महाराष्ट्रः दलित पैंथर ने खोला सरकार के खिलाफ मोर्चा

0

 महाराष्ट्र के पुणे में भारत के दलितों के जुझारू सामाजिक संगठन ‘दलित पैंथर’ ने गरीबों के हक में एक बार फिर आवाज बुलंद की है। राज्य में बिजली बिलों की जबरन वसूली के खिलाफ 15 मार्च को पुणे के जिला अधिकारी कार्यालय में विरोध प्रदर्शन किया गया। गरीब दलित परिवारों की शिकायत पर कार्यवाही करते हुए दलित पैंथर ने यह कदम उठाया है। बीते कई महीनों में गैस, पेट्रोल और डीजल के दाम में भारी वृद्धि हुई है और महाराष्ट्र में बिजली उपभोक्ताओं को महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी लिमिटेड(एमएसईडीसीएल) द्वारा लॉकडाउन के बहाने अतिरिक्त बिजली बिल दिए गए हैं। एमएसईईसीएल ने कहा है कि अगर वे बिल नहीं भरेंगे तो उनकी बिजली काट दी जाएगी। इस मुद्दे पर बहुजन समाज के गरीब परिवार दलित पैंथर ऑफ इंडिया ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बापूसाहेब भोसले के नेतृत्व में प्रदेश व्यापी जन आंदोलन किया है। उन्होंने एमएसईईसीएल के कार्यों की निंदा की है। उन्होंने कंपनी के इस फैसले को किसान और आम आदमी के साथ अन्याय कहा है। इस प्रकार महाराष्ट्र में गरीब दलितों की समस्याओं पर जन आंदोलन की एक नई भूमिका तैयार होती नजर आ रही है। गौरतलब है कि किसानों के आंदोलन पर पहले से ही एक आंदोलन चल रहा है। हाल ही में बैंक कर्मचारियों ने बैंकों के निजीकरण के विरोध में हड़ताल का आयोजन किया है। ऐसे में महाराष्ट्र राज्य में बिजली के मुद्दे पर दलित पैंथर का सक्रिय होना बहुजन समाज के हितों से जुड़ी राजनीति की दिशा में एक नए मुद्दे का संकेत करता है।

मा. कांशीराम जयंती पर पैतृक गांव में ‘मिशन जय भीम’ ने किया प्रतिमा का अनावरण

0

बहुजन समाज के नायक मान्यवर कांशीराम की जयंती पर उनके पैतृक गांव ख्वासपुर में प्रतिमा का अनावरण किया गया। मिशन जय भीम के राष्ट्रीय संरक्षक राजेन्द्र पाल गौतम जी ने ख़्वासपुर में साहब कांशीराम जी की प्रतिमा का अनावरण किया। इसकी तैयारी काफी पहले से चल रही थी। राजेन्द्र पाल गौतम सुबह अपने काफिले के साथ ख्वासपुर के लिए निकले, जहां पहुंच कर उन्होंने प्रतिमा का अनावरण किया। इस मौेके पर राजेन्द्र पाल गौतम ने कहा कि वो चार-पांच महीने पहले मान्यवर कांशीराम जी के गांव आए थे। तब वहां मान्वयर के पहचान की कोई चीज मौजूद नहीं होने से उन्हें निराशा हुई थी। बाहर से बिल्कुल पता नहीं चल पा रहा था कि यह मान्यवर कांशीराम जी का गांव है। तब उन्होंने वहां के सरपंच मनप्रीत सिंह (मन्नी), कांशीराम जी के परिवार के लोग और गांव वालों से बात की, तब जाकर मान्यवर कांशीराम के गांव में उनकी प्रतिमा बनाने का रास्ता साफ हुआ। गांव के सरपंच और गांव वालों ने इसके लिए जमीन भी मुहैया करवाई।

इस दौरान एक कार्यक्रम का भी आयोजन किया गया, जिसमें गांव के तमाम वर्गों के लोग मौजूद रहे। सबने मिशन जय भीम और उसके संरक्षक राजेन्द्र पाल गौतम के इस प्रयास की सराहना की। गौरतलब है कि राजेन्द्र पाल गौतम दिल्ली सरकार में समाजिक न्याय मंत्री भी हैं।

कांशीराम की जयंती पर यूपी चुनाव को लेकर मायावती का बड़ा ऐलान

0

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम की जयंती के मौके पर बसपा अध्यक्ष मायावती ने बड़ी घोषणा की है। इस मौके पर लखनऊ में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में बसपा प्रमुख ने यूपी चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान किया। उन्होंने कहा कि बसपा उत्तर प्रदेश की सभी 403 विधानसभा सीटों पर भी पूरे दम के साथ अकेले चुनाव लड़ेगी और अच्छे परिणाम देगी। साथ ही केरल, पश्चिम बंगाल, पुडुचेरी और तमिलनाडु में भी अपने बूते अकेले ही चुनाव लड़ने की बात कही। उन्होंने साफ किया कि हमारी पार्टी इन चार राज्यों में किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी। गठबंधन न करने का तर्क देते हुए बसपा प्रमुख ने कहा कि बसपा से गठबंधन करने पर हमेशा दूसरे दलों को लाभ होता है, इसलिए हम किसी से गठबंधन नहीं करेंगे। हम चुनाव को लेकर अंदर ही अंदर काम कर रहे हैं। हम किसी से ज्यादा रणनीति का खुलासा नहीं करते।

किसान आंदोलन पर एक बार फिर से अपनी बात दोहराते हुए बहनजी ने कहा कि, जब देश के किसान केंद्र सरकार के कृषि कानूनों से सहमत नहीं हैं तो केंद्र सरकार को कानूनों को वापस लेना चाहिए। जिन किसानों की इस आंदोलन में मृत्यु हुई है उनके परिवारों को केंद्र और राज्य सरकारों को उचित आर्थिक सहायता और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देनी चाहिए। अपने प्रेस कांफ्रेंस में बसपा प्रमुख ने उत्तर प्रदेश में हो रहे एनकाउंटर को लेकर योगी सरकार और यूपी पुलिस की कार्यशैली पर निशाना साधा। उन्होंने आरोप लगाया कि UP पुलिस के एनकाउंटर में ज्यादातर व्यक्तिगत द्वेष की बात सामने आई है। इसके अलावा पुलिस प्रदेश में जबरन लोगों के घर ढहाने में तुली हुई है। बावजूद इसके सरकार द्वारा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं व समर्थकों से कहा कि विरोधी दलों के साम, दाम, दंड और भेद के हथकंडे से सावधान रहें। पार्टी को चुनाव में अच्छी सफलता दिलाकर बसपा मूवमेंट को आगे बढ़ाएं। यही पार्टी संस्थापक कांशीराम को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

मान्यवर कांशीराम का वो सपना जो अधूरा रह गया

 आज कांशीराम साहब का जन्मदिन है जो कि भारत के शोषित वंचित समाज के लिए एक उत्सव का दिन है। कांशीराम साहब अपने जमाने के करिश्माई नेता थे जिन्होंने पहली बार हजारों साल से शोषित वंचित समाज को उनकी सांस्कृतिक और राजनीतिक ताकत का एहसास कराया था। उनका मानना था कि राजनीतिक शक्ति असल में सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति की परछाई होती है। इस बात को वो बार-बार सिद्ध करते थे और नए-नए शब्दों में व्यक्त करते हुए कहते थे कि ‘जिस समाज में गैर राजनीतिक जोड़े मजबूत नहीं होती वह अपनी राजनीति भी नहीं चला सकता’। यह बात भारत के ओबीसी दलितों और आदिवासियों के लिए बिल्कुल सही बात है। यह बात कई अर्थों में महिलाओं पर भी लागू होती हैं। महिलाएं इस देश में ही नहीं दुनिया भर की 50% आबादी का निर्माण करती हैं। इसके बावजूद पूरी दुनिया में महिलाएं पुरुषों की पितृसत्ता और ईश्वरवादी संस्कृति के अधीन है।

इसलिए महिलाओं की अपनी राजनीति अपनी समाज नीति अपना साहित्य अपना अलग सौंदर्यशास्त्र अभी तक निर्मित नहीं हो पाया है। पूरी दुनिया में महिलाओं की इस स्थिति से भारत के दलितों ओबीसी और आदिवासियों की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। जिस तरह महिलाओं का सोचने समझने का ढंग पुरुषों के द्वारा तय किया जाता है, उसी तरह भारत के दलितों ओबीसी आदिवासियों के सोचने समझने का ढंग भी ऊंची जाति के हिंदुओं और ब्राह्मणों द्वारा जारी किया जाता है। भारत के दलित, ओबीसी और आदिवासी अपनी मूल धार्मिक सामाजिक विरासत को नहीं पहचानते हैं इसीलिए वे अपने पूर्वजों के दमन का इतिहास नहीं जानते। इसीलिए वे भविष्य में अपने लिए अच्छे या बुरे की पहचान भी नहीं कर पाते हैं।

बहुजन समाज (अर्थात ओबीसी, दलित, आदिवासी एवं धार्मिक अल्पसंख्यक) के लिए अच्छे या बुरे की पहचान करने में कांशीराम साहब बहुत माहिर थे। वे जानते थे कि सदियों से इन बहुजनों की वास्तविक समस्या धार्मिक और सामाजिक समस्या रही है। इसीलिए उन्होंने एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का निर्माण करने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की दिशा में पहले कदम उठाए थे। कांशीराम साहब जिस राजनीतिक क्रांति का नक्शा बना रहे थे वह असल में सामाजिक क्रांति, संस्कृति क्रांति से होकर गुजरती थी। लेकिन दुर्भाग्य से उनके जाने के बाद सामाजिक और सांस्कृतिक और धार्मिक बदलाव का कार्य राजनैतिक कार्य की तुलना में पीछे रह गया। और इसी बात का दुष्परिणाम हम देखते हैं कि उत्तर भारत में बहुजन आंदोलन सिर्फ राजनीति तक सीमित रह गया है। लेकिन इस असफलता के बावजूद कांशीराम साहब का राजनीतिक मॉडल काफी हद तक सफल रहा और उस मॉडल ने भारत के बहुजनों को पहली बार उनकी असली ताकत का एहसास कराया।

करिश्माई कांशीराम पुस्तक आर्डर करने के लिए यहां क्लिक करें 

सदियों से शोषित एवं वंचित बहुजनो के बीच एक नई क्रांति चेतना और नई तर्कसंगत विचार प्रणाली का लगातार प्रचार करना कांशीराम साहब के लिए पहली प्राथमिकता थी। वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बेनकाब करने के लिए हर मंच से हर संभव भाषा और शैली में बात करते थे। वे अपने मंचों से रोजमर्रा की जीवन की घटनाओ, कहावतो, मुहावरों, किस्से कहानियां इत्यादि के जरिए बात करते हुए लोगों के मन में प्रवेश कर जाते थे। अपने दौर में उन्होंने जिस महान संगठन का और महान नेतृत्व का निर्माण किया उसने बहुत दूर तक बहुजनों में सामाजिक राजनीतिक चेतना की मशाल जलाई।

कांशीराम साहब ने ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लाइज फेडरेशन अर्थात बामसेफ का निर्माण किया, इसके बाद दलित शोषित समाज संघर्ष समिति अर्थात DS4 का निर्माण किया, बाद में बहुजन समाज पार्टी का निर्माण हुआ जिसने भारत की राजनीति को बदलकर रख दिया। इन संस्थाओं के कामों को ठीक से देखें तो पता चलता है कि कांशीराम साहब एक बड़ी राजनीतिक शुरुआत करने के पहले सामाजिक व सांस्कृतिक शुरुआत के लिए कदम बढ़ा रहे थे। बामसेफ और DS4 ने बहुजन समाज को जागरूक करने के लिए और इकट्ठा करने के लिए अपने अपने तौर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बहुजन समाज पार्टी का निर्माण करने के बाद उन्होंने स्वयं यह बात कही थी कि बहुजन समाज पार्टी का मकसद प्रयासों को संगठित करना है। इसके अलावा बामसेफ और DS4 का कार्य सामाजिक व सांस्कृतिक दिशा में होगा।

