आजाद समाज पार्टी बनाम बहुजन समाज पार्टी

नई पार्टी की घोषणा के बाद पार्टी का झंडा दिखाते चंद्रशेखर आजाद। फोटोः ANI photo
  • नंदलाल वर्मा 15 मार्च, 2020 अर्थात् बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम जी के जन्मदिन पर भीम आर्मी चीफ चन्द्रशेखर आजाद द्वारा एक अलग राजनैतिक दल “आजाद समाज पार्टी” का गठन कर मीडिया के माध्यम से बाबा साहब डॉ अंबेडकर जी और कांशी राम जी के अधूरे मिशन या सपनो को साकार करने का संकल्प लेते हुए बहुजन समाज को संबोधित किया। बहुजन समाज विरोधी वर्तमान राजनैतिक मौसम में इस नवगठित दल की सामाजिक व राजनैतिक स्थिति और उस पर पड़ने वाले भावी परिणामों पर देश के बहुजन समाज (एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक, जिसकी सैद्धांतिक परिकल्पना डॉ आंबेडकर जी ने की थी और जिसका सक्रिय राजनीति में समावेश कांशी राम जी ने किया था) के सुशिक्षित और जागरूक समाज का अत्यंत गंभीरतापूर्वक चिंतन और विमर्श करने का उत्तरदायित्व एक बार फिर उत्पन्न हो गया है।
उसे इस नवगठित राजनैतिक दल के निहितार्थ को राजनैतिक परिदृश्य में ढूंढना और समझना होगा।   आधुनिक पूंजीवादी राजनीति और व्यावसायिक रूप में बदल चुकी वर्तमान राजनीति से बहुजन समाज की राजनैतिक रूप से अति महत्वाकांक्षी युवा पीढ़ी का एक बड़े वर्ग के अंदर अल्प समय में सरल मार्ग से राजनीति के शिखर पर पहुंचने की अतिवेग की लहरें हिलोरें मारने लगी हैं, जो इन दोनों महापुरूषों के सामाजिक एवं राजनैतिक दर्शन/विचारधारा के झूठे सहारे के बल पर भोले-भाले बहुजन समाज को राजनैतिक रूप से दिग्भ्रमित करने में लगा हुआ है। यह माध्यम अंबेडकर जी और कांशी राम जी की राजनैतिक विचारधारा के बिल्कुल अनुकूल नही हैं। बहुजन समाज का जो युवा वर्ग इस साजिश का शिकार होते दिखता हैं, उससे हमारा विनम्र निवेदन है, कि वह एक बार डॉ आंबेडकर जी और कांशी राम जी की शिक्षा और उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक त्याग, तपस्या और समर्पण के भाव का एकाग्रचित्त होकर स्वस्थ चिंतन के साथ अहसास अवश्य करें, क्योंकि इन महापुरुषों/युगपुरूषों के व्यक्तित्वों और कृतत्वों का इतनी जल्दी मूल्यांकन किया जाना आसान कार्य नहीं है। सामाजिक छुआछूत और अपमान की जो पीड़ा अंबेडकर जी ने प्रत्यक्ष रूप से केवल देखी ही नहीं थी, बल्कि बहुजन समाज के खातिर ही उसका सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर लंबे समय तक सीधा दंश भी झेलते रहे। सामाजिक और राजनैतिक विषम और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वह अपने मिशन को साकार करने में तत्कालीन मनुवादी शक्तियों से उनके बीच रहकर अत्यंत धैर्य और संयम से कई स्तर पर लंबे समय तक लड़ते और जूझते रहे। डॉ. आंबेडकर जी अच्छी तरह जानते थे कि विश्व में ज्ञान अर्थात् विद्वता का मान सम्मान हमेशा रहा और इसी मंतव्य के साथ उन्होंने शिक्षा को सर्वोपरि रखकर विदेशों से भी शिक्षा ग्रहण करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने संबंधित विषयों की मात्र डिग्रियां ही हासिल नहीं की, बल्कि विषय के मर्म को समझकर उसके व्यावहारिक पहलुओं पर महारथ हासिल की थी, जिनकी प्रासंगिकता संबंधित क्षेत्रों में आज भी भारत के आधुनिक विद्वानों द्वारा मानी जा रही है। तत्कालीन मनुवादी व्यवस्था में उनको संविधान सभा से लेकर मंत्रिमंडल में सम्मानपूर्वक स्थान मिलने की मज़बूरी केवल उनकी विषयगत योग्यता के कारण बनती रही। भारत स्वतंत्र होने के बाद तत्कालीन उत्पन्न संवैधानिक व राजनैतिक परिस्थितियों का सामना करने के लिए डॉ आंबेडकर जी का कोई विकल्प नहीं दिख रहा था, इसीलिए डॉ आंबेडकर को संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। उस समय संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनने लायक,संविधान सभा के तमाम सदस्यों में से अम्बेडकर के बराबर या उनसे अधिक उपयुक्त,योग्य और सक्षम कोई अन्य का नहीं मिल पाना,डॉ आंबेडकर की योग्यता और क्षमता का इससे बड़ा प्रमाणपत्र और क्या हो सकता है? यदि ऐसा रहा होता तो तत्कालीन संविधान सभा की संरचना डॉ आंबेडकर को देश का संविधान बनाने का अधिकार नहीं देती। यदि डॉ आंबेडकर जी व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन पर केन्द्रित होते तो वह विदेशों से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह उस भारत में दुबारा वापस आने की सोचते भी नहीं, जहां पर उन्होंने सामाजिक ऊंच-नीच और जातीय छुआछूत का प्रत्यक्षतः अनुभव किया था और विदेशों में जहां सामाजिक जाति की ऊंच-नीच और छुआछूत लेशमात्र भी नहीं था,किसी देश में बसकर सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न, सम्मान और गौरव का जीवन जी लेते।अंबेडकर जी देश व विदेश में जब उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो वह केवल अपने लिए नहीं पढ़-लिख रहे थे, बल्कि हजारों साल से इस देश के दलित,वंचित और शोषित समाज के करोड़ों बच्चों के सपनों को साकार करने का लक्ष्य उनको रात-दिन मेहनत करने के लिए लगातार परेशान और प्रेरित कर रहा था।विदेश में पढ़ने वाला यह दलित छात्र मात्र भीम राव अंबेडकर नहीं था, बल्कि वह स्वयं को देश के बहुजन समाज का एक भावी सामाजिक एवं राजनैतिक महानायक के रूप में तैयार कर रहा था।इसी सोच ने डॉ आंबेडकर को अछूतों के लिए नारकीय बने भारत देश में पुनः आने पर मज़बूर कर दिया था। आंबेडकर जी अपनी इसी शिक्षा और विशेषज्ञता के बल पर स्वतंत्रता से पूर्व और बाद भी बहुजन समाज की सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता के लिए अकेले लंबे समय तक लगातार लड़ते रहे और उन्होंने अपने खराब स्वास्थ्य को दृष्टिगत दृष्टिगत रखते हुए बहुजन समाज के लिए संवैधानिक व्यवस्था इस क़दर और उम्मीद में रखी थी,कि भविष्य में फिर कभी यदि कोई बहुजन नायक पैदा होता तो उसे इस व्यवस्था का लाभ बहुजन हित में उठाने का रास्ता सुगम और सहज हो सकता है।उसी उम्मीद का परिणाम है,कांशी राम जी और बहन मायावती जी की सामाजिक व राजनीतिक इंजीनियरिंग और कैमिस्ट्री पर आधारित बहुजन समाज पार्टी की सफल व सार्थक प्रयोगवादी राजनैतिक यात्रा। सामाजिक और राजनैतिक गलियारों में निर्विवाद रूप से डॉ आंबेडकर जी की सामाजिक व संवैधानिक  व्यवस्था/विरासत के असली पोषक/उत्तराधिकारी और  बहुजन समाज की राजनीति के सफल प्रयोगकर्ता कांशी राम जी को ही माना जाता है। कांशी राम ने दलित महानायक के सम्मान की खातिर एक अच्छी सरकारी नौकरी छोड़कर बामसेफ और डी एस4 के मंचों से पैदल,साईकिल और बसों ट्रेनों से हजारों सभाएं और किलोमीटर की यात्राओं के माध्यम से सामाजिक जनजागृति करते हुए बीएसपी गठित कर अपनी राजनीतिक सूझबूझ और बहन मायावती के तेजतर्रार और प्रखर नेतृत्व में बहुजन समाज की राजनीति को एक सफल मुकाम तक पहुंचाने में राजनीतिक गलियारों में दलित राजनीति को एक नई बहस का मुद्दा बना दिया था।कांशी राम जी ने अपनी जीवित अवस्था में ही बहन मायावती जी को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।यदि कांशी राम जी अपनी जीवित अवस्था में ऐसा न भी कर पाए होते, तो भी उनकी राजनीति की विरासत की असली हकदार बहन जी के अलावा कोई हो ही नहीं सकता था,क्योंकि बहन जी ने तत्कालीन सामाजिक विषमताओं और परिवार की कपोलकल्पित मर्यादाओं की परवाह किए बगैर सरकारी नौकरी छोड़कर बहुजन समाज की सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन की लंबी यात्रा में कांशी राम जी के साथ कंधा से कंधा मिलाकर अंतिम समय तक उनका एक बेटी के रूप में साथ दिया है।बहन जी को एक लड़की होने के नाते तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक स्तर पर आपत्ति और अपमानजनक अनगिनत टिप्पणियों का सामना करना पड़ा होगा? ऐसे में बहुजन समाज को चाहिए कि वह राजनैतिक रूप से धैर्य और संयम रखते हुए डॉ. भीम राव आंबेडकर, कांशी राम और बहन मायावती जी के जीवन संघर्ष को सदैव अपने और समाज के सामने रखकर बहुजन समाज के राजनैतिक चिंतन व विमर्श को जीवित रखने के प्रयासों में कोई कोर-कसर बाकी न रखें,तभी डॉ आंबेडकर और कांशी राम जी का मिशन बहन मायावती जी के नेतृत्व में आगे बढ़ सकता है। वर्तमान बहुजन समाज पार्टी या उसके नेतृत्व के कुछ सन्दर्भो या प्रसंगों और श्रृंखलाबद्ध राजनैतिक नेतृत्व के किसी स्तर पर संवादहीनता के कारण उत्पन्न अदृश्य व काल्पनिक अपारदर्शिता पर बहुजन समाज के कुछ अतिमहत्वाकांक्षी लोगों की अदूरदर्शी सोच की वजह से असहमति जैसी स्थिति हो सकती है,किन्तु उसे पारस्परिक विचार-विमर्श के माध्यम से दूर करने के प्रयास कर किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता हैं।नेतृत्व के प्रति असहमति या नेतृत्व श्रृंखला की कुछ कमियों का अर्थ यह कदापि नहीं निकलता है,कि उसकी आधारपरक राजनैतिक विचारधारा का विभाजन कर उस दल के समानांतर एक और राजनैतिक दल खड़ा कर देना,जिनका अंतिम लक्ष्य एक ही हो,का कोई सार्थक औचित्य प्रतीत नहीं होता है। यह बहुजन समाज की स्थापित राजनैतिक शक्ति में फूट या बिखराव डालने के अलावा कुछ नहीं हो सकता।दूसरे दलों जैसे कांग्रेस और बीजेपी में दलित नेताओं को कांशी राम जी “गुलाम चमचों” की संज्ञा दिया करते थे।यदि कांशी राम जी आज जीवित होते तो बीएसपी को कमज़ोर करने के उद्देश्य से उसके समानांतर खड़े किए जा रहे दलों के नेताओं को “स्वतंत्र चमचों” की संज्ञा देने के अलावा कुछ नहीं कहते। भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद को राजनैतिक दल गठित करने से पहले एक बार डॉ आंबेडकर,कांशी राम और बहन मायावती जी के सामाजिक व राजनैतिक जीवन संघर्ष का गहनता व गंभीतापूर्वक अवलोकन और मूल्यांकन करना चाहिए था।इन तीनों महान सख्शियतों ने अपने निजी और पारिवारिक जीवन की तिलांजलि देकर देश के दलितों,वंचितों और शोषितों के लिए सामाजिक जनजागृति की लंबी संघर्ष युक्त आंदोलनात्मक यात्रा की भट्टी में स्वयं को झोंककर बहुजन समाज का विश्वास जीतने में सफलता प्राप्ति के बाद बीएसपी की राजनीतिक यात्रा को इस मुकाम पर पहुंचा पाया है।यदि इस यात्रा में वह दो कदम चल नहीं सकते हैं,तो इस यात्रा के रास्ते पर चलने वाले बहुजन समाज को दिग्भ्रमित करने के उद्देश्य से दूसरा रास्ता बनाने का काम तो नहीं करना चाहिए था। अब बहुजन समाज सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से काफी जागरूक और सजग हो चुका है। यदि चन्द्रशेखर आजाद अपने को बहुजन समाज का सच्चा हितैषी मानते हैं तो अपने नदी रूपी नवगठित राजनीतिक दल  का रुख बीएसपी जैसे राजनैतिक समुद्र की ओर अग्रसर करने में ही बहुजन समाज का व्यापक हित या उद्देश्य पूरा होने की संभावनाएं बनती हैं।  बहुजन समाज की छिन्न-भिन्न शक्ति से डॉ आंबेडकर जी और कांशी राम जी के अधूरे सपने या मिशन को गंतव्य/लक्ष्य तक पहुंचाना असम्भव सा लगता है। लेखक वाई डी पीजी कॉलेज, लखीमपुर खीरी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। संपर्क- 9415461224

दलित दस्तक मैग्जीन का जनवरी-फरवरी 2020 अंक ऑन लाइन पढ़िए

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[flipbook pdf=”https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2020/03/jan-feb2020.pdf” height=”1000″ singlepage=”true”] दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने सात साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2019 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने सात साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए आठवें साल का आठवां -नौवां अंक लेकर आए हैं. अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

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नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहस: झूठ का भ्रमजाल

संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम पर विविध प्रतिक्रयाएं सामने आईं हैं, जिनमें से कई नकारात्मक हैं. एक ओर जहाँ उत्तरपूर्व में इस नए कानून का भारी विरोध हो रहा है, जिसमें कई लोगों की जानें जा चुकीं है, वहीं इससे संविधान में आस्था रखने वालों और मुसलमानों में गंभीर चिंता व्याप्त हो गयी है. यह कानून पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के ऐसे हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन और ईसाई रहवासियों को भारत की नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार देता है, जिन्हें उनके देशों में प्रताड़ित किया जा रहा है. इस सूची में इस्लाम धर्म का पालन करने वालों का नाम नहीं है. म्यांमार जैसे देशों में मुसलमानों पर भीषण अत्याचार हो रहे हैं परन्तु वे इस सूची में शामिल नहीं है. इस कानून में जिन तीन देशों का उल्लेख किया गया है, वहां भी मुसलमानों के कई पंथों के सदस्यों को प्रताड़ित किया जा रहा है परन्तु उनके लिए इस कानून में कोई स्थान नहीं है.

