जनजाति समाज के शिक्षक ने लगाई गुहार… मुझे प्रिंसिपल से बचाओ

 

मान्यवर जी, मैं आपको सूचित करना चाहता हूँ कि मैं राजकीय सर्वोदय बाल विद्यालय, डी-ब्लॉक,जनकपुरी नई दिल्ली-110058 में व्याख्याता-हिंदी के पद पर कार्यरत था और पूर्ण निष्ठा व लग्न से अपने शैक्षिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा था लेकिन अनुसूचित जनजाति(ST)से सम्बन्ध रखता हूँ और प्रधानाचार्य जी इसी कारण मुझे हेय दृष्टि से देखते थे. मेरी शैक्षिक क्षमताओं पर सवालिया निशान लगाते थे,कक्षा में मेरे साथ दुर्व्यवहार करते थे तथा स्टाफ के समक्ष भी मुझे नीचा दिखाते थे.

इसके अतिरिक्त विद्यालय में कुछ ऐसी गलत परम्पराएं चल रही थी जिनका समर्थन करना मेरे लिए मुश्किल था,इस कारण भी प्रधानाचार्य जी मेरे प्रति दुर्भावना पाल कर बैठे थे और इसी कारण छात्रों के समक्ष तथा कक्षा में कक्षा जांच की आड़ में मुझे तरह तरह से परेशान किया गया. इसका मैंने विरोध भी किया लेकिन प्रधानाचार्य जी ने शिक्षकों को अनेक प्रकार के प्रलोभन देकर चुप कर रखा है और कुछ प्रधानाचार्य जी के डर के कारण सच को बयां नहीं करते. मैंने सभी जगह इसकी शिकायत की लेकिन कोई भी कार्यवाही नहीं हुई.

मैं क्रमशः सभी सबूत भेज रहा हूँ जो प्रधानाचार्य जी के तानाशाहीपूर्ण रवैये तथा मेरे प्रति दुर्व्यवहार को साबित कर देंगे. शिक्षक सत्य को बयां न करे इसके बदले में उन्हें 6:30 PM के बजाय 6:00 PM पर ही विद्यालय छोड़ने की खुली छूट दी जाती है ताकि शिक्षक आराम से 6:10 PM पर दिल्ली कैंट रेलवे स्टेशन से गुड़गांव,रेवाड़ी,अलवर को जाने वाली ट्रेन को आराम से पकड़ कर उसमें जा सके . यह एक तरह से प्रधानाचार्य जी द्वारा अपने पद का दुरुपयोग व सेवा नियमों का खुला उलंघन है.

मैं आपको मेरे द्वारा अब तक शिक्षा निदेशालय,राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग व माननीय उप मुख्यमंत्री जी को भेजी गई शिकायत की छायाप्रति, शिक्षकों के बयानों की रिकॉर्डिंग्स, प्रधानाचार्य जी के अपमानजनक भाषण,जिसमें उन्होंने छात्रों को ‘हरामी’ कहा तथा उनके माता-पिता को भिखारी के समान बताया,छात्रों के समक्ष ही शिक्षकों के बारे में कहा कि “बच्चों तुम्हारे शिक्षक बुड्ढे हो चुके है,इनकी जांघो में दम नहीं रहा,ये तुम्हारा कुछ भी भला नहीं करेंगे,अपना भला खुद ही कर लो.”

इसके अतिरिक्त भाषण में छात्रों से ‘हरामी’ कहा तथा उनके माता-पिता के बारे में कहा कि “भिखारी के जैसे आकर खड़े हो जाते है.”

इस अपमानजनक भाषण की रिकॉर्डिंग भी भेज रहा हूँ. इस तरह की अभद्र भाषा इस्तेमाल प्रधानाचार्य जी खुलेआम प्रार्थना स्थल पर करते है, इसके बावजूद शिक्षकों ने जांच टीम के समक्ष झूँठ बोला. जांच टीम ने भी मेरे द्वारा बताए गए सबूतों को दरकिनार करके मामले को दबाने की कोशिश की तथा एक झूँठी रिपोर्ट तैयार की.

अब प्रधानाचार्य जी शिक्षकों को खुलेआम 6:00 PM पर ही छोड़ देते है जबकि विद्यालय का समय 6:30 PM का है . प्रधानाचार्य जी इनको इसलिए छोड़ते है ताकि ये शिक्षक सत्य को न बोले.

अतः माननीय जी मैं कुछ शिक्षकों के बयानों की रिकॉर्डिंग तथा विद्यालय समय से पूर्व जाते हुए शिक्षकों की वीडियो रिकॉर्डिंग भेज रहा हूँ . विद्यालय के निर्धारित समय से पूर्व विद्यालय को छोड़ने के लालच में ये शिक्षक अपना जमीर बेचते थे और इस कारण गवाओं के अभाव में मैंने और मेरे परिवार ने अत्यधिक पीड़ा का सामना का किया है.

अतः आपसे गुजारिश है कि आप मामले को संज्ञान में लेकर उचित व आवश्यक कार्यवाही करें तथा आपकी पत्रिका में इस मामले को जगह देने का कष्ट करें तथा मुझे न्याय दिलाने का कष्ट करें . आपकी अति कृपा होगी. सधन्यवाद!

भवदीय हरि सिंह मीन-व्याख्याता-हिंदी (अनुसूचित जनजाति कर्मचारी) राजकीय सर्वोदय बाल विद्यालय, निहाल विहार, नांगलोई,नई दिल्ली-110041.

छात्र संघ बहाली की मांग कर रहे छात्रों को प्रशासन ने धकिया कर बाहर निकाला

हिंदी विश्वविद्यालय में पिछले साल छात्र संघ की मांग को लेकर विभिन्न छात्र संगठनों के द्वारा आंदोलन किया गया था. प्रशासन आंदोलनरत छात्रों को शांत करने के लिए तथा छात्र संघ की मांग को कमजोर करने के लिए मौखिक तौर पर आश्वस्त करते  की इस वर्ष छात्रसंघ चुनाव करवाना संभव नहीं है.इसलिए अगले वर्ष सितंबर माह में छात्र संघ का चुनाव निश्चित होगा. इसके लिए छात्रों से छात्र संघ चुनाव से संबंधित सुझाव भी मांगे गए थे. जिससे विभिन्न छात्र संगठनों में छात्रसंघ का प्रारूप बनाकर विश्वविद्यालय के समक्ष प्रस्तुत किया. कुलपति के आश्वासन के बाद उस वक्त छात्रों ने  अपना आंदोलन वापसवापस ले लिया था.

  पुनः इस वर्ष छात्रों ने छात्र संघ की मांगों को लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन से जवाब मांगा तो विश्वविद्यालय प्रशासन ढील-मूल रवैया अपनाते हुए कोई सार्थक जवाब नहीं दिया. तो विभिन्न छात्र संगठन जिसमें आइसा, ए.आइ.एस.एफ. अन्य छात्र संगठन एक साथ मिलकर लगातार 5 दिन से छात्र संघ की मांग को लेकर विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन के अंदर आंदोलनरत थे. परंतु आज सुबह आंदोलनरत छात्रों को बल प्रयोग करते हुए विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन से बाहर खदेड़ दिया गया.  अब आंदोलनरत छात्र प्रशासनिक भवन केबाहर बैक छात्र संघबहाल की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन आंदोलन में छात्रों को शांत कराने के लिए तथा छात्र संघ की मांगों को कमजोर करने के लिए रोज नए-नए हथकंडे अपना रहा है. आंदोलनरत छात्रों पर उनके विभाग तथा प्रशासन के लोगों द्वारा विभिन्न प्रकार से धमकियां दी जा रही हैं.

धरना पिछले 5 दिनों से लगातार जारी है तथा विश्वविद्यालय प्रशासन चुनाव कराने के लिए आवश्यक तैयारियां जैसे चुनाव समिति संविधान आदि तैयार कर चुका है परंतु पूर्व में दिए गए आश्वासन से भाग रहा है. लगातार बहानेबाजी करने तथा छात्र संघ चुनाव टालने में लगा हुआ है.

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राजस्थान यूनिवर्सिटी में ABVP-NSUI फेल, ‘दलित छात्र’ ने बनाया जीत का रिकॉर्ड

राजस्थान की छात्र राजनीति के सबसे बड़े केंद्र राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव के नतीजे दोनों प्रमुख छात्र संगठनों के लिए चौंकाने वाले रहे. बागी निर्दलीय उम्मीदवार विनोद जाखड़ ने चार हजार से अधिक वोटों से एससी उम्मीदवार की रिकॉर्ड जीत हासिल की.

राजस्थान यूनिवर्सिटी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब निर्दलीय एससी उम्मीदवार अध्यक्ष बना है. विनोद ने इस जीत के साथ ही यूनिवर्सिटी में निर्दलीय उम्मीदवार के अध्यक्ष बनने की हैट्रिक पूरी हो गई. लेकिन इसी के साथ एक बार फिर यहां अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) और और नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) की स्टूडेंट पॉलिटिक्स भी पूरी तरह से फेल हो गई.

जातिगत समीकरण बैठाते हुए दोनों संगठनों ने जाट उम्मीदवार को टिकट बांटे और इसी के साथ एनएसयूआई के बागी विनोद की जीत की संभावनाएं भी प्रबल हो गई. 22 हजार 677 छात्रों में से कुल 11 हजार 516 ने वोट डाला और सबसे अधिक समर्थन जुटाने सफल रहे निर्दलीय विनोद जाखड़.

यूं तो विनोद की आम छात्रों में मजबूत पकड़ और विद्यार्थी हितों के लिए लंबे समय से सक्रियता काम आई लेकिन एक वजह उसकी कई बड़े आंदोलनों में भूमिका, भूख हड़ताल आदि को एनएसयूआई ने टिकट बांटते समय दरकिनार करना भी रहा. इसके चलते विद्याथियों के लिए हैल्प डेस्क लगाकर कैम्पस में उनकी मदद करने वाले विनोद को बगावत करनी पड़ी. और जीत भी हासिल हुई.

दोनों दलों ने जातिगत समीकरणों के आधार पर जाट उम्मीदवारों को टिकट दी. जानकारों के अनुसार यह मैसेज गलत गया और पढ़े-लिखे स्टूडेंट्स ने संगठन गत राजनीति से ऊपर उठकर वोट डाले.