 बामसेफ की कार्यप्रणाली में अगर गौर से झांककर देखें तो हमें कुछ नई बातें पता चलती हैं। बामसेफ ने नए जमाने के हिसाब से नई भाषा शैली में समाज तक पहुंचने की कोशिश की। यह प्रयास और यह समाज में जागृति पैदा करने का यह एकदम नया मॉडल था। इस मॉडल पर कांशीराम साहब और उनके मित्र डीके खापर्डे साहब की क्रांति चेतना की गहरी छाप थी। बामसेफ ने बहुजन समाज में नई सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति चेतना फैलाने के लिए बड़े पैमाने पर नए साहित्य का निर्माण किया। इस नए बहुजन साहित्य की विचारधारा फूले अंबेडकरी विचारधारा पर आधारित थी।

कांशीराम साहब ने शोषित समाज को शोषण से मुक्त होने के लिए जो सबसे बड़ा हथियार दिया वो राजनीतिक नहीं था। इस बात को हमें ठीक से समझना चाहिए। उन्होंने राजनीतिक बदलाव की भूमिका का निर्माण करने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श को बदलने की जरूरत पर जोर दिया था। इसीलिए बामसेफ की बैठकों में वे राजनीतिक भाषण और बातचीत के साथ-साथ पोस्टर, बैनर, गीत संगीत, कविता, नृत्य, लोकगीत, लोक नृत्य इत्यादि का आयोजन करवाते थे। इस तरह ना सिर्फ बड़ी संख्या में आम आदमी बामसेफ से जुड़ते थे, बल्कि वे सरल भाषा में और मनोरंजक शैली में फुले अंबेडकर विचारधारा को आत्मसात भी करते थे। उन्होंने एक चलता फिरता अंबेडकरी मेला भी शुरू किया था। इसके जरिए बाबासाहेब आंबेडकर के जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव पर रोशनी डाली जाती थी। बाबा साहब की जीवनी के माध्यम से चित्र और गीत संगीत में पिरोकर बहुजनों को जागरूक करने का यह नया ही तरीका था। इसीलिए यह तरीका रूखी सूखी भाषण बाजी से बहुत ज्यादा प्रभावशाली था।

सामाजिक और राजनीतिक चेतना का निर्माण करने के साथ ही उन्होंने शोषण के खिलाफ जमीन पर संघर्ष करने की जरूरत पर भी बल दिया। इसीलिए उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति का निर्माण करके बहुजन समाज के छात्रों युवाओं और महिलाओं के शोषण को रोकने की कोशिश की। इस मंच के द्वारा सामाजिक शोषण और अत्याचार के मुद्दों की शोषण की ब्राह्मणवादी विचारधारा के साथ रखकर व्याख्या की जाती थी। इसके जरिए भारत के ओबीसी दलितों और महिलाओं के शोषण की घटनाओं का विचारधारा के आधार पर खुलासा किया जाता था। यह एक ताकतवर तरीका था जिसने भारत के 85% बहुजन वोटर्स को ब्राह्मणवाद के खिलाफ लामबंद किया। यह अपने आप में एक बड़ी बात थी। समाज के सबसे दबे कुचले लोगों को उनके जीवन की सबसे गहरी समस्याओं का कारण समझाते हुए उसके निवारण के लिए खड़ा करना कोई छोटी बात नहीं है। दलित बहुजन समाज के लिए ऐसी रणनीति की कल्पना करना साहब कांशीराम की सामाजिक राजनीतिक सूझबूझ का ही नतीजा था।

सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के केंद्र में धर्म की सबसे बड़ी भूमिका होती है। इसीलिए साहब कांशीराम धर्म की दिशा में काम करने के लिए भी पूरी तरह तैयार थे। बाबासाहब अंबेडकर के बताए रास्ते पर चलते हुए वे भी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बौद्ध धर्म अपना लेना चाहते थे। इस सिलसिले में सन् 2003 में कांशीराम साहब ने घोषणा की थी कि वह सन् 2006 में अपनी राजनीतिक उत्तराधिकारी सुश्री मायावती के साथ बौद्ध धर्म अपना लेंगे। सन 2006 में बाबासाहेब आंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के 100 साल पूरे हो रहे थे। इस समय खुद बौद्ध धर्म अपनाने का उनका निर्णय भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए एक बड़ी घोषणा थी। उन्होंने यह भी दावा किया था कि वो अकेले ही उत्तर भारत के तीन करोड़ बहुजन लोगों को भी बौद्ध धर्म में दीक्षित करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य से यह संभव नहीं हो सका और इसी साल कांशीराम साहब दुनिया छोड़ गए।

कांशीराम साहब द्वारा बताया हुआ यह बड़ा कदम कभी नहीं उठाया जा सका। बाद में जिस तरीके से बहुजन राजनीति आगे बढ़ी उसमें किसी अन्य नेता में इतना साहस नहीं था कि वह इतने बड़े पैमाने पर धर्मांतरण की कोशिश करें। कांशीराम साहब के जाने के बाद ना केवल धार्मिक क्रांति की कोशिशें ढीली पड़ गई बल्कि राजनीति का अवसरवाद ने बहुजन राजनीति को ही खोखला बना दिया। अब बहुजन राजनीति के पास न अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ें बचीं हैं और न राजनीतिक ताकत बची है। इस पतन के बाद सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के उपकरणों का निर्माण करने की चेतना भी धीमी पड़ गई है। इन सब बातों ने कांशीराम साहब के जीवन भर की कमाई को बहुत कमजोर कर दिया। आज भी अधिकतर बहुजन युवा बड़े बदलाव की बात करते हैं तो उस बदलाव की प्रस्तावना केवल राजनीति तक ही सीमित रह जाती है। भारत की ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के युवा धार्मिक सामाजिक बदलाव के जरिए व्यवस्था परिवर्तन की बात समझते ही नहीं है।

वहीं दूसरी तरफ देखें तो ब्राह्मणवादी विचारधारा ने इन्हें युवाओं के दिमाग में घुसकर सबसे पहले धार्मिक और सामाजिक बदलाव साधा है उसके बाद अपनी ब्राह्मणवादी राजनीति को मजबूत किया है। भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के युवाओं सहित भारत के अल्पसंख्यकों को यह बात बहुत गहराई से समझनी चाहिए। कांशीराम साहब ने बहुजन समाज की गैर राजनीतिक जड़ों को मजबूत करने के लिए जो शुरुआत की थी उन्हें अब पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ाना होगा। ब्राह्मणवादी ताकतों की सफलता से शिक्षा लेना हमारी पहली आवश्यकता है। ब्राह्मणवादी ताकतें इसलिए सफल होती जा रही हैं क्योंकि उन्होंने धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव को राजनीतिक बदलाव से पहले लागू किया। आज गली गली में भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के युवा एक धर्म विशेष के मंदिर निर्माण के मुद्दे पर उत्तेजित होकर घूमा करते हैं। तरह तरह की यात्राओं जगराते और पंडालों में गीत और संगीत के आयोजनों में नाचते रहते हैं। इस तरह उनके अपने दिमाग में अपने पूर्वजों के शत्रुओं का धर्म गहराई से जड़े जमा चुका है। इसीलिए ब्राह्मणवादी राजनीति भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की ताकत से इतनी मजबूत होती जा रही है।

साहब कांशीराम इस बात को बहुत अच्छे से जानते थे, उन्होंने बाबा साहब के साहित्य का अध्ययन करते हुए इस बात को समय पर समझ लिया था। वे जानते थे कि ब्राह्मणवादी धर्म और राजनीतिक शक्तियां ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति के युवाओं के सहयोग बिना आगे नहीं बढ़ सकती। वे अपने समय में इन बहुजन युवाओं को ब्राह्मण धर्म की चपेट में आकर अपनी ही कौम के साथ गद्दारी करते हुए देख रहे थे। ना केवल शासन-प्रशासन में बल्कि जीवन के हर आयाम में इस तरह की गद्दारी को उन्होंने  खूब पहचाना था। इसीलिए उन्होंने चमचा युग नाम की एक छोटी सी पुस्तक में इस पूरे षड्यंत्र को बहुत बारीकी से बेनकाब किया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि जिस तरह बहुजन समाज बाबासाहेब आंबेडकर के साहित्य को नहीं पढ़ पाया है, उसी तरह साहब कांशीराम के विचारों से भी बहुजन समाज ठीक से परिचित नहीं हुआ है।

आज कांशीराम साहब के जन्मदिन के पवित्र अवसर पर हम सब को संकल्प लेना चाहिए कि हम कांशीराम साहब की विचारधारा को आगे बढ़ाएंगे। बहुजन समाज को यह बात गहराई से समझने चाहिए कि जब तक फुले अंबेडकर विचारधारा और कांशीराम साहब की नसीहत को नहीं अपनाया जाएगा तब तक गांव गांव गली मोहल्ला में बहुजनों का शोषण होता रहेगा। शोषण से मुक्ति के लिए राजनीति एक बड़ा हथियार है लेकिन राजनीति का निर्माण धार्मिक सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से ही हो सकता है। इसलिए सीधे-सीधे राजनीति में अपनी ताकत और दिमाग लगाने से बेहतर है कि पहले समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक बदलाव लाया जाए। जब लोगों की सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना बदलती है तब राजनीतिक चेतना अपने आप बदल जाती है। यही बाबासाहेब आंबेडकर का अंतिम निर्णय था। यही कांशीराम साहब का भी अंतिम निर्णय था। अब हमें चाहिए कि हम बाबा साहब अंबेडकर और कांशीराम साहब के अंतिम निर्णय को अपना पहला निर्णय बनाएं और नई सामाजिक धार्मिक क्रांति की मशाल जलाएं। देखना होगा कि बहुजन समाज का कौन सा नया कांशीराम सामने आकर मान्वयर कांशीराम के तीन करोड़ बहुजनों को बौद्ध बनाने के सपने को पूरा करेगा।

मान्यवर कांशीराम द्वारा 25 वर्ष पहले उठाए गए कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न

 सर्वप्रथम देश व विदेश में रह रहे बहुजनों को मान्यवर कांशीराम की 87वीं जयंती पर मंगल कामनाएं। अगर आज मान्यवर जीवित होते तो वह 87 वर्ष के होते। भले ही वह आज हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनके आंदोलन एवं राजनीतिक गणित आज भी हमारे बीच जिंदा हैं। ऐसा ही एक मंत्र उन्होंने 25 वर्ष पहले दिया था जिसे आज अपनी आदरांजली के रूप में यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

दिनांक 17 मार्च 1996 को गाजियाबाद जिले के दादरी कस्बे में मिहिर भोज कॉलेज में बहुजन समाज पार्टी के तत्वाधान में पिछड़ा व धार्मिक अल्पसंख्यक समाज सम्मेलन में उमड़े जन सैलाब के बीच मान्यवर कांशीराम ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए और उनके साथ ही साथ अपनी सरल भाषा में साफ-साफ उत्तर भी दिए। आज बरबस 25 वर्ष बाद भी प्रश्न पुणे शहर में उठने लगे तो लगा वह प्रश्न आज भी उतने ही सार्थक हैं, जितना 25 वर्ष पहले हुआ करते थे। यहां वही प्रश्न इस लेख के माध्यम से याद कर रहा हूं ताकि हम अपने आंदोलन में उत्साह भर सकें और उसको दिशा प्रदान कर सकें।

मान्यवर का पहला प्रश्न था की हमने बहुजन कैसे और क्यों बनाया? क्या 100 में से 85 वोट वाले को हुक्मरान बनने से कोई रोक सकता है? आखिर बहुजन समाज को सत्ता क्यों लेनी चाहिए? क्या बहुजन समाज इंसाफ देने वाला समाज बन सकता है? मनुवादी पार्टियां हुकमाराम कैसे बन जाती हैं? क्या 70 सीटें मिलने पर भी बहुजन समाज पार्टी की सरकार बन सकती है? बहुजन समाज को हुकमाराम बन्ना क्यों जरूरी है? यहां इन उत्तरों में जहां कल्पना थी वही मान्यवर की जन-आंदोलन की घोर तपस्या का गुड अनुभव भी बोल रहा था। हमने बहुजन समाज कैसे और क्यों बनाया का जैसे उत्तर देते हुए मान्यवर कांशीराम ने बताया कि पिछड़ा वर्ग जिन्हें हम ओबीसी भी कहते हैं जनसंख्या के अनुपात में वह सबसे ज्यादा है। परंतु यह समाज 3743 जातियों में विभाजित है जिसकी वजह से यह समाज बहुजन होने के बजाय एलर्जन बन गया है।

