राजस्थान में आदिवासियों के विकास के लिए सीएम अशोक गहलोत ने दिए 100 करोड़

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राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रदेश के आदिवासी इलाकों में विकास की विभिन्न योजनाओं के लिए 100 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। मुख्यमंत्री गहलोत ने जनजाति जनभागीदारी योजना के लिए 10 करोड़ रुपये, मारवाड़ संभाग के जनजाति समुदाय के उन्नयन कार्यक्रम के लिए 15 करोड़, सामुदायिक वन अधिकार क्षेत्र के विकास के लिए 10 करोड़, आवासीय विद्यालयों में क्षमता विकसित करने के लिए 10 करोड़, कुपोषण, टीबी, सिकल सेल्स के रोगियों को चिकित्सा और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए 5 करोड़ रुपये की मंजूरी दी। इसके अलावा आवासीय विद्यालय और छात्रावासों की रैंकिंग सुधार और सुविधाओं के विकास के लिए 10 करोड़ रुपए की स्वीकृति दी है।
इसी प्रकार मुख्यमंत्री ने टीआरआई प्रांगण में जनजाति म्यूजियम के विकास के लिए 3 करोड़, खेल छात्रावासों को खेल अकादमी में क्रमोन्नत करने और नवीन खेल अकादमी के निर्माण के लिए 5 करोड़, आंगनबाड़ी केंद्रों के भवन निर्माण के लिए 10 करोड़, डेयरी, पशुपालन, कृषि, उद्यानिकी, कुसुम, कौशल उन्नयन के माध्यम से जनजाति परिवारों की आय संवर्द्धन के लिए 10 करोड़ और विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता, कोचिंग, गेस्ट फेकल्टी सहित अन्य गतिविधियों के लिए 12 करोड़ रुपए की सैद्धांतिक मंजूरी दी है। मुख्यमंत्री की इस मंजूरी से जनजाति क्षेत्र विकास की योजनाओं को गति मिलने के साथ ही इन क्षेत्रों के निवासियों के शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक उन्नयन में मदद मिल सकेगी।
दरअसल आदिवासी क्षेत्र के नेताओं ने सरकार पर पिछले दिनों यह आरोप लगाया था कि सरकार आदिवासी क्षेत्र के लोगों के साथ उपेक्षा कर रही है। इसके बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने यह निर्णय लिया है। हालांकि यह अभी एक घोषणा है। प्रदेश के आदिवासी नेताओं और एक्टिविस्ट को यह देखना होगा कि प्रदेश सरकार द्वारा जारी की गई राशि सही जगह खर्च हो रही है या नहीं। फिलहाल इन दिनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राजस्थान में हो रहे दलित उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर दलित और आदिवासी समाज के निशाने पर हैं।

सिंधिया पर फिर मेहरबान हुए मोदी, अब इन अहम समितियों में किया शामिल

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 मंत्रिमंडल में शामिल करने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ज्यातिरादित्य सिंधिया पर एक बार फिर से मेहरबान हैं। सोमवार को कैबिनेट समितियों का पुनर्गठन हुआ, जिसके बाद नई समितिययों में ज्योतिरादित्य सिंधिया, सर्बानंद सोनोवाल और मनसुख मांडविया को जगह दी गई है। राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति में भूपेंद्र यादव, सर्बानंद सोनोवाल और मनसुख मांडविया को जगह दी गई है। इसके अलावा गिरिराज सिंह और स्मृति इरानी भी इस समिति का हिस्सा हैं। इन नेताओं को रामविलास पासवान, रविशंकर प्रसाद और हर्षवर्धन जैसे नेताओं की जगह पर शामिल किया गया है। इन्वेस्टमेंट और ग्रोथ पर निगरानी रखने वाली समिति में ज्योतिरादित्य सिंधिया, नारायण राणे और अश्विनी वैष्णव को शामिल किया गया है। यह समिति महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स को समयबद्ध पूरा करने और अन्य कामों पर नजर रखती है। 1,000 करोड़ रुपये या उससे अधिक के निवेश के मामलों पर यह कमिटी फैसला लेती है। यह कमिटी इन्फ्रास्ट्रक्चर, मैन्युफैक्चरिंग और अन्य मामलों पर फैसले लेती है।केंद्र और राज्य सरकार से जुड़े मामलों में इस समिति की अहम भूमिका होती है। आर्थिक और राजनीतिक मामलों पर फैसला लेने में भी इस समिति की राय अहम होती है। मोदी सरकार की ओर से 2019 में दो नई समितियों का गठन किया गया था- इन्वेस्टमेंट और ग्रोथ एवं रोजगार एवं स्किल डिवेलपमेंट। अश्विनी वैष्णव और भूपेंद्र यादव को रोजगार एवं स्किल डिवेलपमेंट पर बनी कमिटी में शामिल किया गया है। संसदीय मामलों पर की कैबिनेट कमिटी में नए बने कानून मंत्री किरेन रिजिजू, सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर, सामाजिक न्याय मंत्री वीरेंद्र कुमार और आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा को शामिल किया गया है। यह समिति संसद सत्रों के शेड्यूल और पेश किए जाने वाले बिलों को लेकर फैसला लेती है।

टिकट बंटवारे को लेकर बसपा ने तैयार किया नया फार्मूल, इस महीने में जारी होगी लिस्ट

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 अगले साल 2022 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर बसपा ने नया फार्मूला तैयार किया है। ऐसी चर्चा है कि बसपा प्रमुख मायावती इस बार पिछले चुनावों से अलग फार्मूला तैयार कर रही हैं। इस नए फार्मूले में मुख्य सेक्टर प्रभारियों की भूमिका महत्वपूर्ण होने की बात कही जा रही है। टिकट बंटवारे को लेकर एक सूचना यह भी सामने आ रही है कि पार्टी प्रदेश चुनाव के लिए अधिसूचना जारी होने से पहले ही टिकटों का ऐलान कर सकती है।
दरअसल आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर जिस नए फार्मूले की बात कही जा रही है, उसके मुताबिक बसपा ने इस बार टिकट बंटवारे को लेकर जिला कोऑर्डिनेटर के बजाय मुख्य सेक्टर प्रभारियों से नामों का पैनल मांगेगी। इसी  के आधार पर ही पार्टी टिकट का बंटवारा करेगी। खबर यह भी है कि बहनजी अपनी चुनावी रणनीति के तहत ब्राह्मणों और ओबीसी के उम्मीदवारों को टिकट बंटवारे में प्राथमिकता देगी। ब्राह्मणों पर दांव लगाने का कारण यह है कि पार्टी का मानना है कि ब्राह्मण समाज योगी आदित्यनाथ की सरकार से नाराज है। चर्चा है कि चुनाव मैदान में ज्यादा से ज्यादा युवा उम्मीदवारों को मौका दिया गया है। साफ है कि बहुजन समाज पार्टी और उसकी मुखिया बहन मायावती प्रदेश में 2022 के विधान सभा चुनाव के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।
इस पूरे घटनाक्रम में चुनावी अधिसूचना से पहले ही टिकटों का बंटवारा करने की रणनीति की बात करें तो अगर ऐसा होता है तो निश्चित तौर पर बसपा के उम्मीदवारों को चुनाव की तैयारी करने के लिए ज्यादा वक्त मिल जाएगा। ऐसी स्थिति में  इस बार बसपा सितंबर-अक्टूबर में पार्टियों के उम्मीदवारों के नामों का ऐलान कर सकती है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि बसपा द्वारा जल्दी अपना पता खोलने के कारण अन्य दलों को अपनी रणनीति बनाने में मदद मिल सकती है।  

उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ने जनसंख्या नीति का ऐलान किया

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नई जनसंख्या नीति 2021-30 जारी कर दी है। रविवार को एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री योगी ने इसका ऐलान करते हुए कहा कि पूरी दुनिया में बढ़ती जनसंख्या पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि बढ़ती जनसंख्या विकास में बाधा है। सीएम ने कहा कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए जागरूकता जरूरी है। इस दौरान सीएम योगी ने कहा कि जहां जनसंख्या नीति लागू है, वहां अच्छे परिणाम दिखे। जनसंखया नियंत्रण का मकसद प्रदेश में खुशहाली लाना है। सीएम योगी ने कहा कि नई जनसंख्या नीति में हर वर्ग का ध्यना रखा गया है। सीएम योगी ने कहा कि दो बच्चों के बीच उचित अंतराल नहीं होगा तो उसके पोषण पर असर पड़ेगा। हर तबके को इसके साथ जोड़ना पड़ेगा, तभी यह सफल हो पाएगा।
इससे पहले सीएम योगी ने विश्व जनसंख्या दिवस पर कहा कि बढ़ती हुई जनसंख्या समाज में व्याप्त असमानता समेत प्रमुख समस्याओं का मूल है। उन्होंने इस ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ पर लोगों से जनसंख्या से बढ़ती समस्याओं के प्रति स्वयं व समाज को जागरूक करने का प्रण लेने की अपील की। उन्होंने बढ़ती जनसंख्या को लेकर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि प्रदेश के विकास के लिए इसकी वृद्धि दर को नियंत्रित करना जरूरी है। सभी लोगों को बेहतर सुविधा देने के लिए जनसंख्या घनत्व को कम करना होगा। साथ ही उन्होंने कहा कि छोटा परिवार ही खुशहाली का आधार हो सकता है। हालांकि जनसंख्या नीति के ऐलान के साथ इसके पक्ष-विपक्ष में बहस शुरू हो गई है।

बिना कोच गोल्ड मैटल जीत पूजा ने रचा इतिहास

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हाल ही में पंजाब के पटियाला में 60वीं नेशनल इंटरस्टेट सीनियर एथलेटिक्स चैम्पियनशिप 2021  (25-29 जून 2021) आयोजित हुई। इस नेशनल एथेलेटिक्स प्रतियोगिता में 10 हजार मीटर दौड़ में पूजा तेजी पहले स्थान पर रही और स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया। पूजा ने 35 मिनट 29 सेकेंड में यह दौड़ पूरी की। पूजा राज्स्थान के झालावाड़ा की रहने वाली हैं। पूजा राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर की अनेक प्रतियोगिताओं और मैराथन में कई मेडल जीत चुकी हैं। जितनी तेज रफ्तार पूजा तेजी की है उतना ही कड़ा संघर्ष पूजा तेजी ने अपने जीवन में भी किया है।

पूजा के जीत की खास बात यह रही कि उसने बिना किसी कोच के अपने दम पर यह पदक जीता। साथ ही साबित कर दिया कि भारत के ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। वैसे पूजा अपना कोच  उत्तरप्रदेश के लोंग रनर लव चौधरी को मानती है ओर बताती है की मुझे किसी भी प्रकार के गाइड की आवश्यकता होती थी तो लव चौधरी सर ही मुझे गाइड करते हैं। पूजा बताती है कि वह रोजाना 10 घंटे प्रैक्टिस में बिताती है। इसमें सुबह 4 बजे से 10 बजे तक तथा शाम को 4 से 8 बजे तक रोज प्रैक्टिस करती हैं। पूजा के परिजनों ने बताया कि वो शुरू से ही बहुत मेहनती थी। रोज सुबह जल्दी उठकर प्रैक्टिस किया करती थी। लॉक डाउन में खेल संकुल बंद होने के कारण पूजा को भवानीक्लब अन्य जगह पर प्रैक्टिस करना पड़ा था। पूजा बताती है की लॉकडाउन में मेरे जुनून को देखते हुए पुलिसकर्मियों का सहयोग मिला मुझे लॉक डाउन मे परेशानी नहीं आने दी गई।

पूजा ने इस सफलता का श्रेय पहले माता–पिता को दिया। जिन्होंने इतनी मुश्किलों और पैसों की कमी के बावजूद भी कभी प्यार में कमी नहीं आने दी और मुझे हमेशा सपोर्ट किया। मुझे बिना किसी रोक टोक के हमेशा मोटिवेट किया ताकि में अपने सपने पूरे कर सकूं। मेरी जिंदगी में मेरा सबसे बड़ा मोटिवेशन ही मेरे माता – पिता रहे हैं। इनके बाद पूजा राम मेहर को सबसे नजदीकी दोस्त मानती है पूजा कहती है की राम मेहर ने मेरा दुख सुख मे साथ दिया है।

पूजा के पिता की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी और पूजा को आगे की तैयारी के लिए पैसों की आवश्यकता थी। पूजा ने पूर्व में 10 किलोमीटर की मैराथन जीती थी जिससे खुश होकर पूजा को आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय व्यवसाय जुगनू चौधरी ने एक लाख रुपये का सहयोग दिया जिससे इस मुकाम तक पंहुचना संभव हो सक।

राजस्थान के झालावाड़ शहर के बस स्टैंड के पास बाल्मीकी मोहल्ले की रहने वाली पूजा तेजी का जन्म 07 जुलाई 1994 को दीनदयाल तेजी के घर पाँचवी संतान के रूप में हुआ। पूजा से बड़े दो भाई (सूरज, आकाश) एवं तीन बहने (किरण, कोमल,पूजा) पूजा सबसे छोटी पुत्री है। पूजा की शैक्षिक योग्यता दसवीं पास है। पूजा ने खुद के जुनून के लिए अपने दलित समाज और परिवार की बेड़ियों को तोड़ा। अपने सपनों को पूरा करने के लिए पूजा ग्राउंड में भागते-भागते झालावाड़ ही नहीं बल्कि राजस्थान में बड़ा नाम बन चुकी है। इसके अलावा पिछले 3 साल से झालावाड़ के लिए एथलेटिक्स में राजस्थान स्तर पर मेडल ला रही है। पूजा ने राज्य स्तर के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर की एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा लिया और तेलंगाना, मथुरा, हैदराबाद और चंडीगढ़ जाकर भी उन्होंने मैडल जीता है।

