मीडिया में दलित शब्द की मनाही के मायने

मुंबई उच्च न्यायालय और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के हवाले से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया को निर्देशित किया है कि वह ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल न करें. दलित के स्थान पर अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग करें. अदालती उपयोग के लिए अ.जा-अ.ज.जा. शब्द का प्रयोग सही है. परन्तु मीडिया में दलित शब्द का इस्तेमाल रोकने की सरकारी सलाह व्यावहारिक नहीं है. क्योंकि ‘दलित’ शब्द किसी जाति या किसी धर्म के विरोध में नहीं है. मीडिया में इस्तेमाल रुकने का मतलब है. साहित्यिक अध्ययनों और विमर्शों में भी ‘दलित’ शब्द को प्रतिबंधित किया जाना.

इस खबर से दलित बुद्धिजीवि दलित नेता दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं में बेचैनी फैल गई है. क्योंकि ‘दलित’ शब्द की पाबंदी मीडिया तक सीमित नहीं है. वह दलित राजनीति ‘दलित’ साहित्य और दलित समाज तक जाएगी. क्योंकि साहित्य भी सीमित अर्थों में मीडिया ही है.

देश की वंचित अस्पृश्य जातियों ने अछूत शब्द को छोड़ा है और कुछ दलित जिन्हेंने गांधी जी क े‘हरिजन’ शब्द को ले लिया था उन्होंने भी ‘दलित’ शब्द अपना लिया. इसलिए कि ‘हरिजन’ शब्द के निहितार्थ डॉ. अम्बेडकर को भी स्वीकार नहीं थे. पर दलित शब्द अधिसंख्य दलितों को स्वयं स्वीकार्य था, जो अपमान बोधक नहीं स्थिति बोधक था. कुछ लोग कहते हैं कि यह संविधान में नहीं है, मानो संविधान कोई शब्दकोष हो जिसमें दलित शब्द संकलित और परिभाषित किया जाता हो. हां, जिन्हें यह शब्द संविधान में भी चाहिए वे मांग कर सकते हैं कि आवश्यक समझा जाए तो इसे संविधान में भी रख लिया जाए, पर ध्यान रहे संविधान के जनक बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने संविधान की रचना करने का कार्यभार अपने जिम्मे लेने से पहले ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किया था. अंग्रेजी में वे जिसे डिप्प्रेस्ड और मराठी में बहिष्कृत कह रहे थे. उसका हिंदी पर्याय दलित ही है और हिंदी के दलित को अब अंग्रेजी, मराठी, तमिल, तेलुगू और पंजाबी आदि सभी भाषाओं ने अनपा लिया है. जहां तक मीडिया का प्रश्न है. डॉ. अम्बेडकर स्वयं मूकनायक, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘समता’ और ‘जनता’ नामक मराठी समाचार पत्रों के संपादक थे. वे अपने इस मीडिया में ‘दलित’ बहिष्कृत शब्दों का खूब प्रयोग करते थे. वे जानते थे ‘दलित’ शब्द जाति सूचक नहीं है. यह तमाम बहिष्कृत और अधिकार वंचित जातियों उपजातियों का एक समूह, एक वर्ग के रूप में जोड़ता है और बिखरी हुई शोषित-पीड़ित जातियों को उनकी वास्तविक स्थिति से अवगत कराता है. जिससे कि उनमें कारण और निवारण की समझ पैदा होने लगती है. वे भाग्य या नीयति के भरोसे अपनी स्थिति को नहीं छोड़ते. अपने सम्मान, सुरक्षा ज्ञान और गरिमा पाने के लिए उद्धत हो जाते हैं.

जबकि संविधान ने जातिसूचक सरनेम हटाने के संकेत दिए हैं. राय साहब राजा साहब की पदवियां समाप्त की जा चुकी. ‘दलित’ शब्द का विरोध करने वाले अपनी जाति सूचक पहचान सरनेम का प्रदर्शन किसी अवार्ड की तरह करते हैं. किसी तमगे की तरह नाम के आगे पीछे जाति दर्शक उपनाम लगाते हैं. हम मान सकते हैं कि ‘दलित’ शब्द ‘दलित पेंथर’ की स्थापना के बाद अधिक इस्तेमाल हुआ और ‘दलित पेंथर’ पर ‘ब्लैक पेंथर’ का प्रभाव था, परन्तु यह प्रभाव गुलामी से मुक्ति के लिए ही था. किसी को अपमानित करने या अपने अधीन करने के लिए नहीं था. ‘दलित’ शब्द में विस्तार की इतनी गुंजाइश है कि यदि कोई ब्राह्मण भी अछूतों जैसी दयनीय दशा में पहुंच जाता है और जन्मना जात्याभिमान से मुक्त हो जाता है तो वह भी ‘दलित’ कहा जा सकता है.

