डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं- एक लोकतान्त्रिक, और दूसरा वर्गीय. पहले उनके लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण को लेते हैं. जिस दौर में हिन्दू महासभा के नेता, आज़ादी के बाद के भारत के लिए, हिन्दू राज की वकालत कर रहे थे, हिंदुओं को काल्पनिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा रहे थे, और मुसलमानों को पृथक राष्ट्र बताकर उनके विरुद्ध पूरे देश में नफरत फैला रहे थे, राजनीति के उस निर्णायक दौर में डॉ. आंबेडकर ने घोषणा की थी कि- “अगर हिन्दू राज की स्थापना सच में हो जाती है, तो निस्संदेह यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा. चाहे हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दूधर्म स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के लिए एक खतरा है. यह लोकतंत्र के लिए असंगत है. किसी भी कीमत पर हिन्दू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए.”
इसी के साथ, अंग्रेजों से सत्ता का हस्तांतरण किए जाने के अवसर पर उन्होंने घोषणा की थी- “भारत में सच्चा लोकतंत्र केवल गैर-ब्राह्मणों के हाथों में सुरक्षित रह सकता है.
डॉ. आंबेडकर के लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण को समझने के लिए इन दोनों घोषणाओं को समझना आवश्यक है. बेहतर होगा, कि इसे आज़ादी के बाद जो लोकतंत्र स्थापित हुआ, उसके व्यवहार से समझा जाए. लोकतान्त्रिक भारत का प्रथम राष्ट्रपति एक सौ एक ब्राह्मणों के पैर धोकर अपनी गद्दी पर बैठा, और स्वतंत्र भारत के सभी राज्यों के प्रथम मुख्यमंत्री ब्राह्मण नियुक्त किए गए. जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, जहाँ मेहरचंद महाजन प्रधानमंत्री थे, जो वैश्य थे. अपवाद के लिए भी किसी राज्य में कोई गैर-ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं था. मंत्रिमंडलों में भी नब्बे फीसदी ब्राह्मण थे. कहने को भारत में लोकतंत्र कायम हुआ था, पर वास्तव में लोकतंत्र की आड़ में बाकायदा हिन्दू राज कायम किया जा चुका था, जिसके खतरे की चेतावनी डा. आंबेडकर दे चुके थे.
याद रहे, ब्राह्मण राज ही हिन्दू राष्ट्र की बुनियाद है। आरएसएस जिस हिन्दू राज को स्थापित करने के लिए आठ-नौ दशकों से मेहनत कर रहा था, उसका पथ-प्रशस्त असल में कांग्रेस ने ही किया था. कांग्रेस के नेताओं में पैर से लेकर सिर की चुटिया तक वर्णव्यवस्था समाई हुई थी. कांग्रेस की ब्राह्मण सरकारों ने वर्णव्यवस्था को बनाए रखने में सारी ताकत लगाई. उन्होंने कोई धर्मनिरपेक्ष राज्य कायम नहीं किया, वरन अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दू राज ही कायम किया था. नगर-नगर में रामलीला कमेटियों का गठन कांग्रेस ने ही कराया था. लगभग सभी कमेटियों के अध्यक्ष कांग्रेसी थे. आज वे कमेटियां आरएसएस के हाथों में हैं. यही नहीं, कांग्रेस ने ही तुलसी और पुराणों के राम को घर-घर में पहुँचाया. उसने ही रामचरितमानस की चतुश्शती धूमधाम से मनाई. कांग्रेस के कार्यकाल में ही कबीर और रैदास को ठिकाने लगाने का काम ब्राह्मणों ने किया. बहुजन आलोचक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने 1966 में इस विषय पर “लोकशाही बनाम ब्राह्मणशाही” नाम से एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘आजकल ब्राह्मणशाही को बल पूंजीपतियों से मिलता है, नेताओं से मिलता है, प्रशासकों से मिलता है और पूरी कोशिश यह हो रही है कि ब्राह्मणी संस्कृति को भारत का राष्ट्र-धर्म और राष्ट्रीय संस्कृति बना दिया जाए.’ यह आज भी सच है.
आज ब्राह्मणशाही का संचालक आरएसएस और उसकी राजनीतिक पार्टी भाजपा है. एक पार्टी के रूप में कांग्रेस अपनी करनी की सजा भोग रही है, पर उसके ब्राह्मण तथा सामंती नेता भाजपा में सत्ता-सुख भोग रहे हैं. कांग्रेस की ब्राह्मणशाही ने शोषण की जो खाई दलित वर्गों के लिए खोदी थी, उसे आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणशाही और भी चौड़ी कर रही है. देश के बौद्धिकों ने डॉ. आंबेडकर की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया, उसी का परिणाम है कि भारत में लोकतंत्र तो है, पर वह ब्राह्मणवाद से पीड़ित है. उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में स्वतंत्रता, संपत्ति और खुशहाली का अधिकार प्रत्येक नागरिक को होता है, परन्तु लोकतंत्र ने सबसे ज्यादा इसी अधिकार का दमन किया. इस लोकतंत्र ने, स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए भी, गरीबों, दलितों और वंचितों की आर्थिक विषमताओं को लगातार बढ़ाया है. जिस लोकतंत्र की बुनियाद ही गलत है, उससे गरीबों के हित में कुछ करने की उम्मीद नहीं की जा सकती. लोकतंत्र के ब्राह्मणवादी ढांचे में आज भी शासन और प्रशासन के नब्बे फीसदी लोग सामंती प्रवृत्ति के हैं और जन्मजात गरीब-विरोधी हैं.
डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का दूसरा आयाम वर्गीय दृष्टिकोण है. उन्होंने कहा था कि दलितों और मजदूर वर्गों के प्रधान शत्रु दो हैं- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद. इन दोनों का खत्मा किए बगैर दलितों और मजदूर वर्गों के दुखों का खात्मा नहीं हो सकता. किन्तु इन दोनों दुश्मनों का अंत तभी हो सकता है, जब इसके लिए दलित और मजदूर वर्ग अपनी लड़ाई को वर्गीय बनाएगा. क्या ऐसा होगा? लेकिन ऐसा नहीं लगता कि ब्राह्मणवाद दलित वर्ग की लड़ाई को वर्गीय बनने देगा, क्योंकि इसी के विरुद्ध तो ब्राह्मणवाद को पूंजीवाद पाल-पोस रहा है.
आज 14 अप्रैल है। इस दिन भारत समेत पूरे विश्व में आंबेडकर जयंती हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। किन्तु इस बार हर्षोल्लास सिरे से गायब रहेगा। वजह कोरोना है! कोरोना से पूरा विश्व आतंकित है और इससे बचने के लिए ‘सोशल डिस्टेन्सिग’ का पालन कर रहा है, जिसका अपवाद भारत भी नहीं है। सोशल डिस्टेन्सिंग को कामयाब बनाने के भारत में लॉकडाउन चल रहा है, जिसको 03 मई तक जारी रखने की घोषणा की गयी है। किन्तु इसके प्रकोप को देखते हुये कई राज्य सरकारें इसे 30 अप्रैल तक जारी रखने का निर्णय ले चुकी है। ऐसे में विभिन्न आंबेडकरवादी शख्सियतें आंबेडकर जयंती के दिन हर्षोल्लास से विरत रहने की अपील करने के लिए पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।
इस मामले में इनकी भावना का सही प्रतिबिम्बन प्राख्यात आंबेडकरवादी डॉ. एम.एल. परिहार के इन शब्दों में हो रहा है। ‘कोरोना क्राइसिस के कारण मानवता संकट में है। सभी वॉरियर्स अपनी जान जोखिम में डालकर मानवता की महान सेवा कर रहे हैं। गरीब, किसान, मजदूर , बेरोजगार मुश्किलों की दोहरी मार झेल रहे हैं। ऐसे दुख की घड़ी में कुछ लोग जिद पर अड़े हुए हैं कि वे अंबेडकर जयंती घर में धूमधाम से मनाएंगे, घर को दियों से चमकाएंगे। पिछले दिनों जब दूसरे लोगों ने ताली-थाली बजाई, फिर दिये जलाए तो इन्होंने जोरदार विरोध किया, अंधभक्त कहा। लेकिन अंबेडकर जयंती की बात आई तो कहते हैं, हम तो दिये जलाएंगे, खुशी मनाने में क्या हर्ज है? लेकिन इनका तो कुछ नहीं बिगड़ना है, गालियों के वार तो बाबासाहेब पर ही होंगे। सिर्फ एक दिन दो दिये जलाने, गले में नीला दुपट्टा लटकाने या ‘जय भीम’ चिल्लाने से कोई अंबेडकरी नहीं हो जाता, अंबेडकर को तो आचरण में उतारना पड़ता है.
भाइयों! निवेदन है कि जिद ना करो। हालात को समझो। मुश्किलों से जूझ रहे लोगों की पीड़ाओं का एहसास करो। यह उमंग व उत्सव का समय नहीं है। अध्ययन व संकट से उबरने के चिंतन का समय है। गवर्नमेंट व मेडिकल साइंस की गाइडलाइन पर चलने का समय है। गरीब व दुखी लोगों की मदद करने का समय है। यदि मनाना ही है तो धन, भोजन व शिक्षा का दान कर मनाओ। घर की मुंडेर पर दो दिये जला कर कौन सा किला फतह कर लोंगे। याद रखो, किसी भी धर्म, कौम व मान्यताओं में अंधभक्ति व कट्टरता उसके पतन का कारण होती हैं। इसलिए इस बार अंबेडकर जयंती पर खुशियां मना कर मानवता के मसीहा का अपमान मत करो। दूसरों के लिए उन्हें घृणा का पात्र मत बनाओ। बाबासाहेब तो हमेशा कहते रहे कि मेरा जन्मदिन मत बनाओ, बल्कि समाज व देश हित में मेरे बताए मार्ग पर चलो। इस विपदा में दिये जलाकर जन्मदिन मनाने की बात करने वाले अधिकतर वही लोग हैं जो सिर्फ एक दिन की औपचारिकताएं पूरी कर साल भर पै बैक टू सोसाइटी के तहत कुछ नहीं करते हैं। उलटा बारह महीने दूसरों को कोसते रहते हैं।
यह भी सभी जानते हैं कि ये लोग अंबेडकर जयंती के दिन दिये जलाने की बात उनके प्रति सम्मान या कोई वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से नहीं कर रहे हैं बल्कि इनका असली मकसद तो दूसरों को चिढ़ाना है। इन्हें भी दूसरों की तरह ही अंधभक्त बनना है, होड़ करनी है। सामाजिक, वैचारिक व आर्थिक प्रगति की बजाय नेगेटिविटी व नासमझियों में होड़ करनी हैं। विडंबना यह है कि बाबासाहेब को पढ़े, जाने और माने बिना बहुजन समाज में हर जगह ऐसे लोग है जो अपनी नासमझियों के कारण पूरे समाज को बदनाम करते हैं और अंबेडकर को घृणा का पात्र बना रहे हैं। अब तो बुद्ध को भी इन्होंने अपने लपेटे में ले लिया है। आज जरूरत इस बात की है कि बाबासाहेब की देश को खुशहाल करने वाली मानवतावादी विचारधारा को शांति, भाईचारा व सौहार्द भाव से समाज में फैलाई जाए ताकि उनके प्रति लोगों में व्याप्त गलत धारणाएं व घृणा का भाव खत्म हो और समाज व देश के लिए किए गए महान योगदान को जानकर देश का हर नागरिक उस सच्चे राष्ट्रप्रेमी भारतरत्न को नमन करें।’
लगता है परिहार जैसे लोगों ने जो संदेश देने का प्रयास किया है, वह रंग ला रहा है। इन पंक्तियों को लिखे जाने के दौरान मेरी नज़र प्रखर आंबेडकरवादी गिरीश अंजान के एक पोस्ट पड़ी,जिसे कईयों के साथ मैंने भी शेयर किया। अंजान ने लिखा है,’आज कोरोना कहर से देश में सैकड़ों, दुनियाँ में लाखों लोग जिंदगी गवां चुके हैं। देश में हज़ारों जिंदगी-मौत से लड़ रहे हैं, लाखों-करोड़ों लोग भूँखे, बेघर और बहुत तक़लीफ़ में हैं। अतः कोरोना त्रासदी के बीच हम सब ने करुँणा के सागर बाबा साहेब की जयंती के लिए फैसला लिया है कि इस वर्ष हम घरों में सजावट नहीं करेंगे.. मंगलगीत नहीं गायेंगे, खुशियां नहीं मनाएंगे, धूमधाम से सेलिब्रेट नहीं करेंगे,बल्कि मानवीय संवेदनाओं के साथ बहुत सादगी और संजीदगी से जयन्ती मनाएंगे।’ अंजान के पोस्ट को जिस पैमाने पर लाइक – शेयर किया गया है, उसके आधार पर आशावादी हुआ जा सकता है कि इस बार आंबेडकर जयंती सादगी और संजीदगी से मनेगी।बहरहाल परंपरा के विपरीत सादगी और संजीदगी से बाबा साहब की जयंती मनाने की मानसिक प्रस्तुति लेते समय यह ध्यान रखना होगा कि जिस कोरोना ने मक्का- मदीना, वैटिकन सिटी तथा भारत के चार धाम जैसे धार्मिक केन्द्रों को बंद करा दिया है, वह पहले से ही संकट में घिरे आंबेडकरवाद को और संकटग्रस्त करने जा रहा है। इस बात का आंकलन करने के लिए जरा आंबेडकरवाद को ठीक से समझ लेना होगा।
वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभीन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति,नस्ल,लिंग,इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत ही आंबेडकरवाद है.इस वाद का औंजार है: आरक्षण, जो सबसे पहले दलित आदिवासियों के हित में प्रयुक्त हुआ: बाद में इसके दयरे में ओबीसी भी आ गए। उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद इसके समक्ष म्लान पड़ते गए. किन्तु यही इसके लिए काल भी बन गया। मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही वर्ण-व्यवस्था का जो सुविधाभोगी तबका पूना-पैक्ट के जमाने से आरक्षण का विरोधी रहा, वह एक बार फिर शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए बहुजनों के खिलाफ मुस्तैद हो गया। यहीं से भारत में वर्ग संघर्ष की नए सिरे से शुरुआत हुई और 24 जुलाई,1991 को लागू हुई नव उदरवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के तमाम दल अपने-अपने तरीके से अपने वर्ग- शत्रुओं(बहुजनों) को फिनिश करने में जुट गए। इस दिशा में जितना काम नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी ने और मनमोहन सिंह ने 20 सालों में किया, नरेंद्र मोदी ने उससे कहीं ज्यादा पिछले छः सालों में कर डाला है।
मोदी नें जिस निर्मम तरीके से वर्ग-शत्रुओं को फिनिश करने में अपनी तानाशाही सत्ता का इस्तेमाल किया है, उससे टॉप की 10 प्रतिशत जन्मजात सुविधाभोगी जातियों का देश की प्रायः 90% धन-दौलत दौलत पर कब्ज़ा हो गया । इनके साथ 90% वंचित आबादी जहां मात्र 10% धन पर वहीं आंबेडकर के लोग 1% धन-संपदा पर जीवन वसर करने के लिए विवश हो गए हैं। आंबेडकर के लोगों के लिए जो सरकारी नौकरियां धनार्जन का एकमात्र स्रोत थीं, वह काफी हद तक रुद्ध कर दिया गया है। यह स्रोत पूरी तरह रुद्ध हो जाय इसलिए मोदी लाभजनक सरकारी उपक्रमो सहित हास्पिटल, रेलवे, उड्डयन, इत्यादि वे ढेरों क्षेत्र निजी हाथों में देने का प्रयास कर रहे हैं, जहां आरक्षित वर्गों को जॉब मिलता है। इसी योजना के तहत ही गत फरवरी के उत्तरार्द्ध में जब कोरोना भारत में दस्तक देना शुरू किया था, मोदी मंत्रिमंडल ने दो दर्जन सरकारी उपक्रमो को निजी हाथों में देने के प्रस्ताव पर मोहर लगा दिया। अब आरक्षित वर्गों से किसी को डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनते देखना एक सपना बनने जा रहा है। यह सब हालात बतातें है कि मोदी राज में आंबेडकरवाद बुरी तरह संकटग्रस्त हुआ है, जिसमें कोरोना कोढ़ में खाज बनता नजर आ रहा है।