पूजा ने एथलेटिक्स में अब तक चार गोल्ड व दो सिल्वर मैडल जीत चुकी 1. CROSS COUNTRY (10 KM) Alwar 10 Km, 30 Dec. 2018 Sunday (Gold Medal) 2. CROSS COUNTRY Dholpur 10 Km, 10 Nov. 2019 Sunday (Gold Medal) 3. CROSS COUNTRY Dholpur, 10 Km 11 Feb. 2021 Tuesday (Gold Medal) 4. Rajasthan State Sr. Athletics Shri Ganga nagar, 10 Km 13 April. 2021 (Silver Medal) 5. Rajasthan State Sr. Athletics Shri Ganga nagar, 5 Km 14 April. 2021 (Silver Medal) 6. 60th National Inter State Sr. Athletics Championships Shi Ganganagar, 10 Km 28 June. 2021 (Gold Medal)

पूजा का सपना नेशनल लेवल पर व ओलंपिक में देश के लिए गोल्ड मेडल लाकर दिखाने का है। हालांकि प्रतिभा होने के बावजूद कई बार आर्थिक बेड़ियां पूजा का रास्ता रोक देती हैं। पूजा ने आर्थिक सहयोग की अपील की है। उनका कहना है कि अगर मुझे आर्थिक सहयोग मिले तो मुझे और बेहतर प्रदर्शन कर समाज और देश का नाम ऊंचा करने में सहूलियत होगी।

AC Name- POOJA HARIJAN AC NO- 1277104000057345 BANK-IDBIBANK, JHALAWAR, RAJASTHAN IFSC-IBKL0001277 CONTACT-AAKASH (Puja Brother)-8505030924 झालावाड़ से विष्णु दयाल रैगर की रिपोर्ट

समान नागरिक संहिता : हवा का रुख देख रही मोदी सरकार

(लेखक -मुस्ताअली बोहरा) तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और अयोध्या मंदिर के बाद मोदी सरकार का अगला कदम यूनिफॉर्म सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने का है। कामन सिविल कोड के बाद केन्द्र की भाजपा सरकार एनआरसी को पूरे देश में लागू करेगी। समान नागरिक संहिता पर सुप्रीम कोर्ट भी वक्त-वक्त पर टिप्पणी कर चुका है। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता का समर्थन किया है और केंद्र सरकार से इस मामले में जरूरी कदम उठाने को कहा है। कोर्ट ने कहा कि आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे सजातीय हो रहा है, धर्म, समुदाय और जाति की पारंपरिक बाधाएं खत्म हो रही है, और इन बदलावों के मद्देनजर समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है। हालांकि, केंद्र की बीजेपी सरकार अपने पहले ही कार्यकाल से यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की कोशिश कर करती रही है। तीन तलाक और 370 की तरह यूनिफॉर्म सिविल कोड को भी विरोध और विवाद का सामना करना पड़ा था लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। दरअसल, राजनीति में जो दिखता है वो होता नहीं है। इसे भी राजनीति से प्रेरित इसलिए माना जा रहा है क्योंकि मोदी सरकार के अब तक फैसलों से यही परिदृश्य उभरकर सामने आ रहा है। तीन तलाक, अनुच्छेद 370, नोटबंदी आदि की तरह ही समान नागरिक संहिता को भी छदम देशभक्ति से जोडकर देखा जाएगा। आपको बता दें कि देश में तमाम मामलों में यूनिफॉर्म कानून हैं, लेकिन शादी, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर अभी भी फैसला पर्सनल लॉ के हिसाब से फैसला होता है। यह मसला ऐसे समय में उठा है जब केंद्र की मोदी सरकार तीन तलाक और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों पर ऐतिहासिक फैसला ले चुकी है। बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड की वकालत करते आए हैं।
दरअसल, केन्द्र की सत्त्सीन सरकार अपने उस एजेण्डे पर आगे बढ रही है जिसका उसने वादा किया था। केन्द्र सरकार पूरे देश में एक संविधान लागू करना चाहती है यानि हर शख्स के लिए एक ही कानून फिर चाहे वह किसी भी मजहब का हो। तीन तलाक को खत्म कर केन्द्र सरकार ने समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढा दिए हैं। इसके बाद राष्ट्रीय नागरिक पंजी यानि एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाएगा जो अभी असम में लागू है। समान नागरिक संहिता के लिए ठीक वैसा ही माहौल तैयार हो रहा है जैसा पहले तीन तलाक और फिर अनुच्छेद 370 को लेकर हुआ था। समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है विवाह, तलाक, संपत्ति बटवारे, उत्तराधिकार और बच्चा गोद लेने जैसे मामलों में सभी लोगों के लिए एक जैसे ही नियम। यानि जाति-धर्म अथवा परंपरा के आधार पर किसी को कोई रियायत नहीं मिलेगी। यहां बता दें कि देश में धर्म और परंपरा के नाम पर अलग नियमों का प्रचलन है। जैसे किसी समुदाय में पुरुषों को एक से ज्यादा शादी करने की इजाजत है तो कहीं-कहीं विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने की परंपरा है। ऐसे मामलों में पर्सनल लॉ के हिसाब से निर्णय लिया जाता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में प्रक्रिया के तहत तलाक के बाद मुस्लिम पुरुष तुरंत शादी कर सकता है लेकिन महिला को 4 महीने 10 दिन तक यानी इद्दत पीरियड पूरा होने तक इंतजार करना होता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ चार शादियों की इजाजत देता है, जबकि हिंदू सहित अन्य धर्मों में एक शादी का नियम है।
शादी की न्यूनतम उम्र क्या हो? इस पर भी अलग-अलग व्यवस्था है। मुस्लिम लड़कियां जब शारीरिक तौर पर बालिग हो जाएं (पीरियड आने शुरू हो जाएं) तो उन्हें निकाह के काबिल माना जाता है। अन्य धर्मों में शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल है। जहां तक तलाक का सवाल है तो हिंदू, ईसाई और पारसी में कपल कोर्ट के माध्यम से ही तलाक ले सकते हैं, लेकिन मुस्लिम धर्म में तलाक शरीयत लॉ के हिसाब से होता है। हिंदू मैरिज ऐक्ट के तहत हिंदू कपल शादी के साल भर बाद तलाक की अर्जी आपसी सहमति से डाल सकते हैं। अगर पति को असाध्य रोग हो या वह संबंध बनाने में अक्षम हो तो शादी के तुरंत बाद तलाक की अर्जी दाखिल की जा सकती है। क्रिश्चियन कपल शादी के दो साल बाद तलाक की अर्जी दाखिल कर सकते है उससे पहले नहीं। 1954-55 में विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिन्दू कोड बिल लाए। इसके आधार पर हिन्दू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून बने। मतलब हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे नियम संसद ने तय कर दिए। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के आधार पर चलने की रियायत दी गई। ऐसी छूट नगा सहित कई आदिवासी समुदायों को भी हासिल है, वो अपनी परंपरा के हिसाब से चलते हैं। यानी हिंदू, मुस्लिम और ईसाई के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ है। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने के बाद भी निकाह या विवाह की रस्म मौलवी या पंडित अदा करवाते रहेंगे, ये परंपराएं जारी रहेंगी।
यूनिफॉर्म सिविल कोड के विरोध में कहा जा रहा है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने की तरह है। मुस्लिम समुदाय के लोग तीन तलाक की तरह इस पर भी तर्क देते हैं कि वह अपने धार्मिक कानूनों के तहत ही मामले का निपटारा करेंगे। अभी कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। दूसरी तरफ कॉमन सिविल कोड के समर्थकों का कहना है कि सभी के लिए कानून एक समान होने से देश में एकता बढ़ेगी। शाह बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, विवादित विचार धाराओं से अलग एक कॉमन सिविल कोड होने से राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा। इसी केस में अदालत ने गुजारा भत्ता दिए जाने का आदेश दिया था। सरला मुदगल केस में कोर्ट ने कहा था, जब 80 फीसदी लोग को पर्सनल लॉ के दायरे में लाया गया है कि तो सभी नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड न बनाने का कोई औचित्य नहीं है। अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने ईसाई तलाक कानून में बदलाव की मांग वाली याचिका की सुनवाई करते हुए कहा था, देश में अलग अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बनी रहती है। सरकार चाहे तो एक जैसा कानून बना कर इसे दूर कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने लॉ कमीशन को मामले पर रिपोर्ट देने के लिए कहा था। लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में यूनिफार्म सिविल कोड और पर्सनल लॉ में सुधार पर सुझाव दिए। लोगों से बात की और कानूनी, सामाजिक स्थितियों की समीक्षा के आधार पर लॉ कमीशन ने कहा कि अभी समान नागरिक संहिता लाना मुमकिन नहीं है। इसकी बजाय मौजूदा पर्सनल लॉ में सुधार किया जाना चाहिए। मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता में संतुलन बनाया जाए। पारिवारिक मसलों से जुड़े पर्सनल लॉ को संसद कोडिफाई करने पर विचार करे। सभी समुदायों में समानता लाने से पहले एक समुदाय के भीतर स्त्री-पुरुष के अधिकारों में समानता लाने की कोशिश हो।
हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने कहा कि अदालतों को बार-बार पर्सनल लॉ कानूनों में उत्पन्न होने वाले संघर्षों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा, भारत के युवाओं को जो अलग समुदायों, जातियों या जनजातियों में शादी करते हैं, उन्हें अलग-अलग पर्सनल लॉ में होने वाले टकरावों से उत्तपन्न मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, खासकर शादी और तलाक के मामलों में। दिल्ली हाई कोर्ट की जज ने कहा कि भारत में समान नागरिक संहिता, संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत परिकल्पित है, सुप्रीम कोर्ट की ओर से समय-समय पर दोहराया गया है। कोर्ट ने कहा, ऐसा सिविल कोड सभी के लिए एक जैसा होगा और शादी, तलाक और उत्तराधिकार के मामले में समान सिद्धांतों को लागू करेगा। कोर्ट ने कहा कि इससे समाज में झगड़े और विरोधाभासों में कमी आएगी, जो कि अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से उत्पन्न होते हैं। विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल मार्च में केंद्र सरकार से भारत में धर्म-तटस्थ विरासत और उत्तराधिकार कानून को लेकर जवाब मांगा था। सर्वोच्च अदालत में वकील और भारतीय जनता पार्टी के नेता अश्विनी उपाध्याय सर्वोच्च अदालत में इस तरह की पांच याचिकाओं को स्वीकार कराने में सफल रहे हैं, इसे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है। विधिवेत्ताओं के अनुसार अनुच्छेद 44 पर बहस के दौरान बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था, व्यवहारिक रूप से इस देश में एक नागरिक संहिता है, जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। लेकिन विवाह-उत्तराधिकार का क्षेत्र ऐसा है, जहां एक समान कानून लागू नहीं है। इसके लिए हम समान कानून नहीं बना सके हैं। उन्होंने कहा था कि इस दिशा में भी धीरे-धीरे सकारात्मक बदलाव लाया जाए। बहरहाल, तीन तलाक, अयोध्या मंदिर, अनुच्छेद 370 के बीच देश से कई अहम मसले गायब हो गए जो लोकसभा चुनाव के दौरान चर्चाओं में थे। बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, शिक्षा-स्वास्थ्य, गरीबी आदि मुददों की बजाए कामन सिविल कोड, एनआरसी और जनसंख्या नियंत्रण कानून बडा मुददा बनकर उभरेगा।
लेखक मुस्ताअली बोहरा पेशे से अधिवक्ता हैं, जन मुद्दों पर लगातार लिखते रहते हैं।

