बहुजन इतिहास के लिहाज से अक्टूबर महीने में दो मुख्य घटनाएं घटी. एक, बाबासाहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को पांच लाख से ज्यादा अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर धम्मचक्र को गतिमान किया. दूसरी, 9 अक्टूबर 2006 को मान्यवर कांशीराम का परिनिर्वाण हो गया. इन दोनों महान नायकों ने दो बड़े सपने देखे थे. बाबासाहेब ने प्रबुद्ध भारत का सपना देखा था. उनका सोचना था कि अगर देश के वंचित समाज के लोग बुद्ध के बताए रास्ते पर चलते हैं तो उनका भविष्य ज्यादा बेहतर होगा. वो पंचशील के झंडे के नीचे विश्व समुदाय से जुड़ सकेंगे तो वहीं बुद्ध के समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांत पर चल कर एक बेहतर समाज का निर्माण करेंगे. दूसरी ओर 80 के दशक में बाबासाहब से प्रेरणा लेकर उनके अधूरे सपने को पूरा करने का संकल्प लेने वाले मान्यवर कांशीराम जी बहुजन समाज बनाने का सपना देख रहे थे. डीएस4 और बामसेफ के जरिए उन्होंने उस सपने को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत की और आखिरकार बहुजन समाज पार्टी बनाकर वो बहुजन समाज के तमाम वर्ग के लोगों को सत्ता तक पुहंचाने में सफल रहे. लेकिन सालों बाद भी न तो बाबासाहब के प्रबुद्ध भारत का सपना पूरा हो पाया है और न तो मान्यवर कांशीराम का बहुजन समाज का सपना.
मैं पिछले दिनों की एक घटना बताता हूं. मेरे पास एक फोन आया. सामने वाले ने कहा कि उनके रिश्ते के भाई ने दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ली है और लड़की वाले मारपीट पर उतारु हैं और पुलिस उनकी मदद कर रही है. लड़के वाले भी इस शादी से बहुत खुश नहीं थे. मामला समझने के लिए मैंने दोनों की जाति जाननी चाही. सामने वाले व्यक्ति ने कहा कि हमलोग एससी हैं और लड़की पक्ष धोबी समाज का. मैंने कहा कि धोबी समाज भी तो अपना ही समाज है, वो भी एससी है, फिर दिक्कत क्या है? उन्होंने कहा कि हमलोग चमार हैं, वो खुद को हमसे बड़ा मानते हैं. मुझे एक झटका सा लगा, हालांकि प्रेम विवाह ऐसी चीज है कि किसी के परिजन तुरंत राजी नहीं होते हैं. लेकिन इस मामले में लड़का और लड़की दोनों पढ़े लिखे थे. लड़का अपने जीवन में अच्छी नौकरी कर रहा था. बावजूद इसके दोनों पक्ष अपने बच्चों के इस फैसले से खुश नहीं थे. इसकी वजह यह थी कि ये लोग न तो बाबासाहब के प्रबुद्ध भारत का हिस्सा बन सके हैं और न ही मान्यवर कांशीराम के बहुजन समाज का.
मध्यप्रदेश के शिवपुरी में घटी एक घटना भी काफी चर्चा में रही. यहां यादव परिवार के दो लोगों ने दलित-वाल्मीकि परिवार के दो बच्चों को इसलिए मार डाला क्योंकि कथित तौर पर सुबह के समय वह सड़क पर शौच कर रहे थे. इस घटना ने मान्यवर के बहुजन समाज बनाने के सपने को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया.
समाज या फिर बहुजन समाज के भीतर यह एक बड़ी समस्या है जो सदियों से बनी हुई है. बाबासाहब और मान्यवर ने इसी समस्या को सुलझाने के लिए प्रबुद्ध भारत और बहुजन समाज का सपना देखा था. जो लोग पीछे छूटे हुए हैं अगर एक पल को उनकी बात न भी की जाए तो जो लोग शहरों में आकर नौकरियां हासिल कर चुके हैं और खुद के समझदार और बुद्धिजीवी होने का दावा करते हैं, कम से कम उनको खुशी-खुशी अपने बच्चों के फैसले को स्वीकार करना चाहिए. हां, बच्चे योग्य हों और एक-दूसरे के काबिल हों इस बात पर मेरी भी सहमति है. तो इसी तरह दलित-पिछड़े समाज को एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ देना चाहिए, न कि उनका शोषक बन जाना चाहिए. दोनों समाज मनुवादी व्यवस्था का मारा हुआ है, ऐसे में उनका साथ बने रहना ही उनके हित में है. पिछड़े वर्ग को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए सही है. हालांकि पिछड़े वर्ग के भी तमाम लोग बहुजन समाज बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, लेकिन उनकी संख्या गिनती की है.
हम तमाम लोग बाबासाहब की बात करते हैं, मान्यवर कांशीराम, सतगुरु रैदास और संत कबीर की बात करते हैं, ज्योतिबा फुले और संत गाडगे की बात करते हैं, लेकिन इन्होंने समाज से क्या चाहा, जब इस बारे में बात आती है तो वो अपनी नजरें चुराते हैं. सतगुरु रविदास ने छोटे-बड़े के भेद से परे सबके साथ मिलकर रहने की कामना की थी, बेगमपुरा की कामना की थी, लेकिन पूरा समाज तो दूर जब उनके अपने अनुयायी ही उनकी बातों को नहीं मानते तो फिर उन्हें दूसरों द्वारा किए जाने वाले भेदभाव की शिकायत करने का भी कोई हक नहीं है. इसी तरह संत कबीर ने आडंबर और अंधविश्वास पर पुरजोर चोट की थी, लेकिन उनके अनुयायी होने और उन्हें अपने समाज का अंग मानने के बावजूद तमाम लोग आकंठ अंधविश्वास में डूबे हुए हैं. बाबासाहब ने तो वंचित समाज को सुधारने के लिए अपने बच्चों तक की कुर्बानी दे दी. मान्यवर कांशीराम ने अपने सुख के बारे में नहीं सोचा, अपने परिवार को त्याग दिया, कभी घर नहीं बसाया. लेकिन बहुजन समाज के तमाम महापुरुषों के त्याग के बावजूद हम सुधरने को तैयार नहीं हैं और जब तक हम प्रबुद्ध भारत या बहुजन समाज बनाने की ओर नहीं बढ़ेंगे हमारे समाज की समस्याएं यूं ही बनी रहेगी.
अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.