कोरोना काल में विस्थापित मज़दूरों के बच्चे

Written By- पूजा मारवाह जब कोविड-19 से संबंधित काम करने वाली एक सहायता समूह के सदस्य ने सात साल की बच्ची आशा (बदला हुआ नाम) से मुलाकात की तो उस समय वह अपने चार साल के भाई की सुरक्षा कर रही थी। क्योंकि उसके माता पिता कहीं खाने की व्यवस्था करने गए हुए थे और वह बच्ची बहुत ही धैर्य के साथ उनके लौटने का इंतज़ार कर रही थी। उस बच्ची ने सहायता समूह के सदस्य को बताया कि वह लोग बिहार के किसी सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के रहने वाले मज़दूर हैं। सड़क निर्माण करने वाले मज़दूरों का यह छोटा सा समूह अब उत्तर प्रदेश के कौशांबी की एक कच्ची आबादी में अस्थाई रूप से निवास कर रहा है, जहां कोरोना के बाद उन्हें दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से उपलब्ध पा रही है। उन्हें अपने गांव वापस लौटने की भी उम्मीद नहीं है। “हमारे पास खाने के पैसे भी नहीं हैं, हम गांव कैसे जा सकते हैं?” सात साल की इस बच्ची का बहुत आसान जवाब था, लेकिन इसके पीछे कई गंभीर सवाल छुपे हुए थे। जिसका जवाब उस सहायता समूह के सदस्य के पास नहीं था। कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए देश भर में लगाए गए लॉक डाउन और उसके बाद की परिस्थितियों ने बहुत सारी ज़िंदगियों को बदल कर रख दिया है। विशेषकर गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे परिवारों को इसने सबसे अधिक प्रभावित किया है। लॉक डाउन के दौरान ज़रूरतमंदों को राशन और स्वास्थ्य किट उपलब्ध कराने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रही संस्था ‘चाइल्ड राइट्स एंड यू’ ऐसी बहुत सी कहानियों की गवाह बनी, जो सुनने वालों के दिल को झकझोर कर रख देती है। हम सभी जानते हैं कि लॉक डाउन के दौरान अस्थाई और विस्थापित मज़दूरों के पास जीवन यापन का कोई माध्यम नहीं बचा था। काम बंद हो जाने के कारण उनके पास एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी मुश्किल हो गया था। इस कठिन समय में उनके बच्चों की मानसिक स्थिति क्या रही होगी, इसका शायद ही किसी ने अंदाज़ा लगाने का प्रयास किया होगा। माता पिता के साथ विस्थापन के दौरान बच्चों को सबसे अधिक खाने पीने की जद्दोजहद करनी पर रही है। उनके सामने न केवल भूख और प्यास का मसला था बल्कि अपने छोटे भाई बहनों को संभालने की ज़िम्मेदारी भी उठानी पड़ रही थी। इस दौरान उन्हें उनकी उम्र और क्षमता के अनुरूप भोजन तक उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। लॉक डाउन के कारण स्कूलों के बंद होने से गरीब बच्चों को दोपहर का मिलने वाला पौष्टिक भोजन भी बंद हो गया। जिससे इस अवधि में कुपोषण के बढ़ने की संभावनाओं ने भी इंकार नहीं किया जा सकता है। इतना ही नहीं कोरोना की अफरातफरी में बच्चों को समय पर लगने वाले टीके भी नहीं मिल सके हैं जो भविष्य में उन्हें खतरनाक बिमारियों से बचा सकता था। समेकित बाल विकास कार्यक्रम योजना (आईसीडीएस) और स्वास्थ्य केंद्र कोरोना की रोकथाम के नाम पर पिछले कुछ महीनों से बंद पड़े हैं। जिसके कारण पोलियो वैक्सीन, समय पर लगने वाले टीके, आयरन की गोलियां तथा गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताओं तथा उनके बच्चों को दिए जाने वाले पोषण योजना जैसे अन्य महत्वपूर्ण कार्यक्रम ठप्प हो गए हैं। ऐसे में गर्भवती महिलाओं में एनीमिया और खून की कमी तथा बच्चों में कुपोषण की समस्या पर काबू पाने की मुहिम को झटका लग सकता है। इससे भारत को कुपोषण मुक्त करने का लक्ष्य और भी दूर हो जाने की संभावनाएं बढ़ गई हैं। लॉक डाउन के कारण गरीब बस्तियों में सामाजिक स्तर पर साफ़ सफाई नहीं होने से टायफायड तथा पानी से होने वाली अधिकतर बिमारियों के बढ़ने की आशंका भी बढ़ गई है। बहुत अफ़सोस की बात है कि बच्चों को भी काम के लिए विस्थापित होना पड़ता है। पढ़ने लिखने की उम्र में इन्हें बाल मज़दूरी करनी पड़ती है। लेकिन काम के बाद अक्सर इन बच्चों को उनका पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। बल्कि कई बार इन्हें काम पर लगाने वाले ठेकेदार और बिचौलिए इनका पैसा हड़प जाते हैं। ऐसी कठिन परिस्थिति में इन बच्चों की सुरक्षा को सबसे अधिक खतरा रहता है। क्योंकि इनसे काम करवाने वाले मालिक बाल श्रम कानून से बचने के लिए इनका नाम मज़दूरों की लिस्ट में शामिल नहीं करते हैं। यही कारण है कि अक्सर इन तक पहुँचना और उन्हें इस दलदल से बाहर निकालना किसी भी संस्था के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है। अपने परिवार के दुखों को देख कर इस परिवेश में रहने वाले बच्चों के व्यक्तित्व और स्वभाव में सामान्य बच्चों की तुलना में काफी अंतर होता है। कई बार ऐसे बच्चे यौन शोषण का भी आसानी से शिकार हो जाते हैं। वहीँ मानव तस्कर के चुंगल में भी इनके फंसने की संभावनाएं बहुत अधिक बनी रहती है। लगातार विस्थापन के कारण इन बच्चों की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित होती है। ज़्यादातर बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाते है। ऐसे में या तो परिवार वालों के साथ मज़दूरी की आग में झोंक दिए जाते हैं या फिर गलत संगत में आकर अपराध और नशे की दुनिया में शामिल हो जाते हैं। मानसिक रूप से अत्यधिक दबाब के कारण ऐसे वातावरण में पलने वाले बच्चे बहुत जल्द कमज़ोर और विपक्षित अवस्था में भी पहुँच जाते हैं। बार बार विस्थापन के कारण मज़दूरों के बच्चों की शिक्षा बुरी तरह से प्रभावित होती है। बहुत सारे बच्चों का स्कूलों में नामांकन तो होता है लेकिन माता पिता के विस्थापन के कारण अधिकतर बच्चे स्कूल का मुंह तक देख नहीं पाते हैं। वर्तमान परिस्थिति में लॉक डाउन के बाद विस्थापित मज़दूरों के बच्चों की स्कूल से दूरी और भी बढ़ गई है। लॉक डाउन के कारण घर की आर्थिक स्थिति खराब होने तथा ऑनलाइन क्लास की सुविधा से वंचित होने के कारण यह बच्चे मज़दूरी की अंधेरी दुनिया में धकेल दिए जायेंगे। इसमें सबसे अधिक शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चे प्रभावित होंगे। लॉक डाउन के सबब ऑनलाइन सुविधा नहीं होने के कारण गरीब बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है, इनमें विस्थापित मज़दूरों के बच्चों की संख्या लगभग शत प्रतिशत है। हालांकि लॉक डाउन के कारण सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की प्रभावित होती शिक्षा को सामान्य स्तर पर लाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें कई प्रकार की योजनाओं पर काम कर रही हैं। इनमें कम्युनिटी रेडियो और संचार के दूसरे अन्य माध्यमों का सहारा लिया जा रहा है, लेकिन फिर भी लगातार विस्थापित होने वाले बच्चों तक इन माध्यमों की पहुँच बहुत कम मुमकिन हो पाती है। वर्तमान में बच्चों की शिक्षा और उनके सर्वांगीण विकास की सबसे अधिक आवश्यकता है। इसके साथ साथ उनके पोषण और शारीरिक विकास के लिए भी ठोस योजनाओं पर अमल करने की ज़रूरत है ताकि उन्हें हर तरह से स्वस्थ्य और विकार रहित जीवन प्रदान किया जा सके। ऐसे में मदद के दौरान उन तक पहुँचाए जा रहे राहत सामग्रियों में दूध, प्रोटीन और अन्य पौष्टिक आहारों को अधिक से अधिक उपलब्ध कराये जाने की ज़रूरत है। हमें इस बात को समझना होगा कि बिना पका हुआ खाना उनके लिए बहुत अधिक लाभकारी साबित नहीं होगा क्योंकि विस्थापितों के लिए आसानी से रसोई घर की उपलब्धता को सुनिश्चित बनाना मुमकिन नहीं है। इसके अतिरिक्त विस्थापित मज़दूरों और उनके बच्चों के लिए साफ़ सफ़ाई तथा शौचालयों की व्यवस्था भी ज़रूरी है। इसके लिए राज्य स्तर से लेकर ब्लॉक और पंचायत स्तर तक विस्थापित मज़दूरों के लिए बनाये गए अस्थाई बस्तियों में विशेष व्यवस्था करने की ज़रूरत है। विशेष रूप से इस मामले में लड़कियों के लिए ख़ास इंतज़ाम करने की ज़रूरत है ताकि उन्हें किसी भी प्रकार के यौन शोषण से बचाया जा सके। इतना ही नहीं, युवावस्था में प्रवेश करने वाली विस्थापित मज़दूरों की बच्चियों के शारीरिक और मानसिक विकास पर ख़ास ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्हें न केवल माहवारी संबंधी सही मार्गदर्शन करने की ज़रूरत है बल्कि कम उम्र में शादी करने से बचाना भी बहुत बड़ी चुनौती होती है। अब समय आ गया है कि विस्थापित होने वाले बच्चों के जीवन में भी रौशनी फैलाई जाये। उन्हें भी अन्य बच्चों की तरह शिक्षा प्राप्त हो। उनके लिए पौष्टिक आहार उपलब्ध हो तथा समय पर स्वास्थ्य के टीके मिल सकें। यह बहुत बड़ा चैलेंज है, जिसे कोई भी संस्था अकेले पूरा नहीं कर सकती है। इसके लिए सरकार और प्रशासन को स्थानीय स्तर पर मिल कर काम करने की ज़रूरत है क्योंकि एक आम बच्चों की तरह लगातार विस्थापन का दंश झेल रहे मज़दूरों के बच्चों को भी सभी सुविधाएं पाने का हक़ है और यह हक़ उन्हें हमारा संविधान देता है।
लेखिका पूजा मारवाह चाइल्ड राइट्स एंड यू “क्राई” की सीईओ हैं।

No End to Humiliation of Dalits Even After Death

Written By- Subhash Gatade Does anybody still remember the Dalits of Chakwara, a village around 50km from Jaipur in Rajasthan, who had launched a struggle to gain access to the pond in their village? It is more than 18 years since the Dalits, supported by human rights organisations, won that fight for water. Their undertaking had echoes with the historic struggle launched by Dr BR Ambedkar in March 1927 at Chavdar tank at Mahad to assert the equal rights of Dalits to water. It is well known to most people that while animals were allowed to use the water of this tank in present-day Raigad district of the state, the Dalits were not. Anand Teltumbde has described the events of this satyagraha in his book, Mahad: The Making of the First Dalit Revolt, published by Navayana in 2016. But what happened at Chakwara after the Dalits started using the village pond is hardly known: the upper castes slowly stopped using the water from the pond once the Dalits gained access to it, saying it had become “impure”. Enraged by the assertion of the Dalits and keen to humiliate them for it, they dug up the village sewer and directed the waste water to their own village pond. There is no change in the status quo there. Read Full Story

यूपी में 2007 का करिश्मा दोहरा सकती है बसपा, बशर्ते…

क्या उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के लिए एक बार फिर जमीन तैयार हो रही है। क्या आने वाले उत्तर प्रदेश चुनाव में बसपा को एक बार फिर से ब्राह्मण समाज का साथ मिल सकता है। यह सवाल उत्तर प्रदेश की हालिया घटनाओं के कारण उठ रहा है। विकास दूबे मामले में एक नाबालिक युवक का एनकाउंटर और अब गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या के बाद लोगों का गुस्सा और भड़क गया है। कानपुर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के आरोपी विकास दुबे के बहाने जब पूरे ब्राह्मण समाज को कठघरे में खड़ा किया जा रहा था, बसपा प्रमुख मायावती ने पूरे ब्राह्मण समाज पर निशाना साधने वालों की आलोचना की थी। इन दोनों घटनाओं से उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समाज में योगी सरकार को लेकर काफी गुस्सा है। जहां तक पत्रकार हत्याकांड की बात है तो पुलिस से शिकायत के बावजूद पुलिस ने अपराधियों पर कोई कार्रवाई नहीं की, इससे उत्साहित गुंडों ने पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी। इसको लेकर योगी सरकार की काफी आलोचना हो रही है। लखनऊ में तो पत्रकारों ने मीडियाकर्मियों पर बढ़ती हिंसा के मामले में कड़ा विरोध दर्ज कराया था। तो दूसरी ओर विकास दूबे के मामले में 14 साल के एक नाबालिग युवक के इनकाउंटर को भी ब्राह्मण समाज अन्याय बता रहा है। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण समुदाय के लोगों के बीच भी योगी सरकार को लेकर तेजी से गुस्सा फैलता जा रहा है। यूपी में मुख्यमंत्री योगी जिस तरह से ठाकुरवाद को बढ़ा रहे हैं, और ब्राह्मणों को दरकिनार कर रहे हैं, उससे ब्राह्मण समाज में रोष है। ऐसे में ब्राह्मण समाज उत्तर प्रदेश में भाजपा का विकल्प तलाशने में जुटा हुआ है। अब जरा पीछे आते हैं तो वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने बिना गठबंधन चुनाव लड़ा था और अपने बलबूते सत्ता हासिल की थी। इसके पीछे अनुसूचित जातियों व जनजातियों के साथ सर्वसमाज को जोड़ने का प्रयोग माना जाता रहा है। हालिया घटनाक्रम के बाद प्रदेश में एक बार फिर से 2007 जैसी स्थिति बनने की पूरी संभवना है। हालांकि यहां एक बात साफ है कि ब्राह्मण वोटर योगी सरकार से नाराज हैं, न कि भाजपा से। लेकिन लोकतंत्र में हर राज्य का चुनावी गणित अलग होता है। और यूपी के चुनावी गणित में योगी ब्राह्मण समाज के निशाने पर हैं। ऐसे में सवाल यह है कि योगी से नाराज वोटर किस ओर जाएंगे। क्या वह बिना कोशिश के ही खुद बसपा के पीछे खड़े हो जाएंगे? जाहिर है नहीं। क्योंकि जमीनी हकीकत से समाजवादी पार्टी भी वाकिफ है और अखिलेश यादव लगातार ब्राह्मण अत्याचार का मुद्दा उठा रहे हैं। यही नहीं सपा के कई अन्य नेता भी सोशल मीडिया पर ब्राह्मण अत्याचार की बात को जोर-शोर से उठा रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी नाराज ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की कितनी गंभीर कोशिश करती है, यह अभी साफ नहीं हो पाया है। लेकिन इसकी संभावना जताई जा रही है कि अगर बसपा ने ईमानदारी से कोशिश की और ब्राह्मणों को जोड़ने की रणनीति पर गंभीरता से काम किया तो प्रदेश में एक बार फिर से 2007 की स्थिति दोहराई जा सकती है। लेकिन सवाल यही है कि बसपा को कोशिश करनी होगी, और कोशिश में ईमानदारी होनी चाहिए।

