रिटायर के बाद एक और जज ने उठाया न्यायपालिका पर सवाल

देश की न्याय व्यवस्था के भीतर किस कदर सत्ताधारियों और पूंजीपतियों ने अपनी पैठ बना ली है, यह आए दिन सामने आ रहा है। इससे न्यायपालिका के भीतर बैठे कई न्यायधीश भी परेशान है। लेकिन उनका गुस्सा तब बाहर आता है, जब वो रिटायर हो जाते हैं। ऐसे ही बुधवार को रिटायर हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने फेयरवेल के दौरान अपने संबोधन में न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए है। उन्होंने कहा कि देश का लीगल सिस्टम अमीरों और ताकतवरों के पक्ष में हो गया है। जज शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर नहीं छुपा सकते। उन्हें समस्याएं पहचाननी होंगी और उनसे निपटना होगा। जस्टिस गुप्ता का फेयरवेल वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए हुआ। इस दौरान जस्टिस गुप्ता ने कहा कि कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है तो कानून अपना काम तेजी से करता है लेकिन, गरीबों के मुकदमों में देरी होती है। अमीर लोग तो जल्द सुनवाई के लिए उच्च अदालतों में पहुंच जाते हैं लेकिन, गरीब ऐसा नहीं कर पाते। दूसरी ओर कोई अमीर जमानत पर है तो वह मुकदमे में देरी करवाने के लिए भी उच्च अदालतों में जाने का खर्च उठा सकता है। बकौल जस्टिस दीपक वर्मा, ‘आप देखते हैं कि देश को न्यायपालिका पर बड़ा विश्वास है। मेरा मतलब है कि, हम ऐसा बार बार कहते हैं लेकिन उसी समय हम शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर नहीं छुपा सकते और कहें कि न्यायपालिका में कुछ नहीं हो रहा है। हमें समस्याएं पहचाननी होंगी और उनसे निपटना होगा। इस संस्थान की ईमानदारी ऐसी है कि उसे किसी भी हालत में दांव पर नहीं लगाया जा सकता।’ जस्टिस दीपक गुप्ता ने 1978 में दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की थी। 2004 में वह हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट मे जज बने थे। बाद में वह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। तीन साल से अधिक समय तक शीर्ष अदालत में जज रहे। हालांकि यहां एक बड़ी दिक्कत जजों के सवाल उठाने के तरीके पर भी है। तमाम जज नौकरी में रहने के दौरान चुप्पी साधे उसी व्यवस्था का हिस्सा बने रहते हैं और सवाल उठाने से बचते हैं। उनकी चुप्पी तब टूटती है, जब वो उस व्यवस्था से बाहर आ जाते हैं, ऐसे में उनके बयान से बस एक सनसनी भर होता है और फिर चीजें अपनी पूर्व स्थिति में आ जाती है। सवाल यह है कि न्यायपालिका का हिस्सा होने के दौरान तमाम न्यायाधीश इसके खिलाफ मोर्चा क्यों नहीं खोलते। क्योंकि जब तक न्यायधीश संख्या बल में साथ आकर पुरजोर तरीके से न्याय व्यवस्था के भीतर की खामियों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते, तब तक स्थिति में बहुत सुधार नहीं आएगा।

क्षमा करना वामपंथी मित्रों, लेकिन अब तुम्हें डूब मरना चाहिए

  • शशि शेखर
हाल ही में कार्ल मार्क्स का जन्मदिन था। अपनी जवानी पूंजीपतियों की मजूरी-हजूरी में बीता देने के बाद, आज भारत के मजदूर अपने घर खाली हाथ लौट रहे हैं। रेल की पटरियों के किनारे 1000 किलोमीटर दूर के सफर पर पैदल चल रहे मजदूर। अपने “देस” लौटने के लिए सूरत में पुलिस से भिडते मजदूर। आखिर, कार्ल मार्क्स को उनके जन्मदिन पर इससे अधिक गिफ्ट ये मजदूर क्या दे सकते थे? लेकिन, यही वक्त है, जब तमाम येचुरियों, करातों, राजाओं, अंजानों को बंगाल की खाडी में जल समाधि ले लेनी चाहिए। और कन्हैयाओं, रावणों, मेवानियों के सीने की जांच होनी चाहिए। वाकई, उनके सीने में दौडता लहू “लाल” है? ये देश गुजरात की एक यूनिवर्सिटी कैंटीन में समोसे के दाम बढने पर ऐसा आन्दोलन कर देता था, जिसकी आंच पूरे देश में फैलती है। और फिर “लौह महिला” और “दुर्गा” की उपाधि से नवाजी गई तत्कालीन निरंकुश हो चली प्रधानमंत्री को उनकी हैसियत बता देती है। ये देश एक यूटोपियन टाइप संस्था “जनलोकपाल” की मांग को ले कर 10 साल पुरानी कांग्रेस सरकार को मुंह के बल खडा कर देता है। पेट्रोल की कीमत में मामूली बढत हो या पीएफ ब्याज दर में 1 फीसदी की कमी, कामरेड गुरुदास दासगुप्ता अकेले संसद से सडक तक हिला कर रख देते थे और सरकार को मजबूरन पीछे हटना पडता था। इस वजह से ही, कभी यूपीए-1 की सरकार को रोलबैक सरकार भी कहते थे। लेकिन, आज।।।।आज तुम कहां हो कामरेड? देश में 14 करोड सिर्फ प्रवासी मजदूर इस वक्त अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं। नौकरी छूटी, परिवार से दूर, कोई बचत नहीं। सरकारें ऐसे सलूक कर रही है, जैसे मजदूर सर्कस का जानवर हो। स्टेट का रिंग मास्टर चाबुक चलाता है, वापस नहीं लेंगे। केन्द्र का चाबुक चलता है, वापस भेजेंगे। रेलवे कहती है, टिकट का पैसा दो। विपक्ष कहता है, हम देंगे पैसा। स्टेट कहता है, पहले पैसे दे कर आओ, हम रीइमबर्स कर देंगे। मीडिया कहता है, पैसा लिया ही नहीं। मजदूरों का “सेवक” खामोश है। और तुम कामरेड, जाने किस “स्व-मैथुन” में रत चरम सुख प्राप्ति का इंतजार कर रहे हो? जानता हूं, तुम्हें इस बात का इंतजार है कि क्रांति खुद चल कर ए के गोपालन भवन/अजय भवन पर दस्तक देगी। तब तुम उस क्रांति को अपने झोले में भर-भर कर रामलीला मैदान/गान्धी मैदान पहुंचोगे और पूछोगे हिन्दुस्तान की हुकूमत से कि आपने तो पूंजीपतियों से कहा था, पैसा न काटना, नौकरी से न निकालना, क्यों नहीं मानी उन पूंजीपतियों ने आपकी बात? तो कामरेड, पिछले 70 सालों से तुम्हारा “क्रांति” के दस्तक देने का इंतजार इस बार भी इंतजार ही रह गया। क्योंकि, इस बार क्रांति सचमुच तुम्हारे दरवाजे से हो कर गुजर गई और तुम अपने “चरम-सुख” प्राप्ति में लीन रह गए। तुम्हारे पास मौका था, उन लाखों मजदूरों को रास्ते में रोक लेने का और वापस उन अट्टालिकाओं के सामने खडा कर देने का, जिनकी नींव में इन मजदूरों का खून-पसीना लगा है। तुम जाते उनके पास, सूरत से मुंबई तक, दिल्ली से पंजाब तक, कुनूर से चेन्नई तक और दो-दो हाथ कर आते उन पूंजिपतियों से, जिन्होंने सालों इन मजदूरों की बदौलत देश-विदेश में अपनी ऐशगाहों का इंतजाम किया हैं और आज एक झटका लगते ही इनसे पल्ला झाड रहे हैं। अरे, और कुछ नहीं तो जो घर आ गए, उनके घर जाते और कहते कि मजदूर भाइयों, डरना मत, हम लडेंगे साथी, जीतेंगे साथी। लेकिन, तुम मौका चूक गए। मार्क्स बाबा, मैं जानता हूं, आज आप अपने भारतीय चेलों से जरूर दुखी होंगे। इसलिए, मैं आपको हैप्पी बर्थडे नहीं बोलूंगा। हो सके तो, मेरी तरफ से आप भी इन्हें बोल देना, डूब मरो वामपंथियों।।।

हेमंत सोरेन ने वह कर दिखाया, जो और कोई सीएम नहीं कर सका

हेमंत सोरेन ने वह कर दिखाया है, जो किसी दूसरे राज्य का मुख्यमंत्री नहीं कर सका। जब लॉकडाउन के कारण तमाम राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूर परेशान होकर अपनी सरकारों से घर वापस बुलाने की गुहार लगा रहे हैं, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने अपने प्रदेश के मजदूरों को वापस बुलाने का सबसे पहले इंतजाम किया। कुछ मुख्यमंत्रियों ने उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों के उन बच्चों को बुलाने में तो रुचि ली जो बाहर पढ़ाई कर रहे थे, लेकिन मजदूरों के बारे में सभी चुप्पी साधे थे। लेकिन हेमंत सोरेन को मजदूरों की भी फिक्र थी। एक मई की आधी रात को 1200 मजदूरों को लेकर पहली ट्रेन रांची से सटे हटिया स्टेशन पर पहुंची। ये मजदूर तेलंगाना के लिंगमपल्ली से चली स्पेशन ट्रेन से हटिया पहुंचे थे। रात सवा ग्यारह बजे ट्रेन जब हटिया स्टेशन पर रुकी तो मजदूरों की आंखों में खुशी और सुकून के आंसू थे। मजदूरों की चेहरे की चमक में पिछले 40 दिनों की सारी मुश्किलें छिप गईं। स्टेशन पर इन मजदूरों का मेहमानों की तरह स्वागत हुआ, राज्य सरकार के अधिकारियों ने इन्हें गुलाब के फूल दिए और इनके लिए खाने की व्यवस्था की। इन सभी मजदूरों को सैनिटाइज बसों से इनके गांव भेजा जा रहा है। इससे पहले स्टेशन पर सभी का चेक अप भी हुआ। रांची के डिप्टी कमिश्नर महिमापत राय के मुताबिक, इनके जिलों में पहुंचने पर एक बार फिर इनका चेक अप होगा। इसके बाद इन्हें होम क्वारनटीन किया जाएगा। इन यात्रियों की व्यवस्था को देखने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी हटिया स्टेशन पहुंचे थे। हेमंत सोरेन की खुशी उनके ट्विटर हैंडल पर दिखी, उत्साहित मुख्यमंत्री ने लिखा- स्वागत है साथियों। यहां तक की स्वागत में बैनर तक लगाए गए। और मजदूरों के घर आने पर उन्हें जोहार कहा गया। यह सच है कि लॉक डाउन के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे मजदूर कमजोर वर्ग के लोग हैं। और वंचित समाज से ताल्लुक रखने वाले व्यक्ति की मुसीबत उस समाज का मुख्यमंत्री ही समझ सकता है। हेमंत सोरेन का कहना है कि वो अन्य मजदूरों को भी जल्दी ही उनके घर भेजेंगे। हेमंत सोरेन को सलाम है।

घर लौटे मजदूर अब पलायन से पहले कई बार सोचेंगे, पढ़िए, एक अधिकारी का अनुभव

‘तेरे आने की जब खबर महके 
तेरी खुश्बू से सारा घर महके’
इस समय हम जैसे सरकारी सेवकों के फोन पर जिस बेचैनी और बेसब्री से अपने घर लौटने के लिए प्रवासी मजदूर सवालों की झड़ी लगाये हुए हैं उससे दो निष्कर्ष मेरे सामने आ रहे हैं।
एक, घर लौटने के बाद ये मजदूर अगले 2 या 3 साल तक घर से दूर बड़े शहरों में पलायन नहीं करेंगे और किसी तरह अपने Place of origin में काम करके जीविका चलाएंगे। दो, इसका परिणाम ये होगा कि मानव श्रम पर आधारित उद्योगों को  सस्ते और सुलभ श्रमिक नही मिलेंगे। मजबूर होकर उद्योगपति place of destination पर ऑटोमेशन और मशीनीकरण को बढ़ावा देंगे। तीन, गाँवो में खेती के काम में मशीनीकरण पहले से ही बहुत ज्यादा हो चुका है और शहर में दशकों तक रहने वाले मजदूरों की आदत भी ऐसे काम करने से छूट चुकी है तो वो आसानी से यहां भी सेटल नहीं होंगे। गाँवों में छद्म बेरोजगारी भी बढ़ेगी क्योंकि वहां Surplus labor होगा।
अभी तो होम return का nostalgia चल रहा है। लेकिन कल ट्रैफिक सिग्नल का मुम्बइया डायलॉग भी सच साबित हो सकता है। मधुर भंडारकर को मैं स्याह सच का निदेशक मानता हूँ जो खोज खोज कर समाज के कड़वे सच को परदे पर लाते हैं। उनकी फिल्म टैफिक सिग्नल में एक दिन मुम्बई में बम ब्लास्ट होता है और अगले दिन सुबह पूरी मुम्बई ऐसे काम पर निकल पड़ती है जैसे कुछ हुआ ही न हो। ऐसे में दो पात्रों का संवाद देखिये
एक पात्र- मुम्बई के लोग कितने जीवट वाले हैं न कल बम फटा आज सब तरफ चहल पहल, सब काम पे निकल पड़ते हैं।
दूसरा पात्र- जीवट नहीं घण्टा हैं, काम पे नहीं जाएंगे तो खाएंगे क्या?
कोरोना अगर जल्दी सिमट गया तो लोग जल्दी भूलकर फिर गाँव से शहर की तरफ भागेंगे, अगर लंबा खिंचा तो लौटे हुए लोग दुबारा न लौटेंगे। ऐसे में पोस्ट कोरोना युग में जो भी होगा युगान्तकारी ही होगा। हाल चाहे जो हो घर हमेशा की तरह इंतज़ार में है।
लेखक अधिकारी हैं। यूपी के देवरिया जिले में कार्यरत हैं। लगातार कोरोना पीड़ितों की देख-रेख में और उनकी घर-वापसी में सक्रिय हैं। ये उनके निजी अनुभव हैं। 

