्या की बात मानने को तैयार नहीं है। दूसरी ओर मनुवादी मीडिया भी गांव के सवर्णों से बातचीत के आधार पर अपना मत बना रहा है।

जबकि दूसरी ओर मृतक इंद्र कुमार मेघवाल के चाचा और मामले में शिकायतकर्ता किशोर कुमार मेघवाल का कहना है कि मेरे भतीजे की मृत्यु उसकी जाति के कारण हुई। हमारे क्षेत्र में दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार होता है। आज भी हमें नाइयों को खोजने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है जो हमारे बाल काट सकते हैं। जबसे हमने मुकदमा दर्ज कराया है, हम अपनी सुरक्षा के लिए डर रहे हैं।

तमाम मीडिया रिपोर्ट्स और पुलिस अधिकारी गांव वालों का हवाला देकर मटकी की बात से इंकार कर रहे हैं। लेकिन यहां सवाल यह है कि सरकार और गैर दलित गांव वालों की बात मानी जाय या फिर परिजनों की।

जब नेहरू के निजी सचिव एम.ओ. मथाई ने की बाबासाहेब पर टिप्पणी

 मेरे एक मित्र के माध्यम से, पी.के. पणिकर, जो संस्कृत के विद्वान और गहरे धार्मिक थे, बी.आर. अम्बेडकर मुझ में दिलचस्पी लेने लगे। मैंने पणिकर को अम्बेडकर के प्रति अपनी प्रशंसा के बारे में बताया था, लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि वह एक महान व्यक्ति होने के लिए इंच से कम हो गए क्योंकि वह पूरी तरह से कड़वाहट से ऊपर नहीं उठ सके। हालांकि, मैंने कहा कि किसी को भी उन्हें दोष देने का कोई अधिकार नहीं है, जीवन भर उन्हें जो अलगाव और अपमान सहना पड़ा, उसे देखते हुए। पणिकर, जो अम्बेडकर के पास बार-बार आते थे,ने जाहिर तौर पर उन्हें यह सब बताया। रविवार की सुबह अम्बेडकर ने मुझे फोन किया और शाम को चाय के लिए कहा। उन्होंने कहा कि उन्होंने पणिकर से भी पूछा था। मैं नियत समय पर आ गया। दुआ सलाम के बाद, अम्बेडकर ने अच्छे-अच्छे अंदाज में मुझसे कहा, “तो आपने मुझमें दोष पाया है, लेकिन मैं आपकी आलोचना को स्वीकार करने के लिए तैयार हूं।” फिर उन्होंने छुआछूत की बात की। उन्होंने कहा कि गांधी के अभियानों की तुलना में रेलवे और कारखानों ने अस्पृश्यता की समस्या से निपटने के लिए अधिक प्रयास किया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि अछूतों की वास्तविक समस्या आर्थिक थी न कि “मंदिर प्रवेश”, जैसा कि गांधी ने वकालत की थी। तब अम्बेडकर ने गर्व के साथ कहा, “हिंदुओं को वेद चाहिए थे, और उन्होंने व्यास को बुला भेजा जो हिंदू जाति के नहीं थे। हिंदू एक महाकाव्य चाहते थे और उन्होंने वाल्मीकि को बुला भेजा जो एक अछूत था। हिंदू एक संविधान चाहते हैं और उन्होंने मुझे बुला भेजा है।”

अम्बेडकर ने कहा, “हमारा संविधान निस्संदेह कागज पर छुआछूत को समाप्त कर देगा; लेकिन यह भारत में कम से कम सौ साल तक वायरस के रूप में रहेगा। यह लोगों के मन में गहराई से समाया हुआ है।” उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में दासता के उन्मूलन को याद किया और कहा, “नीग्रो की स्थिति में सुधार 150 साल बाद भी धीमा है।” मैंने कहा कि मैं उनसे पूर्णतया सहमत हूं और अपनी मां की कहानी सुनाई। अपने पीछे ईसाई धर्म के लगभग 2000 वर्षों के बावजूद, उन्होंने पंडित मदन मोहन मालवीय के समान दृढ़ विश्वास के साथ अस्पृश्यता का अनुपालन किया। वह एक हरिजन को गर्मियों में हमारे कुएं से पानी निकालने की अनुमति नहीं देती थी, जब पानी की आम तौर पर कमी होती थी। अगर कोई अछूत उसके बीस फीट के भीतर आ जाए तो वह नहाने के लिए दौड़ती थी।