अयोध्या में बौद्ध पक्ष को अदालत की फटकार कितनी जायज

देश की अदालत सबके लिए है। शायद यही वजह है कि अदालतों को भी तीन स्तरों पर बांटा गया है, ताकि एक जगह न्याय मिलने से रह जाए और अदालत से ही कोई गलती हो जाए तो दूसरी या तीसरी जगह न्याय हासिल किया जा सके। लेकिन न्याय पाने के लिए अपील दो लोगों को भारी पर गई। जब शीर्ष अदालत ने उनकी जनहित याचिका को न सिर्फ खारिज कर दिया, बल्कि उसे बेकार और बकवास तक कह दिया और तो और याचिकाकर्ताओं पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगा दिया। मामला अयोध्या के रामजन्मभूमि स्थल से जुड़ा है। आप सबको याद होगा पिछले दिनों रामजन्म भूमि के समतलीकरण के दौरान तमाम अवशेष सामने आए थे। खुदाई में जो अवशेष मिले थे, वो तमाम बौद्ध धर्म से मिलते-जुलते थे। बौद्ध धर्म में विशेष महत्व रखने वाले अशोक धम्म चक्र और कमल का फूल जैसे अवशेष की तस्वीरें सामने आई थी। इसके बाद तमाम बौद्ध विद्वान इसे बौद्ध धर्म का अवशेष बताते हुए एक बार फिर से अयोध्या को बौद्ध नगरी साकेत बताने लगे। पिछले कई वर्षों से अयोध्या के बौद्ध स्थल होने का दावा बौद्ध धम्म को मानने वाले करते रहे हैं। इस खुदाई में मिले अवशेष के बाद मामले ने फिर से जोर पकड़ा। इसके बाद बिहार के दो बौद्ध भिक्खुओं ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और रामजन्मभूमि को खोदने और खुदाई के दौरान सामने आने वाली कलाकृतियों की सुरक्षा करने की मांग की। अवशेषों की सुरक्षा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में किए जाने की मांग थी। इसी मामले पर सुप्रीम कोर्ट में आज यानि कि 20 जुलाई को सुनवाई हुई। जिस पर जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने लगभग भड़कते हुए न सिर्फ इस याचिका को बेकार, तुच्छ तक कहा, बल्कि बिल्कुल कठोर रुख अपनाते हुए दोनों याचिकाकर्ताओं पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया। और इस रकम को एक महीने के भीतर जमा करने का फरमान सुना दिया। दोनों को यह कह कर भी डांट लगाई गई कि अदालत याचिकाकर्ता संगठनों की सीबीआई जांच के आदेश देगी। सुप्रीम कोर्ट की इस पीठ ने कहा कि आप जनहित के नाम पर ऐसी बेकार याचिकाएं कैसे दायर कर सकते हैं। आप दंड के भागी हैं। आप पर इसलिए जुर्माना लगाया जा रहा है ताकि ऐसी गलती आप दोबारा न करें। दरअसल कोर्ट इस मामले में पहले से ही याचिका होने के बावजूद नई याचिका लाए जाने से नाराज थी। तीन जजों की इस खंडपीठ में जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस कृष्णा मुरारी थे। दरअसल हुआ यह कि रामजन्मभूमि स्थल के समतलीकरण के दौरान कई अवशेष मिले थे। इसके बाद बिहार से आये दो बौद्ध मतावलंबियों ने राम जन्मभूमि पर अपना दावा बताया था। इसमें से एक भंते बुद्धशरण केसरिया भी थे। बुद्धशरण केसरिया का कहना है कि “अयोध्या में बन रहे राममंदिर निर्माण के लिए हुए समतलीकरण के दौरान बौद्ध संस्कृति से जुड़ी बहुत सारी मूर्तियां, अशोक धम्म चक्र, कमल का फूल एवं अन्य अवशेष मिलने से स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान अयोध्या बोधि‍सत्व लोमश ऋषि की बुद्ध नगरी साकेत है। अयोध्या मसले पर हिंदु मुस्लिम और बौद्ध तीनों पक्षों ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी लेकिन सारे सबूतों को दरकिनार कर एकतरफा फैसला हिंदुओं के पक्ष में राम जन्मभूमि के लिए दे दिया गया। इसके लिए हमारे संगठन ने राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट समेत कई संस्थाओं को पत्र लिखकर वास्तविक स्थि‍ति से अवगत कराया।’ अब फिर मूल सवाल पर आते हैं। सवाल है कि क्या यह मामला इतना छोटा था कि इस मुद्दे पर एक बार फिर से अदालत का ध्यान आकर्षित करना अपराध हो गया। क्या भारत और दुनिया भर में मौजूद बौद्ध धम्म में आस्था रखने वाले करोड़ों लोगों की भावनाएं कोई मायने नहीं रखती। क्या अवशेष की तस्वीरें सामने आने के बाद और उसके बौद्ध धम्म से संबंधित होने के बाद भी बौद्ध धम्म में आस्था रखने वालों को अपने ही देश की अदालत से न्याय की मांग नहीं करनी चाहिए थी। सवाल कई हैं। आप भी इस बारे में जरूर सोचिएगा।

अन्नाभाऊ साठेः ऐसे दलित साहित्यकार, जिनकी रचनाओं का 27 भाषाओं में हुआ अनुवाद

दलित समाज में जन्में बहुत से ऐसे रत्न हैं, जिनके बारे में देश को नहीं पता। या तो वह क्षेत्र विशेष तक सीमट कर रह गए हैं या फिर समाज के हीरो बनकर। जबकि उनकी काबिलियत ऐसी है कि बड़े से बड़ा बुद्धिजीवी उनके सामने धाराशायी हो जाए। उनकी प्रसिद्धी सीमट कर रह गई तो सिर्फ और सिर्फ उनकी जाति की वजह से। अन्नाभाऊ साठे ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिनको देश के भीतर उनके कद के मुताबिक मान-सम्मान नहीं मिला। आज भी देश तो क्या खुद दलित-बहुजन समाज के ज्यादातर लोग उनकी महानता से अनभिज्ञ हैं। 18 जुलाई (1969)को उनकी पुण्यतिथि यानी परिनिर्वाण दिवस है। उनका जन्म 1 अगस्त 1920 को महाराष्ट्र के सांगली जिले के वाटेगांव में हुआ था। वह महज 48 साल जिए, लेकिन इतने कम समय में भी उन्होंने इतना शानदार साहित्य रचा कि उसकी धमक दुनिया के 27 देशों तक में पहुंची। जी हां, अन्नभाऊ साठे की रचनाओं का दुनिया की 27 भाषाओं में अनुवाद हुआ। वह सबसे ज्यादा रुस में प्रचलित थे। कहा जाता है कि उनकी वजह से भारत और रुस के संबंध बेहतर हुए।
Anna Bhau Sathe
रूस में पंडित नेहरू, राजकपूर और अन्नाभाऊ साठे खासे लोकप्रिय थे। एक बार जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जब रूस के दौरे पर गए तो लोगों ने उनसे अन्नाभाऊ साठे के बारे में पूछ लिया। पंडित नेहरू असमंजस में पड़ गए कि वो कौन है, जिसके बारे में लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं जानता हूं कि नहीं। प्रधानमंत्री नेहरू ने तुरंत भारतीय दूतावास से पता करने को कहा कि महाराष्ट्र में अन्नाभाऊ साठे कौन हैं, तब जाकर दूतावास ने उन्हें अन्नाभाऊ के बारे में जानकारी मुहैया कराई। विचारधारा के नाम पर वह मार्क्सवादी विचारधारा के बेहद करीब थे। वह मजदूर आंदोलन से जुड़े रहे। हालांकि बाद के दिनों में उनपर बाबासाहेब आंबेडकर का भी काफी प्रभाव रहा वह मार्क्स के वर्ग संघर्ष के साथ सामाजिक न्याय के सिद्धांत को भी समझने लगे थे। उन्होंने अपनी एक चर्चित रचना बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को समर्पित भी की थी। उनके बारे में एक और जानकारी चौंकाने वाली है। उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। सांगली से मुंबई आने के बाद उन्होंने फिल्मों के पोस्टर और दीवारों पर लिखे प्रचार को देखकर पढ़ना सीखा। लिखना सीखने के बाद उन्होंने एक बार लिखना शुरू किया तो फिर जीवन के आखिर तक नहीं रुके। ‘फकीरा’ उनका सबसे चर्चित उपन्यास है। 1959 में यह उपन्यास सामने आने के दो साल बाद ही सन् 1961 में उन्हें महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला। हाल तक इसके दो दर्जन संस्करण आ चुके हैं। फिल्मी दुनिया में भी वह काफी सक्रिय रहें। उनके लिखे तकरीबन आधे दर्जन से ज्यादा उपन्यासों पर फिल्म बन चुकी है। बलराज साहनी, ए.के हंगल, गीतकार कैफी आजमी से उनका करीबी नाता रहा। उन्हें भारत का ‘मैक्सिम गोर्की’ कहा जाता है। आज एक बार सोच कर देखिए, अगर वो सामान्य समाज में जन्में होते तो उनकी प्रसिद्धी चांद तक पहुंच गई होती।

उच्च शिक्षा में परसेंटेंज की दौड़ के खिलाफ अभिभावकों को आना होगा सामने

Written By- डॉ. राजकुमार फिलहाल परीक्षा परिणामों का वक्त है। दसवीं और 12वीं के नतीजे आ चुके हैं। यहां से बच्चे और अभिभावक भविष्य के सपने बुनना शुरु करते हैं। 12वीं पास कर चुके बच्चों पर प्रेशर ज्यादा होता है, क्योंकि यहीं से ‘अच्छे विश्वविद्यालयों’ में प्रवेश पाने की प्रतिस्पर्धा शुरू होती है। खास तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में अंकों के आधार पर एडमिशन ने देश भर में 12वीं के छात्रों एवं उनके अभिभावकों पर बेवजह का मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक दबाव बना दिया है। प्रवेश परीक्षा कराने से बहुत सी समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है लेकिन विश्वविद्यालय एवं सरकार की न जाने कौन सी मजबूरी है कि छात्रों को गला काट प्रतिशत दौड़ से मुक्ति नहीं दिलाना चाहती। प्रवेश परीक्षा होने पर छात्र ज्ञान के लिए पढ़ेंगे, मात्र नम्बर प्राप्त करने के लिए नहीं। क्योंकि अब पूरी दुनिया यह समझ चुकी है कि योग्यता और मार्क्स का कोई सीधा संबंध नहीं है। चंद रईस परिवारों के बच्चे अपने खानदानी संसाधनों के बल पर 90-95 प्रतिशत तक अंक लाकर साधन विहिन अन्य करोड़ों छात्रों पर एक षडयंत्रकारी मनोवैज्ञानिक बढ़त बना लेते हैं। हालांकि यह भी एक सच है कि ये 90% वाले छात्र ग्रेजुएशन करने के बाद अधिकांशतः गुमनाम ग्रेजुएट बनकर करोड़ों की भीड़ में विलीन हो जाते हैं और ऐसे अनेको छात्र जो सुविधाओं के अभाव में राज्य बोर्डों से 50-60% अंक के साथ पास होते हैं, जीवन की दौड़ में में कहीं अधिक सार्थक एवं सफल मुकाम हासिल कर लेते हैं। कैसी विडंबना है कि ग्रेजुएशन में 60% मार्क्स प्राप्त करके भी आप IAS टॉप कर सकते हैं लेकिन 95% मार्क्स प्राप्त करके भी आपको आपकी पसंद का कॉलेज या कोर्स में दाखिला मिलने की कोई गारंटी नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि निक्कमी सरकारें देश में नये विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय एवं कॉलेजों की स्थापना तो कर नहीं सकती, और देश में जो दो चार पढ़ने योग्य संस्थान हैं वहां सबको एडमिशन मिल नहीं सकता, इसलिए ये प्रतिशत की चारदीवारी आम लोगों के बच्चों को इन शिक्षण संस्थानों में प्रवेश करने से रोकने के लिए तथा अपने सनातनी वर्चस्व को बचाने के लिए बड़ी बेशर्मी से खड़ी कर दी गई हैं। जिस तरह मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं कुछ अन्य कोर्सों में प्रवेश परीक्षाएं होती हैं उसी तरह BA, BCOM, BSC में भी प्रवेश परीक्षा के आधार पर ही प्रवेश कराने की जरूरत है। निश्चित रूप से इससे शिक्षा का स्तर व्यापक रूप से सुधरेगा। जहां हर आर्थिक स्थिति वाले मां-बाप अपने बच्चों को शिक्षा दिला सकें। हालांकि सर्वोत्तम स्थिति तो वह होगी जब हर पढ़ने के इच्छुक स्टूडेंट को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के सुलभ एवं समान अवसर उपलब्ध हों। देश भर के अभिभावकों को इस दिशा में गंभीरता से सोचने और आंदोलन करने की जरूरत है। आखिर दांव पर उनके बच्चों का भविष्य लगा है। और प्रतिशत की यह प्रतिस्पर्धा उनके बच्चों के भविष्य से खेल रही है।
इस आलेख के लेखक डॉ. राजकुमार दिल्ली विश्वविद्यलाय के दयाल सिंह कॉलेज में प्रोफेसर हैं। 

CBSE Topper तुषारः बात सिर्फ मेरिट की नहीं, मौके की भी होती है

मेरी ओ.पी. सिंह जी से बात हुई। ओ.पी. सिंह सीबीएसई बोर्ड की 12वीं की परीक्षा के टॉपर तुषार कुमार सिंह के पिता हैं। बुलंदशहर के साथी वीरेन्द्र सिंह के जरिए ओ.पी. सिंह से बात हो सकी। पिता उत्साहित थे। मौका खुशी का था भी। किसी का बच्चा जब टॉपर बन जाए तो कोई भी खुश होगा। अक्सर रिजर्वेशन और कम योग्यता का ताना सुनने वाले अम्बेडकरी समाज के तुषार की यह सफलता संभवतः मेरिट पर अपना एकाधिकार समझने वाले लोगों की आंखें खोले और वह इस बात को मानने लगें कि बात योग्यता से अधिक मौके  की होती है। तुषार कुमार सिंह ने सीबीएसई (CBSE) बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में सौ प्रतिशत अंक हासिल कर टॉप किया है। तुषार ने 500 में से 500 अंक हासिल किए हैं।  तुषार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के रहने वाले हैं। उनके माता पिता दोनों प्रोफेसर हैं। पूरा परिवार अम्बेडकरवादी है। तुषार ने दो साल पहले 10वीं की परीक्षा में भी 97 प्रतिशत अंक हासिल किए थे। तुषार दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए कोर्स में दाखिला लेकर सिविल सेवा की तैयारी करना चाहते हैं। तुषार की इस सफलता से अम्बेडकरी समाज में खासा उत्साह है। लोग तुषार के घर पर पहुंच रहे हैं और उन्हें बधाई दे रहे हैं। तुषार के पिता डॉक्टर ओपी सिंह, खुर्जा के एनआरईसी कॉलेज में प्रोफेसर हैं जबकि मां किरण भारती इंटर कॉलेज में लेक्चरर हैं। तुषार एक आम युवा नहीं हैं। तुषार उस वर्ग में पैदा हुए हैं, जिसे सदियों से जलालत झेलनी पड़ी है। जिसके हर व्यक्ति को तमाम योग्यता के बावजूद आरक्षण वाला कह कर ताना मारा जाता है। हालांकि सीबीएसई की परीक्षा में आरक्षण नहीं होता जहां तुषार ने टॉप किया है। इस नाते संभव है कि तुषार को ऐसे ताने न सुनने पड़े। हो सकता है कि इसके बावजूद भी सुनना पड़े क्योंकि तुषार हर जगह मार्टशीट की तख्ती लटकाए नहीं घूम सकते। तुषार को यह बातें समझनी होगी। तुषार का दाखिला अब ग्रेजुएशन में होगा। वह युवावस्था की तरफ बढ़ चले हैं। तुषार के अंदर जो प्रतिभा है, वह ठान लें तो किसी भी क्षेत्र में सफल होने का माद्दा रखते हैं। वह सिविल सर्विस में जाना चाहते हैं तो अच्छी बात है, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि वह जिस समाज से ताल्लुक रखते हैं, उसका जब कोई प्रतिभाशाली युवा सामने आता है तो पूरा समाज उसकी ओर उम्मीद भरी नजरों से देखता है। इस नाते वह अपने हर सपने में उस समाज के हित को भी साथ लेकर चलें जो समाज की धारा में बहुत पीछे छूटा हुआ है। मैं तुषार पर विचारधारा का बोझ नहीं डालना चाहता, लेकिन यह बेहतर होगा कि वह बहुजन महापुरुषों के मोटे-मोटे विचारों को समझें। उनके सपनों को समझे। वह अपने समाज से क्या उम्मीद रखते थे, इसको समझें। और इसे समझाने की जिम्मेदारी निस्संदेह तुषार के माता-पिता की है। ताकि तुषार की प्रतिभा का सही दिशा में उपयोग हो सके। और तुषार अपने भारत देश और भारत देश के आखिरी कतार में खड़े लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए काम कर सकें। तुषार को मिली सफलता उनको मिले मौके की वजह से भी थी। तुषार को डीपीएस जैसे बेहतर स्कूल में पढ़ने का मौका मिला। तुषार के माता-पिता दोनों शिक्षक हैं, इससे भी उन्हें मदद मिली होगी। तुषार अपने जीवन में जो भी करें, उन्हें इस ओर सोचना चाहिए कि वह किस तरह उन लोगों के लिए मौके पैदा कर सकते हैं जिन्हें अभी तक मौका नहीं मिल सका है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर बहुत ज्ञानी थे। उन्होंने अपने ज्ञान का इस्तेमाल देश के गरीब और मौके से वंचित रहने वाले लोगों को अधिकार दिलाने के लिए किया और अमर हो गए। डॉ. आंबेडकर देश के हर छात्र का आदर्श होने चाहिए। तुषार को उज्जवल भविष्य की मंगलकामनाएं। उनके माता-पिता को बधाई।
  • सस्नेह- अशोक दास (संपादक, दलित दस्तक)

