दलित-आदिवासी औऱ पिछड़े समाज के महापुरुषों ने एक सपना देखा था। उनका सपना था कि देश का वंचित समाज एक साथ आ जाए। वजह यह थी कि इन समाजों के सामने तकरीबन एक जैसी चुनौती थी। बाद में इसमें मुसलमानों को भी जोड़ा गया। सोच यह थी कि भारत के ज्यादातर मुसलमान वो लोग हैं जो पहले दलित थे। इन समूहों को नाम दिया गया- बहुजन।
बाद के दिनों में मान्यवर कांशीराम ने बहुजन शब्द को काफी प्रचारित किया। उन्होंने दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और मुसलमानों को जोड़ने की भी कोशिश की। शुरुआत से लेकर अब तक बहुजन समाज को एक बनाए रखने में किसी ने सबसे ज्यादा कुर्बानी दी है तो वह है दलित समाज। लेकिन दलितों पर पिछड़े समाज के मनुवादियों और मुसलमानों द्वारा किये जा रहे अत्याचार की खबरों से बहुजन समाज बनाने का सपना टूटने लगा है।
यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है क्योंकि ऐसी दो घटनाएं सामने आई है, जिस पर बात होनी चाहिए। झारखंड के पलामू से खबर है कि मुसलमानों ने दलित समाज के करीब 50 लोगों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया है, जिससे वो जंगल में रहने को मजबूर हैं। मामला दर्ज हो चुका है और राज्यपाल ने भी इस पर रिपोर्ट मांगी है।
तो दूसरी खबर उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले से आई है। यहां बंदूक की नोक पर प्रधान संतोष यादव और संत कुमार यादव ने दलित समाज की महिला से मारपीट की और उसके घर पर ताला लगा दिया। दलित समाज की पीड़ित महिला को गांव से बेदखल किये जाने की भी सूचना मिल रही है।
लेकिन इन दोनों घटनाओं की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं हो रही है। क्योंकि ऐसा होने पर कुछ लोगों के बहुजन समाज बनाने की मुहिम को चोट लग सकती है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि बहुजन समाज बनाने के लिए आखिर कब तक अपनी बली चढ़ाते रहेंगे? चाहे मुसलमानों के हक की बात हो या फिर पिछड़ों की, उनके हक में लड़ने के लिए सबसे पहले कोई खड़ा होता है तो वो दलित समाज है। बावजूद इसके वह लगातार पिछड़ों के निशाने पर रहता है। ऐसे में आखिर बहुजन के नाम पर दलित कब तक चुप रहे। और दलितों के खिलाफ होने वाले इन अत्याचारों पर इसी समाज के बुद्धिजीवियों की चुप्पी कितनी जायज है….
यह चुप्पी क्या जायज है??
सोचिएगा जरूर….

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