मराठी में ‘दलित’ शब्द का सामूहिक इस्तेमाल खूब हुआ है. डॉ. अम्बेडकर ने जुलाई 1942 के नागपुर में तीन दिवसीय सम्मेलन में बहिष्कृत जातियों को डिप्प्रेस्ड कहा डिप्प्रेस्ड क्लास महिला सम्मेलन किया . हिंदी मराठी में अंग्रेजी का डिप्प्रेस दलित कहा . बाद में अंग्रेजी में भी ‘दलित’ शब्द अपना लिया गया. ज्योतिबा फुले कृत ‘गुलामगिरी’ और डॉ. अम्बेकर कृत ‘अछूत’ पुस्तकों ने विशेष आधार प्रदान किये.

1958 में महाराष्ट्र में हुए दलित साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन अन्ना भाउ साठे ने किया था और 1978 में औरंगाबाद में हुए अखिल भारतीय दलित साहित्य सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण कथाकार कमलेश्वर ने दिया था. 1993 से1996 के दौरान ‘अंगुत्तर’ के संपादक डॉ. विमल कीर्ति ने अखिल भारतीय स्तर के तीन दलित साहित्य सम्मेलन कराए थे जिनमें ‘दलित’ शब्द को व्यापक स्वीकृति मिली थी.

उत्पीड़ित और वंचित जातियों का साहित्य यदि दलित चेतना की वजाय कबीर रैदास की निर्वर्ण सम्प्रदाय की बुनियाद पर खड़ा होता तो वह भी निर्वर्ण साहित्य कहलाता. तब भी वर्णभेदी साहित्य से उसकी पहचान अलग ही होती. ‘दलित’ शब्द किन परिस्थियों में पैदा हुआ इसे समझने के लिए डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित ‘द अनटचेबल्स’ पुस्तक अवश्य देखनी चाहिए.

ऐसा नहीं है कि ‘दलित’ शब्द का विरोध अनुसूचित जातियों में नहीं हो. बाबा साहब ने जब 1956 में बौद्ध दीक्षा लीख् तब सभी दलित संबोधन छोड़कर नवबौद्ध के रुप में पहचाना जाने का आग्रह हुआ.

हिंदी क्षेत्र में भी आदिहिंदी मूलनिवासी नाम देने का प्रयास हुआ. दलित साहित्य की जगह शेष या वंचित साहित्य नाम सुझाए जाने लगे. आजीवक नाम भी चर्चा में आया परन्तु ‘दलित’ शब्द स्थिति बोध में सटीक और स्वीकार्यता में अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक चला गया. यह स्वेच्छा से स्वयं के लिए अपनाया गया शब्द व्यापक समाज, साहित्य और संस्कृति की पहचान बन गया. शब्द में जीवंतता वास्तविकता और गत्यात्मकता अधिक होने के कारण यह जोड़ने और एक्शन में आने के लिए सार्थक शब्द बन गया. दलितों ने यह अपने लिए लिया है दूसरों पर थोपा नहीं है, इसलिए किसी को इस पर आपत्ति न्याय संगत नहीं है. ‘दलित’ व्यवहार का शब्द है. पूर्व की अस्पृश्य रही विभिन्न जातियों उपजातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बोधक शब्द है. अनुसूचित जातियों ,अजजा, घुमंतू जातियों ,नव बौद्ध ,अस्पृश्य हिंदू सभी ‘दलित’ शब्द के दायरे में आ जाते हैं. संविधान में कहे गए अनुसूचित जाति जनजाति भी दलित शब्द के दायरे में हैं. जिन्हें कानूनी मदद की आवश्यकता हो. उन्हें एस.सी./एस.टी. के लिए किए गए प्रावधानों की मदद मिलनी चाहिए, परन्तु ‘दलित’ शब्द की बलि देकर नहीं. ‘दलित’ शब्द सामूहिकता की पहचान के साथ-साथ अमानवीय दासता मूलक स्थितियों से मुक्ति की चेतना पैदा करता है. गुलाम को गुलामी का एहसास ही आजादी की अकुलाहट पैदा करता है.

मीडिया में ‘दलित’ शब्द रोकने का मतलब दलित प्रकाशनों को भी रोकना होगा. जबकि ‘दलित’ शब्द शीर्षक के तहत देश भर में सैकड़ों दलित पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, जो सामाजिक ज्ञान का नया द्वार खोल रही हैं.