इस कानून के खिलाफ बहुत कुछ लिखा जा रहा है. यह कहा जा रहा है कि यह बहुलतावादी भारत को एक हिन्दू राष्ट्र में बदलने का षडयंत्र है. यह भी चिंता का विषय है कि इस कानून का बचाव करते हुए यह आरोप लगाया जा रहा है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन के लिए कांग्रेस दोषी है. यह एक सफ़ेद झूठ है. राज्यसभा में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आक्रामक तेवर अपनाते हुए कहा कि, “इस देश का विभाजन अगर धर्म के आधार पर कांग्रेस ने न किया होता, तो इस बिल का काम नहीं होता.” इसके जवाब में कांग्रेस के शशि थरूर ने कहा की शायद श्री शाह उनके स्कूल में इतिहास के पीरियड में जो पढ़ाया जाता था, उस पर ध्यान नहीं देते थे.

शाह आरएसएस के कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने बाद में संघ की विद्यार्थी शाखा एबीवीपी की सदस्यता ले ली थी. शशि थरूर का यह कहना सही है कि शाह ने स्कूल में इतिहास की पढ़ाई ठीक से नहीं की. परन्तु इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने आरएसएस की शाखाओं में पढ़ाये जाने वाले इतिहास को न केवल ग्रहण किया है बल्कि उसे आत्मसात भी किया है. हम सब जानते हैं कि महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का भी मानना था कि भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस के शीर्षतम नेता गांधीजी ज़िम्मेदार थे. अधिकांश हिन्दू राष्ट्रवादी भी यही मानते हैं. राष्ट्र का आधार धर्म है, यह बात सबसे पहले सावरकर और उनके बाद जिन्ना ने कही थी. परन्तु धर्म को राष्ट्र की आधार मानने के विचार की नींव रखने वाले थे हमारे औपनिवेशिक शासक जिन्होने एक ओर मुस्लिम लीग तो दूसरी ओर हिन्दू महासभा-आरएसएस को हर तरह से बढ़ावा दिया.

अंग्रेजों को लगता था कि ये दोनों संगठन ‘बांटो और राज करो’ की उनकी नीति को लागू करने में सहायक होंगे. सन 1942 में जब राष्ट्रीय आन्दोलन अपने चरम पर था, तब अंग्रेजों का ध्यान एक अन्य कारक पर भी गया. और वह था तत्कालीन विश्व की भौगोलिक-राजनैतिक परिस्थितियां. उस समय, सोवियत संघ एक महाशक्ति बन चुका था और ब्रिटेन-अमरीका की विश्व पर दादागिरी को चुनौती दे रहा था. सोवियत संघ दुनिया भर के औपनिवेशिकता-विरोधी आंदोलनों का प्रेरणास्त्रोत भी था. स्वाधीनता आन्दोलन के कई नेता समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे. यह सब देखकर ब्रिटेन को लगा कि अगर उसे दुनिया के इस हिस्से में अपना वर्चस्व बनाये रखना है तो उसे भारत को विभाजित करना ही होगा.

धर्म-आधारित राष्ट्रवाद, ज़मींदारों और राजाओं के घटते प्रभाव की प्रतिक्रिया में उभरा. औद्योगिकीकरण, संचार के बढ़ते साधनों और आधुनिक शिक्षा के प्रसार के चलते, भारत एक धर्मनिरपेक्ष-प्रजातान्त्रिक राष्ट्र के रूप में उभर रहा था. मद्रास महाजन सभा, पुणे सार्वजनिक सभा और बॉम्बे एसोसिएशन जैसे समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों और सामाजिक परिवर्तनों की लहर ने सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया. ज़मींदारों और राजाओं के अस्त होता वर्ग, समानता का सन्देश देने वाली सामाजिक शक्तियों के बढ़ते प्रभाव से घबरा गया. उसे लगने लगा कि जन्म-आधारित ऊंच-नीच की अवधारणा पर खड़ा उनके वर्चस्व का किला दरक रहा है.

लगभग इसी समय, मुसलमानों का एक वर्ग कहने लगा कि भारत में इस्लाम खतरे में हैं. हिन्दुओं के एक वर्ग ने, हिन्दू धर्म के खतरे में होने का राग अलापना शुरू कर दिया. राष्ट्रीय संगठनों और अन्यों ने दलितों और महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया. सामंती वर्ग को लगा कि यह धर्म पर आधारित असमानता पर हमला है. उनके संगठनों में प्रारंभ में केवल ज़मींदार और राजा थे. परन्तु बाद में, उन्होंने देश के कुलीन वर्ग और तत्पश्चात आम लोगों के एक तबके को भी अपने साथ लेने में सफलता हासिल कर ली. यहीं से हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवाद की नींव पड़ी. इस प्रकार, एक ओर था भारतीय राष्ट्रवाद, जिसके प्रतिनिधि गाँधी, अम्बेडकर और भगत सिंह जैसे नेता थे तो दूसरी ओर था धार्मिक राष्ट्रवाद जिसके चेहरे थे मुस्लिम लीग, जिसका गठन 1906 में हुआ और हिन्दू महासभा और आरएसएस, जो क्रमशः 1915 और 1925 में अस्तित्व में आये. जहाँ भारतीय राष्ट्रवादी, देश में व्याप्त असमानता के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे वहीं धार्मिक राष्ट्रवादी अपने-अपने प्राचीन गौरव का गुणगान कर रहे थे.

सावरकर, हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे का विरोधी मानते थे. मुस्लिम लीग को लगता था कि हिन्दू बहुसंख्यक देश में मुसलमानों को समान अधिकार नहीं देंगे. हिन्दू राष्ट्रवादियों ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाना शुरू कर दिया, जिसकी परिणीति सांप्रदायिक दंगों के रूप में सामने आई.

देश में सांप्रदायिक हिंसा के दावानल ने कांग्रेस को इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह माउंटबैटन के देश के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर ले. कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार करते हुए अपने प्रस्ताव में कहा कि यद्यपि वह द्विराष्ट्र सिद्धांत (जिसके समर्थक सावरकर, जिन्ना, गोलवलकर, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस थे) को स्वीकार नहीं करती, तथापि देश में बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा की तुलना में वह विभाजन को देश के लिए कम बुरा मानती है. विभाजन की रूपरेखा बनाने वाले वीपी मेनन के अनुसार, “पटेल ने दिसंबर 1946 में ही देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया था परन्तु नेहरु इसके लिए छह माह बाद राजी हुए”.

मौलाना आजाद और गांधीजी ने द्विराष्ट्र सिद्धांत और देश के विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया परन्तु देश में साम्प्रदायिकता के नंगे नाच को देखते हुए, उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा. अमित शाह और आरएसएस का यह दावा एकदम गलत है कि कांग्रेस ने धर्म को राष्ट्र के आधार के रूप में स्वीकृति दी.

लेखकः राम पुनियानी

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

दलित दस्तक मैग्जीन का दिसम्बर 2019 अंक ऑन लाइन पढ़िए

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क्या दलित संविधान प्रदत अधिकार खोने जा रहे हैं !

आज 6 दिसम्बर है. बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस. यूं तो आज के खास दिन बाबासाहेब को पूरा देश ही नहीं, जन्मगत कारणों से शोषण-वंचना की शिकार बने पूरे विश्व के लोग ही कमोबेश याद करेंगे, श्रद्धासुमन अर्पित करेंगे, किन्तु दलितों की बात और होगी. आज उनके हजारों संगठन बाबासाहेब के अवदानों को याद करने और अपनी मुक्ति का नया संकल्प लेने के लिए जगह-जगह संगोष्ठियाँ–सभाएं आयोजित करेंगे. मार्च निकालेंगे. लेकिन सबकुछ के बावजूद ऐसा लगता है जिन अधिकारों से बाबासाहेब ने उन्हें लैस किया, उसे भविष्य में वे शायद बरक़रार नहीं रख पायेंगे. ऐसा क्यों और कैसे हो सकता है, इसे जानने के लिए दलित समुदाय के दर्दनाक इतिहास का एक बार सिंहावलोकन जरुरी है.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की भांति ही दलित, जिन्हें भारत में सामाजिक क्रांति के प्रणेता ज्योतिबा फुले अतिशूद्र कहा करते थे एवं संविधान में जिन्हें अनुसूचित जाति के रूप में चिन्हित किया गया है, हिंदू-धर्म की प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था की उपज हैं जो मुख्यतः शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक-शैक्षिक) की वितरण-व्यवस्था रही. वैदिक आर्यों द्वारा प्रवर्तित वर्ण-व्यवस्था में दलितों के लिए अध्ययन-अध्यापन, शासन–प्रशासन, सैन्य वृत्ति, भूस्वामित्व, व्यवसाय-वाणिज्य और आध्यात्मानुशीलन इत्यादि का कोई अधिकार नहीं रहा. यही नहीं हिंदू समाज द्वारा अस्पृश्य रूप में धिक्कृत व बहिष्कृत दलितों को अच्छा नाम रखने या देवालयों में घुसकर ईश्वर की कृपालाभ पाने तक के अधिकार से भी पूरी तरह वंचित रखा गया. दलितों को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत कर मानव जाति के समग्र इतिहास का सबसे अधिकार-विहीन मानव-समुदाय में तब्दील करने वाली वर्ण-व्यवस्था को सर्वप्रथम चुनौती गौतम बुद्ध की तरफ से मिली. उनके प्रयत्नों से वर्ण-व्यवस्था में शिथिलता आई. वर्ण-व्यवस्था में शैथिल्य का मतलब शक्ति के जिन स्रोतों से दलितों को वंचित किया गया था, उनमें उनको अवसर मिलने लगा. किन्तु यह स्थिति चिरस्थाई न बन सकी. अंतिम बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की पुष्यमित्र शुंग द्वारा हत्या के बाद के हिन्दुराज में वर्ण-व्यवस्था नए सिरे से सुदृढ़ हो गयी. इसके सुदृढ़ होने के फलस्वरूप दलितों को आगामी दो हज़ार सालों तक शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत हो कर रह जाना पड़ा.

शुंगोत्तर काल में मानवेतर बने दलितों को थोड़ी राहत मध्यकाल में ही मिल पाई. उक्त काल में सवर्णों और शूद्रातिशूद्रों में कई ऐसे संतों का उदय हुआ जिन्होंने अपनी भक्तिमूलक रचनाओं के जरिये जातिभेद का विरोध करने सबल प्रयास किया. इनमें उत्तर भारत में रामानंद, रैदास, कबीर, नानकदेव; पूरब में चैतन्य और चंडीदास; पश्चिम में चोखामेला, नामदेव, तुकाराम और दक्षिण में निबारका और बसव का नाम प्रमुख है. किन्तु इन संतो के प्रयासों से दलितों को भावनात्मक रूप से राहत भले ही मिली, शक्ति के स्रोतों में कुछ नहीं मिला. बहरहाल जिन दिनों भारत के क्रान्तिकारी कहे जानेवाले संत ईश्वर की नज़रों में सबको एक बताने का उपदेश करने में निमग्न थे, उन्ही दिनों यूरोप के संत मार्टिन लूथर के सौजन्य से वहां वैचारिक क्रांति कि शुरुआत हुई जिसे रेनेसां (पुनर्जागरण) कहते हैं. परवर्तीकाल में अंग्रेजों के सौजन्य से 19 वीं सदी के में मानव सभ्यता का कलंक बने भारत में भी नवजागरण की शुरुआत हुई. राष्ट्रीयता और सामाजिक परिवर्तन का बीजारोपड़ इसी काल में हुआ, इसी काल में अंग्रेजी पढ़े -लिखे आभिजात्य वर्ग में स्त्री-सुधार के साथ अन्य सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों से जूझने की भावना पैदा हुई. बंगाल के राजा राममोहन से शुरू हुई समाज सुधार की यह धारा पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण दिशाओं में प्रवाहित हुई. राजा राममोहन राय द्वारा प्रारम्भ किये गए समाज सुधार कार्य को केशव चन्द्र सेन, प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर, महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद-विवेकानंद-रामलिंगम, रानाडे, आरजी भंडारकर, जी.जी अगरकर, एनजी चंदावरकर, गोखले-गाँधी इत्यादि जैसे सवर्ण समाज में पैदा हुए महान लोगों ने आगे बढ़ाया. पर ये लोग बुद्धि, तर्क, सत्य, स्वतंत्रता, समानता जैसे योरोपीय दर्शन अपना कर सती, विधवा, बालिका विवाह, बहुविवाह प्रथा और अन्य कई सामाजिक बुराइयों के खिलाफ तो अभियान चलाये किन्तु ‘अछूत-प्रथा‘ पर लगभग निर्लिप्त रहे. अस्पृश्यता के खिलाफ सीधा संघर्ष फुले ने ही शुरू किया, उन्होंने जहाँ अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर दलितों को शिक्षित करने का ऐतिहासिक कार्य किया, वहीँ सत्यशोधक समाज के माध्यम से उन्हें अंध-विश्वास से मुक्त करने में महती योगदान दिया. उनके अतिरिक्त शुद्रातिशूद्र समाज में जन्मे नारायण गुरु, अय्यनकाली, संत गाडगे, सयाजी राव गायकवाड, शाहूजी महाराज, पेरियार जैसे और कई लोगों ने दलितों की दशा में बदलाव लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया. किन्तु उपरोक्त महामानवों के प्रयासों के बावजूद सदियों से सभी मानवीय अधिकारों से शून्य अस्पृश्यों की स्थिति लगभग अपरिवर्तित रही.