कोरोना से भारत विभाजन के दौरान हुये पलायन के जिस दुखद दृश्य की अवतारणा हुई, उसके पीछे वर्ग-शत्रुओं को फिनिश करने की मोदी की खतरनाक रणनीति की अनदेखी नहीं की जा सकती। लॉक डाउन की घोषणा के बाद यातायात की अनुपलब्धता के कारण हमने जो भूखे-प्यासे लाखों गरीब, युवा- बूढ़ों- बच्चों, अंधों-विकलांगो और स्त्री- पुरुषों को सौ-सौ, हजारों किलो मीटर दूर अवस्थित उनके गावों के लिए पैदल मार्च का जो दृश्य देखा, वह किसी को भी अप्रत्याशित नहीं लगा। कारण, इन लोगों के दुरावस्था की पूरी अनदेखी का जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक लॉकडाउन की घोषणा किया, उसकी परिणतिस्वरूप भारत विभाजन के वर्षों पुराने दृश्य की अवतारणा होनी ही थी, जो हुई भी। इसका कारण यह रहा जिन लाखों लोगों को दिल्ली- मुंबई जैसे महानगरों से हजारों किलोमीटर दूर अवस्थित गावों के लिए पैदल मार्च करना पड़ा, उनमे 90 प्रतिशत से अधिक लोग उस बहुजन समाज से रहे, जिन्हें गुलामों की स्थिति में पहुंचाने का कोई भी अवसर मोदी गंवाना नहीं चाहते। जिस तरह कोरोना से उद्योग-धंधे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं, उससे तय सा दिख रहा है कि कोरोना वायरस से कहीं ज्यादा लोग, आर्थिक कारणों से तबाह होंगे और तबाह होने वाले लोग बहुजन समाज से होंगे: इक्के-दुक्के ही सवर्ण समाज के लोग तबाह होने वालों के दायरे मे आएंगे। लॉकडाउन के बाद के हुये कुछ अध्ययन इसकी ओर ही संकेत कर रहे हैं।
हाल में 3196 प्रवासी मजदूरों पर हुये अध्ययन की जो रिपोर्ट जनसमक्ष आई है, उससे पता चलता है कि इनमें 31 प्रतिशत लोग कर्ज में हैं और कोरोना के कारण रोजगार खत्म होने के चलते वे इसकी भरपाई नहीं कर पाएंगे। सर्वे में यह भी सामने आया है कि 42 प्रतिशत घरों मे एक दिन का भी राशन नहीं है। यदि लॉकडाउन 21 दिन से आगे बढ़ता है तो 66 फीसद लोग अपना घर नहीं चला पाएंगे। अब जबकि यह तय सा दिख रहा है कि लॉक डाउन 21 दिन से काफी आगे बढ़ जाएगा, ऐसे में जिस विशाल पैमाने पर बहुजनों के घरों के चूल्हे ठंडे होंगे, उसकी कल्पना कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की नीदें हराम हो जाएंगी।इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ के श्रम निकाय ने चेतावनी दी है कि कोरोना के कारण भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले 40 करोड़ लोग गरीबी मे फँस सकते हैं। और गरीबी के दलदल में फँसने जा रहे इन 40 करोड़ लोगों में से कुछेक लाख को छोडकर बाकी उस अभागे बहुजन समाज से होंगे, जिसे वर्तमान सत्ताधारी वर्ग-शत्रु के रूप में ट्रीट करते हैं एवं जिनके लिए बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने अपना सर्वस्व झोंक दिया। अतः समय की मांग है कि हम आंबेडकर जयंती सादगी और संजीदगी से मनाएँ और यह दिन कोरोना संकट से सर्वाधिक प्रभावित होने जा रहे बहुजन समाज के दरिद्रतम लोगों की बेहतरी के चिंतन में लगाएँ।
लेखक एच.एल. दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क- 9654816191
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एक वायरस ने दुनिया को अछूत बना दिया। इंसान इंसान के साये से भी डर रहा है। अपने पड़ोसी तक को देख के नज़रें चुरा रहा है।सोचिए कि फिर वो अछूत समाज कैसे जिया होगा जिसे इसी समाज ने 5 हज़ार साल तक दलित, शोषित, नीच, शूद्र ,हरिजन और अछूत कहके हमेशा दूर रखा । और ना उसे कभी समाज ने अपनाया ना वो कभी किसी के लिए समाज का हिस्सा कहलाया। विडम्बनाओँ के भँवर में जीता ये अछूत ना जाने कब सभ्य समाज से दूर कर दिया गया ..और उसे कभी स्वीकार नहीं किया गया। आरक्षण के उसके हक़ तक को भी उसे भीख कहके दिया गया।
इसी वैदिक परंपरा के पोषण में समाज का एक हिस्सा हमेशा लगा रहा और ये साबित करता रहा है की जो व्यवस्था आपको अछूत बताती है वो सही है समाज में आपका स्थान वही है और वो उचित ही है। पर वक़्त ने हमेशा इस समाज को थामे रखा है या यूँ कहे की इस समाज और इसी व्यवस्था के साथ रहने वाले हर उस छोटे आदमी ने इस सभ्य समाज की डौर को अपने संतुलन से एक ऐसे महीन धागे से बंधे रखा है अगर वो डोर टूट जाए तो आज ये सभ्य समाज औंधे मुँह गिर पड़ेगा या कहे तो अपने पतन को प्राप्त हो जाएगा।
जी हाँ , वक़्त हमेशा अपने को बलवान साबित करता है और इंसान का जन्म वक़्त के साथ चलकर अपनी परिणिति प्राप्त करने के लिए हुआ है। पर शायद ऐसा इस समाज के साथ नहीं है। क्योंकि राष्ट्रीय आपातकाल के जिस विनाश की और हमारा राष्ट्र बढ़ चुका है…..मुल्क कोरोना के इस सनाट्टे में जिस तरह से घरों में बैठा हुआ है ऐसे में ये ही समाज है जिसने मुल्क को इस कठिन घड़ी में अपने जज़्बे से थामा हुआ है। वो भी तब जबकि गरीब शोषित और समाज में सबसे पिछड़ा व्यक्ति इसी समाज से ताल्लुक़ रखता है और सबसे ज़्यादा मार भी इसकी ये ही समाज झेल रहा है। वो चाहे दिहाड़ी मज़दूर हो रिक्शे खोमचे वाला हो दैनिक मज़दूर हो या फिर दुकानों पे काम करने वाला। ई -रिक्शे वाला हो या खेतिहर मज़दूर सभी तो पिछड़े समाज से ही आतें हैं।
बावजूद इसके झाड़ू वाला …कूड़े वाला …सड़कों पर सफ़ाई करने वाले सरकारी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी , सभ्य समाज के रहने वाले लोगों के घरों को केमिकल से सेनेटाइज करने वाले कर्मचारी। ड्राईवर चालक हर वो व्यक्ति जो समाज में पिछड़ा है ….वो इस महामारी में उसी समाज के लिए जी जान से लगा है जिस समाज ने उसे कभी मूल्यवान नहीं समझा । देश के सबसे बड़े संकट काल में भी अपने पिछड़ेपन अपनी ग़रीबी को भूल के भी ये सभ्य समाज का अंतिम व्यक्ति ही जो दिन रात खड़ा है। बिना किसी उम्मीद के निडर।
इस भयवाह काल में सबसे ज़्यादा चूल्हा भी इसका ठंडा है । हाथ में बच्ची का शव लेकर मीलों पैदल भी इसी समाज के लोग चल रहें हैं। टीवी दिखा रहा है बता रहा है पर ये गुहार कभी नहीं लगा रहा की एक ताली इनके नाम एक दिया इनके भी नाम। आज हम उसी उच्च समाज को एक दूसरे से विमुख देख रहें हैं। कोरोना काल ने इंसान को इंसान की सही औकात का पता बता दिया है और उसे ये भी बता दिया है की जाति से …क़र्म से …वर्ण से …व्यक्ति अछूत नहीं होता बल्कि एक इंसानी नाफ़रमानी और ज़िद से भी प्रयोगशालाओं में बने वायरस के प्रसार से भी आदमी अछूत बन सकता है। और जब ये फैलता है तो इसी समाज का वो अंतिम व्यक्ति ही इस से लौहा लेने को अपने सर पे सूती पुराने चिथड़े से बना धाटा मार के निकलता है क्योंकि उसके नसीब में कोई मास्क नहीं है। ऐसे सभ्य समाज के लिए जो वक़्त बदल जाने पर एक बार फिर से उसे दुतकारने के लिए तैयार बैठा है।
वंचित तबके को सशक्त बनाने में अहम किरदार निभाने वाले राष्ट्रपति ज्योतिबा फुले की आज 193वीं जयंती है। महान समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी जोतिबा राव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में हुआ था। वही पुणे जो पेशवाई का गढ़ रहा है। और जहां के बारे में कुख्यात है कि यहां दलितों को कमर में झाड़ू और गले में मटका लटका कर चलना पड़ता था।
महामना फुले माली समाज से थे। महिलाओं की शिक्षा के लिए उनका योगदान उल्लेखनीय है। ब्राह्मणों और पुरोहितों की व्यवस्था का उन्होंने खुल कर विरोध किया और बिना उनके विवाह-संस्कार शुरु करवाया। और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। आज यह आंदोलन जोर पकड़ चुका है। वह संभवतः भारत के पहले समाजसेवक हैं, जिन्होंने बाल-विवाह का विरोध किया और विधवा-विवाह का समर्थन किया।
वह अछूत समझे जाने वाले दलित वर्ग की स्वतंत्रता और समानता के प्रबल समर्थक थे। जब लोग दलितों की परछाई से कतराते थे, जोतिबा फुले ने अपने घर का पानी उनके लिए खोल दिया। नतीजा यह हुआ कि उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया और बाद में ब्राह्मणों के दबाव में पिता ने घर से निकल जाने को कहा।
उन्होंने समाज के दबे-कुचले वर्ग के लिए ब्रिटिश शासन से भी टकराने से गुरेज नहीं किया। इस खबर में हम आपको उनके ब्रिटिश शासन से भिड़ने के दो किस्से सुनाएंगे, साथ ही शिवाजी महाराज से जुड़ा एक और किस्सा जिसे समाज का बड़ा वर्ग नहीं जानता। लोग आज शिवाजी की विरासत पर दावा तो करते हैं लेकिन बहुतों को यह पता नहीं है कि शिवाजी को दुनिया के सामने लाने वाले ज्योतिबाराव फुले ही थे। लेकिन शिवाजी महाराज के किस्से से पहले दो और घटनाएं जो यह बताती है कि ज्योतिबा फुले का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही देश की व्यवस्था को बेहतर बनाने में कितना बड़ा योगदान था।
एक किस्सा 1876 से 1880 तक भारत के वायसराय रहे लॉर्ड लिटन से जुड़ा है। 1878 में उसने वर्नाक्युलर ऐक्ट पास करके प्रेस की आजादी पर खत्म करने की कोशिश की। इस कानून के तहत देसी भाषा में छपने वाले समाचारपत्रों पर कुछ रोक लगा दी गई। तब ज्योतिबा फुले के संगठन सत्यशोधक समाज के जरिए दीनबंधु समाचार पत्र निकलता था। इसके जरिए प्रेस की आजादी छीनने के प्रतिबंध का काफी विरोध किया गया। इस प्रतिबंध के 2 साल बाद 1880 में लिटन को पूना आना था। पूना नगरपालिका का तत्कालीन अध्यक्ष लॉर्ड लिटन का भव्य स्वागत करना चाहता था।
ज्योतिबा फुले नगरपालिका के सदस्य थे। वह इससे असहमत थे कि टैक्सपेयर्स का पैसा लिटन जैसे आजादी के विरोधी व्यक्ति पर खर्च किया जाए। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि लिटन की बजाय उस पैसे को पूना के गरीब लोगों की शिक्षा पर खर्च किया जाए। पूना नगरपालिका में उस समय 32 नामित सदस्य थे जिनमें से अकेले ज्योतिबा फुले थे उस प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया।
एक और ऐसा मौका आया था जब ब्रिटिश राजकुमार के सामने गरीब किसानों की आवाज उठा कर सबको हैरत में डाल दिया। ज्योतिबा फुले के एक दोस्त थे जिनका नाम हरि रावजी चिपलुनकर था। उन्होंने महारानी विक्टोरिया के पोते ब्रिटिश राजकुमार और उसकी पत्नी के सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। उस कार्यक्रम में ज्योतिबा फुले को भी जाना था। उस भव्य आयोजन में जहां तमाम लोग हीरे-मोती के गहने और शानदार वस्त्र पहन कर गए थे, ज्योतिबा फुले कार्यक्रम में किसानों जैसा कपड़ा पहनकर गए। इस पर सभी लोगों की नजर उनकी ओर टिक गई। तब ज्योतिबा फुले ने राजकुमार से कहा कि अगर राजकुमार वाकई में इंग्लैंड की महारानी की भारतीय प्रजा की स्थिति जानना चाहता है तो वह आसपास के गांवों का दौरा करे। उन्होंने राजकुमार को अछूतों के बीच भी जाने का सुझाव दिया। ताकि राजकुमार उनकी दयनीय स्थिति को समझ सकें। उन्होंने राजकुमार से आग्रह किया कि वह उनके संदेश को महारानी विक्टोरिया तक पहुंचा दे और गरीब लोगों को उचित शिक्षा मुहैया कराने का बंदोबस्त करे। ज्योतिबा फुले के इस भाषण से समारोह में मौजूद सभी लोग स्तब्ध रह गए थे।
अब आते हैं शिवाजी महाराज से जुड़े किस्से पर। आज पूरे महाराष्ट्र की राजनीति, छत्रपति शिवाजी महाराज के इर्द-गिर्द घूमती हैं। लेकिन इस बात की जानकारी बहुत कम ही लोगों को है कि पेशवाओं ने उनके इतिहास को पूरी तरह दफन कर दिया था। उन्हें दोबारा महाराष्ट्र में स्थापित करने का श्रेय राष्ट्रपिता महात्मा जोतीराव फुले को ही जाता है।
धनंजय कीर द्वारा महात्मा जोतीराव फुले की लिखी जीवनी “महात्मा जोतीराव फुले, भारत की सामाजिक क्रांति के पितामह” में इसका वर्णन साफ मिलता है। इसमें उन्होंने लिखा है- फुले ने छत्रपति शिवाजी महाराज की राजधानी रायगढ़ का बड़े ही आदर और उत्सुकता से दौरा किया। वो जोतीराव ही थे, जिन्होंने पहली बार छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधी को खोजा था, जो कि सूखे पत्तों और पत्थरों से ढकी पड़ी थी। उन्होंने शिवाजी पर एक गाथा भी लिखी और जून 1869 को प्रकाशित की। उस गाथा का शीर्षक था, “शिवाजी महाराज का जीवन काव्य गीत में।”
आज महाराष्ट्र के तमाम राजनीतिक दल शिवाजी की विरासत पर दावा करते हैं, लेकिन तमाम नेता इस इतिहास का जिक्र करने से कतराते हैं। लेकिन बाबासाहेब आंबेडकर ज्योतिबा फुले की महानता और समाजिक कामों से काफी प्रभावित थे। यही वजह रही कि उन्होंने ज्योतिबा फुले को अपना गुरु माना।
मनुवादी मीडिया और भारत के जातिवादी समाज ने हमेशा से ज्योतिबा फुले की महानता और उनको कामों की अनदेखी की है। लेकिन भारत का बहुजन समाज देश के इस महान क्रांतिकारी और समाजसेवक को राष्ट्रपिता कह कर संबोधित और सम्मानित करता है।
हमारी संचित नफरतें कोराना के कुदरती कहर के वक्त भी उसी तरह प्रकट हो रही है ,जैसे सामान्य दिनों में होती रहती है, वैसे भी जाति और धर्म आधारित घृणायें तात्कालिक नहीं होती है, यह हमारे देश में लोगों के दिल, दिमाग में व्याप्त है, उसे थोडा सी हवा मिले तो अपने सबसे शर्मनाक स्तर पर बाहर आ जाती है.