जरूरी है हिन्दू धर्म का लोकतांत्रिकरण

सर्वविदित है कि हिन्दू धर्म पर एक कुलीन वर्ग का कब्ज़ा है। चंद मुट्ठी भर कुलीन वर्ग के लोग हजारों बरसों से हिन्दुओं के सभी संस्थानों और लाखों मंदिरों पर चौकड़ी मार के बैठे हैं। किसान, दस्तकार, मज़दूर, आदिवासी के लिए इनके दरवाज़े आदिकाल से बंद हैं। इन सभी कमेरे वर्गों को मंदिर में जाने और दान देने का अधिकार तो है, लेकिन धर्म की सत्ता पर, शंकराचार्य या मठाधीश बनने पर, धर्म की आय और प्रबंध के मामले में ये लोग इक्कीसवीं सदी में भी अछूत और बहिष्कृत हैं। अक्सर मंदिरों के गर्भगृह में भी इनका प्रवेश वर्जित ही रहता है। आज कल पूरा विश्व कोविद-19 की महामारी से जूझ रहा है। दिल्ली में कई गुरूद्वारे हैं। चलिए, उनमें से हम एक का ज़िक्र करते हैं। नाम है गुरुद्वारा बंगला साहिब। यह गुरुद्वारा प्रतिदिन चालीस हज़ार भूखे जरूरतमंद लोगों को भोजन मुहैया करा रहा है। इस भोजन पैकेट में रोटी, चावल, दाल, सब्जी, परसादा (सूजी का हलवा) होता है। राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल के डॉक्टरों और नर्सों को जब उनके मोहल्ले वालों ने उनके घरों से गाली गलोच करके भग़ा दिया, तब इसी गुरूद्वारे ने उनको पनाह दी। दिल्ली पुलिस ने इनके कामों की सराहना करते हुए अपनी 50 मोटर साइकिलों पर सवार हो कर इस गुरूद्वारे की सायरन बजाते हुए परिक्रमा की और सल्यूट किया। यहाँ तक कि देश के प्रधान सेवक नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट करते हुए कहा कि, “हमारे गुरूद्वारे लोगों की सेवा करने में असाधारण काम कर रहे हैं। उनकी करुणा प्रशंसनीय है।” और यह बात केवल गुरुद्वारा बंगला साहिब तक ही सीमित नहीं है। देश के हजारों गुरुद्वारों में ऐसी ही व्यवस्था चल रही है। मानव जाति पर आई विपदा में वे अपना अद्वितीय योगदान दे रहे हैं। जो सेवा कार्य सिखों के गुरुद्वारों से हो रहा है, क्या वैसा कुछ हिन्दू के मंदिरों द्वारा हो रहा है? याद रखिये कि गुरुद्वारों के लंगर भोजन का लाभ ले रहे लोगों में 99% गैर-सिख हैं। क्या हिन्दू मंदिरों से हिन्दुओं के लिए भी कुछ मिल रहा है? शायद इक्का-दुक्का जगह हो, लेकिन आम तौर पर मंदिरों के किवाड़ बंद हैं। कोविद-19 की महामारी के खिलाफ जंग में हमारे मंदिर आम तौर पर नदारद और गायब हैं। वो लोग जो इन मंदिरों और संस्थानों को अपने नागपाश में ज़कडे और पकड़े हुए हैं, इस त्रासदी में वो ढूँढने पर भी नज़र नहीं आते। क्या हिन्दू मंदिरों में संसाधनों की कमी है? क्या मंदिरों के पास धन नहीं है? एक समाचार के अनुसार केरल के श्री पदमनाभास्वामी मंदिर के पास एक लाख छियासठ हज़ार एक सौ अट्ठासी करोड़ रूपए (166188 करोड़ रूपए) की कीमत का सोना है। तिरुपति बालाजी मंदिर की वार्षिक आय 650 करोड़ रूपए है, शिरडी के साईं बाबा मंदिर की वार्षिक आय 360 करोड़ रूपए है, वैष्णो देवी मंदिर की वार्षिक आय 500 करोड़ रूपए है। इसके अलावा देश में 12 लाख मंदिरों में सैंकड़ों ऐसे हैं जिनके भण्डार में करोड़ों रूपए हैं। आज जब हिन्दू गरीब, दलित, पिछड़ा, आदिवासी बीमारी, भूख और गरीबी से मर रहा है तो क्या यह पैसा उनके काम आ रहा है? शिरडी के साईं बाबा की जो जानकारी मेरे पास है उसके अनुसार बाबा फ़कीर थे। दो जोड़ी कपड़े थे, सर पर भी फटा-पुराना कपड़ा बांधते थे। दिन भर जो उनके मुरीद उनको भेंट करते थे, रात सोने से पहले बाबा सब जरूरत मंदों में बाँट देते थे। उनका फरमान था कि रात सोने से पहले भण्डार में अन्न का एक भी दाना नहीं होना चाहिए। रात को सोते समय बिलकुल फक्कड़ होना है। यदि आज आप शिरडी जाएँ तो वहां बाबा सिर पर सोने का मुकुट पायेंगे, मंदिर की दीवारों और खम्बों पर सोने का पत्र चढ़ा है, गुम्बद पर सोने का पत्र चढ़ा है। बाबा के फलसफे, विचार और सोच की सरे आम धज्जियाँ उड़ाईं जा रही हैं। 2017-18 की एक रिपोर्ट के अनुसार गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर की वार्षिक आय 12 करोड़, 94 लाख, 21 हज़ार, 454 रूपए थी। इसके अलावा 691 ग्राम सोना दान में प्राप्त हुआ, 49 किलो 982 ग्राम चाँदी दान में प्राप्त हुई। अब जानिये कि इसका खर्च कैसे हुआ? 83% धन पुजारियों के पास गया। 15% भाग मंदिर के रख-रखाव व्यवस्थापन वाली देवस्थान समिति को मिला और 2% चैरिटी कमिश्नर की कचहरी में जमा हुआ। (स्त्रोत: गुजरात समाचार पेपर 8 अप्रैल 2018 पेज नंबर 5 पर)। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट जो 16 नवम्बर 2016 को प्रकाशित हुई, उसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि यदि केवल दस मंदिर की जमा पूँजी लोक कल्याण में लगा दी जाय तो भारत की गरीबी, सदा-सदा के लिए दूर हो जाएगी। यानी भारत एक गरीब लोगों का अमीर देश है। भारत की गरीबी कृत्रिम है, मानव निर्मित है। यदि मंदिरों में जमा धन का सदुपयोग हो जाए तो गरीबों की, किसान, दस्तकार, मजदूर, आदिवासी की गरीबी तत्काल ख़त्म हो जायेगी। भारत एक समृद्ध, सशक्त और खुशहाल देश बन जाएगा। फिर ऐसा क्यों नहीं होता? क्या यह संभव है? यदि हाँ तो कैसे? इस सब का इलाज़ हिन्दू धर्म के लोकतांत्रिकरण में है! चलिए हम फिर से सिख धर्म और गुरुद्वारों पर आते हैं। 1920 तक यानी सौ बरस पहले तक सिख धर्म में भी यही कुछ होता था जैसा हिन्दू धर्म में होता है। 12 अक्टूबर 1920 को सिखों के पिछड़े वर्ग का एक संगठन “ खालसा बिरादरी’ ने जलियांवाला बाग़, अमृतसर में एक दीवान (धार्मिक सभा) बुलाया जिसमें खालसा कॉलेज के छात्रों और अध्यापकों ने भी हिस्सा लिया। वहां से ये सब लोग (संगत) स्वर्ण मंदिर गयी। स्वर्ण मंदिर में इन्होने कढा परसाद और अरदास अर्पण किया जिसे वहां उपस्थित पुरोहितों ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि भेंट करने वाले अछूत थे। वहीँ पवित्र पुस्तक गुरु ग्रन्थ साहिब से वह स्तोत्र दिखाया गया जो परसाद और अरदास का समर्थन करता था। आखिर कार पुरोहितों को झुकना पड़ा। उसी वक़्त संगत अकाल तख़्त गयी, जहाँ इन्हें देख वहां के पुरोहित भाग खड़े हुए और संगत ने अपना जत्थेदार अकाल तख़्त पर नियुक्त कर दिया। उसके बाद एक एक गुरुद्वारा को महंतों, पुजारियों, मठाधीशों से कब्ज़ा छुड़ाने की मुहिम शुरू हो गयी। मुहीम अहिंसक थी लेकिन कब्ज़ादारों ने कहीं कहीं झगड़ा भी किया। तरन तारण में दो अकालियों की हत्या गयी। 20 फ़रवरी 1921 को ननकाना साहिब में 200 सिख स्वयं सेवकों की हत्या महंत नारायण दास द्वारा भाड़े के हत्यारों द्वारा करा दी गयी। लेकिन अंततः मुट्ठी भर स्वार्थी तत्वों द्वारा गुरुद्वारों का कब्ज़ा छुड़ा लिया गया। आज शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति तमाम गुरुद्वारों को अपने नियंत्रण में रखती है। सभी सिख पुरुष और महिलाओं को मतदाताओं के रूप में ‘सिख गुरुद्वारा एक्ट 1925’ के अंतर्गत पंजीकृत किया जाता है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति को सिखों की संसद भी कहा जाता है। जो भी दान आता है उसके खर्चे पर इस समिति द्वारा नियंत्रण किया जाता है। एक रूपया भी किसी व्यक्ति की जेब में नहीं जाता। अनेकों शिक्षण संस्थानों, मेडिकल कॉलेज, हॉस्पिटल और चैरिटेबल ट्रस्ट इसके द्वारा संचालित होते हैं। गुरुद्वारों का लंगर भी चलता है। आज एक आम सिख की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति एक आम हिन्दू से कहीं बेहतर है तो उसके पीछे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा संचालित संस्थानों का भी योगदान है। यह सब सिख धर्म के लोकतांत्रिकरण का परिणाम है। हमारे देश के अनेकों बुद्धिजीवियों का मानना है कि जिस दिन हिन्दू धर्म का भी लोकतांत्रिकरण हो जाएगा, तब जो गरीब, किसान, मजदूर, आदिवासी हिन्दू हैं उनकी भी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति में जबरदस्त सुधार आ जायेगा। आईये हम सभी हिन्दू धर्म के लोकतांत्रिकरण के लिए काम करें और हिन्दू मंदिर व संस्थानों से कुलीन तंत्र का कब्ज़ा हटा कर लोकतान्त्रिक व्यवस्था कायम करें। जय हिन्द! – लेखक अनिल जयहिंद एक स्वतंत्र लेखक और सोशल एक्टिविस्ट हैं। ये उनके निजी विचार हैं।

Vesak Day-Buddha Poornima “Cyber Celebration”

Blessed is the birth of the Buddha; blessed is the discourse on the Noble Law; blessed is the harmony of the spiritual community; blessed is the devotion of those living in brotherhood; blessed is the spiritual effort of the united. – The Dhammapada. Since May of 1999, the United Nations (UNO) has declared Vesak, or Buddha Purnima, marking the Birth, Enlightenment and Parinibbana of Buddha, an official international Vesak Day. Vesak is the day, the Buddhist regard as the most important day in their religious calendar. This auspicious day fall on the full moon day during lunar month that corresponds the month of April or May. On Saturday May 9th, 2020, Ambedkar International coordination Society(AICS),Canadaalong with North American Ambedkarite and Buddhist organizationshumbly request to join first official Cyber celebration on Vesak Day-Buddha Poornima. Online zoom link https://zoom.us/j/5677014594 This is the first Cyber Celebration on the occasion of International Vesak Day is an important day for Buddhist communities across the world. This is the first time that all the Buddhist brothers and sisters of different countries will be called together for cybercelebration (online Celebration) Vesak Day-Buddha Poornima. Cyber celebration mission is to inspire and motivate people to come together as one human family to generate inner peace and create a boundless world landscape of compassion, integrity, harmony, love and peace.In the 21st century CE, it is estimated that over 600 million (9-10% of the world population) people practice Buddhism Vesak Day-Buddha Poornima attract Buddhist practitioners and community members from various ethnic group like Vietnam, Lao, Thai land, Taiwan, Myanmar,Mongolia, Nepal, Bhutan, Tibet, Japan, Korea, Sri Lankan, India, Bangladeshi, Cambodia, Singapore, China, Australia, New Zealand, Europe, Canada and America. It marks the three most important events in Buddha’s life: his birth, Enlightenment and passed away of Nibbana. Each year, International Vesak Day commemorates to Buddha,Dhamma and Sangha. In general, Buddha Purnima is celebrated by paying a visit to common Viharas, where Buddhists observe a longer than usual and full-length Buddhist Sutta which is similar to a service. Usually dressed in white attire, Buddhists refrain from eating non-vegetarian food. Keer is considered as one of the most auspicious porridge on this day. The statue of Buddha is placed in a basin filled with water decorated with flowers. People visit Viharas to symbolize this day as a pure and new beginning. Buddhist teachings provide guidance around non-violent action to work for universal peace throughout the world. Reporter: Er. Mahesh Wasnik Automotive Engineer-Detroit, Michigan, USA

इरफान खान ने बहुजन किरदारों को भी आवाज दी थी

54 साल की छोटी सी उम्र में कैंसर जैसी घातक बीमारी ने हमारे दौर के सेल्फ मेड एक जानदार और शानदार अभिनेता की जान ले ली। जेएनयू कैम्पस में ‘हासिल’ फिल्म देखते हुए इरफ़ान खान की एक्टिंग और दमदार संवाद अदायगी से पहली बार रूबरू हुआ। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एक पिछड़े वर्ग के स्टूडेंट लीडर के रोल में वे आशुतोष राणा से मुक़ाबिल थे। बिल्लू फिल्म के गानों को हम लोगों ने खूब एन्जॉय किया जिसमें वे एक नाइ के रोल में थे। जब हम प्रवासी भारतीयों पर अपनी एम् फिल लिख रहे थे उनकी ‘नेमसेक’ फिल्म को कई बार देखा और समझा। ‘पान सिंह तोमर’ में उनके दमदार अभिनय ने उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया। ‘द वारियर’ जैसी ब्रिटिश फिल्म में वे लीड रोल में थे । ऐसा अवसर कम भारतीय अभिनेताओं को मिला है कि वे हॉलीवुड या ब्रिटिश फिल्म में लीड नायक बने हों। ओम पुरी, सईद जाफरी और कबीर बेदी ने भी इंटरनेशल प्रोजेक्ट्स में काम किया लेकिन लाइफ ऑफ़ पाई और द वारियर से जो यश इरफ़ान ने कमाया वो सबको कहां नसीब होता है। मीरा नैयर की ‘सलाम बॉम्बे’ से 1988 में अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले इरफ़ान ने चाणक्य, चंद्रकांता, श्रीकांत , भारत एक खोज, सारा जहाँ हमारा, बनेगी अपनी बात, अनुगूंज और स्पर्श जैसे नामचीन सीरियल्स में भी काम किया। लाल घास पर नीले घोड़े जैसी टेलीफिल्म में भी उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया। 2017 में हिंदी मीडियम फिल्म में एक मध्यवर्गीय परिवार की कश्मकश को जिस तरह से उन्होंने पर्दे पर उतारा वह अद्भुत है। ‘अंग्रेजी मीडियम’ 2020 में रिलीज उनकी अंतिम फिल्म साबित हुई। 2011 में उन्हें पदममश्री से सम्मानित किया गया। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से पास आउट इरफ़ान के अंग अंग से अभिनय छलकता था लेकिन असल में उनकी आँखे ही उनकी दिल की जुबान थी और हमेशा रहेंगी। 30 साल तक फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले एक अलहदा एक्टर इरफ़ान के लिए यही कहूंगा ‘इरफान मरते नहीं, इरफ़ान मरा नहीं करते’। अलविदा इरफ़ान आप हमेशा हमारे दिल में बने रहेंगे।
  • लेखक राकेश पटेल फिल्मों के जानकार हैं। जेएनयू के रिसर्च स्कॉलर रहे हैं।