ऐसी विषम परिस्थितियों में डॉ. आंबेडकर का उदय हुआ. उनके समक्ष दलितों को वर्ण-व्यवस्था के उस अभिशाप से मुक्ति दिलाने की चुनौती थी जिसके तहत वे हजारों साल से शक्ति के सभी स्रोतों से वंचित रहे. कहना न होगा उन्होंने इस चुनौती का नायकोचित अंदाज़ में सामना करते हुए दलितों को शक्ति से लैस करने का असंभव सा कार्य कर दिखाया. उन के ऐतिहासिक प्रयासों का परिणाम है कि आज दलित शक्ति के सभी स्रोतों में तो नहीं पर, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में अपनी कुछ उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं. विगत वर्षों में हमने एक दलित को राष्ट्रपति; कुछेक को मुख्यमंत्री और ढेरों को कबीना मंत्री बनते एवं कईयों को महान चिन्तक – साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होते देखा गया. हाल के वर्षों में कुछ को बसपा-भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के अध्यक्ष और विश्वविद्यालयों का उप कुलपति भी बनते देखा गया है. इसके अतिरिक्त उन्हीं के विचारों पर चलकर बसपा के रूप में दलितों की पहली राष्ट्रीय पार्टी के उदय का हम साक्षी बने. जैसा कि शुरुआती पंक्तियों में कहा गया है कि वर्ण-व्यवस्था मुख्यतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही और बौद्ध काल को छोड़कर हजारों वर्षों से नर-पशुओं के लिए शिक्षक, पुरोहित, भू-स्वामी, राजा, व्यवसायी इत्यादि बनने के सारे रास्ते पूरी तरह बंद रहे. यदि वर्ण-व्यवस्था के वितरणात्मक चरित्र पर ध्यान दिया जाय तो पता चलेगा भारी प्रतिकूलताओं के मध्य बाबा साहेब शक्ति के स्रोतों में दलितों को जितना शेयर दिला पाए, बात उससे बहुत आगे नहीं बढ़ी. संविधान निर्माण के समय बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर दुनिया के सबसे असहाय स्टेट्समैन रहे. आज की तरह न तो दलितों की कोई राष्ट्रीय पार्टी थी और न हीं इनका आज जैसा कोई बौद्धिक वर्ग ही तैयार हुआ था. जो विशुद्ध हिन्दू अर्थात सवर्ण दलितों के अधिकारों के विरुद्ध सब समय प्रायः शत्रु की भूमिका में अवतरित रहे, उन्हीं सवर्णों की उस दौर की चैम्पियन पार्टी के सौजन्य से वह संविधान निर्मात्री सभा के अंग बने. अतः उनके हाथ बंधे थे. अगर ऐसा नहीं होता जिस बाबासाहेब ने अपनी महानतम रचना जाति का उच्छेद में ब्राह्मणशाही के खात्मे के लिए पौरोहित्य के पेशे के प्रजातान्त्रिकरण का सुझाव दिया, पूँजीवाद के साथ ‘ब्राह्मणवाद’ को सबसे बड़ा शत्रु करार देने वाले आंबेडकर क्या पौरोहित्य के पेशे के प्रजातंत्रीकरण का प्रावधान करने में कोई कमी करते? इसी तरह जिस बाबा साहेब ने 1942 में अंग्रेजी सरकार के समक्ष गोपनीय ज्ञापन के जरिये ठेकों में आरक्षण की मांग उठाये थे, क्या वे संविधान में इसकी व्यवस्था करने में कमी करते? सच्ची बात तो यह है कि जिस बाबा साहेब ने कभी यह कहा था कि यदि दलितों को मुक्ति न दिला सका तो खुद को गोली से उड़ा लूँगा, वह आंबेडकर दलितों को वर्ण-व्यवस्था के अभिशाप से निजात दिलाने के लिए शक्ति के समस्त स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी दिलाने की समस्त व्यवस्था कर देते, इसमें शायद किसी को संदेह हो. किन्तु न कर सके तो इसलिए कि वह संविधान निर्माण के समय बेहद लाचार व्यक्ति थे. बहरहाल बाबा साहेब की विवशता को ध्यान में रखते हुए उनके अनुसरणकारियों का फर्ज बनता था कि उनके अधूरे काम को पूरा करने के लिए वे शक्ति के समस्त स्रोतों में दलित ही नहीं, वर्ण-व्यवस्था के समस्त वंचितों को शक्ति के स्रोतों में उनकी वाजिब हिस्सेदारी दिलाने की लड़ाई लड़ते. लेकिन वे ऐसा न कर सके.

आंबेडकर उत्तरकाल के इतिहास का सिंहावलोकन करने पर साफ़ विदित होता है कि दलित संगठनों, बुद्धिजीवियों, नेताओं ने अपनी अधिकतम उर्जा धर्मान्तरण, जाति उन्मूलन, ब्राह्मणवाद विरोध जैसे अमूर्त मुद्दों में लगाया. ऐसा लगता है बाबासाहेब ने उन्हें जितने अधिकार दिलाये थे, उसे ही पर्याप्त मानते हुए शक्ति के बाकी बंचे स्रोतों में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष ही नहीं चलाये. आज इक्कीसवीं सदी में जबकि शासक दलों द्वारा संविधान को लगभग व्यर्थ और 24 जुलाई, 1991 को गृहित नवउदारवादी अर्थनीति के जरिये आरक्षण को लगभग कागजों की शोभा बना उन्हें गुलामों की स्थिति में पहुंचा दिया गया है: वे आर्थिक मुक्ति के बजाय ज्यादातर भावनात्मक मुद्दों पर उद्वेलित होते हैं. जब कहीं आंबेडकर की किसी मूर्ति को आघात पहुचाया जाता है, जब कोई रामदेव बहुजन महापुरुषों का अनादर करता है; जब कभी रैदास मंदिर तोड़ा जाता है, दलित सड़कों पर उतरने में देर नहीं लगाते. किन्तु जब सरकारी उपक्रमों को बेचा जाता है, हॉस्पिटल, रेल, हवाई अड्डों को निजी हाथों में देने की हरी झंडी दिखाई जाती है, दलित समुदाय नहीं के बराबर उद्वेलित होता है. इसकी ताजी मिसाल 1 दिसंबर, 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित रैली है जो निजीक्षेत्र में आरक्षण, न्यायपालिका में आरक्षण दिलाने के साथ केंद्र सरकार के लाभ में चल रहे बड़े-बड़े उपक्रमों के विनिवेश के खिलाफ आयोजित हुई थी, जिसमें दलितों के तमाम संगठनों के स्वतः-स्फूर्त शामिल होने की उम्मीद जताई गयी थी. किन्तु वैसा न हो सका. ले दे कर मुख्यतः उसी संगठन के लोग शामिल हुए थे, जिस संगठन ने इसे आयोजित किया था. 1 दिसंबर, 2019 को रामलीला मैदान में दलित संगठनों और एक्टिविस्टों की सीमित उपस्थिति बताती है कि आंबेडकर के लोग निकट भविष्य में उनके द्वारा प्रदान किये गए तमाम संवैधानिक अधिकारों को खोने जा रहे हैं!

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.संपर्क: 9654816191)

परिनिर्वाण दिवस पर बाबासाहेब से एक संवाद

आदरणीय बाबासाहेब जय भीम-नमो बुद्धाय आज हम अम्बेडकरवादी लोग आपका 64वां परिनिर्वाण दिवस मना रहे हैं। हम अम्बेडकरवादी लोग जिले-जिले में कार्यक्रम कर आपको याद कर रहे हैं। क्या महाराष्ट्र, क्या बंगाल। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आज आपको याद किया जा रहा है। तमाम सरकारें भी आपको श्रद्धांजलि दे रही हैं। कुल मिलाकर देश भर में आज आपकी ही चर्चा है।

खूब भाषण हो रहे हैं। हम इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि आपने क्या कहा था, आपका क्या योगदान रहा। आपने समाज निर्माण में, राष्ट्रनिर्माण में क्या-क्या योगदान दिया था। हम अम्बेडकरवादी अब आपको राष्ट्रनिर्माता से आगे बढ़कर विश्वविभूति कहने लगे हैं। हम गुमान के साथ तमाम लोगों को बताते हैं कि आप “सिंबल ऑफ नॉलेज हैं।” यह भी कि आप “ग्रेटेस्ट इंडियन” हैं।

लेकिन हम इस बात कि चर्चा नहीं कर रहे हैं कि आपने हमलोगों से क्या उम्मीद की थी। हम इस बात की चर्चा नहीं कर रहे हैं कि आपने हमसे क्या चाहा था, हमसे कैसा समाज बनाने की उम्मीद की थी। हमें आपने जो शिक्षित होने, संगठति होने और संघर्ष करने का मूलमंत्र दिया था, उस बारे में हम कितना आगे बढ़े हैं। हम इस बात की भी चर्चा नहीं कर रहे हैं कि आपने जिस सत्ता पर वंचितों के बैठने का सपना देखा था, उस बारे में हम क्या कर रहे हैं।

आपके शिक्षा वाले उपदेश का हम पर व्यापक असर हुआ है। पूरा समाज इसे अमल में ला रहा है। बच्चे पढ़ रहे हैं, गार्जियन पढ़ा रहे हैं। अभाव के बावजूद बच्चों को शिक्षा दिलाने का काम हो रहा है। आपके जाने के बाद बहुत सारे लोग आईएएस-आईपीएस, प्रोफेसर, डॉक्टर और इंजीनियर बन गए हैं। हमारे लोगों की कोठियां बन गई हैं, कुछ लोगों के पास तो बड़ी गाड़ियां और बंग्ले भी हैं। लेकिन हम अभी तक अपना कोई एजुकेशन सिस्टम खड़ा नहीं कर पाए हैं, जैसा आपने ‘पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी’ के तहत करने की शुरुआत की थी। दूसरी ओर अब देश की सरकारों को हमारा शिक्षित होना अखरने लगा है, क्योंकि हम आंदोलन करने लगे हैं। सही-गलत समझने लगे हैं। इसलिए सरकार शिक्षा को इतना महंगा कर देना चाहती है कि आने वाले दिन मुश्किल भरे दिख रहे हैं।

लेकिन इस शिक्षा की बदौलत आगे बढ़ने वाले लोगों में एक नई दिक्कत पैदा हो गई है। वो समाज से ऊपर होकर एक वर्ग हो गए हैं। हालांकि सभी ऐसे नहीं हैं, तमाम लोग अच्छे भी हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों का हाल यह है कि वह अपनी सफलता का श्रेय आपको देने की बजाय मिट्टी की मूरत को देने लगे हैं। वह आपके संघर्ष को भूल चुके हैं, जो आपने उनके लिए किया। वो तो अब अपनी जाति भी नहीं बताते और छुपकर रहते हैं।

दूसरी बात आपने संगठित होने की कही थी तो यहां बड़ी दिक्कत है। मुझे यह बताते हुए अच्छा नहीं लग रहा है कि आपका समाज संगठित नहीं है। एक शहर में अगर समाज के 10 हजार लोग हैं तो महज 200-300 लोग ही संगठित हैं। बाकी हम आपस में खूब लड़ते हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाते हैं। आपस में ही जातिवाद भी करते हैं। आपने इतनी मेहनत और खोज से जो किताबें लिखी थी, जिसमें आपने हमारा इतिहास बताया था, उसे बहुत कम लोगों ने पढ़ा है। जिन्होंने पढ़ा है, वो थोड़ा सुधरे हैं, बाकियों को ये सब बेकार लगता है।

हम आपके नाम पर संगठित भी हुए हैं। देश भर में आपके नाम पर लाखों संगठन हैं। आपके समाज के नेता भी खूब संगठित हैं। जब भी इनके अधिकारों से छेड़-छाड़ होती है, ये संसद जाम कर देते हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति समाज के 150 के करीब सांसद पार्टी की दीवार लांघ कर साथ आ खड़े होते हैं। लेकिन हां, जब समाज के हकों पर डाका पड़ता है तो अपने आकाओं के आगे इनकी जुबान नहीं खुलती है। एससी-एसटी वर्ग के अधिकारों को लेकर ये संसद जाम करने का माद्दा नहीं रखते। ये खुद ही अपने आरक्षण की कॉपी फाड़ देते हैं। दलित उत्पीड़नों पर चर्चा करने से तो ये ऐसे बचते हैं जैसे उन बेटियों के शरीर से रिसते खूब इनके झक सफेद कुर्तों को गंदा कर देंगे।

हालांकि आपके जाने के बाद 90 के दशक में एक बड़ा काम यह हुआ कि कांशीराम नाम के एक व्यक्ति ने आपसे प्रेरणा लेकर सत्ता की मास्टर चाभी को हासिल कर लिया। वह आपके परम अनुयायी थे। बड़ी मेहनत से उन्होंने वंचित समाज को एकजुट किया और एक बड़े प्रदेश में सत्ता को हासिल किया। लगा कि अब वक्त बहुजनों का है। वंचितों को न्याय मिलेगा। लेकिन उनके जाने के एक दशक बाद चीजें फिर खराब होने लगी। उस दौरान पैदा हुए नेता सत्ता के मोह में ऐसे फंसे कि समाज पीछे छूटने लगा। तमाम नेता अपने लिए सुविधाओं का पहाड़ खड़ा करने में जुट गए और इस कोशिश में कुछ ऐसे काम कर गए कि वह केंद्र के दबाव में रहने लगे। बाकी के जिन अन्य नेताओं से उम्मीद थी, उन्होंने किसी न किसी बड़ी पार्टी का दामन थाम कर समझौता कर लिया और उनका नारा बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की जगह स्वजन हिताय – स्वजन सुखाय हो गया है।

संघर्ष भी हमने इधर खूब किया है। 2 अप्रैल 2018 को हमने सरकार को चने चबवा दिये थे, जब संविधान में मिले हमारे एससी-एसटी अधिनियम को बदलने की कोशिश की गई। लेकिन संघर्ष की कहानी यहीं तक नहीं है। संघर्ष हम आपस में भी खूब कर रहे हैं। आपके नाम पर देश भर में लाखों संगठन हैं, हम उसका अध्यक्ष बनने के लिए खूब संघर्ष करते हैं। चमार-वाल्मीकि, धोबी, पासी, खटिक, महार, मातंग आदि-आदि का भी आपस में खूब संघर्ष है। हम सब खुद को दूसरे से बेहतर होने का दावा कर खूब संघर्ष करते हैं।

एक और जो महत्वपूर्ण बात आपके बतानी थी, वह यह है कि इन दिनों हम ब्राह्मणों और मनुवादियों को खूब गाली दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर हमने उनके छक्के छुड़ा रखे हैं। यू-ट्यूब पर उन्हें पानी पी-पीकर गरिया रहे हैं। ट्विटर पर अपनी बात ट्रेंड करवा रहे हैं। हमने अपनी सारी परेशानियो के लिए उन्हें दोष दे रखा है। भले ही हम आपस में खूब जातिवाद करें, भले ही हम एक-दूसरे की टांग खिंचते रहें। भले हीं हमारे सैकड़ों नेता अलग-अलग आकाओं की गुलामी करते रहें। हमने तय किया है कि हम आपस में लड़ते रहेंगे लेकिन अपनी तमाम परेशानियों, पिछड़ेपन और गरीबी सबका ठीकरा मनुवादियों के सर पर फोड़ेंगे।

लेकिन हां, सब कुछ बुरा ही नहीं है। बहुत सारे लोग सच्चाई से आपके देखे सपने को पूरा करने में भी लगे हैं। इसमें अनपढ़ से लेकर अधिकारी तक शामिल हैं। तमाम अभावों के बावजूद, तमाम जिम्मेदारियों के बावजूद ये लोग नीले झंडे के रंग को बुझने से रोके हुए हैं। तन, मन, धन से आपके सपने के लिए काम कर रहे हैं।

बाकी सब ठीक है। जल्दी ही गणतंत्र दिवस आएगा, हम फिर आपको याद करेंगे, फिर 14 अप्रैल आएगा, हम फिर आपकी जयंती मनाएंगे। फिर संविधान दिवस आएगा तो भी हम आपको याद करेंगे। संविधान दिवस के बाद फिर से आपका परिनिर्वाण दिवस आएगा, हम फिर से आपको श्रद्धांजलि देंगे। फिलहाल आप 26 जनवरी तक आराम करिए। एक बार फिर से आपको जय भीम-नमो बुद्धाय। – ‘मूकनायक’ के जरिए आपने जो सपना देखा था, उसको पूरा करने में लगा आपका एक अनुयायी अशोक दास (संपादक, दलित दस्तक)

दलित दस्तक मैग्जीन का नवम्बर 2019 अंक ऑन लाइन पढ़िए

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[flipbook pdf=”https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2020/03/november2019.pdf” height=”1000″ singlepage=”true”] दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने सात साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2019 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने सात साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए आठवें साल का छठा अंक लेकर आए हैं. अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

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Dismantling Casteism & Racism Symposium

“Jai Bhim! Jai Martin Luther King!” So began Professor Kancha Ilaiah Shepherd’s address to a packed audience at the Michigan League on Saturday, October 12. Invoking Dr. Bhimrao Ramji Ambedkar and Dr. Martin Luther King—two stalwarts in the global struggle against racism and casteism—Professor Shepherd kicked off a full-day of presentations and discussions for the symposium “Dismantling Casteism & Racism: Continuing the Unfinished Legacy of Dr. B.R. Ambedkar.” The event was a first-ever collaboration between the Ambedkar Association of North America (AANA) and University of Michigan’s Program in Asian/Pacific Islander American (A/PIA) Studies. Aimed at building solidarity and examining issues that pertain to the Dalit community in South Asia, the symposium explored the politics of dignity and equal rights for marginalized communities in a global context with an emphasis on intersections with issues of gender, race, and religion. As the organizers put it, “We seek to strengthen conversations between scholars, activists, and practitioners in analyzing caste-based discrimination and violence in South Asia and beyond.”

