आदरणीय बाबासाहेब
जय भीम-नमो बुद्धाय
आज हम अम्बेडकरवादी लोग आपका 64वां परिनिर्वाण दिवस मना रहे हैं। हम अम्बेडकरवादी लोग जिले-जिले में कार्यक्रम कर आपको याद कर रहे हैं। क्या महाराष्ट्र, क्या बंगाल। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आज आपको याद किया जा रहा है। तमाम सरकारें भी आपको श्रद्धांजलि दे रही हैं। कुल मिलाकर देश भर में आज आपकी ही चर्चा है।
खूब भाषण हो रहे हैं। हम इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि आपने क्या कहा था, आपका क्या योगदान रहा। आपने समाज निर्माण में, राष्ट्रनिर्माण में क्या-क्या योगदान दिया था। हम अम्बेडकरवादी अब आपको राष्ट्रनिर्माता से आगे बढ़कर विश्वविभूति कहने लगे हैं। हम गुमान के साथ तमाम लोगों को बताते हैं कि आप “सिंबल ऑफ नॉलेज हैं।” यह भी कि आप “ग्रेटेस्ट इंडियन” हैं।
लेकिन हम इस बात कि चर्चा नहीं कर रहे हैं कि आपने हमलोगों से क्या उम्मीद की थी। हम इस बात की चर्चा नहीं कर रहे हैं कि आपने हमसे क्या चाहा था, हमसे कैसा समाज बनाने की उम्मीद की थी। हमें आपने जो शिक्षित होने, संगठति होने और संघर्ष करने का मूलमंत्र दिया था, उस बारे में हम कितना आगे बढ़े हैं। हम इस बात की भी चर्चा नहीं कर रहे हैं कि आपने जिस सत्ता पर वंचितों के बैठने का सपना देखा था, उस बारे में हम क्या कर रहे हैं।
आपके शिक्षा वाले उपदेश का हम पर व्यापक असर हुआ है। पूरा समाज इसे अमल में ला रहा है। बच्चे पढ़ रहे हैं, गार्जियन पढ़ा रहे हैं। अभाव के बावजूद बच्चों को शिक्षा दिलाने का काम हो रहा है। आपके जाने के बाद बहुत सारे लोग आईएएस-आईपीएस, प्रोफेसर, डॉक्टर और इंजीनियर बन गए हैं। हमारे लोगों की कोठियां बन गई हैं, कुछ लोगों के पास तो बड़ी गाड़ियां और बंग्ले भी हैं। लेकिन हम अभी तक अपना कोई एजुकेशन सिस्टम खड़ा नहीं कर पाए हैं, जैसा आपने ‘पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी’ के तहत करने की शुरुआत की थी। दूसरी ओर अब देश की सरकारों को हमारा शिक्षित होना अखरने लगा है, क्योंकि हम आंदोलन करने लगे हैं। सही-गलत समझने लगे हैं। इसलिए सरकार शिक्षा को इतना महंगा कर देना चाहती है कि आने वाले दिन मुश्किल भरे दिख रहे हैं।
लेकिन इस शिक्षा की बदौलत आगे बढ़ने वाले लोगों में एक नई दिक्कत पैदा हो गई है। वो समाज से ऊपर होकर एक वर्ग हो गए हैं। हालांकि सभी ऐसे नहीं हैं, तमाम लोग अच्छे भी हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों का हाल यह है कि वह अपनी सफलता का श्रेय आपको देने की बजाय मिट्टी की मूरत को देने लगे हैं। वह आपके संघर्ष को भूल चुके हैं, जो आपने उनके लिए किया। वो तो अब अपनी जाति भी नहीं बताते और छुपकर रहते हैं।
दूसरी बात आपने संगठित होने की कही थी तो यहां बड़ी दिक्कत है। मुझे यह बताते हुए अच्छा नहीं लग रहा है कि आपका समाज संगठित नहीं है। एक शहर में अगर समाज के 10 हजार लोग हैं तो महज 200-300 लोग ही संगठित हैं। बाकी हम आपस में खूब लड़ते हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाते हैं। आपस में ही जातिवाद भी करते हैं। आपने इतनी मेहनत और खोज से जो किताबें लिखी थी, जिसमें आपने हमारा इतिहास बताया था, उसे बहुत कम लोगों ने पढ़ा है। जिन्होंने पढ़ा है, वो थोड़ा सुधरे हैं, बाकियों को ये सब बेकार लगता है।