मंत्रिमंडल विस्तार में ब्राह्मणों को लॉलीपॉप, जानिए किस समाज को मिली कितनी सीटें

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले कैबिनेट विस्तार में 36 नए मंत्रियों को जगह दी है। इसमें से सबसे ज्यादा 7 मंत्री उत्तर प्रदेश से बनाए गए हैं। उत्तर प्रदेश से जिन 7 नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है, उसमें महाराजगंज से सांसद पंकज चौधरी, अपना दल की अनुप्रिया पटेल, आगरा से सांसद एसपी बघेल, पांच बार सांसद रहे भानु प्रताप वर्मा, मोहनलालगंज से सांसद कौशल किशोर, राज्यसभा सांसद बीएल वर्मा और लखीमपुर खीरी से सांसद अजय कुमार मिश्रा का नाम शामिल है। यानी इसमें एक ब्राह्मण को छोड़कर बाकी छह का ताल्लुक ओबीसी और दलित समाज से है और वो भी गैर-यादव और गैर-जाटव हैं।

यानी की अगले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को देखते हुए पार्टी ने राज्य में अपने जातीय गणित को ठीक करने की कोशिश की है। मंत्रीमंडल में शामिल सात चेहरों में पंकज चौधरी और अनुप्रिया पटेल ओबीसी के कुर्मी समाज से हैं। कौशल किशोर दलित वर्ग के पासी समाज से हैं जो कि जाटव के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा वोटर है। बीएल वर्मा ओबीसी के लोध समाज से आते हैं और भानु प्रताप वर्मा भी दलित वर्ग से हैं। यानी साफ दिख रहा है कि उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण समाज एक बार फिर भाजपा में हाशिये पर आ गया है। और इस मंत्रिमंडल विस्तार में उसे झटका लगा है।

कैबिनेट विस्तार से पहले मंत्री पद के लिए यूपी से ब्राह्मण चेहरे के तौर पर रीता बहुगुणा जोशी और हाल ही में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए जितेंद्र प्रसाद जैसे नामों की चर्चा थी, लेकिन इन बड़े नामों को दरकिनार करते हुए अजय मिश्रा को जगह दी गई, जो कि न तो कोई जाना-पहचाना नाम हैं और न ही पार्टी का ब्राह्मण चेहरा ही हैं। यानी योगी आदित्यनाथ पर जिस तरह ब्राह्मणों के विरोध के आरोप लगते रहे हैं, वह आरोप एक बार फिर पुख्ता हो गया है।

हालांकि सवाल यह है कि क्या इन जातिगत समीकरणों को साधने से ही भाजपा की उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी हो जाएगी। योगी सरकार पर कोविड से निपटने में हुई अव्यवस्था को लेकर जो गंभीर आरोप लगे हैं, क्या लोग उसे भूल जाएंगे? क्या ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और अस्पतालों में बेड की कमी से हुई मौतों को प्रदेश की जनता नजरअंदाज कर देगी?