The Vandenberg room of the Michigan League was filled with nearly one-hundred audience members, including guests from California, Chicago, Toronto, Indiana and Kentucky. Two long-time activists of the Ambedkarite movement, Dr. Velu Annamalai (Washington, DC) and Dr. Gary Bagha (Sacramento) were also in attendance. During a reception held in Sterling Heights on Friday, Dr. Annamalai—the former executive director of the International Dalit Forum—spoke about his early years as an activist for the Dalit cause when he first immigrated to the U.S. in the late 1960s. Dr. Annamalai described his efforts lecturing across the country to African American audiences about the struggle against casteism and penning editorials in Indian-American newspapers that challenged the benevolent image of Gandhi by highlighting his record of anti-Black racism and his role in undermining Dalit self-determination.

Dismantling Casteism & Racism Symposium

The Saturday morning session featured speeches from Professor Kancha Ilaiah Shepherd, who recently retired from the Center for theStudy of Social Exclusion and Inclusive Policy at Maulana Azad University, and Thenmozhi Soundararajan, the director of Equality Labs and former director of AANA in the U.S. One of India’s most prominent anti-caste intellectuals, Shepherd spoke about the “spiritual fascism” that undergirds caste practice and sharply criticized the virulent Hindu nationalism of modern India that continues to persecute and disenfranchise the Dalitbahujan community. Continuing these themes, Soundararajan discussed the role of “Hindu fascism” in proliferating a climate of violence and hatred towards Dalits, Muslims, Christians, and other non-upper-caste communities. Her presentation displayed examples of the proliferation of hate speech against Muslims and Dalits on social media as well as the bipartisan inroads that the Hindu Right have made in U.S. electoral politics. Her presentation askeda captivated audience to consider, “What does it mean to be an Ambedkarite during a time of fascism?” “It means more than just coming to a conference,” Soundararajan explained, imploring the audience to consider how to continue the struggle against casteism and Hindutva outside of ivory tower spaces.

An afternoon session featured three panelists who discussed more personal impacts of casteism, colorism, and racism by focusing on the role of mental health. Ankita Nikalje, M.S., M.Ed, a doctoral candidate at the College of Education at Purdue, described her personal experiences of living as a Dalit woman and connected her narrative to recent studies which highlight the rampant caste-based discrimination in the Asian-Indian immigrant community in the U.S in education, employment, local businesses, places of worship, and interpersonal relationships. Professor Ronald Hall from Michigan State University, whose scholarship has focused on the role of “colorism” in the African American community, drew connections between colorism and caste in South Asia. The final panelist, Professor Gaurav Pathania from George Washington University, explored the ways that student activism in India has empowered Ambedkarite scheduled castes, scheduled tribes, and OBC students to construct a new narrative to counter the mainstream narratives of Hindu mythology within the sacred spaces of higher education. He closed the afternoon panel with a recitation of his poem, “The Moon Mirrors a Manhole. To conclude the event, Mahesh Wasnik, a co-founder of the AANA and symposium organizer, presented plaques and a copy of the Indian constitution to each of the panelists.

The symposium was the culmination of a conversation that began in January 2019, initiated by Mahesh Wasnik and Vivek Chavan of AANA in coordination with Professor Manan Desai of UM’s A/PIA Studies program. In the end, the symposium brought together a number of communities not only at the University of Michigan and Metro-Detroit region, but nationally. It was sponsored by community organizations including the Periyar-Ambedkar Circle, the American Federation of Muslims of Indian Origin, and the Association for India’s Development. A long list of University of Michigan sponsors also generously funded and supported the event, including A/PIA Studies, the Department of American Culture, the Office of Diversity, Equity, and Inclusion, Rackham’s DEA Programmatic Support Fund, the LSA Humanities Institute Mini Grant for Public Humanities, the Center for South Asian Studies, the Department of English Language & Literature, the Department of Comparative Literature, the Center for South Asian Studies, the Department of History, the Global Scholars Program, and the Barger Leadership Institute.

The organizers especially thankthe following individuals who made the event possible: Vivek Chavan, Rakesh Raipure, Chatak Dhakne, Prabhu Karan, Dinesh Pal, Ganganithi Sivapandian, Sandeep Kulkarni, Anshul Sontakke, Rohit Meshram, Bikash, and Bipin.

आपने कल क्या किया? दीपावली मनाई या फिर दीपदानोत्सव?

आपने कल क्या किया? दीपावली मनाई या फिर दीपदानोत्सव, या फिर एक बार फिर त्यौहारों को लेकर द्वंद में पड़े रहें? अच्छा दोनों में फर्क क्या है, और दोनों को मनाने का आपका तर्क क्या है? बीते हफ्ते भर से अम्बेडकरवादियों के फोन दीपावली Vs दीपदानोत्सव की बहस से फट रहे थे। दीपदानोत्सव वाले इसे लगातार बौद्ध त्यौहार बता रहे थे। उनके मुताबिक जिस पर बाद में हिन्दुओं ने कब्जा कर लिया। अच्छा दीपावली भी मजेदार त्यौहार है। यह हिन्दू समाज भी मनाता है, सिख धर्म वाले भी मनाते हैं, जैन धर्म वाले भी और कुछ भारतीय बुद्धिस्ट भी। मैंने भारतीय बुद्धिस्ट इसलिए कहा क्योंकि थाईलैंड और श्रीलंका सहित तमाम अन्य बौद्ध देश दीपावली नहीं मनाते। दीप दानोत्सव वाले पक्ष के विरोधियों का तर्क है कि उन्होंने कहीं भी बाबासाहब या फिर बौद्ध साहित्य में दीप दानोत्सव के बारे में नहीं पढ़ा। दीप दानोत्सव के पक्षधरों द्वारा सम्राट अशोक द्वारा जो 84 हजार बौद्ध स्तूपों पर दीया जलाने की बात की जाती है, या फिर तथागत बुद्ध के उनके नगर में लौटने के दौरान नगर को दिये से रौशन करने की जो बात कही जाती है, उसे भी दीपदानोत्सव मनाने का विरोधी पक्ष मनगढ़ंत कहता है। विरोधी पक्ष का कहना है कि कहीं बौद्ध साहित्य में इसका प्रमाण नहीं है। उनका दूसरा तर्क यह है कि अगर दीप दानोत्सव बौद्ध त्यौहार है तो आखिर यह अन्य बौद्ध देशों में क्यों नहीं मनाया जाता। मैंने बौद्ध साहित्य की सभी पुस्तकें नहीं पढ़ी इसलिए पहले तर्क के बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कह सकता, लेकिन मुझे दूसरा तर्क दमदार लगता है। एक सवाल यह भी आता है कि दीप दानोत्सव कब मनेगा, इसका आधार हिन्दू पांचांग और कैलैंडर ही क्यों होता है? बौद्ध धम्म का कोई विद्वान भंते क्यों नहीं बताता कि दीप दानोत्सव कब है।

दूसरी बात, मान लिजिए कि अम्बेडकरवादियों का एक धड़ा अगर दीपदानोत्सव मनाना चाहता है तो दिक्कत क्या है? उनके तर्क के मुताबिक अगर वो इसी बहाने घर के कोने-कोने की सफाई कर लेते हैं, सालों से पड़ा हुआ बेकार सामान नष्ट कर लेते हैं, घरों की पुताई करवा लेते हैं और इस दिन तथागत बुद्ध और बाबासाहब के आगे दीप जला लेते हैं तो किसी को क्यों दिक्कत होनी चाहिए, क्योंकि आखिर उन्होंने किसी अन्य काल्पनिक ईश्वर के सामने तो माथा नहीं टेका। इस दिन को मुस्लिम भी दीये जलाते पाते गए हैं, क्रिश्चियन में भी कई लोग जलाते हैं। फिर अगर बुद्धिस्टों ने दीया जलाया तो इतनी हाय तौबा क्यों?

तीसरी बात, हिन्दू नहीं होने और बौद्ध होने के द्वंद में फंसे समाज के लिए यह कितना आसान है कि वह ऐसा त्यौहार नहीं मनाए जो उसी के घर-परिवार में 99 फीसदी लोग मना रहे होते हैं। मुस्लिम कोई हिन्दू और अन्य धर्मों का त्यौहार नहीं मनाते, क्रिश्चियन भी किसी अन्य धर्म का त्यौहार नहीं मनाते। और उनके लिए ऐसा करना आसान होता है, क्योंकि उनका हिन्दू धर्म से वास्ता नहीं होता। उनके नाते-रिश्तेदार सभी उसी धर्म के लोग होते हैं। उनके हक में जो बात सबसे ज्यादा होती है कि वह अपने ही समाज के लोगों के बीच रहते हैं। एक मुसलमान का या फिर एक क्रिश्चियन का पड़ोसी और नाते-रिश्तेदार भी इसी समाज का होता है। जबकि अम्बेडकरी समाज की दिक्कत यह है कि इस समाज का तकरीबन 95 फीसदी आदमी जो आज अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट होने की राह में है, कल तक उसके परिवार के लोगों का संबंध उसी धर्म से था, जिससे आज वो दूर भागना चाहता है। जिनकी पिछली पीढ़ी अम्बेडकरवादी या बुद्धिस्ट नहीं है, ऐसे लोगों की बात करे तो अम्बेडकरवाद को समझने और बुद्धिज्म को अपनाने के वक्त तक उनकी तकरीबन आधी जिंदगी निकल चुकी होती है। यह खुद को अपने उस पुराने धर्म से तभी बेहतर तरीके से और जल्दी काट पाएगा जब वो उन लोगों के बीच रहे जिनसे उनकी सांस्कृतिक एकरूपता है। यानि वह भी मुसलिम, क्रिश्चियन और सिख समाज की तरह एक साथ एकजुट रहे।

आखिरी बात, दीपावली और दीपदानोत्सव के द्वंद के बीच बेहतर यह होगा कि बौद्ध समाज के विद्वान जिनमें विद्वान भंतेगण, पुराने बुद्धिस्ट और बौद्धाचार्य शामिल हैं, उनको एक साथ बैठकर धम्म सम्मेलन करना चाहिए। दीपदानोत्सव होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए, इस विषय पर सबका पक्ष सामने आने के बाद आपसी सहमति से एक फैसला ले लें, जिसे पूरा अम्बेडकरी समाज और बौद्ध समाज माने। ध्यान रहे, मैंने अम्बेडकरी और बौद्ध समाज कहा। बाकी जो लोग खुद को इस दायरे से अलग रखना चाहते हैं और दीवाली मनाना चाहते हैं तो यह उनकी स्वतंत्रता होगी। उन्हें हमको बुद्धिज्म की तरफ लाने की कोशिश करते रहना चाहिए। हां, लेकिन फिर वो खुद को बौद्ध समाज या अम्बेडकरी समाज का हिस्सा मानने का दावा करना छोड़ दे। अब अम्बेडकरी-बुद्धिस्ट समाज को हर साल होने वाली इस थकाऊ और परेशान करने वाली बहस से छुटकारा मिलना चाहिए। और इसका दायित्व अम्बेडकरी-बुद्धिस्ट समाज के बुद्धीजिवियों के ऊपर है।

नोटः मैंने कोशिश की है कि इस विषय पर मैं हर तरह के लोगों की मनःस्थिति का ध्यान रखूं। मैं इस विषय में किसी भी पक्ष के साथ खड़ा नहीं हूं, सिर्फ तथ्यों के साथ खड़ा हूं और सही तथ्य क्या है, इसका फैसला विद्वानजन करेंगे।

क्या महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की टीम में खेले प्रकाश आंबेडकर?

प्रकाश आम्बेडकर और ओवैसी (फाइल फोटो)

महाराष्ट्र और हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे साफ हो गए हैं. महाराष्ट्र की बात करें तो प्रदेश में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को 161 सीटें मिली है, जबकि कांग्रेस-एनसीपी 98 सीटें हासिल कर सकी हैं. पिछली बार भाजपा-शिवसेना गठबंधन को विधानसभा में 185 सीटें मिली थीं. नतीजों को देखकर पता चलता है कि इस बार गठबंधन को 24 सीटों का नुकसान हुआ है. न तो बहुजन समाज पार्टी और न ही प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाड़ी एक भी सीट जीत पाई.

चुनाव नतीजों के बाद एक बार फिर आंकड़ों को सामने रखकर विश्लेषण का दौर शुरू हो चुका है. इंडिया टुडे डाटा इंटेलिजेंस यूनिट ने उन सभी सीटों का आंकलन किया, जहां भाजपा ने जीत दर्ज की और उन सीटों पर कांग्रेस/एनसीपी और वीबीए यानि वंचित बहुजन अघाड़ी को मिले वोटों का प्रतिशत जोड़ दिया. इन तीनों पार्टियों के वोट शेयर जोड़ने के बाद पता चला कि अगर तीनों पार्टियां साथ चुनाव लड़तीं तो भाजपा को 34 सीटों पर हार का सामना करना पड़ता.