राजस्थान की लड़ाई में सचिन पायलट कितने सही हैं

वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाला है। जिसमें वह कहते हैं- “राजनीति में जिनको अपनी औकात से अधिक, केवल किसी का बेटा बेटी होने के नाते मिल जाता है, उनमें धैर्य बहुत कम होता है। वे केवल मौके की ताक में रहते हैं। अवसरवाद उनकी असली विचारधारा बन जाता है। ऐसे लोग जहां रहते हैं, जमीनी नेताओं का हक ही मारते हैं। लेकिन राजनीतिक इतिहास में इनका वैसा ही उल्लेख होता है जैसा बारिश के दौरान बुलबुले का होता है। इतिहास काम करने वालों का बनता है, उछलकूद करने वालों का नहीं।” अरविंद सिंह ने सालों तक राजनीतिक पत्रकारिता की है, इस नाते राजनीति की अपनी उनकी एक समझ है। अपने इस पोस्ट में उन्होंने किसी नेता का नाम नहीं लिखा है, लेकिन संभवतः उनका इशारा सचिन पायलट की ओर है। सचिन पायलट, जो सुबह तक अपने साथ कांग्रेस के 30 विधायक होने का दावा कर रहे थे, उनके दावे की कलई खुल गई है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने निवास पर 100 से ज्यादा विधायकों को जुटा कर साफ कर दिया कि बाजी सचिन पायलट के साथ से निकल चुकी है। राजस्थान विधानसभा में कुल 200 सदस्य हैं। मौजूदा समय में कांग्रेस के 107 विधायक हैं। इसके अलावा उनके पास निर्दलीय और कुछ अन्य छोटे दलों के विधायकों का समर्थन मिलाकर यह नंबर 123 तक पहुंचता है। बहुमत के लिए 101 की जरूरत होती है। यानी की गहलोत के पास बहुमत के लिए विधायक हैं। तो क्या राजस्थान का सियासी ड्रामा खत्म हो गया है, जी नहीं। कांग्रेस पार्टी और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सचेत हैं और बैठक के बाद गहलोत सभी विधायकों को लेकर रिजार्ट पहुंच गए हैं। कांग्रेस पार्टी और अशोक गहलोत ऐसा कोई मौका नहीं आने देना चाहते हैं, जैसा कि मध्यप्रदेश में हुआ था। तो वहीं कांग्रेस पार्टी बहुमत लायक विधायक जुटाने के बावजूद सचिन पायलट को मनाने में जुटे हैं। राहुल और प्रियंका गांधी ने खुद पायलट से बात की है। तो सचिन पायलट के खेमे से खबर आ रही है कि उन्होंने अपने करीबियों के लिए गृह और वित्त विभाग मांगा है, साथ ही खुद को फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनाए रखने की मांग की है। हालांकि इस बार इस पूरे सियासी खेल में भाजपा पहले की तरह खुल कर सामने नहीं आई। हाल ही में भाजपा में गए पुराने कांग्रेसी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ रविवार को सचिन पायलट की मुलाकात के बाद सरगर्मी बढ़ गई। समझा जा रहा था कि राजस्थान में भी मध्यप्रदेश जैसा कुछ होगा। लेकिन भाजपा ने इस बार हड़बड़ी नहीं दिखाई। संभवतः भाजपा पहले यह देख लेना चाहती थी कि सचिन पायलट जो दावा कर रहे हैं, वह कितना ठीक है। और भाजपा ने इसके लिए कांग्रेस की बैठक तक इंतजार किया। लेकिन क्या भाजपा बिल्कुल खामोश रही। जी नहीं, राजस्थान में सियासी संकट के बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबियों पर आयकर विभाग का शिकंजा कसना शुरू हो गया. विधायकों की बैठक के पहले ही आयकर विभाग के 200 से अधिक अधिकारियों और कर्मचारियों ने दिल्ली और राजस्थान के कई जगहों पर छापेमारी की। यह छापेमारी अशोक गहलोत के करीबी धर्मेंद्र राठौड़ और राजीव अरोड़ा के ठिकानों पर की गई है। मजेदार यह था कि आयकर की टीम स्थानीय पुलिस की बजाय केंद्रीय रिजर्व पुलिस के सहारे यह छापेमारी कर रही है। कांग्रेस पार्टी ने पायलट परिवार को काफी तवज्जो दी। राजेश पायलट की कहानी जगजाहिर है। तो वहीं सचिन पायलट की मां और राजेश पायलट की पत्नी रमा पायलट कांग्रेस के टिकट पर सांसद रही हैं और विधायक भी। राजस्थान में आगे क्या होगा और सचिन पायलट क्या रुख अपनाते हैं, यह आने वाले एक दो दिनों में साफ हो जाएगा। हालांकि सचिन पायलट ने कांग्रेस को दुबारा सत्ता में लाने में जिस तरह पसीना बहाया है, उससे कोई भी इंकार नहीं कर रहा। प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने पार्टी को जमीन पर मजबूत किया। सचिन पायलट को उम्मीद थी कि कांग्रेस आलाकमन उन्हें मुख्यमंत्री बनाएगी, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री पद दिया। तब कहा गया कि पायलट अभी युवा हैं और उनके लिए और मौके आएंगे। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या अगर सचिन पायलट भाजपा में शामिल हो जाते हैं तो क्या भाजपा उन्हें कांग्रेस से ज्यादा तव्वजो देगी? क्या भाजपा में शामिल होने के बाद पायलट राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का सपना देख पाएंगे? क्या भाजपा के दूसरे नेता और वसुंधरा राजे इस पद से अपना दावा छोड़ देंगे। क्या भाजपा में रहते हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बन पाएंगे। शायद नहीं। ऐसे में कांग्रेस को कमजोर कर पहले सिंधिया और अब सचिन पायलट क्या सिर्फ खुन्नस में अपनी उसी पार्टी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते हैं, जिसने उनको उप मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष पद तक पहुंचाया?

दलित पैंथर, एक विश्लेषण

जब से मुझे दलित पैंथर आन्दोलन के विषय में पता चला। इसके बारे में और अधिक जानने की इच्छा मन में बढ़ती गई। मैंने इन्टरनेट, पत्रिकाओं, किताबों और कभी-कभी समाचार पत्रों में छपने वाले दलित लेखकों के लेखों में यह नाम पढ़ा था और यह भी कि कैसे इस आन्दोलन ने महाराष्ट्र में दलित समाज के विषयों को लेकर सरकार में खलबली मचा दी थी। इस आन्दोलन के विषय में अध्ययन सामग्री खोजते-खोजते मुझे अचानक इसके संस्थापकों में से एक रहे जे०वी० पवार द्वारा लिखी पुस्तक ‘दलित पैंथर- एक अधिकारिक इतिहास’ (मूलत: यह पुस्तक मराठी में लिखी गई है। बाद में जिसका अनुवाद मराठी से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिन्दी में अमरीश हरदेनिया ने किया है) मिली। जिसे मैंने बिना देर किये ऑनलाइन ऑर्डर कर लिया। किताब की भूमिका में जे०वी० पवार लिखते हैं कि उन्हें बहुत से लोगों ने अपनी आत्मकथा लिखने के लिये कहा। लेकिन उन्होंने अपनी आत्मकथा न लिखकर ‘दलित पैंथर’ की आत्मकथा लिखने को तरजीह दी। जिसका जुड़ाव उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। अमेरिकी निग्रो द्वारा नस्लभेद को लेकर 70 के दशक में चले ‘ब्लैक पैंथर’ आन्दोलन से प्रेरणा लेकर अपने एक सहयोगी नामदेव ढसाल (प्रसिद्ध मराठी साहित्यकार) के साथ मिलकर पवार ने सन् 1972 में दलित पैंथर की स्थापना की। (स्त्रोत- दलित पेंथर- एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 19) दलित पैंथर आन्दोलन को लेकर दलित समाज खासकर दलित शब्द सुनकर नांक-भौं सिकोड़ने वाले हिन्दू दलितों में बहुत सी भ्रान्तियाँ है। जिसे दूर करने की आवश्यकता है। कुछ लोग इसे एक दलित साहित्यिक आन्दोलन के तौर पर देखते हैं जबकि ऐसा नहीं है। इस आन्दोलन से पूर्व भी दलित साहित्य का सृजन हो रहा था। कुछ इसे जातीय आन्दोलन के रूप में देखते हैं जबकि ऐसा नहीं है। यह आन्दोलन को शुरू करने वाले युवा हिन्दू धर्म का कोढ़ झेल रहे हिन्दू दलित नहीं अपितु उन्हें जाति के दलदल से बाहर निकालने वाले बौद्ध युवक थे। यह आन्दोलन महाराष्ट्र के बौद्ध युवाओं ने मिलकर शुरू किया था। जिससे धीरे-धीरे दलित हिन्दू भी जुड़ते चले गये। कुछ लोग दलित पैंथर आन्दोलन को प्रतिक्रियात्मक आन्दोलन कहते हैं परन्तु यह भी पूर्ण रूप से सत्य नहीं। अवश्य यह आन्दोलन भारतीय संसद में 1970 में पेश इल्यापेरूमल समिति की रिपोर्ट जिसमें देश में हर दिन बढ़ते दलितों पर अत्याचार का वर्णन था तथा इस विषय में बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा छोड़ी उनकी राजनीतिक विरासत रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया का कुछ न कर पाने के बाद खड़ा हुआ (जो आपसी राजनीति की शिकार हुई क्योंकि इसमें कोई ईमानदार नेतृत्व नहीं था) आन्दोलन था। लेकिन इस आन्दोलन ने महाराष्ट्र राज्य में दलितों की सामाजिक स्थिति में बहुत परिवर्तन किया। दलितों को उनके ज़मीन पर हक़ दिलाने से लेकर महिलाओं की सुरक्षा तक के कार्य दलित पैंथर के एजेंडे में थे। कुछ लोग इसे राजनीतिक आन्दोलन भी कहते हैं। लेकिन यह आन्दोलन किसी भी प्रकार से राजनीति से प्रेरित नहीं था। यह आन्दोलन पूर्णरूप से सामाजिक व अम्बेडकरवादी आन्दोलन था। दलित पैंथर के विषय में फैली भ्रान्तियों का मुख्य कारण था 80 के दशक में चल रहे इस अम्बेडकरवादी आन्दोलन का मुख्यधारा के मनुवादी मीडिया द्वारा नकारात्मक प्रचार करना। संसाधनों की कमी के चलते दलित पैंथर स्वयं भी अपना किसी प्रकार का मीडिया खड़ा नहीं कर सका। क्योंकि इसके कार्यकर्ता बहुत ही गरीब पृष्ठभूमि से आते थे। दूसरी जगह इसी के समकालीन महाराष्ट्र में ऊभर रहे नये हिन्दुवादी संगठन शिवसेना अपनी उत्तेजक कार्यशैली के चलते भी हमेशा ऐसे नकारात्मक प्रचार से बचा रहा। क्योंकि इसका मुख्यधारा के मीडिया पर प्रभाव था। इसका अपना मीडिया भी स्थापित हुआ। अपितु इस प्रकार से मीडिया द्वारा नकारात्मक प्रचार करने के बावजूद भी इसे महाराष्ट्र के अम्बेडकरवादी युवाओं का अच्छा ख़ासा समर्थन मिला। एक रैली में जे०वी० पवार अपने कार्यकर्ताओं की संख्या 40000 बताते हैं, जिसे देखकर यह लगता है कि मीडिया का नकारात्मक प्रचार भी इस आन्दोलन का कुछ नहीं बिगाड़ सका था। दलित पैंथर की मीडिया में नकारात्मक छवि बनाये जाने के बावजूद भी यह अम्बेडकरवादी संगठन युवाओं में ख़ासा लोकप्रिय रहा। इसने देश के साथ-साथ विदेशो में भी ख्याति अर्जित की। भारत में गुजरात, मध्यप्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में अपनी पैठ बनाने के साथ-साथ लंदन में भी दलित पैंथर्स ऑफ़ इण्डिया के नाम से एक संगठन बना। वर्ष 2016 में जे०वी० पवार की ‘ब्लैक पैंथर्स’ की नायिका रही ऐंजिला डेविस से मुलाक़ात हुई और उन्होंने अपनी कृति ‘दलित पैंथर्स-एक अधिकारिक इतिहास’ का अंग्रेज़ी रूप उन्हें भेंट किया। पवार अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं कि ब्लैक पैंथर की इस नायिका के नाम पर ही उन्होनें अपनी एक सुपुत्री का नाम रखा। कुछ ही वर्षों में साधारण से दिखने वाले इस अम्बेडकरवादी संगठन ने कुछ असाधारण काम किये। जिसमें पहला काम था दलितों पर होने वाले अत्याचारों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाना। अधिकारिक रूप से इसकी स्थापना होने पर प्रेस विज्ञप्ति में हस्ताक्षर करने वालों में से एक पैंथर राजा ढाले थे, जिन्हें आगे चलकर बहुत प्रसिद्धि मिली। राजा ढाले के लेख जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज के अपमान पर मिलने वाले दण्ड और एक दलित महिला को निर्वस्त्र घुमाये जाने पर मिलने वाले दण्ड पर तुलनाकर एक उत्तेजक लेख लिखा था। (स्त्रोत- दलित पैंथर- एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 33) दलित पैंथर के साथ ही नामदेव ढसाल भी एक प्रखर वक्ता और एक ओजस्वी कवि के रूप में ऊभर रहे थे। महाराष्ट्र के दलित युवाओं में ढसाल का काफी प्रभाव था। परन्तु शुरू से ही उनका झुकाव साम्यवादी विचारों और कम्युनिस्टों की ओर था। ढसाल का उठना-बैठना कम्युनिस्टों के साथ होने से कई बार ‘पैंथर’ को अजीब सी स्थिति में भी डाल देता था। जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि दलित पैंथर एक अम्बेडकरवादी आन्दोलन था। इसलिये यह आन्दोलन बाबा साहब के नक़्शेक़दम पर चला और इसने धर्मग्रन्थों का विरोध शुरू किया। दूसरी ओर महाराष्ट्र में ऊभरे रहे कट्टर हिन्दुवादी संगठन शिवसेना ने घोषणा की कि वह हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थों का अपमान बर्दाश्त नहीं केरगी। इसके चलते जातिगत अत्याचारों के स्त्रोत रहे एक ग्रन्थ को सार्वजनिक रूप से जलाने के चलते पैंथर कुछ कट्टरवादी संगठनों के निशाने पर आ गया। (स्त्रोत-दलित पैंथर- एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 86) वरली की एक आमसभा को मंच से संबोधित कर रहे ‘राजा ढाले’ पर पत्थरबाज़ी होने से अफ़रातफ़री का माहौल हो गया और उस अफ़रातफ़री ने दंगे का रूप ले लिया। इस दंगे में ‘पवार’ ने अपने एक पैंथर ‘भागवत’, जिनके सिर पर आटा पीसने वाला पत्थर आकर लगा, को खो दिया। दंगे के बाद इस दंगे का मुख्य आरोपी पैंथर्स को ही बताया गया और पवार और उनके कई साथियों पर पुलिस द्वारा मुक़दमे चलाये गये। पवार अपनी इस पुस्तक में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री के दंगे अपने राजनीतिक हित साधने के लिये न रोकने का संदेह भी व्यक्त करते है। (देखे- पृ्ष्ठ 133, दलित पैंथर्स- एक अधिकारिक इतिहास) दलित एकता के नाम पर समाज को छलावा देता रिपब्लिकन दल स्वंय ही गुटों में बंट गया था। पैंथर्स अक्सर इसके नेताओं की सार्वजनिक मंचों से आलोचना करते थे। क्योंकि ये लोग न तो पार्टी और न समाज के लिये कुछ कर रहे थे। पार्टी से जुड़े रहने का इनका अर्थ केवल अपने निजी स्वार्थों की सिद्धि ही था। पवार अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं कि कई बार कई वामपंथी लीडर उनसे मिलना चाहते थे और दलित पेैंथर को लेकर अपनी चिंता उनसे व्यक्त करते थे। पवार लिखते हैं कि ऐसा केवल इसी वजह से था कि वे लोग गरीब और सर्वहारा वर्ग में इसकी बढ़ती लोकप्रियता से चिंतीत थे और इस आन्दोलन को हथियाने का प्रयास समय-समय पर करते रहते थे। पवार स्वयं भी साम्यवादी विचारधारा के समर्थक नहीं थे। इसलिये वामपंथी दलित पैंथर के इस आन्दोलन को हथिया नहीं पाये। पवार अपनी इस पुस्तक में ‘गवई बंधुओं’ की आँखें निकालने के घटना के बारे में बताते है। जब उन्होंने गवई बंधुओं को न्याय दिलाने हेतु प्रधानमंत्री से मुलाक़ात की। इसके लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री के महाराष्ट्र दौरे के समय उनके क़ाफ़िले को रोकने की योजना बनाई गई। परन्तु यह सूचना जैसे ही प्रशासन के पास पहुँची उनके हाथ-पैर फूल गये और प्रशासन ने गवई बंधुओं को एयरपोर्ट लांज में प्रधानमंत्री से मिलवाया। पवार द्वार प्रधानमंत्री से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की शिकायत करने पर मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी गवानी पड़ी। दलित पैंथर ने न केवल मनुवाद का विरोध किया अपितु इसने अम्बेडकरी विचारधारा की विरोधी विचारधारा गांधीवाद का भी विरोध किया। हरिजन शब्द पर आपत्ति जताते हुए इसके प्रयोग पर रोक की माँग की और महात्मा गांधी द्वारा लिखे गये ग्रन्थों का भी दहन किया। (देखे- पृष्ठ 205, दलित पेंथर-एक अधिकारिक इतिहास)