इन दिनों में कईं तबके कोराना जन्य नफरत से प्रताड़ित है, कोराना का वायरस तो फेफड़ों को इन्फेक्ट कर रहा है, पर साम्प्रदायिकता व जातिवाद का वायरस दिमाग को बुरी तरह से इन्फेक्ट किये हुए हैं. सामने भयावह मौत का खतरा होने के बावजूद भी लोग अपने जाति दंभ और मजहबी मूर्खताओं को बचाने में जी जान लगा रहे हैं, इससे यह साबित होता है कि लोगों को मरना मंजूर है पर सुधरना स्वीकार नहीं है.
क्या कोराना जैसी वैश्विक महामारी से भारतीय समाज कोई सीख ले रहा है या वह उतना ही अहमक बना हुआ है, जितना बना रहने की उसकी क्षमता है, क्या हम इस दौर में सोच पा रहे हैं कि कोराना जैसे अदृश्य दुश्मन के सामने विश्व की तमाम सत्ताओं ने घुटने टेक दिए हैं, राष्ट्रवाद व नकली सरहदों की फर्जी अवधारणायें भूलुंठित है, धर्मसत्ताओं ने अपनी प्रासंगिकता खोना प्रारम्भ कर दिया है, काबा हो या काशी, वेटिकन हो या बोधगया सबकी तालाबंदी हो गई है, कोई पोप, कोई पीर, कोई शंकराचार्य, कोई महामंडलेश्वर, कोई परमपूज्य, कोई पंडित, कोई मुल्ला, कोई पादरी कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है. इन्सान को बरगलाने वाले इन लोगों के पास इन्सान को बचाने का कोई मैकेनिज्म नहीं है, फिर भी कुछ धर्मस्थल अज्ञान बाँट रहे हैं, जहालत परोस रहे हैं, लेकिन ये लोगों को कोराना से संक्रमित होने से नहीं बचा पा रहे है, अपने आपको सर्वशक्तिमान समझ बैठे मनुष्य को कोराना ने आईना दिखा दिया है कि उसकी औकात क्या है?
बावजूद इसके भी जिन लोगों के दिमाग में नफ़रत व भेदभाव का गोबर भरा हुआ है, वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे है, भारत का नरभक्षी मिडिया और उसके रक्तपिपासु एंकर अपना वही हिन्दू मुसलमान का भौंडा राग अलाप रहे है, प्रलय के क्षणों में भारत के जातिवादी और घनघोर मिडिया का यह प्रलाप स्वयं में ही एक महामारी है, जिसकी कोई वेक्सिन नहीं बन पायेगी, कईं बार तो लगता है कि इस मनुधारा (मनुस्ट्रीम) मिडिया में अधिकांश मनोरोगी घुस आये हैं और अब ये लाइलाज है.
कोराना के इस संकट काल में जिस भारतीयता व इन्सानियत की उम्मीद की जानी चाहिए, उसकी अनुपस्थिति चिंतित कराती है, जिस तरह की खबरें आ रही है, वे हैरान और परेशान करने वाली है. बस्ती के भानपुर सोनहा में जिन कोराना संदिग्धों को क्वार्न्टीन करके लाया गया, वहां का रसोइया अनुसूचित जाति का था, तो उच्च जाति के तुच्छ दंभ से ग्रसित जातिवादियों ने उसके हाथ का खाना खाने से इंकार कर दिया, हालाँकि कोराना को उनका उच्च वर्ण और उपरी जाति होना भी नहीं रोक पा रहा है, सब समान रूप से संक्रमित हो रहे हैं, पर जाति के वायरस से पहले से ही इन्फेक्टेड सवर्ण हिन्दू अब भी सुधरने की इच्छा नहीं रखते हैं, इसका ज्वलंत उदहारण कोराना के हॉटस्पॉट के रूप में उभरे भीलवाड़ा जिले के गंगापुर थाना क्षेत्र के जयसिंहपुरा गाँव में सामने आया है जहाँ पर एक दलित आंगनबाड़ी सहायिका और उसका किराणा व्यवसायी पति जातीय घृणा के शिकार हुए हैं, महिला को अनुसूचित जाति का होने की वजह से घर में घुसने व पोषाहार बनाने से मना किया गया है और उसके पति की दुकान पर जा कर उससे मारपीट की गई, दुकान में लगी डॉ आंबेडकर की तस्वीर को तोड़ा गया, जातिगत गाली गलौज किया गया. पीड़ित पारस सालवी ने बताया कि गाँव के सवर्ण लोग हम पर कोराना फ़ैलाने का आरोप लगा कर अत्याचार कर रहे है, घटना की रिपोर्ट दी गई है, पर कोई कार्यवाही नहीं हुई है.
तब्लीग जमात के बहाने मिडिया और सत्ता तंत्र ने जो विमर्श खड़ा किया है, उसके नतीजे अब आम मुसलमानों को भुगतने पड़ रहे हैं, राजस्थान के विभिन्न इलाकों से आई खबरे वाकई शर्मनाक है, जहाँ पर मुस्लिमों के साथ भेदभाव व कोराना के कोरियर बन जाने का सरेआम आरोप लगाते हुए उनके उत्पीडन की घटनाएँ हो रही है. ऐसी घटनाओं के बढ़ने से चिंतित जन संगठनों ने राजस्थान सरकार को एक संयुक्त ज्ञापन दिया है, जिसमें बताया गया कि जयपुर के सीतापुरा औद्योगिक क्षेत्र की हाऊसिंग कालोनी तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर मुस्लिम व्यापारियों को फल व सब्जी बेचने से रोका जा रहा है, जोधपुर के नागोरी गेट इलाके में मुस्लिम मजदूरों पर उनके हिन्दू पड़ौसियों ने मध्य रात्रि में यह कहते हुए मारपीट व गाली गलौज किया कि वे कोराना संक्रमण फ़ैलाने में लगे हैं, हालाँकि तुरंत पुलिस आई और इन मजदूरों को अन्यत्र शिफ्ट किया गया है, लेकिन ऐसी घटनाओं का बढ़ते जाना कोराना की आड़ में मॉब लिंचिंग का खतरा पैदा कर देती है.
भरतपुर के जनाना हॉस्पिटल में परवीना नामक गर्भवती मुस्लिम महिला को एडमिट नहीं किया जाना और उसे जयपुर रेफर कर देने के बाद रास्ते में प्रसव हो जाने से नवजात की मौत जैसी शर्मनाक घटना पर तो राज्य सरकार के पर्यटन मंत्री विश्वेन्द्र सिंह खुद भी अफ़सोस जता चुके हैं, हालाँकि प्रशासन व जनाना अस्पताल के डॉक्टर्स इसे बेबुनियाद बता रहे हैं.
तब्लीग जमात की निंदनीय घटना के बाद से सोशल मिडिया पर जमातियों द्वारा थूंकने, अश्लील बर्ताव करने, मुस्लिम व्यापारी द्वारा कथित रूप से फलों के थूंक लगाकर बेचने और मेडिकल टीमों पर हमलों की अफवाहों को नियोजित तरीके से फैलाया जा रहा है, ताकि मुसलमानों के प्रति द्वेष का भाव और सघन हो तथा बहुसंख्यक आबादी उनका आर्थिक बहिष्करण शुरू कर दें, नफरत के कारोबारी इस तरह के प्रोपेगंडा करने में बहुत माहिर है, इस बीच इंदौर जैसी दुखद घटनाएँ भी हुई हैं, जहाँ स्वास्थ्यकर्मियों पर पथराव व उनको भगाने का शर्मनाक कृत्य हुआ है, अच्छी बात यह रही कि मुस्लिम समाज ने बड़े पैमाने पर पहल करते हुए सार्वजनिक रूप से इस घटना के प्रति शर्मिंदगी जाहिर की और बाकायदा विज्ञापन छपवा कर माफ़ी मांगी, इसका सुखद परिणाम रहा, अविश्वास का अँधेरा छंटा और मेडिकल टीम वापस उन इलाकों में जाकर अपना काम सुचारू कर पाई, लेकिन तब्लीग जमात और इंदौर जैसी घटनाओं की आड़ में कईं फर्जी वीडियो फैलाये गए है ताकि लोग एक दुसरे से नफरत करने लगे, यह स्थिति भयावह है.
कोराना से जंग बहुत महत्वपूर्ण लडाई है, जिससे केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया लड़ रही है, यह किसी एक देश अथवा एक धर्म या एक जाति संप्रदाय की वजह से नहीं फ़ैल रहा है, न ही कोई शुद्ध खून का दावा करने वाले कथित उच्च लोग इससे बच रहे है, इसकी चपेट में अमीर–गरीब, हिन्दू-मुसलमान, यहूदी, जैन बौद्ध, ईसाई, आस्तिक नास्तिक सब है, इसलिए किसी एक कौम, एक जगह, एक हॉस्पिटल, एक जाति, एक विचार या विश्वास पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर अपने भीतर बसी नफरत का प्रकटीकरण मत कीजिये, कोराना के सामने इस वक्त सब निहायत ही निरे असहाय इन्सान मात्र है, बस इन्सान बने रहिये, एक दूसरे की मदद कीजिये, शायद मानव प्रजाति यह जंग जीत ले, इस जंग के फ्रंट पर लड़ रहे लोगों के प्रति और इसकी दवा खोज रहे वैज्ञानिकों के प्रति हिकारत, नफरत व भेदभाव का भाव मत लाइए, क्योंकि आपका अज्ञान आपको नहीं बचा सकेगा, अब भी अंतिम उम्मीद विज्ञान से ही है. देर सवेर वही बचायेगा.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र पत्रकार है.)
ये थोड़ा और पहले हो जाना चाहिए था, लेकिन देर से ही सही बसपा प्रमुख मायवती ने देशहित और मानव हित में एक बड़ा फैसला लिया है। बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने अपनी पार्टी के सभी विधायकों को विधायक निधि से कोरोना से लड़ने के लिए एक-एक करोड़ रुपये देने की अपील की। इसको लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बहन मायावती को धन्यवाद दिया है।
दरअसल बहनजी ने 3 अप्रैल को ट्विट में कहा कि “देशभर में कोरोना वायरस की महामारी के प्रकोप के मद्देनजर खासकर यूपी के बीएसपी विधायकों से भी अपील है कि वे भी पार्टी के सभी सांसदों की तरह अपनी विधायक निधि से कम से कम 1-1 करोड़ रु अति जरूरतमन्दों की मदद हेतु जरूर दें। बीएसपी के अन्य लोग भी अपने पड़ोसियों का जरूर मानवीय ध्यान रखें।
बहनजी ने एक अन्य ट्वीट में कहा कि, ‘केन्द्र सरकार से भी अपील है कि विश्व बैंक से मिले 100 करोड़ डालर की कोरोना सहायता को विशेषकर स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने में उचित इस्तेमाल करे ताकि कोरोना के प्रकोप को रोका जा सके। जनता से भी अपील है कि वे आपदा की इस घड़ी में सरकार का सहयोग करें।’
दरअसल तमाम लोग यह सवाल उठा रहे थे कि कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा गरीबों और कमजोर वर्गों की जिंदगी प्रभावित हुई है। देश के तमाम हिस्सों से भी सबसे ज्यादा लोग पूर्वांचल के ही पलायन हुए हैं। ऐसे में सबकी नजर उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव जबकि बिहार में तेजस्वी यादव पर थी। हालांकि बसपा के सांसद और विधायकों ने खुद ही इस आपदा में अपना सहयोग देना शुरू कर दिया था। तो वहीं आम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े तमाम अन्य संगठन भी लोगों की मदद कर रहे थे। लेकिन अब मायावती की अपील के बाद बाकी बचे विधायक भी अपना योगदान देंगे जिससे पार्टी लोगों से जुड़ेगी। दूसरी ओर बसपा कार्यकर्ताओं से अपने पड़ोसियों की मदद की अपील करना भी एक महत्वपूर्ण कदम है। जाहिर है कि इससे बसपा कार्यकर्ता और नेता खुल कर जरूरतमंदों की मदद करेंगे।
आज महाबली बाबा चौहरमल की जयंती है। चौहरमल का जन्म बिहार में मोकामा अंचल क्षेत्र के शंकरवाड़ टोला में हुआ था। तब इस क्षेत्र को मगध के नाम से जाना जाता था। उनका जन्म दुसाध ज़ाति के एक किसान परिवार में 04 अप्रैल 1313, तदनुसार चैत्र पूर्णिमा को हुआ था। इनके पिता बन्दीमल और माता रघुमती थी। इनका कर्मस्थान मोकामा ताल के चाराडीह में था औऱ इससे 14 किलोमीटर दूर तुरकैजनी गांव में इनका ननिहाल था। समाज हित हेतु ब्राह्मणी और सामंती ताकतों से लगातार संघर्षरत रहने के कारण इन्हें चारडीह,-तुरकैजनी भाग दौड़ करना पड़ता था। इनका ससुराल मोकामा ताल के खुटहा (बड़हिया) गावँ में था। इनकी जीवनसंगिनी, ससुरसल के लोग और इनके वंशज के सम्बंध में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।
चौहरमल सामंती दमन के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। उन्होंने चाराडीह में सामन्तो द्वारा की गई आर्थिक नानाबन्दी का संगठन बना कर कड़ा मुकाबला किया और अपने लोगों को संकट से बचाया। वे चाराडीह में सामुहिक खेती-किसानी शुरू कर उस इलाके के लोगों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। गियासुद्दीन मुहम्मद बिन तुगलक ने चौहरमल को 100 बिगहा खेती योग्य भूमि का भूमि-पट्टा दिया था जिस पर भूमिहार सामन्तो की नज़र गड़ी थी। चौहरमल ने सामन्तो के अत्याचार से लोहा लेने हेतु चाराडीह को युद्ध कला ज्ञान हासिल करने का प्रशिक्षण केंद्र बनाया था जिसमे वे अस्त्र संचालन का प्रशिक्षण देते थे।
चौहरमल साम्प्रदायिक सौहार्द के भी प्रतीक थे। बिहार शरीफ के बड़ी दरगाह में हज़रत मखदूम साहब के मज़ार के बगल में चौहरमल का भी मज़ार है। इनके मज़ार पर उर्दू में चुल्हाय लिखा हुआ है। इससे पता चलता है कि मुस्लिम समाज मे भी चौहरमल पूज्य थे। विहार शरीफ में चौहरमल को अदब से चुल्हाय वीर कहा जाता है। मखदूम एक सूफी संत थे जो चौहरमल के समकालीन और कल्याणमित्र थे। दोनों मिल कर मानवतावादी संदेशों को आसपास के क्षेत्रों में फैलाते थे। बिहार शरीफ में पंचाने नदी के किनारे बसा कोसुत गावँ में निर्मित चौहर विहार में उनके अनुयायी शील के प्रतिक लंगोटा चढ़ाते हैं।
चौहरमल को मोकामा के आस पास के लोग लोक-देवता और कुल-देवता के रूप में पूजते हैं। घर आंगन में मिट्टि की गुम्बदाकार पिंडी बना कर उनकी पूजा होती है। बौद्ध संस्कृति में यही पिंडी स्तूप कहलाता है जिसमें बुद्धों और बोधिसत्वों का अस्थि भस्म रखा हुआ होता है।
चाराडीह में उनका विहार है जहां प्रत्येक साल चैत्र माह में एक हप्ते का विशाल मेला लगता है। चौहरमल मेले में विभिन्न क्षेत्रों से 10 लाख से ज्यादा लोग आते हैं। यहां भी इनकी पिंडी है जिसकी पूजा कई सालों से होती आ रही है । बाद में यहां एक आदमकद प्रतिमा भी स्थापित किया गया है। कुछ लोग चौहरमल के ब्राह्मणीकरण का भी प्रयास करते हैं और बताते है कि उनके पास चमत्कारिक शक्तिया थी। परंतु यह सत्य नहीं है। वे महामानव थे और अपने मंगल कृत्यों से पूजित हैं। मोकामा के आसपास रेशमा-चौहरमल नाटक बहुत प्रसिद्ध है जिसके माध्यम से उनके कृतित्व को दर्शाया जाता है। महाबली चौहरमल पर बहुत कम ही लिखा गया है। जो भी लिखा गया है वह बौद्धिकता और वैज्ञानिकता से कोसों दूर है। उनका शरीरान्त 120 वर्ष की आयु में 01 नवम्बर 1433 को हुआ था।
कपिल स्वरूप बौद्ध के फेसबुक वॉल से, बाबाचौहर मल पर सम्यक प्रकाशन ने पुस्तक प्रकाशित की है।
Written by- Dr Ruha Shadab
Let us assume good intention. Let us assume that the Government of India (GoI) is not fudging its numbers. Let us assume that GoI is not under-testing and instead assume that the most-at-risk are being tested. This means that a country of 1.3 billion has had only 1,300 cases of Corona virus with 35 deaths (at the time of written this article). With 15,000 tests conducted, the confirmed-to-tested ratio is similar to Malaysia’s.
