दलितों-आदिवासियों के घर खाना खाने वाले नेताओं ने वहां क्या देखा?

रीवा। मैं हाल ही में मध्य प्रदेश के अपने 3 दिन के कार्यक्रम से लौटा हूं. इन तीन दिनों में मैंने मध्यप्रदेश के सीमवर्ती जिले रीवा का एक छोर से दूसरे छोर तक दलितों और आदिवासियों के साथ गुज़ारा. जन सम्मान पार्टी का मुखिया होने के नाते मैंने रीवा के त्योंथर ज़िले के कोरांव गांव में पिछले पंद्रह दिन से चल रहे अनशन में 20 जुलाई को हिस्सा लिया, और गांव में एक बड़ी जनसभा को सम्बोधित भी किया. इसी गांव में मैंने साथियों के साथ खाना भी खाया. लेकिन, यहां खाना सार्वजनिक भोज के तौर पर था, इसलिए साथियों ने बाज़ार में सैंकड़ों के हिसाब से मिलने वाली प्लेटों का इस्तेमाल किया था और यह मैदान में था, इसलिए साथियों के घर का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सका.

लेकिन, रीवा ज़िले की गूढ़ तहसील के शिवपुरवा-मझियार में मैंने करीब 40 नेताओं के साथ रणनीतिक चर्चा की और यहां साथियों ने साथी राजेश प्रजापति के यहां मेरे भोजन की व्यवस्था की थी. मेरे साथ जन सम्मान पार्टी के अन्य नेताओं सहित पार्टी के मध्यप्रदेश अध्यक्ष छोटू आदिवासी भी थे. जब में साथियों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में होता हूं, तो मेरा सिद्धांत है कि मैं खाना उन्होंने साथ और किसी ना किसी साथी के घर पर ही खाना खाता हूं, और इसलिए साथी भी अपनी तरफ़ से सर्वश्रेष्ठ भोजन का इंतज़ाम करते हैं. ऐसा ही शिवपुरवा-मझियार में हुआ.

लेकिन बात खाने की ना होकर कुछ और है, जिसपर मैं आपका और देश के उन बड़े नेताओं का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, जो यदा-कदा दलितों और आदिवासियों के यहा भी भोजन करने चले जाते हैं और उनके साथ देश का मीडिया भी भारी मात्रा में रहता है और उनके भोजन और इससे सम्बंधित ख़बरें विस्तार से चैनल और अख़बारों में प्रभावी स्थान भी पाते हैं.

लेकिन, आज तक ना तो नेताओं ने और ना ही मीडिया ने उन दलितों और आदिवासियों के उन बर्तनों पर चर्चा की जिसमें उन्होंने खाना खाया होगा. मैंने दलितों और आदिवासियों के घरों में जब भी खाना खाया है, मैंने पाया कि उनके पास इतने भी बर्तन, थाली, कटोरियां, प्लेट और ग्लास नहीं होते कि वह दो-तीन लोगों को खाना खिला सकें. जब मैंने अपने साथी राजेश प्रजापति के यहां खाना खाया तो वहां भी कई घरों से बर्तन मंगाए गए. लेकिन, थालियां नहीं थीं, बल्कि हमारे सामने खाना जिनमें परोसा गया, वह परातें थीं और हरेक का साइज़, गहराई अलग-अलग थी. ऐसा ही उन कटोरियों का साथ था, जिनमें हमें सब्ज़ी परोसी गई थी.

ग्रामीण क्षेत्रों में यही हमारे प्रत्येक दलित, आदिवासी और पिछड़े की कहानी है. यही वह कहानी है जिसे हरेक व्यक्ति, नेता से लेकर पत्रकार तक सब छुपा रहे हैं. उम्मीद है कि अगली बार जब कोई बड़ा नेता हमारे समाज के लोगों यहां खाना खाने का कर्मकांड करने जाएगा, तो हमारे समाज की साधनहीनता के दर्शन केवल करेगा ही नहीं, बल्कि उसके लिए समाज से सार्वजनिक माफ़ी भी मांगेगा.

यह लेख अशोक भारती ने लिखा है.

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