 उन्होंने कहा, “भारत में हिंदी पट्टी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि क्षेत्र के लोगों ने वाल्मीकि को त्याग दिया और तुलसीदास की स्थापना की।” उन्होंने विचार व्यक्त किया कि इस विशाल क्षेत्र के लोग तब तक पिछड़े और अड़ियल बने रहेंगे जब तक कि वे वाल्मीकि द्वारा तुलसीदास की जगह नहीं ले लेते। उन्होंने मुझे याद दिलाया कि, वाल्मीकि रामायण के अनुसार, “जब राम और लक्ष्मण भारद्वाज के आश्रम में पहुंचे, तो ऋषि ने राम के लिए कुछ बछड़ों को इकट्ठा किया, ताकि वे दावत के लिए वध किए जा सकें। इसलिए राम और उनके दल को वील (गोमांस) खिलाया गया; तुलसीदास ने यह सब काट डाला। मैंने उनसे कहा कि वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में यह निर्धारित किया है कि युवा जोड़ों को शादी से छह महीने पहले वील खिलाना चाहिए।

अम्बेडकर ने मुझ पर उंगली उठाई और कहा, “आप मलयाली लोगों ने इस देश का सबसे बड़ा नुकसान किया है।” मैं चौंक गया और उनसे पूछा कि कैसे। उन्होंने कहा, “आपने उस आदमी शंकराचार्य को, जो तर्कशास्त्र में एक निराश विशेषज्ञ थे, इस देश से बौद्ध धर्म को भगाने के लिए उत्तर की ओर एक पदयात्रा पर भेजा।” अम्बेडकर ने कहा कि बुद्ध भारत की अब तक की सबसे महान आत्मा थे। उन्होंने यह भी कहा कि हाल की शताब्दियों में भारत ने जो सबसे महान व्यक्ति पैदा किया, वह गांधी नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद थे।

मैंने अम्बेडकर को याद दिलाया कि, “यह गांधी ही थे जिन्होंने नेहरू को सुझाव दिया था कि वे आपको सरकार में शामिल होने के लिए आमंत्रित करें।” उनके लिए यह खबर थी। मैंने यह कहकर अपने बयान में संशोधन किया कि यह विचार गांधी और नेहरू को एक साथ लगा। अम्बेडकर ने ही संविधान सभा में संविधान विधेयक पेश किया था। अम्बेडकर ने मुझे विश्वास में बताया कि उन्होंने बौद्ध बनने और अपने अनुयायियों को भी ऐसा करने की सलाह देने का फैसला किया है। जब तक उन्होंने दिल्ली नहीं छोड़ा, तब तक अम्बेडकर मेरे संपर्क में रहे। वह एक उल्लेखनीय व्यक्ति थे जो भारतीय लोगों की सलामी के बड़े पैमाने पर हकदार थे।


एमओ मथाई, “नेहरू युग की यादें”-1978, विकास पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, पृष्ठ: 24-25

दो ह्रदय विदारक घटनाओं के आईने में आजादी के 75 वर्ष

पहली घटना राजस्थान के जालौर की है, जहां शिक्षक ने 8 वर्षीय मासूम छात्र को इतनी बेहरहमी से पीटा की उसकी मौत हो गई गई। छात्र का ‘अपराध’ यह था कि वह दलित समाज में पैदा हुआ था और उसने अपने सवर्ण शिक्षक के मटके से पानी पी लिया था। यह वही अपराध था, जिसे कभी आंबेडकर ने किया था और जिसके चलते उन्हें बुरी तरह अपमानित किया गया था। गनीमत थी कि उनकी जान बख्श दी गई थी।
दूसरी घटना हरियाणा के फरीदाबाद की है, जहां रेलवे लाइन के किनारे मजदूर बस्ती में रहने वाली एक 12 वर्षीय मासूम बच्ची को दरिंदे खींचकर झाड़ियों में  ले गए, उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसे मार डाला। बच्ची का पहला अपराध यह था कि वह लड़की थी और दूसरा अपराध यह था कि घर में शौचालय न होने के नाते शौच के लिए रेल पटरी  पर गई थी। बच्ची के मजदूर पिता की मौत पहले ही हो चुकी है, उसकी मां मजदूरी करके बच्चों का पालन-पोषण करती है।
वीडियो देखें- https://www.youtube.com/watch?v=BszzdzXpWG4
क्या ये दो घटनाएं भारतीय समाज में अपवादस्वरूप होने वाली घटनाएं हैं, जिन्हें कुछ आपराधिक किस्म के लोग कभी-कभी अंजाम दे देते हैं या घटनाएं पूरे भारतीय समाज के आपराधिक मानसिकता को उजागर करती हैं और भारतीय समाज के अपराधिक सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट की अभिव्यक्त?जाति और स्त्री के  के मामले में भारतीय समाज बहुत ही गहरे स्तर पर एक बीमार समाज है।
तथाकथित आजादी के 75 वर्षों बाद भी भारतीय समाज का बहुलांश हिस्सा  जातिवादी और पितृसत्तावादी है और पुरूषों का एक बड़ा हिस्सा बलात्कारी मानसिकता का है। आजादी के 75 वर्षों बाद भी इन दोनों बीमारियों (जाति और पितृसत्ता) के इलाज का कोई गंभीर प्रयास दिखाई नहीं देता है, इलाज तो दूर की बात है, भारतीय राज्य और समाज के संचालक यह मानने को भी तैयार नहीं हैं कि भारतीय समाज एक बीमार, बहुत ही बीमार समाज है, दुर्योग यह है कि इन दोनों बीमारियों के खुलेआम पोषक आजादी के 75 वर्षों बाद सत्ता को शीर्ष पर विराजमान हो गए हैं।