इस सबके बावजूद बाबा साहेब डॉ० भीमराव अम्बेडकर के सालों से बक्सों में बंद पड़े साहित्य को छपवाने को लेकर भी आन्दोलन चलाया। माईसाहब (बाबा साहब की दूसरी पत्नी) और भैय्यासाहब (बाबा साहब के पुत्र) को मनवाकर उन्हें बाबा साहब को छपवाने की अनुमति माँग सरकार से बाबा साहब के साहित्य को छपवाने में आने वाले खर्च को वहन करने के लिये भी प्रयास किया। पवार बताते हैं कि बाबा साहब द्वारा लिखा साहित्य प्रिंटिंग प्रेस से निकलते ही हाथो-हाथ बिक जाता था जिससे बाद में महाराष्ट्र सरकार को अच्छी आमदनी होने लगी।

दलित पैंथर के समाज में बढ़ते प्रभाव ने इसके कुछ कार्यकर्ताओं को पहचान के साथ-साथ ताक़त भी दी। जिसका कुछ कार्यकर्ताओं ने नज़ायज फ़ायदा उठाना शुरू कर दिया। कुछ कार्यकर्ता धन अर्जन करने लगे। कुछ अन्य दलों में समाज के दलित वर्ग के ठेकेदार बन बैठे और कुछ ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से पैंथर के नाम का इस्तेमाल अपने निजी स्वार्थ के लिये करने लगे। बस यहीं से इस आन्दोलन का पतन शुरू हो गया। (दलित पेंथर-एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 231) तेज़ी से सफलता की ऊँचाई छूता यह आन्दोलन भी तेज़ी सी ही ख़त्म हुआ। सन् 1972 में शुरू हुआ यह आन्दोलन अपनी शैशवावस्था के पाँच साल ही जीवित रह पाया और 1977 में इस समाजिक संगठन को विघटित कर दिया गया। इसके विघटन का मूल कारण था, इसके नेतृत्व के कुछ लोगों का अति महत्वाकांक्षी होना। ढसाल का साम्यवाद की ओर झुकाव होना पैंथर में फूट का एक कारण था। क्योंकि ढाले और पवार साम्यवाद की विचारधारा में क़तई विश्वास नहीं करते थे। पवार लिखते हैं कि कुछ समय कम्युनिस्टों के साथ रहने बाद ढसाल फिर कांग्रेस में शामिल हो गये। जिस प्रकार से ब्लैक पैंथर्स अपने जन्म के बाद (1966-1969) केवल तीन वर्ष ही रह पाया। उसी प्रकार से दलित पैंथर्स भी अपने जन्म पाँच साल के बाद ही विघटित हो गया। इसका एक कारण यह भी है कि ऐसे विस्फोटक आन्दोलनों को अधिक समय तक जारी रखने के लिये बड़ी ताक़त की आवश्यकता होती है। पवार, ढाले और ढसाल के अलावा अनेक पैन्थर्स ऐसे भी थे, जिन्होंने इस आन्दोलन के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था और वे भी इस आन्दोलन की तरह दुनिया में अमर हो गये। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई इतने से छोटे समय में ही ऐसे कारनामे कर जाये कि वह इतिहास बन जाये। परन्तु भारत में दलित पैंथर ने यह कारनामा कर दिया। वह अपने छोटे से जीवनकाल में अपने अम्बेडकवादी आन्दोलन के चलते अमर हो गया। आज भी जब कभी दलितों, असहायों और वंचितो पर अत्याचार होते हैं और व्यवस्था उन अत्याचारों से उन्हें छुटकारा दिलाने में नाकाम होती है। तब इसी प्रकार की आन्दोलन की शुरुआत होती है।
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  • इस आलेख के लेखक पंकज टम्टा हैं। पंकज उत्तराखंड के अल्मोरा में रहते हैं। उनसे संपर्क- 7895906705 पर किया जा सकता है। 

जाति और धर्म तो छोटी बात, यूपी में अपराधियों के मंदिर कायम हैंं

कानपुर प्रकरण के बाद अपराधी की जाति और धर्म को लेकर बड़ी चर्चाएंं चली है। लेकिन सच यही है कि उसकी जाति भी होती है और धर्म भी। उसका परिवार भी होता है और रिश्तेदार भी। उसकी जाति के नेता भी होते हैं और अफसर भी। सजातीय पुलिस वाले भी उसकी मदद करते हैं। भले ही अपराधी अपनी ही जाति के लोगों की हत्या क्यों न करे लेकिन ऐसा होता है। और पुलिस इसमें खाद पानी डालने का काम करती रही है। पहले डाकू समस्या के दौरान यह समस्या एक अलग रूप में थी। वह समाप्त या लगभग न के बराबर रह गयी तो शहरी या देहाती इलाके के सफेदपोश अफराधियों में यह कहीं और वीभत्स रूप में दिख रही है।
बुंदेलखंड और विंध्य इलाके में सबसे अधिक सक्रिय रहे डाकू ददुआ ने सबसे अधिक ब्राह्रणों की हत्या की। चंबल घाटी में तमाम डाकू जातीय गर्व के तौर पर आज भी जनमानस में मौजूद हैं। आखिर क्या वजह है कि आज भी उत्तर प्रदेश के एक छोर पर मान सिंह का मंदिर कायम है, जिसके बेटे तहसीलदार सिंह भाजपा के टिकट पर मुलायम सिंह से चुनाव लड़े थे। वे खुद इस बात की पुष्टि करते थे कि उन्होंने 100 पुलिस वालों को मारा था। और क्या वजह है कि ददुआ का दूसरे छोर बुंदेलखंड में मंदिर है जिसके बेटे को समाजवादी पार्टी ने राजनातिक शक्ति दी। समर्पण के बाद चंबल के कई डाकुओं ने कांग्रेस का भी प्रचार किया। यही नहीं जब मुलायम सिंह ने फूलन देवी को टिकट दिया था तो भी मिर्जापुर में जाति ही देखी थी।
जाति और धर्म एक सच है। और हर राजनीतिक दल इसमें नंगा है। राष्ट्रीय दल थोड़ा बचे हैं लेकिन क्षेत्रीय दलों के कई कई नेता दुर्दांत अपराधियों को कुलदीपक जैसा बताने से गुरेज नहीं करते रहे हैंं। क्या कोई सरकार जातीय स्वाभिमान के प्रतीक डाकुओं के सम्मान में बने इन मंदिरों को बंद कराने का साहस कर पायी है।
कोई अपराधी बनता है तो उसके आसपास पहले यही तत्व सबसे आगे होते हैं। अगर नहीं होते हैं तो पुलिस उसके करीबी लोगों, घर परिवार और सजातीय गांव वालों पर ऐसा ठप्पा लगा देती है कि वे न चाह कर भी उनके साथ खड़े होते हैं, जैसे नक्सलियों के साथ आदिवासी खड़े हो जाते हैं। पुलिस की हिस्ट्रीसीट में संरक्षण देने वाले सजातीय लोगों का विवरण और गांवों का भी विवरण होता है।
एक दौर था जब अपराध में राजपूत,ब्राह्मण और मुसलमान आगे होते थे। चंबल घाटी को देखें तो 80 के दशक के बाद वे पीछे हो गए और दलित और पिछ़ड़ी जाति के गिरोह सबसे आगे हो गए। इस नाते जरूरी है कि अगर कोई अपराधी पैदा हो रहा है तो पुलिस उसकी जाति के लोगों को उसका संरक्षक मान कर सताना बंद करे। और अपराधियों का महिमा मंडित करना बंद करे। और राजनीतिक दल उनको टिकट और शक्ति देना बंद करें। वरना इस प्रदेश को बारूद के ढेर पर बैठने से कोई रोक नहीं सकेगा।
– इस आर्टिकल के लेखक अरविंद कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। वर्तमान में राज्यसभा टीवी में हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।

दो दलितों की हत्या कर डॉन बना था विकास दुबे

गकोेपकानपुर के इनामी आतंकी विकास दुबे को मार गिराये जाने के बाद भाजपा निशाने पर है। जिस फिल्मी अंदाज में विकास दुबे का एनकाउंटर हुआ है, उस पर सवाल उठने लगे हैं। पुलिस चाहे जितनी सफाई दे, जो भी कहानी सुनाए, साफ पता चल रहा है कि विकास दुबे को मारने का पुलिस का पहले से ही प्लान था। और इसी वजह से इस पर तमाम सवाल भी उठ रहे हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर पुलिस विकास दुबे को अदालत में क्यों नहीं पेश करना चाहती थी। राहुल गांधी ने ट्विट में इसी सवाल को शायरी के जरिए कह दिया है। राहुल गांधी ने तंज किया है, “हजारों जवाबों से अच्छी है खामोशी उसकी, न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली।” तो अखिलेश यादव ने भी विकास दुबे के पिछले हफ्ते का कॉल डिटेल रिकार्ड सामने लाने की मांग की है। इस मामले पर अखिलेश काफी मुखर हैं। वह लगातार भाजपा को घेर रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने भी सवाल उठाया है कि आखिर किसके भरोसे विकास दुबे मध्यप्रदेश में आया था। विकास दुबे ने अपराध की दुनिया में कदम दलितों का उत्पीड़न कर के रखा था। सबसे पहले उसने एक दलित व्यक्ति से मारपीट की थी। फिर वह 1992 में दो दलितों की हत्या कर चर्चा में आया था। तब उसे सवर्ण समाज के बीच काफी लोकप्रियता मिली थी। तब सवर्ण समाज को लगा था कि विकास दुबे ने दलितों को उनकी औकात दिखा दी है। सो वह रातो-रात अपने समाज के भीतर लोकप्रिय हो गया। फिर क्या था, उसकी लोकप्रियता सत्ता में बैठे लोगों तक भी पहुंची। क्योंकि सत्ता चलाने वालों को हर पांचवे साल लोगों के बीच आना होता है। बस फिर क्या था, विकास दुबे की लोकप्रियता को सत्ता में बैठे लोग भुनाना चाहते थे और विकास दुबे सत्ता का संरक्षण चाहता था। दोनों को मनचाही मुराद मिल गई। अब तक सब ठीक भी चल रहा था, लेकिन विकास दुबे का हौसला इतना बढ़ा की उसने पुलिसकर्मियों को ही निशाना बना डाला। उसने पुलिसकर्मियों को जिस तरह मार डाला, उससे हंगामा मच गया। हालांकि वह पहले भी एक नेता की हत्या कर चुका था, लेकिन तब सब कुछ ‘मैनेज’ हो गया और विकास दुबे का कुछ बहुत बुरा नहीं हो सका। दरअसल पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद जिस तरह इस मामले में पुलिसकर्मियों द्वारा ही मुखबिरी की बात सामने आई थी, उससे साफ था कि खाकी के बीच विकास दुबे की पहुंच अच्छी खासी थी। और ऐसा तभी होता है जब किसी अपराधी के सर पर खादी यानी नेताओं का हाथ हो। लेकिन अब तक बचते आ रहे विकास दुबे ने एक साथ दो गलतियां कर दी। एक तो पुलिसकर्मियों को मार डाला, तो दूसरा उसने जिन पुलिसकर्मियों को मारा, उसमें उसके स्वजातिय थे। ऐसे में अचानक से सत्ता से लेकर समाज तक में बैठे विकास दुबे के संरक्षकों का माथा ठनक गया। क्योंकि विकास दुबे खतरनाक बन चुका था। वह देश भर के निशाने पर आ गया था। अदालती ट्रायल में कई राज खुलने के आसार थे। क्योंकि विकास दुबे अपने राजनीतिक आकाओं से बचाने की गुहार लगाता और ऐसा नहीं करने पर वह राज से पर्दा उठाने की धमकी देता। यानी कुल मिलाकर विकास दुबे का रहना कईयों के लिए खतरनाक था। सवाल यह है कि क्या विकास दुबे का एनकाउंटर करवा कर सत्ता में बैठे उसके संरक्षकों ने इस कड़ी को ही खत्म कर दिया है?  

आषाढ़ी पूर्णिमा पर बुद्ध ने क्या उपदेश दिया, यहां पढ़िए

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने इस दिन 29 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन का त्याग किया था। आषाढ़ पूर्णिमा को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है, क्योंकि इसी दिन सारनाथ में सम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध ने सारनाथ जाकर इसिपत्तन मृगदाय वन में पंचवर्गीय भिक्खुओं को प्रथम धम्म प्रवचन दे कर धम्म चक्र प्रवर्तन सूत्र की देशना की थी। बुद्ध ने पांच परिव्राजकों को संबोधित करते हुए कहा- भिक्खुओं, जो परिव्रजित हैं उन्हें दो अतियों से बचना चाहिए, पहली अति है कामभोगों में लिप्त रहने वाले जीवन की, यह कमजोर बनाने वाला है। दूसरी अति है आत्मपीड़ा प्रधान जीवन की जो कि दुःखद होता है, व्यर्थ होता है और बेकार होता है। इन दोनों अतियों से बचे रहकर ही तथागत ने मध्यम मार्ग का अविष्कार किया है। यह मध्यम मार्ग साधक को अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला है, बुद्धि देने वाला है, ज्ञान देने वाला है, शांति देने वाला है, संबोधि देने वाला है और पूर्ण मुक्ति अर्थात निर्वाण तक पहुंचा देने वाला है। यह मध्यम मार्ग आर्य आष्टांगिक मार्ग है। इस आर्य आष्टांगिक मार्ग के अंग हैं:-
  1. सम्यक् दृष्टि
  2. सम्यक् संकल्प
  3. सम्यक् वचन
  4. सम्यक् कर्मान्त
  5. सम्यक् आजीविका
  6. सम्यक् व्यायाम
  7. सम्यक् स्मृति
  8. सम्यक् समाधि
बुद्ध ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा- भिक्खुओं, पहला आर्यसत्य यह है कि जीवन में दुःख है- जन्म लेना दुःख है, बुढ़ापा आना दुःख है, बीमारी दुःख है, मुत्यु दुःख है, अप्रिय चीजों से संयोग दुःख है, प्रिय चीजों से वियोग दुःख है, मनचाहा न होना दुःख है, अनचाहा होना दुःख है, संक्षेप में पांच स्कंधों से उपादान (अतिशय तृष्णा का होना) दुःख है। अब हे भिक्खुओं, दूसरा आर्यसत्य यह है कि इस दुःख का कारण हैः राग के कारण पुनर्भव अर्थात पुनर्जन्म होता है, जिससे इस और उस जन्म के प्रति अतिशय लगाव पैदा होता है, यह लगाव काम-तृष्णा के प्रति होता है, भव-तृष्णा के प्रति होता है और विभव तृष्णा के प्रति होता है; अब हे भिक्खुओं, तीसरा आर्यसत्य है दुःख निरोध आर्यसत्य, इस तृष्णा को जड़ से पूर्णतः उखाड़ देने से इस दुःख का, जीवन-मरण का जड़ से निरोध हो जाता है। और अब हे भिक्खुओं, चौथा आर्यसत्य है दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा (दुःख से मुक्ति का मार्ग), इस दुःख को जड़ से समाप्त किया जा सकता है और जिसके लिए तथागत ने आठ अंगों वाला आर्य आष्टांगिक मार्ग खोज निकाला है जो साधक को सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि हैं। इस प्रकार हे भिक्खुओं, इन चीजों के बारे में मैंने पहले कभी सुना नहीं था, मुझमें अंतर्दृष्टि जागी, ज्ञान जागा, प्रज्ञा जागी, अनुभूति जागी और प्रकाश जागा। बुद्ध ने अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा: हे भिक्खुओं जब मैंने अपनी अनुभूति पर इन चारों आर्य सत्यों को इनके तीनों रूपों के साथ, और उनकी बारह कड़ियों के साथ, पूर्ण रूप से सत्य के साथ जान लिया, पूरी तरह समझ लिया और पूरी तरह अनुभव कर लिया, उसके बाद ही मैंने कहा कि मैंने सम्यक् सम्बोधि प्राप्त कर ली है, इस तरह मुझमें ज्ञान की अंतर्दृष्टि जागी, मेरा चित्त सारे विकारों से मुक्त हो गया है। हे भिक्खुओं जब मैंने अुपने स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभवों से और पूर्ण ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ इन चारों आर्यसत्यों को जान लिया, यह मेरा अंतिम जन्म है अब इसके बाद कोई नया जन्म नहीं होगा। बुद्ध के इन चार आर्यसत्यों और आर्य अष्टांगिक मार्ग को सुनकर कौंङन्न के धर्मचक्षु जागे और उन्हें यह प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह नष्ट होता है, जिसका उत्पाद होता है उसका व्यय होता है। कौंङन्न के चेहरे के भावों को देखकर बुद्ध ने कहा- कौंङन्न् ने जान लिया. कौंङन्न ने जान लिया. इसलिए कौंङन्न का नाम ज्ञानी कौंङन्न पड़ गया। बुद्ध के इस उपदेश से कौंङन्न के अंदर भवसंसार चक्र, धम्म चक्र में परिवर्तित हो गया, इसलिए इस प्रथम उपदेश को धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त कहते हैं। पांचों भिक्खुओ ने बुद्ध को साष्टांग प्रणाम किया और उन पांच भिक्खुओं को अपना शिष्य स्वीकार करने की प्रार्थना की, बुद्ध ने उनको अपना शिष्य स्वीकार किया इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा भी कहा जाता है। बुद्ध ने यह उपदेश आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन दिया था, इसलिए बौद्धों में आषाढ़ पूर्णिमा पवित्र दिन माना जाता है। इस पूर्णिमा से भिक्खुओं का वस्सावास (वर्षावास/चातुर्मास) अर्थात मानसून के महीने में एक ही स्थान पर निवास करना) आरंभ होता है, इस दिन बौद्ध उपासक-उपासिकाओं द्वारा महाउपोसथ व्रत रखा जाता है। बौद्ध विहारों में धम्म देशना के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
इसके लेखक आनंद श्रीकृष्ण हैं। आनंद जी, बौद्ध चिंतक एवं साहित्यकार हैं।