इसी तरह सबसे ज्यादा सताया गया, अपमानित किया गया, और पीछे धकेला गया समाज अनुसूचित जाति का है जिसकी संख्या उत्तर प्रदेश में ही 26% के बराबर है। वह भी अपने छोटे-छोटे समूहों में बंटा हुआ है। अगर हम उत्तर प्रदेश में ही देखें तो हमारे मुसलमान भाई जिनका वोट उत्तर प्रदेश में ही 100 में से 17 से 18 फ़ीसदी बैठता है। यह सभी लोग जब तक अलग-अलग रहते हैं तो इनके ऊपर जुल्म एवं अत्याचार होता रहता है, इनको नाना प्रकार से सताया जाता है। अतः इन समाजों पर अन्याय एवं अत्याचार को रोकने के लिए, इन्हें सुरक्षित रखने के लिए, इस तोड़े हुए समाज के लोगों को तिनका तिनका कर, एक-एक करके इकट्ठा करके एक समाज बनाया गया है। और इसीलिए इस समाज का नाम बहुजन रखा गया है। इस की जनसंख्या 100 में से 85 है।

आज से 25 वर्ष पहले मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज को अपनी सरल भाषा में समझाया कि 100 में से 85 वोट रखने वाले समाज को हुक्मरान बनने से कोई भी नहीं रोक सकता। उन्होंने इस गणित को समझाया कि बहुजन समाज जिसके 100 में से 85 वोट हैं और इन्हीं वोटों के आधार पर इस देश की सरकारें बनती हैं और गिरती हैं। और इन्हीं वोटों के आधार पर अन्य समाज के बाहुल्य वाली पार्टियां हुक्मरान बनती हैं। मान्यवर ने विशाल जनसैलाब को संबोधित करते हुए आगे कहा कि इसी उपरोक्त कक्ष की बहुजनों के 100 में से 85 वोट उनके हैं और 100 में से 51 वोट वालों की सरकारे बन जाती हैं। मैं उनको अनेक तरह से इस बात को समझाने का प्रयास कर रहा हूं। इनको यह एहसास कराने के लिए बहुत सारे फार्मूले और तौर-तरीके अपनाएं हैं अगर यह बात बहुजन समाज को समझ में आ जाए तो बहुजन समाज को हुक्मरान बनने से कोई नहीं रोक सकता। मान्यवर ने अपना नारा दोहराते हुए पिछड़े वर्ग की भागीदारी का आवाहन किया। उन्होंने कहा, इसीलिए मैं कहता हूं कि- “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी”।

इसी कड़ी में मान्यवर ने आखिर बहुजन समाज को इंसाफ देने वाला समाज क्यों बनना चाहिए? इस प्रश्न का भी उत्तर दिया। मान्यवर ने बताया आज हम जनतंत्र (democracy) मैं रहते हैं और डेमॉक्रेसी में किसका वोट ज्यादा होता है उसके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। जिसका वोट ज्यादा होता है उसकी बात को नकारा नहीं जाना चाहिए, जिसका वोट ज्यादा होता है उसकी शासन प्रशासन में भागीदारी क्यों नहीं होनी चाहिए? परंतु इस देश में यह सब हो रहा है।

लेकिन बहुजन समाज को अपने आप को संगठित करके, लामबंद करके, बहुजन समाज के लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए और उनके मान सम्मान के लिए, अपने वोट का सही इस्तेमाल करके अपनी सरकार बनानी चाहिए। अगर वे अपनी सरकार बना लेते हैं तो वह बहुजन समाज के हितों की ही रक्षा नहीं करेंगे बल्कि दूसरे समाजों को भी इंसाफ दिलाने लायक बन सकते हैं।

इतना ही नहीं मान्यवर ने 25 वर्ष पहले यह भी समझाया था कि अगर बहुजन समाज को अपने वोटों की संख्या और ताकत का एहसास हो जाए तो कम वोटों वाली पार्टियां कभी भी सरकार नहीं बना पाएंगे और यहां तक हम भाजपा को 1988 वाली स्थिति में पहुंचा सकते हैं। इसके लिए पिछड़े समाज/ बहुजन समाज में गुमराह हुए लोगों को यह समझ में आना चाहिए कि इस समाज में केवल 15 से 17% वोट वाला है और इतने कम वोटों से उसकी पार्टी की सत्ता कभी नहीं बन सकती। वह कभी भी पावर में नहीं आ सकती। मान्यवर ने समझाया था कि जो पार्टियां हमारे मुसलमान भाइयों को भा जा पा का डर दिखा रही हैं जरा उनसे पूछिए कि भाजपा को 2 सीट वाली पार्टी से 88 सीट वाली पार्टी किसने बनाया।

इन्हीं दलों ने तो भाजपा से चुनाव के पहले गठबंधन किया। यहां यह तथ्य बताना जरूरी होगा कि मार्च 2021 के अंदर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भाजपा से चुनावी संघर्ष में आमने सामने दिख रही है। दोनों एक दूसरे को कोस रहे हैं और एक दूसरे को सबसे बड़ा दुश्मन भी बता रहे हैं। परंतु भाजपा को पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले का गठबंधन करके तृणमूल कांग्रेस ने विधानसभा और लोकसभा दोनों ही चुनाव लड़े। और यहां तक कि केंद्र सरकार में भाजपा के साथ गठबंधन कर सरकार में भी ममता बनर्जी मिनिस्टर तक बनी जिससे भाजपा लगातार पश्चिम बंगाल में मजबूत होती रही। लगभग यही हाल बिहार में हुआ है, जहां नीतीश कुमार ने लगातार चुनाव से पहले गठबंधन कर भारतीय जनता पार्टी को मजबूत किया, जिसका खामियाजा आज वह खुद भुगत रहे हैं। यहां पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में बसपा ने भी भाजपा से गठबंधन किया था। लेकिन यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि भाजपा से बसपा ने कभी भी चुनाव के पूर्व गठबंधन नहीं किया। बसपा ने हमेशा अपने दल एवं अपनी विचारधारा पर इलेक्शन लड़ा और उसके बाद उसने भाजपा से गठबंधन किया। और उसमें भी जब तक उसकी विचारधारा लागू होती रही तब तक तो वह सरकार में रही वरना उसके पश्चात उसने सरकार से त्यागपत्र देकर अपनी आत्मनिर्भर छवि को पुनः कायम कर लिया।

इसलिए आज से 25 वर्ष पहले मान्यवर ने अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए बहुजनों को आगाह किया था कि भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, माफिया गर्दी, मनुवादी मीडिया का अगर अंत करना है तो इस देश का संविधान पढ़ना बहुत जरूरी है। मान्यवर ने सत्ता लेने के लिए यह तथ्य भी बताया कि बहुजनों को घबराना नहीं चाहिए। उन्हें अपनी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। उन्होंने कहा कि देश की संसद में 543 सीटें हैं इनमें से मात्र 70 सीट भी जिता कर अगर संसद में भेज दे तो दिल्ली में बहुजनों की सरकार बन सकती है। उत्तर प्रदेश का उदाहरण देते हुए उन्होंने समझाया कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में 425 सीटें हुआ करती थी और वहां पर हमने मात्र 69 सीट जीतकर सरकार बनाई तो क्या हम 70 सीट जीत करके केंद्र में अपनी सरकार नहीं बना सकते?

आज 25 वर्ष बाद भी मान्यवर कांशीराम का वह चुनावी गणित एवं आंदोलन की गहरी समझ उतनी ही सार्थक लगती है, उतनी ही व्यवहारिक दिखती है जितनी कि उस समय लगती थी। अगर बहुजन समाज मान्यवर कि कहीं इन बातों का पुनः अवलोकन कर अपने आप को बहुजन विचारधारा एवं संगठन के झंडे तले संगठित करें तो शायद मान्यवर का केंद्र में सरकार बनाने का अधूरा सपना पूरा हो सकता है। इससे ज्यादा योग्य आदरांजली मान्यवर कांशीराम के लिए और क्या हो सकती है। मान्यवर कांशीराम को उनकी जयंती पर पुनः नमन।

कार्यकर्ताओं की नजर में मान्यवर कांशीराम

लेखक- डॉ. अलख निरंजन एवं अमित कुमार राजनीति को ‘चाबियों की चाबी’ अर्थात् ‘गुरु किल्ली’ कहने वाले मान्यवर कांशीराम अपने जीवन में ही राजनीति के गुरु किल्ली बन गये थे। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों के राजनीतिक परिदृश्य पर कांशीराम का बहुत गहरा प्रभाव है। इसके बाद का दशक भी कांशीराम के प्रभाव से मुक्त नहीं है। भविष्य की राजनीति भी कांशीराम की भूमिका को बड़ी ही गहराई से रेखांकित करेगी। वैसे कांशीराम को उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति के दम पर दलित सत्ता को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। लेकिन भारतीय राजनीति में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध शूद्र क्रांति के प्रणेता के रूप में भी कांशीराम को याद किया जायेगा। वास्तव में कांशीराम बौद्ध श्रमण बहुजन परम्परा के अपने समय के उन्नायक थे। कांशीराम राजनीति में किसी परम्परागत घराने या वैचारिकी के वारिस के तौर पर नहीं आये थे जो उनके समय में प्रभावी भूमिका में रही हो। हालांकि कांशीराम जिस वैचारिकी के वारिस है उसकी जड़ें भारतीय इतिहास में बहुत गहरी हैं लेकिन कांशीराम के समय यह धारा लगभग सूख गयी थी, जिसे कांशीराम ने अपने सूझबूझ, लगन, परिश्रम और त्याग के बल पर पुष्पित-पल्लवित किया। फलस्वरूप यह धारा इतनी विशाल बन गयी कि ब्राह्मणवाद के कई परम्परागत किले धूल-धूसरित हो गये। कांशीराम ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाकर क्रान्ति किया था जिसे ‘कमंडल’ की राजनीति से प्रतिक्रान्ति में बदला जा रहा है।

कांशीराम ने अपनी राजनीतिक यात्रा शून्य से शुरू की थी। प्रारम्भिक दिनों में केवल उनके दो साथी थे एक थे दीनाभाना तथा दूसरे डी.के. खापर्डे। 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के पश्चात कहा जाता है कि इन लोगों ने भी मान्यवर कांशीराम का साथ छोड़ दिया था। लेकिन देखते देखते कांशीराम के पीछे लाखों कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी हो गयी जो अपनी धन-दौलत एवं जीवन, सभी कुछ, कांशीराम पर न्यौछावर करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। सवाल है कि आखिर यह चमत्कार कैसे संभव हुआ। आखिर कांशीराम में ऐसा क्या था जिससे प्रभावित होकर देश के कोने-कोने से लाखों लोग कांशीराम के साथ चलने को तैयार हो गये?