हालांकि यहां सोचने वाली बात यह भी है कि भाजपा, संघ और मोदी दलितों और पिछड़ों की सत्ता में हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए राजी क्यों रहे हैं? जबकि आरएसएस और भाजपा की विचारधारा इन दोनों वर्गों के खिलाफ रही है। साफ है कि भाजपा और संघ दोनों को पता है कि वह भले ही कितने भी दांवे कर ले, केंद्र और राज्यों की सत्ता पर तभी काबिज रह सकते हैं जब उनके साथ दलित और पिछड़े यानी की बहुसंख्यक समाज के वोटरों का समर्थन हो। दलित, आदिवासी और पिछड़े समाज के नेता भले ही पचासी प्रतिशत बहुजन और पंद्रह प्रतिशत सवर्णों का फार्मूला भूल गए हों, भाजपा और संघ को यह याद है। इसलिए वह शीर्ष नेतृत्व पर काबिज रहने के लिए दलितों और पिछड़ों को तात्कालिक लाभ देकर अपने पाले में रखने की रणनीति पर चलती है। जिस दिन दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक इस रणनीति को समझ लेंगे, सत्ता उनके हाथ में होगी।

मंत्रिमंडल विस्तार में कौन-कौन बना मंत्री, किसका हुआ प्रोमोशन, देखिए पूरी लिस्ट

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 भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में पहली बार कैबिनेट विस्तार करते हुए कई नए लोगों को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया है, जबकि कुछ लोगों को प्रोमोट कर राज्यमंत्री से कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में आज (7 जुलाई) आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में कुल 43 मंत्रियों को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई गई। इनमें 36 नए चेहरे थे जबकि 7 राज्यमंत्रियों का प्रमोशन कर उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। प्रमोशन पाने वालों में किरन रिजिजू, हरदीप सिंह पुरी, अनुराग सिंह ठाकुर, जी. किशन रेड्डी के नाम शामिल हैं। जबकि कैबिनेट में जगह पाने वालों में कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल, महाराष्ट्र के पूर्व सीएम नारायण राणे, एलजेपी में बगावत करने वाले पशुपतिनाथ पारस और जेडीयू चीफ आरसीपी सिंह मंत्रिपरिषद में जगह पाने वाले प्रमुख चेहरों में शामिल हैं। नीचे पढ़िए पूरी लिस्ट की इस कैबिनेट विस्तार में किन नए चेहरों को शामिल किया गया और किनका प्रोमोशन किया गया।

मंत्रिमंडल में शामिल नए/प्रमोशन परिचय
नारायण राणे नए राज्यसभा एमपी, महाराष्ट्र के पूर्व सीएम
सर्वानंद सोनोवाल नए असम के पूर्व सीएम
डॉक्टर वीरेंद्र कुमार नए एमपी के टीकमगढ़ से बीजेपी सांसद
ज्योतिरादित्य सिंधिया नए मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद
आरसीपी सिंह नए बिहार से राज्यसभा सांसद, जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष
अश्विनी वैष्णव नए ओडिशा से बीजेपी के राज्यसभा सांसद, पूर्व नौकरशाह
पशुपति पारस नए बिहार के हाजीपुर से सांसद, एलजेपी के बागी गुट के नेता
भूपेंद्र यादव नए राजस्थान से राज्यसभा सांसद
पंकज चौधरी नए यूपी के महाराजगंज से बीजेपी सांसद
अनुप्रिया पटेल नई बीजेपी के सहयोगी अपना दल (एस) की प्रमुख, मिर्जापुर से सांसद
एसपी बघेल नए आगरा से बीजेपी सांसद
राजीव चन्द्रशेखर नए कर्नाटक से बीजेपी राज्यसभा सांसद, बिजनसमैन
शोभा करंदलाजे नई कर्नाटक के उडुपी से बीजेपी सांसद
भानु प्रताप सिंह वर्मा नए यूपी के जालौन से बीजेपी सांसद
दर्शना विक्रम जरदोश नई सूरत से बीजेपी सांसद
मीनाक्षी लेखी नई नई दिल्ली से बीजेपी सांसद, सुप्रीम कोर्ट की वकील
अन्नपूर्णा देवी नई झारखंड के कोडरमा से बीजेपी सांसद
ए नारायणस्वामी नए कर्नाटक के चित्रदुर्ग से बीजेपी सांसद
कौशल किशोर नए यूपी के मोहनलालगंज से बीजेपी सांसद
अजय भट्ट नए उत्तराखंड के नैनीताल-ऊधमसिंह नगर से बीजेपी सांसद
बीएल वर्मा नए यूपी से बीजेपी के राज्यसभा सांसद
अजय कुमार नए यूपी के खीरी से बीजेपी सांसद
चौहान दुवेसिंह नए गुजरात के खेड़ा से सांसद
भगवंत खुबा नए कर्नाटक के बीदर से सांसद
कपिल मोरेश्वर पाटिल नए महाराष्ट्र के भिवंडी से सांसद
प्रतिमा भौमिक नई त्रिपुरा वेस्ट से सांसद
सुभाष सरकार नए पश्चिम बंगाल के बांकुरा से सांसद
भगवत कृष्णाराव कारड नए महाराष्ट्र से राज्यसभा सांसद
राजकुमार रंजन सिंह नए भीतरी मणिपुर से सांसद, भूगोल के पूर्व प्रोफेसर
भारती प्रवीण पवार नई महाराष्ट्र के डिंडौरी से सांसद
बिशेश्वर तुडु नए ओडिशा के मयूरभंज से सांसद
शांतनु ठाकुर नए पश्चिम बंगाल के बनगांव से सांसद, पीएम मोदी के साथ बांग्लादेश दौरे पर भी गए थे
मुंजापारा महेंद्रभाई नए गुजरात के सुरेंद्रनगर से सांसद
जॉन बारला नए पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार से सांसद
डॉक्टर एल. मुरुगन नए फिलहाल संसद के किसी सदन के सदस्य नहीं, राजनीति में आने से पहले मद्रास हाई कोर्ट में वकील
निशीथ प्रमाणिक नए पश्चिम बंगाल के कूचबिहार से सांसद
किरेन रिजिजू प्रमोशन अभी तक खेल राज्य मंत्री, अब प्रमोशन
हरदीप पुरी प्रमोशन अभी तक शहरी विकास राज्य मंत्री, अब प्रमोशन
जी. किशन रेड्डी प्रमोशन अभी तक गृह राज्य मंत्री, अब प्रमोशन
पुरुषोत्तम रुपाला प्रमोशन अभी तक कृषि राज्य मंत्री, अब प्रमोशन
अनुराग ठाकुर प्रमोशन अभी तक वित्त राज्य मंत्री, अब प्रमोशन
मनसुख मांडविया प्रमोशन अभी तक रसायन और उर्वरक राज्य मंत्री, अब प्रमोशन
आरके सिंह प्रमोशन अभी तक ऊर्जा राज्यमंत्री, अब प्रमोशन

