तीन दशक पहले तक दलित समाज को कांग्रेस के परंपरागत वोटर के रूप में देखा जाता था. लेकिन यूपी में बसपा के उभार औऱ बिहार में लालू यादव के उदय के साथ ही दलित वोटर कांग्रेस को छोड़कर बसपा और समान विचारधारा वाली दूसरी पार्टियों में जाने लगा. बीते चुनाव में यूपी को छोड़कर देश के तमाम राज्यों के दलितों ने भाजपा को वोट दिया. यही वजह रही कि भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद तमाम प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में प्रचंड जीत हासिल की. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा से दलितों का मोहभंग हो गया है.
हाल ही में देश के विभिन्न हिस्सों में हुए विश्वविद्यालयों के चुनाव के साथ ही राजस्थान के उपचुनाव से भी इस बात के संकेत मिल गए हैं कि दलित वोटर अब वापस कांग्रेस की ओर देखने लगे हैं. खासकर राजस्थान में तो इस बात के साफ संकेत मिल चुके हैं. सवाल है कि आखिर इतनी जल्दी दलितों का मोहभंग कांग्रेस से क्यों हो गया है?
परेशान भाजपा खुद इसकी वजह तलाशने में जुट गई है. फीडबैक में दलितों की नाराजगी की तीन वजह सामने आयी है. पहली वजह डांगावास काण्ड है, जिसमें पांच दलितों समेत छह लोगों की बर्बर हत्या कर दी गई थी. दूसरी वजह नोखा-बीकानेर के डेल्टा मेघवाल कथित आत्महत्या प्रकरण में तमाम आंदोलन के बावजूद सीबीआई जांच न होना और तीसरी वजह भाजपा की ही दलित विधायक चंद्रकांता मेघवाल के साथ पुलिस अधिकारियों द्वारा थाने में बदसलूकी की घटना पर पर्दा डालने और आरोपी आईपीएस चूनाराम जाट की बीच चुनाव में दौसा के पुलिस अधीक्षक के पद पर की गयी ताजपोशी मानी जा रही है.
दलितों के भीतर इस बात को लेकर गुस्सा है कि सरकार ने जाट समुदाय के वोट बैंक के लिए दलितों के साथ हुई बर्बरता पर चुप्पी साध ली, ताकि जाट नाराज न हो जाए. हालांकि इस बड़े मामले में कांग्रेस की चुप्पी भी दलितों को खल गई. लेकिन उनके लिए भाजपा को सबक सिखाना ज्यादा जरूरी था. दलितों का रुख आने वाले दिनों में बिहार और यूपी के उपचुनाव और कर्नाटक औऱ राजस्थान में होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद और स्पष्ट हो जाएगा.