क्षेत्र के बाबू जगजीबनराम ने 1935 में ‘अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ’ बनाया जो बिना ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किए नहीं चल सकता था. उन्हीं बाबू जी के सहयोग से 1984 में केन्द्रीय दलित साहित्य अकादमी की स्थापना हुई, जिसका विगत तीन दशकों से डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर बखूबी नेतृत्व कर रहे हैं. अकादमी की प्रादेशिक स्तर पर इसकी 35 और जिला स्तर पर इसकी 600 शाखाएं काम कर रही हैं. जाहिर है दलित साहित्य अकादमी की शाखाएं हैं तो ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल तो कर ही रही हैं. ंभारतीय दलित साहित्य अकादमी के सम्मेलनों में पूर्व राष्ट्रपति नारायन साहब, उपराष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी सहित राष्ट्रीय नेता शामिल होते रहे हैं. बेशक ये अकादमियां सरकारों द्वारा तुलनात्मक दृष्टि से सभी अनुदान कम पाती हैं ,परन्तु सामाजिक चेतना का काम अधिक करती हैं और ये भारत सरकार द्वारा कानूनी रुप से भी वैध है, पंजीकृत हैं.

इसके अलावा मुंबई के बाद जिस मध्य-प्रदेश में ‘दलित’ शब्द के प्रयोग से बचने की बात कही गई है, वहां भी उज्जैन में अवन्तिका प्रसाद मरमट द्वारा स्थापित मध्य-प्रदेश दलित साहित्य अकादमी पिछले तीन दशक से ‘दलित’ शब्द के सहारे साहित्य, इतिहास और समाज अध्ययन का काम करा रही है.

देश के सभी विश्वविद्यालयों, सभी भाषायी विषयों में ‘दलित’ शब्द के पूरे निहितार्थों के साथ शोध और अध्ययन हो रहे हैं. ‘दलित’ शब्द के सहारे भारतीय समाज की विविधता और समस्याओं को समझने की ओर बढ़ रहे हैं. प्रो. सुधेश द्वारा ‘नवें दशक की हिंदी दलित कविता पर अम्बेडकर का प्रभाव’ विषय से आरभ हुए दलित साहित्य विशेषज्ञ के शोध निर्देशकों की श्रंखला में जे.एनयू में प्रो.रामचन्द्र ,हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्रो.वी कृष्णा ,लखनऊ विवि में प्रो. कालीचरण स्नेही ,विनोवाभावे विवि में प्रो. विजय संदेश ,मुंबई विवि में प्रो सर्वदे और कुरुक्षेत्र विवि में डा. राजेन्द्र बड़गूजर ‘दलित’ शब्द और दलित साहित्य की महत्वपूर्ण सेवा कर चुके हैं.

सरकार में शामिल रामविलास पासवान दलित सेना चलाते रहे हैं और रामदास आठवले ‘दलित पेंथर’ नामक संस्था से संबद्ध रहे हैं.

संविधान में संकल्पित समता ,स्वतंत्रता और बंधुता के लक्ष्य को पाने के लिए दलित जातियों को दलित शब्द सहारा देता है तो अपने परिणाम में वह स्वस्थ और समर्थ समाज बनाने की आधार भूत प्रेरणा देता है.

‘दलित’ शब्द को इतिहास की वस्तु बना देने के लिए तो गैर दलितां ंको भी दलितों के उत्थान में सहायक बनना होगा. एक देशबन्धु की भावना और व्यवहार विकसित करना पड़ेगा. अंत में यह जानना उचित होगा कि क्या ‘दलित’ शब्द स्थायी होगा या यह समाप्त हो जाएगा?

इस शब्द का प्रयोग सौद्देश्य है. जिस दिन भारत में स्वतंत्रता मूलक समता और बंधुता स्थापित हो जाएगी , दलितों की सामाजिक शैक्षिक, सांस्कृति आर्थिक और राजनैतिक विपन्नता और समाज में व्याप्त वैषम्य की स्थिति समाप्त हो जाएगी. उस दिन ‘दलित’ शब्द स्वतः अपनी अर्थवत्ता खो देगा और इसका प्रयोग होना बंद हो जाएगा. ‘दलित’ शब्द तब अछूत ,बहिष्कृत ,हरिजन ,अन्त्यज पद दलित आदि शब्दों की तरह प्रचलन से बाहर हो जाएगा. बल्कि संविधान द्वारा विशेष प्रावधान करने की जब आवश्यकता नहीं रहेगी तब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति नामक सूची भी अप्रचलित दस्तावेज बनकर बंद हो जाएगी. कमजोरों को इतना सशक्त और समर्थ बना दिया जाएगा कि तब उनके साथ गैर दलितों में स्वैच्छिक रोटी-बेटी के रिश्ते होनें लगेंगे और मिश्रत रक्त के भारतीयों में आत्मीय प्रेम प्रगाढ़ हो जाएगा. तब कोई दलित गैर दलित नहीं सब भारतीय के रुप में ही पहचाने जाएंगे. उम्मीद है स्वयं भारतीय ही ऐसा देश और ऐसा समाज बनाएंगे.

श्यौराजसिंह बेचैन

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