मध्यप्रदेश उपचुनाव: कौन बनेगा उपचुनाव का बादशाह

Written By- सम्राट बौद्ध
2018
के मध्यप्रदेश चुनाव के समय और चुनाव के बाद मीडिया ने एक बड़ा भ्रम खड़ा किया कि एससी-एसटी एक्ट के मुद्दे पर सवर्ण बीजेपी से नाराज हैं और वे बीजेपी के खिलाफ वोट करेंगे। इस भ्रम का सबसे ज्यादा असर रहा ग्वालियर चंबल सम्भाग में जहां 2 अप्रैल 2018 को दलितों और सवर्णों के बीच कई जगह खूनी संघर्ष हुए और कई लोग मारे गए। इसी क्रम में नवम्बर 2018 में विधानसभा चुनाव होते हैं और परिणाम के रूप में ग्वालियर चंबल संभाग में बीजेपी लगभग समाप्त हो जाती है। इस बात को कुछ इस तरह समझिए कि इस चुनाव में पीएम मोदी ने ग्वालियर में सभा की जिसमें इस क्षेत्र के 22 प्रत्याशी मंच पर थे उनमें से केवल 1 प्रत्याशी मात्र 3000 वोट के अंतर से जीत हासिल कर पाया। इस परिणाम से मीडिया का फैलाया पहला भ्रम सत्य साबित होता है कि सवर्ण बीजेपी के खिलाफ हैं। इसीलिए बीजेपी इस क्षेत्र से समाप्त हो गई।

 एक और भ्रम मीडिया समानांतर रूप से चला रही थी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के चुनाव प्रचार और मेहनत से ग्वालियर चंबल में कांग्रेस का इतना शानदार प्रदर्शन रहा है। कांग्रेस की जीत और कांग्रेस के सिंधिया को दिए जा रहे महत्व से यह भ्रम भी सत्य साबित ही हुआ और सिंधिया के साथ क्षेत्र में कई लोग ये मान बैठे की सिंधिया निर्विवाद रूप से मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं पर अंत मे कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया और यहां से कांग्रेस के अंदर क्लेश की शुरुआत हुई। अंततः 2020 प्रारंभ होते ही सिंधिया अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस सरकार गिरा देते हैं। इन्ही सब भ्रम का परिणाम है वर्तमान मध्यप्रदेश का 28 सीट पर होने वाला उपचुनाव।

लेकिन जिन 2 भ्रम को मीडिया ने खड़ा किया उसके उलट जमीनी सच्चाई कुछ और थी।

पहला, बीजेपी से सवर्ण नाराज नहीं थे बल्कि 2 अप्रैल के दंगों के बाद जिस तरह प्रशासन का दमन दलितों ने सहा उससे दलित बीजेपी से नाराज जरूर थे इसके 2 प्रमाण हैं। पहला ग्वालियर चंबल के अलावा बाकी मालवा, निमाड़, बघेलखण्ड क्षेत्रों में बीजेपी को हमेशा जैसे वोट मिलते रहे हैं 2018 के चुनाव में भी वैसे ही मिले, बीजेपी मात्र  ग्वालियर चंबल में चुनाव हारी जहां लगभग हर सीट पर दलित 30 से 40% तक हैं।