बार-बार झूठ क्यों बोलते हैं बाबा रामदेव

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कोरोना वायरस की दवाई के लिए दुनिया भर के डॉक्टर अभी रिसर्च कर रहे हैं। हार्वर्ड से लेकर ऑक्सफोर्ड तक को कोशिशों के बाद भी इसमें सफलता नहीं मिली है। लेकिन भारत में बाबा रामदेव और पतंजलि ने दावा कर दिया है कि उन्होंने कोरोना की दवा बना ली है। बाबा रामदेव ने 23 जून की दोपहर 1 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस बात का ऐलान किया कि पतंजलि कोरोना वायरस मरीजों को ठीक करने वाली ‘कोरोनिल’ दवा बनाने में कामयाब हो गई है। लेकिन रामदेव के दावे की हवा तुरंत तब निकल गई जब ‘कोरोनिल’ को लेकर आईसीएमआर (भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद) और आयुष मंत्रालय दोनों ने पल्ला झाड़ लिया। मंत्रालय ने कहा कि बाबा रामदेव ने इस बारे में जरूरी नियमोँ का पालन नहीं किया। यह सकते में डालने वाली बात इसलिए थी क्योंकि ICMR और आयुष मंत्रालय के जिम्मे किसी भी नई दवा को प्रमाणित करने का अधिकार होता है। यानी कि बाबारामदेव और पतंजलि ने बिना सरकारी अनुमति और पुष्टि को ही दवा के नाम की घोषणा कर दी। और सिर्फ घोषणा ही नहीं कि बल्कि ‘कोरोनिल’ से सात दिन के अंदर 100 फीसदी रोगियों के रिकवरी का दावा भी किया। पतंजलि रिसर्च फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से मंत्रालय को बताया गया कि ये क्लीनिकल ट्रायल जयपुर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च (नेम्स) में किया गया था। हालांकि पतंजलि का यह दावा तब झूठा साबित हुआ जब राजस्थान सरकार ने बाबा रामदेव के कोरोना की दवा कोरोनिल खोजने के दावे को फ्रॉड करार दे दिया। खुद राजस्थान के स्वास्थ मंत्री रघु शर्मा ने पतंजलि के इस दावे पर सवाल उठा दिया। तो वहीं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च विश्वविद्यालय (नेम्स) में गुना कैंट को लेकर जाने वाले जयपुर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी भी बाबारामदेव के दावे को झूठा बताया। पतंजलि के एक और झूठ का पर्दाफाश खुद आयुष मंत्रालय ने किया। मंत्रालय के मुताबिक आयुष मंत्रालय में पतंजलि की ओर से जो रिसर्च पेपर दाखिल किया गया है, उसके अनुसार कोरोनिल का क्लीनिकल टेस्ट 120 ऐसे मरीजों पर किया गया है, जिनमें कोरोना वायरस के लक्षण काफी कम थे। पतंजलि के दावे पर क्या कहता है हमारा कानून
  • आयुष मंत्रालय के गजट नोटिफिकेशन के अनुसार पतंजलि को आईसीएमआर और राजस्थान सरकार से किसी भी कोरोना की आयुर्वेद दवा की ट्रायल के लिए परमिशन लेनी चाहिए थी, मगर बिना परमिशन के और बिना किसी मापदंड के ट्रायल का दावा किया गया है, जो कि गलत है।
  • डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी एक्ट 2005 के तहत अगर कोई व्यक्ति गलत दावा करता है तो इसे दंडनीय अपराध माना जाता है। जहां तक कोरोनिल दवाई को लेकर दावे की बात है तो वो संबंधित कानूनी प्रावधान का उल्लंघन है।
  • कानून दवा बनाने के लिए लाइसेंस देता है, दावा करने के लिए नहीं। 100% क्योर के दावे के बाद DMA कानून (डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी एक्ट 2005) को आपत्ति इसी दावे पर है। जिसमें एक साल से सात साल तक की सजा हो सकती है।
  • ये वैश्विक महामारी है लिहाजा विदेशों में भी मुकदमे दर्ज हो सकते हैं। वैसे ही जैसे अमेरिका में चीन के खिलाफ हुए हैं।
  • इस तरह का प्रचार करना कि इस दवाई से कोरोना का 100 प्रतिशत इलाज होता है, ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (आपत्तिजनक विज्ञापन) कानून 1954 का उल्लंघन है.
इन तमाम खबरों के बीच बड़ा सवाल यह है कि आखिर कोई व्यक्ति या संस्थान तमाम सरकारी नियमों की अनदेखी कर कोरोना एक गंभीर बीमारी के बारे में इतना गैर जिम्मेदार कैसे हो सकता है? और सरकार इन तमाम लापरवाहियों पर आंखें कैसे मूंद रख सकती है। क्या दुनिया के किसी जिम्मेदार देश में एक महामारी से संबंधित दवा बनाने के खोखले दावे पर संबंधित व्यक्ति या संस्था पर कोई कार्रवाई नहीं होती? लेकिन अगर भारत में रामदेव और पतंजलि के इस गैरजिम्मेदाराना रवैये पर सरकार ने आंखे फेर रखी है तो बड़ा सवाल सरकार पर भी है। सवाल यह भी है कि बाबा रामदेव बार-बार झूठ क्यों बोलते हैं, और बार-बार बच कर कैसे निकल जाते हैं।

रामदेव और पतंजलि के 10 झूठ, जो देश से बोला गया

कोविड-19 यानि कोरोना को मिटाने का दावा करने वाले बाबा रामदेव की दवा कोरोनिल पर राजस्थान सरकार और महाराष्ट्र सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने तो रामदेव को चेतावनी दी है कि हमारी सरकार महाराष्ट्र में नकली दवाओं की बिक्री की अनुमति नहीं देगी। इन राज्यों ने कहा है कि केन्द्रीय आयुष मंत्रालय की स्वीकृति के बिना कोविड-19 महामारी की दवा के रूप में किसी भी आयुर्वेदिक औषधी का विक्रय नहीं किया जा सकता। तो वहीं उत्तराखंड के आयुर्वेद ड्रग्स लाइसेंस अथॉरिटी ने रामदेव को उनकी नई दवा कोरोनिल के लिए नोटिस जारी किया है। यह नोटिस दवा के संबंध में ग़लत जानकारी देने के लिए जारी किया गया है। दरअसल बाबारामदेव और पतंजलि ने अपनी दवा को बेचने और मुनाफा कमाने के लिए अपने उपभोक्ताओं से लेकर सरकार तक से झूठ बोला। आइए एक नजर डालते हैं रामदेव और पतंजलि के 10 बड़े झूठ पर। झूठ नंबर-1 बाबारामदेव और पतंजलि ने सबसे बड़ा झूठ आयुष मंत्रालय से बोला है। आयुष के संयुक्त निदेशक डॉ वाईएस रावत ने कहा कि हमने कोरोना की दवा के लिए कोई लाइसेंस ही जारी नहीं किया। दरअसल दिव्य फार्मेसी ने इम्युनिटी बूस्टर के लाइसेंस के लिए आवेदन किया था और कोरोना की दवा बना दी। झूठ नंबर-2 रामदेव और पतंजलि ने न सिर्फ बिना सरकारी मंजूरी के दवा को लोगों के सामने पेश कर दिया। और बड़े-बड़े दावे कर दिए। जबकि इस तरह का प्रचार करना कि पतंजलि की दवाई से कोरोना का 100 प्रतिशत इलाज होता है, ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (आपत्तिजनक विज्ञापन) कानून 1954 का उल्लंघन है। झूठ नंबर-3 पतंजलि रिसर्च फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से मंत्रालय को बताया गया कि ये क्लीनिकल ट्रायल जयपुर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च सेंटर (निम्स) में किया गया था, लेकिन राजस्थान के स्वास्थ मंत्री रघु शर्मा ने खुद पतंजलि के इस दावे पर सवाल उठा दिया। निम्स ने भी पतंजलि के दावे को गलत बताया। झूठ नंबर-4 सामान्य परिस्थितियों में किसी दवा को विकसित करने और उसका क्लिनिकल ट्रायल पूरा होने में कम से कम तीन साल तक का समय लगता है लेकिन अगर स्थिति अपातकालीन हो तो भी तमाम जरूरी प्रक्रियाओं को पूरा कर किसी दवा को बाज़ार में आने में कम से कम दस महीने से सालभर तक का समय लग जाता है। लेकिन पतंजलि ने अचानक से एक गंभीर बीमारी की दवा को लांच कर दिया। यह आश्चर्यजनक था।  झूठ नंबर-5 पहले बाबा रामदेव कह रहे थे कि नाक में सरसों का तेल डालने से कोरोना मर जाएगा। अब कह रहे हैं कि कोरोनिल आने से कोरोना मर जाएगा। अगर सरसों का तेल कोरोना मार दे रहा था तो कोरोनिल खोजने की जरूरत क्यों पड़ी। यानी की सरसों तेल से कोरोना खत्म होने की बात झूठी थी। झूठ नंबर-6 पहले रामदेव कहते थे कि वे कई असाध्य रोगों का इलाज योग से कर सकते हैं, दवा की जरूरत नहीं है। वो प्राणायाम से आजीवन स्वस्थ रहने की बात कहते थे, फिर खुद ही दवा भी बेचने लगे। लेकिन खुद बीमार होने पर रामदेव अस्पताल में भर्ती हुए, न उनकी अपनी दवाएं काम आईं, न योग। झूठ नंबर-7 पहले बाबारामदेव चैनलों पर बताते थे कि मैगी, पास्ता आदि खाने के परिणाम बेहद गंभीर होते हैं, फिर बाबा खुद मैगी से लेकर मसाला तक सब बेचने लगे। इसका मतलब यह हुआ कि मैगी और पास्ता के बारे में गलत प्रचार कर रहे थे। यानी की झूठ बोल रहे थे। झूठ नंबर-8 बाबारामदेव ने एड्स का इलाज करने का दावा किया, ऐसी दवा बनाने का दावा किया जिससे महिलाएं सिर्फ पुत्र को जन्म दे सकती हैं। कैंसर के इलाज का भी दावा किया, लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने इसकी निंदा की। केंद्र सरकार ने उन्हें नोटिस थमाया। यानी कि रामदेव कई मौकों पर अपने मुनाफे के लिए झूठ बोलते रहे हैं। झूठ नंबर-9 आयुष मंत्रालय के गजट नोटिफिकेशन के अनुसार पतंजलि को आईसीएमआर और राजस्थान सरकार से किसी भी कोरोना की आयुर्वेद दवा की ट्रायल के लिए परमिशन लेनी चाहिए थी, मगर बिना परमिशन के और बिना किसी मापदंड के ट्रायल का झूठा दावा किया गया। झूठ नंबर-10 बाबारामदेव ने सात दिन के अंदर 100 फीसदी रोगियों के रिकवरी का दावा भी किया। एक ऐसी बीमारी जिसको लेकर जनता के मन में भारी डर बैठा हुआ है, उसके बारे में भ्रामक जानकारी देना उपभोक्ताओं यानि देश की जनता के साथ एक भद्दा मजाक और बड़ा झूठ है। इस घटनाक्रम में आयुष मंत्रालय द्वारा दिव्य फार्मेसी को जवाब देने के लिए एक हफ्ते का समय दिया गया है। मंत्रालय का कहना है कि अगर संतोषजनक जवाब नहीं मिलता है तो लाइसेंस रद्द भी किया जा सकता है। तो दूसरी ओर आचार्य बालकृष्ण की ओर से आयुष मंत्रालय को कुछ कागजात भेजने की खबरें भी आ रही हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या पतंजलि पर 420 यानी धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज नहीं होना चाहिए। या फिर रामदेव और पतंजलि पहले की ही तरह सरकारी शह पर इस बार भी बच कर निकलने में कामयाब हो जाएंगे।

आरक्षण खत्म होने पर दलित जातियों पर पड़ने वाला सामाजिक प्रभाव क्या होगा?

Written By- पंकज टम्टा संभवतः ‘आरक्षण’ एक ऐसा विषय है, जिसने दलित जातियों को एक साथ बांध रखा है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आरक्षण के समाप्त होते ही दलित जातियों के बने गुटों के आपसी  रिश्तों में तनाव आ जाए। बाबा साहब और समाज के नाम पर एकजुट होने के चलते दलित जातियों ने केवल अपने जातीय संगठन ही बनाये। इसमें दोष वर्तमान पीढ़ी का नहीं। यदि इतिहास में देखा जाए तो हुआ यही है कि जो भी व्यक्ति सामाजिक और राजनैतिक रूप से सबल हुआ उसने अपनी जाति को संगठित किया। कुछ हद तक इसने समाज में कुछ एक खास दलित जातियों को उनकी खोई पहचान भी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्योंकि अस्पृश्यता का व्यवहार सभी जातियों के साथ अलग अलग तरह से होता था। इसलिए जो संगठित हो गए उनके साथ इसकी भयावयता कुछ कम हुई। यही कारण है कि दलित जातियों ने सजातीय संगठनों में एकजुट होना सही समझा। लेकिन आरक्षण एक ऐसा विषय बना जिसने सभी दलित जातियों और उनके संगठनों को एक मंच पर आने पर मजबूर किया। संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति के रूप में जाने जाने के बावजूद भी दलित जातियां सामाजिक रूप से एक नहीं हो पाई हैं। आज भी इन जातियों में सामाजिक विभेद बहुत बड़े स्तर पर दिखता है। संविधान बनने के इतने वर्ष बाद भी सामाजिक रूप से एक न हो पाना दलित समाज की सबसे बड़ी नाकामी है।

इस नाकामी से बचने के लिए क्या किया जाए?

दलित जातियों के नाम पर बने संगठन जैसे शिल्पकार चेतना मंच, टम्टा सभा, वाल्मीकि सभा, चमार संगठन, जाटव सभा आदि दलित जातियों में विभेद करने वाले संगठनों को खत्म कर दिया जाना चाहिए। इस प्रकार के शब्दों में सामाजिक रूप से पहल करते हुए पाबंदी लगाई जाए। यदि ऐसा नहीं होगा तो इसका बहुत बड़ा खामियाजा पूरे दलित समाज को तब भुगतना पड़ेगा जब हमसे आरक्षण छीन जायेगा! आरक्षण के मुद्दे पर एक होने के चलते व सामाजिक रूप से अलग -अलग रहकर हम अपने विरोधी को एक ऐसा अवसर मुहैया करा रहे हैं जब वह एक तीर से दो शिकार कर सकता है। आरक्षण के खत्म होते ही, दलितों के जातियों के आधार पर बने संगठनों के बीच आपसी वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाएगी। जिसमें फिर दलित जातियों के संगठन आपस में ही एक दूसरे को खत्म करने से पीछे नहीं हटेंगे। क्योंकि फिर इनके पास कहने को केवल यही आत्मसम्मान बचेगा की दलित जातियों में कौन किससे बड़ा है। इस प्रकार के संभावित वर्ग संघर्ष या यूं कहें कि दलित जातियों के बीच होने वाले जातीय संघर्ष को टाला जा सकता है। इसके लिए करना यह है कि दलित जातियों के बीच पनप रही जातीय अहम की भावना का समूल अंत कर दिया जाए, और ऐसे शब्दों का विलोप हो जो दलित जातियों में जाति भेद करते हो। मेरा ताल्लुक उत्ताखंड से है। मुझे वहां एक शब्द हमेशा से चुभता है जो है ‘शिल्पकार। कुमाऊं के दलित समाज में अब इस शब्द का विलोप हो जाना चाहिए क्योंकि यह शब्द दलित जातियों में विभेद पैदा करता है। यह कुछ दलित जातियों को श्रेष्ठ और कुछ को निकृष्ट बताता है जबकि सवर्णों की दृष्टि में सभी दलित एक समान है और वे सभी से उतनी ही घृणा करते हैं जितनी वे कर सकते हैं।

यदि जातीय विभेद के शब्द ना अपनाए तो फिर क्या करे?