एनएसयूआई की उम्मीदवारों की कतार में पहले पायदान पर आने वाले विनोद को अंतिम समय पर टिकट नहीं मिलने से आम स्टूडेंट की सहानुभूति मिली.

पूर्व में यूनिवर्सिटी राजस्थान कॉलेज से छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके थे विनोद, छात्रों से सम्पर्क भी काम आया. यूनिवर्सिटी कैम्पस के हॉस्टल स्टूडेंट्स का भी विनोद का फायदा मिला.

एनएसयूआई पदाधिकारी पर यूनिवर्सिटी में हुए हमले के मामले में अरावली हॉस्टल पर आरोप लगे थे. ऐसे में एससीएसटी वोटों का भी ध्रुवीकरण हुआ.

दोनो संगठनों पर धन, बल के आरोप लगे. पैसे लेकर टिकट बांटने के आरोप लगने से संगठनों के प्रति आम स्टूडेंट की नाराजगी भी बढ़ी. कैम्पस में दोनों बड़े संगठनों के भीतर घात का भी निर्दलीय को फायदा मिला. एनएसयूआई और कांग्रेस के नेताओं का निर्दलीय प्रत्याशी को खुलेआम सपोर्ट.

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अब तक दलित व अति पिछड़ा लोगों को पूर्ण रूप से नहीं मिला आरक्षण

भागलपुर| राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की ओर से बुधवार को दलित अति-पिछड़ा अधिकार जिला सम्मेलन का आयोजन किया गया. इस दौरान पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सह पूर्व सांसद भूदेव चौधरी ने कहा कि दलित, अति पिछड़ा समाज के लोगों को शिक्षित और संगठित होना होगा. समाज में शिक्षा की घोर कमी है. देश को आजाद हुए 70 वर्ष हो गए है, लेकिन अभी तक दलित व अति पिछड़ा लोगों को आरक्षण पूर्ण रूप से नहीं मिला है. न्यायपालिका में अभी भी मात्र 250 परिवार का ही कब्जा है जो कि गलत है. अध्यक्षता दलित-महादलित जिला अध्यक्ष नंद किशोर हरि ने की. संचालन अति पिछड़ा जिला अध्यक्ष रवि प्रकाश रवि ने की. सम्मेलन में युवा प्रदेश अध्यक्ष हिमांशु पटेल, राष्ट्रीय महासचिव निचिकेता मंडल, महिला प्रदेश अध्यक्ष उर्मिला पटेल, छात्र प्रकोष्ठ प्रदेश अध्यक्ष बेलाल राजा, जिला अध्यक्ष रवि शेखर भारद्वाज, महानगर अध्यक्ष ओम भास्कर आदि ने संबोधित किया. मौके पर जिला मीडिया प्रभारी कुणाल सिंह, अमित, पूजा कुमारी, मिथलेश सिंह, रंजन सिंह आदि मौजूद थे.

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SC/ST एक्ट: सात साल की सजा से कम के मामलों में बिना नोटिस गिरफ्तारी नहीं

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नई दिल्ली। अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुए संशोधन को लेकर भले ही हौवा खड़ा किया गया हो लेकिन हकीकत यही है कि इस अधिनियम के तहत दर्ज जिन मामलों में सात साल से कम सजा का प्रावधान है, उनमें बिना नोटिस के गिरफ्तारी नहीं हो सकती. हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने इस अधिनियम के तहत 19 अगस्त को दर्ज एफआईआर रद्द करने की मांग वाली याचिका इस निर्देश के साथ निस्तारित कर दी कि गिरफ्तारी से पहले अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन किया जाएगा.

अरनेश कुमार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दिशानिर्देश दिए हैं कि यदि सात साल से कम की सजा के अपराध के संबंध में एफआईआर दर्ज है तो ऐसे मामले में सीआरपीसी की धारा 41 व 41A के प्रावधानों का पालन किया जाएगा और विवेचक को अभियुक्त की गिरफ्तारी से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि गिरफ्तारी अपरिहार्य है अन्यथा न्यायिक मजिस्ट्रेट उक्त गिरफ्तार व्यक्ति की न्यायिक रिमांड नहीं लेगा. दरअसल हाईकोर्ट में सात साल से कम की सजा के ऐसे मामलों में जो आईपीसी की धाराओं के अलावा, अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, आवश्यक वस्तु अधिनियम, गो-हत्या निवारण अधिनियम आदि के तहत दर्ज एफआईआर को चुनौती देने वाली याचिकाएं अक्सर दाखिल होती हैं. ऐसे मामलों में हाईकोर्ट सरकारी वकील के इस आश्वासन पर याचिकाओं को निस्तारित कर देता है कि अभियुक्त की गिरफ्तारी से पहले अरनेश कुमार केस में दी गई सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था का अनुपालन किया जाएगा.

हाल में एक याचिका न्यायमूर्ति अजय लाम्बा व न्यायमूर्ति संजय हरकौली की खंडपीठ के समक्ष सुनवाई के लिए पेश हुई. यह याचिका गोण्डा के राजेश मिश्रा ने दाखिल की थी. इसमें अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण पर संशोधित अधिनियम के तहत दर्ज प्राथमिकी को चुनौती दी गई थी. साथ ही विवेचना के दौरान याची की गिरफ्तारी न किए जाने की भी मांग की गई थी. संसद ने अधिनियम में संशोधन 17 अगस्त 2018 को पास किया था और राजेश मिश्रा के खिलाफ एफआईआर इसी संशोधित अधिनियम के तहत दर्ज हुई थी.

न्यायालय ने मिश्रा की याचिका को यह कहते हुए निस्तारित कर दिया कि प्राथमिकी में जो धाराएं लगी हैं, उनमें सजा सात साल तक की ही है. लिहाजा गिरफ्तारी से पूर्व अरनेश कुमार मामले में दिए दिशानिर्देशों का पालन किया जाए. मामले की सुनवाई के दौरान अपर शासकीय अधिवक्ता (प्रथम) नंद प्रभा शुक्ला ने न्यायालय को आश्वासन दिया कि सजा सात साल से कम है, लिहाजा मामले में विवेचक सुप्रीम कोर्ट के अरनेश कुमार फैसले का पालन करेंगे. क्या है मामला यह मामला गोण्डा जिले का है. शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति की शिवराजी देवी ने 19 अगस्त 2018 को गोण्डा के खोड़ारे थाने पर याची राजेश मिश्रा और अन्य तीन लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराते हुए आरोप लगाया था कि विपक्षीगण पुरानी रंजिश को लेकर उसके घर पर चढ़ आए, उसे और उसकी लड़की को जातिसूचक गालियां दीं, घर में घुसकर लात, घूंसों व लाठी-डंडे से मारा.

क्या है अरनेश कुमार मामले में दिशानिर्देश सुप्रीम कोर्ट ने अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में दो जुलाई 2014 के अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि सीआरपीसी की धारा 41(1) के तहत जिन मामलों में अभियुक्त की गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है, ऐसे मामलों में पुलिस अधिकारी अभियुक्त को एक नोटिस भेजकर तलब करेगा. यदि अभियुक्त नोटिस का अनुपालन करता है तो उसे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, जब तक कि पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी की अनिवार्यता का कारण दर्ज नहीं करता. और यह मजिस्ट्रेट के परीक्षण का विषय होगा.

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हारे मैच में लोकेश राहुल और ऋषभ पंत का धमाल…

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नई दिल्ली। 5वें टेस्ट के आखिरी दिन इंग्लैंड को जीत के लिए जूझना पड़ा. वजह लोकेश राहुल और ऋषभ पंत रहे. इन दोनों ने असाधारण रूप से छठे विकेट के लिए 204 रनों की साझेदारी कर डाली. ओपनर लोकेश राहुल (149) और युवा ऋषभ पंत (114) ने करियर की यादगार पारी खेलकर टीम इंडिया के जीत की उम्मीद जगाई और इंग्लैंड के दिल में रेकॉर्ड हार का डर पैदा कर दिया, लेकिन एक बार जैसे ही यह जोड़ी टूटी, यह तय हो गया कि अब पंत और राहुल के बीच हुई छठे विकेट के लिए 204 रनों की साझेदारी हुई, जो चौथी इनिंग में किसी भी विकेट के लिए भारत की ओर से दूसरी सबसे बड़ी साझेदारी है. यह साझेदारी इसलिए भी मायने रखती है, क्योंकि भारत संघर्ष कर रहा था. शायद ही किसी को इन दोनों से इस तरह के खेल की उम्मीद रही होगी. बता दें कि इससे पहले इसी मैदान पर 1979 में सुनील गावसकर और चेतन चौहान ने पहले विकेट के लिए 213 रनों की साझेदारी की थी. चौथी पारी में यह किसी भी विकेट के लिए सबसे बड़ी साझेदारी है.

इस मामले में तीसरे नंबर पर राहुल द्रविड़ और सौरभ गांगुली की जोड़ी है, जिसने 1998-99 में न्यू जीलैंड के खिलाफ हेमिल्टन में तीसरे विकेट के लिए नाबाद 194 रन जोड़े थे. विराट कोहली और मुरली विजय ने 2014-15 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एडिलेड में 185 रन जोड़े थे, जो चौथी बड़ी साझेदारी है.

इंग्लैंड ने ओवल टेस्ट 118 रन से जीतने के साथ ही पांच टेस्ट मैचों की इस सीरीज को 4-1 से अपने नाम कर लिया. बता दें कि सीरीज के आखिरी टेस्ट की आखिरी पारी में जब भारतीय टीम ने 464 रन के विशाल लक्ष्य के सामने दो रन के योग पर ही अपने तीन अहम विकेट गंवा दिए, तब सिर्फ लाज बचाने की बात हो रही थी.

चौथे दिन का खेल खत्म होने तक भारत ने 3 विकेट पर 58 रन बनाए थे और अंतिम दिन फैंस बस यही उम्मीद कर रहे थे कि बल्लेबाज बोर्ड पर इतने रन टांग दें, जिससे शर्मनाक हार से बचा जा सके. लेकिन, आखिरी दिन भारत इतिहास रचने के करीब पहुंच जाएगा, यह किसी ने भी नहीं सोचा था.