इन कार्यकर्ताओं में हर तरह के लोग थे। कम पढ़े-लिखे लोगों से लेकर स्नातक, परास्नातक एवं पीएच.डी. धारक लोग तक। ये सब कांशीराम के साथ अपना घर परिवार छोड़कर चल पड़े। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से लेकर आई.ए.एस. तक ने आर्थिक सहयोग दिया। कई कर्मचारियों ने अपनी भविष्य निधि से कर्ज लेकर कांशीराम को आर्थिक सहयोग दिया। हजारों कर्मचारियों ने अपनी नौकरी छोड़ दी। साधारण बहुजन जनता ने एक वोट के साथ एक नोट दिया। कई विधानसभाओं में बहुज समाज पार्टी के प्रत्याशी को वोट से ज्यादा नोट मिल जाते थे। इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ मतदाताओं ने एक रूपये से अधिक धन दिया होगा। एक दिलचस्प किस्सा सुनिए। कुशीनगर के पास स्थित एक छोटे से गाँव कोटवा (अनिरुद्धवा) हेतिमपुर निवासी श्री कमला प्रसाद जिनकी उम्र लगभग 90 वर्ष है, अपनी स्मरण शक्ति पर जोर डालते हुए बताते हैं कि एक बार उनके गांव से कांशीराम गुजर रहे थे। गांव के लोगों को पता चला, तो गांव के लोगों ने कांशीराम के काफिले को रोका और आनन-फानन में लगभग एक हजार छः सौ रुपये इकट्ठा कर के कांशीराम को दिया। इस तरह के गहरे प्रेम का कारण पूछने पर श्री कमला प्रसाद बताते हैं कि हम सबको लगने लगा था कि कांशीराम हमारे समाज के मसीहा हैं इनको जितना भी सहयोग किया जाय कम हैं। कमला प्रसाद उन सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जिन्होंने नवम्बर 1956 में कुशीनगर में बाबासाहब का स्वागत किया था तथा माला पहनाया था और मान्यवर कांशीराम को भी सहयोग किया। वे मान्यवर कांशीराम द्वारा निकाले जाने वाले पत्र ‘बहुजन संगठक’ के नियमित पाठक रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कांशीराम का सार्वजनिक जीवन आर्थिक रूप से बहुत खुशहाल था। समाज उनको देता था लेकिन समाज का धन वे पार्टी संगठन निर्माण में ही खर्च कर देते थे अपने ऊपर बहुत कर्म खर्च करते थे। वे अपने लिए कभी कपड़ा नहीं खरीदते थे। कार्यकर्ता ही उनके लिए कपड़ा खरीदते थे। कांशीराम के बहुत पुराने एवं प्रारम्भिक दिनों के सहयोगी, गोरखपुर (उ.प्र.) निवासी श्री. ई.विक्रम प्रसाद, जिन्हें मायावती के प्रथम कार्यकाल में मिनी मुख्यमंत्री कहा जाता था, ने बातचीत में बताया कि मान्यवर कांशीराम के शुरुआती दिन बहुत ही आर्थिक तंगी के रहे हैं। कई दिन भूखे सोने पड़ते थे। किराये के लिए भी पैसे नहीं रहते थे। यहां तक कि साइकिल में हवा भराने के भी पैसे नहीं रहते थे। श्री विक्रम प्रसाद बताते हैं कि एक बार गेस्ट हाउस में मान्यवर साहब रूके थे। उन्होंने स्वयं देखा कि उनकी बनियान फटी हुई थी। श्री विक्रम जी ने मान्यवर साहब को बिना बताये बनियान खरीदकर ला दिया और उनके कमरे में रख दिया। ठंढक लगने पर पांच रूपये की कोट श्मशान के खरीदने की घटना तो बहुतेरों को पता ही है।

कांशीराम का सादा जीवन और मिशन के प्रति लगन के कारण उनसे जो भी मिला उनका होकर रह गया। विक्रम प्रसाद बताते हैं कि उनकी पहली मुलाकात मान्यवर कांशीराम साहब से 1982-83 में हुई थी। उस समय कांशीराम करोल बाग में एक छोटे से कमरे में रहते थे। पहली मुलाकात में ही विक्रम प्रसाद ने पांच सौ रुपये का आर्थिक सहयोग किया था। उसके बाद मान्यवर साहब को निरंतर सहयोग करते रहते थे। विक्रम प्रसाद की आंखें उन दिनों की याद करके आंसुओं से भर जाती हैं। वे रूंधे कंठ से कहते हैं कि हमारी भावना ऐसी थी कि हम मान्यवर को क्या दे दे, लगता था जो हैं हमारे पास सब कुछ दे दें।

गोरखपुर के निवासी रामप्रीत ‘जख्मी’ ने अपना सम्पूर्ण जीवन मान्यवर साहब के मिशन और बहुजन समाज पार्टी के लिए लगा दिया। इन्होंने कई प्रदेशों में बसपा का प्रचार-प्रसार किया तथा कई वर्षों तक संगठन में जिला अध्यक्ष तथा इसके ऊपर की जिम्मेदारियों का भी निर्वाह किया, चुनाव भी लड़े। जख्मी इस समय पैरालाइसिस से पीड़ित हैं तथा मुफलिसी एवं अकेलेपन में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मान्यवर कांशीराम का नाम लेते ही उनके आंखों से आंसुओं की धार निकलने लगती है। वे भावुक होकर पुराने दिनों की यादों को संजोने लगते हैं। रामप्रीत जख्मी ऐसे कार्यकर्ताओं में से हैं जो जमीन पर कांशीराम की विचारधारा का प्रचार प्रसार करते थे। गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक करने का कार्य दुरुह एवं खतरनाक भी था। जान जाने का खतरा बना रहता था। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए जख्मी जी बताते हैं कि गोरखपुर जिले के हरनही गांव में इनका कार्यक्रम लगा हुआ था। इनका कार्यक्रम संगीतमय एवं साज़बाज के साथ रात में होता था। कार्यक्रम में इनके ऊपर गोली चल गयी। ये तो बाल-बाल बच गये लेकिन कुछ लोग घायल हो गये। गोली चलाने वाले भी पकड़ लिये गये। गोली चलाने वाले पुलिस के सिपाही थे जो सादे कपड़े में गांव के ठाकुरों के बुलावे पर आये थे।

एक दूसरी घटना का जिक्र करते हुए जख्मी जी बताते हैं कि वे, मान्यवर कांशीराम के निर्देश पर रांची गये हुए थे। वहां पर उन्होंने आदिवासियों के बीच 10-15 दिन कार्य किया। 10-15 दिनों के बाद एक मीटिंग बुलाई गयी। मीटिंग में जख्मी जी खड़े होकर भाषण दे रहे थे। उसी समय उनके घुटने पर एक तीर आकर लगी। ये तुरन्त गिर गये। खैर, मीटिंग में उपस्थित लोगों ने इनका अपनी विधि से इलाज किया। आदिवासियों ने अपनी परम्परा के अनुसार उस नौजवान को पकड़ा तथा तीर चलाने का कारण पूछा। नौजवान ने जो कहानी बताई वह खौफ़नाक और ध्यान देने योग्य है। उस नौजवान ने बताया कि एक ब्राह्मण ने उस युवक को बताया था कि यह व्यक्ति (जख्मी जी) तुम्हारे समाज को गुमराह कर रहा है तुम इसे जान से मार दो। वह नौजवान उस समूह का सबसे तेज तर्रार धनुर्धर था। मीटिंग के दिन उस ब्राह्मण ने आदिवासी नौजवान को खूब शराब पिलाई तथा भाषण दे रहे रामप्रीत जख्मी पर तीर चलाने को कहा। नौजवान शराब के नशे में था फिर भी उसे ब्राह्मण की बात पर पूरा भरोसा नहीं था। उस आदिवासी नौजवान को कहीं न कहीं इस बात का एहसास था कि ब्राह्मण झूठ बोल रहा है। इसलिए उसने तीर सीने में न मारकर घुटने में मारा। जिससे ब्राह्मण की बात भी रह जाये और उस आदमी की मृत्यु भी न हो। रामप्रीत जख्मी की तरह ही लाखों नौजवान मान्यवर साहब के मिशन के लिए अपनी जान को जोखिम में डालकर समाज में निकल पड़े थे। रामप्रीत जख्मी की मान्यवर कांशीराम से पहली मुलाकात गोरखपुर में हुई थी। बहुजन समाज पार्टी के तत्कालीन जिला महासचिव रमाशंकर यादव की हत्या बी.डी.ओ. की मिली भगत से ठाकुरों ने कर दी थी। रमाशंकर यादव की हत्या से कांशीराम विचलित हो गये थे तथा पार्टीजनों एवं परिवारजनों से मिलने गोरखपुर आये थे। मान्यवर कांशीराम, रमाशंकर यादव का एक स्मारक गोरखपुर में बनवाना चाहते थे जिसके लिए कार्यकर्ताओं ने सूरजकुंड, गोरखपुर में एक जमीन कांशीराम के नाम खरीदा। लेकिन इस योजना पर अमल नहीं हो सका। अभी भी यह जमीन खाली पड़ी है जो संभवतः कांशीराम के नाम पर एकलौती संपत्ति है। डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव, पी.एच.डी. के छात्र थे तथा गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य करते थे। इनकी पहली मुलाकात गोरखपुर में हुई। कांशीराम एवं ‘बहुजन संगठक’ से उनका परिचय पहले से ही था। पहली ही मुलाकात में डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव, मान्यवर कांशीराम साहब के मुरीद हो गये। वे अपना अध्ययन और अध्यापन छोड़कर कांशीराम के साथ चल दिये। डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव, मान्यवर कांशीराम की बौद्धिक क्षमता, इतिहास दृष्टि एवं राजनीतिक समझ से बहुत प्रभावित थे। डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव बताते हैं कि मान्यवर की इतिहास दृष्टि अलग थी। वे भारत के इतिहास को पांच काल खंडों में विभाजित करते थे। पहला- बुद्धकाल, दूसरा- ब्राह्मण काल, तीसरा- मुगल काल, चौथा- ब्रिटिश काल व पांचवा- संविधान काल। कांशीराम अपने आंदोलन को सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन कहते थे। उनका कहना था कि यदि सामाजिक परिवर्तन हो जायेगा तो सामाजिक न्याय अपने आप स्थापित हो जायेगा। शासन सत्ता अपने हाथ में लेना है जिसके हाथ में राजसत्ता होती है उसके ऊपर अन्याय नहीं होता है, बहन बेटियां भी सुरक्षित रहती हैं। मुट्ठी भर अंग्रेजों के ऊपर कभी अन्याय नहीं हुआ। कांशीराम का व्यक्तित्व बहुत ही सहज और सरल था। कार्यकर्ता प्रचार से जब थके मांदे लौटते थे और मान्यवर के साथ कुछ देर बैठ जाते थे तो सभी की थकान दूर हो जाती थी। मान्यवर कार्यकर्ताओं से बहुत ही आत्मीय संबंध रखते थे। प्रत्येक मीटिंग में कोई न कोई नयी बात कहते थे तथा नया नारा लगवाते थे। श्री जफर अली ‘जिप्पू’ के पिताजी ‘नई दुनिया’ नामक अखबार निकालते थे। इस अखबार में कांशीराम का लेख, कार्यक्रम और भाषण का अंश छपा करता था। इनके पिताजी नौजवान ‘जिप्पू’ को कांशीराम के विषय में बताते थे तथा कहते थे कि यही व्यक्ति हिंदू फासीवाद को भारत में आने से रोक सकता है। कई वर्षों तक गोरखपुर बसपा के जिलाध्यक्ष रहे जफर अली जिप्पू बताते हैं कि कांशीराम से उनकी मुलाकात इलाहाबाद के चुनाव में आस मुहम्मद अंसारी ने कराई थी। तभी से कांशीराम और मेरी घनिष्ठता इतनी बढ़ गयी थी कि मान्यवर कांशीराम जब भी कभी गोरखपुर आते थे, उनके ठहरने का प्रबंध मैं ही करता था। मान्यवर का व्यक्तित्व गजब का था वे कभी घबराते नहीं थे, मनोबल बहुत ऊंचा था। 1989 में गोरखपुर प्रवास के दौरान ही उन पर बम फेंका गया था, पर मान्यवर जरा भी नहीं घबराये। दलितों के विषय में मुसलमानों को जागरूक करते थे। उनका नारा था- दलित मुसलमां करो विचार, कब तक सहोगे अत्याचार। दलित मुसलमां जागा है, अपना हिस्सा मांगा है। जफर अली जिप्पू स्वीकार करते हैं कि हम लोग कांशीराम के आंदोलन से पहले दलितों को भी सवर्ण हिंदू जैसा मानते थे, लेकिन बसपा ने हमारे नजरिये को बदल दिया। मान्यवर साहब कहते थे कि दलितों की बस्तियों में रूको, उनका खाना खाओ तब हकीकत समझ में आयेगी। मंडल कमीशन के लिए बड़ा आंदोलन किया। उन्होंने नारा दिया- मंडल कमीशन लागू करो, वरना कुर्सी खाली करो। एक घटना का जिक्र करते हुए ‘जिप्पू’ जी बताते हैं कि हमने लगभग 10-12 कार्यकर्ताओं के साथ बसपा का प्रचार करने के लिए बंबई जाने का प्रोग्राम बनाया। मान्यवर कांशीराम ने कहा कि ठीक है आ जाओ, ट्रेन का दिन और समय बता देना। जब हमारी ट्रेन मुंबई पहुंची तो हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। मान्यवर साहब स्वयं हम लोगों को रिसीव करने के लिए स्टेशन पर खड़े थे। वे सभी लोगों से मिले तथा स्थानीय कार्यकर्ताओं को होटल तक पहुंचाने के लिए लगा दिया। कुछ देर बाद होटल पहुंच कर भी हालचाल पूछा। उस समय उ.प्र. में बहन मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार बन चुकी थी। भारत के सवर्ण बुद्धिजीवियों की नजर में विकट और अबूझ पहेली लगने वाले कांशीराम अपने कार्यकर्ताओं के लिए जीवन पर्यंत सहज एवं सरल व्यक्तित्व बने रहें। उन्होंने ब्राह्मणवाद के किलों को नेस्तानाबूद करने की न केवल वैचारिकी विकसित की बल्कि उसे जमीन पर उतार कर उसकी व्यहारिकता को भी सिद्ध किया। कांशीराम के बेबाक बोल, निर्भीक व्यक्तित्व, तीक्ष्ण बौद्धिक क्षमता, कार्यकर्ताओं से आत्मीय संबंध जैसे गुणों ने, उनके पीछे लाखों कार्यकर्ताओं की फ़ौज को खड़ा किया।