आज दलित समाज को ऐसी शब्दावली की जरूरत है जो जातीय विभेद न पैदा करती हो। जैसे बाबा साहब आंबेडकर के नाम की तरह जातीय नाम की जगह स्थान विशेष के नामों का प्रयोग करना। जिनसे किसी भी प्रकार के छोटे बड़े व्यवसाय का पता नहीं चलता है। ऐसे नामों का भी प्रयोग किया जा सकता है जो सभी में समान रूप से स्वीकार हो। लेकिन ऐसे नामों की खोज सभी को एक साथ मिलकर, सामाजिक रूप से एक साथ आकर करनी होगी। महज आरक्षण के मुद्दे पर एकजुट दिखने वाले दलित समाज के बारे में यह सोच लेना की समाज एक हो गया है निरी मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है। इससे आगे चलकर अगर समाज एक होता है तो सामाजिक रूप से एक होने के बहुत से फायदे समाज को मिलेंगे। लेकिन समाजिक रूप से एक दलित समाज तभी माना जाएगा, जब दलित वर्ग के हर जाति बिरादरी के लोगो में आपस में रोटी – बेटी के संबंध स्थापित करेंगे। वरना समाज लाख ढकोसला कर ले, सामाजिक एकता का जो द्वंद है वो समाज के सामने आज नहीं तो कल आ ही जायेगा।


इस आलेख के लेखक पंकज टम्टा सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

क्या इस पितृ दिवस से आप अपने बच्चों के नाम चिट्ठी लिखना शुरू करेंगे

  Written By- अरविंद सिंह आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। मैं ऐसी पीढ़ी से आता हूं जिसके पास अपने पिता की धरोहर के रूप में उनकी लिखी सैकड़ों चिट्ठियां हैं। उनको आज भी सहेज कर रखा है मैने। मौके बेमौके पढ़ता हूं तो लगता है जैसे वे मेरी तमाम चुनौतियों का जवाब तलाश देती हैं। कुछ में वैसी ही उलाहनाएं है जो मैं अपनी बेटी से करता हूं, कुछ में वैसी ही सराहनाएं हैं। कुछ में डांट फटकार है तो कुछ में ऐसी नसीहतें जो आज भी काम आ रही हैं। लेकिन संचार क्रांति के बीच जी रही हमारी नयी पीढ़ी ऐसी चिट्ठियों से वंचित है। लेकिन उसके लिए मैं उनको दोष नहीं देता। दोषी तो मैं खुद और हमारी पूरी पीढ़ी ही है। तो क्या इस पितृ दिवस से गाहे बगाहे ही सही अपने बच्चों को आप चिट्ठी लिखना आरंभ करेगे? 1980 में पिता से अलग होकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय गया तो कोई सप्ताह न जाता होगा जिसमें उनकी कोई चिट्ठी न आती रही हो। मैं भी जवाब लिखता ही था। पिताजी की हैंडराइटिंग भी बहुत अच्छी थी और उनका हर पत्र केवल घर परिवार ही नहीं पूरे इलाके का अखबार सा भी होता था। कभी कुछ रोचक चिट्ठियां साझा करूंगा लेकिन फिलहाल प्रसंग अलग है। भारतीय डाक पुस्तक मैंने लिखी तो कई खंडों में भारतीय डाक सेवा की अधिकारी श्रीमती पी गोपीनाथ से काफी मदद मिली। बाद में वे इस विभाग की सचिव भी रहीं। एक दिन बंगलूरू में पढ़ रही अपनी बेटी को एक कार्ड में कुछ खास हिदायतें हाथ से लिख कर भेजी। कुछ दिनों बाद गयीं तो देखा कि उसने अपनी पढ़ाई के टेबुल के ठीक ऊपर करीने से लगा कर रखा था। यानि रोज देखती थी उसे। चिट्ठियों की अपनी ताकत है लेकिन हम लोगों ने ही अपने बच्चों के लिए चिट्ठी लिखना बंद कर दिया है और उसके महत्व से उनको कभी बताते नहीं तो वे क्या लिखेंगे। लेकिन दुनिया के तमाम हिस्सों में चिट्ठियों को लिखने लिखाने और एक दूसरे को चिट्ठियों से जानने समझने का आंदोलन सा चल रहा है। हम सभी चिट्ठियों की कीमत को जानते हैं। एक पिता के लिखे पत्र की कीमत और ताकत क्या होती है, यह हम सबको पता है। नौजवान साथियों को समझना होगा कि चिट्ठियां मोबाइल से कितनी ज्यादा ताकवर हैं। अभी भी उनको लिखना जारी रखा जा सकता है क्योंकि वैसी ताकत आज भी किसी औऱ विधा में नहीं।
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद सिंह ने यह पोस्ट फेसबुक पर लिखी थी। वहां से साभार प्रकाशित।

फादर्स डे पर पत्रकार उर्मिलेश ने अपने किसान पिता को यूं किया याद

Written By- Urmilesh सुबह-सुबह आज ‘बाबू’ की याद आई। मां-पिता के गये वर्षों गुजर गये पर हर दुख-सुख में, कोई काम करते, खेत-खलिहानों की तस्वीरें देखते या उनसे होकर गुजरते, हंसते-बोलते या अपनी तरफ का कोई खास पकवान खाते हुए, वे अक्सर ही याद आते हैं। जब मैं बहुत दुखी होता हूं, तब तो वे जरूर याद आते हैं। ऐसा लगता है, मानो वो सामने खड़े हैं और मैं उनसे अपना दुख ‘शेयर’ कर रहा हूं या दुख को स्वयं ही बुलाने वाली अपनी गलती उनके सामने स्वीकार कर रहा हूं। आज कुछ यूं हुआ कि अपनी एक पूर्व-सहकर्मी की पोस्ट देखी। उन्होंने अपने सेवानिवृत्त पिता की बागवानी और साग-सब्ज़ियों के प्रति गहरे लगाव पर लिखा था। वह पढ़ते हुए मैं अपनी स्मृतियों के बेहद खूबसूरत गलियारे की सैर करने लगा। मैं गांव की उस खंड़ी में जा पहुंचा, जिसे मौसम-बेमौसम मेरे बाबू फूल-पौधों और साग-सब्जियों से भर देते थे। मेरे बाबू बहुत छोटे और साधारण किसान थे। कम रकबे वाले। संभवतः इसी के चलते उनको खेती से ज्यादा साग-सब्जी और फल-फूल उगाने का शौक पैदा हुआ होगा। खेती से किसी तरह हमारे छोटे से परिवार का काम भर चल जाता था। उन दिनों गांव के बाहर हमारी एक खंड़ी (अहाते के लिए भोजपुरी शब्द) थी। उसमें हमारे बाबू इतनी सब्जियां उगाते थे कि मोहल्ले के कई घरों के लोग खंड़ी से बेहिचक सब्जियां तोड़ ले जाते। किसी को कभी रोका नहीं जाता। सुबह और शाम, वहीं पर पिताजी की ‘बैठकी’ जमती थी। ‌घर से चाह (चाय के लिए भोजपुरी शब्द) बनवाकर ले आने की जिम्मेदारी यदा-कदा मैंने भी निभाई थी। ‘माई’ बड़का लोटा में चाय देतीं और कपड़े में लपेटकर मैं ले जाता ताकि हाथ न जले। हरी सब्जियों के खेत या कहीं भी उगी हुई हरी सब्जियां देखकर आज भी मुझे अपने दिवंगत बाबू तुरंत याद आ जाते हैं। मेरा जन्म यूपी के गाजीपुर जिले के एक बड़ी आबादी वाले गांव के एक बहुत मामूली और छोटे किसान परिवार में हुआ। हम दो ही भाई थे। हम दोनों अपने पिता जी को शुरू से आखिर तक ‘बाबू’ और माताजी को ‘माई’ कहते थे। मेरे बाबू सरजू सिंह यादव अपने पिता यानी मेरे बाबा(पूर्वांचल में आमतौर पर दादा को बाबा कहा जाता है) राम करन यादव के इकलौते पुत्र थे। बाबा का निधन बहुत कम उम्र में हो गया था। मेरी आजी का निधन भी बहुत जल्दी हो गया। इस तरह मेरे बाबू बचपन में ही ‘टुअर ‘(अनाथ) हो गये। हम दोनों भाइयों ने सिर्फ अपने बाबा-आजी का जिक्र ही सुना, कभी उनकी तस्वीर भी नहीं देखी। उन दिनों गरीब परिवार भला कहां से फोटो खिंचवाते और वो भी क्यों? पिता निरक्षर रहे क्योंकि उन्हें पढ़ने के लिए स्कूल कौन भेजता। जब वह कुछ बड़े हुए तो संयुक्त खेतिहर-परिवार में जमीन-जायदाद में वाजिब हिस्सेदारी भी नहीं मिली। पर उन्होंने उसे मुद्दा नहीं बनाया। जब उनकी शादी हुई और मेरी मां उनके जीवन में आईं तो पिता के काका जी आदि यानी पूर्व के साझा परिवार वालों ने काफ़ी कहने-सुनने के बाद थोड़ी सी खेतिहर जमीन दी। वैसे साझा परिवार के पास भी ज्यादा ज़मीन-जायदाद नहीं थी। खेती-बाड़ी के अलावा पशुपालन से वे लोग भी किसी तरह जीवन बसर कर रहे थे। पर ले-देकर खाने-पीने का कोई कष्ट नहीं था। कथित बंटवारे और शादी के बाद हमारे बाबू और माई को काफी समय कष्ट में बिताने पड़े। लेकिन दोनों ने कभी छोटे-मोटे कष्टों की परवाह नहीं की। तरह-तरह के काम-धंधे करके जीवन को सहज और सुंदर बनाने में जुटे रहे। मज़े की बात कि ग़रीबी के बावजूद मेरे मां-पिता ने हमारे पूर्व के साझा परिवार वालों की तरह कभी भी दूध-दही नहीं बेचा। खंड़ी से सब्जियां और खेत से खाने-पीने भर अनाज पैदा होता रहा। पिता जब तक स्वस्थ रहें, खंड़ी में आलू, प्याज, टमाटर, बैंगन, नेनुआ, लौकी, तरोई, लतरा, भिंडी और करैला जैसी सब्जियां और समय-समय पर केला और पपीता जैसे फल भी पैदा होते रहे। अपनी छोटी साधारण गृहस्थी में बाबू और माई को संभवतः उनके जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी तब मिली, जब मेरे बड़े भाई केशव प्रसाद ने यूपी बोर्ड से मैट्रिक पास किया। वह भी अच्छे अंकों के साथ। मेरे खानदान ही नहीं, संभवतः गांव में बसे हमारे समूचे समुदाय में मैट्रिक पास करने वाले वह पहले व्यक्ति बने। गांव के एक बेहद गरीब किसान के लिए यह बड़े सपने का पूरा होना था। मेरे माई-बाबू शुरू से ही खेत बढ़ाने या ईंटे का घर बनाने की बजाय हम दोनों भाइयों को अच्छी शिक्षा दिलाने का सपना बुनते थे। पता नहीं, शिक्षा और अक्षर-ज्ञान से वंचित हमारे खानदान और समूचे समुदाय में मेरे मां-पिता को अपने दोनों बच्चों को शिक्षित बनाने का ज्ञान या विचार कहां से मिला था? एक बार मैंने अपने पिता से यह सवाल पूछा भी। संभवतः तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए अंतिम वर्ष में था। मेरे पिता ने तनिक गर्व के साथ कहा: ‘तोहार बोड़ भाई अब ‘परफेसर’ (लेक्चरर) बन गइलें, तोहरा के ‘जज’ बनावे क मन बा। अब तोहरा के आ तोहरा भैय्या के फैसला करेके बा कि एकरा खातिर का-का पढ़े के परी। इस कइसो होई।’ मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘भैय्या कलक्टर बनावे चाहत बांडन और तू जज कहत बाड़अ। आ, हमार मन कुछ औरिये कहत-आ।’ उन दिनों मैं किसी उच्च शिक्षण संस्थान में अध्यापकी करते हुए सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के एक कार्यकर्ता के तौर पर जीवन बिताने का सपना बुन रहा था। वह बात कहने के बाद अपने पिता की आंखों में मैंने खुशी और गर्व की चमक देखी। फिर कुछ ही देर बाद देखा, चश्मा उतारकर वो आंखों में छलक पड़े अपने आंसुओं को पोंछ रहे हैं। इस हालत में देख मैं भी रो पड़ा। फिर वो मुझे पुचकारने लगे। लंबी कहानी है—लेकिन इसका एक सच ये है कि मैं अपने पिता का सपना पूरा नहीं कर सका। ज़ज नहीं बना। पर अब तक अपने पिता के उस सपने में निहित उनके इच्छित मूल्यों को जीने और उन पर अमल करने में जुटा रहा हूं। अन्याय और अत्याचार के हर खूंखार अंधड़ से जूझने और उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की हरसंभव कोशिश करता आ रहा हूं। जिन दिनों मेरे पिता का निधन हुआ, मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी के साथ MA और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU ) से M।Phil करने के बाद बेरोजगार था। कई विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों में इंटरव्यू देकर लगभग निराश हो चुका था। एक इंटरव्यू बंगाल के एक विश्वविद्यालय में होना था, तब तक पिता के गुजर जाने की बुरी खबर मिली। मैं उन दिनों दिल्ली की एक सरकारी कॉलोनी के एक छोटे से कर्मचारी क्वार्टर में रहता था। जीवन-यापन के लिए पत्रकारिता (फ्रीलांस) और अनुवाद आदि का काम शुरू कर चुका था। किसी तरह रूपये-पैसे का जुगाड़ कर गांव‌ पहुंचा। भैय्या नजदीक थे, इसलिए वह पहले ही पहुंच चुके थे। आजीवन यह दुख मुझे सालता रहता है कि मैं उनके अंतिम समय तक रोजगार में नहीं रहा और अपनी इच्छानुसार उनकी अच्छी देख-भाल नहीं कर सका। पंद्रह बीस दिनों बाद गांव से दिल्ली लौटा तो मैंने फिर कभी किसी शिक्षण-संस्थान में लेक्चरशिप के लिए न तो कोई नया आवेदन किया और न ही कहीं इंटरव्यू देने गया। पत्रकारिता में औपचारिक तौर पर दाख़िल होने का फ़ैसला कर लिया था। उन दिनों एक फ्रीलांसर के तौर पर ‘जनसत्ता’, और ‘प्रतिपक्ष’ आदि में खूब लिखता था। पत्रकारिता ही करनी है, इस फैसले के बाद नौकरी की सबसे पहली कोशिश ‘जनसत्ता’ और ‘अमृत प्रभात’ में की थी। दोनों जगह सफल नहीं हुआ। ‘जनसत्ता’ में तो लिखित-परीक्षा लेने के बाद भी नौकरी नहीं मिली। शीर्ष निर्णयकारी-व्यक्ति ने नतीजे के बारे में पूछने पर बस इतना कहा: ‘लिखते रहिए।’ वो तो मैं पहले से ही लिख रहा था। कुछ ही समय बाद Times of India group के हिंदी अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ में नये पत्रकारों की नियुक्ति के लिए लिखित परीक्षाएं हुईं। उन दिनों देश के प्रतिष्ठित पत्रकार राजेंद्र माथुर अखबार के प्रधान संपादक थे। बगैर तैयारी के परीक्षा में बैठ गया। बाद में रिजल्ट आया तो मुझे बताया गया कि जितने लोग (कुछ सौ) परीक्षा में बैठे थे, उनमें सफल अभ्यर्थियों के बीच मेरा दूसरा स्थान है। इस तरह पत्रकारिता की औपचारिक और संस्थागत शुरुआत सन् 1986 के अप्रैल महीने में ‘नवभारत टाइम्स’ के पटना संस्करण से ही हुई। इससे पहले कई छोटे-बड़े अखबारों और साप्ताहिकों के लिए जमकर लिखा या अंशकालिक तौर पर काम भी किया। ‘नवभारत टाइम्स’ में काम करते हुए ही मेरी पहली किताब ‘बिहार का सच’ (सन् 1991) में छपी। उसे अपने दिवंगत पिता को समर्पित किया। मेरे पास और था ही क्या, ‘बाबू’ की स्मृति को अपने पास सहेज कर रखने का।
यह संस्मरण वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश जी ने फादर्स डे के मौके पर अपने पिता को याद करते हुए फेसबुक पर लिखा है। उनके फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित।

भारत के सवर्ण क्यों नहीं अदा कर सकते अमेरिकी प्रभुवर्ग की भूमिका! 