ऐसी स्थिति में कांग्रेस-एनसीपी-वीबीए को लगभग 138 सीटें मिलती और भाजपा घटकर 128 पर रह जाती. लेकिन अब चुनाव बीत चुका है और राजनीतिक दलों के पास अफसोस करने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं है. लेकिन…

सवाल है कि प्रकाश आंबेडकर ने कांग्रेस-एनसीपी से गठबंधन क्यों नहीं किया? सवाल यह भी है कि असदुद्दीन ओवैसी की जिस AIMIM के साथ मिलकर उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा था और दोनों को एक बड़ी ताकत के रूप में देखा जाने लगा था, आखिर प्रकाश आंबेडकर ने विधानसभा चुनाव से पहले ओवैसी से गठबंधन क्यों तोड़ दिया? जबकि महाराष्ट्र चुनाव में दो सीटें जीतने वाले ओवैसी आखिरी समय तक प्रकाश आंबेडकर के साथ गठबंधन को लेकर कोशिश करते रहें.

ओवैसी का कहना था कि गठबंधन होने की स्थिति में दोनों दलों के कम से कम 15 से 20 सीटें जीतने की संभावना रहती. ऐसे में प्रकाश आंबेडकर को राज्यसभा भेजा जा सकता था. लेकिन ओवैसी की कोशिश रंग नहीं लाई और गठबंधन नहीं हुआ.

विधानसभा चुनाव में प्रकाश आंबडेकर ने 274 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारा था. लेकिन वह कोई सीट नहीं जीत सकें. सिर्फ एक सीट पर उन्हें कुछ समय के लिए बढ़त मिल सकी थी. जबकि ओवैसी ने महाराष्ट्र में 50 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और उन्होंने दो सीटें जीती.

अब सवाल है कि दोनों के बीच गठबंधन क्यों नहीं हुआ? इसके जो कारण सामने आए उसके मुताबिक प्रकाश आंबेडकर ओवैसी को गठबंधन में सिर्फ 8 सीटें देना चाहते थे. खबर यह भी है कि प्रकाश आंबेडकर ओवैसी से उनके सीटिंग विधायकों वाली सीटें चाहते थे. जाहिर है कि ओवैसी के लिए ऐसा करना संभव नहीं था. गठबंधन तोड़ने के लिए प्रकाश आंबेडकर ने यह भी आरोप लगाया कि AIMIM को दलित वोट ट्रांसफर हो जाते हैं लेकिन वंचित बहुजन अघाड़ी के उम्मीदवार को मुस्लिम वोट नहीं मिलते. इन तीन कारणों को आधार बनाकर प्रकाश आंबेडकर ने ओवैसी के साथ गठबंधन नहीं किया.

अब जरा इसी साल हुए लोकसभा चुनाव के आंकड़े देखिए.

लोकसभा चुनाव में ओवैसी और प्रकाश आंबेडकर ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. इन्होंने राज्य के सभी 48 लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे. इस गठबंधन को 42 लाख से अधिक वोट मिला और उसका वोट प्रतिशत 7 फीसदी से ज्यादा रहा. ओवैसी की पार्टी एक सीट जीतने में सफल रही थी. इस गठबंधन ने भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस और राकंपा सबको काफी नुकसान पहुंचाया. हालांकि ज्यादा नुकसान कांग्रेस एनसीपी को हुआ. इस गठबंधन की वजह से कांग्रेस और शिवसेना के कई दिग्गज चुनाव हार गए.

माना जा रहा था कि विधानसभा चुनाव में यह गठबंधन तीसरी बड़ी ताकत बनकर उभरेगा, लेकिन विधानसभा चुनाव के ठीक पहले प्रकाश आंबेडकर गठबंधन तोड़ने पर अमादा दिखने लगे और आखिरकार गठबंधन तोड़ दिया.

अब सवाल यह है कि जो प्रकाश आंबेडकर कुछ समय पहले तक ओवैसी के साथ मिलकर भाजपा को रोकने की बात कह रहे थे, वह अचानक अकेले चुनाव मैदान में क्यों कूद गए, जबकि इतने सालों के इतिहास में यह साफ है कि प्रकाश आंबेडकर अकेले महाराष्ट्र की राजनीति में कई बड़ा कमाल नहीं कर पाए हैं. उन्होंने ऐसा फैसला क्यों किया जो आखिरकार भाजपा के हक में गया. क्या यह पूरा घटनाक्रम महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रकाश आंबेडकर की भूमिका पर सवाल नहीं उठाता है?

मोदी आखिर महाबलीपुरम में कचरा क्यों चुन रहे थे

इस हफ्ते की खास खबर यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कविता लिख दी है. मोदी ने यह कविता महाबलीपुरम में सागर के किनारे लिखी, जहां वह चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग के साथ दो दिनों की अनौपचारिक वार्ता के लिए मौजूद थे और सुबह की सैर पर निकले थे. बकौल मोदी वह सागर से संवाद में खो गए थे. मोदीजी की कविता सामने आने के बाद समाचार चैनलों को ब्रेकिंग न्यूज मिल गया है तो ट्विटर पर इस कविता को सराहने और रि-ट्विट करने की होड़ मची है. गोया यह उनके सी आर यानि करियर रिकार्ड में दर्ज हो रहा है.

इससे पहले पीएम मोदी की समुंदर के किनारे कचरा चुनने की तस्वीर भी बड़ी खबर बनी थी. पीएम समुद्र के किनारे पड़े प्लास्टिक की बोतलों को चुन कर इकट्ठा कर रहे थे. सवाल यह है कि पीएम मोदी क्यों कविताएं लिखने लगते हैं या फिर क्यों वह समुद्र के किनारे से बोतलें उठाने लगते हैं और सबसे बड़ा सवाल कि आखिर क्यों ये सारी तस्वीरें और ख्यालात सार्वजनिक किए जाते हैं. तो इसका जवाब यह है कि संभवतः पीएमओ चाहता है कि मोदीजी इस तरह के जो काम कर रहे हैं, वह सब कोई देखे. और जब ऐसा होता है तो पहला सवाल यह आता है कि क्या ऐसा दिखाने के लिए ही किया जाता है? और अगर यह दिखाने के लिए ही किया जाता है तो आखिर इसके पीछे मंशा क्या है?

इसके लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. मोदी भारत के संभवतः पहले प्रधानमंत्री हैं जो अपने विदेशी समकक्षों से दोस्ताना दिखते हैं. अपने विदेशी समकक्षों को कस कर गले लगाना, उनके कंधे पर हाथ रख देना आमतौर पर पहले के प्रधानमंत्रियों में नहीं दिखता था. लेकिन मोदी अगर ऐसा कर रहे हैं तो आखिर क्यों कर रहे हैं?

दरअसल प्रधानमंत्री मोदी की चाहत एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित होने की दिखती है, जिसके आस-पास कोई दूसरा नेता न हो. मोदी ट्रेडिशनल नेता की तरह नहीं दिखना चाहते हैं. भारत युवाओं का देश है और मोदी के बहाने भाजपा के केंद्र में यही युवा वर्ग हैं. अमेरिका जाकर वहां के राष्ट्रपति ट्रंप की मौजूदगी में हाउडी मोदी जैसा आयोजन या फिर मैन वर्सेस वाइल्ड शूट करना इसी का हिस्सा है. मीडिया में दिखते रहने की पीएम मोदी की जो योजना है और उन्हें लगातार दिखाने के लिए मीडिया जिस तरह बेताब दिखती है, और जिस तरह से पीएम या फिर सरकार के विरोध में उठने वाले हर सवाल को दबा देने की पुरजोर कोशिश की जा रही है, ऐसे में पीएम का कविता लिखना और कचरा उठाना ही ब्रेकिंग न्यूज बनता रहेगा.

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बहुजन प्रेरणा स्थल पर तालेबंदी और बहुजन सत्ता 

14 अक्टूबर 2011. नोएडा के सेक्टर 18 के पास एक भव्य स्थल दुल्हन की तरह सजा हुआ था. सबके स्वागत को तैयार. तभी उसके प्रांगण में गड़गड़ाता हुआ एक हेलिकॉप्टर उतरा, और उसमें से उतरीं उत्तर प्रदेश की तत्कालिन मुख्यमंत्री मायावती. दरअसल मायावती उस भव्य स्थल का उद्घाटन करने आई थीं, जिसका नाम ‘राष्ट्रीय दलित स्मारक’ था और जिसे दलित प्रेरणा स्थल भी कहा जाता है. इसके जरिए बहनजी ने 14 अक्टूबर के महत्वपूर्ण दिवस पर धम्मचक्र को गतिमान करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया था.

दलित प्रेरणा स्थल के मुख्य गुंबद के गेट पर लगा ताला (तस्वीरः 27 सितंबर, 2019)

दलित प्रेरणा स्थल के उद्घाटन को आज 8 साल पूरे हो गए हैं. और आठ साल बाद ही बहुजनों की आस्था को केंद्र में रखकर बनाए गए इस इमारत के प्रमुख गुंबद पर ताला जड़ा जा चुका है. आप जो ये दरवाजा देख रहे हैं, वह इस भव्य इमारत का प्रमुख गुंबद है, जिसके भीतर बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर, बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम और बसपा प्रमुख सुश्री मायावती की आदमकद प्रतिमा लगी हैं. तो इसकी दीवारों पर बहुजन समाज के नायकों और उनके द्वारा किए गए प्रमुख आंदोलनों और कार्यों का जिक्र है. लेकिन इसके बंद होने की वजह से यहां आने वाले लोग अब इस तमाम इतिहास को देखने से मरहूम रह जा रहे हैं. वहां के स्टॉफ से वजह पूछने पर पता चलता है कि इसे पिछले कई महीनों से मेंटनेंस के लिए बंद किया गया है, लेकिन हकीकत में वहां कोई काम होता हुआ दिख नहीं रहा था.

आधिकारिक तौर पर 685 करोड़ रुपये की लागत से 82.5 एकड़ में बने इस प्रेरणा स्थल की खूबसूरती शुरुआती दौर में देखते ही बनती थी. शानदार पार्क, पानी के फव्वारे और दर्जन भर प्रमुख बहुजन नायकों की आदमकद प्रतिमाएं दिल्ली से सटे नोएडा के प्रमुख केंद्र में बहुजन समाज के शानदार इतिहास की गवाही देती थी. रात को रोशनी में नहाए इस स्थल की खूबसूरती और बढ़ जाती थी. यह वहां से गुजरने वाले हर व्यक्ति का ध्यान खिंच लेती थी, लेकिन अब इसकी चमक फीकी होने लगी है.

जगह-जगह घास उग चुके हैं तो कई जगह दीवारों से पत्थर टूट कर गिर रहे हैं. कई जगहों पर पार्क घास के जंगल सरीखे दिख रहे हैं. कैंपस में मौजूद टायलेट बंद पड़े हैं, कई नलों से पानी नहीं आता. पत्थरों पर काई जम चुकी है जो लगातार इस इमारत को कमजोर कर रहे हैं. सबसे ज्यादा चिंता की बात यहां खड़े बहुजन नायकों की आदमकद प्रतिमाओं का खराब होना है.

दलित प्रेरणा स्थल में मौजूद बहुजन महापुरुषों की प्रतिमाएं बेहतर रख-रखाव के बिना खराब हो रही हैं

यहां बहुजन समाज के दर्जन भर प्रमुख संतों-महापुरुषों की आदमकद प्रतिमाएं लगी है. प्रतिमाओं के नीचे नायकों का परिचय है. लेकिन इन्हें देखने से साफ पता चलता है कि ये सभी प्रतिमाएं घोर उपेक्षा की शिकार हैं. महामना जोतिबा फुले की प्रतिमा के नीचे लिखा उनका परिचय गायब हैं तो संत शिरोमणि रविदास का परिचय धुंधला पर चुका है.

प्रेरणा स्थल पर लगी उद्धाटक की पट्टिका

बुद्ध से लेकर बिरसा मुंडा और संत कबीर से लेकर बाबासाहब आम्बेडकर और गाडगे महाराज की प्रतिमाओं पर काई का कब्जा हो चुका है जो इन प्रतिमाओं को खराब कर रही है. हां, मान्वयर कांशीराम की प्रतिमा इन तमाम उपेक्षाओं के बावजूद साफ-सुथरी खड़ी है, जैसे वह अकेले आज भी मनुवादियों से लोहा ले रहे हों.

दरअसल दलित प्रेरणा स्थल के उद्घाटन के एक साल बाद ही 2012 में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव में बसपा सत्ता से बाहर हो गई और मायावती को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उसके बाद आई सपा की सरकार ने भी इन बहुजन स्थलों की उपेक्षा की. वहीं भाजपा सरकार में तो नौबत तालेबंदी की आ गई है. जब हमने इस बारे में वहां के स्टॉफ से बात करनी चाही तो कैमरे के सामने आने को कोई तैयार नहीं था. इतना भर कहा गया कि सरकार ने रख-रखाव को काफी फंड दिया है. लेकिन यह वैसा ही है जैसे कहने को संविधान में दलितों के लिए तमाम अधिकार तो हैं, लेकिन अधिकार दिलाने वालों की नीयत साफ नहीं है. दलित प्रेरणा स्थल के बारे में भी सवाल सरकार की नीयत पर ही उठ रहे हैं जो नहीं चाहती की बहुजन अपने इतिहास को जाने.

सवाल है कि बहुजन समाज को स्वाभिमान और संबल देने वाला एक प्रमुख केंद्र सिर्फ इसलिए धाराशायी होने की ओर अग्रसर है क्योंकि सत्ता में बहुजन समाज नहीं है. बसपा शासन इस बात का उदाहरण है कि सत्ता के शिखर पर होते हुए बहुुजन समाज क्या कर सकता है और सत्ता में नहीं होने पर क्या खो सकता है.

दिल्ली विवि के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष पद को लेकर विवाद के मायने

लेखक- लक्ष्मण यादव दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष पद को लेकर मामला बहुत पेचीदा हो चुका है. हिन्दी विभाग डीयू ही नहीं, देशभर के सबसे बड़े विभागों में एक है. इसलिए यहाँ राजनीति भी बड़े लेवल की होती रही है. पहले प्रोफ़ेसर का क़द मंत्रियों से कई गुना बड़ा हुआ करता था, तब सियासत विभाग में आकर कमजोर हो जाती या अमूमन दम तोड़ देती थी. अब प्रोफ़ेसर नेताओं के तलवे सहलाकर पद के लिए भीख मांगने लग रहे हैं. वक़्त कितना बदल गया. इस बात को ऐसे समझें कि यहाँ पीएचडी में एडमिशन से लेकर नियुक्तियों तक में प्रोफ़ेसर की चलती थी, आज सब कुछ में कैबिनेट लेवल के मंत्रियों का दखल होता है. इसलिए आज एक प्रोफ़ेसर जब नियमों की धज्जी उड़ाने में सफल हो रहा है, तो ये सामान्य बात है.