बिहार के बदली सियासत में किसे सबसे ज्यादा फायदा? सर्वे में चौंकाने वाला खुलासा

 भारतीय जनता पार्टी से लगभग डेढ़ साल के याराने के बाद नीतीश कुमार ने भाजपा का हाथ झटक कर फिर से राजद का हाथ थाम लिया है। इसके बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि बिहार में हुए इस सियासी उठा पटक का सबसे ज्यादा फायदा किसे मिलेगा?

बिहार के बदले सियासी हालात को लेकर सी वोटर ने एक टीवी चैनल के लिए बिहार की जनता के बीच जाकर सर्वे किया है। इस सर्वे में बदले सियासी हालात का सबसे ज्यादा फायदा तेजस्वी यादव को बताया जा रहा है। जनता से जब पूछा गया कि बिहार में गठबंधन टूटने का फायदा किसको होगा? इस सवाल पर 33 फीसदी लोगों ने बीजेपी का नाम लिया तो वहीं, महज 20 फीसदी लोगों ने नीतीश कुमार को फायदा पहुंचने की बात कही। सबसे ज्यादा 47 फीसदी लोगों ने कहा कि इसका लाभ तेजस्वी यादव को मिलेगा।

बीजेपी और जदयू में आई खटास की वजह पूछे जाने पर 28 फीसदी लोगों ने जेडीयू की ओर से उपराष्ट्रपति नहीं बनाने का कारण बताया। तो इतने ही प्रतिशत लोगों का कहना था कि भाजपा द्वारा आरसीपी सिंह को प्रमोट किए जाने की बाद से नीतीश कुमार नाराज थे। वहीं, 30 फीसदी लोगों ने कहा कि बिहार में मंत्रियों के बीच मतभेद के कारण बीजेपी-जेडीयू गठबंधन टूटा।

 हालांकि एक बार फिर से नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री और तेजस्वी यादव ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है, लेकिन सर्वे में जब पूछा गया कि नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव में से किसे मुख्यमंत्री बनना चाहिए तो करीब 56% लोगों ने तेजस्वी यादव के नाम पर मुहर लगाई। वहीं, 44 फीसदी लोगों ने नीतीश कुमार का नाम लिया।

बता दें कि यह सर्वे एबीपी न्यूज के लिए सी-वोटर ने किया था। इसमें बिहार के 1 हजार 415 लोगों की राय पूछी गई। कुल मिलाकर साफ है कि बिहार की सियासत में तेजस्वी यादव नंबर वन बनने की राह पर हैं।

अमेरिका में बनेगा 1.5 मिलियन का अंबेडकर मेमोरियल, रखी गई पहली ईंट

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 अमेरिका में रहने वाले अंबेडकरवादियों के संगठन अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर विदेशी जमीन पर नया इतिहास बनाने जा रही है। और इसकी आधारशिला संगठन ने अपने 10वें स्थापना दिवस के मौके पर 23 जुलाई 2022 को रख दी। इस दिन संगठन द्वारा अंबेडकर मेमोरियल का पहली ईंट रख दी गई। खास बात यह रही कि यह पहली ईंट भारत के मध्य प्रदेश स्थित महू में बाबासाहेब आंबेडकर के जन्मस्थान से लाई गई थी। इस शानदार मौके के गवाह अमेरिका के 12 राज्यों से आए लगभग 200 अंबेडकरवादी बने। बहुजन नायकों के जयकारे के बीच पहला पत्थर अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर के मौजूदा अध्यक्ष संजय कुमार ने रखा। यह पूरा प्रोजेक्ट डेढ़ मिलियन डालर यानी 15 लाख अमेरिकी डॉलर का है। रुपये में बात करे तो यह प्रोजेक्ट तकरीबन 12 करोड़ रुपये का है।

खास बात यह रही कि अंबेडकर मेमोरियल की पहली ईंट रखने के दौरान हर जाति धर्म के लोग मौजूद थे। इसमें अंबेडकरवादियों के साथ ही ब्लैक, मुस्लिम एवं उन अमेरिकी एक्टिविस्टों ने हिस्सा लिया, जो बाबासाहेब आंबेडकर की मानवतावादी विचारधारा में यकीन रखते हैं। मेमोरियल की पहली ईंट रखते हुए अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर के प्रेसीडेंट संजय कुमार ने कहा कि- फाउंडेशन स्टोन को विभिन्न धर्मों और जातियों के अम्बेडकरवादियों द्वारा लगाया गया था, यह दर्शाता है कि एआईसी विविधता को कैसे अपनाना चाहता है। उन्होंने कहा कि यह इमारत सिर्फ ईंटों और लकड़ियों से नहीं बनेगा, बल्कि यह दुनिया भर में मौजूद बाबासाहेब के करोड़ों अनुयायियों की भावनाओं से भी बनाया जाएगा।