हम आपके नाम पर संगठित भी हुए हैं। देश भर में आपके नाम पर लाखों संगठन हैं। आपके समाज के नेता भी खूब संगठित हैं। जब भी इनके अधिकारों से छेड़-छाड़ होती है, ये संसद जाम कर देते हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति समाज के 150 के करीब सांसद पार्टी की दीवार लांघ कर साथ आ खड़े होते हैं। लेकिन हां, जब समाज के हकों पर डाका पड़ता है तो अपने आकाओं के आगे इनकी जुबान नहीं खुलती है। एससी-एसटी वर्ग के अधिकारों को लेकर ये संसद जाम करने का माद्दा नहीं रखते। ये खुद ही अपने आरक्षण की कॉपी फाड़ देते हैं। दलित उत्पीड़नों पर चर्चा करने से तो ये ऐसे बचते हैं जैसे उन बेटियों के शरीर से रिसते खूब इनके झक सफेद कुर्तों को गंदा कर देंगे।
हालांकि आपके जाने के बाद 90 के दशक में एक बड़ा काम यह हुआ कि कांशीराम नाम के एक व्यक्ति ने आपसे प्रेरणा लेकर सत्ता की मास्टर चाभी को हासिल कर लिया। वह आपके परम अनुयायी थे। बड़ी मेहनत से उन्होंने वंचित समाज को एकजुट किया और एक बड़े प्रदेश में सत्ता को हासिल किया। लगा कि अब वक्त बहुजनों का है। वंचितों को न्याय मिलेगा। लेकिन उनके जाने के एक दशक बाद चीजें फिर खराब होने लगी। उस दौरान पैदा हुए नेता सत्ता के मोह में ऐसे फंसे कि समाज पीछे छूटने लगा। तमाम नेता अपने लिए सुविधाओं का पहाड़ खड़ा करने में जुट गए और इस कोशिश में कुछ ऐसे काम कर गए कि वह केंद्र के दबाव में रहने लगे। बाकी के जिन अन्य नेताओं से उम्मीद थी, उन्होंने किसी न किसी बड़ी पार्टी का दामन थाम कर समझौता कर लिया और उनका नारा बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की जगह स्वजन हिताय – स्वजन सुखाय हो गया है।
संघर्ष भी हमने इधर खूब किया है। 2 अप्रैल 2018 को हमने सरकार को चने चबवा दिये थे, जब संविधान में मिले हमारे एससी-एसटी अधिनियम को बदलने की कोशिश की गई। लेकिन संघर्ष की कहानी यहीं तक नहीं है। संघर्ष हम आपस में भी खूब कर रहे हैं। आपके नाम पर देश भर में लाखों संगठन हैं, हम उसका अध्यक्ष बनने के लिए खूब संघर्ष करते हैं। चमार-वाल्मीकि, धोबी, पासी, खटिक, महार, मातंग आदि-आदि का भी आपस में खूब संघर्ष है। हम सब खुद को दूसरे से बेहतर होने का दावा कर खूब संघर्ष करते हैं।
एक और जो महत्वपूर्ण बात आपके बतानी थी, वह यह है कि इन दिनों हम ब्राह्मणों और मनुवादियों को खूब गाली दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर हमने उनके छक्के छुड़ा रखे हैं। यू-ट्यूब पर उन्हें पानी पी-पीकर गरिया रहे हैं। ट्विटर पर अपनी बात ट्रेंड करवा रहे हैं। हमने अपनी सारी परेशानियो के लिए उन्हें दोष दे रखा है। भले ही हम आपस में खूब जातिवाद करें, भले ही हम एक-दूसरे की टांग खिंचते रहें। भले हीं हमारे सैकड़ों नेता अलग-अलग आकाओं की गुलामी करते रहें। हमने तय किया है कि हम आपस में लड़ते रहेंगे लेकिन अपनी तमाम परेशानियों, पिछड़ेपन और गरीबी सबका ठीकरा मनुवादियों के सर पर फोड़ेंगे।
लेकिन हां, सब कुछ बुरा ही नहीं है। बहुत सारे लोग सच्चाई से आपके देखे सपने को पूरा करने में भी लगे हैं। इसमें अनपढ़ से लेकर अधिकारी तक शामिल हैं। तमाम अभावों के बावजूद, तमाम जिम्मेदारियों के बावजूद ये लोग नीले झंडे के रंग को बुझने से रोके हुए हैं। तन, मन, धन से आपके सपने के लिए काम कर रहे हैं।
बाकी सब ठीक है। जल्दी ही गणतंत्र दिवस आएगा, हम फिर आपको याद करेंगे, फिर 14 अप्रैल आएगा, हम फिर आपकी जयंती मनाएंगे। फिर संविधान दिवस आएगा तो भी हम आपको याद करेंगे। संविधान दिवस के बाद फिर से आपका परिनिर्वाण दिवस आएगा, हम फिर से आपको श्रद्धांजलि देंगे। फिलहाल आप 26 जनवरी तक आराम करिए।
एक बार फिर से आपको जय भीम-नमो बुद्धाय।
– ‘मूकनायक’ के जरिए आपने जो सपना देखा था, उसको पूरा करने में लगा आपका एक अनुयायी
अशोक दास (संपादक, दलित दस्तक)
![](https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2021/06/Ashok-Das-06-1.jpeg)
अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
![](https://www.dalitdastak.com/wp-content/uploads/2020/12/PLATE.jpg)