इस आलेख के लेखक डॉ. अलख निरंजन और अमित कुमार अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े हैं और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में रहते हैं।

जानिए सिरपुर का इतिहास जहां हो रहा है तीन दिन का बौद्ध महोत्सव

1

बौद्ध सभ्यता के ऐतिहासिक धरोहर को समेटे सिरपुर में तीन दिवसीय (13-14-15 मार्च) अंतरराष्ट्रीय बौद्ध महोत्सव का आयोजन हो रहा है। इसमें देश के तमाम हिस्सों से बौद्ध बुद्धिजीवियों का जमावड़ा लग रहा है। इन तीन दिनों के आयोजन में सिरपुर की ऐतिहासिकता और इसके महत्व पर चर्चा होगी।

सिरपुर (Sirpur) भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के महासमुन्द ज़िले की महासमुन्द तहसील में स्थित एक गाँव है। यह महानदी के किनारे बसा हुआ एक ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल है। राजधानी रायपुर से 85 किलोमीटर दूर दक्षिण कोसल की प्राचीन राजधानी माना जाने वाला पुरातात्विक स्थल सिरपुर भारत में अब तक ज्ञात सबसे बड़ा बौद्ध स्थल है। यह स्थल नालंदा के बौद्ध स्थल से भी बड़ा है। यहां अब तक 10 बौद्ध विहार और 10,000 बौद्ध भिक्षुकों को पढ़ाने के पुख्ता प्रमाण के अलावा बौद्ध स्तूप और बौद्ध विद्वान नागार्जुन के सिरपुर आने के प्रमाण मिले हैं।

नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं, जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए। इनमें छह-छह फिट की बुद्ध की मूर्तियां मिली हैं। सिरपुर के बौद्ध विहार दो मंजिलें हैं जबकि नालंदा के विहार एक मंजिला ही हैं। सिरपुर के बौद्ध विहारों में जातक कथाओं का अंकन है और पंचतंत्र की चित्रकथाएं भी अंकित हैं। इसमें से कुछ चित्र तो बुद्ध की किस कथा से संबंधित हैं, इसकी भी जानकारी नहीं मिल पा रही है। सिरपुर में भगवान तथागत बुद्ध के आने के प्रमाण मिले हैं। भगवान तथागत ने यहां चौमासा बिताया है। उनके सिरपुर आगमन की याद को चिरस्थाई बनाने के लिए यहां ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के द्वारा बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया गया था। उस स्तूप के अधिष्ठान को बाद में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में बड़ा किया गया है।

इस अधिष्ठान के पत्थरों में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के अक्षरों में बौद्ध भिक्षुकों के नाम तक खुदे प्राप्त हुए हैं। भगवान बुद्ध के समय गया से लाया गया वटवृक्ष अभी भी अपनी कायांतरित शाखा के साथ बाजार क्षेत्र में विद्यमान है। सिरपुर में उत्खनन में विश्व का सबसे बड़ा सुव्यवस्थित बाजार भी मिला है, जहां से अष्टधातु की मूर्तियां बनाने के कारखाने के प्रमाण मिले हैं। इस कारखाने में धातुओं को गलाने की घरिया और मूर्तियों को बनाने में प्रयुक्त होने वाली धातुओं की ईंटें प्राप्त हुई हैं।

दरअसल सिरपुर का सबसे पहले जिक्र चीनी यात्री व्हेनसांग ने किया था। ईसा पश्चात छठवीं शताब्दी के चीनी यात्री व्हेनसांग ने दक्षिण कोसल की राजधानी का जिक्र करते हुए लिखा है कि वहां सौ संघाराम थे जहां भगवान तथागत बुद्ध के आने की बात कही जाती है और वहां का राजा हिन्दू है वहां सभी धर्मों का समादर होता है। इसी स्थान पर बौद्ध विद्वान नागार्जुन ने एक गुफा में निवास किया था। सिरपुर में महानदी ईशान कोण में मुड़ती है और प्राचीन वास्तुविद मयामत (रावण के ससुर मयदानव) के अनुसार जहां नदी ईशान कोण में मुड़ती है वहां ईश्वर का वास होता है।

छत्तीसगढ़ के पुरातात्विक सलाहकार अरुण कुमार शर्मा ने व्हेनसांग के यात्राा वृतांत के आधार पर खुदाई करते हुए यात्राा वृतांत में उल्लिखित सभी विशेषताएं सिरपुर के उत्खनन में पाई थी। उनका दावा है कि छठी शताब्दी के चीनी यात्री व्हेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में जिस राजधानी का जिक्र किया है वह सिरपुर ही है। व्हेनसांग ने जिस गुफा का उल्लेख अपने यात्रा वृतांत में किया था वह सिरपुर के नजदीक स्थित सिंहवाधुर्वा के पहाड़ की गुफा है, जहां वर्तमान में जनजातियों द्वारा शिवलिंग स्थापित किया गया है और उस स्थान में मेला भी लगता है।

शर्मा ने कहा कि छठी-सातवीं शताब्दी में सिरपुर एक अति विकसित राजधानी थी जहां देश विदेश से व्यापार होता था। इस प्राचीन राजधानी में धातु गलाने के उपकरण, सोने के गहने बनाने की डाई से लेकर अंडर ग्राउंड अन्नागार तक मिले हैं। सिरपुर में विदेश के बंदरगाह की बंदर-ए-मुबारक नाम की सील भी मिली है जिससे पता चलता है कि सिरपुर से विदेशों में महानदी के माध्यम से व्यापार होता था। सिरपुर के पास ही महानदी पर नदी बंदरगाह आज भी विद्यमान है। पहले महानदी में पानी की मात्रा ज्यादा होती थी और उसमें जहाज आया जाया करते थे।

सिरपुर में ढाई हजार लोगों के लिए एक साथ भोजन पकाने की सौ कढ़ाई राजा द्वारा दान किए जाने के उल्लेख वाले शिलालेख भी मिले हैं। सिरपुर में बौद्ध विहारों के अलावा बड़ी संख्या में शिव मंदिर भी मिले हैं। इन शिव मंदिरों की विशेषता यह है कि इनको राजाओं के अलावा विभिन्न समाजों के द्वारा स्थापित किए गए है। विभिन्न समाजों द्वारा बनाए गए इन शिव मंदिरों में समाज के प्रतीक चिन्ह, मंदिरों की सीढिम्यों पर खुदे हुए हैं।

इसके अलावा आयुर्वेदिक दस बिस्तरों वाला अस्पताल, शल्य क्रिया के औजार और हड्डी में धातु की छड़ लगी प्राप्त हुई है। पिछले दस वर्षों से सिरपुर का उत्खनन करने वाले शर्मा ने बताया कि सिरपुर का पतन वहां आए भूकंप और बाढ़ के कारण हुआ था। सातवीं शताब्दी के पश्चात इस क्षेत्र में जबरदस्त भूकंप आया था जिसके कारण पूरा सिरपुर डोलने लगा था इसके साथ ही महानदी का पानी महीनों तक नगर में भरा रहा। उन्होंने कहा कि यही भूकंप और बाढ़ सिरपुर के विनाश का कारण बना। यहां के पुरातात्विक उत्खनन में इस बाढ़ और भूकंप के प्रमाण के रूप में सुरंग टीले के मंदिरों में सीढ़ियों के टेढ़े होने और मंदिरों व भवनों की दीवालों पर पानी के रूकने के साथ बाढ़ के महीन रेत युक्त मिट्टी दीवारों के एक निश्चित दूरी पर जमने के निशान मिलते हैं। खुदाई में मिले अवशेषों से पता चलता है कि 2000 साल पहले सिरपुर सबसे बड़ा बौद्ध स्थल था, यहां महानदी, ओडिसा के रास्ते पानी के जहाज चला करते थे।

सावित्रीबाई फूले स्मृति दिवस पर उनके योगदान को जानिए

आज दस मार्च को सावित्री बाई फुले का स्मृति दिवस है। तमाम लोग क्रांतिज्योति माता सावित्रीबाई फुले को याद कर रहे हैं। यह दिन भारत की महिलाओं और विशेष रूप से दलितों, ओबीसी, और जनजातीय समाज की महिलाओं, मुसलमान महिलाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। भारत के इतिहास में पहली बार किसी स्त्री ने शुद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए स्कूल खोले और उन्हें पढ़ाने के लिए संघर्ष किया। सावित्री बाई जब अपने स्कूल में पढ़ाने जातीं थी तब उस दौर के संस्कारी हिन्दू ब्राह्मण उन पर गोबर, कीचड़, पत्थर और गन्दगी फेकते थे। सड़कों पर और चौराहों पर रोककर उन्हें धमकाते थे।

वे कई बार रोते हुए घर लौटतीं थीं लेकिन उनके पति और महान क्रांतिकारी ज्योतिबा फुले उन्हें हिम्मत बंधाते थे। ये ज्योतिबा ही थे जिन्होंने ये स्कूल खोले थे और एक शुद्र और अछूत तबके से आते हुए भी संघर्ष करके लड़कियों को पढ़ाने का संकल्प लिया। इस दौरान फूले दंपत्ति छोटे छोटे काम करके घर खर्च चलाते थे। एक ब्राह्मणवादी हिन्दू समाज में इन्हें कोई अच्छा रोजगार मिल भी नहीं सकता था। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई ने सब्जियां बेचीं, फूल गुलदस्ते बेचे, कपड़े सिले, रजाइयां सिलकर बेचीं, और ऐसे ही छोटे छोटे अन्य काम किये लेकिन भयानक गरीबी से गुजरते हुए भी उन्होंने भारत का पहला शुद्र बालिका विद्यालय खोला और विधवाओं के निशुल्क प्रसव और बच्चा पालन हेतु आश्रम भी चलाया।

उस दौर के अंधविश्वासी बर्बर हिन्दू समाज में विधवाओं और परित्यक्ताओं को पुनर्विवाह की आजादी नहीं थी। ऐसे में विधवाओं को एक गाय बकरी की तरह घर के एक कोने में पटक दिया जाता था और ब्राह्मण परिवारों में तो उन्हें देखना छूना उनके साथ बात करना भी पाप माना जाता था। अक्सर ऐसी युवा विधवाओं का बलात्कार उनके रिश्तेदार या समाज के लोग ही करते थे, या उन्हें किसी तरह फुसला लेते थे। ऐसे में गर्भवती होने वाली विधवाओं को ब्राह्मण परिवारों सहित अन्य धार्मिक सवर्ण द्विज परिवारों द्वारा घर से बाहर निकाल दिया जाता था।

ऐसी कई विधवाएं आत्महत्या कर लेती थीं। असल में ये बंगाल की सती प्रथा का एक लघु संस्करण था जिसमे स्त्री को पति के मर जाने के बाद खुद भी लाश बन जाने की सलाह दी जाती है। ऐसी आत्महत्याओं और शिशुओं की हत्याओं ने ज्योतिबा और सावित्री बाई को परेशान कर डाला था। आज ये बातें इतिहास से गायब कर दी गईं हैं। तब इन दोनों ने भयानक गरीबी में जीते हुए भी ऐसी विधवाओं के लिए आश्रम खोला और कहा कि अपना बच्चा यहां पैदा करो और न पाल सको तो हमें दे जाओ, हम पालन करेंगे।

फुले दम्पत्ति ने ऐसे ही एक ब्राह्मण विधवा के पुत्र यशवंत को अपने बेटे की तरह पाला था।