बताते चलें कि अंबेडकर मोमोरियल बनाने का बजट डेढ़ मिलियन यानी वन एंड हाफ मिलियन डालर है। यह मेमोरियल सेंटर के मुख्यालय पर बनना है जो कि अमेरिका के वशिंगटन डीसी में स्थित है। यह अंबेडकर मेमोरियल अमेरिका में बाबासाहेब का पहला स्मारक होगा। बता दें कि पिछले एक दशक से यह संगठन भारत में मानवाधिकार और समानता के लिए काम कर रहा है।

जितेन्द्र मेघवाल को न्याय दिलाने उतरी बसपा, सड़क से संसद तक संघर्ष का ऐलान

 हत्या के चार महीने से ज्यादा बीतने के बावजूद राजस्थान के युवा जितेन्द्र मेघवाल को इंसाफ नहीं मिलने के बाद बहुजन समाज पार्टी ने जितेन्द्र को इंसाफ दिलाने को लेकर मोर्चा खोल दिया है। बहुजन समाज पार्टी के प्रतिनिधिमंडल ने बीते 30 जुलाई को जितेन्द्र मेघवाल के घर पहुंच कर उनके परिवार से मुलाकात की और जितेंद्र मेघवाल के आश्रितों को भी उदयपुर के कन्हैया लाल हत्याकांड की तर्ज पर 50 लाख रुपये का मुआवजा और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने की मांग की।

 बसपा नेताओं ने राजस्थान सरकार पर आरोप लगाया कि राज्य सरकार एक जैसे ही मामलों में मृतकों को राहत सहायता देने में भी भेदभाव करती है। बसपा नेताओं का आरोप है कि जितेंद्र मेघवाल की हत्या भी जातिगत मानसिकता के चलते ही सार्वजनिक रूप से की गई थी। दिनदहाड़े हत्या के बावजूद सरकार ने उनके परिजनों को न तो आज तक 50 लाख रुपए की सहायता दी और ना ही किसी परिजन को सरकारी नौकरी दी, जबकि दूसरे मामलों में सरकार ऐसा करती रही है । बसपा नेताओं ने मुख्यमंत्री अशोक गहोलत सरकार के रवैये पर सवाल उठाया। बसपा प्रतिनिधिमंडल का कहना था कि इससे साफ है कि सरकार की दलितों के प्रति कथनी और करनी में अंतर है।

 तकरीबन चार महीने पहले राजस्थान में घटी एक घटना से देश भर में हंगामा मच गया था। 15 मार्च 2022 को जितेन्द्रपाल मेघवाल नाम के दलित समाज के एक युवक की हत्या कर दी गई। जितेन्द्र के परिवार का आरोप था कि जितेन्द्र अच्छे कपड़े पहनता था, मूंछे रखता था और रॉयल लाइफ जीने की बात करता था। साथ ही इसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर पोस्ट करता था, जो कि जातिवादी गुंडों सूरज सिंह, राजपुरोहित और रमेश सिंह को अखर गया था। इसके बाद 15 मार्च को बाइक से जा रहे जितेन्द्र मेघवाल की पीछे से चाकू गोदकर हत्या कर दी गई। जितेन्द्र पाली जिले के बाली स्थित सरकारी हॉस्पीटल में कोविड हेल्थ सहायक के पद पर तैनात थे।

जितेन्द्र की हत्या के बाद से ही उसके परिजन मृतक के भाई को सरकारी नौकरी देने, आर्थिक रूप से कमजोर मृतक के परिवार को 50 लाख रुपए देने की मांग कर रहे हैं। तब धरने पर बैठे परिजनों को स्थानीय प्रशासन ने उम्मीद दिलाई थी कि वो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तक परिवार की मांग पहुंचा देंगे। लेकिन लगता है कि तब से मुख्यमंत्री सचिवालय ने दलित समाज के जितेन्द्र मेघवाल के इस मामले में आंखें बंद कर ली है।

हालांकि बसपा के इस मुद्दे को उठाने से परिजनों को इंसाफ की उम्मीद जगी है।  बहुजन समाज पार्टी के प्रतिनिधिमंडल में भाजपा के प्रदेश प्रभारी और राज्यसभा सांसद राम जी गौतम, सुरेश आर्य,नप्रदेश अध्यक्ष भगवान सिंह बाबा, पूर्व विधायक पूरणमल सैनी, प्रदेश उपाध्यक्ष सीताराम मेघवाल सहित तमाम पदाधिकारी मौजूद रहें।