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एसबीआई ने दिया झटकाः अब दूसरा व्यक्ति नहीं जमा कर सकेगा आपके खाते में पैसा

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नई दिल्ली। भारतीय स्टेट बैंक ने अपने तमाम ग्राहकों को बड़ा झटका दे दिया है. बैंक ने अपने खाते में पैसा जमा करने के नियमों में बड़ा बदलाव किया है. इसका असर पूरे देश में बैंक के करोड़ों ग्राहकों पर पड़ेगा. यह किया बदलाव

बैंक ने जो नया नियम बनाया है, उसके अनुसार एक कोई दूसरा व्यक्ति आपके खाते में पैसा नहीं जमा करा पाएगा. यह नियम केवल बैंक में जाकर के पैसा जमा करने पर होगा. हालांकि ऑनलाइन ट्रांसफर करने पर किसी तरह की कोई रोक नहीं लगाई है.

बाप भी नहीं कर पाएगा बेटे के खाते में पैसा जमा

इसका असर ऐसे समझिए. अगर आप पिता है और दूरदराज के गांव में रहते हैं और आपका बेटा शहर में रहकर पढ़ाई कर रहा है तो उसके खाते में किसी भी हाल में पैसा जमा नहीं कर सकेंगे. अगर आपको ऑनलाइन बैंकिंग के बारे में समझ नहीं है, तो फिर काफी मुश्किल हो जाएगी.

लेना होगा अनुमति लेटर

इस नियम के तहत ग्राहकों को दूसरे के खाते में पैसा जमा करने के लिए अनुमति लेटर लेना होगा. इस लेटर पर व्यक्ति ए और व्यक्ति बी दोनों के हस्ताक्षर होंगे. इसके अलावा बैंक काउंटर पर नकदी के साथ दी जाने वाली जमा फॉर्म पर बैंक खाता धारक का हस्ताक्षर होना चाहिए.

एसबीआई ने इस नियम को लागू किया है, उसके पीछे सबसे बड़ी वजह नोटबंदी है. ऐसा इसलिए क्योंकि नोटबंदी के दौरान कई बैंक खातों में बड़ी संख्या में हजार और पांच सौ नोट जमा किए गए थे. जांच के बाद जब लोगों से इतने सारे नोटों के बारे में पूछा जा रहा है तो उनका कहना है कि किसी अनजान शख्स ने उनके बैंक खातों में पैसे जमा करा दिए हैं. लोगों ने बैंक अधिकारियों को जवाब दिया था कि उनका इस पैसे से कोई लेना देना नहीं है.

अन्य बैंक भी लागू कर सकते हैं नियम

एसबीआई ने जिस नियम को लागू किया है, वो अन्य बैंक भी जल्द लागू कर सकते हैं. नोटबंदी के बाद आयकर विभाग ने सभी सरकारी बैंकों से यह नियम लागू करने का अनुरोध किया था. आयकर विभाग ने कहा था कि बैंक ऐसे नियम बनाएं कि कोई दूसरा शख्स किसी के बैंक खाते में नकद रुपये नहीं जमा करा पाए, ताकि कोई व्यक्ति अपने बैंक खाते में जमा पैसे के बारे में अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच न सके.

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भीमा-कोरेगांव: फैक्ट-फाइंडिंग टीम की रिपोर्ट में दावा- ‘सुनियोजित थी हिंसा, भिड़े-एकबोटे ने पैदा की स्थिति’

मुंबई। इस साल 1 जनवरी को हुए भीमा-कोरेगांव हिंसा से जुड़े तथ्यों की जांच के लिए बनाई गई 9 सदस्यों की टीम ने अपनी रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा किया है. रिपोर्ट के मुताबिक यह हिंसा सुनियोजित थी, जिन्हें रोकने के लिए पुलिस ने कुछ नहीं किया और मूकदर्शक बनी रही. यही नहीं, रिपोर्ट ने हिंसा को साजिश बताया है और कहा है कि हिंदूवादी नेता मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े ने करीब 15 साल से ऐसा माहौल बना रखा है,

यह रिपोर्ट कोल्हापुर रेंज के आईजीपी को पैनल के अध्यक्ष पुणे के डेप्युटी मेयर डॉ. सिद्धार्थ धेंडे ने सौंपी थी. भीमा कोरेगांव कमिशन ने हाल ही में मुंबई में सुनवाई का पहला चरण पूरा किया है. अब फैक्ट-फाइंडिंग टीम के एक सदस्य को पुणे में बुलाया जाएगा. टीम की रिपोर्ट में कहा गया है कि एकबोटे ने धर्मवीर संभाजी महाराज स्मृति समति की स्थापना वधु बुद्रक और गोविंद गायकवाड़ से जुड़े इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के लिए की थी. माहर जाति के गायकवाड़ ने शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी महाराज का अंतिम संस्कार किया था.

रिपोर्ट में कहा गया है- ‘संभाजी महाराज की समाधि के पास गोविंद गायकवाड़ के बारे में बताने वाले बोर्ड को हटाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केबी हेडगेवार का फोटो लगाया गया था, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी. यह अगड़ी और निचली जातियों के बीच खाई बनाने के लिए उठाया गया कदम था. अगर पुलिस ने कोई कदम उठाया होता तो किसी अनहोनी को रोका जा सकता था.’ रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि भीमा-कोरेगांव के पास सनासवाड़ी के लोगों को हिंसा के बारे में पहले से पता था. इलाके की दुकानें और होटेल बंद रखे गए थे.

रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि गांव में केरोसिन से भरे टैंकर लाए गए थे और लाठी-तलवारें पहले से रखी गई थीं. रिपोर्ट में पुलिस के मूकदर्शक बने रहने का दावा करते हुए एक डेप्युटी एसपी, एक पुलिस इंस्पेक्टर और एक अन्य पुलिस अधिकारी का नाम लिया है. दावा किया गया है कि की बार हिंसा के बारे में जानकारी दिए जाने के बाद भी पुलिस ने गंभीरता से नहीं लिया. यहां तक कि रिपोर्ट के मुताबिक दंगाई यह तक कहते रहे- ‘चिंता मत करो, पुलिस हमारे साथ है.’

रिपोर्ट में कहा गया है कि सादी वर्दी में मौजूद पुलिस भगवा झंडों के साथ भीमा-कोरेगांव जाती भीड़ को रोकने की जगह उनके साथ चल रही थी. धेंडे ने दावा किया है कि इस बात का सबूत दे दिया गया है कि दंगे सुनियोजित थे और उनका एल्गार परिषद से कोई लेना-देना नहीं है, जैसा कि पहले आरोप लगाया गया है.

उन्होंने बताया कि इतिहास से पता चलता है कि भीमा कोरेगांव और आसपास के इलाकों में दलितों और मराठाओं के बीच दुश्मनी नहीं थी लेकिन भिड़े और एकबोटे ने इतिहास की पटकथा को बदलकर सांप्रदायिक तनाव पैदा किया. समय के हिसाब से हिंदुत्ववादी ताकतों के संबंध को दिखाया है.

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एससी बनकर नौकरी हासिल करने का भांडाफोड़

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प्रतिकात्मक

नई दिल्ली। वंचित तबके को अक्सर सवर्ण तबके से यह ताना सुनना पड़ता है कि रिजर्वेशन के जरिए सारी सरकारी नौकरियां उन्होंने ले रखी है. लेकिन इस बीच एक चौंकाने वाली खबर आई है. अनुसूचित जाति आयोग के पास कई ऐसी शिकायतें आ रही हैं जहां सामान्य जाति के लोगों ने अनुसूचित जाति का नकली सर्टिफिकेट बनाकर आरक्षित तबके की हकमारी करते हुए उनके हिस्से की नौकरी ले ली है. इस तरह की शिकायतें यूपी और पंजाब से ज्यादा आ रही हैं, खासकर शिक्षा विभाग में. टाइम्स ऑफ इंडिया के हिन्दी संस्करण नवभारत टाइम्स ने इस बारे में एक खबर प्रकाशित की है. और यह खबर पूनम पांडे नाम की संवाददाता सामने ले आई हैं.

यूपी के बुलंदशहर के एक सरकारी स्कूल में भी इस तरह की शिकायत आने के बाद एससी कमिशन ने जांच के आदेश दिए हैं. कमिशन के पास शिकायत आई है कि यूपी में बुलंदशहर के सिकंदराबाद ब्लॉक के एक सरकारी स्कूल में गुंजन नाम की एक टीचर के रेकॉर्ड में गड़बड़ी है. एचआरडी मिनिस्ट्री के तहत आने वाले नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल ऐंड प्लानिंग (न्यूपा) के रेकॉर्ड के मुताबिक यह टीचर अनुसूचित जाति (एससी) कैटिगरी के तहत कार्यरत हैं. जबकि आरटीआई के जवाब में बुलंदशहर के ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर (बीएसए) ने बताया है कि यह टीचर सामान्य कैटिगरी के तहत नौकरी पर तैनात हैं.

अखबार के मुताबिक एक दूसरी आरटीआई के जवाब में यह भी पता चला है कि इनके पिता खुद सामान्य कैटिगरी के तहत नौकरी कर रहे हैं. जब एनबीटी ने बुलंदशहर के बीएसए से इस संबंध में उनका पक्ष जानना चाहा तो कई कोशिशों के बाद भी उन्होंने जवाब देने से मना कर दिया. एससी कमिशन के चेयरमैन रामशंकर कठेरिया ने इस मामले में बुलंदशहर के डीएम को जांच के आदेश दे दिए हैं. कठेरिया के मुताबिक-

यह कोई पहला मामला नहीं है जहां सामान्य जाति के लोग दलितों के लिए आरक्षित सीट पर झूठे सर्टिफिकेट बनवाकर कब्जा किए हुए हैं. कुछ दिनों पहले मथुरा से भी इस तरह की शिकायत आई थी जिस मामले में भी जांच चल रही है.

जाहिर है कि यह कोई पहला मामला नहीं है, जब इस तरह की खबर सामने आई है. अलग-अलग समय पर देश के तमाम हिस्सों से ये खबरें आती रहती है. एक तरफ तो सामान्य तबका जहां वंचित तबके पर कोटे से नौकरी हासिल करने का आरोप लगाता है तो वहीं खुद उसके हक में सेंधमारी करता है. यह खबर उन तमाम अधिकारियों पर भी सवाल खड़े करती है, जिनके पास से गुजर कर जाति प्रमाण पत्र बनता है.

