दयानाथ निगमः जिनका झोला ही उनके कार्यालय का पता था

– लेखक- आशाराम जागरथ

‘अम्बेडकर इन इंडिया’ के सम्पादक दयानाथ निगम अब हमारे बीच नहीं हैं। बाईपास सर्जरी करवा चुके निगम जी डायबटीज के भी मरीज थे। पिछले दिनों उनकी तबियत खराब हुई तो परिजनों ने लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में भरती कराने का प्रयास किया जहाँ उनका रैपिड टेस्ट हुआ और वे कोरोना पॉजिटिव पाए गये। कहा जाता है कि मौजूद स्वास्थ्य व्यवस्था में उन्हें जगह नहीं मिल पाई और वे 04 सितम्बर, 2020 की शाम को निर्वाण को प्राप्त हो गये।

 तथागत गौतम बुद्ध की निर्वाण भूमि उत्तर प्रदेश के कुशीनगर (तमकुही राज) में 10 फरवरी, 1950 को जन्मे दयानाथ निगम जी की स्कूली शिक्षा केवल मीडिल क्लास तक थी। लेकिन कम शिक्षा उनके मिशन में कोई अवरोध नहीं बन पाई। वे शोषितों-वंचितों, दलितों-पिछड़ों की आवाज बने। उन्होंने पत्रिकारिता के क्षेत्र को चुना और दलित पत्रकारिता में एक मुकाम हासिल किया। 1968 में अर्जक संघ की स्थापना की बाद निगम जी राम स्वरूप वर्मा के संपर्क में आये और उनके निकट सहयोगी बने। इसके बाद ही वे पत्रकारिता के क्षेत्र में आये। वे अर्जक संघ के साप्ताहिक मुखपत्र में नियमित लिखते रहे। 1980 में ‘चेतना’ नाम से और 1981 में ‘क्रांति’ के नाम से निगम जी ने दस्तावेजी स्मारिकाएं निकालीं। पत्रकारिता के प्रति अपने प्रतिबद्ध सरोकारों और उसूलों के कारण वे हमेशा बेचैन रहते थे और इसी बेचैनी के तहत अंततः 14 अप्रैल 1999 ‘अम्बेडकर इन इंडिया’ मासिक पत्रिका शुरू की जो अम्बेडकरवादी मिशन की प्रमुख आवाज बनी जो बिना सरकारी विज्ञापनों के अनवरत प्रकाशित हो रही है। निगम जी ने अपने सम्पादनकाल में उसके कई विशेषांक निकाले जिनमें मुद्राराक्षस के सम्पादन में एक विशेषांक ‘ये तुम्हारा इतिहास, ये हमारा इतिहास’ काफी चर्चित रहा।

निगम जी ने कुछ दिनों तक गोरखपुर से प्रकाशित एक दैनिक में भी सांस्कृतिक गतिविधियों के संवाददाता के रूप में  काम किया। बताते चलें कि निगम जी रंगमंच के कलाकार भी थे। अर्जक संघ द्वारा आयोजित नाटकों में वे रोल अदा किया करते थे। वह एक अखबार से जुड़े थे। एक बार वह उस अखबार के सम्पादक जो एक ब्राहमण थे, के घर पर बैठे थे। संम्पादक जी हिन्दू धर्म में व्याप्त छूतछात पर ज्ञान बाँट रहे थे। पीने के लिये चाय आई। एक कांच के गिलास में, दूसरा पीतल के गिलास में। निगम जी ने जाने-अनजाने में पीतल का गिलास उठा लिया और चाय पीने लगे। सम्पादक जी के प्रवचन का स्वर बदल गया। निगम जी ने उनसे भी चाय पीने को कहा परन्तु सम्पादक महोदय ने कांच के गिलास को छुआ भी नहीं। निगम जी द्वारा चाय पीने के लिए बार-बार आग्रह करने पर सम्पादक महोदय झल्ला गये और बोले, “तुमने हमारा वाला गिलास जूठा कर दिया। अब ये गिलास मेरे किसी काम का नहीं। तुम इस गिलास को लेते जाओ।” बताते हैं कि निगम जी पीतल का गिलास तो ले आये, लेकिन संवाददाता की नौकरी वहीं छोड़ आये।

  ‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका के पूर्व सम्पादक सुरेश उजाला उन्हें याद करते हुये कहते हैं कि हम दोनों को राम स्वरूप वर्मा का सानिध्य प्राप्त था। निगम जी लखनऊ के अर्जक कार्यालय में झोला टाँगे आते थे और अपने मिलनसार प्रवृत्ति तथा मृदुल स्वभाव के कारण सभी के चहेते थे। बचपन से ही समाज सेवा उनका लक्ष्य था। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नकले तो अपने तरुणाई में आरएसएस की शाखा में पहुँच गये। परन्तु रामस्वरूप वर्मा के प्रभाव में उन्होंने जान लिया कि दलित-वंचित और पिछड़े समाज के लिये आरएसएस के झोले में कुछ भी नहीं है। अत: उन्होंने अर्जक संघ का झोला टांग लिया। बाद में वे अर्जक संघ से विलग जरूर हुये किन्तु झोला अंत तक टंगा ही रहा। लोग जब उनसे पूछते थे कि अम्बेडकर इन इंडिया का कार्यालय कहाँ है तो उनका जवाब होता कि यही झोला ही पत्रिका का कार्यालय है।

 हमारी रचना, काव्य ग्रामगाथा ‘पाहीमाफी’ में अवधी समाज की प्रतिविम्बित विसंगतियों में दयानाथ निगम जी भोगा हुआ यथार्थ भी सम्मिलित है। नीचे दी गई अवधी कवितई की कथा तो रूपांतरित है किन्तु कथा का मूल पाठ गड्ढे में परोसा भोजन है जो निगम जी के बचपन का वो सच था जिसने उन्हें समाज से भेदभाव समाप्त करने के लिए उद्देलित किया-
कसि कै दाँते काटी रोटी, दुई छूत – अछूत रहे साथी
हे नीम ! छाँह मा तोहरे हम, खीसा सच बइठ सुने बाटी

 ‘मितऊ’ कै बैल तुराइ गवा, ‘छुतऊ’ साथे हेरै निकरे
हेरत – हेरत संझा होइगै, घर लौटे बैल दुवौ पकरे
‘मितऊ’ बोले कि रुकि जात्या, कहवाँ जाब्या यहि राती मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह, बचा बा पाहीमाफी मा

 राती जब खाना खाय क् भवा, यक बड़ा अड़ंगा बाझि गवा
टुटहा ज़स्ता वाला बरतन, पिछवारे कहूँ लुकाय गवा
घर-मलकिन बोलीं काव करी, बनये हम हई दाल–रोटी
उप्पर से दलियौ पातर बा, केरा कै पाता ना रोकी

हम कहत रहेन कि जाइ दियौ, तोहरे सब रोकि लिह्यौ वोकां
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह, बचा बा पाहीमाफी मा
चुप रहौ कतौ ना करौ फ़िकर, अब्बै जुगाड़ कुछ करिबै हम
बोले बुढ़ऊ बाबा अहीर, बुद्धी मा अबहूँ बा दमख़म

 फँड़ियाय कै धोती खटिया से, उतरे लइकै लमका खुरपा
तनिका वहरी से पकरि लियौ, घुसकाइब ई छोटका तख्ता
खोदिन यक बित्ता गड़हा वै, मड़हा के कोने भूईं मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह, बचा बा पाहीमाफी मा 

केरा कै पाता दोहरियाय, गड़हा मा हौले से दबाय
तइयार अजूबा भै बरतन, बोले अब मजे से लियौ खाय
वै रहे भुखान सवेरवैं कै, भुन भुनभुनाय मन्ने बोलिन
इज्ज़त-बेलज्ज़त भूलि गये, मूड़ी नवाय बस खाय लिहिन 

‘मितऊ’ बोले बहिरे निकरा , ल्या पानी पिया अँजूरी मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह, बचा बा पाहीमाफी मा
भिनसारे उठिकै लगे चलै, भैं’सिया खड़ी अफनात रही
पितरी के बड़े ‘पराते’ मा, बसियान खाब ऊ खात रही

फिरु नज़र परी दालानी मा, वै आँख फारि कै देखअ थैं
कानी कुतिया मल्लही येक, थरिया कै बारी चाटअ थै
ना दुआ-बंदगी केहू से, चुपचाप चलि गये चुप्पे मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह, बचा बा पाहीमाफी मा

 निगम जी शोषित समाज दल तथा दलित मजदूर किसान पार्टी (दमकिपा) से विधानसभा का चुनाव भी लड़े लेकिन हार गये थे। बहुजन समाज पार्टी से भी उनका जुड़ाव रहा, परन्तु पत्रिका वे अपने मित्रों-सहयोगियों के सहारे ही निकालते थे। उनका कहना था कि साधारण इच्छुक लोग पत्रिका खरीदते भी हैं और पढ़ते भी हैं परन्तु साधन संपन्न लोग न पत्रिका खरीदते हैं और न पढ़ते हैं, हाँ, कुछ लोग सहयोग अवश्य कर देते हैं।

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