इस मुलाकात की तस्वीर ट्विट करते हुए बसपा के राज्यसभा सांसद रामजी गौतम ने कहा कि BSP राजस्थान यूनिट इस हक के लिये सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष करेगी। जितेन्द्र मेघवाल के परिजनों का जिक्र करते हुए बसपा सांसद ने लिखा कि आपका हाथ एक बेटे की हैसियत से पकड़कर यह वादा कर रहा हूँ न्याय दिलाकर रहूँगा।

“There is no problem to live in residential societies, It is difficult to live with our Bahujan Culture”

We live in a rented house. And sometimes there are problems with it. Especially when leaving one house and looking for another house. Sumit Chauhan and Azra Praveen Said. Sumit, a journalist by profession, comes from a Dalit background and Azra is a Muslim. Because of this, the problems of both increase more.

Sumit says, ‘My name is Sumit Chauhan. The Chauhan surname is written by many communities. In such a situation, many times while we looking for a house, landlord want to know about my caste, but they do not ask directly. I understand that they want to know the caste, so I also turn them around. Then, exhausted, they directly ask the caste. After knowing the caste, the attitude of the person talking changes.

Sumit and Azra living in a residential society in Greater Noida, near to Delhi. When people like Sumit and Azra reach high-rise buildings, long-haul vehicles and people working in multi-national companies, there is a stir. Progressiveness of people who consider themselves to be progressive is lost in an instant when someone Sumit Chauhan or someone Azra Praveen is standing in front of them to ask for their house on rent.

Sumit says, “In 2018 we were looking for a house on rent. Then we had to face many problems. Sometimes because of caste, sometimes because of religion, we were not able to get a house, so we were very upset, at that time. We were looking for a house in Noida at a good location. We could have given all the money that others would have given. Here you have to find a house through a broker. One house is final. But suddenly we were refused on an excuse. Later the broker told that the house owner had a problem with our caste and religion.

Azra says that my experience is that people in cities ask more questions about caste and religion. On many occasions when they do not understand caste by surname, they even ask directly. I have realized that he does not hesitate.

Sumit adds, “My experience is that despite coming to cities and living in big buildings, people’s perception of caste has not changed. People are racist. They make a difference by caste, religion and your family background. You will also see that the big buildings owners in the cities maximum belong to the upper caste people. Dalit-Bahujans have reached there in very small numbers.

This experience is not just for Sumit and Azra. Rather, Dalits who have been able to reach the larger NCR community, and with their own ethnic identity, are made to feel isolated on many occasions. Or they are told untold, discrimination is done.

Sarvind, who is a geoscientist in ONGC and gets a handsom amount of salary, his experience has also not been normal. After living in two societies, he has now bought his own flat. But their experiences have been more or less the same everywhere.

Sarvind, who had come to Delhi posting from Assam in 2015, says, My office was in Noida, so I thought of shift here. I took a house on rent at Prateek Wisteria in Noida Sector 77-78. The rent was very high. But the religious pomp present there was shocking. After some time, the landlord had to sell the house; we had to leave from there.

 After this, sarvind took a flat on rent in Supertech Society in Sector 78 in 2017-2018. There was a temple built inside the society. There was a lot of noise all the time. All religious events were held there in full swing. I once proposed that when many events are organized in the society, then the birthday of Babasaheb Ambedkar, the architect of the constitution and other such great personalities should also be celebrated.

I clearly felt that he had become uncomfortable. He said at that time, it was okay to avoid it, but later he did not show any interest on my proposal. It was clear that he rejected the proposal to celebrate Ambedkar Jayanti.

Later I thought of getting my own house. I saw 30-40 societies in NCR. We have bought a flat in Exotica Dream Village in Noida Extension. Its owner was Jain. I do not believe in religious pomp. There was no temple anywhere on the map of that society, so I liked it.

When we started living here, after few days, 15-20 people brought a stone from outside the society shouting Jai Shri Ram. Guards to the society staff was opposed, but they did not agree. He was kept in a public place. Now it has been made a temple. Me and my wife Munni Bharti, who is an assistant professor at a college in Delhi University, protested that when people of all religions make their own symbols, where will people sit and walk. Then I proposed to these people to celebrate Ambedkar Jayanti and Phule Jayanti in the month of April. But the president of the society did not show any interest in this.

After this confrontation, our identity was revealed. People started moving away from us. People who used to meet warmly in the morning and evening walk, he started running away.

There are two things in this. As soon as you talk differently, people find out whether you live on rent or have your own house. When they come to know that you are the flat owner, then they cannot do much.

So what is the reaction of the society, when people with dalit and tribal identities go there to live, are they accepted them? I asked to Sarvind. He says that people with Dalit-Adivasi identity do not accept by them.