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क्यों न सभी जातियों को संख्या के आधार पर आरक्षण प्रदान कर दिया जाए?

आरक्षण के मुद्दे को लेकर, फेसबुक पर अशोक कुमार गोयल लिखते हैं, ‘जब तक वर्तमान सरकार है सब लोग आरक्षण मांगो…जिस दिन गठबन्धन की सरकार आयेगी तो बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं को आरक्षण मिलेगा और बाक़ी लोग केवल संरक्षण माँगेंगे.’ इस टिप्पणी को कई लोगों द्वारा बिना किसी तर्क-वितर्क के लाइक किया गया. असल में यह एक मानसिक दिवालियेपन की निशानी है कि हम उसकी सार्थकता/सत्यता से परे होकर अपनी मानसिकता से मेल खाने वाली टिप्पणियों की वाह-वाह करने लगते हैं. असल में फेसबुक एक ऐसा प्लेटफोर्म बन गया है जिस पर ‘तू मुझे पंडा कह, मैं तुझे पंडा कहूँ’ की परिपाटी अच्छे से फलफूल रही है. गोयल जी की इस टिप्पणी पर बहुत सी कमेंटस भी आईं हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर विद्वेशपूर्ण ही हैं. कमेंट्स करने वालों में एक नबीन जी हैं जो अपने उपनाम के रूप में आचार्य लिखते हैं… लिखते हैं, ‘जो भी बुद्धिजीवी इस पलिसी पर आमादा हैं, उनके बाल-बच्चे… नाती-पोती पानी पी पी के इन को ही शरापेंगे. यह नमूने सब आज के लिये जी रहे हैं. एक दिन आयेगा हर चौक पर खम्बे गाढे जायेंगे . वह दिन ज्यादा दूर नही हैं.’ अब आपको इनकी भाषा और अन्धविश्वास से परिचय हो ही गया होगा. ऐसे लोगों के बारे में कुछ ज्यादा लिखने का मन ही नहीं करता. किसी मजबूरीवश इनका उल्लेख करना पड़ा है कि लोग जान लें कितनी योग्यता वाले लोग हैं हमारे देश में. एक महाश्य हैं… उमेश चन्द्र प्रसाद जो लिखते हैं, ‘बात तो सही ही कही है आपने गोयल जी लोग समझें तब न, गठबंधन की सरकार  आयी तो हिन्दुओं को सरंक्षण भी नहीं मिलने वाला.’ अब इनके तर्क में कितनी जान है समझ से परे है. जो पहले से ही संरक्षित हैं, उन्हें संरक्षण चाहिए खुली कब्बड्डी खेलने के लिए. विजय पाल त्यागी जी जो खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं, भला किस आधार पर ये तर्क देते हैं कि यह केवल शब्दों का खेल मात्र नहीं, एक भयावह सत्य हैं जबकि मंडल आयोग के तहत पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है. इसे कहते हैं…भेड़चाल.
जब मैंने गोयल साहेब की टिप्पणी को पढ़ा तो मैंने भी उनसे सजता से एक सवाल किया, ‘ सर! बुरा न मानें, आपके जैसे खुले दिमाग का आदमी जब खुद को ही सवालों के दायरे में ले आता है, तो हैरत भी होती है, और दुख भी…..सभी भारतीय जातियों को उनकी संख्या के अनुपात में आरक्षण दिए जाने की अपील भी कीजिये न सरकार से.’ यहाँ एक बात का खुलासा करना जरूरी है कि मैं और अशोक जी भारतीय स्टेट बैंक से ही कार्य निवृत्त हुए हैं किंतु हमारा साक्षात्कार फेसबुक के जरिए ही हुआ है, ऐसा मुझे लगता है. मेरी जितनी उम्र में याददास्त भी तो कम हो जाती है न. किंतु गोयल जी के बारे में इतना तो कहूँगा ही कि वो अक्सर खुले दिमाग से काम लेते हैं किंतु दुख जब होता है कि वो भीड़तंत्र का हिस्सा बनकर अपने ही मन को मारकर हिन्दूवादी कट्टर मानसिकता का शिकार हो जाते हैं.
मेरी टिप्पणी के जवाब में गोयल जी सवाल करते हैं, ‘क्या आरक्षण ज़रूरी है? कितने अन्य देशों में है? क्या अन्य देशों में ग़रीब, तथाकथित कुचला वर्ग नहीं है?’ इस सवाल के जवाब में मैंने उन्हें ये लिंक भेजा, ‘ Ashok Kumar Goyal ji please take a reference to it ….https://hindi.firstpost.com/…/reservation-is-in-many…HINDI.FIRSTPOST.COM जिसमें कहा गया है, ’आरक्षण पर प्रगतिशील बनिए… अमेरिका से सीख लेनी चाहिए.’ विदित हो कि अमेरिका में रिज़र्वेशन सिस्टम को अफरमेटिव ऐक्शन कहते हैं. वहां नस्लीय रूप से भेदभाव झेलने वाले समूहों को कई जगह बराबर प्रतिनिधित्व के लिए अतिरिक्त नंबर दिए जाते हैं.
पोस्ट में कहा गया है कि पिछले दिनों दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले एक नेता का वीडियो वायरल हो गया, जिसमें वो जाति प्रथा की शुरुआत के पीछे एक नेता को जिम्मेदार बताते हैं जिसका नाम लेने से वो बचते दिखे. ज्यादातर लोगों ने माना कि वो नेता जी इशारों-इशारों में डॉ अंबेडकर की बात कर रहे हैं. हालांकि बाद में सफाई आई कि ये इशारा दरअसल वीपी सिंह और मंडल कमीशन के लिए था. ये तर्क भी तो गले नहीं उतरता है. क्योंकि कोई भी नहीं मानेगा कि भारत में जाति प्रथा की शुरुआत 1990 के दशक में हुई. यह तो हजारों साल पहले की बीमारी है.
यह भी कि इस तरह के बयान कोई नई बात नहीं हैं. कैमरे पर भले ही ऐसी बातें कम सुनने को मिलती हों, लेकिन  आम ज़िंदगी में अंबेडकर को आरक्षण और जाति वैमनस्य के लिए दोष देने वाले लोग कम नहीं हैं. ऐसी बातों में एक और तर्क होता है कि भारत के सरकारी सिस्टम के पिछड़े होने की बड़ी वजह आरक्षण है, अमेरिका जैसे देश हमसे आगे हैं क्योंकि वहां रिजर्वेशन नहीं होता. … ऐसी बातें करने वालों को चाहिए कि पहले वो अपने ज्ञान को अंतर्राष्टीय स्तर पर परखें फिर कुछ बोलने का साहस करें. वो नहीं जानते कि अलग-अलग देशों में अलग-अलग नाम से आरक्षण की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है. उनको चाहिए कि वो अम्बेडकर और जाति की बात करने से पहले भौगोलिक सामाजिक स्थितियों के रूबरू होलें. अमेरिका, कनाडा, चीन, फिनलैंड, जर्मनी, इज़रायल और जापान जैसे प्रगतिशील अनेक  देशों में अलग-अलग तरीकों से आरक्षण मौजूद है. इन नियमों में हर देश की परिस्थिति के चलते कई अंतर भी हैं, ये अलग बात है क्योंकि हरेक देश की सामाजिक , राजनीतिक , धार्मिक और व्यावसायिक स्थिती अलग-अलग होती है.
पोस्ट में आगे कहा गया है कि आरक्षण की पेचीदगियों को छोड़िए, वापस आते हैं हिंदुस्तान में होने वाले जाति भेदभाव
पर आज के शहरी या अर्धशहरी भारत में किसी से पूछिए कि क्या वो जाति में यकीन रखता है…बिना सोचे समझे उसका जवाब होगा… नहीं. इसके समर्थन में लोग अक्सर एक साथ बैठकर खाना खाने का तर्क देते हैं. ये भी कहते हैं कि हमने कभी सामने वाले-वाली का सरनेम भी नहीं पूछा….किंतु मेरा अनुभव कहता है कि ये सब बातें सत्य से परे की हैं. सच तो ये है कि हमें समता, समानता और बन्धुत्व की वकालत करने की मिध्या आदत सी पड़ गई है. हमारे आचरण और बयानों में जमीन और आसमान का अंतर होता है.
दफ्तरों में जो बराबरी का आलम देखने को मिलता है वो इसलिए नहीं कि जाति-भेद समाप्ती की ओर है, अपितु दफ्तरों की ये प्रगतिशीलता जाति से ज्यादा आर्थिक बराबरी के कारण दिखाई देती है. एक दफ्तर में काम करने वाले लोग अमूमन एक जैसे स्तर के थोड़ा ही ऊपर-नीचे होते हैं. एक जैसी जीवनचर्या, रहन-सहन के चलते एक दूसरे के साथ खाना-पीना कोई बड़ी बात नहीं है….कई मायनों में ये मजबूरी भी है. मगर अरेंज मैरिज जैसे मामलों में ऐसी प्रगतिशीलता शायद ही कभी देखने को मिलती हो. कई सारे प्राइवेट सेक्टरों में उच्च जातियों की अधिकता है, इनमें से ज्यादतर लोग जब किसी नए व्यक्ति का काम के लिए रेफरेंस देते हैं, तो अधिक संभावना होती है कि वो सवर्ण जाति समूह से हो. ऐसा जानबूझ कर न भी किया जाता हो तो फिर भी होता ही है. जिसके चलते बिना चाहे भी एक समूह को ज्यादा मौकै मिलते हैं.
उल्लेखनीय है कि रिज़र्वेशन का विरोध करने वालों की सबसे बड़ी आपत्ति सरकारी नौकरियों पर होती है… राजनीति में आरक्षण पर नहीं. जबकि आज के समय में सरकारी नौकरियों पर तो मोदी सरकार पालथी मारकर बैठी है. निजी क्षेत्रों की व्यावसायिक इकाईयों को बल प्रदान किया जा रहा है जो अक्सर ठेका-आधार पर कर्मचारियों की भर्ती करते हैं. न केवल इतना वो संस्थान सरकार द्वारा तय वेतन तक भी नहीं देते. ऐसे में आरक्षण के खिलाफ बगावत करना, कितना तर्कसंगत है, ये विरोधी ही सोचें. दूसरे, समूचे समाज में देश की 85% जनता को केवल 50% प्रतिशत का आरक्षण तय है, इसके विपरीत देश की 15% जनता के लिए भी 50%….. इस व्यवस्था को कैसे न्याय संगत ठहराया जा सकता है? कहना अतिशयोक्ति न होगा कि रिजर्वेशन वास्तव में जैसा है और इसे जैसे पेश किया जाता है, इसमें में बड़ा फर्क है. आरक्षण का विरोध करने वाले राजनीति से ज्यादा अक्सर जाति के दंभ के जरिए सियासत करते हैं.
भारत में जाति-प्रथा हमेशा से क्रूर तरीके से बनी आ रही है…. आज भी वैसे ही है. राजनीति बेशक जाति-प्रथा के कम हो जाने का ढोल पीटती रहे किंतु वास्तविक जीवन में जाति-प्रथा आज भी बदस्तूर बरकरार है. अखबारों के स्थानीय पन्नों में छपने वाले ‘दलित को घोड़ी चढ़ने पर पीटा’ जैसे समाचार छोड़ दीजिए, सोशल मीडिया पर दलित प्रतीकों की ट्रोलिंग इस सत्य के प्रमाण हैं. फ़िर अनुसूचित जातियों/जन जातियों के आरक्षण पर आपत्ति क्यों? आपत्ति तो इस बात पर होनी चाहिए कि भारतीय समाज की  15% आबादी को 50% आरक्षण क्यों? होना तो ये चाहिए कि भारतीय समाज की तमाम जातियों को उनकी संख्या के आधार पर सरकारी नौकरियों में ही नहीं, अपितु हरेक क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान कर दिया जाना चाहिए जिससे ये रोज-रोज का आरक्षण विलाप शायद बन्द हो जाए.
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यूपी में गठबंधन पर नया ट्विस्ट, जानिए सपा-बसपा का नया प्लॉन