India came down heavy and hard in its response. The Prime Minister (PM) is apologetic about the hardship the poorer have had to go through with the enforcement of a sudden 21-day lock down (enforced on March 24th). No policy is perfect, and public health asks for difficult trade-offs. Was there a smarter way of declaring a nationwide lock down in a country: a way that could lessen the blow on a population where two-thirds households have around Rs 9,000 (~$125) in savings?
The Union (= federal) government and numerous State governments in India, have come out with a plethora of supportive measures to tide over this crisis. As a welfarist economy, the focus has been on strengthening safety nets for the most vulnerable.
Union government/agency’s measures
The first few responses were to send advisories to students studying in the US. Circulars from the Consul General of New York encouraged students to not travel to India. These circulars were being generated on a daily basis, till they suddenly dried up. Indian students go to the US after collecting a lot of paperwork. The Ministry of External Affairs should compile an email address book of such students, for the future, to expedite communication with this group. Students, far from home and family, need to be assuaged by their country’s representative and simple circulars can be reassuring. A systematic way of having these messages passed on, and not instead solely relying on chatty WhatsApp groups should be one of the small revamps of our diaspora outreach. Especially, since things escalated to the point of international flights to India completely being canceled and visas of all non-nationals be rendered invalid.
On the Sunday prior to the start of the lockdown, the Prime Minister of India suggested a citizen’s curfew, meant to be voluntary, just for 14 hours, with an allotted time for citizens to clap for those on the front lines of working to control Coronavirus. A number of countries have had a “clap for essential services workers” moment, some are even doing it repeatedly. This could be seen as a primer for the announcement that would come in 48 hours: necessary preparation for a massive country.
After March 24th, the Finance Minister came armed with an arsenal of supportive measures, which leveraged existing schemes/yojanas: Free distribution of food grains and pulses to 800 million people (under PM Gareeb Kalyan Yojana); Rs 1,500 (~$20) to 200 million women’s accounts to help with running their households (Jan Dhan Yojana); A Rs 2,000 ($27) payment to 87 million farmers (under PM Kishan Yojana); Free cooking gas cylinders for 83 million below-poverty-line families (under Ujjawala scheme); A Rs20 ($0.30) increase in the daily wage under the country’s flagship employment guarantee scheme (MNREGA) which has 50 million workers; Up to Rs 2 million in collateral-free loans for 6.3 million Self-Help Groups (SHGs).
More ministries and agencies have chimed in: Hospitals meant for Railways’ employees have been opened up for other central government employees (the Indian railways, IR, employ 1.5 million people and as a public sector undertaking, have parallel social security services, such as a hospital network). IR has also doubled up some train coaches as isolation wards for Coronavirus patients.
NITI Aayog, the PM-chaired government think tank, is developing an App: CoWin-20. It is meant to inform users of possible contact with a Covid-19 patient.
“Start Up India”, a program run by the Ministry of Commerce, has created an innovation challenge to tackle a host of issues ranging from supply constraints of medical equipment to fake news detection.
The Self4Society, a platform hosted by the Ministry of Electronics and Information Technology, helps organize Initiatives for social work. Tackling Coronavirus has taken the lead in the plethora of work streams available. With over 90,000 individuals and 3800 organizations registered on this platform donating, volunteering, or contributing in four major areas: medical equipment, public awareness, logistics, and assisting local government, Self4Society has helped channelize the citizenry’s desire to help the nation with the pandemic.State government’s measures
Health is in the list of “State subjects” in the Indian constitution, making it the prerogative of the State governments. There has been a robust response at this level, and even down to the level of municipalities. For instance, home-delivery of vegetables to residents of a municipality of Kalburgi, Karnataka; approval by Uttar Pradesh (UP), Punjab, Haryana and Chandigarh to designate spots for road-side vendors of perishables. UP has 12000 vendors approved.
This particular state, of 200 million, has a huge size of migrant workers who travel far and wide outside of the state to work. Tens of thousands, if not hundreds of thousands, were struggling to get back home under the lockdown (Why they didn’t stay put in their city of work? No money, no security, no safety net, no savings. These migrant workers are mostly ones that live off making meagre daily profits). The UP government deployed a thousand buses to help ferry these workers to their native districts in the state.
Down south, in Maharashtra, which receives a lot of migrants, announced that Covid-19 patients would get free treatment (under Mahatma Jyotiba Phule Jan Arogya Yojana).
Even further south, Kerala, which is the poster child of good public health programs and practices, beside checking all the right boxes on what to do in the time of a pandemic, has gone above and beyond to address collaterals, such as tasking local governments to take care of starving stray dogs and monkeys. Anticipating the impact of closure of alcohol shops during the lockdown, Kerala has strengthened its de-addiction centers.
While some of these measures should be permanently engrained in our governance structures, some measures taken, need to be critically reexamined for their propensity for misuse. While the Union government has encouraged States to use a precolonial law (Epidemic Act 1897) to enforce quarantine, a legal tool with a clear implementation and accountability framework should eventually replace it.
In a nation where religion is often one’s premier identity, only the wrath of god can lead to a reimagining of public health systems. A stagnated level of government expenditure on health (hovering around 1.1% of GDP for over a decade) has been a constant complaint of experts. The aforementioned financial support measures, by the Union government, come up to 1% of the GDP, as compared to the double digits seen else (Malaysia announced a
Dr Ruha Shadab
stimulus equal to 17% of its GDP). However, regardless of comparative figures, cushioning the blow of a lockdown and a lockdown itself, are not sustainable measures for the pandemic. The future needs a public health system in India that is dynamic, hyper-responsive, globally well-integrated, and optimally resourced. Maybe god is a virus, and Covid-19 will strengthen the one thing we all need: healthcare.
Dr Ruha ShadabPublic Service Fellow and Master Candidate, 2020Harvard University, Kennedy School of Governmentruha_shadab@hks.harvard.edu
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लॉकडाउन के बीच एक बार फिर जनता को संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने अपने भाषण में एक बार फिर से शिगूफा छोड़ते हुए लोगों से आगामी रविवार 5 अप्रैल को रात 9 बजे, 9 मिनट के लिए घर की बत्तियां बंद कर घर के बाहर दीया, टार्च, मोमबत्ती आदि किसी चीज को जलाकर रोशनी करने को कहा। पीएम मोदी का कहना था कि इससे गरीबों के जीवन का अंधकार दूर होगा और देश में कोरोना के कारण जो अंधकार फैला है वह दूर होगा। अब तक लॉकडाउन के 9 दिनों के बीच ये तीसरी बार है, जब प्रधानमंत्री ने जनता को संबोधित किया है।
कोरोना वायरस के बाद लॉकडाउन के बीच देश भर में जिस तरह से लाखों लोग पलायन कर गए, देश के तमाम राज्यों में जिस तरह गरीबों के बीच भगदड़ मची, लोग रोजी-रोटी और रोजगार के संकट से जूझने लगे, देश के मध्यम वर्ग में भी अपने भविष्य को लेकर अनिश्चितता पैदा हो गई, ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ऐसी किसी बात पर चर्चा नहीं कर देश की जनता को दीया जलाने के कर्मकांड की ओर धकेलना समझ से परे है। सोशल मीडिया पर इसकी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त हुई है। पीयूष मित्रा ने जो लिखा, आप खुद देखिए-
मेरी तरह के कुछ बेवकूफ लोग सोच रहे थे कि
– टेस्ट की संख्या बढ़ाने पर बात होगी।
– डॉक्टरों के पीपीई की संख्या बढ़ने का ऐलान होगा।
– लॉक डाउन की समीक्षा और आगे की योजना पर बात होगी।
– ठप पड़े रोजी रोजगार के बारे में बात होगी।
– बच्चों की पढ़ाई लिखाई पर बात होगी।
– गेंहू की कटनी का समाधान बताया जाएगा।
यहां तो पंडित जी, एक और कर्मकांड थमा गए। अब समझ आ रहा है कि यह देश क्यों इतना कर्मकांडी है।
वैसे हर चतुर सरकार बेवकूफ जनता के साथ यही व्यवहार करती है। उसे इवेंट और एंटरटेनमेंट में उलझा देती है, ताकि उसकी कमजोरियों पर बातचीत कम हो।
पत्रकार सुमित चौहान लिखते हैं-
मैं सार्वजनिक माफी मांगना चाहता हूं। ये मेरी गलती है कि मैंने देश के प्रधानमंत्री से इस संकट में कुछ राहत भरी पहल की उम्मीद की… अगर मैं अपना पुराना स्टैंड लेकर ही उनका वीडियो देखता तो निराश नहीं होता… वो एक अव्वल जोकर हैं और वो इस जोकरगिरी में मुझे कभी निराश नहीं करते। मैं आगे से इसी स्टैंड के साथ उनका वीडियो संदेश देखूंगा। शायद थोड़ी कम तकलीफ होगी।
तो वहीं पत्रकार प्रीती नाहर ने लिखा है-
ये प्रधानमंत्री नहीं सुधरेगा!
थाली वाला आईडिया काम नहीं आया तो अब 5 अप्रैल को लाइट बंद करके दिया जलाए सारा देश।
सारे अंधविश्वास इसी वक्त आजमाने हैं इसको।
दरअसल लोगों का यह गुस्सा गलत नहीं है। देश अभी भयंकर स्वास्थ सेवाओं की कमी से जूझ रहा है। बेरोजगारी का संकट मुंह बाए खड़ा है। कोरोना की वजह से भारत के इतिहास का सबसे बड़ा पलायन देखने में आया है। देश की अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिर पड़ी है। लोगों की जान सांसत में है। पूरा देश डरा हुआ है। कोरोना पोजिटिव पाए गए लोगों की जांच करने वाले स्वास्थकर्मियों को तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। अच्छा होता प्रधानमंत्री उन्हें दिलासा देते। अच्छा होता कि वह कंपनियों से कहते कि किसी युवा को नौकरी से नहीं निकालना है। अच्छा होता वो पलायन कर गए लाखों लोगों को भरोसा देते कि वो उनके लिए बेहतर देश बनाएंगे। अच्छा होता कि वो लोगों को यह बताते कि देश में स्वास्थ सेवाओं की अभी क्या स्थिति है। कोरोना से लड़ने के लिए उनकी क्या तैयारी है।
यही बताते कि देश भर के कितने लोगों ने प्रधानमंत्री राहत मदद कोष में योगदान दिया है। यही बता देते कि मुख्यमंत्रियों के साथ मिलकर उन्होंने क्या बात की, और राज्यों की क्या तैयारियां हैं। यही बताते कि पार्टी लाइन से अलग होकर देश के सभी राज्यों की सरकारें कैसे एक साथ मिलकर इस खतरे को रोक देंगी।
अगर वो इतना कुछ कर पाते तो भारत के लोगों में एक भरोसा जगता। वरना अगर थाली और ताली ही बजवानी है और दीया जलाने की अपील ही करनी है तो मोदी जी हम ऐसा करते हैं कि आपकी तस्वीर फ्रेम करवा कर घर में टांग लेते हैं। एक मोदी चालीसा भी बंटवा दीजिये, उसमें ये निर्देश दे दीजिए कि साल के 365 दिन हमें क्या-क्या करना है। आप भी निश्चिंत, आपकी रियाया (जनता) भी निश्चिंत। … हद है, बत्ती जला कर आप गरीबों के जीवन से अंधकार मिटाएंगे।
अंतरराष्ट्रीय स्तर के दलित विद्वान आनंद तेलतुंबडे और गौतम नवलखा को गिरफ्तारी से बचाने के लिए भारत सहित दुनिया भर के विद्वान सामने आए हैं। इन लोगों ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर इन दोनों की गिरफ्तारी नहीं करने की अपील की है। इस अभियान में अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वान से लेकर एक्टिविस्ट और राजनीतिज्ञ तक शामिल हैं। जिन प्रमुख लोगों ने इस ऑनलाइन पिटिशन में हस्ताक्षर किया है, उनमें नोम चोमस्की, गायत्री स्पिवक, सुखदेव थोराट, कॉर्नेल वेस्ट, एंजेला डेविस, क्षम सावंत, रामचंद्र गुहा, प्रकाश अंबेडकर, अरुंधति रॉय, आनंद पटवर्धन, रॉबिन डी.जी. केली आदि शामिल हैं। इस ऑनलाइन अभियान में अब तक पांच हजार से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर किया है।
विगत 16 मार्च को भीमा कोरेगांव मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं गौतम नवलखा और आनंद तेल्तुम्बडे की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी थी। अदालत ने उन्हें सरेंडर करने के लिए तीन हफ्ते का वक्त दिया था, जो 6 अप्रैल को पूरा हो रहा है। कोर्ट ने उन्हें अपने पासपोर्ट भी सरेंडर करने को कहा है।
बता दें कि पुणे की पुलिस ने कोरेगांव भीमा गांव में एक जनवरी, 2018 को हुई हिंसा की घटना के बाद गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबडे और कई अन्य कार्यकर्ताओं के खिलाफ माओवादियों से कथित संपर्क रखने के आरोप में मामला दर्ज किया था। हालांकि दोनों ने पुलिस के इन आरोपों से इंकार किया था और अदालत में अपील की थी।
पुणे की सत्र अदालत से राहत नहीं मिलने पर गौतम नवलखा और आनंद तेल्तुम्बडे ने गिरफ्तारी से बचने के लिए पिछले साल नवंबर में बंबई उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। वहां से भी राहत नहीं मिलने पर उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ इन दोनों ने शीर्ष अदालत में अपील दायर की थी। लेकिन सर्वोच्च अदालत ने भी उन्हें राहत देने से इंकार करते हुए सरेंडर करने को कहा है। इस मामले में आनंद तेलतुंबडे के वकील कपील सिब्बल हैं। ऐसे में अब सिविल सोसाइटी के लोगों ने ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान चलाकर सरकार और कोर्ट पर दबाव बनाने की रणनीति पर काम कर रही है। उनकी गिरफ्तारी का विरोध करते हुए जो तर्क दिया गया है, वह देखिए।
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हम नीचे हस्ताक्षरित व्यक्ति और संगठन प्रोफ़ेसर आनंद तेलतुंबडे और गौतम नवलखा की आसन्न गिरफ़्तारी और उनकी छवि को धूमिल करने के प्रयासों की निंदा करते हैं। इन दोनों की गिनती भारत के सबसे प्रमुख नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों में होती है। 26 मार्च, 2020 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने डॉ. तेलतुंबडे और श्री नवलखा की अग्रिम ज़मानत याचिका ख़ारिज कर दी। अब उनके पास 6 अप्रैल, 2020 तक पुलिस के सामने ‘समर्पण’ का समय है। हम पूरी शिद्दत के साथ मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के बेंच से कोविड- 19 महामारी के ख़तरे और उससे डॉ. तेलतुंबडे और श्री नवलखा के जीवन को होने वाले नुक़सान का संज्ञान लेने का अनुरोध करते हैं। दोनों वरिष्ठ नागरिक हैं और उन्हें पहले से ही कुछ बीमारियाँ हैं जो उनके जेल जाने पर संक्रमण के सर्वाधिक ख़तरे को पैदा कर देंगी। इस समय उनका बंदी बनाया जाना उनके स्वास्थ्य और जीवन दोनों के लिए ख़तरनाक होगा। हम न्यायिक पदाधिकारियों से अपील करते हैं कि वे कम से कम गिरफ़्तारी के अपने आदेश को इस तरह से बदल दें कि वह इस वैश्विक स्वास्थ्य संकट के पूरी तरह ख़त्म हो जाने के बाद लागू हो, जिससे उनके स्वास्थ्य और जीवन को कोई ख़तरा न रहे।आप भी नीचे दिये लिंक पर जाकर पिटिशन साइन कर सकते हैं।https://indiacivilwatch.org/statement-hindi/
माना आप बहुत सयाने हैं। आप जानते हैं कि मौत यहां भी है और वहां भी, इसलिए गांव लौट जाना ज़िन्दगी की गारंटी नहीं है। आप ठीक कहते हैं कि गांव न जाकर शहर में जहां एक आदमी अकेला मरता, वहीं उस आदमी के गांव चले जाने से कई की ज़िन्दगी खतरे में पड़ सकती है। सच बात है। तो क्या करे वो आदमी? गांव से दूर परदेस में पड़ा पड़ा हाथ धोता रहे? दूर दूर रहे अपनों से? मास्क लगाए? गरम पानी पीये? लौंग दबाए? क्या इससे ज़िन्दगी बच जाएगी?