He adds that, it is not that Dalits do not live in the society. Now some people have started living but they are not coming out with their identity. My identity came to the fore when I raised a question about to celebrate Ambedkar Jayanti or a temple built illegally. But no one came with us. I believe that the day the Dalits come out with their own identity, the clash in the society will increase. There is no problem living there. It is difficult to live with our culture after buying a flat.

Ambedkarites of USA are going to create history

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 On 23rd July 2022, AIC celebrated the 10th anniversary of the founding of the organization in a big way. On the occasion, AIC also conducted the ground-breaking ceremony of the Ambedkar Memorial by installing the first brick specially brought from Babasaheb’s birthplace, Mhow, India, at the AIC premises. This marks the beginning of the Dr. Ambedkar Memorial project. The ground breaking ceremony was attended by more than 200 Ambedkarites from across 12 states in the USA and also from India.

Sanjay Kumar, President of AIC, in a statement said, “It was overwhelming to see people marching together around the property with energetic Jai Bhim slogans while the brick was in transition. The brick was mounted by Ambedkarites of various faiths and ethnicities, demonstrating how AIC wants to embrace diversity. It was very encouraging to witness enthusiastic youth participating in large numbers. Thank you all, Let’s continue this momentum, together we will make our dreams (FIRST Memorial of Babasaheb in the USA) come true. Likewise any other building, Memorial will not just be built of wood and bricks, it will be built from the emotion of millions of Babasaheb followers worldwide.”

The budget is about USD 1.5 million. Any donation can be made through https://ambedkarinternationalcenter.org/

About AIC(Ambedkar International Center)

AIC is a Washington DC, USA based organization fighting for the cause of human rights and equality both in India and abroad.

For more information contact: Secretary, Ambedkar International Center secretary@ambedkarinternationalcenter.org

जातिवादियों ने दलित समाज की लड़की को स्कूल जाने से रोका

 प्रदेश के बच्चों से खुद को मामा कहलवाने के शौकीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राज में उनकी ‘दलित भांजी’ को स्कूल नहीं जाने दिया जा रहा। लड़की और उसके घरवालों ने जब इसका विरोध किया तो उनके साथ जातिवादी गुंडों ने मारपीट की। मामला शाजापुर जिले के बावलियाखेड़ी गांव का है, जहां 16 वर्षीय छात्रा लक्ष्मी मेवाड़ को स्कूल जाने को रोका गया।

दरअसल लक्ष्मी पढ़ना चाहती है। आगे बढ़ना चाहती है। परिवार और देश की सेवा करना चाहती है। लेकिन गांव के कथित ऊंची जाति के गुंडों को यह रास नहीं आ रहा था। स्कूल से लौटते समय इन गुंडों ने लक्ष्मी का रास्ता रोक लिया और उससे कहा कि गांव की लड़कियां स्कूल नहीं जाती, तू क्यों जाती है? लक्ष्मी ने कहा- जाउंगी, और उसके भाई ने भी बहन का पक्ष लिया। इसके बाद लक्ष्मी के भाई से मारपीट की गई। गुंडे पक्ष के लोगों को दलित समाज के बच्चों का इस तरह जवाब देना या यूं कहें कि नाफरमानी करना, रास नहीं आया। उस पक्ष के कई लोग एक साथ बच्चों पर टूट पड़े। इसमें छात्रा के परिवार के पांच लोग घायल हुए हैं, जो जिला अस्पताल में भर्ती हैं। उधर, आरोपी फरार है।

छात्रा लक्ष्मी मेवाड़ (16) ने बताया कि गांव के कुछ लोग उसके स्कूल जाने से खुश नहीं हैं। वे उसे स्कूल जाने से मना करते हैं। उसने बताया कि जब मैं स्कूल से लौट रही थी तो गांव के ही माखन, कुंदन और धर्मेंद्र सिंह ने मेरा रास्ता रोक लिया। उन्होंने कहा – हमारे गांव में लड़कियां स्कूल नहीं जाती, तुम भी नहीं जाओगी। यह बात मेरे भाई ने सुनी तो उसने विरोध करते हुए कहा – मेरी बहन तो पढ़ने जाएगी।

 विवाद में 55 साल के नारायण मेवाड़, 50 साल की अंतर बाई, 25 साल के लखन परिहार, 27 साल के कमल मेवाड़ और 16 साल के सचिन को चोट आई है। कोतवाली थाना प्रभारी एके शेषा ने बताया पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ एट्रोसिटी एक्ट के तहत मामला दर्ज कर लिया है।