नई दिल्ली। 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ प्रस्तावित गठबंधन में एक नया ट्विस्ट आ गया है. पहले जहां गठबंधन में सिर्फ सपा और बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की खबर आ रही थी तो वहीं अब नई खबर यह है अब यूपी में गठबंधन नहीं बल्कि महागठबंधन बनाने की तैयारी है. इस क्रम में छोटे दलों को भी दो-तीन सीट दी जा सकती है. चौंकाने वाली खबर यह है कि इस महागठबंधन में आम आदमी पार्टी को भी शामिल करने की चर्चा चल रही है. आप को एनसीआर में एक सीट देने की बात सामने आ रही है. इसके अलावा कृष्णा पटेल के अपना दल व वामपंथी दलों को भी एकाध सीट मिल सकती है. रालोद के लिए जो सीट छोड़ी जाएगी वह पश्चिमी यूपी के जाट बहुल इलाकों की होगी. इनमें बागपत, मुजफ्फरनगर, कैराना व मथुरा जैसी सीट शामिल है. रालोद के लिए जो सीट छोड़ी जाएगी वह पश्चिमी यूपी के जाट बहुल इलाकों की होगी. इनमें बागपत, मुजफ्फरनगर, कैराना व मथुरा जैसी सीट शामिल है. खबर यह भी है कि छोटे दलों के एक-दो नेता बड़ी पार्टियों के सिंबल पर चुनाव लड़ें. सपा और बसपा उपचुनावों में इस तरह का सफल प्रयोग कर चुकी हैं.

गोरखपुर में सपा ने निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को प्रत्याशी बनाया था. जिन दलों के नेताओं को दूसरे दल के सिंबल पर चुनाव लड़ाने की बात कही जा रही है, उसमें पीस पार्टी, अपना दल, वामपंथी समेत अन्य छोटे दलों का नाम शामिल है. इन नेताओं को लोकसभा में पहुंचाने के लिए उन्हें दूसरे दलों के सिंबल पर चुनाव लड़ाया जा सकता है.

कांग्रेस को भी महागठबंधन में रखने के प्रयास हो रहे हैं लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में इस साल के आखिर में होने वाले चुनाव को लेकर कांग्रेस का बसपा व सपा के प्रति क्या रुख रहता है?

चर्चा है कि, गठबंधन के घटक दलों के बीच जल्द ही सीटों के बंटवारे को लेकर बातचीत होगी. लेकिन यह साफ है कि इस महागठबंधन में सपा और बसपा सबसे बड़े घटक दल होंगे.

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विपक्ष के बंद के बीच फिर बढ़े तेल के दाम

नई दिल्ली। हर रोज पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी ने रिकार्ड तोड़ दिया है. इस बढ़ोतरी से जहां लोग हलकान हैं तो विपक्षी दलों ने आज बढ़ रही कीमतों के खिलाफ भारत बंद बुलाया है. इजाफे के खिलाफ आज कांग्रेस समेत 21 दलों ने भारत बंद बुलाया है. इस बीच आज भी पेट्रोल-डीजल के रेट में कमी नहीं आई है, बल्कि दाम और बढ़ गए हैं. पेट्रोल के रेट में 23 पैसे की वृद्धि हुई है जबकि डीजल में 22 पैसे की बढ़ोतरी हुई है.

इसके साथ ही अब दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 80 रुपये 73 पैसे प्रति लीटर पहुंच गई है. जबकि मुंबई में एक लीटर पेट्रोल का दाम 88 रुपये 12 पैसे पहुंच गया है. वहीं, डीजल के रेट में भी राहत नहीं मिली है. आज इसके दाम में 22 पैसे की बढ़ोतरी हुई है, जिसके बाद दिल्ली में एक लीटर डीजल के लिए 72 रुपये 83 पैसे खर्च करने पड़ेंगे. जबकि मुंबई की बात की जाए तो यहां एक लीटर डीजल का रेट बढ़कर 77 रुपये 32 पैसे हो गया है.

बता दें कि पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों के विरोध में कांग्रेस ने आज भारत बंद का आह्वान किया है. सुबह भारत बंद की अगुवाई यूपीए अध्यक्ष राहुल गांधी ने की तो दोपहर तक यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने कमान अपने हाथ में ले ली. कांग्रेस का दावा है कि उन्हें 21 दलों का समर्थन है. इससे पहले सुबह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राजघाट जाकर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी. राहुल गांधी ने इस दौरान मानसरोवर से लाए जल को राष्ट्रपिता की समाधि पर चढ़ाया.

11 बजते-बजते बंद ने बड़ा रूप ले लिया. मुंबई से लेकर बिहार तक में बंद का असर देखने को मिला. बिहार में पप्पू यादव के समर्थकों द्वारा तोड़-फोड़ की भी खबर है.

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कब्र से निकले कंकाल ने बताया सवर्ण हिन्दुओं का चौंकाने वाला सच

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नई दिल्ली। एससी-एसटी समाज को मिले हकों के विरोध में देश का सवर्ण तबका काफी मुखर रहा है. बात चाहे आरक्षण की हो या फिर अन्य बातों की, वंचित तबका हमेशा सवर्णों के निशाने पर रहा है. वंचित तबके का तर्क होता है कि वो देश का मूलनिवासी है और सवर्ण समाज ने तमाम साजिशों और छल-कपट के जरिए उसे उसी के देश में तमाम हकों से वंचित कर दिया है. सवर्ण हिन्दू समाज को हमेशा देश के बाहर से भारत आने की बात कही जाती है. यह बहस काफी पुरानी है.

हाल ही में हरियाणा के राखीगढ़ी में मिले 4500 साल पुराने कंकाल के ‘पेट्रस बोन’ जिसमें कई गुणा ज्यादा डीएनए मिलते हैं के अवशेषों के अध्ययन के परिणामों ने एक नई बहस छेड़ दी है. देश की प्रतिष्ठित पत्रिका इंडिया टुडे के संवाददाता काय फ्रीजे ने इस मुद्दे का विश्लेषण किया है, जिसे इस प्रतिष्ठित पत्रिका ने कवर स्टोरी के रूप में प्रकाशित की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक राखीगढ़ी में मिले कंकाल का डीएनडी यह बताता है कि वह देश के द्रविड़ों के ज्यादा करीब हैं.

राखीगढ़ी के इस नए शोध से चौंकाने वाला खुलासा हो सकता है. दरअसल राखीगढ़ी पिछले डेढ़ दशक से हड़प्पायुगीन/सिंधु घाटी के भारत के सबसे बड़े क्षेत्र के रूप में पाठ्य पुस्तकों, पर्यटन के पर्चों और मीडिया में छाया रहा है. 2014 से तो इसे बाकायदा पाकिस्तान के सिंध स्थित पुरातात्विक स्थल ‘मोएनजो-दड़ों’ से भी बड़ा बताया जा रहा है, जिसकी पहली बार 1920 के दशक में खुदाई हुई थी. राखीगढ़ी में जो कंकाल सामने आय़ा है उसे ‘आई4411’ का नाम दिया गया है. इस साइट से प्राप्त डीएनए में आनुवंशिक मार्कर ‘आर1ए1’ का कोई संकेत नहीं पाया गया है. यह काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ‘आर1ए1’ को ही आर्य जीन कहा जाता है.

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शोध यह बताते हैं कि उत्तर-पश्चिम से आए आर्य आक्रमणकारियों ने हड़प्पा सभ्यता को पूरी तरह नष्ट कर के हिन्दू भारत की नींव रखी. हालांकि बाद में इस सिद्धांत को खारिज करने की कोशिश की गई क्योंकि आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत हिन्दुत्व के पैरोकार राष्ट्रवादियों को चुभता है. जबकि एक सच यह भी है कि सिंधु घाटी सभ्यता पहले से ही अस्तित्व में थी और यह पशुपालकों, घोड़े और रथ की सवारी करने वाले, कुल्हाड़ी एवं अन्य हथियारों से लैस, प्रोट-संस्कृतभाषी प्रवासियों, जिनके वंश आज उत्तर भारतीय समुदायों की उच्च जातियों में सबसे स्पष्ट रूप से दिखते हैं, से एकदम भिन्न थी. बाल गंगाधर तिलक ने भी माना था कि आर्य भारत में ईसा पूर्व 8000 में आर्कटिक से आए.