मैं था..मैं हूँ …और मैं ही इरफ़ान रहूँगा…

दरिया भी मैं दरख्त भी मैं, झेलम भी मैं, चेनाब भी मैं… दैर हूँ हरम भी हूँ… शिया भी हूँ सुन्नी भी हूँ… मैं हूँ पण्डित… मैं था..मैं हूँ …और मैं ही इरफ़ान रहूँगा… मीरा नायर की ‘सलाम बोम्बे’ में सड़क पर बैठा एक राइटर जो लोगों के लिए चिट्ठियाँ लिखने का काम करता था कौन जानता था कि एक दिन वो इरफ़ान मुंबई सिनेमा की इस सड़क से उठकर उस मुक़ाम पर पहुँच जाएगा की वो दुनिया के फ़िल्म इतिहास की अब तक सबसे बेहतरीन फ़िल्मों ‘स्लमडॉग मिलेनियर, लाइफ़ आफ पाई और जुरासिक पार्क’ का हिस्सा बनेगा। वो इरफ़ान अब नहीं रहे। या यूँ कहें की अब कोई इरफ़ान ना आएगा। दो साल तक कैंसर से जूझने के बाद ‘इंग्लिश मीडियम’ से शानदार वापसी करके इरफ़ान ने ये दिखा दिया था की उन्हें इरफ़ान क्यों कहतें हैं। शायद माँ की असमय मौत और अंतिम समय में लॉकडाउन की वजह से उन तक ना पहुँच पाने की टीस इरफ़ान को घर कर गयी। पिछले सप्ताह ही उन्हें कोकिलाबेन हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया था और 29 अप्रैल, 2020 को भारतीय सिनेमा से इरफ़ान का साया उठ गया। ऐसे में जब सारी दुनिया मौत के भयानक साये में जी रही है इरफ़ान जैसे शानदार अदाकार का हमारे बीच से यूँ बिना कुछ शानदार कहे चले जाना एक ख़ालीपन छोड़ जाता है, और छोड़ जाता है कभी ना भरने वाला घाव। इरफ़ान को शब्दों में पिरोना आसान नहीं, क्योंकि ‘सलाम बॉम्बे’ के बेनाम सड़कछाप लेटर राइटर को पहचान दिलवाना जबकि आपके सामने नाना पाटेकर और रघुवीर यादव जैसे कलाकार हों से लेकर ‘इंग्लिश मीडियम’ के चंपक हलवाई तक इरफ़ान जैसा सफ़र बहुत कम लोगों को नसीब होता है। ना केवल भारतीय टीवी, सिनेमा बल्कि दुनिया भर के सिनेमा के लोग इरफ़ान की शानदार डायलाग़ डिलीवरी और उनके बोलने के अंदाज को कई दशकों तक ना भूल पाएँगे। इरफ़ान होना आसान नहीं है ना वो अंदाज और जज़्बा पैदा करना जिनसे बनता है अदाकार और शानदार फ़नकार। एक एक डायलॉग जैसे कई हज़ार खून के कतरों को जला जला कर उन्होंने बोला होगा। फ़िल्म ‘हासिल’ में इलाहाबाद के होस्टल के जीवन को जीवंत कर देने वाले कट्टे लेके चलने वाले एक गुंडे के किरदार  को लोग आज भी याद रखते हैं, ये इरफ़ान ही कर सकते थे। डॉ चंद्रप्रकाश के ‘चाणक्य’ में सेनापति भद्रसाल का तमतमाया चेहरा अगर आपको याद हो तो वो इरफ़ान ही थे जिसे देख कर सिरहन पैदा होती थी। नीरजा गुलेरी के ‘चंद्रकांता’ में बद्रीनाथ और सोमनाथ के जीवंत किरदार हो या फिर दूरदर्शन की टेली फ़िल्म ‘लाल घास पे नीले घोड़े’ में लेनिन का किरदार। सब जगह वो इरफ़ान ही था जो बता रहा था की कोई है इस सिनेमा की निरंतरता को और इसके किरदारों को स्थायित्व देने के लिए ताकि बरसों बरस कोई ये ना कहा की भारत में कलाकार नहीं होते। भारत एक खोज में उनके किरदार आज भी याद किए जाते हैं। 1988 में टीवी की दुनिया से निकल कर इरफ़ान ने फ़िल्मों में पहला कदम रखा फ़िल्म थी मीरा नायर की सलाम बोम्बे। फ़िल्म जब पर्दे पर आयी तो मीरा नायर ने उनका फ़िल्म से रोल काफ़ी काट दिया था पर मीरा शायद रोल एडिट कर सकती थी पर इरफ़ान की क़िस्मत को नहीं उसे तो कुछ और ही मंज़ूर था। फ़िल्म को दुनिया भर में वाहवाही मिली और इरफ़ान का फुठपाथ पर बैठे एक लेखक का छोटा सा रोल बहुत कुछ कह गया था जिसे अब एक लम्बा सफ़र तय करना था। 2004 आते आते इरफ़ान काफ़ी सारे रोल कर चुके थे पर पहचान और वाहवाही मिली उन्हें ‘मक़बूल’ से। इस साल आयी इस फ़िल्म को इरफ़ान की मुंबई की मसाला फ़िल्मों का एंट्री गेट भी कहा जाता है। विशाल भारद्वाज ने कल्पना की थी की सेक्सपीयर के मैक्बेथ को कैसे स्क्रीन पर उतारा जाए और फिर 2004 में  रच डाला मक़बूल। इरफ़ान मक़बूल में जिसके सामने थे वो थे पंकज कपूर जिन्हें भारतीय सिनेमा एक ऐसे अभिनेता के रूप में जानता है जो किसी परिचय के मोहताज नहीं। पंकज कपूर जहांगीर खान और इरफ़ान मक़बूल। एक इतिहासिक किरदार मैक्बेथ को इरफ़ान ने एक गैंगस्टर के रूप में जिस शानदार अदाकारी से सामने रखा वो भारतीय सिनेमा के डार्क फ़िल्मों में एक मिसाल है जबकि आपके सामने दो और बेहतरीन कलाकार तब्बू और पीयूष मिश्रा हों पर वो इरफ़ान ही क्या जो बता ना सके की वो इरफ़ान क्यों है। लाल बड़ी नशे से भरी आँखें जो मुहँ से पहले ही आँखों से डायलॉग बोलने की कला इरफ़ान की थी वो शायद कोई ना कर पाए। इससे पहले वो आर्ट फ़िल्मों में ही अपने अभिनय से लोगों को लुभा रहे थे पर आर्ट फ़िल्में देखने वाला समाज बहुत कम था। और इरफ़ान को एक जोनर में बांध रखना उतना ही मुश्किल भी। ये इरफ़ान की आँखे का ही जादू था की जो डायलोग से पहले बोल पड़ती थीं और लोग उनकी इस अदा के क़ायल होते जा रहे थे। और यही वजह थी कि फ़िल्म ‘हासिल’ में निभाए उनके इलाहाबादी गुंडई के जिवंत किरदार को उनको पहला बेस्ट विलेन फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला। जो इलाहाबाद मेरठ या लखनऊ के छात्रावासों के जीवन को थोड़ा भी जानता होगा वो इरफ़ान के इस किरदार का क़ायल हुए बिना नहीं रह होगा। 2007 में ‘मेट्रो’ फ़िल्म  के लिए भी उन्हें  बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्टर का अवार्ड मिला जिसमें वो मोंटी नाम के एक ऐसे किरदार को निभाए जो उम्र बीत जाने पर कैसे भी एक टीवी प्रडूसर से शादी करने के लिए बेताब था। साथ ही इस साल उन्हें सम्मान मिला ‘नेमसेक’ नाम की फ़िल्म के लिए भी जिसने उन्हें विश्वव्यापी पहचान दिलवायी। इस साल उन्होंने दो और विदेशी फ़िल्मों ‘ए मायटी हार्ट’ और ‘दा दर्जलिंग लिमिटेड’ में किरदार निभाया और अब  इरफ़ान की पहचान अंतरराष्ट्रीय अभिनेता के रूप में स्थापित हो चुकी थी। डैनी बोयल की ऑस्कर फ़िल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ में इरफ़ान के निभाए इंस्पेक्टर के किरदार और फ़िल्म के अन्य किरदारों को स्क्रीन ऐक्टर गिल्ड अवार्डस फ़ोर आउट्स्टैंडिंग परफ़ॉरमैन्स अवार्डस से नवाज़ा गया। डैनी बोयल ने तब इरफ़ान के लिए कहा था कि ये एक ऐसा अभिनेता है जो किसी भी किरदार की असली आत्मा बन जाता है और उसे फिर अपने अंदर केंद्रित करके जीवंत करता है। इस बीच इरफ़ान ने उस रोल को निभाया जो भारतीय फ़िल्म इतिहास में एक नज़ीर बन गया है। 2012  में तिग्मांसु धूलिया ने जनसत्ता अख़बार के पत्रकार स्वर्गीय आलोक तोमर के सुझाव पर बीहड़ के एक डैकेत की कहानी उठायी जो ‘पान सिंह तोमर’ की कहानी के रूप पे पर्दे पर आयी और छा गयी। पान सिंह तोमर में बोला गया उनका संवाद काफ़ी फ़ेमस हुआ  कि ‘बीहड़ में बाग़ी होतें हैं डैकेत मिलते हैं पर्लियामेंट में’। ‘देश के लिए दौड़े तो कोई नहीं पूछता था अब डैकेत बन गए तो हर कोई नाम जप रहा है’। एक डकैत का दौड़ के प्रति जज़्बा जिस शानदार तरीक़े से इरफ़ान ने स्क्रीन पर जिया वो क़ाबिले तारीफ़ है। इसी साल इरफ़ान बच्चों की दुनिया की सबसे प्रसिद्ध सीरीज़ ‘स्पाइडर मैन’ में डॉक्टर रजित राथा का किरदार निभाए और ‘लाइफ़ आफ पाई’  जैसी ऑस्कर फ़िल्म में पाई के वयस्क रोल भी इरफ़ान खान के खाते में ही दर्ज हो गया। ये इरफ़ान ही थे जिन्हें वर्ल्ड सिनेमा में भारतीय कलाकार के रूप में बड़े बड़े किरदार निभाने का मौक़ा मिला। इसके बाद आयी ‘लंच बॉक्स’ ने तो इस अभिनेता का एक अलग ही किरदार दिखायी दिया।  ये इरफ़ान ही थे जिन्होंने लंच बॉक्स में 60 के हो चुके फ़र्नांडिस के किरदार को जीवंत किया वो तब जब भारतीय सिनेमा में एक शर्त लगी थी की क्या नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी के रूप में भारतीय सिनेमा को उसका नया इरफ़ान मिल गया है। ऐसे समय में इरफ़ान ने नवाजुद्दीन के साथ फ़िल्म करना गवारा किया और फ़िल्म के साथ इतिहास बना दिया। दुनिया भर में इरफ़ान की इस फ़िल्म ने वाहवाही और ढेरों अवार्डस बटोरे और साथ ही पक्का किया इरफ़ान बनाया नहीं जा सकता बल्कि इरफ़ान तो पैदा होतें है। इन दोनो के किरदारों को समझने के लिए आप एक युट्यूब फ़िल्म हाई वे भी याद कर सकते हैं। इरफ़ान का निभाया ‘सात खून माफ़’ का निमफोमैनियाक शायर का किरदार सच में आपको नफ़रत से भर देता है। 2015 में आयी ‘पीकु’ में इरफ़ान शताब्दी के सबसे बड़े कलाकार अमिताभ बच्चन के सामने एक देशी अंदाज वाले ट्रैवल कम्पनी के मालिक और फिर एक टैक्सी ड्राइवर के रूप में जिस तरह से डायलॉग बोल रहे थे वो शानदार था और इसकी वजह है कि इस फ़िल्म के लिए उन्हें ढेरों अवार्डस और वाहवाही मिली। इस साल वो गुंडे और हैदर में भी नज़र आए और साथ ही किरदार निभाया जुरासिक वर्ल्ड सीरीज़ की फ़िल्म में भी। आरुषि हत्याकांड पर बनी तलवार फ़िल्म में सीबीआई अफ़सर के अश्वनि कुमार किरदार से उन्होंने साबित कर दिया की वो क्यों बेस्ट हैं। 2015  में ऐश्वर्य के साथ जज़्बा और फिर टॉम हेक्स के साथ नज़र आए थ्रिलर हॉलीवुड फ़िल्म इन्फ़र्नो में। 2017 में इरफ़ान ने एक बार फिर से हल्ला बोल किया और हिंदी मीडियम जैसी छोटे से बजट की फ़िल्म से देश भर के घर घर में पहुँच गए। चाँदनी चौक के एक कारोबारी के हिंदी भाषी किरदार को उन्होंने अमर कर दिया जिसके लिए उन्हें बेस्ट अभिनेता का फिल्मफेअर अवार्डस मिला।साथ ही क़रीब क़रीब सिंगल फ़िल्म से एक अजीब कशिश  वाले आशिक़ का किरदार भी इरफ़ान के हिस्से आया। इसके बाद ब्लैकमेल और फिर कारवाँ आयी जिसमें वो एक अलग ही रूप में नज़र आए। इन तमाम कामों के लिए भारत सरकार ने उन्हें उनके इसी योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा था। इंग्लिश मीडियम उनकी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई जो उन्होंने अपनी बीमारी कैंसर से उबरने के बाद पूरी की और एक बार फिर से एक ठेठ राजस्थानी मिठाई वाले चम्पक की भूमिका को निभाया और उसी किरदार के साथ अपने अभिनय को अमर कर इस दुनिया के पर्दे से अपने पैर हटा लिए। इरफ़ान की निजी ज़िंदगी बहुत सरल सी थी पत्नी सुतपा सिकदर उनकी एनएसडी के दिनों की साथी थी जिनसे उन्होंने 1995  में शादी की। दो बच्चे बाबिल और अयान है। इरफ़ान आज हमारे  बीच नहीं हैं और वो भी ऐसे वक़्त जब उन्हें देने के लिए चार कंधे भी सरकारी हुक्म से तय हुए होंगे कितना टीस भरा ये सफ़र है उसके लिए, जिसने अपने अभियन से लाखों प्रशंसकों का स्टैंडिंग ओविशन पाया। इरफ़ान के बोले गए संवाद लिखता तो कोई राइटर होगा की ये मुहँ से बोले जाएँगे पर वो इरफ़ान थे जो इन्हें पहले आँखों से बोलते थे फिर वो संवाद इतिहास बन जाते थे। कैंसर से लड़ते हुए उन्होंने हिम्मत दिखायी और उसे पराजित करके शानदार वापसी की। पर इरफ़ान हमेशा चौंकाते रहे और आज फिर चौंका के चले गए। इरफ़ान को कुछ हज़ार शब्दों में लिखना आसान नहीं और ये हो भी नहीं सकता। आप आसमान को उतना ही देख सकते हैं जितना वह आपकी आँखों में समाएगा, उतना नहीं जितना बड़ा वो सच में होता है। शुक्रिया इरफ़ान, मेरी आँखों को आज उस वक़्त भिगो देने के लिए जब मैं ख़ुद मौत के साये में जी रहा हूँ। पता नहीं कल क्या होगा पर आज का दिन और आने वाला हर दिन मैं तुम्हें ज़रूर याद रखूँगा। और याद रखूँगा हर वो किरदार जिसने तुम्हें इरफ़ान बनाया । 54 साल
अरविंद कुमार
की उम्र दुनिया छोड़ने की नहीं होती पर तुम गए शायद उस माँ को मिलने जिसको कंधा देना भी तुम्हें नसीब नहीं हुआ। इससे बड़ी क़ुर्बानी तुम ही कर सकते थे। अलविदा इरफ़ान ‘तुम’ होना आसान नहीं। तुमको याद रखेंगे गुरु हम।
  • लेखक अरविंद कुमार पत्रकार हैं।

मशहूर फिल्म अभिनेता इरफान खान नहीं रहे

मशहूर एक्टर इरफान खान नहीं रहे। कल अचानक तबियत बिगड़ने से वो अस्पताल में आईसीयू में भर्ती हुए थे। और आज उनकी मौत की खबर आ गई। फिल्म निर्देशक सुजीत सरकार ने ट्विट कर इसकी जानकारी दी है। इरफान पिछले काफी समय से कैंसर से पीड़ित थे और लंदन में उनका इलाज चल रहा था। पिछले दिनों वह भारत लौट आए थे और कहा जा रहा था कि वो स्वस्थ हो गए हैं। लेकिन अचानक उनके जाने की खबर आ गई। बीते दिनों उन्हें खराब स्वास्थ्य को लेकर मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती कराया गया था। इस खबर के आने के बाद पूरी फिल्म इंडस्ट्रीज शोक में है। गीतकार जावेद अख्तर ने कहा है कि इरफान जल्दी चले गए। वो अभी बहुत कुछ कर सकते थे। एक बड़ा एक्टर हमारे बीच से चला गया। इरफान खान को लेकर बॉलीवुड डायरेक्टर और प्रोड्यूसर सुजीत सरकार ने सबसे पहले ट्वीट कर जानकारी दी। उन्होंने लिखा- “मेरे प्रिय मित्र इरफान। आप लड़े और लड़े और लड़े। मुझे आप पर हमेशा गर्व रहेगा। हम फिर से मिलेंगे। सुतापा और बाबिल के प्रति संवेदना। साल 2018 में इरफान खान  को पता चला था कि वह न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर से पीड़ित हैं। इस बीमारी के इलाज के लिए इरफान खान लंदन भी गए थे और करीब साल भर इलाज कराने के बाद वह वापस भारत लौटे थे। इरफान खान की मम्मी सईदा बेगम का राजस्थान में कुछ दिनों पहले ही निधन हो गया था। लॉकडाउन के कारण इरफान खान अपनी मम्मी के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए थे। उनको वीडियो कॉल के जरिए ही अपनी मम्मी का अंतिम दर्शन करना पड़ा था। इरफान का जन्म 7 जनवरी 1967 में राजस्थान में हुआ था। उन्होंने एनएसडी से ट्रेनिंग ली थी। वह उस दौर के अभिनेता हैं, जब चाणक्य सिरियल चला करता था। उन्होंने चाणक्य में काम भी किया था। वह सन् 2000 के बाद लोकप्रिय होने लगे। फिल्म ‘हासिल’ के लिये उन्हे वर्ष 2004 में सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। उन्होंने ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ और ‘द अमेजिंग स्पाइडर मैन’ फिल्मों में भी काम किया था। 2011 में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 60वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2012 में इरफ़ान खान को फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दिया गया। हाल ही में उनकी फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम रिलिज हुई थी, जिसकी काफी सराहना हुई। एक शानदार अभिनेता को दलित दस्तक का नमन।

