फिल्म ‘कर्णन’ में दलितों की आवाज और विरोध दोनों है

 कई मूवी रिव्यू पढ़ने और देखने के बाद कल रात कर्णन मूवी देखी। शुरू करने से पहले बॉलीवुड के अभिनेता, अभिनेत्रियों, निर्देशक, प्रोड्यूसर, स्क्रिप्ट राइटर, म्यूजिक आर्टिस्ट व फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े तमाम लोगों से एक आग्रह है कि वो अपने कीमती समय में से ढाई घंटे निकालकर एमेजॉन प्राइम पर कर्णन मूवी जरूर देखें ताकि पता चले कि इन विषयों पर भी स्क्रिप्ट लिखी जा सकती है, म्यूजिक बनाए जा सकते हैं, डायलॉग लिखे जा सकते हैं। बॉलीवुड को चलाने वाले कुछ चालाक दिमाग मे एक नेरेटिव गढ़ा हुआ है कि किसी भी फिल्म में मुख्य किरदार या तो दलित न हो यदि एक दो फिल्म में किसी दलित, वंचित को मुख्य किरदार में दिखाया भी जाए तो इतना दरिद्र, हीन, मूक बना देते हैं ताकि शान से रह रहे बहुजनों को भी यह देख कर शर्म आए। बॉलीवुड के दलित किरदार इतने गूंगे क्यों होते हैं? बॉलीवुड की फिल्में बहुजनों के जीवन पर कभी नहीं बनती, उनके ब्याह शादी, पहनावा, खान पान, काम धंधा, रहने सहने का तरीक़ा आदि पर कभी फिल्में नहीं बनती।

लेकिन यह झलक साउथ इंडियन फिल्मों में बखूबी देखने को मिलती है। उतनी मात्रा में तो वहां भी ऐसी फिल्में नहीं बनती लेकिन जो भी बनाई जाती है अपने आप में मास्टरपीस ही होती है। कुछ दिन पहले मैंने असुरन देखी, उसके बाद पेरियम पेरूमल और कल रात कर्णन देखी।

असुरन और पेरियम पेरूमल दोनों ही यूट्यूब पर उपलब्ध हैं और आप हिंदी में भी देख सकते हैं। ये तीनों ही फिल्में बहुजनों के जीवन पर आधारित है। फिल्म देखने पर लगता है कि ये कोई फिल्म नहीं बल्कि हर दिन घट रही सच्ची घटनाएं ही हैं।

कर्णन

कर्णन फिल्म में दलित एक अलग गांव में रहते हैं उनके यहां बसें भी नहीं रुकती क्योंकि यहां किसी और का दबदबा है। एक लड़की को कॉलेज छोड़ने जा रहे उसके पिता को बस स्टॉप पर बिना बात पीटा जाता है, अपमानित किया जाता है। सुख सुविधा के सारे तंत्र पैसे वालों के पास, साफ सुथरे व सफेद कपड़े पहनने वाले निर्मम व निष्ठुर लोगों के पास हैं। फिल्म में पढ़ाई को लेकर भी अच्छा संदेश डाला गया है। एक बहुजन युवा व इस फिल्म का मुख्य किरदार सीआरपीएफ में भर्ती हो जाता है। ज्वाइनिंग लेटर देखते ही सारे गांव वाले खुशी के मारे झूम उठते हैं। उन सबको विश्वास है कि यही हमारे लिए कुछ अच्छा कर सकता है।

 फिल्म में गांव वाले किसी बिना सिर वाली मूर्ति की पूजा करते हैं। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि वह मूर्ति बुद्ध की हो सकती है क्योंकि खुदाई में अधिकतर बुद्ध की मूर्ति बिना सिर के मिली हैं। आपस में होने वाली छोटी छोटी नोंक झोंक को बखूबी दिखाया गया है। इसके अलावा फिल्म में गधा, घोड़ा, बिल्ली, कुत्ता, सुअर, बाज, मुर्गा, मछली, केंचुए आदि के सीन इतने रोचक तरीके से उकेरे गए हैं कि लगता है इनके बिना यह फिल्म अधूरी ही है। वो सब बिना डायलॉग बोले भी चीख रहे हैं। फिल्म देखने पर पता लगेगा कि कोई भी भाषा संप्रेषण में बाधा नहीं बन सकती। यह फिल्म तमिल में है व अंग्रेज़ी सबटाइटल उपलब्ध हैं लेकिन इसके विजुअल्स और म्यूजिक ऐसे हैं कि बिना तमिल जाने भी सब समझ आते हैं। खुशी के गानों में साथ थिरकने का मन करता है और मातम के गीत में साथ में आंसू बहाने का मन होता है।

 फिल्म की सबसे अच्छी व खूबसूरत बात यह है कि डायलॉग से ज्यादा विजुअल्स मन मस्तिष्क को कुरेदते हैं, अंदर तक झकझोर के रख देते हैं। करीब हर टर्निंग प्वाइंट पर छोटी बच्ची को मुखोटा पहने दिखाना लेखक व निर्देशक के रचनात्मक दिमाग का परिचय कराता है। फिल्म बनाने वाली पूरी टीम को बधाई।  ऐसी फिल्में जरूर देखनी चाहिए।


इस आलेख के लेखक रवि संबरवाल (कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र) हैं। उनसे संपर्क 8607013480 पर कर सकते हैं।

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