दूसरी ओर हड़प्पा सभ्यता को लेकर इस तरह के शोध को केंद्र सरकार के हिन्दुत्व के एजेंडे से टकराना पर सकता है, जिसकी राजनीति वैदिक हिन्दू धर्म को भारतीय सभ्यता की उत्पत्ति बताए जाने की मांग करती है. वैज्ञानिक साक्ष्य के हिन्दुत्ववादी भावनाओं के आड़े आने के बाद कई तरह के आक्षेपों और पत्रकारिता के जरिए भ्रम फैलाने की कोशिशें हो रही थी ताकि मूल बातें दबाई जा सकें. 2014 में भाजपा के बहुमत वाली सरकार आने के बाद से हिन्दुत्ववादी इतिहास के आत्म-मुग्ध आग्रहों को नई ऊर्जा और फंड, दोनों प्राप्त हुए हैं. भारतीय इतिहास को फिर से लिखने के प्रोजेक्ट को बढ़ावा देने के अभियान की कमान केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने संभाली है.

इसी साल मार्च में रॉयटर ने जनवरी 2017 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक के कार्यालय में शर्मा द्वारा आयोजित‘इतिहास समिति’ की एक बैठक के विवरण का खुलासा करती एक रिपोर्ट दी. समिति के अध्यक्ष के.एन. दीक्षित के अनुसार इसे एक ऐसी रिपोर्ट पेश करने का काम सौंपा गया, जिसके आधार पर सरकार को प्राचीन इतिहास के कुछ पहलुओं को फिर से लिखने में मदद मिल सके. बैठक के विवरणों में दर्ज हुआ, “समिति लक्ष्य निर्धारित करती है- पुरातात्विक खोजों और डीएनए जैसे प्रमाणों का उपयोग करते हुए यह साबित करना कि आज के हिन्दू ही हजारों साल पहले इस भूमि से सीधे अवतीर्ण हुए और वे ही इसके मूल निवासी हैं. और इसमें यह भी स्थापित करना है कि प्राचीन हिन्दू ग्रंथ तथ्य आधारित हैं, कोई मिथक नहीं.”

रॉयटर की यह रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुत्व के पैरोकार खुद को देश का मूल निवासी साबित करने के लिए किस तरह छटपटा रहे हैं. और इसके लिए वह वैज्ञानिक तथ्यों को भी दरकिनार कर देने के लिए तैयार हैं.

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आम्बेडकर की शरण में भाजपा

नई दिल्ली। देश की राजनीति में एससी-एसटी समाज के बढ़ते दखल औऱ प्रभाव से डरी भाजपा इस समाज के उद्धारक डॉ. अम्बेडकर की शरण में पहुंच गई है. 2 अप्रैल को समाज के आखिरी छोर पर खड़े लोगों के हुंकार से हिली भाजपा अब तक संभल नहीं पाई है. यही वहज है कि आनन-फानन में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की दिल्ली में बैठक बुलाई है. दो दिवसीय यह बैठक 9 और 10 सितंबर को हो रही है.

इस बैठक में सभी राज्यों के अध्यक्ष रिपोर्ट कार्ड पेश करेंगे. चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले आयोजित इस बैठक में एससी/एसटी एक्ट में संशोधन के बाद जो हालात बने हैं, उस पर चर्चा की जाएगी. भाजपा जहां देश के वंचित तबके को नाराज करने का खतरा नहीं उठाना चाहती है तो वहीं सवर्ण समाज के सड़क पर उतरने से भी भाजपा मुश्किल में है. पार्टी जल्द से जल्द इस मुद्दे को सुलझाना चाहती है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यही कवायद होने की चर्चा है. हालांकि इस बैठक में सबसे ज्यादा ध्यान खिंचने वाली बात यह रही कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की इस बैठक को दिल्ली स्थित अम्बेडकर इंटरनेशल सेंटर में आयोजित किया गया है. बैठक से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा पर फूल भी चढ़ाए. अम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होना इसलिए भी चौंकाने वाला है क्योंकि भाजपा के पास अपना नवनिर्मित आलीशान कार्यालय है, जहां सभी आधुनिक सुविधाएं मौजूद हैं. उसे छोड़ कर डॉ. आम्बेडकर से जुड़े संस्थान में बैठक कर भाजपा राजनीतिक तौर पर वंचितों को क्या संदेश देना चाहती है यह तो वही जाने लेकिन इससे जाहिर है कि भाजपा 2019 चुनाव को लेकर बेहद डरी हुई है. और इस डर से निकलने के लिए और वंचित तबके को लुभाने के लिए वह बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर की शरण में है.

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जातिवादियों के मुंह पर तमाचा मारती है यह रिपोर्ट

नई दिल्ली। खबर थोड़ी सी पुरानी है. लेकिन ज्यादा नहीं. इसी साल अप्रैल महीने में देश के बड़े समाचार पत्र हिन्दुस्तान टाईम्स ने एक खबर छापी थी. वंचित तबके के नजरिए से हालांकि यह खबर बहुत बड़ी थी, लेकिन फिर भी इस खबर को महज सिंगल कॉलम में प्रकाशित किया गया. खैर…. बड़े समाचार पत्र में इस खबर का प्रकाशित होना सबसे महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह खबर वंचित तबके के लिए काफी अहम थी.

इस रिपोर्ट में एक शोध का हवाला देते हुए कहा गया है कि एससी-एसटी वर्ग के इंजीनियरिंग के छात्र पढ़ने में ज्यादा तेज हैं, जी हां आपने बिल्कुल सही सुना…कि एससी-एसटी वर्ग के इंजीनियरिंग के छात्र सामान्य वर्ग के छात्रों से ज्यादा तेज हैं. इस बात को दो बार कहने की जरूरत इसलिए महसूस हो रही है, क्योंकि आम तौर पर वंचित तबके के छात्रों के शिक्षा में बेहतर नहीं होने का सवाल उठाया जाता है. बात जब टेक्निकल एजुकेशन की हो तो उन पर उंगुलियां ज्यादा उठती है. रिपोर्ट में जो लिखा है, वो मैं आपको एक बार पढ़कर सुनाता हूं.Engineering students from the Scheduled castes and Scheduled tribe learn at faster rate than those from the general category.

जिस शोध का हवाला दिया गया है वह स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी, ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन और वर्ल्ड बैंक द्वारा किया गया है. यह शोध देश भर के पहले और तीसरे वर्ष के इंजीनियरिंग के 45,453 इंजीनियरिंग छात्रों पर किया गया है. इस शोध में एक IIT, सात नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी सहित AICTE के तहत आने वाले इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूटों को शामिल किया गया है.

यह रिपोर्ट दरअसल भारत के जातिवादी तबके और आरक्षण की बात कह कर हर वक्त देश के वंचित तबके को कोसते रहने वालों के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा है. साथ ही जातिवादी तबके के लिए एक सबक भी है कि देश का वंचित तबका अगर पिछड़ा है तो मौका नहीं मिलने की वजह से, न कि कम प्रतिभावान होने के कारण. इसे भी पढ़ें-शोधार्थियों व समाज कर्मियों ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ भरी हुंकार.
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मीडिया में दलित शब्द की मनाही के मायने

मुंबई उच्च न्यायालय और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के हवाले से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया को निर्देशित किया है कि वह ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल न करें. दलित के स्थान पर अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग करें. अदालती उपयोग के लिए अ.जा-अ.ज.जा. शब्द का प्रयोग सही है. परन्तु मीडिया में दलित शब्द का इस्तेमाल रोकने की सरकारी सलाह व्यावहारिक नहीं है. क्योंकि ‘दलित’ शब्द किसी जाति या किसी धर्म के विरोध में नहीं है. मीडिया में इस्तेमाल रुकने का मतलब है. साहित्यिक अध्ययनों और विमर्शों में भी ‘दलित’ शब्द को प्रतिबंधित किया जाना.

इस खबर से दलित बुद्धिजीवि दलित नेता दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं में बेचैनी फैल गई है. क्योंकि ‘दलित’ शब्द की पाबंदी मीडिया तक सीमित नहीं है. वह दलित राजनीति ‘दलित’ साहित्य और दलित समाज तक जाएगी. क्योंकि साहित्य भी सीमित अर्थों में मीडिया ही है.

देश की वंचित अस्पृश्य जातियों ने अछूत शब्द को छोड़ा है और कुछ दलित जिन्हेंने गांधी जी क े‘हरिजन’ शब्द को ले लिया था उन्होंने भी ‘दलित’ शब्द अपना लिया. इसलिए कि ‘हरिजन’ शब्द के निहितार्थ डॉ. अम्बेडकर को भी स्वीकार नहीं थे. पर दलित शब्द अधिसंख्य दलितों को स्वयं स्वीकार्य था, जो अपमान बोधक नहीं स्थिति बोधक था. कुछ लोग कहते हैं कि यह संविधान में नहीं है, मानो संविधान कोई शब्दकोष हो जिसमें दलित शब्द संकलित और परिभाषित किया जाता हो. हां, जिन्हें यह शब्द संविधान में भी चाहिए वे मांग कर सकते हैं कि आवश्यक समझा जाए तो इसे संविधान में भी रख लिया जाए, पर ध्यान रहे संविधान के जनक बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने संविधान की रचना करने का कार्यभार अपने जिम्मे लेने से पहले ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किया था. अंग्रेजी में वे जिसे डिप्प्रेस्ड और मराठी में बहिष्कृत कह रहे थे. उसका हिंदी पर्याय दलित ही है और हिंदी के दलित को अब अंग्रेजी, मराठी, तमिल, तेलुगू और पंजाबी आदि सभी भाषाओं ने अनपा लिया है. जहां तक मीडिया का प्रश्न है. डॉ. अम्बेडकर स्वयं मूकनायक, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘समता’ और ‘जनता’ नामक मराठी समाचार पत्रों के संपादक थे. वे अपने इस मीडिया में ‘दलित’ बहिष्कृत शब्दों का खूब प्रयोग करते थे. वे जानते थे ‘दलित’ शब्द जाति सूचक नहीं है. यह तमाम बहिष्कृत और अधिकार वंचित जातियों उपजातियों का एक समूह, एक वर्ग के रूप में जोड़ता है और बिखरी हुई शोषित-पीड़ित जातियों को उनकी वास्तविक स्थिति से अवगत कराता है. जिससे कि उनमें कारण और निवारण की समझ पैदा होने लगती है. वे भाग्य या नीयति के भरोसे अपनी स्थिति को नहीं छोड़ते. अपने सम्मान, सुरक्षा ज्ञान और गरिमा पाने के लिए उद्धत हो जाते हैं.