दूसरा, ग्वालियर चंबल में बसपा बहुत बड़ा फैक्टर है, जहां की लगभग हर सीट पर बसपा पिछले 4 चुनाव में कभी ना कभी जीत चुकी है और 2018 के चुनाव में बसपा का हर सीट पर वोट घटा है जो सीधा कांग्रेस को गया। पिछली बार जहां बसपा की 4 सीट थी जिसमें से 3 ग्वालियर चंबल में ही थी। इस बार बसपा की कुल 2 ही सीट आई जिसमें से एक ही ग्वालियर चंबल से थी। इसका मुख्य कारण था की बसपा के एकदम कट्टर वोटर के मन मे भी यह बात थी कि अगर बसपा को वोट दिया तो बीजेपी जीत जाएगी ऐसे में पहला लक्ष्य बीजेपी को हराना था तो कांग्रेस ही एक मात्र विकल्प थी। इसके प्रमाण के तौर पर ग्वालियर के जिस चौहान प्याऊ पर 3 दलितों की मृत्यु हुई उस सीट (ग्वालियर पूर्व) को कठिन दिख रहे मुकाबले में कांग्रेस ने अप्रत्याशित रूप से 30000 से ज्यादा वोट से जीत लिया। दूसरा, भिंड जिले की जिस मच्छण्ड में 2 दलितों की हत्या हुई वह सीट (लहार विधानसभा) भी 50000 से ज्यादा वोट से कांग्रेस जीती, जबकि पिछले 3 चुनाव से बसपा इस सीट में दूसरे नम्बर पर रहती थी और मामूली अंतर से चुनाव हारती रही है जबकि 2018 के चुनाव में बसपा तीसरे नम्बर पर रही और बसपा प्रत्याशी जमानत भी नहीं बचा पाया। कमोबेश यही हाल मुरैना, दतिया जिले में भी रहा।

 दलित वोटों के एक मुश्त रूप से कांग्रेस के पास जाने से ग्वालियर चंबल में कांग्रेस का प्रदर्शन आश्चर्यजनक रहा।  चूंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया इस क्षेत्र में कांग्रेस के एक मात्र सर्वमान्य नेता थे तो इसका श्रेय उन्हें दिया गया। लेकिन यह भ्रम भी इसलिए गलत है कि वही ज्योतिरादित्य सिंधिया 2019 लोकसभा के आम चुनाव में 6 महीने बाद ही अपने परिवार की स्थाई गुना संसदीय सीट पर एक छोटे से बीजेपी के कार्यकर्ता के हाथों 2 लाख के करीब वोट से चुनाव हार गए। दूसरा 2013 के मध्यप्रदेश चुनाव में भी सिंधिया के पास 2018 के चुनाव की तरह कांग्रेस चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष का पद था, तो 2013 या 2008 के चुनाव में सिंधिया निष्प्रभावी क्यों थे। यह मनुवादी मीडिया के फैलाये भ्रम थे कि मूल दलितों के बीजेपी के प्रति आक्रोश को मुख्य मुद्दा नहीं बनने दिया और सिंधिया को एक बड़े नेता के रूप में स्थापित कर दिया जिसका परिणाम आज के मध्यप्रदेश के उपचुनाव हैं।

अब आते हैं वर्तमान में हो रहे उपचुनाव पर

 कांग्रेस कभी एक अच्छे विपक्ष की भूमिका निभा ही नहीं पाई लेकिन कांग्रेस छोड़ने के बाद 21 अगस्त को पहली बार जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर आये तब एक अलग ही कांग्रेस उभर के सामने आई। वह शहर और क्षेत्र जो 300 से ज्यादा वर्ष से सिंधिया के साथ खड़ा था एकाएक सिंधिया के खिलाफ सड़कों पर उतर आया। पूरे ग्वालियर शहर में अफरा-तफरी का माहौल था। मैंने ग्वालियर में इससे बड़ा जनता का हुजूम पिछले 20 वर्ष में सड़कों पर नहीं देखा। जैसा दिल्ली में बैठे समीक्षक अंदाजा लगा रहे थे कि सिंधिया के जाने से कांग्रेस ग्वालियर चंबल में खत्म हो जाएगी उसके ठीक उलट ऐसा लग रहा था मानो कांग्रेस सिंधिया के जाने से एकदम जीवित हो उठी हो।

कमलनाथ पहली बार सिंधिया के जाने के बाद 18 सितंबर को ग्वालियर आये। पूरे ग्वालियर शहर में छह किलोमीटर से ज्यादा लम्बा जाम लगा था और महल तक गद्दार के नारे गूंज रहे थे। स्थानीय मीडिया ने इसे ग्वालियर शहर में अब तक का किसी नेता का सबसे भव्य स्वागत बताया। पूरे क्षेत्र में कांग्रेस के प्रति जबरदस्त माहौल है और कांग्रेस के लिए सिंधिया का विरोध करना बहुत आसान भी है। मसलन कांग्रेस जो गद्दारी का नारा लगा रही है वह ऐतिहासिक तौर पर कांग्रेस स्थापित कर सकती है।

