अगर भारतीय जनता पार्टी अपना मुख्यमंत्री आगे नहीं करती है और नीतीश कुमार पिछले चुनाव की तरह गठबंधन से भागते नहीं हैं तो बिहार चुनाव के नतीजों के बाद 125 सीटें जीतने वाली एनडीए की सरकार बनना तय दिख रहा है। जिस तेजस्वी यादव को बिहार के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देखा जा रहा था, महागठबंधन के 110 सीटों पर रुक जाने के कारण उनको बड़ा झटका लगा है। ऐसे में अब इस पर चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर एनडीए की जीत और महागठबंधन के जीत के करीब पहुंच कर ठिठक जाने की वजह क्या है।
शुरुआती तौर पर महागठबंधन के 122 सीटों के मुहाने पर पहुंच कर रुक जाने की बड़ी वजह कांग्रेस को दी गई 70 सीटों को माना जा रहा है, जिसमें कांग्रेस सिर्फ 19 सीटें जीत सकीं। 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 41 सीटों पर लड़ी थी और उसने 27 सीटों पर जीत हासिल की थी। हालांकि कांग्रेस के एक पूर्व अध्यक्ष का कहना है कि 70 सीटें भले मिलीं लेकिन आरजेडी ने वही सीट दी जहां एनडीए बहुत मज़बूत था।
दरअसल महागठबंधन अगर सत्ता हासिल करने से चूक गई है तो इसके पीछे उसका बसपा, ओवैसी और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी की अनदेखी करना भी एक बड़ा कारण सामने आया है। क्योंकि अगर राजद ने महागठबंधन में इन तीनों दलों को शामिल किया होता तो नतीजे कुछ और होते। भले ही उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व में बना ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट जिसमें बसपा, रालोसपा और ओवैसी की AIMIM शामिल थी, ज्यादा सीटें नहीं जीत सकीं, लेकिन वो राजद को ज्यादा सीटें जीता जरूर सकती थी। गठबंधन में शामिल लेफ्ट पार्टियों को मिली सफलता भी यह बताती है कि जिन दलों का आधार समाज का सबसे कमजोर वर्ग रहा, उसके गठबंधन में शामिल रहने पर गठबंधन और दल दोनों को फायदा हुआ।
तो एक बड़ा फैक्टर मुस्लिम मतदाता भी हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय जनता दल से पहले मुस्लिम उम्मीदवार पर भरोसा किया, चाहे वह किसी पार्टी से क्यों न खड़ा हो। क्योंकि जिस यादव-मुस्लिम गठजोड़ के बूते राजद बिहार की सत्ता में कई सालों तक काबिज रही, इस बार मुस्लिम मतदाताओं ने कुछ क्षेत्रों में गठबंधन का साथ नहीं दिया।
बिहार के सीमांचल क्षेत्र को मुस्लिमों का गढ़ माना जाता है। इसमें किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार जिले आते हैं, जहां कुल 24 विधानसभा सीटें है। इन चार जिलों के मुस्लिम वोटों को देखें तो किशनगंज में करीब 70 फीसद, अररिया में 42 फीसद, कटिहार में 43 फीसद और पूर्णिया में 38 फीसद मुस्लिम वोटर हैं। AIMIM ने बिहार की 20 सीटों पर अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें से 14 उम्मीदवार सीमांचल इलाके की सीटों पर हैं। यहां ओवैसी की पार्टी ने बसपा के समर्थन से मुस्लिम-दलित गठजोड़ के बूते अमौर, बैसी, जोकीहाट, कोचाधामन और बहादुरगढ़ की सीट जीत ली। इसमें पूर्णिया की अमौर सीट पिछले 36 सालों से जबकि बहादुरगंज सीट पिछले 16 सालों से कांग्रेस के पास थी। मिथिलांचल और कोसी में भी ओवैसी एक फैक्टर रहें और उन्होंने वहां की सीटों को प्रभावित किया।
जबकि बहुजन समाज पार्टी के साकारात्मक रुख के बावजूद राजद ने बसपा से गठबंधन करने से परहेज किया। खबर है कि राजद ने तब बसपा से संपर्क किया जब बसपा, ओवैसी और कुशवाहा ने अपने गठबंधन की घोषणा कर दी। उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाला ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट के तरह RLSP ने 99, बसपा, ने 78, AIMIM ने 20 जबकि गठबंधन में शामिल तीन अन्य दलों ने 26 सीटों पर चुनाव लड़ा।
उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी के खाते में भले कोई सीट ना आई हो लेकिन आरएलएसपी ने दिनारा, केसरिया सहित कई सीटों पर अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज कराई। तो बीएसपी ने यूपी से सटे बिहार के इलाकों में अपना दम दिखाया। पार्टी ने चैनपुर सीट पर जीत हासिल की। तो रामगढ़ सीट पर बीएसपी के अंबिका सिंह और आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर सिंह में कड़ा मुकाबला रहा, जहां बसपा का आरोप है कि उसे प्रशासन की मिली भगत से हरा दिया गया। गोपालगंज में बीएसपी दूसरे नंबर पर रही। इसके अलावा भोजपुर, शाहाबाद की कई सीटों पर भी बसपा मजबूती से लड़ी।
वोट प्रतिशत की बात करें तो BSP को 1.49 प्रतिशत वोट, RLSP को 1.77 प्रतिशत वोट, जबकि AIMIM को 1.24 प्रतिशत वोट यानी मिला। यानी तीनो को मिलाकर कुल 4.50 प्रतिशत वोट मिले, जो इस काटे की टक्कर में काफी अहम साबित हुए हैं। हालांकि राष्ट्रीय जनता दल ने चुनाव में गड़बड़ी के आरोप लगाए है, जिनकी जांच चुनाव आयोग को जरूर करनी चाहिए।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