भारतीय जनतंत्रः जितना बड़ा, उतना ही खोखला

प्राचीन भारत से ही राजे रजवाड़ों की शासन व्यवस्था रही है। कोई कहे कि जनतंत्र प्राचीन समय से आ रहा है वह झूठ है। इसके विपरीत ग्रीक और रोम का स्पष्ट इतिहास है, जहां जनतंत्र बहुत मजबूत था। सुकरात के विद्रोह का मुकदमा संसद में चला और 120 के मुकाबले 180 मत खिलाफ पड़े और तब जाकर मौत की सजा सुनाई गई। रोम साम्रज्य में तो सीनेट इतना शक्तिशाली हुआ करता था कि राजा के न रहने पर भी शासन व्ययस्था चलती रहती थी। प्रायः शासक और सीनेट में टकराव होता था। लिपि के अभाव में हमारे यहां क्या व्यवस्था थी बहुत स्पष्ट नहीं है। रोम, मिश्र, चीन व सिंधु सभ्यता में विकसित लिपि थी जिसके कारण उस समय के समाज का इतिहास मिलता है। कोली और शाक्य के बीच झगड़ा जातीय आधार पर था और वह मुख्य कारण हुआ कि गौतम बुद्ध ने गृह त्याग किया। उस समय भी जातीय भेदभाव चरम पर था और उसी के खिलाफ़ उनका अभियान था। चंद्र गुप्त मौर्य, गुप्त युग से लेकर हर्षवर्धन तक कहीं देखने को नहीं मिलता कि संसद या विधायिका के द्वारा शासन का निर्धारण हुआ हो। सामंत और राजा के दरबारी और सलाहकार हुए और वे राज-काज चलाने में सहयोग किया करते थे।

भारत में जितने भी अक्रांता आए आसानी से सफल होते रहे। एक जाति की जिम्मेदारी थी लड़ने और प्रशासन की और ऐसे में शेष तमाशबीन बने रहते थे। वह समाज कभी तरक्की नहीं कर सकता जो गलतियों को न माने और न सीखे। भारत के समाज की यही सच्चाई है। कुछ लोग श्रुति के आधार पर कुछ भी बोलते हैं। प्लास्टिक सर्जरी भी हुआ करती थी यह भी दावा करते हैं। प्राचीन काल में मिसाइल का होना तो आम बात थी और पाताल को भी चीर दिया करती थी। हवा, जल और सूरज से बच्चे पैदा हुआ करते थे। दावा किया जाता है सारी खोज और ज्ञान यहीं से दूसरे देशों में गए। जबकि सच्चाई है कि सारी खोज बाहर के हैं जिनका उपयोग हम करते हैं। जो भी खोज बाहर हो जाता है, उसके बाद कहते हैं कि यह तो हमारे यहां हुआ करता था।

जब पता है कि पूर्वजों का है तो क्यों नहीं पहले इजात कर लेते। जब इतने ज्ञानी और ताकतवर थे तो दूसरे छीन और चोरी कैसे कर ले गए? देश आजाद होने के पहले संसद भवन ही नही विधान सभाएं भी कार्यरत थीं। कुछ महीनों और वर्षों में ही जनतंत्र नहीं पैदा हो गया। अंग्रेजों की बड़ी भूमिका थी, भले ही उन्होने अपने हित में ही क्यों न किया हो ? करीब सारी संस्थाएं आजादी के पहले की हैं चाहे न्याय पालिका हो या कार्यपालिका। सेना, पुलिस, रेल आदि अंग्रेज छोड़ गए।

हमारे लोग जनतांत्रिक नहीं हैं, व्यक्ति पूजक हैं । अपने से कमज़ोर को इज्जत देने के बजाय दबाने की प्रवृत्ति रहती है। कांग्रेस अगर न होती तो शायद जनतंत्र स्थापित न हो पाता। गांधी जी और नेहरू जी को भारतीय जनतंत्र को मज़बूत करने का सबसे ज्यादा श्रेय जाता है। कांग्रेस पार्टी इतनी ताकतवर थी कि देश में एक पार्टी सिस्टम कायम कर सकती थी। विपक्ष को कांग्रेस ने पैदा किया और सींचा। कांग्रेस का जो विरोध करते थे उन्हें भी प्रथम मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया, जैसे डॉ अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि। आजादी के समय में विपक्ष के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी। कुछ अन्य दल भी जरूर थे परंतु प्रभावहीन। आपातकाल एक अपवाद जरूर है। बीजेपी जिस तरह से जनतंत्र को ख़त्म कर रही है अगर कांग्रेस ने थोड़ा सा भी ऐसा किया होता तो अन्य दल पैदा ही नहीं होते। भारत चीन और रूस के रास्ते पर भी चल सकता था।