याद रखिएगा महामारियां माफ़ नही करती

1918 के स्पैनिश फ़्लू में सर्वाधिक मौतें भारत में हुई थी प्रति एक हज़ार 60 लोग मारे गए थे पूरे देश में डेढ़ करोड़ से दो करोड़। हाल ऐसा था कि आगे के वर्षों में भारत में अप्रत्याशित तौर पर जन्मदर घट गयी। बात यह नही कहनी थी बात यह थी कि मरने वालों में ज़्यादातर आदिवासी, दलित, निम्न मध्यवर्गीय और ग़रीब तबक़ा था। जो बचे रह गए उनके पास संसाधन थे, पैसे थे। इतिहासकार जेएन हेज़ की किताब ‘Epidemics and Pandemics: Their Impacts on Human History’ पढ़ रहा हूँ। मन बेहद भारी है। हेज़ कहता है कि पश्चिम ने 1918 के इनफ़्लुएंज़ा में हुई मौतों को इसलिए भुला दिया क्योंकि सबसे ज़्यादा भारत और अफ़्रीका में मौतें हुई थी। लेकिन सच यह भी है कि उस वक़्त की तरह आज भी हम सवर्ण एलिट मध्यमवर्गीय सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी जान बचाना चाहते हैं। देश में कोरोना पर बात हो रही है लेकिन उस भुखमरी पर बात नही हो रही जो कोरोना से ज़्यादा तेज़ गति से ग़रीबों वंचितों को मार रही है। दो नम्बर की कमाई करके बच्चों को कोटा पढ़ने भेजने वाले परिजनों के लिए बसे भेजी जा रही है,ग़रीब की 8 साल की बेटी सैकड़ों किमी पैदल चलकर सड़क पर गिरकर मर जा रही। यह तय है कि लॉकडाउन हटने के बाद का समाज और ज़्यादा विभाजित होगा। उद्योगों की हालत ख़स्ता होगी और खेती किसानी के ढंग बदलेंगे। नि:संदेह मज़दूर अपने काम की ज़्यादा क़ीमत माँगेगा जैसा कि हर महामारी के दौरान या बाद में होता रहा है। यह देखना है कि सरकार इन बेहद कठिन चुनौतियों से कैसे निपटती है? याद रखिएगा महामारियाँ माफ़ नही करती। Awesh Tiwari के फेसबुक पोस्ट से साभार

कोरोना इफेक्ट में अमीरों से ज्यादा Tax लेने के सुझाव पर क्यों भड़की मोदी सरकार

कोरोना के कारण देश की अर्थव्यवस्था को हुए भारी नुकसान को सुधारने के लिए राजस्व सेवा के 51 अफसरों ने अमीरों पर आयकर टैक्स बढ़ाने की सिफारिश की है। इन 51 IRS ने फोर्स 1.0 नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने सुझाव दिया कि 1 करोड़ रुपये से ज्यादा आमदनी वालों पर टैक्स को 30 से बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया जाए। 5 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति वालों पर वेल्थ टैक्स लगाने का सुझाव दिया गया है, जबकि 10 लाख रुपये से अधिक आमदनी वालों से 4 प्रतिशत वन टाइम कोरोना सेस वसूले जाने का सुझाव है। इन अधिकारियों ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट के जरिए यह सुझाव तो देश हित में दिया था, लेकिन उनका यही सुझाव अब उनके गले की हड्डी बन गया है। केंद्र सरकार ने इस पर भारी नाराजगी जताते हुए इसे गलत कहा है। तो केंद्र की नाराजगी के बाद प्रत्यक्ष टैक्स नीतियों के लिए सर्वोच्च नीति बनाने वाली संस्था केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड यानी (CBDT) ने इसे अनुशासनहीनता मानते हुए अधिकारियों पर जांच शुरू कर दी है। हालांकि अधिकारियों पर इस कार्रवाई के विरोध में आवाजें उठने लगी है। आईए देखते हैं कि आखिर इस रिपोर्ट में क्या है, जिससे अधिकारियों को लगता है कि ऐसा कर के देश की अर्थव्यवस्था सुधारी जा सकती है। जबकि सरकार इस रिपोर्ट के बाद भड़की हुई है। इस रिपोर्ट में चार मुख्य सुझाव दिये गए हैं। खासतौर पर गरीबों के हित की और अमीरों से ज्यादा टैक्स लेने की बात कही गई है। (1) सुपररिच पर टैक्स 30 से बढ़ाकर 40 प्रतिशत- IRSA यानी राजस्व सेवा संघ के इन अफसरों ने तीन महीने के लिए देश के धनाढ्य लोग जिन्हें सुपररिच की श्रेणी में रखा जाता है, उन पर 30 की बजाय 40 प्रतिशत सुपर रिच टैक्स लगाने का सुझाव दिया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सुपर रिच टैक्स या वेल्थ टैक्स में से किसी एक विकल्प पर भी आगे बढ़ा जा सकता है। गौर हो कि वेल्थ टैक्स को खत्म किया जा चुका है।  (2) विदेशी कंपनियों पर सरचार्ज बढ़ाने का सुझाव- रिपोर्ट में एक अवधि के लिए देश में काम कर रही विदेशी कंपनियों पर सरचार्ज बढ़ाने का सुझाव दिया गया है। अभी एक से 10 करोड़ रुपये कमाने वाली विदेशी कंपनियों पर 2 प्रतिशत और 10 करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई पर 5 प्रतिशत सरचार्ज लगता है। (3) गरीबों को हर महीने 5000 रुपये देने की सिफारिश- रिपोर्ट में आर्थिक रूप से कमजोर तबके के परिवारों को छह महीने तक हर महीने 5000 रुपये की मदद की सिफारिश की गई है। इससे 12 करोड़ परिवारों को फायदा होगा। साथ ही यह पैसा तत्काल इकोनॉमी में आएगा।  (4) सीएसआर फंड में इंसेंटिव बढ़ाने का सुझाव- कोरोना संकट में सीएसआर गतिविधियों के लिए टैक्स इंसेंटिव बढ़ाए जाने का सुझाव दिया गया है। कंपनियों के कर्मचारी जो कोरोना से जुड़े राहत कार्यों में जुटे हैं, उन्हें मिलने वाली सैलरी को सीएसआर फंड में जोड़ा जाए। क्योंकि वे अभी मूल काम नहीं कर रहे हैं। रिपोर्ट बनाने में किसकी भूमिका- फोर्स 1.0 नाम की इस रिपोर्ट को 2018-2019 बैच के 15 IRS अधिकारियों ने तैयार किया है। वहीं 2015 से 2018 बैच के 23 अफसरों ने इनमें सहयोग किया है। जबकि 6 अफसर मेंटर हैं। तीन चैप्टर में बनी रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा टैक्स एडमिनिस्ट्रेशन का है। एक हिस्से में MSMI सेक्टर की वैश्विक स्टडी की गई है। रिपोर्ट के अंतिम हिस्से में देश के 18 विभिन्न क्षेत्रों पर कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन के असर का अध्ययन किया गया है। लेकिन लगता है कि अमीरों और विदेशी कंपनियों से ज्यादा टैक्स वसूलने और गरीबों को हर महीने 5000 रुपये की सहायाता वाला सुझाव केंद्र सरकार को पसंद नहीं आया है। सरकार को यह दिक्कत है कि आखिर उनके बिना कहे, ऐसा क्यों हुआ। सरकार इसे सेवा नियमों का उल्लंघन बता रही है। और जाहिर है कि केंद्र सरकार नाराज तो फिर किसी और संस्था द्वारा रिपोर्ट की तारीफ करने का सवाल ही नहीं है, सो केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड यानी CBDT का कहना है कि रिपोर्ट को बिना अनुमति के सार्वजनिक किया है। रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से पहले उनकी तरफ से कोई अनुमति नहीं मांगी गई थी। लेकिन सरकार से उलट आम लोगों के बीच आईआरएस अधिकारियों के खिलाफ जांच की निंदा हो रही है। कहा जा रहा है कि अधिकारियों ने यह रिपोर्ट देश हित में ही तैयार किया है, सरकार उसे मानने या नहीं मानने के लिए आजाद है, लेकिन अधिकारियों पर कार्रवाई समझ से परे है। अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने के सुझाव पर मोदी सरकार का इस तरह भड़कना मोदी सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाती है। सवाल यह भी है कि कोरोना महामारी के वक्त भी कहीं सरकार को देश की अर्थव्यवस्था से ज्यादा चिंता पूंजीपतियों की तो नहीं है।  

लॉकडाउन में आदिवासी और उनकी मुसीबतें

– सुमित वर्मा कोरोना संक्रमण (COVID-19) के कारण लॉकडाउन देश और राज्यों में सबसे ज्यादा परेशानी में आदिवासी समुदाय के लोग हैं. इनमें से ज्यादातर कभी खेतों में तो कभी शहरों में मजदूरी करते हुए जीवनयापन करने वाले हैं. इनके पास न तो खेती वाली बड़ी जमीनें हैं और न ही रोजगार का कोई दूसरा साधन. इनमें से जो अभी भी शहरों में फंसे हैं, उनके सामने दो जून की रोटी का सवाल है और जो अपने गांव घर तक लौट आए हैं, उनमें से ज्यादातर के सामने भी रोजी-रोटी का संकट है. गांवों में, जंगलों में, अपने डेरों, कस्बों, ढानों, मजरे और टोलों में रहने वाले ये लोग इन दिनों भारी मुसीबत में जी रहे हैं. उनका वर्तमान तो जैसे-तैसे कट रहा है, लेकिन आने वाले बारिश के मौसम में और उसके साथ आर्थिक मंदी के दौर में उनका गुजर-बसर कैसे होगा? सरकारी मदद उन तक कब और कितनी पहुंचेगी और तब तक उनकी स्थिति-परिस्थितियां कैसी हो चुकी होंगी, इस पर विचार जरूरी है. संक्रमण, कोरोना, लॉकडाउन, सोशल डिस्टेंस और क्वारंटाइन जैसी चीजों से बेखबर रहा आदिवासी समुदाय अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति तक नहीं कर पा रहा. आम दिनचर्या में लगने वाली चीजों के लिए साप्ताहिक बाजार, शहरों से आने वाले छोटे व्यवसायियों पर निर्भर रहने वाले जनजाति समुदाय के लोगों तक सरकारी मदद-राहत उतनी मात्रा में नहीं पहुंच पा रही है, जितना उसका प्रचार-प्रसार हो रहा है. कई राज्यों में राहत सामग्री घोटाला आदि भी जल्द सामने आ जाए, तो हैरानी नहीं होगी. यह तो भला हो कि समय, रबी की फसल का है. गेहूं की कटाई में लगे कुछ मजदूरों को काम मिल गया है तो कुछ इस मौसम ने आम, महुआ जैसे फल आदिवासियों को दे दिए हैं. चिंता है कि आने वाले बारिश के दिनों में जब आदिवासी को कहीं काम नहीं मिल सकेगा तब संकटमोचन कौन होगा? सरकारी मदद, ऊंट के मुंह में जीरा बात करें, भारत के हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश की तो यहां, सरकार गिराने और बनाने के खेल ने आदिवासियों को हमेशा ही हाशिए पर रखा है. एक-दो नामों को छोड़ दें तो यह वर्ग हमेशा से सही नेतृत्व से वंचित बना हुआ है. चुनावों के दौरान राजनीतिक दल तमाम लुभावने वादे करते हैं, लेकिन सरकार बन जाने के बाद न तो पक्ष और न ही विपक्ष आदिवासियों की ओर ध्यान देता है. आदिवासियों के मुद्दे आज भी वैसे ही चिंताजनक हैं, जैसे दशकों पहले हुआ करते थे. कोरोना वायरस के कारण उपजी बीमारी के इस दौर में भी आदिवासी लाचार, मजबूर और तंगहाली में जी रहे हैं. एक खबर की बानगी देखिए, मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले बैतूल के चिचोली विकासखंड के सुदूर आदिवासी अंचल टोकरा के ग्राम मालीखेड़ा में जब आदिवासियों के पास खाने के लिए कुछ नहीं बचा, तो उन्होंने राशन के लिए गुहार लगाई. बमुश्किल उन तक कुछ सरकारी राशन पहुंचा. फोटो खिंचवाने और राशन देने की रस्मों के बाद वे अपने पेट की आग बुझा पाए. हालात फिर वही पुराने जैसे हैं. कमोबेश ऐसा ही हाल सभी आदिवासी क्षेत्रों का है. कुछ जगह वन विभाग, पुलिस विभाग या पंचायत विभाग के माध्यम से आदिवासियों तक राशन पहुंचाया जा रहा है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जितना ही है. सरकारी अमला भी अपनी तासीर नहीं छोड़ रहा तो आदिवासियों की बसाहटें भी दुर्गम स्थानों पर हैं, जहां पहुंच पाना कुछ कठिन होता है. सरकार की प्राथमिकता में नहीं छत्तीसगढ़ में आदिवासी दो पाटों के बीच पिस रहे हैं. सरकारी दुश्वारियां और नक्सलियों के बीच आदिवासी अपने घर, अपने कस्बों और अपनी ही धरती पर लाचार हैं. कोरोना महामारी के इस दौर में कहीं आदिवासियों तक सरकारी मदद-राहत और जानकारियां नहीं पहुंच पाती हैं, तो कहीं सरकारी नियम कानून उनके लिए दुविधा बन जाते हैं. नक्सलियों के डर की आड़ में अधिकारी-कर्मचारी भी गांव-गांव तक जाने से बचते हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो आदिवासी और उनकी समस्याएं कभी, किसी सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहीं. शहरों, कार्यकर्ताओं, पार्टी, स्वजनों और खुद के विकास में उलझे नेता-अफसरों ने कभी आदिवासियों की दिक्कतों को समझने तक की जहमत नहीं की. इन दिनों सीमावर्ती आंध्र प्रदेश के इलाकों में मिर्ची तुड़ाई के लिए गए आदिवासियों को वापस अपने गांव आने के लिए कोई साधन नहीं मिला. ये उनकी जीवटता थी कि बीच जंगल वाले रास्ते से कई किलोमीटर पैदल चलते हुए वे अपने गांव पहुंचे. ऐसा देखा जाए तो राजधानी रायपुर से करीब 500 किमी दूर बसे इन आदिवासियों ने बिना उफ किए पहले अपना चेकअप कराया और उसके बाद ही अपने घरों में दाखिल हुए. चेकअप के दौरान भी सोशल डिस्टेंसिंग और सुरक्षा के लिए गमछे का उपयोग किया. प्रकृति ही सहारा आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मनीष भट्ट बताते हैं कि कोरोना के इस दौर में तो छोड़िए आम दिनों में भी हालात बदतर रहते हैं. सरकारें चाहें जितने दावे कर लें, कभी कोई योजना आदिवासियों तक सही मायनों में नहीं पहुंच पाती. बंदरबांट तो अभी भी चल रही है. लेकिन आदिवासियों की खाद्य समझ और प्रकृति से उनका सीधा संबंध ही इन दिनों बड़ा सहारा है. सबसे बड़ी बात है, जादुई फसल महुआ का मौसम होना, इसके सहारे कुछ दिन जरूर कट जाएंगे. कुछ गेहूं की कटाई से काम मिल जाएगा, लेकिन बारिश के दिनों में तो हालात बिगड़ेंगे ही. कुछ आदिवासियों ने अपने आंगन में सब्जी-भाजी आदि उगा रखी है, जिससे उनका काम चल रहा है. आदिवासी, सरकार या किसी से भी फ्री में कुछ नहीं लेते हैं, यह उनका स्वाभिमान है. यदि वे कुछ लेने भी आएंगे तो उसकी भरपाई के लिए कुछ न कुछ दे जाते हैं. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के लिए सही मायनों में काफी कुछ करना बाकी है. झारखंड, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र आदि राज्यों के आदिवासियों की हालत भी ऐसी ही है. राजस्थान में भी आदिवासी समाज को लॉकडाउन से जूझना पड़ रहा है. गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान से जुड़ा राजस्थान का बांसवाड़ा जिले में भी आदिवासियों को पेट भरने के लिए समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है. इन दिनों में प्रकृति से मिलने वाली साग-भाजियों से गुजारा चल रहा है. आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा के लिए उनका अपना सदियों पुराना प्रबंधन है. वे थोड़ी बहुत खेती, सब्जी-भाजी, जंगली जड़ी-बूटी, वनोपज, पशुपालन और उनके उत्पाद से गुजर बसर कर लेते हैं. लेकिन रोजगार की तलाश में गुजरात और मध्यप्रदेश जाने वाले आदिवासी मजदूरों के सामने आने वाले दिन चुनौती भरे होंगे. डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं. यह न्यूज 18 से साभार प्रकाशित किया जा रहा है।

आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी और आरक्षित वर्ग का आपसी द्वंद

आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने आंध्र प्रदेश में पिछले दस साल से लागू व्यवस्था को बदल दिया है। तो वहीं जजों की बेंच ने जजमेंट के दौरान आरक्षण को लेकर जो बातें कही है, उससे आरक्षित वर्ग में बेचैनी शुरू हो गई है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आंध्र प्रदेश के संदर्भ में आया है। जहां के कुछ जिलों में अनुसूचित जनजातियों के लिए सौ फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। शीर्ष अदालत ने हालांकि अब तक नौकरी पाए लोगों की नौकरी बहाल रखने का आदेश दिया है, जो बड़ी राहत है। दरअसल सन् 2000 में आंध्र प्रदेश ने कुछ अनुसूचित जनजाति बहुल जिलों में टीचर की पोस्ट के लिए 100 फीसदी आरक्षण दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 22 अप्रैल को इस पर सुनवाई करते हुए इसे असंवैधानिक बताकर रद्द कर दिया। पांच सदस्यीय बेंच का नेतृत्व अरुण मिश्रा कर रहे थे। इस पीठ में जस्टिस अरुण मिश्रा के अलावा जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस शामिल थे। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तमाम राज्य सरकारों को चेताया कि भविष्य में कोई भी राज्य कभी भी आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज़्यादा नही कर सकता। 152 पन्नों के जजमेंट में पांच जजों की पीठ ने कई ऐसी बातें भी कही है, जिससे एससी-एसटी वर्ग के भीतर बेचैनी शुरू हो गई है। कोर्ट ने यह कह कर नई बहस शुरू कर दी है कि- आरक्षण का फायदा उन लोगों को नहीं मिल रहा है, जिन्हें सही मायने में इसकी जरूरत है। आरक्षण का लाभ उन ‘महानुभावों’ के वारिसों को नहीं मिलना चाहिए जो 70 वर्षों से आरक्षण का लाभ उठाकर धनाढ्य की श्रेणी में आ चुके हैं। हम वरिष्ठ वकील राजीव धवन की इस दलील से सहमत है कि आरक्षित वर्गों की सूची पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। जजों की संविधान पीठ ने कहा- ऐसा नहीं है आरक्षण पाने वाले वर्ग की जो सूची बनी है वह पवित्र है और उसे छेड़ा नहीं जा सकता। आरक्षण का सिद्धांत ही जरूरतमंदों को लाभ पहुंचाना है। सरकार को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की सूची फिर से बनानी चाहिए। सरकार का दायित्व है कि सूची में बदलाव करे जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में नौ सदस्यीय पीठ ने कहा था। सुप्रीम कोर्ट की पीठ की एक और टिप्पणी भी आरक्षण के ढांचे को बदलने में उसकी उत्सुकता की ओर इशारा कर रहा है। पीठ ने कहा- ऐसा देखने को मिला है कि राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में बनाए गए आयोग की रिपोर्ट में सूची में बदलाव की सिफारिश की गई है। आयोग ने सूची में किसी जाति, समुदाय व श्रेणी को जोड़ने या हटाने की सिफारिश की है। जहां ऐसी रिपोर्ट उपलब्ध है वहां राज्य सरकार मुस्तैदी दिखाकर तार्किक तरीके से इसे अंजाम दे। संविधान पीठ ने जो टिप्पणियां और सुझाव दिए हैं, वह तब आए हैं, जब कुछ दिन पहले ही कोर्ट कह चुका है कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। अदालत की इन टिप्पणियों के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर कोर्ट आरक्षण के मूल सिद्धांतों में बदलाव क्यों चाहता है, और उसके लिए बेचैन क्यों है। दूसरी बात कि क्या सच में अब वक्त आ गया है, जब आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए और जो लोग आरक्षण लेकर संपन्न हो गए हैं, उन्हें अब आरक्षण छोड़ देना चाहिए? दरअसल आरक्षित वर्ग के भीतर भी ऐसी आवाजें उठती रहती हैं। आरक्षण मिलने के बाद दलितों में भी एक छोटा तबका ऐसा तैयार हो गया है, जो अमीर है। जिसे व्यवस्था का लगातार फ़ायदा हो रहा है। हालांकि ये दलितों की कुल आबादी का महज़ 10 फ़ीसदी है। बाबासाहेब आम्बेडकर ने कल्पना की थी कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित, अपनी बिरादरी के दबे-कुचले वर्ग की मदद करेंगे। ऐसा हुआ तो लेकिन ऐसा सोचने वालों की संख्या बहुत कम है। हुआ ये है कि तरक्की पा चुका दलितों का एक बड़ा हिस्सा, दलितों में भी सामाजिक तौर पर ख़ुद को ऊंचे दर्जे का समझने लगा है। दलितों का ये क्रीमी लेयर बाक़ी दलित आबादी से दूर हो गया है। कई तो अपनी पहचान छुपाकर रह रहे हैं। ऐसे में जिन लोगों तक अभी आरक्षण नहीं पहुंचा है, वह अक्सर आगे बढ़ चुके लोगों से आरक्षण छोड़ने की मांग करते हैं। उनके तर्कों को देखिए-Baba Saheb Ambedkar
  • जो लोग अपने जीवन में सफल हैं और जिनके बच्चे अच्छी नौकरियों में आकर लाखों कमा रहे हैं, उन परिवारों को अब आरक्षण छोड़ देना चाहिए।
  • जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं, उनके बच्चों को आरक्षण नहीं लेना चाहिए। क्योंकि वह गैर आरक्षित श्रेणी में प्रतियोगिता के लिए काबिल होते हैं।
  • जिस तरह एक आरक्षित वर्ग का युवक तमाम सुविधाओं में पढ़ने वाले गैर आरक्षित वर्ग के सुविधा संपन्न युवक से कमतर होता है, उसी तरह सुविधा संपन्न आरक्षित वर्ग का युवक भी उससे बेहतर है। ऐसे में उसके सामने वही चुनौती होती है, जिसकी वजह से आरक्षण दिया गया है।
  • प्रारंभिक तौर पर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में क्रिमिलेयर का सिद्धांत लागू किया जा सकता है, ताकि इन नौकरियों में सिर्फ आर्थिक तौर पर पिछड़े आरक्षित श्रेणी के युवकों को ही मौका मिले।
  • जो भी व्यक्ति सिविल सेवा, प्रोफेसर्स, एमबीबीएस डॉक्टर, सांसद जैसे ग्रेड ‘ए’ की नौकरी में है, उनके बच्चों को वही सुविधाएं और शिक्षा मिलती है, जो गैर आरक्षित वर्ग के संपन्न लोगों को मिलती है। ऐसे में उनके परिवार की अगली पीढ़ी को आरक्षण नहीं मिले। हां, अगर उस परिवार में अगली गैर आरक्षण वाली पीढ़ी सफल नहीं होती है तो फिर उसकी अगली पीढ़ी को आरक्षण दिया जा सकता है।
तो वहीं आरक्षित श्रेणी के भीतर एक वर्ग ऐसा भी है, जो आरक्षण के भीतर क्रीमीलेयर की बहस को खारिज करता है। वह आरक्षण को पूरे आरक्षित वर्ग के लिए जरूरी बताता है। वह मानता है कि आरक्षण पूरे समुदाय के लिए है, और सभी को मिलना चाहिए। अब उसके तर्क को देखते हैं-
  • आरक्षण में किसी तरह के क्रीमीलेयर के विरोधियों का तर्क है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है और यह यथास्थिति में कायम रहना चाहिए।
  • उनका तर्क होता है कि समाज का बड़ा तबका काफी पीछे है। ऐसे में तमाम नौकरियों के लिए उनमें योग्यता नहीं होती है। ऐसे में अगर कथित क्रीमीलेयर वर्ग नहीं रहेगा तो सारी नौकरियों की सीटें खाली रह जाएंगी।
  • उनका यह भी तर्क होता है कि सिर्फ किसी एक पीढ़ी के आगे बढ़ने से यह मान लेना की उसे आरक्षण की जरूरत नहीं है, गलत होगा।
ये तमाम बहस पिछले एक दशक में बढ़ी है। हालांकि इस बीच एक सच यह भी है कि 1997 से 2007 के बीच के दशक में 197 लाख सरकारी नौकरियों में 18.7 लाख की कमी आई है। ये कुल सरकारी रोज़गार का 9.5 फ़ीसद है। इसी अनुपात में दलितों के लिए आरक्षित नौकरियां भी घटी हैं। इसलिए आने वाले वक्त में सरकारी नौकरियों की लड़ाई का कोई फायदा नहीं होने वाला। लेकिन आरक्षण को लेकर जो बहस चल रही है, अब आगे बढ़ चुके वर्ग को अपने ही गरीब भाईयों के बारे में जरूर सोचना चाहिए।

पालघर हिंसा के दोषी वो, जिन्होंने इंसान को इंसान का दुश्मन बन जाने दिया

मुंबई से 125 किमी दूर पालघर में एक भयानक घटना हुई है। गढ़चिंचले गांव के पास हत्यारी भीड़ ने दो साधुओं और एक कार चालक को कार से खींच कर मार डाला। इनमें से एक 70 वर्षीय महाराज कल्पवृक्षगिरी थे। उनके साथी सुशील गिरी महाराज और कार चालक निलेश तेलग्ने भी भीड़ की चपेट में आ गए। तीनों अपने परिचित के अंतिम संस्कार में सूरत जा रहे थे। मौके पर पुलिस पहुंच गई थी भीड़ को समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन भीड़ ने उल्टा पुलिस पर ही हमला कर दिया। पुलिस पीड़ितों को अस्पताल ले जाना चाहती थी तो भीड़ औऱ उग्र हो गई। पुलिस की गाड़ी तोड़ दी। पुलिसकर्मी भी घायल हो गए। किसी तरह अस्पताल लाया गया जहां उन्हें मृत घोषित किया गया। महाराष्ट्र पुलिस ने हत्या के आरोप में 110 लोगों को गिरफ्तार किया है। इस घटना के बाद बवाल मचा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने महाराष्ट्र सरकार से रिपोर्ट तलब कर ली है, तो सोशल मीडिया पर भी बवाल मचा है। जहां लोग इस घटना की निंदा कर रहे हैं तो वहीं एक बड़े वर्ग के निशाने पर सांप्रदायिकता के विरोधी लोग भी हैं। सेकुलर समर्थकों से इस मामले पर उनकी राय मांगी जा रही है। यूं तो इस घटनाक्रम को किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन इस मामले में एक पक्ष यह भी है कि हमला करने वाले और जिनकी इस हमले में जान गई है, दोनों एक ही धर्म से ताल्लुक रखने वाले लोग हैं। महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने इस बात की पुष्टि की है। इस कारण यह मामला धार्मिक और सांप्रदायिक होने से बच गया है। हालांकि इस घटना के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर देश में यह नौबत क्यों आन पड़ी है कि कोई भी व्यक्ति किसी व्यक्ति को पीट कर मार डाल रहा है। लोगों को यह हिम्मत कहां से मिल रही है कि वह अगर किसी व्यक्ति को पीट कर मार भी डालें तो कानून कुछ नहीं करेगा। क्योंकि पहलू खान से लेकर तमाम मामलों में तो कुछ ऐसा ही दिखा है। अगर कोई गुनहगार है भी तो किसको हक है कि उसे पीट कर मार डाले। समाज के बीच गलतफहमियां हो जाती है। किसी व्यक्ति के बारे में भी गलत शक हो जाता है। उसके साथ कई बार मारपीट की घटना भी घटती है, लेकिन किसी को इतना पीटना कि उसकी जान चली जाय यह अमानवीय है। अगर सरकारें और प्रशासन ने पहले इस तरह के मामलों में दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की होती तो आज पालघर की घटना भी नहीं होती। क्योंकि जब जनता को यह यकीन हो जाता है कि ‘भीड़’ के रूप में वह कोई भी गलत काम कर सकते हैं तो फिर उसे सही और गलत का फर्क समझ में नहीं आता। वह सही और गलत जानने की कोशिश भी नहीं करता। इस घटना के बाद सबसे बड़ा सवाल सरकारों पर है, जिन्होंने इस तरह का माहौल बन जाने दिया। उस प्रशासन पर है, जिसने सत्ता के दबाव में ही सही इंसान को इंसान का दुश्मन बनने से नहीं रोका। खून के छींटे सफेदपोशों के सफेद कुर्ते पर है।

कोटा में कोरोना और लॉकडाउन की ऐसी तैसी

अपने टी. वी. स्क्रीन पर नजर डालिए, कोटा में हजारों छात्र बस पकड़े के लिए उमड़ पड़े हैं, न कोई सोशल डिस्टेंसिंग, न को कर्फ्यू न धारा 144. कर्नाटक के कलबुर्गी में सिद्ध लिंगेश्वर मंदिर में हजारों की भीड़ आप देख चुके हैं। उनके लिए कोई नियम नहीं। हां मामला अगर मुसलमानोंसे जुड़ा होता है या मेहनतकश गरीबों से तो बड़ा मुद्दा बन चुका होता। पूर्व प्रधानमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के लिए कोई नियम नहीं। कार्पोरेट घरानों, फिल्मी सितारों, खेल सितारों, नौकरशाहों और अन्य लोगों के बेटे-बेटियों को कैसे देश लाया गया। यह सब धीरे-धीरे सामने आ रहा है, इसमें से कुछ को तो बिना जांच के सीधे उनके घर भेज दिया गया है। मध्य प्रदेश की स्वास्थ्य सचिव के बेटे और उनकी मां ने तो मध्य प्रदेश के पूरे स्वास्थ्य महकमें के बड़े अधिकारियों को कोरोना के चपेट में ला दिया। अमीरो के लिए किए गए विशेष इंजताम पर मध्यवर्ग उंगली उठा रहा था और उसे भी खुश करने की कोशिश हो रही है, उसका एक प्रमाण कोटा से 30 हजार भावी डाक्टर-इंजीनियरों को लाने की तैयारी है, जिसमें 8 हजार उत्तर प्रदेश के हैं। इसके उलट आप ने देखा होगा कि एक प्रवासी मजदूर रो-रोकर कह रहा था कि मेरे पिता जी की मौत हो गई है, मां अकेली है, मुझे जाने दीजिए। पुलिस उस पर लाठियां भांज रही थी। एक बूढ़ा प्रवासी मजदूर राशन लेने गया, उसे बुरी तरह पीटा गया। मुंबई में किस तरह घर जाने के लिए बेताब प्रवासी मजदूरों की पिटाई हुई। ऐसे अनेकों रूला देने वाले दृश्य हैं। सारे नियम, सारे डंडे, सारी गालियां, सारे अपमान, सारे अभाव और सारे दुख मेहनतकश लोगों के लिए। मेहनकशों की स्थिति देखकर बार-बार मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र का यह कथन याद आ रहा है, मेहनतकशों तुम्हारे खून-पसीने से ही दुनिया का सारा वैभव रचा गया है, ये सारी अट्टालिकाएं तुमने खड़ी की हैं, तुम्हारे की खून-पसीने को निचोड़ कर ये बड़े-बड़े पूंजीपति बने हैं, तुम्हारे की खून-पसीने की कमाई से अमीरजादे विलासिता और अय्याशी करते हैं और उसी का टुकड़ा मध्यमवर्ग पाता है, इसके बदले में अमीरजादों की चाटुकारिता करता और उनकी ओर ही देखता है। सारी सरकारें इन्हीं अमीरों-पूंजीपतियों की मैनेंजिंग कमेटी की तरह काम करती हैं, जो काम तो उच्च मध्यवर्ग के लिए करती है, कुछ मध्यवर्ग को भी दे देती हैं और बार-बार नाम लेती हैं, मेहनतकश गरीबों का, क्योंकि उनका वोट हासिल करना है और सबसे बड़ी जरूरत उनके श्रम को निचोड़ने की है, क्योंकि मजदूरों का श्रम निचोड़े बिना वैभव और विलासिता की उनकी दुनिया एक दिन भी नहीं टिक सकती। मोदी जी के 6 वर्षों का सारा कार्यकाल यह बताता है कि उनके सिर्फ और सिर्फ दो एजेंडे हैं। पहला कार्पोरेट की जेब भरना और उच्च मध्यवर्ग की खुशहाली अय्याशी एव विलासिता को बनाए रखना और मध्यवर्ग को कुछ टुकड़े फेंक देना और मेहनतकश मजदूरों को देने के नाम हिंदुत्व की चाशनी और मुसलमानों से घृणा करना सीखाना। मोदी का दूसरा काम है। हिंदू राष्ट्र के नाम पर उच्च जातीय द्विज मर्दों का बहुजनों और महिलाओं पर वर्चस्व कायम रखना। भारत का उच्च मध्यवर्ग, मध्यवर्ग और कार्परेट-पूंजीपतियों का बहुलांश- उच्च जातियों से बना हुआ है। यह ब्राह्मणवाद-पूजीवाद का गठजोड़ हैं, मेहनतकशों का शोषण और उनके प्रति घृणा जिसका बुनियादी लक्षण है।
  • लेखक डॉ. सिद्धार्थ वरिष्ठ पत्रकार हैं।