आज केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय, MHRD, सांसद से लेकर भूतपूर्व विजिटर नॉमिनी तक कुलपति पर दबाव डाल रहे हैं कि नियमों व रवायतों का उल्लंघन करके एक संघ विचारक मेरिटधारी प्रोफ़ेसर को अध्यक्ष बना दिया जाए. जबकि नियमों के मुताबिक़ प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन के रूप में हिन्दी विभाग को 72 साल के जीवनकाल में पहला दलित-बहुजन अध्यक्ष मिलने जा रहा है. इसलिए सारे नियम तोड़ने का दबाव है. जबकि प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन पिछले तीन से अधिक वर्षों से अध्यक्ष के न रहने पर कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका में काम करते रहे हैं. सैकड़ों लेटर उनके कार्यकारी अध्यक्ष के आधार पर जारी हुए, फाइलों पर इनके दस्तख़त हैं. लेकिन अचानक सियासी दबाव इतना भारी हो गया कि नियम सब ध्वस्त कर दिए गए. पूरे हिन्दी विभाग से लेकर कुलपति तक जिसे सही मान रहे, वह सही हो नहीं रहा.

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संघ विचारक प्रोफ़ेसर की दावेदारी इतनी ही पुख्ता है, तो कुलपति को तत्काल प्रभाव से उन्हें अध्यक्ष बना देना चाहिए था. लेकिन कुलपति कार्यालय उनकी फाइल रिजेक्ट कर चुका है. क्योंकि मान्यवर का तर्क है कि उन्हें भले ही प्रोफ़ेसरशिप श्यौराज जी के बाद मिली, लेकिन दो साल पहले यूजीसी ने ‘रिसर्च साइंटिस्ट’ के पदों को ख़त्म करके उनकी पे-स्केल वाला पद देने संबंधी एक ख़याली प्रस्ताव जारी किया. ख़्याल हक़ीक़त में बदला दो साल बाद, यानि अक्टूबर 2010 में. लेकिन प्रोफ़ेसर साहेब मेरिटधारी बनारस के ब्राह्मण जो ठहरे, बोले मैं तो यूजीसी के मन में उस ख़्याल आने वाले दिन से ही ख़ुद को प्रोफ़ेसर मानूँगा. और उनकी बात को संघी सियासत सही मानकर कुलपति को दबाव में रखे हुए है. आज कुलपति भी कमज़ोर है.

इसलिए कह रहा हूँ कि ये लड़ाई संविधान बनाम सत्ता की है. आंबेडकर बनाम सावरकर की है. मेरिट बनाम जाति की है. और उन साहेब प्रोफ़ेसरान की भाषा में कहें तो बनारस के ब्राह्मण बनाम शूद्र की है. और अब ये लड़ाई लिटमस टेस्ट है कि इसे कौन जीतता है. अगर आज 2019 में भी दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बनने में ऐसी साज़िशें हैं, तो बाकी अकादमिक जगत की असल तस्वीर की आप कल्पना करें. आज जब एक शूद्र बहुजन हर तरह से सक्षम, पात्र व मेरिट लेकर प्रोफ़ेसर बना है, वह एक प्रख्यात साहित्यकार व विचारक के तौर पर दर्जनों जगहों से सम्मानित हो चुका है, नियम कानून उसे विभागाध्यक्ष बना रहे हैं; तो सवाल ये है कि आज का द्रोणाचार्य कौन है? आप मदद कीजिए उसे पहचाहने में.

 लेखक जाकिर हुसैन कॉलेज में हिन्दी विभाग में पढ़ाते हैं।

गांधी ने छिन लिया था इस बहुजन नायक के हिस्से का सम्मान

सरकार महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का जश्न मना रही है. सरकार से लेकर तमाम राजनैतिक दल उनके योगदान को याद कर रहे हैं. आम तौर पर गांधी को देश में स्वच्छता और शांति के दूत के रूप में याद करने का चलन है. कहा जाता है कि उन्होंने बिना हथियार के भारत को आजादी दिला दी. हालांकि यह पूरा सच नहीं है क्योंकि आजादी के लिए सैकड़ों नायकों और हजारों देशवासियों ने अपनी जान भी गंवाई, क्रांति की.

इसी तरह भारत में मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत का मिशन चलाकर गांधी को उसका ब्रांड एम्बेसडर बनाया. लेकिन सही मायनों में बिना किसी पूर्वाग्रह के देखें तो साफ हो जाएग कि स्वच्छता का ब्रांड एम्बेडकर बनने का हक अगर किसी को था तो संत गाडगे महाराज का था.

23 फरवरी, 1876 में जन्में संत गाडगे ने 1905 में घर त्याग दिया. एक हाथ में लाठी और दूसरे में मिट्टी का भिक्षा पात्र लिए वह घर से चल दिये. वह गरीब समाज को दुखों से मुक्ति दिलाना चाहते थे. उनको सम्मान दिलाना चाहते थे, और इस वर्ग को सम्मान मिलने में सबसे बड़ी बाधा थी उनका गंदा रहन-सहन. गाडगे बाबा ने सबसे पहले गरीबों को स्वच्छता का पाठ पढाने का संकल्प लिया.

एक दिन वह एक दलित बस्ती में चले गए. पूरी बस्ती में कुड़े के ढेर थे. बस्ती के लोगों को सफाई का महत्व समझाते हुए वह स्वयं बस्ती की सफाई में जुट गए तो लोग भी उनका साथ देने लगे. शाम तक बस्ती चमक गई. इस प्रकार वह एक गांव की सफाई करते और इसका महत्व समझाते हुए दूसरे गांव की ओर चलते गए. उनके प्रयास का असर यह हुआ कि लोग अब अपनी बस्तियों को साफ रखने लगे थे.

संत गाडगे ने कुष्ठ रोगियों के लिए भी काम किया. इसके लिए गांधी की तारीफ की जाती है लेकिन गाडगे बाबा को याद नहीं किया जाता. गाडगे बाबा ने मरीजों के लिए अस्पतालों तथा कुष्ठ रोगियों के लिए कुष्ठ आश्रमों का निर्माण करवाया. उन्होंने जीव रक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण काम किए. जिन धार्मिक स्थलों पर बकरे, मुर्गे, भैसे कटते थे, गाडगे बाबा ने जीवदया नामक संस्थाओं की स्थापना की शुरुआत की.

बाबा का मिशन फैलाने के उद्देश्य से उनके अनुयायियों ने 8 फरवरी 1952 को गाडगे मिशन की स्थापना की. महाराष्ट्र के अकोला में जन्में गाडगे महाराज की महानता और उनके द्वारा किए गए समाज कल्याण के कामों से महाराष्ट्र सरकार वाकिफ थी. यही वजह रही कि महाराष्ट्र के तत्कालिन मुख्यमंत्री श्री बी.जी खैर ने गाडगे बाबा की सभी संस्थाओं का ट्रस्ट बना दिया, जिसमें करीब 60 संस्थाएं हैं. आज भी यह मिशन जनसेवा को समर्पित है.

तो वहीं दूसरी ओर संत गाडगे बाबा के सार्वजनिक स्वच्छता अभियान के समर्पण के आदर में महाराष्ट्र सरकार ने 2000-2001 में ‘संत गाडगे बाबा संपूर्ण ग्राम सफाई अभियान’ जैसी योजना का आरंभ किया, जिसके अंतर्गत सबसे स्वच्छ गांवों को पुरस्कृत करने की योजना भी बनाई गई. लेकिन पिछड़े हुए समाज से ताल्लुक रखने के कारण संत गाडगे का काम देश भर में ख्याति नहीं पा सका. न ही उस वक्त के नेताओं और समाचार पत्रों ने ही उनके काम को मान दिया. इस तरह अपना पूरा जीवन लोगों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाने में बिता देने वाले संत गाडगे स्वच्छता का ब्रांड एम्बेडसर बनने से पीछे छूट गए. आप खुद सोचिए, भारत में स्वच्छता का ब्रांड एम्बेडकर होने का हकदार कौन है? गांधी या संत गाडगे?

डॉ. आम्बेडकर के इस इंटरव्यू ने गांधी की असलियत उजागर कर दी थी

गांधी और अम्बेडकर के संबंधों पर अक्सर बहस होती रहती है. दोनों के बीच मतभेद को लेकर भी चर्चा आज भी जारी है. सवाल है कि आखिर डॉ. आम्बेडकर का गांधी से विरोध क्यों था, और तमाम मुद्दों पर डॉ. आम्बेडकर गांधी को किस तरह देखते थे. साल 1955 में डॉक्टर आंबेडकर द्वारा बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने गांधी के साथ अपने संबंधों और मतभेदों पर लंबी बात की थी. आगामी 2 अक्टूबर को मोहनदास करमचंद गांधी की 150वीं जयंती है. इस मौके पर उस इंटरव्यू में बाबासाहेब द्वारा कही गई बातों को देखना ज्यादा मौजू है.

गांधी से पहली मुलाकात पर

मैं 1929 में पहली बार गांधी से मिला था, एक मित्र के माध्यम से, एक कॉमन दोस्त थे, जिन्होंने गांधी को मुझसे मिलने को कहा. गांधी ने मुझे ख़त लिखा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं, इसलिए मैं उनके पास गया और उनसे मिला, ये गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने से ठीक पहले की बात है.

पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी उन्होंने मुझसे मिलने को कहा. लिहाज़ा मैं उनसे मिलने के लिए गया. वो जेल में थे. … मैं हमेशा कहता रहा हूं कि तब मैं एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से गांधी से मिला. मुझे लगता है कि मैं उन्हें अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं,क्योंकि उन्होंने मेरे सामने अपनी असलियत उजागर कर दी. मैं उस शख़्स के दिल में झांक सकता था.

आमतौर पर भक्तों के रूप में उनके पास जाने पर कुछ नहीं दिखता, सिवाय बाहरी आवरण के, जो उन्होंने महात्मा के रूप में ओढ़ रखा था. लेकिन मैंने उन्हें एक इंसान की हैसियत से देखा, उनके अंदर के नंगे आदमी को देखा, लिहाज़ा मैं कह सकता हूं कि जो लोग उनसे जुड़े थे, मैं उनके मुक़ाबले बेहतर समझता हूं.

गांधी का चरित्र दोहरा था

वो हर समय दोहरी भूमिका निभाते थे. उन्होंने युवा भारत के सामने दो अख़बार निकाले. पहला ‘हरिजन’ अंग्रेज़ी में, और गुजरात में उन्होंने एक और अख़बार निकाला जिसे आप ‘दीनबंधु’ या इसी प्रकार का कुछ कहते हैं. यदि आप इन दोनों अख़बारों को पढ़ते हैं तो आप पाएंगे कि गांधी ने किस प्रकार लोगों को धोखा दिया.

अंग्रेज़ी समाचार पत्र में उन्होंने ख़ुद को जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता का विरोधी और लोकतांत्रिक बताया. लेकिन अगर आप गुजराती पत्रिका को पढ़ते हैं तो आप उन्हें अधिक रूढ़िवादी व्यक्ति के रूप में देखेंगे. वो जाति व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म या सभी रूढ़िवादी सिद्धांतों के समर्थक थे,जिन्होंने भारत को हर काल में नीचे रखा है.

दरअसल किसी को गांधी के ‘हरिजन’ में दिए गए बयान और गुजराती अख़बार में दिए उनके बयानों का तुलनात्मक अध्ययन करके उनकी जीवनी लिखनी चाहिए. उनकी जितनी भी जीवनियां लिखी गई हैं, वो उनके ‘हरिजन’ और ‘युवा भारत’ पर आधारित हैं, और गांधी के गुजराती लेखन के आधार पर नहीं.

गांधी रूढ़िवादी हिन्दू थे

वो बिलकुल रूढ़िवादी हिन्दू थे. वो कभी एक सुधारक नहीं थे. उनकी ऐसी कोई सोच नहीं थी, वो अस्पृश्यता के बारे में सिर्फ़ इसलिए बात करते थे कि अस्पृश्यों को कांग्रेस के साथ जोड़ सकें. ये एक बात थी. दूसरी बात, वो चाहते थे कि अस्पृश्य स्वराज की उनकी अवधारणा का विरोध न करें. मुझे नहीं लगता कि इससे अधिक उन्होंने अस्पृश्यों के उत्थान के बारे में कुछ सोचा.

पूना पैक्ट पर

ब्रिटिश सरकार ने मैकडोनल्ड के दिए मूल प्रस्ताव में मेरा सुझाव मान लिया था. मैंने कहा था कि हम एक समान निर्वाचित प्रतिनिधि चाहते हैं,ताकि हिन्दुओं और अनुसूचित जातियों के बीच एक रेखा बनी रहे. मुझे लगता था कि अगर आप एक समान निर्वाचन प्रतिनिधि उपलब्ध कराते हैं तो हम समाहित हो जाएंगे और अनुसूचित जाति के नामित वास्तव में हिन्दुओं के ग़ुलाम बन जाएंगे, आज़ाद नहीं रहेंगे. अब मैंने रामसे मैकडोनल्ड से कहा कि वो इसी विषय को आगे बढ़ाना चाहते हैं, हमें अलग निर्वाचन प्रतिनिधि और आम चुनाव में अलग मत दें. ताकि गांधी ये नहीं कह सकें कि हम चुनाव के मामले में अलग हैं. पहले मेरी सोच यही थी, कि पहले पांच वर्ष हम हिन्दुओं से अलग रहें, जिसमें कोई व्यवहार,कोई संवाद न हो. ये सामाजिक और आध्यात्मिक क़दम होता….

… हम एक समान निर्वाचन के ज़रिये दोनों गुटों को एक मंच पर लाकर इस खाई को भरना चाहते हैं. लेकिन गांधी का विरोध इस बात पर था कि हमें आज़ादी के साथ प्रतिनिधित्व न मिले. लिहाज़ा उन्होंने खुलकर विरोध किया कि हमें कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए. गोलमेज़ सम्मेलन में उनका यही रुख़ था. उन्होंने कहा कि वो सिर्फ़ हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदाय को जानते हैं. संविधान में सिर्फ़ इन्हीं तीन समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.

इस विषय पर उनके दोस्तों ने ही उनका विरोध किया. अगर सिख और मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से हज़ारों गुना बेहतर स्थिति में हैं, तो अनुसूचित जाति और ईसाइयों को कैसे छोड़ा जा सकता है?

गांधी का दलितों के प्रति रुख पर

उन्हें अनुसूचित जाति को लेकर भारी डर था कि वो सिख और मुस्लिम की तरह आज़ाद निकाय बन जाएंगे और हिन्दुओं को इन तीन समुदायों के समूह से लड़ना पड़ेगा. ये उनके दिमाग़ में था और वो हिन्दुओं को दोस्तों के बिना छोड़ना नहीं चाहते थे.