जबकि संविधान ने जातिसूचक सरनेम हटाने के संकेत दिए हैं. राय साहब राजा साहब की पदवियां समाप्त की जा चुकी. ‘दलित’ शब्द का विरोध करने वाले अपनी जाति सूचक पहचान सरनेम का प्रदर्शन किसी अवार्ड की तरह करते हैं. किसी तमगे की तरह नाम के आगे पीछे जाति दर्शक उपनाम लगाते हैं. हम मान सकते हैं कि ‘दलित’ शब्द ‘दलित पेंथर’ की स्थापना के बाद अधिक इस्तेमाल हुआ और ‘दलित पेंथर’ पर ‘ब्लैक पेंथर’ का प्रभाव था, परन्तु यह प्रभाव गुलामी से मुक्ति के लिए ही था. किसी को अपमानित करने या अपने अधीन करने के लिए नहीं था. ‘दलित’ शब्द में विस्तार की इतनी गुंजाइश है कि यदि कोई ब्राह्मण भी अछूतों जैसी दयनीय दशा में पहुंच जाता है और जन्मना जात्याभिमान से मुक्त हो जाता है तो वह भी ‘दलित’ कहा जा सकता है.

मराठी में ‘दलित’ शब्द का सामूहिक इस्तेमाल खूब हुआ है. डॉ. अम्बेडकर ने जुलाई 1942 के नागपुर में तीन दिवसीय सम्मेलन में बहिष्कृत जातियों को डिप्प्रेस्ड कहा डिप्प्रेस्ड क्लास महिला सम्मेलन किया . हिंदी मराठी में अंग्रेजी का डिप्प्रेस दलित कहा . बाद में अंग्रेजी में भी ‘दलित’ शब्द अपना लिया गया. ज्योतिबा फुले कृत ‘गुलामगिरी’ और डॉ. अम्बेकर कृत ‘अछूत’ पुस्तकों ने विशेष आधार प्रदान किये.

1958 में महाराष्ट्र में हुए दलित साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन अन्ना भाउ साठे ने किया था और 1978 में औरंगाबाद में हुए अखिल भारतीय दलित साहित्य सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण कथाकार कमलेश्वर ने दिया था. 1993 से1996 के दौरान ‘अंगुत्तर’ के संपादक डॉ. विमल कीर्ति ने अखिल भारतीय स्तर के तीन दलित साहित्य सम्मेलन कराए थे जिनमें ‘दलित’ शब्द को व्यापक स्वीकृति मिली थी.

उत्पीड़ित और वंचित जातियों का साहित्य यदि दलित चेतना की वजाय कबीर रैदास की निर्वर्ण सम्प्रदाय की बुनियाद पर खड़ा होता तो वह भी निर्वर्ण साहित्य कहलाता. तब भी वर्णभेदी साहित्य से उसकी पहचान अलग ही होती. ‘दलित’ शब्द किन परिस्थियों में पैदा हुआ इसे समझने के लिए डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित ‘द अनटचेबल्स’ पुस्तक अवश्य देखनी चाहिए.

ऐसा नहीं है कि ‘दलित’ शब्द का विरोध अनुसूचित जातियों में नहीं हो. बाबा साहब ने जब 1956 में बौद्ध दीक्षा लीख् तब सभी दलित संबोधन छोड़कर नवबौद्ध के रुप में पहचाना जाने का आग्रह हुआ.

हिंदी क्षेत्र में भी आदिहिंदी मूलनिवासी नाम देने का प्रयास हुआ. दलित साहित्य की जगह शेष या वंचित साहित्य नाम सुझाए जाने लगे. आजीवक नाम भी चर्चा में आया परन्तु ‘दलित’ शब्द स्थिति बोध में सटीक और स्वीकार्यता में अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक चला गया. यह स्वेच्छा से स्वयं के लिए अपनाया गया शब्द व्यापक समाज, साहित्य और संस्कृति की पहचान बन गया. शब्द में जीवंतता वास्तविकता और गत्यात्मकता अधिक होने के कारण यह जोड़ने और एक्शन में आने के लिए सार्थक शब्द बन गया. दलितों ने यह अपने लिए लिया है दूसरों पर थोपा नहीं है, इसलिए किसी को इस पर आपत्ति न्याय संगत नहीं है. ‘दलित’ व्यवहार का शब्द है. पूर्व की अस्पृश्य रही विभिन्न जातियों उपजातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बोधक शब्द है. अनुसूचित जातियों ,अजजा, घुमंतू जातियों ,नव बौद्ध ,अस्पृश्य हिंदू सभी ‘दलित’ शब्द के दायरे में आ जाते हैं. संविधान में कहे गए अनुसूचित जाति जनजाति भी दलित शब्द के दायरे में हैं. जिन्हें कानूनी मदद की आवश्यकता हो. उन्हें एस.सी./एस.टी. के लिए किए गए प्रावधानों की मदद मिलनी चाहिए, परन्तु ‘दलित’ शब्द की बलि देकर नहीं. ‘दलित’ शब्द सामूहिकता की पहचान के साथ-साथ अमानवीय दासता मूलक स्थितियों से मुक्ति की चेतना पैदा करता है. गुलाम को गुलामी का एहसास ही आजादी की अकुलाहट पैदा करता है.

मीडिया में ‘दलित’ शब्द रोकने का मतलब दलित प्रकाशनों को भी रोकना होगा. जबकि ‘दलित’ शब्द शीर्षक के तहत देश भर में सैकड़ों दलित पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, जो सामाजिक ज्ञान का नया द्वार खोल रही हैं.

क्षेत्र के बाबू जगजीबनराम ने 1935 में ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ’ बनाया जो बिना ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किए नहीं चल सकता था. उन्हीं बाबू जी के सहयोग से 1984 में केन्द्रीय दलित साहित्य अकादमी की स्थापना हुई, जिसका विगत तीन दशकों से डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर बखूबी नेतृत्व कर रहे हैं. अकादमी की प्रादेशिक स्तर पर इसकी 35 और जिला स्तर पर इसकी 600 शाखाएं काम कर रही हैं. जाहिर है दलित साहित्य अकादमी की शाखाएं हैं तो ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल तो कर ही रही हैं. ंभारतीय दलित साहित्य अकादमी के सम्मेलनों में पूर्व राष्ट्रपति नारायन साहब, उपराष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी सहित राष्ट्रीय नेता शामिल होते रहे हैं. बेशक ये अकादमियां सरकारों द्वारा तुलनात्मक दृष्टि से सभी अनुदान कम पाती हैं ,परन्तु सामाजिक चेतना का काम अधिक करती हैं और ये भारत सरकार द्वारा कानूनी रुप से भी वैध है, पंजीकृत हैं.

इसके अलावा मुंबई के बाद जिस मध्य-प्रदेश में ‘दलित’ शब्द के प्रयोग से बचने की बात कही गई है, वहां भी उज्जैन में अवन्तिका प्रसाद मरमट द्वारा स्थापित मध्य-प्रदेश दलित साहित्य अकादमी पिछले तीन दशक से ‘दलित’ शब्द के सहारे साहित्य, इतिहास और समाज अध्ययन का काम करा रही है.

देश के सभी विश्वविद्यालयों, सभी भाषायी विषयों में ‘दलित’ शब्द के पूरे निहितार्थों के साथ शोध और अध्ययन हो रहे हैं. ‘दलित’ शब्द के सहारे भारतीय समाज की विविधता और समस्याओं को समझने की ओर बढ़ रहे हैं. प्रो. सुधेश द्वारा ‘नवें दशक की हिंदी दलित कविता पर अम्बेडकर का प्रभाव’ विषय से आरभ हुए दलित साहित्य विशेषज्ञ के शोध निर्देशकों की श्रंखला में जे.एनयू में प्रो.रामचन्द्र ,हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्रो.वी कृष्णा ,लखनऊ विवि में प्रो. कालीचरण स्नेही ,विनोवाभावे विवि में प्रो. विजय संदेश ,मुंबई विवि में प्रो सर्वदे और कुरुक्षेत्र विवि में डा. राजेन्द्र बड़गूजर ‘दलित’ शब्द और दलित साहित्य की महत्वपूर्ण सेवा कर चुके हैं.

सरकार में शामिल रामविलास पासवान दलित सेना चलाते रहे हैं और रामदास आठवले ‘दलित पेंथर’ नामक संस्था से संबद्ध रहे हैं.

संविधान में संकल्पित समता ,स्वतंत्रता और बंधुता के लक्ष्य को पाने के लिए दलित जातियों को दलित शब्द सहारा देता है तो अपने परिणाम में वह स्वस्थ और समर्थ समाज बनाने की आधार भूत प्रेरणा देता है.

‘दलित’ शब्द को इतिहास की वस्तु बना देने के लिए तो गैर दलितां ंको भी दलितों के उत्थान में सहायक बनना होगा. एक देशबन्धु की भावना और व्यवहार विकसित करना पड़ेगा. अंत में यह जानना उचित होगा कि क्या ‘दलित’ शब्द स्थायी होगा या यह समाप्त हो जाएगा?