कैसा समाज चाहते थे डॉ. आंबेडकर

14 अप्रैल 2020 को बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की 129वी जयंती थी,जो एक अवसर था उनके विचारों, योगदान, दर्शन और आदर्शों को पुनः स्मरण कर अपनी आज की समकालीन चुनौतियों के समक्ष रख कर समझने का और कम से कम इस यक्ष प्रश्न का उत्तर लेने का कि आखिर कैसा समाज चाहते थे डॉ आंबेडकर? मूल रूप से डॉ. आंबेडकर की प्रेरणा के कई स्रोत रहे है, उसमें से सबसे मुख्य है, 1789 की फ़्रेंच क्रांति जिसके फलस्वरूप “उदारता, समानता और बंधुत्व” जैसे विचार संसार के सामने आये। डॉ. आंबेडकर के “आदर्श समाज” की अवधारणा को अगर हम टटोले तो उनके अनुसार किसी भी समाज की आधारशिला या संरचना इन तीन स्तंभों पर टिकी होनी चाहिए। क्योंकि उनके दर्शन में मानव कल्याण मुक्ति और उत्थान की विशेष प्रधानता थी, और उसके लिए यह बेहद आवश्यक है कि वह इतना स्वतंत्र हो की वो अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके, उसे समाजिक क्षेत्र में बराबर का अधिकार मिले और बिना किसी भेदभाव के तो साथ ही किसी भी समाजिक सौहार्द और सहयोग के बिना किसी मानव का कल्याण नहीं हो सकता, अतः बंधुत्व/ भाईचारा भी उस समाजिक संरचना की आधारशिला होनी चाहिए। डॉ. आंबेडकर के समूल जीवन दर्शन के भी ये तीन शब्द अभिन्न अंग बन गए और फिर किसी भी साहित्य, समाजिक परंपरा, प्रक्रिया या व्यवस्था या विचार के मूल्यांकन करते वक्त किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व उन्होंने उसको इन तीन शब्दों की कसौटी पर रख कर ही अपना विश्लेषण दिया। नेहरू के शब्दों में संविधान की आत्मा कही जाने वाली प्रस्तावना में भी यह तीन शब्द अपनी संवैधानिक और सार्वभौमिक महत्व के साथ विद्यमान है। डॉं. आंबेडकर अपने आदर्श समाज में जाति के जंजाल से मुक्ति चाहते थे क्योंकि जाति व्यवस्था के समाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव उन तीन प्रमुख विचारों के खिलाफ जाते है। जाति व्यवस्था ने स्वतंत्रता की जगह गुलामी, दासता और कदम कदम पर व्यवस्था के नाम पर बंधन ही बांधे, समानता की जगह भेदभाव और कुछ जातियों की वरीयता ने ले ली और सामाजिक बंधुत्व तो दूर दूर तक नहीं था बल्कि छुआछूत और जातीय वैमनस्य हावी था। इस व्यवस्था के चलते समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग केवल जन्म के आधार पर युग युगांतर से आर्थिक उपेक्षा, समाजिक बहिष्करण, शैक्षणिक अयोग्यता के शिकार होने के साथ साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित रखा गया जिसके परिणामस्वरूप वह वर्ग एक आभावग्रस्त जीवन जीने के अलावा आजीवन एक हेयदृष्टि से समाज की अगड़ी जातियों के द्वारा देखा जाता रहा, जिसने उसको हतोत्साहित कर उसके सोचने समझने निर्णय लेने की शक्ति को क्षीण करता गया। अतः डॉ. आंबेडकर ने अपने विभिन्न भाषणों और लेखों में जाति विनाश की बात तार्किक रूप से की और इसको समाप्त करने हेतु अंतरजातीय विवाह और सामूहिक भोजन को प्रोत्साहन देने के अलावा, छुआछूत जैसी कुप्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने की वकालत भी की। उनके मत से समाज का संचालन किसी वेद पुराण ग्रन्थ शास्त्र के अनुसार नहीं बल्कि तर्क के आधार पर होनी चाहिए, क्योंकि बहुमत की कुप्रथाएं और जाति समर्थक रीतियाँ ये सब समाजिक वैधता इन ग्रंथो से ही प्राप्त करते है। उन्होंने ही जाति के इस दंश से निकलने के लिए पहले ‘मूकनायक’ फिर ‘बहिष्कृत भारत’ जैसी पत्रिकाएं निकाली, 20 मार्च 1927 में महाड़ सत्याग्रह करते हुए अछूतों को एक सार्वजनिक जलाशय से जल पीने के प्रतिबंध को तोड़ने का आव्हान करते है, इसी कारण 20 मार्च को भारत मे समाजिक सशक्तिकरण दिवस भी मनाया जाता है। तो दलितों के लंदन की गोलमेज सम्मेलन में न केवल दलितों का प्रतिनिधित्व किया बल्कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने हेतु अलग निर्वाचक मंडल बनाने का प्रस्ताव भी रखा। तो साथ ही बाद के शैक्षणिक और रोजगार के अवसर में आरक्षण की व्यवस्था में एक बड़ा योगदान डॉ. आंबेडकर का ही था। डॉ. आंबेडकर को केवल जाति के आयाम पर मानव कल्याण के रूप में आरेखित कर समझना उनके योगदान और विचारों को सीमित करना होगा। डॉ. आंबेडकर के वंचित की परिभाषा में दलितों के साथ-साथ महिलाएं भी आती थी। उनके अनुसार भारतीय समाज में महिलाओं के साथ कुछ कम भेदभाव और अत्यचार नहीं हुआ है। डॉ आंबेडकर का ही कहना था कि मैं किसी भी समाज की प्रगति का मूल्यांकन उस समाज की महिलाओं की प्रगति के आधार पर करूँगा। वह डॉ. आंबेडकर ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम मातृत्व लाभ बिल को बॉम्बे विधान परिषद में वर्ष 1928 में पेश किया, और यह तर्क रखा कि एक महिला को संतान के जनन के पूर्व और उसके उपरांत आराम की आवश्यकता होती है, अतः उसे उसकी छूट मिलनी चाहिए। डॉ आंबेडकर ने ही वायसराय के कार्यपालिका परिषद के श्रम मंत्री रहते हुए पुरुष और स्त्री दोंनो को समान कार्य समान वेतन का प्रस्ताव रखा। वह डॉ. आंबेडकर ही थे जिन्होंने महिला के सशक्तिकरण और स्वतंत्रता के मार्ग को प्रशस्त करने वाले हिन्दू कोड बिल को पेश किया और (जिसमें महिलाओं को संपत्ति के अधिकार, अंतरजातीय विवाह को कानूनी वैधता, तलाक का अधिकार, पुरुषों की बहुविवाह समाप्ति आदि शामिल था। सदन में इसके लगातार विरोध के चलते निराश होकर उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा तक दे दिया। ग्रन्विल ऑस्टिन के शब्दों में भारत के प्रथम समाजिक दस्तावेज कहें जाने वाले संविधान को बनाने वाली संविधान सभा की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष पद बनने का अवसर बाबासाहब आंबेडकर के हाथों लगा तो उन्होंने एक ऐसे संविधान के प्रारूप का शिल्प तैयार किया जो यक़ीनन स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व के स्तम्भों पर टिका हुआ था। हर तरह के भेदभाव से मुक्ति, छुआछूत पर प्रतिबंध, धार्मिक व वैयक्तिक स्वतंत्रता, महिलाओं व समाज के पिछड़े तबकों के लिए विशेष प्रावधान की व्यवस्था, दासता और शोषण युक्त मजदूरी से मुक्ति आदि की बात करने वाले प्रावधान शामिल थे। तो जीवन के अपने अंतिम वर्ष में डॉ आंबेडकर ने बौध्द धर्म अपना कर के यह भी स्पष्ट किया कि जिस आदर्श समाज की संकल्पना की बात वह करते हैं, वह उन्हें हिन्दू धर्म के बजाय बुद्ध के धर्म में दिखता है वह निजी जीवन में भी धर्म परिवर्तन से पूर्व भी गौतम बुद्ध से और उनके दर्शन से काफी प्रेरित थे, और उनके इस धर्म परिवर्तन के चलते भारी मात्रा में उनके अनुनायिनो ने भी पहले उनके साथ फिर बाद में धर्म परिवर्तन किया। यह सिलसिला आज भी जारी है। आज समकालीन दौर में भी जब हम मानव की प्रगति के बड़े-बड़े उदाहरण पेश करते हैं तो वहाँ आज भी कभी गुजरात के लिम्बोदरा गांव में मूंछ रखने पर दो दलित युवकों को पीटा जाता है, तो अपने विवाह में घोड़ी चढ़ने पर रतलाम मध्यप्रदेश के दलित युवक पर पत्थर फेंके जाते है। ऊपरी जात वालो के सामने खाना खा लेने पर गुजरात में जितेंद्र की हत्या कर दी जाती है, तो दलित घर की लड़कियों को अगवा कर ले जाना, उनका बलात्कर करना आज भी एक आम और साधारण घटना है। 2010 में NHRC के अनुसार हर 18 मिनट में एक दलित पर अपराध किया जाता है। महिलाओं की स्थिति भी कोई कम बदतर नहीं है। जहां संसद में महिलाओं के एक तिहाई आरक्षण का बिल आज भी लटका हुआ है तो वही महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार और शोषण एक नया तरह का “नॉर्मल” बन कर उभरा है, जहाँ NCRB के 2018 का आंकड़ा बताता है कि हर 15 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है, तो थॉमस रेउटर्स संस्थान ने भारत को दुनिया में महिलाओं के लिए चौथी सबसे असुरक्षित जगह बताई है। ऐसे भयावह विभत्स दौर में डॉ. आंबेडकर अत्यंत प्रासंगिक हो जाते हैं और उनकी बात बार-बार जहन में आती है जो उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था कि हम राजनीतिक रूप से तो अब एक व्यक्ति एक मत के अधिकार के दृष्टि से तो समान है, लेकिन समाजिक और आर्थिक असमानता अभी भी विद्यमान है, जिसकी खाई को हमें पाटना है और एक समतामूलक स्वतंत्र समाज का निर्माण करना है।
  • लेखक सौरभ दूबे जवाहर लाल नेहरू विवि में एम.ए. राजनीतिक विज्ञान के छात्र हैं। संपर्क- Saurabh.aishwary@gmail.com