वैसे, आपको खुद इस सब पर भरोसा है क्या? दिल पर हाथ रख कर कहिए वे लोग, जिन्हें एनएच-24 पर लगा रेला आंखों में दो दिन से चुभ रहा है। आप मास्क लगाए हैं, घर में कैद हैं, सैनिटाइजर मल रहे हैं, कुण्डी छूने से बच रहे हैं, गरम पानी पी रहे हैं। ये बताइए, मौत से आप ये सब कर के बच जाएंगे इसका कितना भरोसा है आपको? होगी किसी की स्टैंडर्ड गाइडलाइन है, लेकिन दुश्मन तो अदृश्य है और उपचार नदारद। कहीं आप भी तो भ्रम में नहीं हैं? आपका भ्रम थोड़ा अंतरराष्ट्रीय है, वैज्ञानिक है। हाईवे पर दौड़ रहे लोगों का भ्रम भदेस है, गंवई है। आप खुद को व्यावहारिक, समझदार, पढ़ा लिखा वैज्ञानिक चेतना वाला शहरी मानते हैं। उन्हें जाहिल। बाकी उस शाम बजाई तो दोनों ने थी – आपने ताली, उन्होंने थाली! इतना ही फर्क है? बस?
भवानी बाबू आज होते तो दोबारा लिखते: एक यही बस बड़ा बस है / इसी बस से सब विरस है! तब तक तो आप और वे, सब बारह घंटे का खेल माने बैठे थे? जब पता चला कि वो ट्रेलर था, खेल इक्कीस दिन का है, तो आपके भीतर बैठा ओरांगुटांग निकल कर बाहर आ गया? आपके नाखून, जो ताली बजाते बजाते घिस चुके थे और दांत जो निपोरने और खाने के अलावा तीसरा काम भूल चुके थे, वे अपनी और गांव में बसे अपनों की ज़िन्दगी पर खतरा भांप कर अचानक उग आए? लगे नोंचने और डराने उन्हें, जिन्हें अपने गांव में ज़िन्दगी की अंतिम किरन दिख रही है! कहीं आपको डर तो नहीं है कि जिस गांव घर को आप फिक्स डिपोजिट मानकर छोड़ आए हैं और शहर की सुविधा में धंस चुके हैं, वहां आपकी बीमा पॉलिसी में ये लाखों करोड़ों मजलूम आग न लगा दें?
आप गाली उन्हें दे रहे हैं कि वे गांव छोड़कर ही क्यों आए। ये सवाल खुद से पूछ कर देखिए। फर्क बस भ्रम के सामान का ही तो है, जो आपने शहर में रहते जुटा लिया, वे नहीं जुटा सके। बाकी मौत आपके ऊपर भी मंडरा रही है, उनके भी। फर्क बस इतना है कि वे उम्मीद में घर की ओर जा रहे हैं, जबकि आप उनकी उम्मीद को गाली देकर अपनी मौत का डर कम कर रहे हैं। सोचिए, ज़्यादा लाचार कौन है? सोचिए, ज़्यादा अमानवीय कौन है? सोचिए ज़्यादा डरा हुआ कौन है?
सोचिए, और उनके बारे में भी सोचिए जिनके पास जीने का कोई भरम नहीं है। जिन्होंने कभी ताली नहीं पीटी, जो मास्क और सैनिटाइजर की बचावकारी क्षमता और सीमा को समझते हैं, और जिनके पास सुदूर जन्मभूमि में कोई बीमा पॉलिसी नहीं है, कोई जमीन जायदाद नहीं है, कोई घर नहीं है। मेरी पत्नी ने आज मुझसे पूछा कि अपने पास तो लौटने के लिए कहीं कुछ नहीं है और यहां भी अपना कुछ नहीं है, अपना क्या होगा? मेरे पास इसका जवाब नहीं था। फिलहाल वो बुखार में पड़ी है। ये बुखार पैदल सड़क नापते लोगों को देख कर इतना नहीं आया है, जितना उन्हें गाली देते अपने ही जैसे तमाम उखड़े हुए लोगों को देख कर आया है। दुख भी कोई चीज है, बंधु!
मनुष्य बनिए दोस्तों। संवेदना और प्रार्थना। बस इतने की दरकार है। एक यही बस, बड़ा बस है…।
वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से
#CoronaDiaries
वो तस्वीरें आपके सामने भी घूम रही होंगी, जो पिछले तीन दिनों से खबरों और खासकर सोशल मीडिया के जरिए देश भर में फैल चुका है। जी हां, बेतहाशा अपने घरों की ओर भागते लोगों के झुण्ड की तस्वीरें। इन्हें आप गरीब कह लिजिए, मजबूर कह लिजिए, लाचार कह लिजिए, या फिर आप थोड़ा सोचने-समझने की ताकत रखते हैं तो इन्हें ‘इंसान’ मान लिजिए। आज जब ये सड़क पर हैं तो कई तरह की बहसें चल रही हैं।
बहस दो तरह की है। एक वर्ग इस पक्ष का है कि इन्हें घरों में रहना चाहिए, जैसा कि सरकार ने कहा था। जबकि दूसरा वर्ग वह है, जो इन्हें सड़कों पर देख कर चिंतित है और अपने गांव की सरहद पर लट्ठ लेकर बैठा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब लॉकडाउन की घोषणा के बाद ही पुलिस सक्रिय हो गई थी, तो आखिर इतने सारे लोग सड़कों पर कैसे आ गए। क्या यह अचानक हो गया कि लाखों लोग दिल्ली-यूपी की सीमा पर दिखने लगे। क्या ये एकदम से अपने घरों से निकल कर सीधे बार्डर पर पहुंच गए? अगर सरकार इतनी सचेत थी तो आखिर इन लोगों को सड़कों पर आने से रोका क्यों नहीं गया?
आनंद विहार पर उमड़ा लोगों का हुजूम
इस भगदड़ की एक गुनहगार बिहार और उत्तर प्रदेेश की सरकारें भी है। क्योंकि दिल्ली-यूपी बार्डर पर सड़कों पर जिनका हुजूम दिख रहा है, वह इसी दोनों राज्यों के हैं। जी हां, ये वही पूर्वांचली हैं, जो दिल्ली की सियासत चलाते हैं। ये दिल्ली में जब जिसे चाहें गद्दी पर बैठा दें, जब चाहें कान पकड़ कर उठा दें। दिल्ली में हर चौथा-पांचवा वोटर पूर्वांचल का है। दिल्ली में पूर्वांचल के 35 फीसदी वोटर हैं। दिल्ली के 70 विधानसभा सीटों पर पूर्वांचल के मतदाता 20-60 प्रतिशत तक हैं।
पूर्वांचल के लोग दिल्ली, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में सबसे ज्यादा विस्थापित होकर पहुंचते हैं। आज सड़कों पर भी वही हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर उनका राज्य उन्हें आज तक कोई रोजगार क्यों नहीं दे पाया। या फिर बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड की सरकारों ने अपने राज्य के लोगों का पलायन रोकने के लिए अब तक कोई उपाय क्यों नहीं किया। और इसका कसूर किसी एक नेता या एक पार्टी का नहीं है, बल्कि इसकी जिम्मेदार सभी पार्टियां और सभी नेता हैं।
बिहार में कांग्रेस से लेकर गरीबों का मसीहा कहे जाने वाले लालू यादव की भी सरकार रही, तो झारखंड में भी कई बार आदिवासी मुख्यमंत्री रहे हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता पर मायावती, मुलायम और अखिलेश यादव भी बैठें। इसलिए सिर्फ कांग्रेस या भाजपा को कोसने भर से काम नहीं चलेगा। सवाल इन लोगों पर भी उठते हैं। और उनकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा बनती थी, क्योंकि शहरों से गांवों की ओर पलायन सबसे ज्याद पलायन कमजोर वर्गों के लोग ही करते हैं। लेकिन आज जिस तरह गरीब अपने गांव और शहर के बीच बिना छत और रोटी के सड़कों पर मौजूद है, उसमें इन तमाम बहुजन नेताओं पर भी उंगली उठती है।
एनएसओर के आंकड़े के मुताबिक बिहार में बेरोजगारी दर 8.3 फीसदी है। उत्तर प्रदेश में तो भाजपा की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सारे रिकार्ड ही तोड़ दिए। योगी के सीएम बनने के बाद पिछले दो सालों में यहां 12.5 लाख लोग बेरोजगार हुए हैं। प्रदेश के लेबर डिपार्टमेंट की ओर से संचालित ऑनलाइन पोर्टल के मुताबिक 7 फरवरी 2020 तक करीब 33.93 लाख लोग बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए हैं। और झारखंड में हर पांच युवा में से एक युवा बेरोजगार है।
लोगों के सामने यह आपदा भले ही आचनक आई है। लेकिन केंद्र सरकार को पता था कि वह लॉक डाउन करने जा रही है।ऐसे में उसे सारे इंतजाम पहले से करने चाहिए थे। ताकि लोग घरों से न निकले। तो राज्य सरकारों को भी सोचना चाहिए कि आखिर वह आज भी अपने लोगों को स्थानीय तौर पर अपने राज्यों में ही रोजगार दिलाने में क्यों विफल रही है। सवाल के घेरे में केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक हैं। कांग्रेस से लेकर भाजपा तक है। तो सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेता भी। पिस रहा है तो सिर्फ गरीब।
देश के तमाम धार्मिक स्थलों से कोरोना वायरस पीड़ितों के लिए मदद मिलनी शुरू हो गई है। पटना के हनुमान मंदिर से लेकर कुछ अन्य धार्मिक स्थलों से भी कोरोना पीड़ितों के लिए आर्थिक मदद का चेक दिया गया है। इसी क्रम में गया के जिलाधिकारी द्वारा महाबोधि महाविहार का एक करोड़ रुपये कोरोना पीड़ितों के लिए दिया गया है। देश के बुद्ध विहारों से दी जाने वाली यह सबसे बड़ी रकम होती है।
गया का जिलाधिकारी ही महाबोधि महाविहार का अध्यक्ष होता है। इसके साथ ही वह विष्णु पाद मंदिर का भी अध्यक्ष होता है। सारनाथ स्थित धम्मा लर्निंग सेंटर के अध्यक्ष भंते चन्दिमा ने इससे संबंधित सूचना साझा करते हुए मांग किया है कि चूंकि गया का जिलाअधिकारी महोबोधि महाविहार और विष्णु पाद मंदिर दोनों का अध्यक्ष होता है। ऐसे में जिलाधिकारी को नैतिक आधार पर विष्णु पाद मंदिर का पैसा भी राष्ट्रहित में दान करना चाहिए।
यहां सवाल जिलाधिकारी की मंशा पर उठाए जा रहे हैं कि आखिर जिलाधिकारी अपनी अध्यक्षता वाली एक संस्था के पैसे तो दान में दे रहे हैं, जबकि दूसरी संस्था का पैसा आखिर क्यों नहीं निकाल रहे।
आज लॉकडाउन का तीसरा दिन था। उसके पहले भी मैग्जीन की तैयारियों के कारण तीन दिन ऑफिस नहीं जा पाया था। इसी बीच प्रधानमंत्री ने 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा कर दी। दो दिनों तक मैं भी परेशान रहा। इंसान हूं, डर तो सबको लगता है। लेकिन लगा कि निकलना चाहिए। देखना चाहिए कि शहर में क्या हो रहा है। वैसे भी लॉक डाउन के बाद से ही जिस तरह अपने गांव की ओर पैदल चल दिए लोगों की तस्वीरें और वीडियो वायरल हो रहे थे, वह परेशान करने वाले थे, सो मैं निकल पड़ा।
नोएडा से दिल्ली की ओर चला। पहले यूपी की सीमा पर पुलिस ने रोका। फिर मीडिया पर गाड़ी लिखी देख जाने दिया। थोड़ा आगे बढ़ते ही दिल्ली की सीमा आ गई। पुलिस ने फिर रोका। फिर वही प्रक्रिया। इस बीच नोएडा की सीमा पर एक चीज ने ध्यान खींचा। एक के बाद एक तीन बैरिकेटिंग थी। उस पर बारी-बारी से डॉक्टर, एंबुलेंस और मीडिया लिखा था। यानी कि इन्हीं तीनों की गाड़ियों को जाने की इजाजत दी जाएगी।
यहां से निकल कर मयूर विहार, त्रिलोकपुरी और फिर पटपड़गंज से गुजरना हुआ। जैसा कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की थी, बसें चल रही थी। छिटपुट ऑटो भी चल रहे थे, लेकिन ज्यादातर सड़क किनारे खड़े थे। जरूरी दुकाने जैसे किराना, फल, सब्जी और दवा की दुकाने खुली थी। सड़क पर लोग भी थे। बहुत ज्यादा नहीं, लेकिन बहुत कम भी नहीं। कह सकते हैं कि सड़कों पर चहल-पहल थी, सड़कें सुनसान नहीं थी।
कोरोना के भय से गांवों से पलायन करते लोग
मदर डेयरी पहुंचने के बाद मैं एन.एच 24 पर चढ़ गया। दिल्ली का एक प्रमुख हाईवे, जो दिल्ली को उत्तर प्रदेश से जोड़ता है। कुछ साल पहले ही प्रधानमंत्री ने दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस वे का उद्घाटन किया था, तब से इस सड़क की किस्मत बदल गई है। आज के पहले जब भी इस सड़क से गुजरा दर्जनों गाड़ियां एक साथ सरपट भागती दिखीं। आज यह सुनसान थी। थोड़ी दूर आगे बढ़ते ही चौंकाने वाला नजारा दिखने लगा। सर और पीठ पर बैग टांगे लोग पैदल चल दिए थे। गाड़ी रोककर एक लड़के से पूछा कि कहां जा रहे हो। बोला- बलीरामपुर। आप सोचिए कि उत्तर प्रदेश का बलीरामपुर जो दिल्ली से 700 किलोमीटर है, वहां वह युवक पैदल जाएगा। उसने बताया कि वह 10 दिनों में पहुंच पाएगा।
उसकी बातों को सुनकर मैं परेशान था। एक बार उसकी जगह खुद को रखकर उसका दर्द महसूस किया। वहां से मैं आनंद विहार की ओर चल पड़ा। लोगों का रेला लगा था। जत्थे के जत्थे लोग पैदल चल पड़े थे। गाजीपुर के पास हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के पेट्रोल पंप पर रुक कर वहां के स्टॉफ से बात की। उन्होंने बताया कि हर रोज 4-5 हजार लोग यहां से गुजरते हैं। चौबीसो घंटे। कोई पानीपत से आ रहा है, तो कोई पंजाब बार्डर से आ रहा है।