विपक्ष बहुत ही कमज़ोर था और धीरे धीरे पनपने का मौका मिलता गया। 2000 के पहले तक जो सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता जनता के सवालों को तहसील, थाना और सड़क पर उतरकर उठाते थे उन्हें जनता विधान सभा और संसद में पहुंचा देती थी, भले ही ये फटे हाल हुआ करते थे। कांग्रेस चाहती तो चुनाव को शुरू में महंगा कर देती और चुनाव आयोग में राजनैतिक नियुक्ति कर सकती थी या करती ही न। उस समय किसी की ताकत नहीं थी विरोध करने की और करते तो आवाज को दबाना मुश्किल नहीं था। इसको हम और बेहतर समझ सकते थे कि 2010 से ही मीडिया तत्कालीन केंद्र सरकार की एक तरफा खिलाफत करने लगी। विद्वान और कर्मशील मनमोहन सिंह को क्या-क्या नहीं कहा गया। उस समय के पीएम की खबर शायद छपती थी। 2012-13 में तो अखबार और टीवी पर खोजने से भी नहीं मिलता कि कांग्रेस के अच्छे कार्य को लिखा या दिखाया हो। जी टू स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले में इतना बदनाम किया कि हार हुई जबकि बाद में सिद्ध हुआ कि वो सब झूठ था। क्या इससे बड़ा कोई प्रमाण हो सकता है कि जिसकी केंद्र में सरकार और अनुभवी सांसद और मंत्री हों क्या मीडिया मैनेज नहीं कर सकते थे? मीडिया के मालिकों को लोग जानते नहीं थे और यहां तक कि सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार को भी नेता और मंत्री कम जानते थे और बीट देखने वाला पत्रकार ताकतवर हुआ करता था। आज संपादक की कोई अवकात नहीं रह गई और सीधे मालिक को हुकुम जाता है। कांग्रेस क्या यह कृत्य नहीं कर सकती थी ? बस नियत बदलने की आवश्यकता थी। आज भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी महंगाई, बेरोजगारी और विकास के मुद्दे तक सीमित रहते हैं। धर्म का कार्ड कांग्रेस कभी खेली नहीं, लेकिन जाति का कार्ड आराम से खेलकर सत्ता में आ सकती है, परंतु वह भी नहीं किया।

जनतंत्र अंदर से खोखला हो गया है। जिसके पास पैसा न हो चुनाव लड़ने की सोचे भी न। जिसके के पास अथाह कालाधन हो वह मीडिया, चुनाव आयोग और वोट खरीद रहे हैं। क्या यह सब कांग्रेस नहीं कर सकती थी? कांग्रेस ने जनतंत्र को स्थापित किया है । कांग्रेस के शासन काल में विपक्ष के नेताओं की जितनी बात सुनी जाती थी उतना कई बार सत्ता पक्ष के लोगों की नहीं। आज विपक्ष की वाजिब बात सुनने की बात तो दूर की है बल्कि सरकार का काम हो गया कि जो सच भी बोले उसके मुंह को बंद कर दिया जाए । सरकारी संस्थाएं जनतंत्र की मजबूत दीवारें हुआ करती थीं लेकिन वे सत्ता की कठपुतली बनकर रह गई हैं।अब कोई कहे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र है वह बीते जमाने की बात हो गई है। वर्तमान को देखकर यह कहना मुश्किल है कि क्या मीडिया मैनेज नही कर सकते थे? मीडिया के मालिकों को लोग जानते नही थे और यहां तक कि सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार को भी नेता और मंत्री कम जानते थे और बीट देखने वाला पत्रकार ताकतवर हुआ करता था। आज संपादक की कोई अवकात नही रह गई और सीधे मालिक को हुकुम जाता है। कांग्रेस क्या यह कृत्य नहीं कर सकती थी ? बस नियत बदलने की आवश्यकता थी। आज भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी महंगाई, बेरोजगारी और विकास के मुद्दे तक सीमित रहते। धर्म का कार्ड कांग्रेस कभी खेली नही लेकिन जाति का कार्ड आराम से खेलकर सत्ता में आ सकती है, परंतु वो भी नही किया।

जनतंत्र अंदर से खोखला हो गया है। जिसके पास पैसा न हो चुनाव लडने की सोचे भी न। जिसके पास अथाह कालधन हो वह मीडिया, चुनाव आयोग और वोट खरीद रहे हैं। क्या ये सब कांग्रेस नही कर सकती थी? कांग्रेस ने जनतंत्र को स्थापित किया है । कांग्रेस के शासन काल में विपक्ष के नेताओं की जितनी बात सुनी जाती थी उतना कई बार सत्ता पक्ष के लोगों की नहीं। आज विपक्ष की वाजिब बात सुनने की बात तो दूर की है बल्कि सरकार का काम हो गया कि जो सच भी बोले उसके मुंह को बंद कर दिया जाए । सरकारी संस्थाएं जनतंत्र की मजबूत दीवारें हुआ करती थीं लेकिन वह सत्ता की कठपुतली बनकर रह गई हैं।अब कोई कहे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र है, वह बीते जमाने की बात हो गई है। वर्तमान को देखकर यह कहना मुश्किल है कि आने वाले दिनों में क्या होगा?


– लेखक डॉ. उदित राज, पूर्व सांसद के साथ कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) एवं अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं। मो. 9899382211, Emai-dr.uditraj@gmail.com

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