मोदी के मंत्रिमंडल से बाहर हुए ये 12 चेहरे

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केंद्रीय मंत्रिमंडल में बदलाव से पहले मंत्रिपरिषद के 12 सदस्यों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया जिसे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मंजूरी दी। इस्तीफा देेने वालों में सूचना व प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद, पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, डीवी सदानंद गौड़ा, थावरचंद गहलोत, संतोष कुमार गंगवार, बाबुल सुप्रियो, राव साहब दानवे, संजय धोत्रे, रतन लाल कटारिया, प्रताप चंद्र सारंगी और देबश्री चौधरी ने मंत्री पद से इस्तीफा दिया है। मोदी सरकार में उर्वरक और रसायन मंत्री गौड़ा कर्नाटक से सांसद हैं। वह कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। वहीं कर्नाटक के लिए नियुक्त किए गए राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने राज्यसभा की सदस्यता से अपना इस्तीफा राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू को सौंप दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया है।

आजमगढ़ में दलित प्रधान पर पुलिसिया क्रूरता के खिलाफ उतरा दलित समाज, मांगा इंसाफ

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आज़मगढ़ के पलिया गांव में दलित समाज के प्रधान मुन्ना पासवान पर पुलिसिया अत्याचार के खिलाफ हर ओर से विरोध की आवाज उठने लगी है। खासतौर पर दलित समाज ने इस मामले को गंभीर बताते हुए इंसाफ की मांग शुरू कर दी है। सोशल मीडिया पर इस घटना की पुरजोर चर्चा है और इस मामले को एक संपन्न दलित का विरोधियों की आंखों में खटकने के मामले के रूप में देखा जा रहा है।

इस मामले में तमाम राजनीतिक दलों ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है। बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने भी दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की मांग की है। इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने पलिया गांव में दलितों पर की गई पुलिसिया कार्रवाई को शर्मनाक बताया। साथ ही इस मामले में उन्होंने सरकार से दोषी पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई करने और पीड़ितों को आर्थिक भरपाई करने की भी मांग की। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या मुन्ना पासवान के घर को इसलिए तोड़ा गया है, क्योंकि उसका रसूख और रहन सहन कथित अगड़ों से आगे था? इस बात पर बहस छिड़ गई है।

हालांकि सुश्री मायावती ने ट्वीट करते हुए कहा कि पुलिस ने पलिया गांव के पीड़ितों को इंसाफ देने की बजाए उनके साथ ज्यादती की और उन्हें आर्थिक नुकसान पहुंचाया। ये घटना बहुत ही निंदनीय है। एक अन्य ट्वीट में उन्होंने कहा कि घटना की गंभीरता को देखते हुए बीएसपी का एक प्रतिनिधिमंडल पीड़ितों से मिलने जल्द ही पलिया गांव जाएगा। 29 जून को, आजमगढ़ जिले के पलिया गांव में छेड़छाड़ की एक घटना की जांच करने दो पुलिस वाले आए। आरोप है कि उन्होंने प्रधान को थप्पड़ मार दिया। जवाब में प्रधान पक्ष से कुछ लोगों ने पुलिसकर्मियों से मारपीट की। ग्रामीणों का आरोप है कि रात में दबिश देने आई पुलिस ने JCB से मुन्ना पासवान और पासी समाज के कुछ मकानों में को तहस नहस कर दिया और उनके जेवर और कीमती सामान लूट ले गए। पुलिस पर ग्रामीणों से लूटपाट और घर की महिलाओं के साथ बदतमीजी करने का आरोप है।  इस मामले में 11 नामजद और 135 अज्ञात लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया गया है।

इस मामले में कांग्रेस महासचिव और उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा, भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद के अलावा समाजवादी पार्टी भी आक्रामक है। यूपी में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर यह मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए एक मौका है, लेकिन यहां सवाल यह है कि आखिर मुन्ना पासवान पुलिस-प्रशासन के निशाने पर क्यों आएं? क्या इसलिए कि वह एक संपन्न दलित थे, और इसकी वजह से गांव की अगड़ी जातियां उनसे जलती थीं?

फादर स्टेन स्वामी की मौत और निरंकुश होती सत्ता पर उठते सवाल

जीवन भर आदिवासियों के हक के लिए संघर्ष करने वाले फादर स्टेन स्वामी नहीं रहें। 84 साल की उम्र में उन्होंने बतौर कैदी अस्पताल में आखिरी सांस ली। वह पिछले एक महीने से कोरोना से जूझ रहे थे और जब उनकी मृत्यु हुई वो न्यायिक हिरासत में थे। फादर स्टेन स्वामी उन तकरीबन दर्जन भर लोगों में से एक थे, जिन्हें भीमा कोरेगांव मामले में संदिग्ध मानते हुए गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने अपनी उम्र और खराब तबियत का हवाला देते हुए बेल मांगा था लेकिन अदालत ने उन्हें बेल देने से साफ इंकार कर दिया था। स्टेन स्वामी पर सरकार की ओर से आतंकवादी होने का आरोप था जिसे साबित करने में सरकार नाकाम रहीं। भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में उन पर हिंसा भड़काने का आरोप था और पिछले साथ उन्हें रांची से गिरफ्तार किया गया था, तब से वो हिरासत में थे। सोमवार दोपहर 1.30 बजे उन्हें मृत घोषित किया।

 स्टेन स्वामी की मौत के बाद तमाम लोगों ने सिस्टम पर सवाल उठाया है। इसमें सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सहित राजनीतिक दल के बड़े नेता तक शामिल हैं।

स्टेन स्वामी की मौत पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने संवेदना जताते हुए ट्वीट किया कि “वे न्याय और मानवता के हक़दार थे।”

स्टेन स्वामी ने जिस झारखंड राज्य में अपने जीवन के तीन दशक से ज्यादा का समय बिताया वहां के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेने ने केंद्र सरकार पर सवाल उठाया है, उन्होंने लिखा है-

फादर स्टेन स्वामी के निधन के बारे में जानकर स्तब्ध हूं। उन्होंने अपना जीवन आदिवासी अधिकारों के लिए काम करते हुए समर्पित कर दिया। मैंने उनकी गिरफ्तारी और कैद का कड़ा विरोध किया था। केंद्र सरकार को पूर्ण उदासीनता और समय पर चिकित्सा सेवाओं का प्रावधान न करने के लिए जवाबदेह होना चाहिए, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने लिखा है- स्टेन स्वामी नहीं रहे! लेकिन यह उनकी स्वाभाविक मौत नहीं, एक तरह की ‘हत्या’ है, सिस्टम के हाथों हत्या ! 84 साल के आदमी को महामारी के दौर में किसी सबूत के बगैर लगातार जेल में रखना कितना बड़ा गुनाह है! देश अब ऐसे व्यवस्थागत-गुनाहो का ख़तरनाक द्वीप बनता जा रहा है! सलाम-श्रद्धांजलि

तो वहीं वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने तो अपने ट्विट में गुस्से का इजहार किया है। दिलीप मंडल ने लिखा है- भीमा कोरेगांव में हिंसा करने वाला आतंकवादी मनोहर कुलकर्णी भिड़े बाहर घूम रहा है और सरकार इस केस में झारखंड में आदिवासियों के लिए आंदोलन करने वाले बुजुर्ग स्टैन स्वामी को पकड़ लाती है। सही इलाज न मिल पाने के कारण बीमार स्टैन स्वामी मारे जाते हैं। उन पर आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ। सरकार और न्यायपालिका ने 84 साल के बुड्ढे बीमार, चलने-फिरने से लाचार, आदिवासी अधिकारों के समर्थक स्टैन स्वामी को बिना दोष सिद्ध हुए जेल में सड़ाकर मार डाला।लानत है।

तो वहीं राष्ट्रीय जनता दल ने अपने ऑफिशियल ट्विटर हेंडल से लिखा है- देश के तानाशाह को फादर स्टैन स्वामी की ‘हत्या’ की मुबारकबाद!