अमेरिका के मिनीपोलिस की एक पुलिस हिरासत में गत 25 मई को श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन द्वारा जिस अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की घुटने से गर्दन दबाकर हत्या किए जाने का वीडियो सामने आने के बाद पिछले 52 सालों में उग्र धरना-प्रदर्शनों का जो सबसे बड़ा सिलसिला शुरू हुआ, उनको गत मंगलवार को ह्यूस्टन में दफना दिया गया। इस दौरान अमेरिका के टेक्सास के ह्यूस्टन स्थित ‘ह्यूस्टन मेमोरियल गार्डेन्स कब्रिस्तान’ में हजारों की  संख्या में जमा लोगों ने नम आंखों से उनको अंतिम विदाई दी। लोगों ने नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का संकल्प भी लिया। बहरहाल फ्लॉयड तो दफन हो गए किन्तु उनकी मौत के बाद विरोध प्रदर्शनों का जो सिलसिला अमेरिका के 50 में से 40 से अधिक राज्यों के लागभग 150 शहरों तक फैला, उनमें खूब कमी नहीं आई है। आज भी ढेरों शहरों में लोग हाथों में ‘नोजस्टिस, नो पीस’ और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसे नारे लगी तख्तियाँ लिए लिए वह मंजर पैदा कर रहें हैं, जिसे देखकर मौजूदा सरकार की पेशानी पर चिंता की लकीरें और गहरी हुये जा रही है।

पुलिस सुधारों की घोषणा के लिए बाध्य हुये: डोनाल्ड ट्रम्प

इस बीच इस घटना क्रम में एक नया मोड़ यह आया है कि प्रदर्शनकारियों के बढ़ते दबाव के आगे झुकते हुये अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पुलिस सुधारों की बात मान ली है। फ्लॉयड के दफनाये जाने के अगले दिन डलास में इस आशय की घोषणा करते हुये उन्होंने कहा कि,’ दो हफ्ते पहले जो कुछ हुआ उससे देश कि प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है। पिछले दो हफ्तों में लोग मारे गए और यह अत्यधिक डरावना और अनुचित है। इनमें कई पुलिस  अधिकारी थे। यह बहुत ही खराब स्थिति थी। मैं इसे दोबारा नहीं देखना चाहता।.. हम उस शासकीय आदेश को अंतिम रूप देने पर काम कर रहे हैं जिसमें देशभर में पुलिस विभाग बल प्रयोग के लिए मौजूदा पेशेवर मानकों पर खरा उतर सके।‘ पुलिस सुधार की दिशा में आगे बढना निश्चय ही जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद शुरू हुये धरना प्रदर्शनों की बड़ी विजय है, क्योंकि ये धरना-प्रदर्शन पुलिस सुधारों को लेकर ही शुरू हुये थे। बहरहाल ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधारों की घोषणा के बाद जब अमेरिका से शुरू होकर विश्व के कई देशो  तक फैले इन धरना -प्रदर्शनों का सिलसिला थम जाने की उम्मीद दिखने लगी, तभी एक और घटना सामने आ गयी।

एक और नस्लीय हत्या

ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधारों में घोषणा के दो दिन बाद ही 12 जून को अटलांटा में एक श्वेत पुलिस अफसर द्वारा रेशर्ड ब्रुक्स नामक एक अश्वेत की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। ब्रुक्स पार्किंग में खड़ी कार में सो रहा था। पुलिस को लगा वह नशे मे हैं। पूछताछ में पुलिस से झड़प हो गयी और ब्रुक्स पुलिस अफसर का गन छीनकर भाग निकला। दूसरे अफसर ने उसका पीछा किया। इतने मे ब्रुक्स पलटा और उसने पुलिस अफसर पर गन तान दी। तभी अफसर ने उस पर गोली दाग दी। बाद में अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी। घटना के बाद श्वेत पुलिस चीफ एरिका शिल्ड्स ने इस्तीफा दे दिया। उसकी जगह उनके जूनियर अश्वेत पुलिस अधिकारी रॉडनी ब्रायंट की तैनाती हो गयी। उधर 13 जून को प्रदर्शनकारियों ने उस रेस्तरां में आग लगा दी, जहां ब्रुक्स को गोली मारी गयी थी। अब अटलांटा की घटना के बाद लगता है फ्लॉयड की मौत के बाद धरना-प्रदर्शनों का जो सिलसिला हुआ लगता है वह ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधार का आश्वासन दिये जाने के बावजूद आने वाले दिनों में भी जारी रहेगा।

फ्लॉयड को न्याय दिलाने के अभियान मेँ शामिल हुये विश्वविख्यात एक्टर-स्पोर्ट्समैन!

बहरहाल फ़्लॉयड की मौत के बाद जिस तरह अमेरिका से लेकर पूरी दुनिया के गोरों के साथ  ढेरों देशों के नामचीन बुद्धिजीवी, संगीतज्ञ, एक्टर, स्पोर्ट्समैन अश्वेतों के समर्थन में उतर आए, उसे हमेशा याद किया जाएगा। कैसे कोई भूल पाएगा कि फ्लायड को न्याय दिलाने के अभियान में टेनिस के मौजूदा दिग्गज और बिग थ्री में शामिल रोजर फेडरर, राफेल नडाल और नोवक जोकोविक भी शामिल हुये थे। बिग थ्री से पहले कई अश्वेत खिलाड़ी भी फ्लॉयड को न्याय दिलाने के लिए आगे आए थे, जिनमें गोल्फर टाइगर वुड्स, पूर्व श्रीलंकाई क्रिकेटर कुमार संगकारा, वेस्ट इंडीज के कप्तान डरेन सामी, क्रिस गेल जैसे बड़े नाम रहे।

चुप्पी साधे रहे भारतीय फिल्मी और खेल सितारे

अब जहां तक भारत का सवाल है जॉर्ज फ्लॉयड को इंसाफ दिलाने के लिये न तो भारत के बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट सड़कों पर उतर रहे हैं, न ही विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, धोनी जैसे स्पोर्ट्समैन और अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण इत्यादि जैसे स्पोर्ट्स और फिल्म स्टार्स ने ही कोई बयान जारी किया। लेकिन भारत के सेलेब्रेटी स्तर के बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट, स्पोर्ट्समैन और फिल्म स्टार भले ही चुप्पी साधे हो, पर फ्लॉयड की मौत को लेकर भारत में भारी संख्या में लोग मुखर हुये और मुखर होने वाले अधिकांश लोग उन समुदायों से हैं, जिन्हें जाति-भेद का सामना करना पड़ता है। हालांकि अगस्त 2014 में फर्ग्यूशन के एक अश्वेत युवक को गोलियों से उड़ाने वाले श्वेत पुलिस अधिकारी डरेन विल्सन पर नवंबर 2014 में ग्रांड ज्यूरी द्वारा अभियोग चलाये जाने से इंकार करने एवं 18 मई, 2015 को 21 साल के श्वेत युवक डायलन रूफ द्वारा साउथ कैरोलिना स्थित अश्वेतों के 200 साल पुराने चर्च में गोलीबारी कर नौ लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद भी अमेरिका में बड़े  पैमाने आज जैसे धरना- प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ था। पर भारत के वंचित समुदायों के लोग आज की भांति उद्वेलित नहीं हुये। इस बार जिस मात्रा में गोरे अश्वेतों के समर्थन में उतरे वैसा पहले के आंदोलनों में नहीं दिखा। एक ऐसे दौर में जबकि मोदी के अमेरिकी क्लोन ट्रम्प अमेरिकी बहुसंख्यकों (गोरों) में अल्पसंख्यकों (अश्वेत,रेड इंडियंस, हिस्पैनिक्स,एशियन पैसेफिक) के प्रति नफरत को तुंग पर पहुंचा कर सत्ता दखल किया हो और इस नफरत की आग को जलाए रखने के लिए का लगातार सत्ता का इस्तेमाल किए जा रहा हो, गोरों का अश्वेतों के समर्थन में अभूतपूर्व संख्या में सड़कों पर उतरना और उग्र धरना- प्रदर्शन करना पूरी दुनिया के साथ भारत के लोगों को भी विस्मित किया और कुछ ज्यादा ही विस्मित किया।

फ़्लॉयड की समस्या को लेकर: पहली बार उद्वेलित हुये बहुजन

वास्तव मे अमेरिकी प्रभुवर्ग का कालों के समर्थन में उतरने ने अगर सबसे अधिक किसी  को चौकाया तो वह भारत का वंचित बहुजन समाज ही है। भारतीय लेखकों और मीडिया के सौजन्य से आम भारतीयों में यही धारणा थी कि जिस तरह भारत का प्रभुवर्ग दलितों के प्रति अमानवीय व्यवहार करते हैं, कुछ वैसा ही अमेरिका के गोरे वहाँ के अश्वेतों के साथ करते हैं। किन्तु विगत दो सप्ताह से आ रही धरना-प्रदर्शनों की खबरों ने अमेरिकी गोरों के प्रति बनाई धारणा को खंड – खंड कर दिया है। इसलिए भारतीय प्रभुवर्ग और सेलेब्रेटीज़ के खिलाफ तंज़ भरी बातों से यहाँ का सोशल मीडिया पट गया। प्राख्यात पत्रकार महेंद्र यादव ने लिखा – ‘कोरोना का डर पीछे छूट गया है।इंसानियत और नागरिक अधिकारों को बचाना ज्यादा जरूरी लग रहा है। खास बात ये है कि डेरेक को कड़ा सजा देने की मांग करने वालों में श्वेत लोग ही ज्यादा हैं। जॉर्ज फ्लॉयड की जान नहीं बचाई जा सकी, लेकिन श्वेत अमेरिकियों ने इंसानियत तो बचा ही ली। डेरेक चाउविन नौकरी से निकाला जा चुका है। 25+10=35 साल की सजा होना भी तकरीबन तय ही है। दूसरी ओर ऐसा मुल्क भी है जहां जाति पूछकर गोली मारने वाला शान से नौकरी करता है। इंस्पेक्टर से लेकर आम नागरिकों की मॉब लिंचिंग करने वालों को मंत्री माला पहनाकर सम्मानित करते हैं। हां, “खास परिस्थितियों” में एक करोड़ का मुआवज़ा और हत्या के संदेह के घेरे में आ रही मृतक की पत्नी को क्लीन चिट देते हुए क्लास वन की नौकरी दे दी जाती है।’

डॉ. आंबेडकर के अनुसार, सामाजिक विवेक से शून्य हैं हिन्दू!

बहरहाल अमेरिका के गोरे अपने यहां के अश्वेतों के प्रति क्यों करुणशील रहते हैं और भारत के सवर्ण दलितों के प्रति क्यों उदासीन रहते हैं, इस सवाल से टकराने का वर्षों पहले बलिष्ठ प्रयास डॉ. आंबेडकर ने ही किया था। स्मरण रहे ज्ञानार्जन के सिलसिले में डॉ. आंबेडकर को तीन साल अमेरिका में गुजारने का अवसर मिला। वहां रहने के दौरान ही उन्हें बुकर टी. वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन जैसे महामानवों के विषय में जानने का अवसर मिला जो बाद मेँ उनके दलित – मुक्ति आंदोलन में उतरने का अन्यतम कारण बना। गोरों के मुकाबले भारत के हिंदुओं, खासकर सवर्णों का व्यवहार कितना अमानवीय है, इसका तुलना करने का बेहतर अवसर उन्हें उसी दौरान मिला। अमेरिका और भारत के प्रभुवर्ग के क्रमशः अश्वेतों  और दलितों के प्रति सामाजिक व्यवहार और त्याग इत्यादि के विषय मेँ डॉ. आंबेडकर का अनुभव ‘बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय’ के खंड 9 के पृष्ठ 145-156 पर ‘हिन्दू और सामाजिक विवेक का अभाव’ शीर्षक से लिपिबद्ध है। इसके पृष्ठ 156 पर दोनों देशों के प्रभुवर्ग के पार्थक्य को चिन्हित करते हुये बाबा साहेब लिखते हैं- ‘यह अंतर क्यों है? अमेरिका में लोग अपने यहाँ के नीग्रो लोगों के उत्थान के लिए सेवा और त्याग कर इतना कुछ क्यों करते हैं? इसका एक ही उत्तर है अमेरिकियों मे सामाजिक विवेक है, जबकि हिंदुओं में इसका सर्वथा अभाव है। ऐसा नहीं कि हिंदुओं में उचित- अनुचित, भला-बुरा या नैतिकता का विचार नहीं है। हिंदुओं में दोष यह है कि अन्य के प्रति उनका जो नैतिक विवेक है, वह सीमित वर्ग, अर्थात अपनी जाति के लोगों तक ही सीमित है।’
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क- 9654816191

आरक्षण का भय और आरक्षण सूचियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता

  Written By- कैलाश जीनगर  22 अप्रैल 2020 को उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने चेब्रोलू लीला प्रसाद के वाद में आरक्षण के विषय में कुछ टिपण्णी की जो कि जल्द ही सुर्ख़ियों में छा गई और आरक्षण के विरोध में जन भावना ने एक बार फिर जोर पकड़ा। दरअसल न्यायाधीश अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने उक्त वाद में ये “मत” प्रस्तुत किया है कि अनुसूचित जाति-जनजाति में अब संपन्न और सामाजिक व आर्थिक रूप से विकसित वर्ग उत्पन्न हो गया है जिसके कारण आरक्षण प्रावधानों का लाभ इन जातियों के निम्न वर्गों तक नहीं पहुँच पाता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह आरक्षण की सूचियों का पुनरिक्षण करे। चूँकि पीठ ने सरकार को इस सम्बन्ध में कोई आदेश या निर्देश जारी नहीं किये हैं इसलिए उपरोक्त कथन को केवल राय या मशवरे के रूप में ही देखा जाना चाहिए। परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भविष्य में इस राय को आधार बनाकर दलितों के हितों से खिलवाड़ करने वाला कदम उठाया जा सकता है। न्यायालय का यह दृष्टिकोण आरक्षण-विरोधी तत्वों तथा दलितों के अत्यधिक पिछड़े वर्गों को लुभाने वाला हो सकता है, परन्तु इस संबंध में कोई राय बनाने से पहले इस मत का बहुआयामी परिक्षण व समीक्षा आवश्यक हैं। पहला, उपरोक्त फैसले में न्यायालय ने बिना ठोस सबूत या आंकड़े प्रस्तुत किये ये कहा कि अनुसूचित जाति-जनजाति में संपन्न तथा विकसित वर्ग है। जबकि सर्वज्ञात है कि सरकारी सेवाओं में उच्च स्थानों पर आज भी दलितों की संख्या नगण्य है और उन पदों पर तथाकथित “उच्च जातियों” का एकाधिकार है। उदाहरणार्थ, वर्ष 2019 में उच्चतम न्यायालय में लगभग दस वर्षों बाद एक दलित न्यायाधीश की नियुक्ति हो सकी है। हाँ, राजकीय सेवाओं के निचले तथा कुछ हद तक मध्यम स्तरीय पदों पर यक़ीनन दलित पदासीन हैं। परन्तु, ये तथ्य दलितों के संपन्न और विकसित होने का प्रमाण कतई नहीं हैं। साथ ही भेदभाव-रोधी दो अहम कानूनों (सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम व अ.जा. ज. जा. अत्याचार निवारण अधिनियम) का प्रभाव में होना तथा दलितों के विरुद्ध जाति आधारित अपराधों में वृद्धि होना (देखें, एन.सी.आर.बी. नवीनतम रिपोर्ट, 2018, सारणी 7) इस बात के ठोस सबूत हैं कि अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग सामाजिक रूप से आज भी पिछड़े हैं एवं तथाकथित “सवर्णों” के निशाने पर रहते हैं। ऐसे में आरक्षण को कम करने की बजाय उसे और भी प्रभावी ढंग से लागू करने की ज़रूरत है। लेकिन आरक्षण पर नीति-निर्धारण करने वाले सरकारी संस्थान अक्सर इस ज़मीनी हकीकत को नज़रंदाज़ कर, बाहरी कारक जैसे दलितों को आरक्षण का लाभ, को ध्यान में रख कर फैसला ले लेते हैं, जो कि अन्यायकारी साबित होता है। दूसरा, दलितों के तथाकथित संपन्न भाग को आरक्षण सूची से अलग करने का न्यायालय का सुझाव इस बात की ओर इशारा करता है कि आरक्षण का मुख्य उद्देश्य आर्थिक उत्थान था, जो कि गलत है। वास्तव में अनुच्छेद 16(4) तथा संविधान सभा में इस संबंध में हुए विचार-विमर्श से ये स्पष्ट होता है कि आरक्षण का मुख्य उद्देश्य है राजकीय सेवाओं में दलितों की भागीदारी को सुनिश्चित्न करना तथा उनमें सवर्ण एकाधिकार का खात्मा करना, क्योंकि सवर्ण चयन अधिकारी जात-पांत और छुआछूत के चलते दलितों का सरकारी सेवाओं में चयन नहीं करते थे। इसलिए आरक्षण ही एक मात्र विकल्प उपलब्ध था। संविधान में इसका प्रावधान सदियों से शोषित तथा वंचित वर्ग के सामाजिक उत्थान के लिए किया गया था (देखें, सी.ए.डी., 30-11-1948, भाग 7). इंद्रा साहनी वाद (1992) के निर्णय में भी नौ न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात का समर्थन किया था। अतः आरक्षण की समीक्षा का आधार दलितों की आर्थिक सम्पन्नता नहीं बल्कि प्रशासन में इनकी पर्याप्त भागीदारी, इनका सामाजिक उत्थान तथा उच्च राजकीय हल्कों में सवर्ण एकाधिकार की समाप्ति होना चाहिए। तीसरा, न्यायाधीश अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने संपन्न और विकसित लोगों को आरक्षण सूची से हटाने का सुझाव रखने के लिए इंद्रा साहनी वाद (1992) के निर्णय को बहुतायत में उद्धृत किया। परन्तु ज्ञातव्य है कि उक्त निर्णय में आर्थिक सम्पन्नता (क्रीमी लेयर) का मापदण्ड केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) के लिए सुझाया गया था। नौ न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले में ये स्पष्ट किया था कि विकसित वर्ग को आरक्षण का लाभ न देने का विचार अनुसूचित जाति-जनजाति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगा। परन्तु, इस महत्त्वपूर्ण बिंदु की ओर न्यायालय का ध्यान नहीं गया। अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण में “क्रीमी लेयर” सिद्धांत सर्वथा असंवैधानिक है; संविधान की मूल भावना के साथ धोखा है। चौथा, चेब्रोलू वाद में उच्चतम न्यायालय ने ये भी कहा कि आरक्षण का प्रावधान दस वर्षों के लिए किया गया था, जबकि वास्तविकता यह है कि दस वर्ष की सीमा राजकीय सेवाओं में आरक्षण के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 330, 332 व 334 के तहत लोक सभा तथा विधान सभाओं की सीटों में आरक्षण के लिए तय की गई थी। आरक्षण विरोधी इस दौर में देश के सर्वोच्च न्यायालय की ये टिपण्णी ‘आग में घी’ का काम करने जैसी प्रतीत होती है। संविधान लागू होने के 70 वर्षों बाद भी नीति-निर्धारण करने वाले निकायों में तथा अन्य उच्च सरकारी पदों पर तथाकथित सवर्ण जातियां हावी हैं। वे इस बात का पूरा प्रयास करती हैं कि उनका ये एकाधिकार समाप्त न हो। ऐसे में आरक्षण ही एकमात्र ऐसा हथियार है जिससे कि न केवल दलितों को बल्कि सरकारी संस्थानों को भी सवर्णों के चंगुल व एकाधिकार से मुक्त कराया जा सकता है। आरक्षण के प्रावधानों की यही शक्ति सवर्णों को भयग्रस्त करती है, जिसके परिणामस्वरूप वे इस यन्त्र को कमज़ोर करने में प्रयासरत हैं। वर्तमान में जबकि सरकारें भिन्न भिन्न तरीकों (जैसे आई.ए.एस. में लेटरल एंट्री, ई.डब्लू.एस. आरक्षण, सरकारी उपक्रमों का निजीकरण, उत्कृष्ट तथा तकनीकि संस्थानों में आरक्षण समाप्ति) से आरक्षण को निष्प्रभावी करने तथा उसकी बुनयादी भावना को विकृत करने में लिप्त है, उच्चतम न्यायालय की आरक्षण सूचियों पर उपरोक्त राय कईं संदेह उत्पन्न करती है। आरक्षण से वंचित अनुसूचित जाति-जनजाति के वर्गों को न्यायालय के इस लुभावने दृष्टिकोण का स्वागत करने से पहले इन आरक्षण विरोधी नीतियों को ध्यान में रखना होगा। साथ ही ध्यान में रखना होगा आरक्षित वर्ग की बढती हुई न भरी जाने वाली (बैकलॉग) रिक्तियों की संख्या को और इन रिक्तियों को कुछ वर्षों बाद अनारक्षित श्रेणी में रूपांतरित करने वाले नियमों को। आरक्षण को खोखला करने वाले ये अप्रत्यक्ष प्रयास कोई संयोग नहीं बल्कि सवर्ण एकाधिकार तथा आरक्षण से भय का परिणाम हैं। दलितों के आरक्षण से वंचित हिस्से के उत्थान में असल बाधक हैं अपर्याप्त ढांचागत सुधार। इन वर्गों तक शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार और अन्य कल्याणकारी सरकारी योजनाओं का लाभ मुश्किल से पहुँच पाता है। ये जीवनभर मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ही संघर्षरत रहते हैं। ऐसे में दलितों के नौकरी-प्राप्त समुदायों को आरक्षण सूची से हटाने पर भी इनकी स्थिति तो करीब करीब जस की तस रहने वाली है, परन्तु, इससे दलितों की सरकारी सेवाओं में भागीदारी ज़रूर और भी कम हो जाएगी और परिणामस्वरूप, सवर्णों का दमनकारी एकाधिकार और भी प्रबल हो जायेगा।
लेखक कैलाश जीनगर दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में असि. प्रोफेसर हैं। उनसे संपर्क- 9001730221 पर हो सकता है।  

आपका यूं जाना एक अंतहीन पीड़ा से भर गया: अलविदा कैलाश जी, अलविदा मित्र

– डॉ. पूनम तुषामड़ अभी हम 6 जून को सम्यक प्रकाशन के कर्मठ और जुझारू प्रकाशक शांति स्वरुप बौद्ध जी की आकस्मिक मृत्यु के शोक से उबर भी नहीं पाए थे कि 15 जून की दोपहर एक बजे हमारे अभिन्न मित्र कदम प्रकाशन के प्रकाशक, कदम पत्रिका के संपादक एवं एक जिंदादिल, कर्मठ साहित्यकार कैलाश चंद चौहान के गुजर जाने की खबर आई। यह खबर भीतर तक हिला गई, एक अंतहीन पीड़ा से भर गई। उनकी मृत्यु हार्ट अटैक से हो गई। मेरा कैलाश जी से परिचय सन् 2004 में पहली बार हुआ। तब से ही हम वैचारिक रूप से बयान पत्रिका के संपादन को लेकर मोहनदास नेमिसराय जी के साथ सक्रिय रूप में काम करने लगे थे। वे सदैव अपने सभी मित्रों की बात को बड़ी सहजता से सुनते थे और जो बात उन्हें सही नहीं लगती थी तो स्पष्ट रूप से उसपर अपनी असहमति भी ज़ाहिर कर देते थे। लेकिन सहमति असहमतियों के बीच कभी भी किसी प्रकार का मन मुटाव वे किसी से नहीं रखते थे। कैलाश बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। सामूहिक परिवार की आजीविका चलाने की जिम्मेदारी, बच्चों की शिक्षा दीक्षा के तमाम खर्चों का वहन करते हुए उन्होंने आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक दवाओं का प्रयोग का कोर्स भी किया। वे अपने आस-पड़ोस के जरुरतमंद लोगों को फ्री में दवाएं देते थे, अनेक मरीज़ उनकी इन सेवाओं का लाभ भी उठा चुके थे। उन्होंने अपने बच्चो को भी ये सभी कार्य सिखाए। कैलाश जी एक जगह रुकने वाले इंसान नहीं थे। समय के बदलाव और साहित्यिक अभिरुचि ने उन्हें प्रकाशन के कार्य की और उन्मुख किया। जिसका पहला सफल परिणाम ‘कदम’ पत्रिका के प्रकाशन के रूप में सामने आया, जिससे उत्साहित हो कर उन्होंने पुस्तक प्रकाशन के लिए ‘कदम प्रकाशन’ प्रारम्भ किया। जिसे अपने अथक प्रयासों और आत्मविश्वास के बल पर बहुत कम समय में खड़ा भी कर दिखाया। कदम प्रकाशन का स्टॉल इस बार के अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेले में काफी चर्चा में रहा। पुस्तक मेले के दौरान ही उन्होंने ‘कदम लाइव’ के नाम से एक यु-ट्यूब चैनल भी बनाया, जिस पर दलित आदिवासी एवं अल्पसंख्यक वर्ग से आने वाली कई जानी मानी साहित्यिक हस्तियों के साक्षात्कार भी लिए गए। अनथक कार्य करने के कारण ही कुछ समय से वो खुद पर ध्यान नहीं दे रहे थे। कैलाश जी एक सरल सीधे व्यक्तित्व के धनी इंसान थे। वे बहुत साहित्य पढ़ते थे। वे कहने से ज्यादा करने में विश्वास रखने वाले लोगों में से थे। उन्होंने कहानियों से अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की और बाद में वे दलित साहित्य में एक उपन्यासकार के रूप में चर्चित हुए, जिनमें सबसे पहला उपन्यास ‘सुबह के लिए’ था, जो पाठकों में बेहद चर्चित रहा। उसके बाद, ‘भंवर’ तथा ‘विद्रोह’  प्रकाशित हुए। इन तीनों ही उपन्यासों पर कई शिक्षण संस्थानों में शोध हो रहे हैं।  कैलाश जी से हमारा सालों का साथ रहा है। आज जो जिस कैलाश चंद चौहान को आप और हम जानते हैं, उनका जीवन बचपन से ही बेहद कठिन स्थितियों में बीता। वे अक्सर बात करते-करते अपने अनुभव बताने लगते थे। वे बताते थे कि किस तरह वे दोनों भाई बचपन में अपनी माँ के साथ मैला उठाने, सफाई करने जाते थे। किन्तु उनकी माँ के रोबीले व्यक्तित्व के कारण उन्हें कोई बोलने का साहस नहीं करता था। दोनों भाई बहुत कम उम्र में ही गोल मार्केट के आस-पास दोपहरी में लोगों को भाग-भाग कर पानी बेचा करते थे। अन्धविश्वास इतना था कि घर में पिता की बीमारी को देवी का प्रकोप मानकर दिन-रात होने वाली पूजा उन्होंने देखी। दरअसल उनके पिता मानसिक बीमारी से पीड़ित थे। घोर गरीबी और मानसिक रोग से पीड़ित पिता की बीमारी का सही इलाज न करा पाने का दुःख उन्हें सदैव रहा। घर में पूरी रात डेरु और नगाड़े बजते थे। इसका कैलाश जी पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे हनुमान के भक्त हो गए। अंधविश्वास के कारण टोना टोटकों और गनडे-ताबीज आदि में उनका विशवास इतना हो गया की वे अपने आपको लोगों का ‘भूत’ उतारने वाले ‘भगत’ समझने लगे। लेकिन एक संगठन ‘दिशा’ के संपर्क में आने से उनकी जिंदगी बदल गई। वे अक्सर कहा करते थे कि ‘काश! दिशा संगठन वालों के संपर्क में पहले आ जाते। दरअसल ‘दिशा संगठन के अंजलि और सुभाष गाताड़े उन दिनों दलित बस्तियों में जा-जा कर लोगों के बीच में जनजागृति की बातें करते थे। अंधविश्वास और पाखंड के बारे में लोगों को समझाते थे। कैलाश जी पर धीरे धीरे उनकी बातों का प्रभाव हुआ और एक दिन उन्होंने अपने घर में एलान कर दिया कि आज से घर में किसी तरह का पूजा-पाठ और अंधविश्वास का काम नहीं होगा। उस दिन से कैलाश जी के घर में भगत सिंह सहित बाकी क्रांतिकारियों की बातें और चर्चाएं होने लगी। कैलाश जी बताते थे कि कैलाश जी की माता उनके घर में आने वाले बुद्धिजीवियों की बातें बड़े ध्यान से सुनती थी। उनकी माँ ने एक दिन कैलाश जी से कहा था “सही बात कहते तेरे दोस्त, कुछ नहीं रखा इस धोक पूजा में। तेरे पिता के पीछे कितनी पूजा करवाई, धरम करम करा, कुछ न हुआ ..बस्स! अब से कुछ नहीं करेंगे, जो होगा देखी जाएगी।” वे कहते थे कि पिता को खो देने के बाद माँ ने बड़े ही साहस से हर काम में हमारा साथ दिया कभी विरोध नहीं किया। उन्होंने अनपढ़ होते हुए भी कोशिश की कि वे सभी पुरानी परम्पराओं को तोड़ेंगी और हमारी शादी गाँव में की। और साफ़ कह दिया कि मेरी बहुएं किसी से पर्दा न करेंगी। कैलाश जी माँ के इस फैसले और उसके बाद परिवार वालों के विरोध को बताते हुए अक्सर माँ के साहस से अभिभूत नज़र आते थे। घर में बड़ा होने के कारण परिवार की जिम्मेदारियों ने उन्हें असमय बड़ा बना दिया था। वे अपने बारे में कुछ भी बड़ी सहजता से बता देते थे। फिर चाहे माँ के साथ सफाई का काम हो, पानी बेचने का, वाशिंग पावडर बनाना, परचून की दुकान, प्रॉपर्टी डीलिंग साथ-साथ ओपन से जैसे तैसे बारहवीं पास की। बी ए में एडमिशन लिया, हालांकि ग्रेजुएशन पूरी नहीं कर सके। साथ में कंप्यूटर मैकैनिक का काम सीख लिया, फिर कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की दुकान में काम किया। मालिक ने कैलाश जी की ईमानदारी देख कर उन्हें वह दुकान सौंप दी, किन्तु उन्ही दिनों कैलाश जी को दुकान के साथ-साथ दुकान पर आने वाली कुछ पत्रिकाओं को पढ़ने का शौक हो गया। ये पत्रिकाएं सरिता, मुक्ता, गृह शोभा थी। इनमें आने वाली कहानियों से प्रेरित हो कर उन्होंने कहानियां लिखनी शुरू की, जो उन्होंने सरिता पत्रिका जो कि उन दिनों खासी चर्चित थी में अपनी कहानी ‘गाँव कि दाई’ भेजी, जो संपादक को पसंद आई और उसने छाप दी। इसके पश्चात् कैलाश जी कि रूचि लेखन की और हुई, फिर उन्होंने नियमित रूप से सरिता में अपने लेख और कहानियां भेजी जो छपती रही। फिर इसी दौरान उन्होंने अन्य साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना और उनमें लिखना प्रारम्भ किया, जिसके कारण उनकी एक साहित्यिक पहचान बनी। कथादेश, हंस, बयान, युद्धरत आम आदमी आदि अनेक पत्रिकाओं में उनके लेख और कहानियां प्रकाशित होने लगे। परिवार की आजीविका सुचारु रूप से चलती रहे इसके लिए ऑन लाइन बिज़नेस शुरू कर दिया था। जो कोरोना महामारी से पहले अच्छा चल निकला था। किन्तु जैसे-जैसे लॉक डाउन बढ़ा बिज़नेस में भी फर्क पड़ने लग गया। इन दिनों वे कहते थे कि पहले जैसा काम नहीं है। पिछले कुछ समय से अस्वस्थ रहने लगे थे, किन्तु न तो सामाजिक प्रतिबद्धता कम हुई थी और न काम करने की गति। बस अपने विषय में स्वयं कभी किसी को कुछ नहीं कहते थे। उनसे आत्मीयता का रिश्ता ऐसा था कि हम उनकी कई बातों को उनके बिना कहे ही समझ जाते थे, और वे हमारी। कैलाश जी और उनके परिवार के साथ मेरा सम्बंध घरेलु था। कम्प्यूटर की छोटी छोटी समस्याओं से लेकर कदम के कामों तक, हमारी अनेक मुलाकातें होती थी और साहित्यिक चर्चाएं भी। कभी मैं बेहद मायूस होती तो वे अपने ही अनोखे अंदाज़ में कुछ ऐसा कह देते की मैं हंस पड़ती और एक क्षण में वे सब भुला देते। ऐसे दोस्त ऐसी अच्छे सुलझे सहज इंसान दुनिया में बेहद कम होते हैं जो बिलकुल ज़मीं से उठकर वो मुकाम हांसिल करते हैं जो दूसरो के लिए प्रेरणा बने। अनेक प्रतिभाओं के धनी, हरफन मौला इंसान हमारे अभिन्न मित्र कैलाश जी, आप हमारी यादों में सदैव रहेंगे।
 डॉ. पूनम तुषामड़ एक लेखिका हैं। कैलाश चंद चौहान और कदम प्रकाशन से जुड़ी हैं।