 दूसरा, सिंधिया जो आरोप आज कांग्रेस पर लगा रहे हैं कि कांग्रेस ने कर्जमाफी की घोषणा को लागू नहीं किया, उसके प्रतिउत्तर में कम से कम 3 से 4 सभाएं तो ऐसी मुझे याद हैं जिनमें सिंधिया ने खुद किसानों को ऋणमाफी पत्र बांटे है। सिंधिया ऐसा कोई नया आरोप आज कांग्रेस पर नहीं लगा रहे जिसका जवाब कांग्रेस में रहते सिंधिया ने खुद ना दिया हो।  2018 के चुनाव में बीजेपी का मुख्य नारा था ‘माफ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज’, बीजेपी सिंधिया पर भूमाफिया होने का आरोप लगाती थी, उनके सामंतवाद पर, 1857 की क्रांति के प्रसंग पर बीजेपी सिंधिया को घेरती रही है और आज वही शिवराज और महाराज एक साथ हैं। कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस बीजेपी के सिंधिया के खिलाफ कांग्रेस के सिंधिया के भाषण ही चला दे तो कांग्रेस जो उन पर गद्दारी के आरोप लगा रही है वे सच साबित हो जाएंगे। पर कांग्रेस विपक्ष की राजनीति मध्यप्रदेश ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी नहीं कर पा रही। एक ओर जहां मौजूदा उपचुनाव में कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए पूरी 28 सीट जितनी है दूसरी तरफ बीजेपी को मात्र 8, तब भी आप चुनाव प्रचार से दोनों की स्थिति का आंकलन कर सकते हैं। जहां 24 दिनों में शिवराज सिंह जी ने 38 सभाएं की हैं वहीं कमलनाथ जी ने मात्र 19 सभाएं की। यहां शिवराज के साथ सिंधिया ने 25, तो नरेंद्र सिंह तोमर ने 17 सभाएं की। (ये आंकड़े दिनांक 22 अक्टूबर तक के हैं।)

 कांग्रेस की तरफ से कमलनाथ के अलावा कोई दूसरा बड़ा प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर का नेता सक्रिय नहीं है। राहुल गांधी केरल में हैं और प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में। यहां तक कि मुरैना में जहां गुर्जर वोट निर्णायक स्थिति में है, वहां वे सचिन पायलट की भी सभाएं सही से नहीं करा पा रहे हैं। जमीनी स्थिति हर सीट की ऐसी है कि बीजेपी और सिंधिया का जबरदस्त विरोध है। कांग्रेस के प्रति सहानुभूति है, दलित वोट पूरी ताकत से धोखा खाने के बाद भी भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ खड़ा है। जमीन पर जैसा माहौल है, उसको अगर कांग्रेस सही से उपयोग कर पाती तो ये बहुत बड़ी बात नहीं होती कि कांग्रेस पूरी 28 सीट बड़ी आसानी से जीत सकती है या कांग्रेस अपना हठ छोड़ के बसपा के साथ समझौता करती तो यह चुनाव जीतना कांग्रेस के लिए मात्र औपचारिकता रह जाती, क्योंकि कम से कम 6 ऐसी सीट हैं इस चुनाव में जहां बसपा प्रत्याशी जीतने की स्थिति में दिख रहे हैं। इनमें मुरैना, जौरा, पोहरी, भांडेर, मेहगांव, डबरा प्रमुख हैं। अगर इन सीट पर बसपा जीतती नहीं है तो कम से कम कांग्रेस को तो हरा ही सकती है। पर कांग्रेस की निष्क्रियता और ठंडा चुनाव प्रचार उनकी हारने के प्रति ज़िद को दर्शाता दिखा। कौन कितने पानी में रहा, यह तो 10 नवंबर को चुनावी नतीजे आने के बाद साफ हो ही जाएगा।


लेखक सम्राट बौद्ध ग्वालियर के रहने वाले हैं। इन दिनों दिल्ली में रहते हैं और सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं।

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