इन बातों से अंदाज़ा लगाइये असली राष्ट्रनिर्माता, शिक्षा की देवी और राष्ट्रपिता कौन हैं? उस दौर के धर्म के ठेकेदार और राजे महाराजे, रायबहादुर और धन्नासेठ इस समाज को धर्म, साम्प्रदायिकता और अंधविश्वास में धकेल रहे थे और फुले दम्पत्ति अपनी विपन्नता के बावजूद समाज में आधुनिकता और सभ्यता के बीज बो रहे थे। सावित्रीबाई को डराने धमकाने और अपमानित करने वाले लोग आज राष्ट्रवाद, देशभक्ति और धर्म सिखा रहे हैं। देश की स्त्रियों के रूप में उपलब्ध 50% मानव संसाधन की, और शूद्रों दलितों के रूप में 80% मानव संसाधन की हजारों साल तक हत्या करने वाले लोग आज वसुधैव कुटुंबकम और जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी का पाठ पढ़ा रहे हैं। इन पाखण्डियों का इतिहास उठाकर देखिये आपको भारत के असली नायकों और दुश्मनों का पता चलेगा।

जब जब भी गैर ब्राह्मणवादी नायकों ने ब्राह्मणवाद और हिन्दू ढकोसलों के खिलाफ जाकर कोई नई पहल की है, समाज को नई दिशा देने की कोशिश है तब तब इन नायकों को सताया गया है। बुद्ध, कबीर, फुले, पेरियार, अंबेडकर इत्यादि को खूब सताया गया है। खैर इतना तो हर समाज में होता है लेकिन भारतीय सनातनी इस मामले में एक कदम आगे हैं।भारतीय पोंगा पंडित समाज में बदलाव आ चुकने के बाद एक सनातन खेल दोहराते हैं। वे सामाजिक बदलाव और सुधार के बाद असली नायकों को इतिहास, लोकस्मृति, शास्त्रों पुराणों से गायब कर देते हैं और किसी ब्राह्मण नायक को तरकीब से इन बदलावों का श्रेय दे देते हैं। हजारों पंडितों की फ़ौज हर दौर में नए पुराण और कथा बांचती हुई गांव गांव में घुस जाती है और इतिहास और तथ्यों की हत्या कर डालती है।

ये भारत की सबसे जहरीली विशेषता है। इसी ने भारत के असली नायकों और राष्ट्रनिर्माताओं को अदृश्य बना दिया है।आज सावित्रीबाई फुले के स्मृति दिवस पर उस बात पर विचार कीजिये और देश के असली नायकों और बुद्ध, कबीर, फुले, अंबेडकर जैसे असली क्रांतिकारियों के बारे में खुद पढिये और समाज को मित्रों को रिश्तेदारों को जागरूक करिये।

आरक्षण पर नया बखेरा, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से बहुजनों में रोष

0

 अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग को जब से आरक्षण का लाभ मिला है, एक वर्ग विशेष हमेशा से इस पर सवाल उठाता रहा है। पिछड़े वर्ग को आरक्षण मिलने के बाद तो विरोध ज्यादा बढ़ गया है। आए दिन आरक्षण खत्म करने को लेकर आंदोलन होता है। हैरत की बात यह है कि संवैधानिक संस्थाएं भी इस पर सवाल उठाने लगी है। 8 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को लेकर टिप्पणी की है, जिसके बाद बहुजन समाज में इसको लेकर रोष है।

बीते 8 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा पर पुनर्विचार की संभावना जताई है। इस प्रकार शैक्षणिक संस्थाओं में पहले से चली आ रही आरक्षण की अधिकतम 50% की सीमा का विस्तार हो सकता है। इस विषय में आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में तरह-तरह की अटकलबाजियों का दौर शुरू हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सन 1992 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की पीठ द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण की सीमा अब वर्तमान समय की आवश्यकताओं के मद्देनजर उचित प्रतीत नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इतने वर्षों में हुए संवैधानिक संशोधनों के बाद परिस्थितियां बदल गई हैं। ऐसे में राज्य एवं संविधान द्वारा सामाजिक आर्थिक बदलावों को देखते हुए आरक्षण के मुद्दे की जांच आवश्यक है।

गौरतलब है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में मराठा आरक्षण की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। चुनौती देने वाले पक्ष के सामने सुप्रीम कोर्ट ने बहस के दौरान 6 महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा है कि क्या इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में दिए गए फैसले को और बड़ी पीठ के पास भेजे जाने की जरूरत है? या फिर इस फैसले के बाद हुए संवैधानिक संशोधनों निर्णय और समाज में आए बदलाव के अनुसार हमें इस पूरे मामले का फिर से विश्लेषण करने की आवश्यकता है?

इस टिप्पणी के बाद सुप्रीम कोर्ट में सभी राज्यों से राय मांगी है कि वे 50% आरक्षण की अधिकतम सीमा के विषय में स्वयं क्या सोचते हैं। इस प्रकार अब निर्णय लेने की बारी राज्यों की है अलग अलग राज्य अपनी तरफ से अपना मंतव्य एवं रिपोर्ट पेश करेंगे। अब यह देखना होगा कि सभी राज्यों की तरफ से आने वाले सुझाव क्या होते हैं। इसके बाद तय हो पाएगा कि आरक्षण के मुद्दे पर देश और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय लेता है।

इस मुद्दे पर सामाजिक आंदोलन से निकले, पूर्व मंत्री और वर्तमान में राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव श्याम रजक का कहना है कि आरक्षण को नौवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए आंदोलन की जरूरत है, ताकि आए दिन इस पर उठने वाले सवाल खत्म हो सके।


इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

धन्ना सेठों के बच्चों के लिए मेडिकल में 28 प्रतिशत रिजर्वेशन!

0

 भारत के मेडिकल कॉलेजों में एक अलग तरह का अघोषित आरक्षण लागू कर दिया गया है। इस मनुवादी व्यवस्था ने बहुत शातिराना तरीके से पिछले दरवाजे से एक नए किस्म का आरक्षण शुरू कर दिया है। यह नया आरक्षण असल में धन्ना सेठों के बच्चों को मिलेगा। और वह भी एक-दो सीटों पर नहीं, बल्कि 28% के आसपास मिलेगा। असल में भारत में विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में 28% सीटें ऐसी होती हैं जिन पर आने वाला सालाना खर्च दस लाख रुपए से भी अधिक है। स्वाभाविक है कि इतना पैसा गरीब आदमी तो दे नहीं पाएगा। इसी सीट को धन्नासेठों के बच्चों नाम करने की कवायद शुरू हो गई है। यह 28% आरक्षण अनुसूचित जाति के 15%, अनुसूचित जनजाति के 7.5% और ओबीसी को मिलने वाले 27% आरक्षण से भी अधिक है।

यहाँ पर मजे की बात है कि इस ऊपर के 28% में जाति आधार पर कोई आरक्षण मौजूद नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग दस लाख रुपए सालाना खर्च कर सकते हैं उनके लिए 28% आरक्षण मिलेग। अब यह मामला इतना पेचीदा है कि अधिकांश सामाजिक संगठनों और बहुजन समाज के कार्यकर्ताओं की नजर में नहीं आ रहा है। ये आंकड़े देशभर में 530 एमबीबीएस कॉलेजों के पाठ्यक्रमों की सालाना फीस के गहरे विश्लेषण पर आधारित हैं। इनमें से आधी सीटें प्राइवेट कॉलेजों में हैं, इनमें मैनेजमेंट कोटा और NRI कोटा इत्यादि चलता है। जिसकी फीस 25 लाख रुपए सालाना से भी अधिक होती है। मैनेजमेंट कोटा से मिलने वाली सीटों का सालाना खर्च 11 लाख रुपये से अधिक होता है। यह विश्लेषण बहुत लंबा चौड़ा है, संक्षेप में कहा जाए तो बात यह है कि भारत के 85% से अधिक जनसंख्या वाले बहुजन समाज के लिए मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई धीरे-धीरे नामुमकिन बनाई जा रही है। मेडिकल कॉलेज में फीस बढ़ाकर ऐसा इंतजाम किया जा रहा है कि भविष्य में सिर्फ ऊंची जाति के करोड़पति लोगों के बच्चे ही डॉक्टर बन सकें।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने इस मुद्दे पर ट्विट कर सवाल उठाया है। इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं। 

गुजरात सरकार का डॉ. आंबेडकर को राष्ट्रीय महत्व का नेता मानने से इनकार, आंदोलन की तैयारी में दलित समुदाय

0

 गुजरात सरकार द्वारा कथित रूप से डॉ बाबा साहब अंबेडकर को राष्ट्रीय नेताओं की सूची में शामिल करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया है। इस निर्णय से आहत होने के बाद गुजरात के दलित नेताओं और कार्यकर्ताओं ने राज्य भर में एक आंदोलन छेड़ने का निर्णय लिया है। इस मुद्दे पर सभी कार्यकर्ता जागरूकता अभियान चलाने के लिए डॉ अंबेडकर स्वाभिमान संघर्ष समिति का निर्माण करने वाले हैं। इस मामले में दलित अधिकार मंच के किरीट राठोड ने आने वाले दिनों में होने वाली कार्यवाहियों का विवरण दिया। उन्होंने बताया कि अगर विजय रूपाणी सरकार ने जल्द से जल्द बाबा साहब का नाम इस सूची में शामिल नहीं किया तो एक अप्रैल को विधानसभा भवन के पास भारी विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया जाएगा। इस आंदोलन को पूरे गुजरात में फैलाने के लिए सभी दलित संगठनों और कार्यकर्ताओं का आह्वान किया है। इस तरह का पहला जागरूकता अभियान उत्तरी पाटन कस्बे में शुरू भी हो चुका है। गौरतलब है कि संविधान निर्माता भारत रत्न डॉ. बीआर आंबेडकर के नाम को राष्ट्रीय नेताओं की सूची में शामिल करने के लिए दलित अधिकार मंच के संयोजक किरीट राठोड़ ने भाजपा सरकार को एक प्रस्ताव भेजा था। इसके जवाब में पिछले साल 21 नवंबर को किरीट राठोड़ को विजय रूपाणी सरकार की तरफ से एक पत्र भेजा गया था। पत्र में कहा गया है कि राष्ट्रीय नेताओं की अनुमोदित सूची के बारे में सरकार के 1996 के प्रस्ताव के अनुसार डॉ. अंबेडकर को राष्ट्रीय महत्व के नेताओं की सूची में शामिल नहीं किया जा सकता। ऐसा कहते हुए भाजपा सरकार ने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया जिसके बाद पूरे राज्य के दलित कार्यकर्ता आक्रोशित हैं।

अमेरिकी पत्रिका GQ ने दलित स्कॉलर सूरज येंगड़े को भारत के 25 प्रभावशाली युवाओं में किया शामिल

0

अमेरिका की एक प्रतिष्ठित पत्रिका GQ ने भारत के युवा दलित विचारक, लेखक एवं शोधकर्ता डॉक्टर सूरज येंगड़े को 2020 के लिए भारत के 25 सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों में शामिल किया है। यह पत्रिका स्टाइल, मर्दानगी, फैशन और लाइफस्टाइल के मुद्दों पर काम करती है। भारत में GQ  पत्रिका में अभी तक बॉलीवुड स्टार्स, फैशन से जुड़ी हस्तियां, और स्टाइलिश खिलाड़ियों को ही शामिल किया जाता था। लेकिन अब एक दलित चिंतक एवं दार्शनिक को इस लिस्ट में शामिल करना बहुत कुछ बताता है।

यह अपने आप में एक बहुत बड़ी घटना है। अब तक दलित लेखकों और चिंतकों को लेखन, चिंतन या सामाजिक राजनीतिक आंदोलन के लिए पहचान मिलती रही है, लेकिन ऐसे दलित लेखक या चिंतक को अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर की समाज की मुख्यधारा की पत्रिकाओं में ‘स्टाइल के प्रतीक’ की तरह शामिल करना बहुत बड़ी बात है। डॉ. सूरज येंगड़े अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में रिसर्च का काम कर रहे हैं। वे भारत के दलितों की सामाजिक धार्मिक राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं पर नए सिद्धांतों का निर्माण करते हुए लगातार लिख रहे हैं।