गांधी महात्मा थे या राजनीतिज्ञ

उन्होंने राजनीतिज्ञ की तरह काम किया. वो कभी महात्मा नहीं थे. मैं उन्हें महात्मा कहने से इनकार करता हूं. मैंने अपनी ज़िंदगी में उन्हें कभी महात्मा नहीं कहा. वो इस पद के लायक़ कभी नहीं थे, नैतिकता के लिहाज़ से भी.

अशोक दास

दलित दस्तक मैग्जीन का अक्टूबर 2019 अंक ऑन लाइन पढ़िए

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[flipbook pdf=”https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2019/10/DALIT-DASTAK-October2019.pdf” height=”1000″ singlepage=”true”] दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने सात साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2019 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने सात साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए आठवें साल का पांचवां अंक लेकर आए हैं. अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

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कहां खड़ा है प्रबुद्ध भारत और बहुजन समाज बनाने का बाबासाहेब और मान्यवर का सपना

बहुजन इतिहास के लिहाज से अक्टूबर महीने में दो मुख्य घटनाएं घटी. एक, बाबासाहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को पांच लाख से ज्यादा अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर धम्मचक्र को गतिमान किया. दूसरी, 9 अक्टूबर 2006 को मान्यवर कांशीराम का परिनिर्वाण हो गया. इन दोनों महान नायकों ने दो बड़े सपने देखे थे. बाबासाहेब ने प्रबुद्ध भारत का सपना देखा था. उनका सोचना था कि अगर देश के वंचित समाज के लोग बुद्ध के बताए रास्ते पर चलते हैं तो उनका भविष्य ज्यादा बेहतर होगा. वो पंचशील के झंडे के नीचे विश्व समुदाय से जुड़ सकेंगे तो वहीं बुद्ध के समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांत पर चल कर एक बेहतर समाज का निर्माण करेंगे. दूसरी ओर 80 के दशक में बाबासाहब से प्रेरणा लेकर उनके अधूरे सपने को पूरा करने का संकल्प लेने वाले मान्यवर कांशीराम जी बहुजन समाज बनाने का सपना देख रहे थे. डीएस4 और बामसेफ के जरिए उन्होंने उस सपने को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत की और आखिरकार बहुजन समाज पार्टी बनाकर वो बहुजन समाज के तमाम वर्ग के लोगों को सत्ता तक पुहंचाने में सफल रहे. लेकिन सालों बाद भी न तो बाबासाहब के प्रबुद्ध भारत का सपना पूरा हो पाया है और न तो मान्यवर कांशीराम का बहुजन समाज का सपना.

मैं पिछले दिनों की एक घटना बताता हूं. मेरे पास एक फोन आया. सामने वाले ने कहा कि उनके रिश्ते के भाई ने दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ली है और लड़की वाले मारपीट पर उतारु हैं और पुलिस उनकी मदद कर रही है. लड़के वाले भी इस शादी से बहुत खुश नहीं थे. मामला समझने के लिए मैंने दोनों की जाति जाननी चाही. सामने वाले व्यक्ति ने कहा कि हमलोग एससी हैं और लड़की पक्ष धोबी समाज का. मैंने कहा कि धोबी समाज भी तो अपना ही समाज है, वो भी एससी है, फिर दिक्कत क्या है? उन्होंने कहा कि हमलोग चमार हैं, वो खुद को हमसे बड़ा मानते हैं. मुझे एक झटका सा लगा, हालांकि प्रेम विवाह ऐसी चीज है कि किसी के परिजन तुरंत राजी नहीं होते हैं. लेकिन इस मामले में लड़का और लड़की दोनों पढ़े लिखे थे. लड़का अपने जीवन में अच्छी नौकरी कर रहा था. बावजूद इसके दोनों पक्ष अपने बच्चों के इस फैसले से खुश नहीं थे. इसकी वजह यह थी कि ये लोग न तो बाबासाहब के प्रबुद्ध भारत का हिस्सा बन सके हैं और न ही मान्यवर कांशीराम के बहुजन समाज का.

मध्यप्रदेश के शिवपुरी में घटी एक घटना भी काफी चर्चा में रही. यहां यादव परिवार के दो लोगों ने दलित-वाल्मीकि परिवार के दो बच्चों को इसलिए मार डाला क्योंकि कथित तौर पर सुबह के समय वह सड़क पर शौच कर रहे थे. इस घटना ने मान्यवर के बहुजन समाज बनाने के सपने को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया.

 समाज या फिर बहुजन समाज के भीतर यह एक बड़ी समस्या है जो सदियों से बनी हुई है. बाबासाहब और मान्यवर ने इसी समस्या को सुलझाने के लिए प्रबुद्ध भारत और बहुजन समाज का सपना देखा था. जो लोग पीछे छूटे हुए हैं अगर एक पल को उनकी बात न भी की जाए तो जो लोग शहरों में आकर नौकरियां हासिल कर चुके हैं और खुद के समझदार और बुद्धिजीवी होने का दावा करते हैं, कम से कम उनको खुशी-खुशी अपने बच्चों के फैसले को स्वीकार करना चाहिए. हां, बच्चे योग्य हों और एक-दूसरे के काबिल हों इस बात पर मेरी भी सहमति है. तो इसी तरह दलित-पिछड़े समाज को एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ देना चाहिए, न कि उनका शोषक बन जाना चाहिए. दोनों समाज मनुवादी व्यवस्था का मारा हुआ है, ऐसे में उनका साथ बने रहना ही उनके हित में है. पिछड़े वर्ग को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए सही है. हालांकि पिछड़े वर्ग के भी तमाम लोग बहुजन समाज बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, लेकिन उनकी संख्या गिनती की है.

हम तमाम लोग बाबासाहब की बात करते हैं, मान्यवर कांशीराम, सतगुरु रैदास और संत कबीर की बात करते हैं, ज्योतिबा फुले और संत गाडगे की बात करते हैं, लेकिन इन्होंने समाज से क्या चाहा, जब इस बारे में बात आती है तो वो अपनी नजरें चुराते हैं. सतगुरु रविदास ने छोटे-बड़े के भेद से परे सबके साथ मिलकर रहने की कामना की थी, बेगमपुरा की कामना की थी, लेकिन पूरा समाज तो दूर जब उनके अपने अनुयायी ही उनकी बातों को नहीं मानते तो फिर उन्हें दूसरों द्वारा किए जाने वाले भेदभाव की शिकायत करने का भी कोई हक नहीं है. इसी तरह संत कबीर ने आडंबर और अंधविश्वास पर पुरजोर चोट की थी, लेकिन उनके अनुयायी होने और उन्हें अपने समाज का अंग मानने के बावजूद तमाम लोग आकंठ अंधविश्वास में डूबे हुए हैं. बाबासाहब ने तो वंचित समाज को सुधारने के लिए अपने बच्चों तक की कुर्बानी दे दी. मान्यवर कांशीराम ने अपने सुख के बारे में नहीं सोचा, अपने परिवार को त्याग दिया, कभी घर नहीं बसाया. लेकिन बहुजन समाज के तमाम महापुरुषों के त्याग के बावजूद हम सुधरने को तैयार नहीं हैं और जब तक हम प्रबुद्ध भारत या बहुजन समाज बनाने की ओर नहीं बढ़ेंगे हमारे समाज की समस्याएं यूं ही बनी रहेगी.

संयुक्त राष्ट्र में मोदी के बौद्ध प्रेम का सच!

  • लेखकः सिद्धार्थ रामू

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा कि भारत ने दुनिया को युद्ध नहीं, बुद्ध दिया. ऐसे में यह सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री मोदी जी का बुद्ध से नाता क्या है? क्या बुद्ध के जीवन, दर्शन, धम्म और विचारधारा का कोई भी ऐसा तत्व है, जिस वे स्वीकार करते हों?

आइए सबसे पहले करूणा और अहिंसा को लेते हैं, जिसके लिए दुनिया बुद्ध को जानती है. प्रधानमंत्री जी क्या यह याद दिलाने की जरूरत है, आपके नेतृत्व में 2002 में इस देश में गुजरात जैसा नरसंहार हुआ, जिसमें करीब 2000 से अधिक लोग नृशंस और क्रूर तरीके से मारे गए. लोगों को जिंदा जलाया गया, सड़कों पर गर्भवती महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार उनका पेट फाड़ दिया गया. नृशंसता और क्रूरता की सारी हदें आपके नेतृत्व में आपके लोगों ने पार कर दिया.

आज भी आपके लोग आए दिन मांब लिंचिंग कर रहे हैं, जिसके शिकार मुसलमान, ईसाई और दलित बन रहे हैं. अभी हाल हीं में आपके बजरंगी लोगों ने एक विकलांग आदिवासी को पीट-पीटकर मार डाला. यह कहते हुए कि वह गोमांस वितरित कर रहा था.

आपके आदर्श सावरकर मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार के लिए हिंदुओं को ललकारते हैं, संघ की पाठशाला के आपके गुरू गोलवरकर मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को हिंदुओं का सबसे बड़ा शत्रु घोषित कर इनके सफाए की बात करते हैं. क्या इस सोच का कोई रिश्ता बुद्ध से है? आपके एक आदर्श अटल बिहारी वाजपेयी ने दुनिया के सबसे भयानक-विध्वंस हथियार परमाणु बम को बुद्ध के साथ जोड़कर बुद्ध की करूणा, अहिंसा और विश्व मानवता के साथ प्रेम का मजाक उड़ाया था.

मोदी जी आप और आपकी पाठशाला संघ के लोगों का सबसे बड़ा आदर्श हिटलर है, जिसने सैंकडों, हजारों, लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया. जिसमें बच्चे, बूढ़े भी शामिल थे. जिसका एक छोटा रूप आपके नेतृत्व में गुजरात में देखने को मिला. आपके सभी देवी-देवता भयानक तौर पर हिंसक हैं. आपके वेद, पुराण, स्मृतियां और महाकाव्य हिंसा से भरे पड़े हैं. यह हिंसा इसी देश के अनार्यों, द्रविड़ों, शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं के खिलाफ की गई है, जो आज भी जारी है.

मोदी जी क्या गुजरात की हिंसा, क्रूरता और अमानवीयता और आपके लोगों द्वारा इस समय की जा रही क्रूर एवं नृशंस मांब लिंचिग का कोई रिश्ता बुद्ध, उनकी करूणा एवं अहिंसा से है? मोदी जी, बुद्ध से आप और आपकी पाठशाला का क्या रिश्ता है. इस संदर्भ में कई सारे अन्य गंभीर एवं जरूरी सवाल पूछने हैं, लेकिन फिलहाल आज नहीं.

आज सिर्फ एक बात और कहना चाहता हूं कि आप, आपकी विचारधारा, आपके नायकों, आपके प्रिय ग्रंथों और आपकी पाठशाला संघ ने इस देश से बुद्ध एवं उनके धम्म को उखाड़ फेंकने के लिए सबकुछ किया है, आज भी कर रहें हैं. जिसमें बड़े पैमाने की हिंसा भी शामिल है. इसके साक्ष्यों से इतिहास भरा पड़ा है. एक बौद्ध भिक्षु के सिर के बदलने एक सौ स्वर्ण मुद्राएं देने की की घोषणा ब्राह्मण राज्य के संस्थापक ब्राह्मण पुष्टमित्र शुंग ने किया था. डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति और अन्य किताबों में विस्तार से इसके बारे में लिखा है.

प्रधानमंत्री जी आप जिस परंपरा का वारिस खुद को मानते हैं, जिस पाठशाला का स्वयं को स्वयंसेवक मानते हैं, उसने दुनिया को बुद्ध को नहीं दिया है, गोड़से दिया है. हां बुद्ध को इस देश की धरती से उखाड़ फेंकने के लिए सबकुछ जरूर किया है .

लेखक फारवर्ड प्रेस से जुड़े हैं।

जाति और सामाजिक पूँजी

“आप क्या जानते हैं यह काफी नहीं है, आप ‘किसे’ जानते हैं यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है, आपके जीवन के मुक़ाम को तय करने के लिए.”

भारत में आदिवासी, दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग धन-दौलत, ज़मीन-ज़ायदाद, नौकरशाही, न्यायपालिका, मीडिया सब जगह पिछड़े हैं, तो उसका एक प्रमुख कारण इन वर्गों के व्यक्तियों के पास सामाजिक पूँजी के मामले में कंगाल होना भी है. नान लिन अमेरिका के ड्युक विश्वविद्यालय के समाज शास्त्र के प्रोफेसर ने एक अभूतपूर्व व्यापक परिवर्तनकारी “सामाजिक पूँजी” का सिद्धांत पेश किया, जिसे पूरी दुनिया में मान्यता मिली. नान लिन ने जबरदस्त तर्कों, तथ्यों, आंकड़ो द्वारा सिद्ध कर दिया कि “आप क्या जानते हैं और किसे जानते हैं, वह आपके जीवन और समाज में फर्क लाता है.” अर्थात यदि दो व्यक्ति एक समान योग्यता के हैं, मान लीजिये दोनों के पास बी. टेक. की डिग्री है, लेकिन एक व्यक्ति ‘किसे’ जानता है के मामले में आगे है, तो जीवन में भी वही आगे जाएगा.

कार्ल मार्क्स का कहना था कि उत्पादन के लिए पूँजी, श्रम, और ज़मीन की आवश्यकता होती है. बाद में इसमें ‘तकनीक’ को भी जोड़ दिया गया और हाल ही में इसमें ‘सामाजिक पूँजी’ को भी जोड़ा गया है. आज कल यह मान्यता है कि उत्पादन के लिए पूँजी, श्रम, ज़मीन, तकनीक और सामाजिक पूँजी आवश्यक है.

अब सवाल यह है कि आखिर सामाजिक पूँजी है क्या? सामाजिक पूँजी मोटे तौर पर सामाजिक समूहों के उन कारकों को संदर्भित करती है जिसमें पारस्परिक संबंधों, साझा पहचान, साझा समझ, साझा मानदंड, साझा मूल्यों, आपसी विश्वास, आपसी सहयोग और पारस्परिकता अर्थात एक दूसरे के दुःख सुख में काम आना जैसी चीजें शामिल हैं. सामाजिक पूँजी में सभी सामाजिक नेटवर्क (जिन लोगों को व्यक्ति जानता है) और इन नेटवर्कों से उत्पन्न होने वाले झुकाव व भाव, जो एक दूसरे के लिए कुछ करने के लिए उत्पन्न होते हैं (पारस्परिकता के मानदंड) शामिल हैं. आपसी विश्वास, पारस्परिकता, सूचना का प्रवाह और नेटवर्क से जुड़े सहयोग उन लोगों के लिए मूल्य बनाता है जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.