योगेन्द्र यादव ने इसे NIA, NHRC, बीजेपी और न्यायपालिका द्वारा एक निर्मम हत्या करार दिया है। उनका कहना है कि- स्टेन स्वामी को बाद में जो भी सुविधा मिली, वह बहुत कम थी,  और बहुत देर हो चुकी थी। इस तरह इस देश के सबसे बेघर लोगों के लिए लड़ने वाले मानवतावादी की हत्या कर दी गई है।

निश्चित तौर पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस स्टेन स्वामी ने अपने पूरे जीवन में गरीबों-आदिवासियों की सेवा की और मानव अधिकारों की आवाज बने, उन्हें आखिरी वक्त में भी न्याय एवं मानव अधिकारों से वंचित रखा गया।

स्टेन स्वामी तामिलनाडु के रहने वाले थे। साल 1991 में वह झारखंड आ गए, जहां वह अपने आखिरी सांस तक आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करते रहें। नक्सली होने के आरोप के साथ जेलों में सड़ रहे 3000 महिलाओं और पुरुषों की रिहाई के लिए वो हाई कोर्ट गए। वो आदिवासियों को उनके अधिकारों की जानकारी देने के लिए दूरदराज़ के इलाक़ों में गए। लेकिन जब उन्हें लोगों के समर्थन की जरूरत थी, उनके समर्थन में कोई बहुत बड़ा आंदोलन नहीं हो पाया। जो आंदोलन हुए भी तो मीडिया ने विरोध के उन आवाजों को अनसुना कर दिया। जिससे सरकार को उन आवाजों को दबाना आसान हो गया।

फादर स्टेन स्वामी की मौत कहें या हत्या कहें, उसके बाद सवाल उठाया जा रहा है कि हिरासत में हुई मौत की जिम्मेदारी तय हो।

जी हां, लोग मौत की जिम्मेदारी तय करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन जिम्मेदारी किस पर तय होगी? उन पुलिस अधिकारियों पर जिन्होंने स्वामी को गिरफ्तार किया, उस सरकार पर, जिसने उन पर सिर्फ शक के आधार पर बिना सबूत गंभीर धाराएं लगाने की अनुमति दी, या उस न्यायपालिका पर, जिसने उन्हें बेल देने तक से इंकार कर दिया। या जिम्मेदारी उन पर तय हो, जिन्होंने स्टेन स्वामी और उन जैसे दर्जनों सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल के भीतर जबरन बिना किसी ठोस आपराधिक सबूतों के ठूंस देने के बावजूद कहीं कोई बड़ा आंदोलन नहीं किया। चुप्पी साध ली, या सत्ता के डर से चुप बैठे रहें। स्टेन स्वामी की मौत की जितनी जिम्मेदार भारत का यह सिस्टम है, भारत के लोग उससे कम जिम्मेदार नहीं हैं, जो ऐसे अत्याचारों के खिलाफ आवाज तक उठाने से डर रहे हैं। बेजुबान देशवासियों को यह गुलामी मुबारक हो।

डीएनए वाले बयान पर बहनजी ने दिखाया मोहन भागवत को आईना

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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा हिन्दू और मुस्लिम समाज के डीएनए को लेकर दिये बयान पर बहस छिड़ गई है। बसपा प्रमुख बहन मायावती ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर पलटवार किया है। उन्होंने कहा कि मोहन भागवत का बयान ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ जैसा है। संघ और भाजपा की कथनी और करनी में अंतर है।

लखनऊ में एक प्रेस कांफ्रेंस में बहनजी ने कहा कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के भारत में सभी धर्मों के लोगों का डीएनए एक होने की बात किसी के भी गले के नीचे आसानी से नहीं उतरने वाली है। आरएसएस और बीजेपी एंड कंपनी के लोगों तथा इनकी सरकारों की कथनी व करनी में अंतर सभी देख रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र और उत्तर प्रदेश सहित देश के जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें चल रही हैं, वे भारतीय संविधान की सही मानवतावादी मंशा के मुताबिक चलने की बजाए ज्यादातर आरएसएस के संकीर्ण एजेंडे पर चल रही हैं।

बहनजी ने सवाल उठाया कि आरएसएस के सहयोग और समर्थन के बिना बीजेपी का अस्तित्व कुछ भी नहीं है फिर भी आरएसएस अपनी कही गई बातों को बीजेपी और इनकी सरकारों से लागू क्यों नहीं करवा पा रही है? उन्होंने भाजपा सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि भाजपा सरकारें आरएसएस के एजेंडे पर काम कर रही हैं।

दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने कल 4 जुलाई को कहा था कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। वहीं भागवत ने लिंचिंग को लेकर कहा कि इसमें शामिल लोग हिंदुत्व के खिलाफ हैं। भागवत के लिंचिंग वाले बयान पर AIMIM नेता ओवैसी भी कूद पड़ें। उन्होंने कहा कि कायरता, हिंसा और कत्ल करना गोडसे की हिंदुत्व वाली सोच का ही हिस्सा है। फिलहाल भागवत के बयान पर राजनीतिक घमासान जारी है।

हरियाणा में दलित नेता कुमारी शैलजा को क्यों नहीं चाहते जाट भूपेन्द्र सिंह हुड्डा

उत्तर भारत के लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस पार्टी में शक्ति के लिए अंदरूनी घमासान चल रहा है। बात चाहे राजस्थान की हो, पंजाब की हो या मध्यप्रदेश की, लगभग हर प्रदेश में यही हाल है। अभी हाल ही में हरियाणा में भी ये संघर्ष सामने आया है। अन्य राज्यों में इस संघर्ष का कारण केवल सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर है परन्तु हरियाणा में ये संघर्ष नए रूप में सामने आया है और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर हुडा ने प्रदेशाध्यक्ष कुमारी शैलजा, जो कि दलित समुदाय से सम्बन्ध रखती है, को हटाने की कवायद शुरू की है और ये केवल शक्ति के लिए नहीं किया जा रहा बल्कि इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि भूपिंदर हुडा अपनी जातीय और पितृसत्तात्मक संकीर्ण सोच की वजह से एक दलित और महिला नेता कुमारी शैलजा का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर पा रहे।