हाल ही में उनकी एक किताब “कास्ट मैटर्स” भारत की नहीं बल्कि दुनिया भर में चर्चित रहा। इस किताब को हाल ही में द हिंदू द्वारा प्रतिष्ठित “सर्वश्रेष्ठ नॉनफिक्शन बुक्स ऑफ द दशक” सूची में शामिल किया गया था। डॉ. सूरज येंगड़े फिलहाल हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में सीनियर फेलो हैं। वे अफ्रीकी और अफ्रीकी अमेरिकी अध्ययन के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के हचिन्स सेंटर में काम करते हैं। उन्होंने चार महाद्वीपों (एशिया, अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी अमेरिका) में पढ़ाई की है। डॉ सूरज येंगड़े को भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार “साहित्य अकादमी” के लिए नामित किया गया है और वे “डॉ अंबेडकर सामाजिक न्याय पुरस्कार” (कनाडा, 2019) और “रोहित वेमुला मेमोरियल स्कॉलर अवार्ड” (2018) भी हासिल कर चुके हैं।

4000 महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने की चीफ जस्टिस बोबडे के इस्तीफे की मांग, जानिए वजह

1

 भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बोबडे की न्यायिक सूझ बूझ और टिप्पणियों पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक पहले भारत की 4000 महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और समूहों ने जस्टिस बोबड़े को एक खुला पत्र लिखा है। इस पत्र में मांग की गई है कि जस्टिस बोबड़े अदालत में बोले गए अपने शब्द वापस लें, भारत की महिलाओं से माफी मांगें और इस्तीफा दें। दरअसल, जस्टिस बोबड़े ने सुप्रीम कोर्ट में दो विभिन्न मामलों की सुनवाई करते हुए कथित रूप से विवादित टिप्पणियाँ की हैं जिन्हें महिलाओं के खिलाफ माना जा रहा है। उन्होंने बलात्कार के केस में सुनवाई करते हुए बलात्कारी से सवाल किया कि क्या आप पीड़िता से विवाह करना चाहेंगे? जस्टिस बोबड़े ने अपनी टिप्पणी में कहा कि “अगर आप पीड़िता से शादी करना चाहते हैं, तो हम आपकी मदद कर सकते हैं। अगर नहीं तो आपकी नौकरी चली जाएगी और आप जेल जाएंगे। आपने लड़की को बहकाया, उसके साथ बलात्कार किया। हम आपको शादी के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं। हमें बताएं कि क्या आप करेंगे। अन्यथा, आप कहेंगे कि हम आपको उससे शादी करने के लिए मजबूर कर रहे हैं।” इस टिप्पणी के बाद उन्होंने आरोपी की गिरफ़्तारी पर एक महीने की रोक भी लगा दी है। इस खुले पत्र में भारतीय न्याय प्रणाली पर गंभीर सवाल भी उठाए गए हैं। पत्र में जस्टिस बोबड़े को कहा गया है कि आपके शब्द न्यायपालिका की गरिमा के अनुकूल नहीं हैं। आपके शब्दों से न्यायपालिका के निचले स्तरों सहित पुलिस और प्रशासन को यह संदेश जाता है कि भारत की महिलाओं को न्याय मांगने का अधिकार नहीं है। आपके शब्दों से भारत की महिलायें और लड़कियां अपना मुंह बंद रखने को मजबूर हो जाएंगी और बलात्कारियों के हौसले बढ़ेंगे। इस पत्र ने भारत के नागरिक समाज और मीडिया में भारत के शासन-प्रशासन सहित न्यायपालिका के काम करने के तरीके के बारे में नए सवाल खड़े कर दिए हैं।

दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता शिवकुमार को मिली जमानत

0

 दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता शिवकुमार को आज जमानत मिल गयी है। शिवकुमार एक अन्य दलित मजदूर अधिकार कार्यकर्ता नौदीप कौर के साथ मिलकर काम करते रहे हैं। नौदीप कौर को कुछ दिनों पहले ही जमानत मिली थी। आज शिवकुमार को सोनीपत न्यायालय से सभी तीन मामलों में जमानत मिलना पूरे भारत के बहुजन समाज और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए एक बड़ी खबर है। शिवकुमार असल में हरियाणा पंजाब में काम कर रहे मजदूर अधिकार संगठन के अध्यक्ष हैं। इन्हें 16 जनवरी को गिरफ्तार किया गया था। शिवकुमार की गिरफ़्तारी के ठीक एक दिन पहले नौदीप को भी गिरफ्तार किया गया था। बाद में खबरें आती रहीं कि इन दोनों के साथ हिरासत में हिंसा एवं जातिगत अपमान की घटनाएं हुई हैं। इन दोनों की गिरफ़्तारी के बाद पूरे देश के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, किसान आन्दोलनकर्ताओं और नागरिक समाज में इनकी रिहाई की मांग उठ रही थी। गौरतलब है कि इन दोनों की गिरफ़्तारी सोनीपत के कुंडली औद्योगिक क्षेत्र में 12 जनवरी को मजदूरों के खिलाफ कथित अत्याचार के एक मामले में हुई थी। पुलिस ने इनपर हत्या के प्रयास, चोरी और ज़बरन वसूली के आरोप लगाए थे। शिवकुमार के वकील जतीन्द्र कुमार आज सोनीपत न्यायालय में शिवकुमार की तरफ से उपस्थित हुए थे। इन्होंने तीनों मामलों में शिवकुमार की जमानत का आवेदन किया था। नौदीप कौर को इन्हीं मामलों में 26 फरवरी को जमानत मिलने के बाद शिवकुमार की रिहाई के लिए भी मांग तेज हो गयी थी।

मोदी सरकार को झटका, अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस ने भारत में लोगों की स्वतंत्रता घटने की बात कही

0

अमेरिकी संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में लोगों की स्वतंत्रता पहले से कुछ कम हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत एक ‘स्वतंत्र’ देश से ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ देश में बदल गया है। दरअसल इस रिपोर्ट में ‘पॉलिटिकल फ्रीडम’ और ‘मानवाधिकार’ को लेकर कई देशों में रिसर्च की गई थी। रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि साल 2014 में भारत में सत्तापरिवर्तन के बाद नागरिकों की स्वतंत्रता में गिरावट आई है। इस रिपोर्ट में राजद्रोह के केस का इस्तेमाल, मुस्लिमों पर हमले और लॉकडाउन के दौरान लगाए गए प्रतिबंधों का जिक्र है। ‘डेमोक्रेसी अंडर सीज’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में भारत को 100 में से 67 नंबर दिए गए हैं। जबकि पिछले साल भारत को 100 में से 71 नंबर मिले थे।

फ्रीडम हाउस ने अपनी सलाना रिपोर्ट में कहा है कि, ‘हालांकि भारत में बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और हिन्दू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की सरकार भेदभाव की नीतियां अपनी रही हैं। इस दौरान हिंसा बढ़ी है और मुस्लिम आबादी इसका शिकार हुई है।’ रिपोर्ट में कहा गया है कि इस सरकार में मानवाधिकार संगठनों में दबाव बढ़ा है, लेखकों और पत्रकारों को डराया जा रहा है। कट्टरपंथ से प्रभावित होकर हमले किए जा रहे हैं, जिनमें लिंचिंग भी शामिल हैं और इसका निशाना मुस्लिम बने हैं। रिपोर्ट में आगे लिखा है कि- “2014 के बाद से भारत में मानवाधिकार संगठनों पर दबाव काफी बढ़ गया है। राजद्रोह कानून और मुसलमानों पर हमलों का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि देश में नागरिक स्वतंत्रता के हालत में गिरावट देखी गयी है। गैर सरकारी संगठनों और सरकार के आलोचकों को परेशान किया जा रहा है। रिपोर्ट में मुस्लिम समाज के साथ दलितों और आदिवासी समाज का भी जिक्र किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मुस्लिम, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से हाशिये पर पहुंच गए हैं।”

ऐसा नहीं है कि रिपोर्ट में सिर्फ भारत की सीधी आलोचना है, बल्कि इस आलोचना का आधार भी बताया गया है। रिपोर्ट में भारत के अंक को कम करने के पीछे का कारण सरकार और उसके सहयोगी पार्टियों की ओर से आलोचकों पर शिकंजा कसना बताया गया है।

नागरिक स्वतंत्रता की रेटिंग में सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को 60 में से 33 नंबर दिए गए हैं, पिछले साल भारत को 60 में से 37 नबंर मिले थे। जबकि भारत में राजनीतिक अधिकारों पर दोनों सालों का स्कोर 40 में से 34 है। इस रिपोर्ट में पिछले साल कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए भारत सरकार की ओर से लगाए गए लॉकडाउन की भी चर्चा की गई है और इसको खतरनाक बताया गया है। इसमें लिखा है कि सरकार की ओर से पिछले साल लागू किया गया लॉकडाउन खतरनाक था। इस दौरान लाखों प्रवासी मजदूरों को पलायन का सामना करना पड़ा। हम अपने दर्शकों को बता दें कि ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड’ राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता पर एक वार्षिक वैश्विक रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट में 1 जनवरी 2020 से लेकर 31 दिसंबर 2020 तक 25 बिंदुओं को लेकर 195 देशों और 15 प्रदेशों पर शोध किया गया है।

इस रिपोर्ट के सामने आते ही इस पर तमाम राजनीतिक दलों ने भी प्रतिक्रिया दी है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस रिपोर्ट को लेकर चिंता जताई है, साथ ही कहा है कि ऐसी स्थिति में केंद्र व सभी राज्यों की सरकारों को भी इसे अति-गंभीरता से लेते हुए विश्व स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा को कोई आहत होने से बचाने के लिए सही दिशा में कार्य करना बहुत जरूरी है।

जाति के मुद्दे पर अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर और अमेरिका हिन्दू फॉउण्डेशन आमने-सामने

0

 अमेरिका में जातिगत भेदभाव के खिलाफ मामले में अमेरिका स्थित संगठन अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर (एआईसी) भी सामने आ गया है। सेंटर ने मंगलवार 2 फरवरी को कैलिफोर्निया के सुप्रीम कोर्ट से संपर्क करके एमिकस क्यूरी अर्थात अदालत के कानूनी सहयोगी के रूप में कानूनी प्रक्रिया में शामिल होने का फैसला लिया है। हाल ही में यह केस अमेरिका की संघीय अदालत से कैलिफोर्निया राज्य में शिफ्ट किया गया है जिसपर भेदभाव उन्मूलन के अमेरिकी कानूनों के आधार पर केस चलने वाला है।

कुछ महीनों पहले एक दलित भारतीय इंजीनियर ने अपने ब्राह्मण साथियों पर जातिगत भेदभाव एवं अपमान का केस दायर किया था। इस मामले में कैलिफोर्निया के निष्पक्ष रोजगार और आवास विभाग (डीएफईएच) का आरोप है कि जाति आधारित भेदभाव हिंदुओं की धार्मिक व्यवस्था का अंग है। वहीं अमेरिका में आरएसएस समर्थित हिन्दू संगठन ‘हिन्दू अमेरिका फॉउण्डेशन’ ने भी इस मामले में हस्तक्षेप किया था। हिन्दू अमेरिका फाउंडेशन ने दलील दी है कि कैलिफोर्निया राज्य में दायर यह केस अमेरिका में बसे हिंदुओं की धार्मिक व्यवस्था और धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप है। हिन्दू फॉउण्डेश ने इस हस्तक्षेप को गैरकानूनी बताकर चुनौती देने का फैसला किया है।

कैलिफोर्निया के निष्पक्ष रोजगार और आवास विभाग (डीएफईएच) बनाम सिस्को सिस्टम्स इंक, सुंदर अय्यर और कार्यस्थल में जातिगत भेदभाव के रमण कोम्पेला मामले में 9 मार्च को सुनवाई होनी है। कैलिफोर्निया राज्य का आरोप है कि भारतीय मूल के एक कामगार के साथ जाति के आधार पर हुआ भेदभाव नागरिक अधिकार कानूनों का उल्लंघन है। इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए हार्वर्ड विश्वविद्यालय की मानवशास्त्री प्रोफेसर अजंता सुब्रमण्यन ने कहा है कि इस मामले ने अमेरिकी भारतीयों में बजबजा रही जाति की गंदगी को सबके सामने लाकर रख दिया है। इस मामले के प्रकाश में आने के बाद अब अमेरिका में बसे कई दलित एवं मानवाधिकार समूह खुलकर सामने आ रहे हैं।