पूँजी क्या है? बाज़ार में अपेक्षित रिटर्न के साथ संसाधनों के निवेश को पूँजी कहते हैं. पूँजी एक संसाधन है जिसे लाभ के लिए निवेश किया जाता है. एक आर्थिक पूँजी होती है जो धन दौलत है, इसे सभी जानते हैं. दूसरी मानवीय पूँजी होती है जो किसी व्यक्ति की बुद्धिमता, ज्ञान, शैक्षणिक योग्यता, अनुभव और कौशल से संबधित होती है. तीसरी सांस्कृतिक पूँजी होती है जो उसके पहनावे, बोलने के लहज़े, शब्दज्ञान और स्वयं को व्यक्त करने पर निर्भर करती है. चौथी सामाजिक पूँजी होती है, जो लक्ष्यों को प्राप्त करने में सामाजिक संपर्क और सामाजिक संबंधों का उपयोग करने में काम आती है. जहाँ मानवीय पूँजी कौशल, ज्ञान, प्रशिक्षण और शैक्षणिक योग्यता के प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की गतिविधियों में एक निवेश का प्रतिनिधित्व करता है, वहीँ दूसरी ओर इसके विपरीत सामाजिक पूँजी सामाजिक रिश्तों में एक निवेश है जिसके माध्यम से अपने सामाजिक समूह के अन्य व्यक्तियों के संसाधनों का दोहन किया जा सकता है. आर्थिक पूँजी के मुकाबले सामाजिक पूँजी की विशेषता यह है कि आर्थिक पूँजी उपयोग से कम हो जाती है जबकि सामाजिक पूँजी उपयोग से कम नहीं होती. बल्कि सामाजिक पूँजी के विषय में यह माना जाता है कि यदि इसका उपयोग न किया जाए तब यह कम हो जाती है. या तो आप इसे इस्तेमाल करें वरना आप इसे खो देंगे. इस तरह से यह मानवीय पूँजी की अवधारणा के समान है. मानवीय पूँजी का भी यदि उपयोग न किया जाय तो व्यक्ति इसे खो देता है. मिसाल के तौर पर यदि कोई व्यक्ति डॉक्टरी की शिक्षा प्राप्त करके, प्रैक्टिस न करे तो वह अपनी अर्जित मानवीय पूँजी को खो देगा.

सामाजिक पूँजी के स्रोत क्या हैं? सामाजिक पूँजी का चरित्र अमूर्त है. जहाँ आर्थिक पूँजी लोगों के बैंक खाते में होती है, मानवीय पूँजी उनके सर के अन्दर होती है, वहीँ सामाजिक पूँजी व्यक्ति के संबंधों की संरचना में होती है. सामाजिक पूँजी रखने के लिए एक व्यक्ति को दूसरे से सम्बंधित होना आवश्यक है. यह अन्य लोग हैं, न कि वह स्वयं, जो उसके लाभ के वास्तविक स्रोत हैं.

सामाजिक पूँजी के तंत्र क्या हैं? सामाजिक पूँजी के तीन तंत्र हैं. एक है संबंधन (बोन्डिंग), दूसरा है सेतुकरण (ब्रिजिंग) और तीसरा है जुड़ना (लिंकिंग). संबंधन एक ऐसा सम्बन्ध है जो एक व्यक्ति का परिवार से, या करीबी दोस्तों आदि से होता है. इसमें अंतरंगता (इंटिमेसी) बहुत होती है. यह सामाजिक पूँजी का सबसे अहम और मजबूत रूप है. संबंधन लोगों के समरूप, समरस, सजातीय (होमोजनस) समूहों के बीच सामाजिक नेटवर्क से बनता है. यह नस्ल, जाति या संस्कृति जैसी समान पहचान (हम जैसे लोग) की भावना पर आधारित सम्बन्ध है.

सेतुकरण (ब्रिजिंग) का तात्पर्य सामाजिक रूप से विषम, विजातीय, विविध, पंचमेल (हेटेरोजनस) समूहों के बीच सामाजिक नेटवर्क से है. संपर्क जो पहचान की एक साझा भावना से परे है, उदहारण के तौर पर दोस्त, सहकर्मी और सहयोगी. सेतुकरण पूँजी दोस्तों के बीच का रिश्ता है और इसकी शक्ति संबंधन की शक्ति से कमतर है.

जहाँ सजातीय समूह, अपराधिक माफ़िया गिरोह संबंधन सामाजिक पूँजी का निर्माण करते हैं वहीँ सुबह की सैर के साथी, क्लब के सदस्य आदि सेतुकरण पूँजी का निर्माण करते हैं. जुड़ना, संपर्क की सामाजिक पूँजी एक व्यक्ति और एक सरकारी अधिकारी या अन्य निर्वाचित नेता के बीच का सम्बन्ध है. सामाजिक सीढ़ी के ऊपर या नीचे लोगों या समूहों के जुड़ाव या संपर्क (लिंकिंग) को जुड़ाव सामाजिक पूँजी कहते हैं.

किसी भी देश या समाज की तरक्की के लिए यह आवश्यक है कि उसकी आर्थिक, मानवीय पूँजी के साथ-साथ उसकी सामाजिक पूँजी भी बढे. इससे लोकतंत्र मजबूत होता है और भाईचारा, बंधुत्व की भावना बढ़ती है. यह तभी संभव है जब विभिन्न संबंधन सामाजिक समूहों के बीच में सेतुकरण हो. सेतुकरण के बिना, संबंधन समूह बाकी समाज से अलग-थलग और बेदख़ल हो जाता है. सेतुकरण की प्रक्रिया से ही किसी भी देश या समाज की सामाजिक पूँजी में वृद्धि होती है. यदि किसी देश या समाज में संबंधन की प्रक्रिया मजबूत है लेकिन सेतुकरण की प्रक्रिया कमज़ोर है तो उस देश या समाज की सामाजिक पूँजी क्षीण और कमज़ोर हो जाती है. हमारे देश में जातिवाद के चलते सेतुकरण कम होता है और हमारा प्यारा भारत सामाजिक पूँजी के मामले में भी गरीब है.

अब सवाल ये है कि सामाजिक पूँजी कैसे काम करती है? सामाजिक नेटवर्क किसी व्यक्ति द्वारा किये गए कार्य के परिणामों को कैसे बढाते हैं या फिर तुलनात्मक रूप से कैसे बेहतर परिणाम देते हैं? इसके चार तरीके हैं. एक, सूचना का प्रवाह. आधुनिक युग को सूचना क्रांति का युग कहा जाता है और जिसे ‘अन्दर की बात’ पता चल जाए वो बादशाह है. मजबूत ताक़तवर लोगों के समूह के सदस्यों को बेहतर और काम की सूचनाएं प्राप्त हो जाती हैं. व्यक्ति को बेहतर अवसरों की जानकारी प्राप्त हो जाती है. दूसरा तरीका है कि निर्णय लेने वालों से बेहतर सम्बन्ध किसी रोज़गार की भर्ती या अधिकारियों को प्रभावित करके ठेके, पदोन्नति का लाभ मिल जाता है. तीसरा किसी व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध, यानि उसकी सामाजिक पूँजी की व्यापारिक घराने या कंपनी के लिए उपयोगी है. उदहारण के लिए किसी बड़े नौकरशाह की संतान किसी भी व्यापारिक कंपनी के लिए उपयोगी है क्योंकि वो अन्दर की बात पता लगा सकता है या अपने प्रभाव से काम के निर्णय करा सकता है. ऐसे सामाजिक पूँजी वाले उम्मीदवारों को बेहतर वेतन या पद दिया जाता है. चौथा लाभ स्वास्थ्य के क्षेत्र में होता है, सामाजिक सम्बन्ध भावनात्मक समर्थन प्रदान करते हैं और यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है.

हमारे देश में सामाजिक पूँजी के मामले में जातिगत विषमता बहुत अधिक है. यहाँ जातीय संबंधन वाले सामाजिक समूह बनते हैं जिनका बाकी समूहों से सेतुकरण नहीं होता. यही कारण है कि मारवाड़ियों का व्यापार, उद्यमिता, धन दौलत में प्रभुत्व है. ब्राह्मण समाज के लोगों का मीडिया, न्यायपालिका, नौकरशाही में प्रभुत्व है. समाज शास्त्री पिएर्रे बौर्दिएउ का कहना है कि सामाजिक पूँजी सभी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध नहीं है. कुलीन वर्ग या द्विज जाति के लोगों को सामाजिक पूँजी विरासत में मिलती है. सूरत के हीरा व्यापारी, तमिलनाडु के गोउंदर जिनका भारतीय होजरी के व्यापार पर नब्बे प्रातिशत कब्ज़ा है इसके उदहारण हैं.

वार्ष्णेय ने जातीय और सांप्रदायिक हिंसा और सामाजिक पूँजी के शोध पर पाया कि अंतरा-जातीय, अंतरा-सांप्रदायिक संबंधन के चलते अंतर-जातीय या अंतर-संप्रदाय समूह नहीं बन पाते या उनमें सेतुकरण नहीं हो पाता. ऐसे में जातीय हिंसा या सांप्रदायिक हिंसा की संभावना भी बहुत बढ़ जाती है. अंतर-जातीय और अंतर-सांप्रदायिक समूह बनें तो विभिन्न जातियों व सम्प्रदायों में संचार बढेगा, झूठी अफ़वाहें नहीं फैलेंगी और प्रशासन को अपना काम करने तथा शांति, सुरक्षा और न्याय करने में मदद मिलेगी.

बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि भारतीय समाज एक ऐसी मीनार है जिसमें चार मंज़िल और एक तहख़ाना है. इसमें ऊपर से नीचे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और दलित रहते हैं. इस मीनार में कोई सीढियां नहीं हैं. जो जिस मंज़िल पर जन्मा है वहीँ मरेगा भी. शूद्रों और दलितों की मंज़िल में तो हजारों कोठरियां हैं जिनमें कोई दरवाजा, खिड़की या रौशनदान नहीं है. ऐसे में शूद्र और दलित एक दूसरे से आपस में भी कट जाते हैं. ऐसी स्थिति में देश में सेतुकरण के जरिये सामाजिक पूँजी के वृद्धि की संभावना बहुत कम है. आवश्यकता है कि जातियों का विनाश हो और सामाजिक पूँजी बढे. तभी भारत उन्नत देशों की ज़मात में शामिल हो पायेगा.

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पूना पैक्टः अम्बेडकर के साथ गांधी का बड़ा धोखा

वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग (16.20 %) तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (20.13 %) हैं. अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व शैक्षिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं. जब देश के आजादी की चर्चा चल रही थी, उसी दरम्यान सन् 1928 में साईमन कमीशन ने स्वीकार किया कि डिप्रेस्ड क्लासेज को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए. सन 1930 से 1932 एक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंस हुए जिनमें अन्य अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों के भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के अधिकार को मान्यता मिली. यह एक ऐतिहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी. इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों में डॉ. बी. आर. आम्बेडकर तथा राव बहादुर आर. श्रीनिवासन के दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित ‘कम्युनअल अवार्ड’ में पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार मिला. इस अवार्ड से दलितों को आरक्षित सीटों पर पृथक निर्वाचन द्वारा अपने प्रतिनिधि खुद चुनने का अधिकार मिला और साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्णों को चुनने हेतु दो वोट का अधिकार भी प्राप्त हुआ. इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली बार राजनैतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त का सकता था.

उक्त अवार्ड द्वारा दलितों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1919 में अल्पसंख्यकों के रूप में मिली मान्यता के आधार पर अन्य अल्पसंख्यकों यथा, मुसलमानों, सिक्खों, ऐंग्लो इंडियनज तथा कुछ अन्य के साथ-साथ पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायिकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्या निश्चित की गयी. इसमें अछूतों के लिए 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित की गयीं. गाँधी जी ने उक्त अवार्ड की घोषणा होने पर यरवदा (पूना) जेल में 18 अगस्त, 1932 को दलितों को मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी. गांधी जी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित हो जायेगा.

यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों, सिक्खों व ऐंग्लो- इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कोई विरोध नहीं किया था. गाँधी ने इस अंदेशे को लेकर 18 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री, श्री रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की जिसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांक 8 सितम्बर, 1932 में लिखा कि इसमें कहा गया, ” ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी ताकि हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे जिसमें उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके. वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया है.

जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा. इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा – एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए. हमने जानबूझ कर- जिसे आप ने अछूतों के लिए सम्प्रदायक निर्वाचन कहा है, उसके विपरीत फैसला दिया है. दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उमीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उमीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान क़र सकेंगे. इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है.” कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था.

परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न- भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता. उन्होंने आगे कहा, ” मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है. इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा.” गांधीजी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरे और तीसरे गोलमेज़ कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ. आम्बेडकर ने गाँधी के दलितों के अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभ चिन्तक होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था. उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग हो अलग देश बनाने की. परन्तु गाँधीजी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों का हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था. यही कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते हुए 20 सितम्बर, 1932 को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया.

यह एक विकट स्थिति थी. एक तरफ गाँधी के पक्ष में एक विशाल शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी तरफ डॉ. आम्बेडकर और अछूत समाज. अंततः भारी दबाव एवं अछूतों के संभव जनसंहार के भय से गाँधीजी की जान बचाने के उद्देश्य से डॉ. आम्बेडकर तथा उसके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं से 24 सितम्बर, 1932 को तथाकथित पूना पैक्ट करना पड़ा. इस प्रकार अछूतों को गाँधी जी की जिद्द के कारण अपनी राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा.

यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए ‘ कम्युनल अवार्ड’ में सरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 78 से 151 हो गयी परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज झेल रहा है. पूना पैक्ट के प्रावधानों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1935 में शामिल करने के बाद सन 1937 में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमे गाँधीजी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे. गाँधी जी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ. आम्बेडकर ने कहा था, ” पूना पैक्ट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है.”

कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अछूतों को जो पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था परन्तु पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया. इस व्यस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें उनका गुलाम/ बंधुआ बन कर रहना पड़ता है. सभी राजनैतिक पार्टियां गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या बोलने की इजाजत नहीं देतीं. यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभायों में दलित प्रतिनिधियों कि स्थिति महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिनसे यह पूछने पर कि “जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले?” इस पर उनका उत्तर था, ” मैंने कौरवों का नमक खाया था.”

वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे. इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उनपर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं करते. इससे हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता. परन्तु गाँधीजी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने कि झूठी दुहाई देकर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर लिया जिस कारण दलित सवर्णों के फिर से राजनीतिक गुलाम बन गए.

दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के कारण दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप नहीं पा रही है. चाहे वह डॉ. आम्बेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ही क्यों न हो. इसी कारण डॉ. आम्बेडकर को भी दो बार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर भी सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है. इसी कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं. पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आम्बेडकर ने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष तक ही जारी रखने की बात कही थी. परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढ़ाती चली आ रही हैं क्योंकि इससे उन्हें अपने मनपसंद और गुलाम सांसद और विधायक चुनने की सुविधा रहती है.

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