उनसे बात ही कर रहा था कि सामने से तकरीबन दो सौ लोगों का रेला आता दिखा। मैंने उनके साथ चलते हुए पूछा- क्यों जा रहे हैं घर? सरकार ने तो रुकने को बोला है। उन्होंने कहा- यहां बिना रोटी के कैसे रहें? मैंने पूछा कि सरकार खाने को तो दे रही है। उनका जवाब था कि हमें तो तीन दिनों में नहीं मिला। मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।
ये उनका दर्द था, जो जुबान से निकल रहा था और उनके चेहरे पर भी साफ दिख रहा था। वो दर्द मुझ तक भी पहुंचा। लेकिन यहीं इंसान लाचार हो जाता है और सरकार की ओर ताकने लगता है। क्योंकि एक दिन में हजारों लोगों को सुविधा मुहैया कराना किसी अकेले इंसान के बस की बात नहीं होती। और यहीं सरकार बड़ी हो जाती है और इंसान बौना। लेकिन लोगों का हाल देख कर लगता है कि बड़ी सरकार अभी तक सिर्फ घोषणाओं तक ही सीमित है, उसकी घोषणाएं जमीन पर पूरी तरह नहीं उतरी है।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेनमुख्यमंत्री हो तो हेमंत सोरेन जैसा। जी हां, हेमंत सोरेन। झारखंड के मुख्यमंत्री। लॉक डाउन के बाद हेमंत सोरेन जिस तरह देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे झारखंड के लोगों की सहूलियत के लिए दिन-रात काम कर रहे हैं वह काबिले तारीफ है। भरोसा न हो तो आप उनके ट्विटर हेंडल @HemantSorenJMM पर जाकर देख लिजिए।
पिछले दो दिनों में हेमंत सोरेन ने जिस तरह ट्विटर का इस्तेमाल कर अपने राज्य के लोगों की मदद के लिए अलग-अलग राज्य के मुख्यमंत्रियों से मदद मांगी है और जिस तरह अन्य मुख्यमंत्रियों ने इसको तवज्जो दी है, वह काबिले तारीफ है। और आपदा की घड़ी में देश के एक साथ होने की बात पर मुहर लगाती है। जिन तीन मुख्यमंत्रियों से हेमंत सोरेन ने संवाद किया वो हैं, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। इनमें से कोई भी मुख्यमंत्री भाजपा शासित प्रदेश का नहीं है।
यह सोशल नेटवर्किंग शुरू हुई 24 मार्च को, जब झारखंड के गोमिया विधानसभा क्षेत्र के विधायक डॉ. लम्बोदर महतो ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को एक पत्र लिखकर अपने विधानसभा क्षेत्र के 63 श्रमिकों के नवी मुंबई के एक साईं मंदिर में फंसे होने की जानकारी दी, और उन्हें सुरक्षित झारखंड वापस लाने की अपील की। विधायक लम्बोदर महतो ने इस चिट्ठी को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ट्विट भी किया।
इसके जवाब में हेमंत सोरेन ने विधायक को लॉकडाउन के कारण सभी मजदूरों को वहीं पर रहने का सुझाव दिया। साथ ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को ट्विट में टैग करते हुए नवी मुंबई में फंसे झारखंड के श्रमिकों की मदद करने का आग्रह किया।
इसके जवाब में उद्धव ठाकरे ने हेमंत सोरेन को इस बात के लिए शुक्रिया कहा कि हेमंत सोरेन ने जो जहां है, उसको वहीं रहने की सलाह दी। साथ ही संबंधित जिलाधिकारी को झारखंड के फंसे श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और उन्हें जरूरी सुविधाएं देने का निर्देश दिया।
ऐसा ही एक मामला ओडिसा में हुआ। ओडिसा के कटक स्थित एक सीमेंट प्लांट में झारखंड के डंडा गढ़वा के 14 मजदूरों के फंसे होने की सूचना वीरेन्द्र चौधरी ने ट्विटर के जरिए हेमंत सोरेन तक पहुंचाई। और खाने-पीने की चीजों के साथ ही उनके रहने को लेकर दिक्कतों की बात कही।
हेमंत सोरेन ने तुरंत इस बारे में ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को ट्विट कर मदद मांगी। तो एक अन्य मामले में हेमंत सोरेन ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी ट्विट कर झारखंड के लोगों की मदद करने का आग्रह किया, जिसके जवाब में केजरीवाल ने हेमंत सोरेन को ट्विट किया कि वह कोशिश कर रहे हैं कि दिल्ली में कोई भी व्यक्ति भूखा न मरे।
हेमंत सोरेन ने देश के तमाम मुख्यमंत्रियों को ट्विट कर कहा है कि झारखंड सरकार हर किसी की यथासंभव मदद करेगी। देश के समस्त मुख्यमंत्रियों से आग्रह है कि वे झारखंडियों की मदद करें।
सोशल मीडिया के जरिए सिर्फ हेमंत सोरेन ही एक्टिव नहीं है, बल्कि अपने घर से दूर देश के अलग-अलग हिस्सों में फंसे तमाम लोग अपने राज्य के मुख्यमंत्रियों से ट्विटर के जरिए संपर्क कर रहे हैं, जिसके जवाब में उनकी मदद भी की जा रही है। जहां डॉक्टर, प्रशासन और सरकार लोगों की मदद को सामने आ रहे हैं, तो वहीं सोशल मीडिया भी कोरोना की जंग में एक महत्वपूर्ण साधन बना हुआ है। फिलहाल जरूरी है, देश के सभी मुख्यमंत्रियों और केंद्र सरकार को एक साथ एक सूत्र में बंध कर काम करने की। सबका साथ ही कोरोना को हरा सकता है।
– प्रमोद मीणा
किसी भी प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा की तरह कोरोना वायरस के हमले से उत्पन्न स्वास्थ संकट की सबसे ज्यादा मार गरीब तबके पर पड़ने वाली है। कोरोना के संचरण और संक्रमण पर रोक लगाने के लिए जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने 25 मार्च से देश भर में 21 दिनों के लिए घरबंदी की घोषणा की है, उससे कोरोना वायरस की कमर टूटे या न टूटे गरीब की कमर जरूर टूटने वाली है। वैसे इस घोषणा से पहले ही देशभर में विभिन्न राज्य सरकारें पहले ही अपने-अपने यहाँ आंशिक या पूर्ण नाकेबंदी कर चुकी हैं, यातायात और परिवहन साधनों पर रोक लगाई जा चुकी है, कारखानों-कार्यालयों और दुकानों को बंद कर दिया गया है। अत: आर्थिक संकट के जो बादल पहले से ही मंडरा रहे थे, प्रधानमंत्री की इस घोषणा के उपरांत वे और ज्याादा गहरा गये हैं। इस आर्थिक संकट का सबसे ज्यादा असर पड़ने वाला है – अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगाररत कामगार वर्ग के ऊपर। अपने घरों से सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर की दूरी पर मेहनत-मजदूरी कर रहे दलित-आदिवासी-पिछड़े लोग आर्थिक गतिविधियों के थम जाने से खुद को असहाय पा रहे हैं। गलियों-कॉलोनियों और सड़कों पर ठेले-खुमचे लगा अपना जीवन-यापन करने वाले छोटे-छोटे विक्रेताओं के घरों में मातम सा पसर गया है।
महानगरों और दूसरे बड़े शहरों में कामबंदी होने के कारण आप्रवासी कामगार तबका बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड-छत्तीसगढ़ सरीखे निर्धन राज्योंं में अपने घरों की ओर वापस लौटने को मजबूर हुआ है किंतु रेल-सड़क का चक्का जाम कर दिए जाने के कारण ये लोग आसमान से गिरे खजूर पर अटके की स्थिति में बीच में ही फंसकर रह गए हैं। विडम्बना देखिए कि जो आप्रवासी कामगार अपनी कर्मभूमि बन चुके दूसरे राज्यों से अपनी जन्मभूमि रहे राज्योंं में जैसे-तैसे वापस भी लौटे हैं, तो उनके साथ सामाजिक अस्पृश्यता का व्यवहार किया जा रहा है। कोरोना के डर से वे अपने ही घर-समाज में अछूत बन जाने को अभिशप्त हैं। इन आप्रवासी कामगारों के प्रति सरकार और समाज का रुख जिस प्रकार वर्गीय पूर्वाग्रहों से भरा हुआ है, वह भी ध्यातव्य है। एक ओर इन आप्रवासी कामगारों को वायरस के संभावित संचरण-संक्रमण का वाहक मानकर घोषित-अघोषित रूप से उनकी घर वापसी पर रोक लगाई जा रही है, वहीं दूसरी ओर विदेश में अटके हुए भारतीयों की घर वापसी के लिए विशेष कदम तक उठाये गए हैं। बेहतर जीवन संभावनाओं की तलाश में विदेश जाने वाला अमीर वर्ग जब कोरोना ग्रसित देशों में फंसने लगता है, तो केंद्र की बुर्जुआ सरकार वर्गीय हितों से संचालित हो देशभक्ति की आड़ में इन लोगों की देश वापसी सुनिश्चित करने में जुट जाती है। यह जानते-बूझते हुए भी कि चीन से लौटने वाले हवाई यात्रियों के साथ-साथ यूरोप से लौटने वाले लोग भी कोरोना वायरस अपने साथ ला सकते हैं, उन्हें लगभग पूरे फरवरी माह में बेरोक-टोक आने दिया गया, कई मामलों में तो समुचित स्वास्थ जाँच प्रक्रिया से भी नहीं गुजारा गया। यूरोप से आने वाले इन लोगों की आवाजाही पर यथोचित निगरानी और प्रतिबंध नहीं लगाने के कारण ही संभवत: आज कोरोना का संक्रमण आपदा का रूप लेता जा रहा है।
प्रधानमंत्री कोरोना से लड़ने के लिए जनता कर्फ्यू और थाली-कटोरा बजाने का राष्ट्री के नाम संदेश देकर कोरोना योद्धाओं (स्वास्थ कर्मियों, सफाईकर्मियों और पुलिसवालों आदि) के उत्साहवर्धन की मुहिम चलाते हैं और इस मुहिम को कोरोना के खिलाफ जनजागरुकता का नाम भी देते हैं। लेकिन जुबानी जमा खर्च के अलावा वे इस स्वास्थ्य आपदा के साथ नाभिनाल जुड़े आर्थिक संकट में अपने अस्तित्वु के लिए जूझते असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए एक भी ठोस घोषणा नहीं करते। कोरोना और उससे संबद्ध कोविड-19 जैसी महामारी पर रोक लगाने के लिए जो कामबंदी की गई है, उससे गरीबों की आर्थिक नब्ज रुक सी गई है। इस वैश्विक हो चुके इंडिया में भी देश का एक बड़ा तबका ऐसा है जो रोज कुँआ खोदता है और पानी पीता है। कोरोना अपने साथ जो आर्थिक सुनामी लेकर आया है, उसने इस तबके को बेरोजगार बना इसकी रोजी-रोटी छीन ली है। इस बेरोजगार गरीब भारत के लिए कोरोना जैसे वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है भूख का वायरस और गरीबी की मार। फणीश्वर नाथ रेणु आजादी के तुरंत बाद ही ‘मैला आँचल’में भूख के इस वायरस को, गरीबी की इस बीमारी को भांप चुके थे।
किंतु आजादी के इतने सालों बाद भी भूख और गरीबी के वायरसों पर हम विजय नहीं पा सके हैं। वस्तुभस्थिति तो यह है कि उदारीकरण के वर्तमान दौर में विशेषत: एनडीए सरकार के पिछले और वर्तमान शासनकाल भूख और गरीबी के इन वायरसों के लिए हनीमून पीरियड रहे हैं। जनकल्याण से जुड़ी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को पूँजीवादी मीडिया के माध्यूम से करदाताओं के ऊपर अनावश्यक बोझ बता जिस प्रकार लगातार समाप्त किया गया है, उनका बजट आवंटन घटा उन्हें मृतप्राय: बना दिया गया है, उस सबके चलते कोरोना की महामारी के बीच आर्थिक संकट में गरीब भारत वेंटिलेटर पर जाने वाला है और यह लेख लिखे जाने तक केंद्र सरकार के पास इसे बचाने के लिए कोई विशेष आर्थिक पैकेज भी नज़र नहीं आ रहा है। केरल और दिल्ली जैसे कुछ गैर भाजपाई शासन वाले राज्यों ने जरूर कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं लेकिन राज्यन सरकारों की अपनी बजटगत और संसाधनगत सीमाएँ हैं।
देश भर में की जा रही समग्र नाकेबंदी के कारण शायद कोरोना के संचरण-संक्रमण पर कुछ हद तक लगाम लग भी जाए लेकिन इस नाकेबंदी की सफलता के लिए जरूरी है कि अमीर इंडिया की तरह गरीब भारत भी अपने घरों में बंद रहे। लेकिन अमीरों के इंडिया की तरह गरीबों के इस भारत के पास अपने घर में निठल्ला बैठने की क्षमता है ही कहाँ! पूँजीवादी मीडियाई खुमार में आपादमस्तिक डूबे हुए हम आत्मरमुग्ध भारतीय चाहे इस मुगालते में रहते रहें कि हम विश्व की आर्थिक शक्तियों में शुमार हो चुके हैं, लेकिन जमीनी सच्चामई तो यही बताती है कि दुनिया के समृद्ध देशों की तुलना में हमारा सामाजिक सुरक्षा तंत्र बहुत ही ज्यारदा लचर है। अमेरिका और यूरोप के देशों में सुदृढ़ सामाजिक सुरक्षा तंत्रों के बलबूते कम से कम कुछ समय के लिए तो समग्र नाकेबंदी को व्यावहारिक धरातल पर उतारा जा सकता है किंतु समग्र नाकेबंदी की हमारे पास वैसी क्षमता है ही नहीं विशेषत: वर्तमान आर्थिक संकट में रोजी-रोटी के लिए जूझते गरीब बेरोजगार भारत के लिए निठल्ला बैठना अपने आप में आत्महत्या करने सरीखा है। इसे कानून व्यवस्था का सवाल बता घर से बाहर निकलने वालों पर पुलिसिया कार्रवाई से भी कुछ नहीं होने वाला है।