इस शब्द का प्रयोग सौद्देश्य है. जिस दिन भारत में स्वतंत्रता मूलक समता और बंधुता स्थापित हो जाएगी , दलितों की सामाजिक शैक्षिक, सांस्कृति आर्थिक और राजनैतिक विपन्नता और समाज में व्याप्त वैषम्य की स्थिति समाप्त हो जाएगी. उस दिन ‘दलित’ शब्द स्वतः अपनी अर्थवत्ता खो देगा और इसका प्रयोग होना बंद हो जाएगा. ‘दलित’ शब्द तब अछूत ,बहिष्कृत ,हरिजन ,अन्त्यज पद दलित आदि शब्दों की तरह प्रचलन से बाहर हो जाएगा. बल्कि संविधान द्वारा विशेष प्रावधान करने की जब आवश्यकता नहीं रहेगी तब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति नामक सूची भी अप्रचलित दस्तावेज बनकर बंद हो जाएगी. कमजोरों को इतना सशक्त और समर्थ बना दिया जाएगा कि तब उनके साथ गैर दलितों में स्वैच्छिक रोटी-बेटी के रिश्ते होनें लगेंगे और मिश्रत रक्त के भारतीयों में आत्मीय प्रेम प्रगाढ़ हो जाएगा. तब कोई दलित गैर दलित नहीं सब भारतीय के रुप में ही पहचाने जाएंगे. उम्मीद है स्वयं भारतीय ही ऐसा देश और ऐसा समाज बनाएंगे.

श्यौराजसिंह बेचैन

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अमित शाह के साथ BJP पदाधिकारियों की बैठक शुरू, शाम को कार्यकारिणी में होगी चुनावों पर चर्चा

नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की शनिवार से दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक शुरू हो रही है. चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले आयोजित इस बैठक में एससी/एसटी एक्ट में संशोधन के बाद जो हालात बने हैं, उस पर चर्चा की जाएगी. पार्टी तय करेगी कि इस मसले पर विपक्ष को किस तरीके से जवाब देना है और जो भ्रम की स्थिति खड़ी हुई उससे किस तरीके से निपटा जाए. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी एनआरसी को लेकर भी बड़े पैमाने पर चर्चा करने जा रही है.

बैठक में केंद्र सरकार की उपलब्धियों पर भी प्रमुखता से चर्चा की जाएगी. पार्टी के सूत्रों का कहना है कि बैठक में हर राज्य के अध्यक्षों की तरफ से राज्य का रिपोर्ट कार्ड पेश किया जाएगा. इसके अलावा बैठक में सरकार की उपलब्धियों, खासकर बुनियादी ढांचे के विकास, दो करोड़ ग्रामीण आवास, उज्ज्वला गैस कनेक्शन, खुले में शौच मुक्त गांव और इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी में हुई बढ़ोतरी पर चर्चा होगी.

राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक शुरू होने से पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह 10 बजे राष्ट्रीय पदाधिकारियों और राज्य अध्यक्षों और संगठन महामंत्री के साथ बैठक करेंगे. इसमें राष्ट्रीय कार्यकारिणी का एजेंडा और पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी के फैसलों पर बातचीत की जाएगी. उसके बाद 3:00 बजे से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक शुरू होगी जिसमें अमित शाह अपना अध्यक्षीय भाषण देंगे.

अमित शाह के भाषण में राज्यों के चुनाव और 2019 के चुनाव का जिक्र हो सकता है. इसमें पार्टी की दशा और दिशा के बारे में बताया जाएगा. इस राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि दी जाएगी. अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में हो रही है बैठक में आर्थिक और राजनीतिक प्रस्ताव पर चर्चा होगी.

प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने बताया कि शनिवार शाम तीन बजे से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मुख्‍य बैठक शुरू होगी. इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तमाम पार्टी के बड़े नेता मौजूद रहेंगे. इस दौरान बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का भाषण होगा. इस भाषण में आने वाले चार राज्यों के चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव की दशा-दिशा तय होगी.

बैठक में राजनीतिक और आर्थिक प्रस्ताव पास किए जाएंगे. वहीं दूसरे दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समापन भाषण देंगे. शाहनवाज हुसैन ने बताया कि अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी की पहली बैठक है. ऐसे में बैठक में वाजपेयी जी को याद किया जाना स्वाभाविक है.

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एक सप्ताह बाद भी शिवपाल के सेक्युलर मोर्चे से नहीं जुड़ा वेस्ट यूपी से कोई बड़ा नाम

मेरठ। पारिवारिक और सियासी विवाद के कारण पूर्व मंत्री शिवपाल यादव के समाजवादी सेक्युलर मोर्चा बनाने के बाद वेस्ट यूपी की राजनीति में बदलाव तौर पर देखा जा रहा था. कयास लगाए जा रहे थे कि समाजवादी पार्टी (एसपी) समेत दूसरे दलों के उपेक्षित नेता मोर्चे को अपना ठिकाना बना सकते हैं. लेकिन गठन के एक सप्ताह बाद भी कोई सियासी व्यक्तित्व मोर्चे का हिस्सा नहीं बना है. इसे लेकर एसपी में सुकून महसूस किया जा रहा है. वहीं मोर्चा के नेताओं का तर्क है कि जल्दबाजी में हल्का कदम नहीं उठाने की रणनीति पर चलकर जल्द बड़ा धमाल मचाएंगे और सामूहिक तौर पर बड़े सियासी लोगों को शामिल कर ताकत दिखाई जाएगी.

शिवपाल यादव ने एसपी में खुद की बेइज्जती की इंतहा होने की बात कहकर 29 अगस्त को सेक्युलर मोर्चा गठित करने का एलान किया था. दो दिन बाद 31 अगस्त को उन्होंने अपने मोर्चे की रणनीति का ऐलान करने के लिए वेस्ट यूपी को चुना था. शिवपाल ने मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना में राष्ट्रीय एकता सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें अच्छी भीड़ भी जुटी थी. इससे गदगद शिवपाल ने 2019 में सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान करते हुए, 2022 तक की सियासी रणनीति का खुलासा कर दिया था. शिवपाल ने इस दौरान एसपी समेत दूसरे दलों की उपेक्षित नेताओं को मोर्चे में आने का खुला निमंत्रण भी दिया था.

शिवपाल के निमंत्रण के बाद कयास लगाए जा रहे थे कि वेस्ट यूपी में बड़े पैमाने पर एसपी समेत दूसरे दलों के कई बड़े चेहरे मोर्चे का हिस्सा बनेंगे. सभी राजनीतिक दलों ने अपने लोगों की निगरानी शुरू कर दी थी, जो लोग हाशिए पर थे. सियासी दल उनको मुख्यधारा में लाने के लिए मुलाकात करने लगे थे, लेकिन एक सप्ताह बाद भी किसी दल का कोई नेता या वर्कर मोर्चे से नहीं जुड़ा है. वेस्ट यूपी में मोर्चे गठन के बाद स्वागत करने के लिए या पार्टी के प्रचार के लिए किसी तरह का बैनर-पोस्टर भी देखने को नहीं मिल रहा.

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10 सितम्बर को ‘भारत बंद’ पर कांग्रेस को मिला 18 दलों का समर्थन

नई दिल्ली। पेट्रोल-डीजल के दाम में लगातार बढ़ोतरी पर नरेन्द्र मोदी सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस की ओर से आहूत 10 सितम्बर को ‘भारत बंद’ को विपक्ष की कुल 18 छोटी-बड़ी पार्टियों का समर्थन मिला है.

पार्टी सूत्रों का कहना है कि ‘भारत बंद’ के लिए समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा), द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), जद (एस), राष्ट्रीय लोकदल (रालोद), झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कई अन्य दल समर्थन कर रहे हैं.

पार्टी के एक नेता ने कहा कि कुल 18 पार्टियां भारत बंद का समर्थन कर रही हैं. सोमवार को निश्चित तौर पर भारत बंद कामयाब होगा. सूत्रों के मुताबिक पार्टी के कोषाध्यक्ष अहमद पटेल ने तकरीबन सभी विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं से बात की है. तृणमूल कांग्रेस ने बंद का समर्थन किया है, लेकिन वह इसमें भाग नहीं लेगी. सूत्रों के मुताबिक पश्चिम बंगाल में अपनी सरकार होने की वजह से तृणमूल कांग्रेस वहां जनजीवन ठप करने के पक्ष में नहीं है.

कांग्रेस ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में लगातार हो रही बढ़ोतरी के खिलाफ 10 सितंबर को ‘भारत बंद’ बुलाया है. पार्टी ने सभी सामाजिक संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वे ‘भारत बंद’ का समर्थन करें. कांग्रेस का कहना है कि उसकी ओर से बुलाया गया ‘भारत बंद’ सुबह 9 से दोपहर 3 बजे तक रहेगा ताकि आम जनता को दिक्कत नहीं हो.

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भारत बंद के बाद किस खेमे में है देश का ओबीसी

नई दिल्ली। 06 सितम्बर को भारत बंद के दौरान बाहुबली नेता पप्पू यादव की फफक कर रोती हुई तस्वीर काफी कुछ कहती है. पप्पू यादव बिहार में कोई छोटा नाम नहीं है. एक वक्त में बिहार के कुछ खास क्षेत्रों में पप्पू यादव की धमक थी. पहचाने तो वो पूरे प्रदेश में थे. हम पप्पू यादव की कोई वकालत नहीं कर रहे, लेकिन बाहुबली पप्पू यादव का सामना जब जातिवादी ताकतों से हुआ तो उन्होंने पप्पू यादव को भी नहीं बख्शा. सोचा जा सकता है कि उन लोगों के साथ इन जातिवादियों का क्या व्यवहार होता होगा, जिन्हें संबोधित करने तक से इस सरकार ने पाबंदी लगा रखी है.

मुजफ्फरपुर में पप्पू यादव जहां बंद समर्थक जातिवादियों का निशाना बनें तो बेगूसराय से खगड़िया वाले रास्ते में जातिवादियों ने श्याम रजक को भी नहीं बख्शा. पप्पू यादव ने मार-पीट की बात कही है तो श्याम रजक की गाड़ी उपद्रवियों के निशाने पर आ गई, जिससे उन्हें काफी चोट आई.

इस पूरे मसले पर बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने सही बयान दिया है. चौधरी का कहना है कि अगर बहुजन समाज के लोग सड़क पर उतर आएं तो आंदोलन करने वाले सारे लोग भाग खड़े होंगे. उन्होंने भारत बंद करने वालों को धन्यवाद दिया, जिनके कारण बहुजन एकत्रित होने लगे हैं. लेकिन इस पूरे मामले में दलित समाज का ध्यान ओबीसी समाज की ओर है. ओबीसी समाज को अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए कि वह किस खेमें के साथ है. बहुजन सच में एक साथ हैं या फिर वंचित तबके को अपनी लड़ाई अकेले लड़नी होगी?

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