अंबेडकरी आंदोलन से दूर सफाई कामगार जातियां

  • संजीव खुदशाह
वैसे तो दलितों में विभिन्न जातियां होती है। विभिन्न जातियों के पेशे भी भिन्न भिन्न होते है। लोकिन पूरी दलित जातियों के बड़े समूह को दो भागों में बांट कर देखा जाता रहा है। पहला चमार दलित जातियां जो मरी गाय की खाल निकालती और उसका मांस खाती थी। दूसरा सफाई कामगार जातियां जो झाड़ू लगाने से लेकर पैखाना सिर पर ढोने का काम करती रही है। यदि अंबेडकरी आंदोलन के पि‍रप्रेक्ष्य  में देखे तो चमार दलित जातियां आंदोलन के प्रभाव में जल्दीं आयी और तरक्की‍ कर गई। वही़ सफाई कामगार दलित जातियां अंबेडकरी आंदोलन में थोड़ी देर से आयी या कहे बहुत कम आई और पीछे रह गई। आइये आज इसके विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करते हैं। क्या है अंबेडकर का प्रभाव (आंदोलन) सन् 1930 में डॉ. आंबेडकर ने देखा की दलितों के साथ बेहद भेदभाव हो रहा है। उनका शोषण नहीं रूक रहा है। तो उन्होंने दलितों से दो अपील की (1) अपना गांव या मुहल्ले  छोड़ दो, शहर में बस जाओं (2) अपना गंदा पुश्तैनी पेशा छोड़ कोई दूसरा पेशा अपनाओ। इन दो अह्वान का असर यह हुआ की शोषण की शिकार दलित जातियों के कुछ लोग अपने गांव को छोड़ कर शहर में आ बसे। इसके लिए उन्हें उच्च जाति के लोग उन्हें गांव छोड़कर जाने नहीं देना चाहते थे। इससे उनकी सुविधाओं और आराम पसंद जिदगी के खलल पैदा हो सकती थी। उनके घर बेगारी कौन करेगा? कौन उनके मरे जानवरों को फेकेगा? दूसरा काम यह हुआ की दलित जातियां मरे जानवरों को फेकने चमड़े निकालने का काम करने से इनकार कर दिया। इसका असर यह हुआ की गांव में दलितों के साथ मार पीट की गई। दलितों की भूखे मरने की नौबत आ गई। बावजूद इसके बहुसंख्यक दलितों ने अपना रास्ता  नही छोड़ा। डॉ. आंबेडकर के आह्वान पर कायम रहे। गौरतलब है ऐसा करने वाली दलित जातियां चमार वर्ग की थी। सफाई कामगारों ने डॉ. आंबेडकर के दोनों आह्वान का पालन नहीं किया। न वे आज भी कर रहे है। आज भी वे अपनी जातिगत गंदी बस्ति‍यों में रहते हैं और अपना वही पुराना गंदा पेशा अपनाए हुये हैं। इसके क्या कारण हैं यह ठीक-ठीक बताना बेहद कठिन है, लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर कुछ निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। उन्होंने डॉ. आंबेडकर के आह्वान को नहीं माना इसके निम्न कारण हो सकते हैं। 1) सुविधा- उन तक बात नहीं पहुची होगी की अपने शोषणकारी गांव को छोड़ दिया जाय। उस समय (1930) सफाई कामगार जातियां ज्यादातर शहरों में निवास करती थी। वैसा कष्टकारी जीवन उन्हें देखने को नहीं मिला जैसा गांव में दलितों को मिलता है। इसलिए उनको शहर में रहने के करण गांव छोड़ने का प्रश्न नहीं उठता। रही बात उनकी गंदी बस्‍तियों को छोड़ने की तो उन्होंने इसलिए नहीं छोड़ा होगा क्योंकि उन्हें गांव के बनिस्पत कष्ट या शोषण कम रहा होगा। बात जो भी हो यह एक सच्चाई है कि सफाई कामगारों ने अपनी गंदी बस्तियों को नहीं छोड़ा। 2) आत्म-सम्मान नहीं जगा– गंदे पेशे को छोड़ने का आह्वान भी सफाई कामगारों ने अनसुना कर दिया। इसका कारण था उनकी आर्थिक स्थिति, अंग्रेजों/ अफसरों से निकटता जो उन्हें सुविधाभोगी बनाती थी। वे अफसरों की तिमारदारी से लेकर सभी गंदे काम करते थे। वे झाड़ु लगाते, नाली साफ करते, मैला ढोते, उनकी जूठन खाते। उन्हें कभी अपना आत्म-सम्मान खोने का, अपना अपमान होने का एहसास नहीं हुआ। यही सब बाते उन्हें पुश्तैनी पेशे पर एकाधिकार रखने हेतु प्रेरित करती थी। इसलिए उन्होंने डॉ. आंबेडकर के इस आह्वान को भी नहीं माना। 3) सामाजिक नेतृत्व– शुरू से आज तक सफाई कामगार जातियों में जो सामाजिक नेतृत्व मिला चाहे वो जाति पंचायत के रूप में रहा या किसी धार्मिक नेता के रूप में, उन्होंने हमेशा सफाई कामगारों का शोषण किया। उन्हे डॉ. आंबेडकर के विरुद्ध भड़काया। कहा कि वे सिर्फ चमारो के नेता हैं। इस काम में हिन्दूवादी लोग/ राजनीतिक पार्टियां मदद करती रही। सामाजिक नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए नये-नये गुरूओं की पूजा करने लगे, जैसे वाल्मीकि, सुदर्शन, गोगापीर, मांतग, देवक ऋषि आदि आदि। वे सारे काम इन समाजिक नेताओं द्वारा किये गये जो इन्हे अंबेडकरी आंदोलन से दूर रखे जाने के लिए किए जाने जरूरी थे। इसका एक बड़ा कारण गांधी का प्रभाव भी रहा है। 4) गांधी का प्रभाव- इसी दौरान (1932) गांधी ने हरिजन सेवा समिति का गठन किया। वे हरिजन नामक अंग्रेजी पत्र प्रकाशित करते थे। इसके केन्द्र में उन्होंने सफाई कामगारों को रखा। वे हिन्दूवादी थे और वे नहीं चाहते थे कि दलित इस पेशे को छोड़े। उन्होंने उल्टे यह कहा कि ‘यदि मेरा अगला जन्म होगा तो मै एक भंगी के घर जन्म लेना पसंद करूगा।‘’ इसका प्रभाव यह पड़ा की सफाई कामगार अपने पेशे के प्रति झूठे उत्साह से भर गये। आत्मसम्मान के उलट अपने आपको फेविकोल से इस पेशे से जोड़ लिया। अब प्रश्न उठता है कि सफाई कामगारों में आत्मसम्मान कब जागेगा। कब वे अपना पुश्तैनी पेशा एवं गंदी बस्तियां छोड़ेगे। कब अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगे? 1) सफाई कामगारों के बर्बादी का कारण सामाजिक नेता- सफाई कामगारों का सबसे बड़ा नुकसान उनके ही समाजिक नेताओं ने किया। इतिहास गवाह है कि किसी भी सामाजिक नेता ने डॉं. आंबेडकर के दोनों आह्वान को पूरा करने में कोई रूची नहीं दिखाई। उल्टे वे पार्टी का टिकट पाने और पद पाने के निजी लालाच में डॉ. आंबेडकर के विरुध लोगों को भड़काते रहे। यह प्रकिया आज भी जारी है। 2) धर्मान्धता– यह देखा गया है कि जो दलित जातियां पिछड़ेपन या गरीबी का शिकार रही हैं वे अति धार्मिकता से ग्रसि‍त रही है। सफाई कामगारों के साथ भी यही हुआ। जातीय शोषण से परेशान होकर यदि कोई धर्मांतरण करना चाहता तो उसे किसी काल्पनिक गुरू के सहारे धर्माधता में ढकेल दिया जाता। वे गरीब होने के बावजूद सारे कर्म काण्ड कर्ज लेकर करते। भले ही बच्चों को शिक्षा देने के लिए पैसे न हो। आज भी धर्मांधता सफाई कामगारों के पिछड़ेपन का एक बड़ा करण है। 3) नशा- सफाई कामगार के परिवार ज्यादतर नशे के गिरफ्त में होते है। नशे के कारण वे अपने पेशे आत्म-सम्मान के बारे में सोच नहीं पाते है। नशा करना, घर की महिलाओं से या आपस में झगड़ना उनकी दैनिक दिनचर्या का अहम हिस्सा है। 4) आलस– आमतौर पर सफाई कामगारों द्वारा यह सुना जाता है कि अपना वाला काम करो बड़े मजे हैं। रोज सुबह एक दो घंटा काम करों। दिन भर का आराम। यह देखा गया है कि इस काम में मेहनत कम होने के कारण लोग इस काम को छोड़ना नहीं चाहते। दूसरा कारण यह है कि घरों में सेफ्टी टैक साफ करने के ऊंचे दाम मिलते हैं। अगर एक दिन में दो घरों का काम मिल गया तो इतने पैसे आ जाते है कि एक हफ्ता काम करने की जरूरत नहीं पड़ती। शहरकरण ने आम लोगों को इस काम के ऊंचे दाम देने के लिए मजबूर किया है। तो प्रश्न यह उठता है कि सफाई कामगार कब अपनी गंदी बस्ती और गंदे पेशे को छोड़ेगा? यह तभी होगा जब वह अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगा। सामाजिक नेता, धर्मांधता, नशे के गिरफ्त से बाहर निकलेगा और आलस को त्यागेगा। उसे खुद सोचना होगा कि क्यों वह आज तक इतना पिछड़ा है। पेरियार कहते हैं कि जिस समाज का आत्मसम्मान नहीं होता वह कीड़ों के एक झुण्ड के बराबर है। इसलिए आत्मसम्मान जगाना होगा। इस काम में समाज के ही अंबेडकरवादी पेरियार वादी बुद्धिजीवियों सामाजिक कार्यकर्ताओं को आगे आना होगा तभी इस समाज में आत्म-सम्मान जागेगा और सफाई कामगार समुदाय अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगा।
  • लेखक संजीव खुदशाह अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े हैं। सफाई कर्मचारियों पर उनकी लिखी पुस्तक काफी चर्चित है।
  • नोट- डॉ. आंबडेकर और वाल्मीकि समाज पुस्तक मंगवाने के लिए यहां क्लिक करें

डॉ. आंबेडकरः फादर ऑफ मार्डन इंडिया

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक भारत के निर्माण में विभिन्न युग-पुरुषों का योगदान रहा। लेकिन कुछ ऐसे युग-पुरुष भी हुए जिन्होंने प्रचलित व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आया हो। ऐसे ही युग-पुरुषों में बाबा भीमराव अंबेडकर का नाम महत्वपूर्ण हो जाता है। भारत में प्रचलित सामाजिक बुराइयों के प्रति छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध से लेकर कई युग प्रवर्तको द्वारा विरोध का स्वर मुखर किया गया। प्राचीन काल का भक्ति आंदोलन हो या मध्यकाल का भक्ति काल चाहे वह सगुण धारा हो या वह निर्गुण लगभग सभी महापुरुषों के द्वारा भेदभाव वाली सामाजिक व्यवस्था का विरोध किया गया। इसके उपरांत 18वीं शताब्दी में भारत के सामाजिक धार्मिक पुनर्जागरण के काल में भी इन सामाजिक भेदभावपूर्ण व्यवस्था का विरोध किया गया। लेकिन इन सब में बाबासाहब भीमराव अंबेडकर ही एक ऐसे युग-पुरुष हुए जिन्होंने सदियों पुरानी भेदभाव पूर्ण भारतीय समाज के स्वरूप को काट कर अलग कर दिया एवं एक नए भारत के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। भारत के संविधान निर्माता, चिंतक और समाज सुधारक डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म मध्य प्रदेश के महू में 14 अप्रैल, 1891 को हुआ था। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई रामजी सकपाल था। वे अपने माता-पिता की 14वीं और अंतिम संतान थे।  1907 में पास की मैट्रिक परीक्षा उन्होंने मुंबई के गवर्नमेंट हाई स्कूल में दाख़िला लिया। बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने अंबेडकर की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें छात्रवृति की सुविधा दी। 1912 में राजनीति विज्ञान और अर्थशात्र में विषय में स्नातक की डिग्री हांसिल की। साल 2013 में वह कोलंबिया युनिवर्सिटी चले गए। इसके उपरांत 1915 में उन्होंने अपनी स्नातकोत्तर (एम॰ए॰) परीक्षा पास की और 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से पीएचडी किया एवं 1923 में डॉक्टर ऑफ़ साइंस की डिग्री से भी नवाज़े गए। 1920 के दशक के में उन्होंने छुआछूत के विरुद्ध राजनीतिक क्रांतिकारी गतिविधियों को प्रखर करते हुए दलित वर्ग के उद्देश्यों के समर्थन के लिए ‘मूक नायक’ नाम से साप्ताहिक शुरू किया। उन्होंने भारत के राज्य सचिव एस मोंटग और विठलभाई पटेल से मुलाकात कर भारत में अछूतों की समस्या पर विचार विमर्श किया। 1926 में अंबेडकर को बम्बई विधानपरिषद के लिए मनोनीत किया गए। इन्होंने 1927 मे ‘बहिष्कृत भारत’ नाम का एक अखबार भी शुरू किया एवं साथ में ही 1927 में महार सत्याग्रह का भी आवाहन किया। इन्होंने तात्कालिक व्यवस्था रीति रिवाज, जाति व्यवस्था एवं परंपराओं का विरोध करते हुए मनुस्मृति का बहिष्कार किया। इसके साथ ही उन्होंने तात्कालिक शीर्ष क्रम के नेताओं को जाति व्यवस्था के मुद्दे पर उदासीनता के कारण उनकी आलोचना भी की। शीर्ष क्रम के नेताओं की उदासीनता के कारण बाबा भीमराव आंबेडकर का विरोध और भी मुखर होने लगा। इस बीच डॉ. आंबेडकर ने दोहरे निर्वाचन की मांग तेज कर दी, जिसे अंग्रेजी सरकार ने मान भी लिया। तब इसके विरोध में गांधीजी भूख हड़ताल पर चले गए। इससे बाबासाहब आंबेडकर पर चौतरफा दबाव बढ़ने लगा, जिसके फलस्वरूप 24 सितंबर 1932 को उन्होंने गांधीजी के साथ पूना पैक्ट समझौता किया। इसके अंतर्गत विधान मंडलों में दलितों के लिए सुरक्षित स्थान बढ़ा। इस समझौते में बाबासाहब आंबेडकर ने दलितों को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले अलग निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की, बदले में कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। 1940 के दशक में वो संविधान निर्माता के तौर पर सामने आए। 29 अगस्त 1947 को उन्हें नए संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। आज़ादी मिलने के बाद वो पहली सरकार में देश के पहले क़ानून मंत्री बनाए गए। सन् 1951 में उन्होंने संसद में हिन्दू कोड बिल पेश किया। हिन्दू कोड बिल के ज़रिए महिलाओं को सम्पति का अधिकार और तलाक जैसे अधिकार देने की डॉ आंबेडकर वक़ालत कर रहे थे लेकिन कई मामलों में असहमति होते देख कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया था। डॉ आंबेडकर ने ये इस्तीफ़ा अनुसूचित जातियों के प्रति सरकार की उदासीनता और हिन्दू कोड बिल पर मंत्रिमंडल के साथ मतभेदों के कारण दिया था। इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि- जवाहरलाल नेहरू और डॉ भीमराव आंबेडकर हिंदुस्तान में यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता लागू करवाना चाहते थे। लेकिन जब इस मुद्दे पर बहस छिड़ी तो संविधान समिति लगभग बिखर सी गई। बाद में उन्होंने प्रचलित जाति व्यवस्था के शोषण के स्वरूप विरोध प्रकट करते हुए अपने अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर 1956 को अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया। बाबासाहब आंबेडकर के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विचार राजनीतिक क्षेत्रः वे एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के हिमायती थे, जिसमें राज्य सभी को समान राजनीतिक अवसर दे तथा धर्म, जाति, रंग तथा लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए। उनका यह राजनीतिक दर्शन व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंधों पर बल देता है। समानता को लेकर विचारः डॉ. आंबेडकर समानता को लेकर काफी प्रतिबद्ध थे। उनका मानना था कि समानता का अधिकार धर्म और जाति से ऊपर होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना किसी भी समाज की प्रथम और अंतिम नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। सामाजिक क्षेत्रः डॉ. आंबेडकर का सम्पूर्ण जीवन भारतीय समाज में सुधार के लिए समर्पित था। उन्होंने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का विशद अध्ययन कर यह बताने की चेष्टा भी की कि भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा तथा अस्पृश्यता का प्रचलन समाज में कालांतर में आई विकृतियों के कारण उत्पन्न हुई है, न कि यह यहाँ के समाज में प्रारम्भ से ही विद्यमान थी। इन आधारों पर बाबासाहब आंबेडकर ने वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा अस्पृश्यता का खुलकर विरोध किया। महिलाओं से संबंधित विचारः डॉ. आंबेडकर भारतीय समाज में स्त्रियों की हीन दशा को लेकर काफी चिंतित थे। उनका मानना था कि स्त्रियों के सम्मानपूर्वक तथा स्वतंत्र जीवन के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने हमेशा स्त्री-पुरुष समानता का व्यापक समर्थन किया। यही कारण है कि उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि मंत्री रहते हुए ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में प्रस्तुत किया और हिन्दू स्त्रियों के लिए न्याय सम्मत व्यवस्था बनाने के लिए इस विधेयक में उन्होंने व्यापक प्रावधान रखे। शिक्षा संबंधित विचारः उनका विश्वास था कि शिक्षा ही व्यक्ति में यह समझ विकसित करती है कि वह अन्य से अलग नहीं है, उसके भी समान अधिकार हैं। उन्होंने एक ऐसे राज्य के निर्माण की बात रखी, जहाँ सम्पूर्ण समाज शिक्षित हो। वे मानते थे कि शिक्षा ही व्यक्ति को अंधविश्वास, झूठ और आडम्बर से दूर करती है। शिक्षा का उद्देश्य लोगों में नैतिकता व जनकल्याण की भावना विकसित करने का होना चाहिए। शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो विकास के साथ-साथ चरित्र निर्माण में भी योगदान दे सके। अधिकारों को लेकर विचारः डॉ. आंबेडकर अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों पर बल देते थे। उनका मानना था कि व्यक्ति को न सिर्फ अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए जागरूक होना चाहिए, अपितु उसके लिए प्रयत्नशील भी होना चाहिए, लेकिन हमें इस सत्य को नहीं भूलना चाहिए कि इन अधिकारों के साथ-साथ हमारा देश के प्रति कुछ कर्त्तव्य भी है। श्रमिक वर्ग के लिए कार्यः उन्होंने मजदूर वर्ग के कल्याण के लिए उल्लेखनीय कार्य किये। पहले मजदूरों से प्रतिदिन 12-14 घंटों तक काम लिया जाता था। इनके प्रयासों से प्रतिदिन आठ घंटे काम करने का नियम पारित हुआ। इसके अलावा उनके प्रयासों से मजदूरों के लिए इंडियन ट्रेड यूनियन अधिनियम, औद्योगिक विवाद अधिनियम तथा मुआवजा आदि से भी सुधार हुए। उल्लेखनीय है कि उन्होंने मजदूरों को राजनीति में सक्रिय भागीदारी करने के लिए प्रेरित किया। वर्तमान के लगभग ज्यादातर श्रम कानून बाबासाहब के ही बनाए हुए हैं, जो उनके विचारो को जीवंतता प्रदान करते हैं। इस प्रकार बाबासाहब भीमराव आंबेडकर ने ना केवल पिछड़े वर्ग के वंचित लोगों कि ना केवल आवाज बने बल्कि उन्हें उनका अधिकार दिलाने में भी महती भूमिका निभाई। उन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक बुराइयों जैसे- छुआछूत और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष में लगा दिया। इस दौरान बाबासाहब ने विशेषकर महिलाओं, गरीब, दलितों और शोषितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। इसके साथ ही उन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण की रूपरेखा भी तैयार की। क्या दुनिया के इतिहास में कोई ऐसा भी  छात्र होगा जो अपनी जाति के कारण क्लास के अंदर ना जा पाया  हो वो दुनिया का बेहतरीन स्कॉलर अपनी कड़ी मेहनत के बल पर  बनकर   उसी देश का संविधान लिखे। संभव नहीं लगता। चाहे अमानवीय मनुस्मृति को ध्वस्त करना, दुनिया में पानी पीने के लिए पहला सत्याग्रह करना हो, पैसे के अभाव में बच्चे तक का सही इलाज नहीं करा पाएं हो, पढ़ने के लिए पैसे के मोहताज हो लेकिन बाद में प्राबल्म ऑफ रुपी नाम से ऐसा शोध किया हो, जिस पर रिजर्व बैंक बन गया। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने डॉ. आंबेडकर को अपना गुरु माना था। लेकिन सवाल यह है कि जिस व्यक्ति ने अपना सारा जीवन मानवता के लिए समर्पित कर दिया हो, उसके साथ इतिहास ने इतनी बेईमानी क्यों की? क्या यह डॉ. आंबेडकर की जाति के कारण नहीं किया गया? आज कोरोना वायरस से लोग सोशल डिस्टेंसिंग कर रहे हैं, लोग तीन हफ्ते में ही ऊब गए हैं. वहीं समाज का एक बड़ा हिस्सा सदियों से सोशल डिस्टेंसिंग में जी रहा है, उसकी तकलीफ को कौन समझेगा। क्या अब भी महामानव डॉ. आंबेडकर को फादर ऑफ मार्डन इंडिया के रूप में जाना जाएगा? क्या इतिहास उनके साथ अब भी न्याय करेगा। लेखकः मनोज कुमार, ADJ, Sitapur (UP)

गिरफ्तारी से पहले दलित बुद्धिजीवी आनंद तेलतुंबड़े का खुला खत

भारत के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े ने बाबासाहब आंबेडकर की जयंती के दिन दोपहर को एनआईए के सामने सरेंडर कर दिया. समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, आनंद तेलतुंबड़े को एनआईए ने गिरफ़्तार किया है, पीटीआई के मुताबिक आनंद तेलतुंबड़े को अदालत ने 18 अप्रैल तक नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी की कस्टडी में भेज दिया है. आत्मसमर्पण करने से पहले आनंद तेलतुंबड़े ने अंग्रेज़ी में एक खुला खत लिखा है, बीबीसी हिन्दी वेबसाइट ने उसका संपादित हिंदी अनुवाद कर प्रकाशित किया है। वह पत्र हम बीबीसी से साभार प्रकाशित कर रहे हैं. आप भी पढ़ें-

“मुझे पता है कि बीजेपी-आरएएस के सुनियोजित शोर और उनकी सेवक मीडिया के दौर में मेरी यह चिट्ठी कहीं खो जाएगी लेकिन मुझे लगता है कि आपसे बात करनी चाहिए, मुझे मालूम नहीं है कि मुझे आपसे बात करने का दूसरा मौका मिले या न मिले.