अस्तुे, देश के गरीबों को समग्र नाकेबंदी का नैतिक राष्ट्रवादी उपदेश देने के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों को इस समग्र नाकेबंदी को सफल बनाने के लिए सामाजिक सुरक्षा तंत्र को भी दुरुस्त करना होगा। देश में कोरोना वायरस संक्रमण की आपात स्थिति को देखते हुए सामने खड़ी आर्थिक सुनामी से लड़ने के लिए तुरंत प्रभाव से बड़े पैमाने पर आर्थिक राहत के कदम उठाने होंगे। समय की कमी को देखते हुए सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी जो कुछ भी योजनाएँ और कार्यक्रम इस उदारीकरण के दौर में शेष बचे हुए है, उन्हें युद्ध स्तर पर चलाना होगा। गरीब, बेरोजगार और असहाय भारत को ध्यान में रखते हुए विशेष कोरोना भत्ता दिया जा सकता है। राशन वितरण के सार्वजनिक तंत्र के माध्यम से जरूरतमंदों को एकाध महीने का एकमुश्त राशन मुहैया कराना और मनरेगा की बकाया मजदूरी के साथ पेंशन की त्वरित अदायगी जरूरी है। निजी और सरकारी क्षेत्र में कामबंदी के दौरान भी वेतन का नियमित भुगतान अपेक्षित है। पेंशन और राहत का अग्रिम भुगतान एक बड़ी राहत ला सकता है।
सार्वजनिक सेवाओं और सरकारी कार्यालयों को एक सिरे से पूरी तरह बंद करना भी आर्थिक संकट को और गहरा सकता है। इस प्रकार की नाकेबंदी में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को अपने विवेक से काम लेना चाहिए। सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं, परिवहन सेवाओं समेत स्थानीय प्रशासनिक कार्यालयों के कामकाज पर पूरी तरह से रोक लगाने से पहले यह देखना होगा कि ऐसे कदमों से गरीब भारत की रोजी-रोटी और स्वास्थ पर कम से कम प्रतिकूल असर पड़े। सबसे ज्यादा जरूरत के समय गरीबों के अस्तित्व रक्षा में काम आने वाली सेवाओं को जरूरी एहतियातों के साथ चालू रखा जाना नितांत आवश्यक है। रबी की फसलों की कटाई का मौसम भी अब सिर पर आ गया है अत: रबी उत्पादों की सरकारी खरीद और निजी क्षेत्र की मंडियों-दुकानों पर समुचित कीमतों पर उनकी बिक्री भी सरकार को सुनिश्चित करनी होगी।
स्पष्टत: गरीब भारत को बचाने के लिए इस संकट की घड़ी में आवश्यक सेवाओं को चालू रखना और उनका विस्तार करना जरूरी है। सामाजिक सुरक्षा तंत्र की सेहत सुधारकर इन सेवाओं को हर हाल में चलाए रखना आवश्यक है। इस सबके लिए केंद्र सरकार से जहाँ एक बड़ी धनराशि अपेक्षित है, वहीं जुगाड़ करने की रचनात्माक सोच भी जरूरी है। उदाहरण हेतु सार्वजनिक वितरण तंत्र का विस्तार करते हुए इससे संबद्ध संग्रहण और वितरण के साथ-साथ विशेष कोरोना वार्ड बनाने के लिए भी बंद कर दिए गए स्कू्ल-कॉलेजों का इस्तेतमाल किया जा सकता है। ध्यानतव्य है कि आईआईटी बॉम्बे के खाली कराए जा चुके छात्रावासों और बंद पड़ी कक्षाओं समेत अन्य भवनों का इस्तेमाल कोरोना संक्रमित लोगों को अलग-थलग रख उनका उपचार करने हेतु किया जाना तय हो चुका है। आँगनबाड़ियों को भी राशन के सार्वजनिक वितरण और कोरोना के खिलाफ जागरुकता फैलाने के लिए काम में लिया जा सकता है। आने वाली गर्मियों को देखते हुए पेयजल की माकूल व्यवस्था भी घर-घर तक करने की जरूरत है अन्यथा पेयजल के लिए हम लोगों के सामाजिक जुटान को नहीं रोक पाएंगे।
अस्तु, सिर्फ स्वास्थ्य विषयक जागरुकता फैलाने और कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए समग्र नाकेबंदी करने मात्र से कोरोना के खिलाफ हिंदुस्तान जंग नहीं जीत पाएगा और इस जंग की भारी कीमत भी गरीब भारत को ही चुकानी पड़ेगी। प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अंतत: 15 हजार करोड़ के बजट की जो घोषणा की है, वह संसाधनों की कमी से जूझ रहे चिकित्साच क्षेत्र के लिए किंचित राहत की बात हो सकती है किंतु कोरोना संकट को अर्थव्यवस्था के संकट के साथ जोड़े बिना हम संकट की इस घड़ी में गरीब भारत को नहीं बचा पाएंगे। हमें याद रखना चाहिए कि कोरोना वायरस तो वर्ग के स्तर पर भेदभाव नहीं करता किंतु इससे संबद्ध आर्थिक सुनामी की सबसे ज्यादा मार गरीबों पर ही पड़ने जा रही है। नोटबंदी से अभी तक उबर न पाई भारतीय अर्थव्यवस्था कोरोना की इस सुनामी को झेलने के लिए भी अभिशप्त नज़र आती है।
(लेखक डॉ. प्रमोद मीणा, आचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी और भाषा संकाय, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वतविद्यालय, जिला स्कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार सं संबद्ध हैं। संपर्क 7320920958 )
प्रधानमंत्री जी कल (25 मार्च) एनडीटीवी के प्राइम टाइम में दुनिया के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री-आम आदमी के आर्थशास्त्री- ज्यां द्रेज ने कोरोना वायरस के खिलाफ संघर्ष के लिए चार-पांच सुझाव दिए हैं।
प्रधामंत्री जी आप तो जानते हैं कि कोरोना वायरस के खिलाफ संघर्ष के दो मोर्चे हैं। पहला स्वास्थ्य सेवाओं से जुडा है। जिसमें कोरोना की टेस्टिंग सुविधा से लेकर, स्वास्थ्य उपकरणों-विशेषकर वेंटिलेटर- का इंतजाम, स्वास्थ्य कर्मियों के लिए सुरक्षा कीट्स की व्यवस्था आदि शामिल हैं। लेकिन जैसा कि आप ने कहा इसे रोकने का एकमात्र उपाय सोशल डिस्टेंसिंग (यानि सामाजिक अलगाव) बताया है,जिसके लिए आपने पूरे देश में लॉक डाउन की घोषणा की है।
लेकिन लॉक डाउन के बाद असंगठित क्षेत्र के अधिकांश लोगों के रोजी-रोटी के साधन छीन गए हैं। इसमें करीब तीन तरह लोग हैं। एक वे जो हर-दिन कमाते हैं और खातें हैं और जिनके पास अगले दिन के लिए कोई बचत नहीं होती, दूसरे वे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह या पंद्रह दिन बिना काम के भी भोजन का इंतजाम कर सकते हैं। तीसरे वे जिनके पास महीने भर या इसके कुछ अधिक का इंतजाम हैं। यानि इस देश की करीब 60 प्रतिशत यानि 78 करोड़ के आस-पास की आबादी ऐसी है, जो औसत तौर पर एक महीने से अधिक बिना काम या सरकारी मदद के रोजी-रोटी का इंतजाम नहीं कर सकती है।
इन सभी लोगों के हितों के लिए ज्यां द्रेज ने कुछ जरूरी सुझाव दिएं हैं। जो निम्न हैं-
1- राशन कार्ड से मिलने वाले राशन को दो गुना कर दीजिए और तीन महीने महीने तक मुफ्त में राशन उपलब्ध कराइए। इसमें बीपीएल और एपीएल का बंटबारा भी भी मत कीजिए। बीपीएल और एपीएल सभी कार्ड धारकों को राशन दीजिए। इसमें मेरा सुझाव यह भी है कि इन राशन की दुकानों से राशन कार्ड पर तेल-चीनी एवं साबुन भी उपलब्ध कराइए।
प्रधानमंत्री जी आपको मालूम होगा कि भारतीय खाद्यान्न निगम के पास जरूरत से ज्याद स्टॉक है। इस समय निगम के 74.2 मिलियन टन का भंडार है, जबकि आवश्यक भंडार की अधिकतम सीमा सिर्फ 41.12 मिलियन टन है। यानि निगम के पास 33.08 मिलियन टन अधिक का भंडार है। यह कई महीनों तक राशन मुहैया कराने के लिए पर्याप्त है। और जो आवश्यक भंडार है, वह भी संकट के समय के लिए ही किया जाता है। इससे बड़ा संकट समय कौन सा आयेगा प्रधानमंत्री जी।
प्रधानमंत्री निगम के पास जो भंडार है, वह कहीं विदेश से नहीं आया है, न आसमान से टपका है। यह पूरा भंडार देश के किसानों-मजदूरों की गाढ़ी मेहनत से उपजा है और देश की जनता के टैक्स की कमाई से उसे खरीद कर ऱखा गया है और उसका रख-ऱखाव किया जा रहा है। आखिर किस दिन काम आयेगा।
ज्यां द्रेज का सुझाव मानिए। देश के राशनकार्ड धारियों को तीन महीने तक दो गुना और बिना दाम के राशन उपलब्ध कराने की घोषणा कीजिए और उसे लागू कराइए।
2- ज्यांद द्रेज ने दूसरा सुझाव दिया है कि बूढ़े, विधवा और विकलांग लोगों की पेंशन को दो गुना कर दीजिए। सारी पेंशन जल्द से जल्द जारी कर दीजिए। केरल की तरह कुछ महीनों की पेंशन एडवांस में दे दीजिए।
3- मजदूरों-गरीबों किसानों और ठेला-रेहड़ी लगाने वालों के खातों में सीधे पैसा ट्रांसफर कीजिए। ज्यां द्रेज इसका तात्कालिक तौर पर तरीका भी बताया है। सबसे पहले मनरेगा की मजदूरों के खातों में पैसा डालिए। इसके साथ मेरा सुझाव यह है कि जितने लोगों का जन-धन खाता आप ने खुलवाया था। उसमें भी सीधा पैसा ट्रांसफर कीजिए।
4-ज्यां द्रेज ने शहरों में फंसे प्रवासी मजदूरों के लिए रिलिफ कैंप खोलने का सुझाव दिया है। पूरे देश में ऐसे मजदूरों की संख्या करोड़ों में है। इन रिलिफ कैंपों में सोशल डिस्टेंसिंग के साथ रहने- खाने का इंतजाम कीजिए।
ज्यां द्रेज ने यह भी बताया कि इसके लिए करीब 3 से 4 लाख करोड़ खर्च होगा। प्रधामंत्री जी यह देश के 78 करोड़ लोगों को बचाने के लिए कुछ ज्याद पैसा नहीं है। आपने ने अपने कार्पोरेट मित्रों को पलक झपते ही 1 लाख 50 हजार करोड़ की छूट बजट के पहले ही दे दिया था। इसके साथ ही आरबीआई से सरप्लस और लाभांश के रूप में आपने 1 लाख 76 हजार करोड़ रूपया ले लिया और अपने कार्पोरेट मित्रों को विभिन्न रूपों में सौंप दिया। कार्पोरेट टैक्स में छूट और उनके द्वारा लिए कर्जों को एनपीए (माफ) करके।
आप अपने चंद कार्पोरेट मित्रों को पलक झपते 1 लाख 50 हजार करोड़ की सौगात दे सकते हैं। तो क्या देश की 78 करोड़ जनता के लिए यह देश 3 से 4 लाख नहीं खर्च कर सकता है। माना ये लोग (आम जनता) आपके अडानी-अंबानी जैसे मित्र नहीं हैं, लेकिन हैं तो इस देश के ही लोग। इनका भी खयाल करिए।
इसके अतिरिक्त करीब 2 लाख करोड रूपए स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जरूरत पड़ेगी।
यानि कुल करीब 5 लाख करोड़ की जरूरत है। इस धन इंतजाम अधिकांश राज्य सरकारें नहीं कर सकती हैं। केंद्र सरकार ही कर सकती है। ज्यां द्रेजे ने यह भी कहा है कि जरूरत हो तो वित्तीय घाटा बढ़ने दीजिए।
प्रधानमंत्री इसे महाभारत का युद्ध मत बनाइए। जिसमें दोनों पक्षों के अधिकांश लोग मारे दिए गए था। एक उल्लेख के मुताबिक इस युद्ध में दोनों पक्षों से करीब 4 5 लाख लोग शामिल हुए थे, जिसमें सिर्फ 18 योद्धा बचे थे। बहुसंख्यक लोगों को बचाने के बारे में सोचिए। मरने के लिए मत छोडिए। ज्यां द्रेज का सुझाव मान लिजिए।
(एनडीटीवी के प्राइम टाइम शो की प्रस्तुति की स्मृति के आधार पर, कुछ चीजें मैंने जोड़ी हैं)
नौकरी में पदोन्नति हेतु मलाईदार वर्ग की अवधारणा अनुसूचित जाति (एस.सी.) और अनुसूचित जनजाति (एस.टी.) पर लागू की जानी चाहिए या नहीं, यह जाँचने के लिए केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय से सात न्यायधीशों की पीठ गठित करने की अपील की है. इस बारे में दि हिंदू के लिए के. वेंकटरमन द्वारा एक बातचीत सुखदेव थोराट और अश्विनी देशपांडे से की गई. यहां हम सुखदेव थोराट के पक्ष को दे रहे हैं.
मलाईदार वर्ग की अवधारणा को आरक्षण पर और विशेष तौर पर एस.सी. और एस.टी. पर लागू करने के विचार विषयक एक संदर्भ क्या आप हमें दे सकते हैंॽ सुखदेव थोराट: राजनीति, नौकरियों और संस्थानों में एस.सी. को आरक्षण विशेष रूप से इसलिए दिया गया है क्योंकि वे लगभग 2000 सालों तक संपत्ति, शिक्षा और उद्योगों के अधिकार से वंचित थे. इसके अतिरिक्त उनके साथ अस्पृश्यों सरीखा व्यवहार किया जाता था. समाज में भेदभाव आज भी जारी है. अतीत के बहिष्कार के लिए एक सीमा तक (भेदभाव के खिलाफ) सुरक्षा उपाय और क्षतिपूर्ति मुहैया कराना ही आरक्षण के पीछे का मुख्य तर्क था. अपनी आबादी के हिस्से के अनुसार उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए. कारण कि अन्यथा नौकरियों, उद्योगों और कृषि में जारी भेदभाव के कारण वे अपना देय भाग नहीं पा सकेंगे.