दलितों के पक्ष में अमेरिका में जल्दी बन सकता है कानून

0

  9 मार्च 2021 को अमेरिका में एक बहुत ही महत्वपूर्ण केस की सुनवाई होने वाली है। इस केस के फैसले से यह तय होगा कि अमेरिका में जाति आधारित भेदभाव को अमेरिकन कानून के हिसाब से कैसे देखा जाए। यूरोप या अमेरिका में गोरे और काले लोगों के बीच नस्ल के आधार पर होने वाली हिंसा या भेदभाव के बारे में स्पष्ट कानून है। लेकिन दुर्भाग्य से यूरोप और अमेरिका में एक बड़ी संख्या में भारतीयों के होने के बावजूद वहां पर जाति आधारित भेदभाव के बारे में कानून स्पष्ट नहीं है। लेकिन अब इस विषय में एक उम्मीद जाग रही है। कुछ महीनों पहले कैलिफोर्निया में एक भारतीय इंजीनियर ने एक कंपनी (CISCO) के खिलाफ जातिगत आधार पर भेदभाव का आरोप लगाया था। इसके तुरंत बाद अमेरिकन नियामक संस्थाओं ने CISCO नाम की आई टी कंपनी के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। यह मामला खूब उछला था और अमेेरिका स्थित तमाम अम्बेडकरवादी संगठनों ने इसके खिलाफ और पीड़ित के पक्ष में पुरजोर आवाज उठाई थी।

गौरतलब है कि अमेरिका के एक भारतीय इंजीनियर ने CISCO के सैन जोस स्थित मुख्यालय में काम के दौरान अपने खिलाफ जातिगत भेदभाव का आरोप लगाया था। इस बहुजन इंजीनियर ने कहा है कि उसके साथ काम करने वाले ब्राह्मण लोगों ने कार्यस्थल पर जातिगत भेदभाव करते हुए उसका अपमान किया है। यह व्यवहार 1964 के कैलिफोर्निया के कानून के हिसाब से एक अपराध है। इस मामले में कुछ महीनों से कार्रवाई चल रही है।

यहां यह भी गौर करना चाहिए कि पहले यह केस अमेरिका की संघीय अदालत में लगाया गया था, लेकिन अब इसे कैलिफोर्निया की अदालत में दायर किया गया है। इसका कारण यह है कि भेदभाव के मामलों में कैलिफोर्निया राज्य का कानून बहुत सख्त है। अगर इस मामले में अमेरिका में एक सख्त निर्णय आता है तो यह पूरे दुनिया में बसे हुए बहुजन डायस्पोरा के लिए एक बहुत बड़ी खबर होगी। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हो सकता है कि इस मामले में फैसला आने के बाद अमेरिका में जाति आधारित भेदभाव पर कानून बन सकेगा। इसके बाद निश्चित ही इसका परिणाम भारत में रह रहे बहुजनों पर भी पड़ेगा।

लोकसभा और राज्यसभा टीवी का संसद टीवी बनना

लोकसभा और राज्यसभा के अलग-अलग चैनलों को मिलाकर एक संसद टीवी (Sansad Telivision) बनाने का फैसला सैद्धांतिक और धारणात्मक स्तर पर सही है। असलियत ये है कि सन् 2005-06 के दौरान संसद के दोनों सदनों के माननीय सभापति और स्पीकर की आपसी चर्चा में ‘संसद टेलीविजन नेटवर्क’ नाम से भारतीय संसद का अलग टीवी चैनल शुरू करने का विचार सामने आया था। संसद टीवी नेटवर्क का बुनियादी विचार तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का था। इस विचार पर माननीय स्पीकर और माननीय सभापति के बीच शुरुआती सहमति बनी थी। उस वक़्त राज्यसभा के सभापति भैरो सिंह शेखावत थे।
 उन दिनों दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ के एक पत्रकार के रूप में मैं राज्यसभा की कार्यवाही और अन्य संसदीय मामलों को ‘कवर’ करता था। यदा-कदा दोनों सदनों के पीठासीन प्रमुखों के अलावा उनके कार्यालय से सम्बद्ध उच्चाधिकारियों से मुलाकात होती रहती थी। जहां तक हमारी जानकारी है, उन दिनों ये सोचा गया था कि दोनो सदनों की कार्यवाही अलग-अलग फ्रिक्वेंसी पर प्रसारित होगी और चर्चा व विमर्श के अन्य कार्यक्रम साझा होंगे। लेकिन कुछ समय बाद राज्यसभा की तरफ से उक्त प्रस्ताव को लेकर कुछ समस्या आने लगी। समस्या बढ़ती गयी, जिसमें राजनीति का पहलू अहम् था। फिर एक दिन संसद टीवी नेटवर्क का वह प्रस्ताव धराशायी हो गया। तब स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा टीवी शुरू करने के प्रस्ताव को हरी झंडी दिखा दी और सदन की जीपीसी से चर्चा के बाद चैनल लांच करने का फैसला हुआ। इस तरह सन् 2006 में लोकसभा टीवी शुरू हो गया।
 राज्यसभा का अलग चैनल लांच करने के फैसले का ऐलान 2010 मे हुआ और 2011 में वह ‘लांच’ हो गया। बेहतर रहता अगर लोकसभा के पहले से चल रहे चैनल और राज्यसभा की नयी पहल को मिलाकर संसद टेलीविजन नेटवर्क नाम से दोनो सदनों का साझा चैनल ‘रिलांच’ होता! पर ऐसा संभव नहीं हुआ। संभवतः इसके लिए ठीक से पहल नहीं हो पाई। इसलिए आज संसद टेलीविजन नेटवर्क नाम से अगर एकीकृत टीवी का पुनर्गठन किया गया है तो यह धारणा और विचार के स्तर पर सही कदम है।
दुनिया के अनेक विकसित लोकतांत्रिक देशों की संसद के पास तो अपने स्वतंत्र टीवी नेटवर्क तक नही हैं। ज्यादातर मुल्कों की संसद की कार्यवाही वहां के लोक प्रसारक (पब्लिक ब्राडकास्टर) ही प्रसारित करते हैं। भारत की संसद का अपना टीवी नेटवर्क है तो यह महत्वपूर्ण बात है पर दोनों सदनों के दो अलग-अलग चैनल रहें, इसे धारणा और व्यावहारिकता के स्तर पर जायज नहीं ठहराया जा सकता।
अब आते हैं, दोनों चैनलों पर। लोकसभा टीवी पहले से जारी था और राज्यसभा चैनल उस के चार-पांच साल बाद शुरू हुआ। पर कम समय में ही वह ज्यादा लोकप्रिय होता गया। उसके कार्यक्रमों की गुणवत्ता ने उसे लोकप्रिय बनाया। बाद के दिनों में वहां भी समस्याएं पैदा होने लगी थीं और उसका असर कंटेंट पर दिखता था। लेकिन अपने कंटेंट और रूप-रंग के स्तर पर वह लोकसभा टीवी के मुकाबले हमेशा बेहतर माना जाता रहा। हालांकि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा टीवी के भी कुछ वीकली कार्यक्रम बहुत प्रशंसित रहे, जो अब नहीं प्रसारित होते हैं।
 पुनर्गठित संसद टीवी के सामने नयी चुनौती होगी कि वह संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही के लाइव कवरेज़ के अपने बुनियादी दायित्व के अलावा अन्य कार्यक्रमों का संयोजन कैसे करे और गुणवत्ता का स्तर कैसे हासिल करे। हमारे समाज, राजनीति, वैचारिकी और संसदीय लोकतंत्र में निहित स्वतंत्रता, सहिष्णुता और विविधता जैसे मूल्यों की रोशनी में अपने कार्यक्रमों को कैसे आकार दे। इन मूल्यों को कैसे अभिव्यक्ति दे! आज के राजनीतिक माहौल में यह बहुत चुनौतीपूर्ण काम होगा। एक संसदीय टीवी नेटवर्क को किसी सरकार या किसी एक राजनीतिक शक्ति का मंच नही होना चाहिए। उसे भारतीय संसद यानी जनता और राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली लोकतांत्रिकता का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, ऐसी लोकतांत्रिकता जिसमें स्वतंत्रता, सहिष्णुता और विचारों की विविधता के तमाम खूबसूरत रंग शामिल हों!

दलित एक्टिविस्ट शिवकुमार को बचा लीजिए

0
दिशा रवि को जमानत मिली हम सबने स्वागत किया, लेकिन दलित एक्टिविस्ट शिवकुमार के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। मुझे यह कहते हुए बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि इस देश में दलित की जान सबसे सस्ती है और इससे किसी को कोई मतलब नहीं है। सारे सो कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव पत्रकार हों या फिर एक्टिविस्ट अमूमन सभी झूठे और मक्कार हैं। उन्हें दलित-आदिवासी से बिल्कुल भी मतलब नहीं है।
नवदीप कौर का मामला अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी नहीं उठाती तो शायद ही कोई उनको भी जान पाता! जैसी चुप्पी शिवकुमार के मामले में है ठीक वैसी ही चु्प्पी नवदीप के मामले में भी दिखती और इसका कारण साफ है कि दोनों उस समाज से आते हैं जो वंचित और शोषित हैं, जिन्हें समाज वॉयसलेस कहता है और अगर वो कुछ बोलना चाहते हैं तो उन्हें इसी तरह की सजा दी जाती है।
मेडिकल रिपोर्ट से साफ़ है कि दलित एक्टिविस्ट शिवकुमार को भयानक यातनाएं दी गई हैं, लेकिन आप सभी सो कॉल्ड लिबरल-प्रोग्रेसिव लोग मुबारक़ के काबिल हैं, क्योंकि बड़ी चालाकी से इस मामले पर फिर से आप लोगों ने चुप्पी साध ली है। शायद इन्हें एक और रोहित वेमुला का इंतजार है जिसपर वे घड़ियाली आंसूं बहा सके।
 दलित एक्टिविस्ट शिवकुमार बेहद ही गरीब परिवार से आते हैं। उनके पिता चौकीदार हैं जिनका वेतन सात हजार रुपया प्रति महीना है। शिवकुमार की एक आंख कक्षा 10 से ही खराब है। मां 23 साल से मानसिक तौर पर बीमार हैं। शिवकुमार के पास ना जमीन है और ना ही कोई सामाजिक संपत्ति।
वरिष्ठ पत्रकार Anil Chamadia के फेसबुक वॉल से

दलित कार्यकर्ताओं के समर्थन में उतरी गुरुद्वारा प्रबंधन समिति

0

 हाल ही में अलग-अलग आरोपों में हिरासत में ली गई दलित मजदूर मानवाधिकार कार्यकर्ता नवदीप कौर रिहा हुई हैं। पूरे देश के मानवाधिकार एवं दलित अधिकार कार्यकर्ता इस बात की खुशी मना रहे हैं। इसी बीच दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीएमसी) ने रविवार (28 फरवरी) को रकाबगंज गुरुद्वारा परिसर में मजदूर व दलित अधिकार कार्यकर्ता नवदीप कौर को सम्मानित किया। कमेटी ने यह भी घोषणा की कि वे नवदीप कौर के हक में कानूनी लड़ाई भी लड़ेंगे। नवदीप कौर ने रविवार को दिल्ली दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्यों से मुलाकात की। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा जमानत पर करनाल जेल से बाहर चलने के 72 घंटे बाद कौर को ‘सिरोपा’ देकर से सम्मानित किया गया। इसी मौके पर नवदीप कौर ने अपने दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए घोषणा की कि मेरा संघर्ष जारी रहेगा। उन्होंने कहा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है और मैं न्याय के लिए लड़ाई लडूंगी। गौरतलब है कि नवदीप कौर और एक अन्य दलित कार्यकर्ता शिवकुमार के साथ कथित तौर पर पुलिस की हिरासत में यौन हिंसा एवं हिंसा के आरोप लगे हैं। कुछ दिन पहले ही कुमार शिव कुमार के मेडिकल रिकॉर्ड भी सामने आए है जिसमें उनकी शरीर में कई फ्रैक्चर्स की बात सामने आई है। इन निराश करने वाली खबरों के बाद सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा दलितों एवं मजदूरों के पक्ष में खुलकर सामने आना एक बड़ी घटना है। यह खबर एक खास मायने में और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक तरफ जाट समुदाय और दलित पंचायतें एक दूसरे के समर्थन में उतर आई हैं। दूसरी तरफ सिखों की धार्मिक संस्था द्वारा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की कानूनी मदद की घोषणा करना एक बड़े बदलाव की दिशा में पहला कदम नजर आता है। इस प्रकार ना केवल किसान आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ेगा बल्कि दलितों मजदूरों के मानवाधिकार के हक में उठ रही आवाजें भी मजबूत होंगी।