अगस्त 2018 में जब पुलिस ने गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट के फैकेल्टी हाउसिंग परिसर के मेरे घर पर छापा मारा उसके बाद से मेरी दुनिया पूरी तरह लड़खड़ा गई है. मेरे साथ ऐसी चीज़ें होने लगीं हैं जिनके बारे में मैंने दुस्वप्न में भी नहीं सोचा था. हालांकि मुझे पता था कि मेरे व्याख्यानों के आयोजकों से पुलिस मेरे बारे में पूछताछ करके उन्हें डराती है. मुझे लगा कि वे मेरे भाई और मुझे लेकर शायद गफ़लत में हैं, मेरा वह भाई जो वर्षों पहले हमारे परिवार से अलग हो गया था. जिन दिनों मैं आईआईटी खड़गपुर में पढ़ा रहा था, बीएसएनएल के एक अधिकारी ने मुझे फ़ोन करके अपना परिचय दिया, और बताया कि मेरा फ़ोन टैप किया जा रहा है. मैंने उसका शुक्रिया अदा किया, लेकिन इसके बाद मैंने कुछ नहीं किया, अपना सिम भी नहीं बदला.

इस तरह की घुसपैठ से मैं थोड़ा परेशान हुआ लेकिन मैंने खुद को समझाया कि पुलिस को शायद समझ में आ जाए कि मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ और मेरे व्यवहार में कुछ भी ग़ैरकानूनी नहीं है. पुलिस आम तौर पर जनता के अधिकारों की बात करने वालों को नापसंद करती है क्योंकि वे पुलिस के रवैए पर सवाल उठाते हैं. मैंने कल्पना की कि मेरे साथ ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि मैं उसी बिरादरी का हूँ. मैंने अपने आपको एक बार फिर समझाया कि मैं इस भूमिका में ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता ये बात वो लोग समझ जाएँगे क्योंकि मैं अपनी पूर्णकालिक नौकरी में बहुत व्यस्त हूँ.

लेकिन मेरे इंस्टीट्यूट ने निदेशक ने जब सुबह-सुबह फ़ोन करके मुझे बताया कि पुलिस ने परिसर पर छापा मारा है और वे मुझे ढूँढ रहे हैं, तब कुछ सेकेंड के लिए मैं बिल्कुल अवाक रह गया. कुछ ही घंटे पहले दफ़्तर के काम से मैं मुंबई पहुँचा था और मेरी पत्नी पहले से ही आई हुई थी. उसी दिन कई और लोगों के घरों पर छापे और गिरफ़्तारी की खबर के बारे में पता चला तो मैं सदमे में आ गया, मुझे लगा कि मैं किस्मत से बाल-बाल बच गया हूँ.

पुलिस को यह पता था कि मैं कहाँ हूँ और वे मुझे गिरफ़्तार कर सकते थे, लेकिन यह वही बता सकते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया. उन्होंने सिक्यूरिटी गार्ड से जबरन डुप्लीकेट चाभी लेकर हमारा घर खोला, वीडियो बनाया और घर पर दोबारा ताला लगा दिया. यहीं से हमारी मुसीबतों का दौर शुरू हुआ.

वकीलों की सलाह के बाद मेरी पत्नी अगली फ़्लाइट से गोवा पहुँचीं और उन्होंने बिचोलिम थाने में शिकायत दर्ज कराई कि हमारा घर हमारी गैर-मौजूदगी में पुलिस ने खोला है इसलिए अगर उन्होंने वहाँ कुछ प्लांट कर दिया हो तो हम उसके लिए ज़िम्मेदार नहीं होंगे. उन्होंने अपने नंबर भी दिए ताकि तफ़्तीश के लिए पुलिस हमें फ़ोन कर सके. माओवादी कहानी की शुरूआत से ही पुलिस अजीब तरीके से प्रेस कॉन्फ्रेंस करने लगी. साफ़ तौर पर इसका मकसद मेरे और गिरफ़्तार किए गए दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ जनता में पूर्वाग्रह को बढ़ावा देना था, इसमें मीडिया मददगार की भूमिका निभा रहा था. 31 अगस्त 2018 को पुलिस ने ऐसे ही एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में एक चिट्ठी पढ़ी, जिसके बारे में बताया गया कि उसे गिरफ़्तार किए गए एक व्यक्ति के कंप्यूटर से बरामद किया गया है, इस चिट्ठी को मेरे ख़िलाफ़ सबूत के तौर पर पेश किया गया. इस चिट्ठी में अस्त-व्यस्त ढंग से एक एकेडेमिक कॉन्फ्रेंस की जानकारी डाली गई थी जिसमें मैंने हिस्सा लिया था, यह जानकारी अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेरिस की वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध थी. शुरू में तो मैं इस पर हँसा लेकिन बाद में मैंने उस पुलिस अधिकारी के ख़िलाफ़ सिविल और क्रिमिनल मानहानि का मुक़दमा करने का फ़ैसला किया, और मैंने 5 सितंबर 2018 को महाराष्ट्र सरकार को प्रक्रिया के तहत एक चिट्ठी भी लिखी. आज तक महाराष्ट्र सरकार का कोई जवाब नहीं मिला है. जब हाइकोर्ट ने फटकार लगाई तब जाकर पुलिस के प्रेस कॉन्फ्रेंस होने बंद हुए. जब पुणे पुलिस ने मुझे ग़ैर-कानूनी तरीके से गिरफ़्तार किया, उस वक्त मुझे सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण हासिल था, हिंदुत्व के साइबर गिरोह ने मेरे विकीमीडिया पेज से छेड़छाड़ की. यह एक पब्लिक पेज है और मुझे वर्षों तक इसके बारे में जानकारी नहीं थी. पहले तो उन्होंने मेरे बारे में लिखी सारी बातें मिटा डालीं, फिर लिखा गया, “इसका एक माओवादी भाई है, इसके घर पर छापा मारा गया था, इसे माओवादियों के साथ संबंधों की वजह से गिरफ़्तार किया गया है.” वगैरह… कुछ छात्रों ने मुझे बाद में बताया कि जब भी उन्होंने मेरे पेज को ठीक करने की कोशिश की या पेज को एडिट करना चाहा, गिरोह दोबारा आ जाता था और सब कुछ डिलीट करके अपमानजनक चीज़ें डाल देता था. आख़िरकार, विकीमीडिया को बीच में आना पड़ा, और मेरा पेज उनके कुछ नेगेटिव कमेंटों के साथ किसी तरह स्टेबलाइज़ हुआ. इसके बाद मीडिया में हमलों की शुरूआत हुई, आरएसएस से जुड़े नक्सल मामलों के कथित विशेषज्ञों ने हर तरह की अनर्गल बातें कीं. इंडिया ब्रॉडकास्टिंग फ़ाउंडेशन से भी मैंने चैनलों के ख़िलाफ़ शिकायत की लेकिन एक मामूली जवाब तक नहीं मिला. इसके बाद अक्तूबर 2019 में पेगासस जुड़ी ख़बर सामने आई कि सरकार ने मेरे फ़ोन में एक खतरनाक इसराइली स्पाइवेयर डाल दिया था. इस पर मीडिया में थोड़ी देर के लिए तो हंगामा हुआ लेकिन यह गंभीर मामला भी अपनी मौत मर गया. मैं एक साधारण आदमी हूँ जो अपनी रोटी ईमानदारी से कमाता है और अपनी जानकारी से लोगों की हरसंभव मदद अपनी लेखनी के ज़रिए करने की कोशिश करता है. मेरा पाँच दशकों का बेदाग रिकॉर्ड है, मैंने कॉर्पोरेट दुनिया में, एक शिक्षक, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी के तौर पर अलग-अलग भूमिकाओं में देश की सेवा की है. मेरे लेखन की लंबी सूची है जिसमें 30 से अधिक किताबें हैं, ढेर सारे शोध पत्र, लेख, कॉलम और इंटरव्यू हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुए हैं. उन सबमें हिंसा या विध्वंस का कोई समर्थन आपको नहीं मिलेगा. लेकिन मेरे जीवन के अंतिम सालों में बहुत ही दमनकारी यूएपीए कानून के तहत मुझ पर गंभीर अपराध के आरोप लगाए जा रहे हैं. मेरे जैसा कोई भी व्यक्ति सरकारी प्रोपगैंडा और सरकार-सेवक मीडिया का मुक़ाबला नहीं कर सकता. इस मामले के विवरण इंटरनेट पर बिखरे पड़े हैं, और वे इस बात के लिए काफ़ी हैं कि कोई भी यह समझ सकता है कि यह फर्ज़ी और आपराधिक ढंग से मनगढंत मामला है. एआईएफ़आरटीई की वेबसाइट पर इस मुक़दमे का सारांश पढ़ा जा सकता है. आपके लिए मैं उसे यहाँ रख रहा हूँ. पुलिस ने पाँच पत्रों के आधार पर यह केस तैयार किया है, ये पत्र गिरफ़्तार किए गए दो लोगों के कंप्यूटरों से बरामद किए गए थे, इस तरह के कुल 13 पत्रों की बरामदगी की बात कही गई थी. मेरे पास से कुछ बरामद नहीं किया गया. पत्रों में “आनंद” लिखा है जो भारत में एक बहुत ही आम नाम है लेकिन पुलिस बिना किसी शक या सवाल के उस आनंद की पहचान मेरे बतौर कर रही है. इन पत्रों के स्वरूप और उनकी सामग्री चाहे कुछ भी हो, इसे जानकार खारिज कर चुके हैं, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के एक जस्टिस भी इसमें शामिल हैं. पूरी न्यायपालिका में वे अकेले व्यक्ति हैं जिन्होंने सबूतों के प्रकार पर ग़ौर किया. इन पत्रों में ऐसी कोई बात नहीं लिखी है जिसे किसी भी तरह से किसी मामूली अपराध से भी जोड़ा जा सके. लेकिन दमनकारी यूएपीए कानून की आड़ में ये सब कुछ कर रहे हैं जो बचाव का कोई रास्ता नहीं देता, मैं जेल भेजा जा रहा हूँ. केस को आप इस तरह समझ सकते हैं. अचानक एक पुलिस दल आपके घर आता है, बिना कोई वारंट दिखाए आपके पूरे घर को बिखेरकर रख देता है. अंत में आपको गिरफ़्तार करके एक पुलिस लॉकअप में रखा जाता है. कोर्ट में वे कहते हैं कि एक चोरी के मामले (या कोई और मामला) की जाँच के दौरान, फलाँ शहर (भारत का कोई भी शहर) में एक कंप्यूटर या पेन ड्राइव फलाँ व्यक्ति (कोई भी नाम) से मिला. इसमें किसी प्रतिबंधित संगठन के किसी सदस्य की लिखी हुई चिट्ठियाँ मिली हैं जिसमें अमुक नाम है, और पुलिस के हिसाब से वह अमुक व्यक्ति आप ही हैं, कोई और नहीं. वे आपको एक गहरी साज़िश के भागीदार की तरह पेश करेंगे. अचानक आप पाएँगे कि आपकी पूरी दुनिया उलट-पुलट हो गई है. आपकी नौकरी चली गई है, परिवार का घर छिन गया है, मीडिया आपको बदनाम कर रही है और आप इस सबको रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकते. पुलिस अदालत को राज़ी करने के लिए सीलबंद लिफ़ाफ़े पेश करेगी कि आपके ख़िलाफ़ पहली नज़र में मामला बनता है इसलिए गिरफ़्तार करके आपसे पूछताछ की अनुमति दी जाए. जज यह दलील नहीं सुनेंगे कि कोई सबूत नहीं है, वे कहेंगे कि सुनवाई में देखा जाएगा. कस्टोडियल पूछताछ के बाद आपको जेल भेज दिया जाएगा. आप ज़मानत की अर्ज़ी लगाएँगे और अदालतें उसे रद्द कर देंगी. इस तरह के मामलों में ऐतिहासिक तौर पर डेटा यही दिखाता है कि व्यक्ति को ज़मानत मिलने या दोषमुक्त साबित होने में 4 से 10 साल तक का समय लगता है. और ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है. ‘राष्ट्र’ के नाम पर ऐसा दमनकारी कानून लागू करके बेकसूर लोगों से उनकी नागरिक स्वतंत्रता और सभी संवैधानिक अधिकार छीन लेने को वैधानिक मान्यता मिल जाती है. अंध राष्ट्रवाद को राजनीतिक वर्ग ने हथियार बना लिया है और उसके ज़रिए लोगों का ध्रुवीकरण करके प्रतिरोध को ख़त्म किया जा रहा है. इस सामूहिक उन्माद में तर्क को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी गई है, शब्दों के अर्थ उलट गए हैं, देश को बर्बाद करने वाले देशभक्त और निस्वार्थ सेवा करने वाले देशद्रोही बना दिए गए हैं. मैं अपने भारत को बर्बाद होते हुए देख रहा हूँ. मैं बहुत क्षीण आशा के साथ इस संकट के समय में आप सबको लिख रहा हूँ. मैं एनआईए की कस्टडी में जा रहा हूँ. मैं नहीं जानता कि आपसे दोबारा कब बात कर पाऊँगा. मैं उम्मीद करता हूँ कि आप बोलेंगे, और अपनी बारी आने से पहले बोलेंगे”. –आनंद तेलतुंबड़े

यहां बाबासाहब आंबेडकर की जयंती online मनाईए, विश्व रिकार्ड बनाईए

लॉकडाउन के दौर में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर की जयंती को ऑनलाइन मचाने की धूम है। दुनिया भर में फैले अम्बेडकरवादी बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती को अपने-अपने तरीके से ऑनलाइन रूप में मना रहा है। इस दौरान ऑनलाइन प्लेटफार्म का सहारा लेकर दुनिया भर के अम्बेडकरवादी आपस में जुड़कर संवाद कर रहे हैं। नैक्डोर नाम के संगठन ने अम्बेडकर जयंती को मनाने के लिए अनोखा तरीका अपनाया है, इसमें आप संसद भवन में लगी बाबासाहेब की प्रतिमा पर फूल-माला पहनाकर बाबासाहेब को नमन कर सकते हैं. संस्था के अशोक भारती ने अपील की है कि इस तरह हम एक विश्व रिकार्ड बना सकते हैं। दलित दस्तक/ बहुजन टुडे भी आपसे आग्रह करता है कि आप दुनिया के चाहे जिस हिस्से में हैं, बाबासाहेब को नमन करिए। लिंक नीचे हैं, इस लिंक पर क्लिक कर आप अम्बेडकर जयंती के मौके पर बाबासाहेब को नमन कर सकते हैं। इस लिंक पर क्लिक करिए, बाबासाहेब के सामने मोमबत्ती जलाइए, उन्हें फूल माला पहनाइए