वे भूमिहीन ही बने हुए हैं. मेरा मानना है कि पुनरुद्धार या क्षतिपूर्ति की नीति होनी चाहिए थी. ऐसा नहीं हुआ है. जो हम कर रहे हैं, वह वर्तमान में भेदभाव के खिलाफ कुछ संरक्षण दे रहे हैं और जनसंख्या के अनुपात में कुछ हिस्सा दे रहे हैं. अत: सर्वोच्च अदालत जाने की जगह सरकार को एक समिति गठित करनी चाहिए थी और जांचना चाहिए था कि नौकरी के अंदर लोग भेदभाव का सामना करते हैं या नहीं करते. मेरा अनुभव है कि एक बार जब आप नौकरी में घुस जाते हैं तो भारी भेदभाव होता है. नौकरियों में भेदभाव की शिकायत करते हुए एस.सी./एस.टी. आयोग के पास लगभग 12,000 मामले लंबित हैं. इसलिए उन्हें पदोन्नति में भी आरक्षण की जरूरत है.
आपको किसी सीमा तक ऐसा लगता है कि पिछड़ेपन की परख, प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और प्रशासनिक कार्यकुशलता पर आरक्षण का असर एस.सी./एस.टी. उम्मीदवारों के भविष्य को प्रभावित करता है या नहीं करता हैॽसुखदेव थोराट: आरक्षण नीति जैसे विधेयात्मक कदम भेदभाव विरोधी हैं; यह आर्थिक विचार पर आधारित नहीं है क्योंकि भेदभाव आपकी आर्थिक स्थिति से स्वतंत्र होता है. महिलाएं आरक्षण की मांग कर रही हैं. क्या उन्होंने कभी यह मुद्दा उठाया है कि अपेक्षाकृत समृद्ध महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण नहीं लेना चाहिएॽ कारण कि उनके साथ लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है, चाहे वे गरीब हों या न हों. अत: मेरा मानना है कि यह स्पष्टता वहां रखनी होगी.
मेरा दृष्टिकोण यह है कि आर्थिक रियायत नहीं देनी चाहिए. उन्हें अनुदान, छात्रवृत्ति मत दीजिए क्योंकि उनमें से कुछ आर्थिक रूप से समृद्ध होते हैं. किंतु आप इस तर्क को इस सीमा तक विस्तारित नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से समृद्ध लोगों को आरक्षण नहीं देना चाहिए. इसलिए मेरा मानना है कि सर्वोच्च अदालत को अकादमिक ढंग से इस बिंदु को समझना है; मैं नहीं मानता कि यह कोई वैधानिक मुद्दा है.
अगर सीमा को लेकर कोई सवाल है, तो सीमा को संशोधित किया जा सकता है. अगर पदोन्नति से दूसरों को नुकसान होता है तो उनकी सहायता करने के दूसरे तरीके भी हैं. सर्वोच्च अदालत को इसके ऊपर 50 प्रतिशत या कोई अन्य कानूनी सीमा नहीं थोपनी चाहिए. एस.सी./एस.टी. के लिए आरक्षण को बनाये रखते हुए गैर एस.सी./एस.टी. को लाभ पहुंचाने के वैकल्पिक रास्ते पता कीजिए.
पिछड़ेपन की जाँच एक अन्य आयाम है. जरनैल सिंह वाले मामले में अदालत को लगा कि पिछड़ेपन की परख सभी एस.सी./एस.टी. पर लागू नहीं होनी चाहिए. लेकिन उसी समय इसने मलाईदार तबके की अवधारणा को लागू करने की वकालत भी कर डाली. क्या यहाँ कुछ विरोधाभास नहीं है ॽ सुखदेव थोराट: हाँ, मेरा मानना है कि विरोधाभास है. एक तरफ वे कहते हैं कि पिछड़ेपन का कोई पैमाना या सूचकांक एस.सी. और एस.टी. पर लागू नहीं होना चाहिए. दूसरी तरफ वे अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से समृद्ध कुछ एस.सी. लोगों को बाहर करने के लिए उसी आर्थिक पैमाने को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर न्यायालय को कोई फैसला लेना ही है तो इसे एस.सी. और एस.टी. के लोगों द्वारा झेली जा रही अस्पृश्यता और भेदभाव के रिवाज के अध्ययन हेतु सरकार से एक व्यापक समीति गठित करने के लिए कहना चाहिए. अदालत को अपनी स्थिति संशोधित करनी चाहिए और देखना चाहिए कि जीवन के सभी क्षेत्रों में वे लगातार भेदभाव झेल रहे हैं. अगर कोई समुदाय भेदभाव का सामना नहीं करता है तो आप गरीबों के लिए गरीबी विरोधी नीति विकसित कर सकते हैं. लेकिन जब भेदभाव रहता है तो आप दुनियाभर में पृथक नीति रखते हैं.
जिस बिंदु को हम दोनों दोहरा रहे हैं, वह यह है कि दलितों के आरक्षण का कारण आर्थिक पिछड़ापन नहीं है. यह तो वह लांछन है जो अस्पृश्यता की स्थिति के कारण आता है. और यद्यपि कानूनी रूप से अस्पृश्यता का उन्मूलन कर दिया गया है लेकिन बहुत सारे आंकड़ें हैं जो दिखाते हैं कि लोग अभी भी अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं. इसलिए जो कलंक अछूतपन की स्थिति के कारण आता है… आरक्षण तो उसके लिए एक छोटा सा प्रतिकारी उपाय है. अस्पृश्यता के कारण आर्थिक पिछड़ेपन और लांछन को एक साथ जोड़ने का यह सतत् प्रयास गलत है. कारण कि आप आर्थिक पिछड़ेपन पर बात कर सकते हैं, लेकिन दलितों के लिए आपको इस लांछन को दूर करना होगा.
एक तर्क यह था कि जबकि प्रवेश स्तर पर एक व्यक्ति वास्तविक रूप से वंचित होता है और आरक्षण एक उपचारात्मक साधन है, किंतु जैसे ही वह आय और पद, दोनों की सीढ़ी पर ऊपर पहुँचता है, तो पदोन्नति में आरक्षण की संभवत: कोई आवश्यकता ही उसे न हो. और यह भी कि उस स्तर पर मलाईदार वर्ग की अवधारणा लागू होनी चाहिए. सुखदेव थोराट: हम इस बिंदु पर बल दे रहे हैं कि आरक्षण या सकारात्मक कार्रवाई भेदभाव पर आधारित होती है जो उन समान अवसरों को नकारना है जिनसे दूसरे लाभ उठाते हैं. और आर्थिक रूप से समृद्ध लोग भी भेदभाव का शिकार होते हैं, ये भेदभाव का शिकार होते हैं नौकरी में और दूसरे क्षेत्रों में. उन्हें भी सुरक्षा उपाय की आवश्यकता पड़ती है और यह सुरक्षा उपाय होता है- सकारात्मक कार्रवाई की नीति. जो मैंने कहा था, वह यह भी है कि चूँकि वे आर्थिक तौर पर बेहतर स्थिति में होते हैं, तो उन्हें अनुदान सरीखे आर्थिक फायदें मत दीजिए. वे इनका वहन कर सकते हैं किंतु आप इस तर्क को यह कहने तक विस्तारित नहीं कर सकते कि समृद्ध लोगों से आरक्षण छीन लेना चाहिए. पदोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता है क्योंकि वे पदोन्नति में भेदभाव झेलते हैं. इसे लेकर हमारे पास अध्ययन नहीं हैं. सर्वोच्च अदालत और सरकार को ऐसे अध्ययन पर हाथ लगाना चाहिए.
आरक्षण एक प्रकार की क्षतिपूर्ति है. सार्वजनिक क्षेत्र नौकरियों का एक बहुत छोटा हिस्सा ही रखता है. और वहीं वे कुछ हिस्सा पाते हैं. निजी क्षेत्र में भेदभाव के खिलाफ उन्हें कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है. आप जो अपेक्षा रखते हैं, वह है दो हजार साल के दमन की क्षतिपूर्ति. हमें उन्हें भूमि देनी होगी, उद्योग आरंभ करने और शिक्षा के लिए वित्त जुटाना होगा. आपको आरक्षण द्वारा अनुपूरक क्षतिपूर्ति और नुकसान की भरपाई वाली व्यापक नीति की आवश्यकता है.
अदालत मात्रात्मक आंकड़ों पर जोर देती है- चाहे ये पिछड़ेपन को लेकर हों या चाहे अपर्याप्त प्रतिनिधित्व या कार्य कुशलता के सवाल को लेकर हों. क्या आप मानते हैं कि यह सरकार से एक बहुत ही भारी अपेक्षा है कि हर चीज को मात्रात्मक आंकड़ों में प्रदर्शित किया जाएॽ सुखदेव थोराट: मैं यह कहना चाहूँगा कि एस.सी. और एस.टी. (अत्याचार निवारण) अधिनियम और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम के तहत यह सरकार की जबावदेही है कि दलितों के द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव और अस्पृश्यता की प्रकृति को सामने लाने के लिए वह हर पाँच साल पर अध्ययन कराए. सरकारी एस.सी./एस.टी. आयोग की रपटों में अस्पृश्यता पर एक पृथक अध्ययन होना अपेक्षित होता है. वह रपट पिछले 20 सालों से या लगभग इतने ही समय से सामने नहीं आई है. सरकार ने कोई अध्ययन भी नहीं करवाया है. गुणात्मक रिश्तों को चिह्नित करने वाली संख्यात्मक पद्धतियाँ हैं जो लेकिन दुर्भाग्य से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा ऐसे सर्वेक्षणों को अनदेखा किया गया है.
जिस रूप में आरक्षण नीति आज अस्तित्व में है, वह सहायक रही है और यह गरीब हितैषी नीति है. 60 प्रतिशत से ज्यादा सरकारी कर्मचारी तृतीय या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं और वे गरीब तथा कम पढ़े-लिखे हैं. ठीक इसी समय सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों का बड़े पैमाने पर निजीकरण हो रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र तेजी से संविदा पर नौकरियों निकाल रहा है जिनके लिए कोई आरक्षण नहीं है. अत: निजी क्षेत्र तक भी समान रूप से आरक्षण को विस्तारित करने की आवश्यकता है.
(इस साक्षात्कार कोडॉ. प्रमोद मीणा ने अनुवाद किया है। वह महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी में शिक्षक हैं। संपर्कः7320920958)
यह मेरे लिए बड़ा दिन था. 31 जनवरी 2020 का दिन. यह दिन इसलिए भी बड़ा था क्योंकि मैं पिछले पांच सालों से इस दिन का इंतजार कर रहा था. वजह इस दिन बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरे हो रहे थे. ‘दलित दस्तक’ के मंच से और सोशल मीडिया के जरिए भी हम घोषणा कर चुके थे कि हम इस दिन को धूमधाम से सेलिब्रेट करेंगे. क्योंकि अम्बेडकरी पत्रकारिता से 100 साल का जश्न खामोशी और कामचलाऊ ढंग से नहीं मनना चाहिए था. हमने वही किया, बाबासाहेब को एक पत्रकार के रूप में याद करने की बेहतर कोशिश की. हमने मूकनायक के शताब्दी वर्ष का आयोजन दिल्ली के सबसे महंगे और प्रमुख जगह पर किया. 15 जनपथ स्थित ‘डॉ. अम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर में.
कार्यक्रम में 17 राज्यों से लोग पहुंचे. शुक्रवार का दिन था, वर्किंग डे था, फिर भी भारी संख्या में पहुंच कर आपलोगों ने इस कार्यक्रम को सफल बनाया. आप सबका बहुत धन्यवाद. इसके आयोजन में व्यस्तता के कारण हम जनवरी और फरवरी का अंक एक साथ निकाल रहे हैं. इसके लिए आपसे क्षमायाचना है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि दलित दस्तक ने जो मुहिम शुरू की थी, उसका असर देश भर में हुआ और देश के कई हिस्सों में ‘मूकनायक’ का शताब्दी वर्ष समारोह मना. अंग्रेजी अखबार ‘हिन्दुस्तान टाईम्स’ ने इस पर 26 जनवरी को बड़ी स्टोरी की तो ‘द हिन्दू’ ने विशेष आर्टिकल प्रकाशित किया. मराठी दैनिक ‘लोकमत’ ने कार्यक्रम की पूर्व सूचना देने से लेकर कार्यक्रम की रिपोर्टिंग की और बाद में विशेष लेख भी प्रकाशित किया. हिन्दी के ‘हरिभूमि’ अखबार ने खबर छापी तो ‘नवभारत टाईम्स’ और ‘न्यूज 18’ की वेबसाइट के अलावा फारवर्ड प्रेस ने भी इसको कवर किया. बीबीसी ने भी इस पर आर्टिकल प्रकाशित किया और दलित दस्तक के कार्यक्रम का भी जिक्र किया. कुल मिलाकर हम अपनी कोशिश में सफल रहे और मूकनायक के जरिए बहुजन मीडिया की चर्चा तेज हुई. साथ ही भारत के पत्रकारिता जगत में ‘मूकनायक’ का महत्व फिर से स्थापित हो पाया.
लेकिन इतने भर से ही बहुत खुश हो जाने का मतलब नहीं है. इस कार्यक्रम के बाद अम्बेडकरी पत्रकारिता को बेहतर ढंग से स्थापित करने की हमारी-आपकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. मैं बार-बार कहता हूं कि एक मासिक पत्रिका और यू-ट्यूब के जरिए समाज के भीतर जागरूकता तो आ रही है लेकिन हम सत्ता और प्रशासन पर दबाव नहीं बना पा रहे हैं. इसका नुकसान यह हो रहा है कि हम आपकी समस्याओं को लेकर मजबूती से लड़ाई नहीं लड़ पा रहे हैं. क्योंकि इसके लिए कम से कम एक साप्ताहिक अखबार या फिर ऐसे चैनल की जरूरत है, जहां गंभीरता से चर्चा हो सके.
जब हम कार्यक्रम के आयोजन हेतु देश के अलग-अलग हिस्सों में लोगों से संपर्क कर रहे थे तो कई पाठकों ने दैनिक अखबार और चैनल की जरुरत पर बल दिया. दलित दस्तक अभी दस हजार लोगों के घरों में जा रही है. पिछले कई सालों से हम यह कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम 100 ऐसे लोगों को जोड़ सकें, जो साल में एक बार एक निश्चित राशि का योगदान दें. मुझे नहीं लगता कि यह इतना मुश्किल काम है. क्या हमारे बीच 100 लोग ऐसे नहीं हैं जो साल में एक बार 10 हजार रुपये का योगदान दे सकें?? अगर सक्षम लोग सामने नहीं आएंगे तो वंचितों की मीडिया बनाने का सपना कैसे पूरा होगा?
आर्थिक अभाव वंचितों की पत्रकारिता को लील जाने को तैयार बैठा है. इसे आपलोग ही बचा सकते हैं. जब हम मूकनायक के शताब्दी वर्ष का उत्सव मना रहे हैं तो हमारे लिए जरूरी है कि हम वंचितों की मीडिया बनाने के सपने को आगे लेकर बढ़ें. यह सपना हम मिलकर देखेंगे तभी सफल होंगे. क्योंकि जब हम वंचित समाज का सशक्त मीडिया बनाने की बात करते हैं तो बात सिर्फ विज्ञापन की नहीं होती, बात विचार की भी होती है. हमें बाजार (विज्ञापन) और विचार का सामंजस्य बनाकर चलना होगा. यह एक बड़ी चुनौती है, लेकिन हम मिलकर इस पर जीत हासिल कर सकते हैं. क्या हम मूकनायक के शताब्दी वर्ष में वंचित समाज का सशक्त मीडिया स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं. सोचिएगा जरूर, अगर आपके अंदर से ‘हां’ की आवाज आती है तो फिर संपर्क करिएगा.
नोटः दलित दस्तक ने अपना एक एप ‘Bahujan Today’ के नाम से लांच किया है. आप सबसे निवेदन है कि तुरंत Play Store पर जाकर इसको डाउनलोड करिए. इसको अच्छी रेटिंग दीजिए. हम इसके जरिये भी आपसे जुड़े रहेंगे.