इसके साथ-साथ अब किसान आंदोलन के चलते इन्हें लग रहा है कि सारा जाट समुदाय उनके पक्ष में आ गया और वो पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं और दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के बिना भी राजनीति में सफलता अर्जित कर सकते हैं। परंतु जमीनी हकीकत यह है कि केवल जाट वोटों के सहारे सत्ता प्राप्त नहीं की जा सकती है। जैसे इंडियन नेशनल लोकदल प्रदेश में जाटों का एकमात्र सबसे मजबूत राजनीतिक दल था और उन्होंने अपनी सरकारों में मुख्य ध्यान केवल जाट समुदाय के उत्थान पर लगाया परन्तु जैसे ही दलितों और पिछड़ों को इस बात कि समझ आयी कि वोट उनका और उत्थान केवल जाटों का तो उस समय से लेकर आज मौजूदा समय में इंडियन नेशनल लोकदल अपने सबसे निम्नतम स्तर पर है। क्योंकि अब केवल जाटों के सहारे कोई भी व्यक्ति या राजनीतिक दल प्रदेश में सरकार नहीं बना सकता। क्यूंकि जाटों में कई मजबूत नेता है जो सभी अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखते हैं इसलिए अब सभी जाटों का वोट केवल एक नेता के पक्ष में नहीं गिरता और यही सबसे मुख्य कारण है कि प्रदेश में सरकार बनाने के लिए हर हालत में दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को अपने पक्ष में करना पड़ता है।

बीजेपी ने हरियाणा के मतदाता की इस नब्ज को पकड़ा और प्रदेश में सरकार बनाई, क्योंकि इन्होंने पिछड़ों, दलितों व महिलाओं पर ज्यादा ध्यान दिया और जाटों पर बहुत कम। इतिहास से भूपिंदर हुडा को सीखना चाहिए कि उनकी तरह प्रदेश में पहले भी मजबूत जाट मुख्यमंत्री रहें हैं, परन्तु उनका क्या हश्र हुआ है, ये हम सब देख सकते हैं। जैसे हरियाणा में एक समय ऐसा था जब बंसीलाल की कांग्रेस में तूती बोलती थी, उनके नाम का कोई विकल्प नजर नहीं आता था और वो खुद को पार्टी समझने लगे तो उनका विकल्प बन कर आए भजन लाल, फिर एक ऐसा समय आया जब भजनलाल ही सबसे ज्यादा मजबूत हो गए तो उन्हे कमज़ोर करने के लिए विकल्प के रूप में भूपिंदर सिंह हुडा को प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कमान सौंपी गई। इन उदाहरणों से भूपिंदर हुडा को सीखना चाहिए कि पार्टी किसी नेता की वजह से नहीं होती, बल्कि नेता पार्टी की वजह से होता है।

साहब कांशीराम ने कहा था कि, जो लोग इतिहास से सबक नहीं सीखते, फिर इतिहास उन्हें सबक सिखाता है। हरियाणा में जातीय समीकरणों को देखें तो लगभग 24 फीसदी जाट मतदाता हैं,और इनका नेतृत्व भूपिंदर हुडा, दुष्यंत चौटाला, अभय चौटाला, चौधरी बीरेंद्र सिंह, रणदीप सिंह सुरजेवाला, किरण चौधरी आदि जाट नेता कर रहे हैं। वहीं प्रदेश में लगभग 19 फीसदी के आसपास दलित मतदाता है, इनका नेतृत्व केवल कुमारी शैलजा कर रही हैं। प्रदेश में शैलजा के मुकाबले का कोई अन्य दलित नेता नहीं है जिसका अपना खुद का जनाधार हो,और दलितों के साथ-साथ पिछड़े समुदाय में भी पहुंच हो। कुमारी शैलजा केवल जाति और लिंग को छोड़ कर बाकी हर पक्ष में, चाहे बात अनुभव की हो, चाहे बात प्रदेश में मतदाता पर पकड़ की हो, हुड्डा से आगे नजर आती हैं।

शैलजा अपने परिवार की विरासत से राजनीति में आई। वो 90 के दशक से सक्रिय राजनीति में हैं, केंद्र में दो बार मंत्री रह चुकी हैं, वो अविवाहित हैं इसलिए उन पर परिवारवाद का कोई आरोप नहीं है, भ्रष्टाचार का कोई भी मुकदमा आज तक उन पर नहीं लगा है, साफ सुथरी छवि के सहारे वो प्रदेश की सबसे ताकतवर नेता हैं। भूपिंदर सिंह हुड्डा कुमारी शैलजा को अशोक तंवर समझने की भूल कतई ना करें क्योंकि तंवर के पास अनुभव कम था, कांग्रेस हाई कमान में पकड़ कमज़ोर थी, आम जनता में पहुंच बहुत कम थी,और इसके साथ-साथ उस समय प्रदेश में कुमारी सैलजा के रूप में कांग्रेस के पास मजबूत दलित नेता का विकल्प था, ऐसे अनेकों कारण रहे जिनकी वजह से भूपिंदर हुडा अशोक तंवर को प्रदेशाध्यक्ष से हटा पाए, परंतु कुमारी शैलजा की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। इनके पास एक लम्बा अनुभव है, पार्टी हाई कमान में बहुत मजबूत पहुंच है, इनकी ना केवल दलित बल्कि पिछड़ी जातियों में भी शानदार पकड़ है और अब पार्टी के पास इनके कद का कोई दूसरा दलित नेता भी नहीं है इसलिए साफ है कि इन्हे हटा कर कांग्रेस हाई कमान एक और प्रदेश गंवाना नहीं चाहती।

 पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी 31 विधानसभा सीटें कुमारी शैलजा के प्रदेशाध्यक्ष बनने और कड़ी मेहनत और सहयोग से ही जीत पाई, क्योंकि दलितों और पिछड़ों ने शैलजा के कारण बड़ी संख्या में कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। इसलिए ये देखा जा सकता है कि प्रदेश में सत्ता उन्हीं की आती है जिनके पक्ष में दलित और पिछड़े होते हैं और अब आप इन्हे बरगला नहीं सकते।

कुमारी शैलजा ने प्रदेशाध्यक्ष के लिए राज्यसभा सीट छोड़ी थी, हालांकि उसके पीछे एक कारण ये भी था कि कहीं पिछली बार की तरह हुडा समर्थित विधायक कोई स्याही कांड ना कर दे, क्यूंकि एक दलित महिला के पक्ष में मतदान करना उच्च जाति व पितृसत्तात्मक सोच के पुरुष विधायकों को पसंद नहीं है। और ये भी देखने को मिला कि जब तक कुमारी शैलजा के चुनाव लड़ने की बात चल रही थी तब तक बीजेपी राज्यसभा की दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की बात कर रही थी, क्यूंकि बीजेपी को भरोसा था कि हुडा के समर्थक विधायक कुमारी शैलजा को नहीं जीतवाएंगे परंतु जैसे ही दीपेंदर हुड्डा का नाम आया वैसे ही भाजपा ने केवल एक उम्मीदवार उतारने की घोषणा की और इससे दो सीटों के लिए केवल दो उम्मीदवार थे इसलिए बिना चुनाव के ही दीपेंदर हुडा सांसद बन गए।

प्रदेश के दलित व पिछड़े समुदाय के मतदाता अपनी नेता के इस अपमान को भूले नहीं है और अब जब इनसे प्रदेशाध्यक्ष का पद भी छीनेने की कोशिश की जा रही है, तब हुडा को ये नहीं भूलना चाहिए कि यदि दलित और पिछड़े समुदाय ने कांग्रेस पार्टी से अपना हाथ पीछे खींचा तो कांग्रेस प्रदेश में कभी सत्ता में नहीं आ पाएगी और आपका एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने का सपना कभी पूरा नहीं हो पाएगा। हुड्डा जी को लगता है कि गीता भुक्कल, शकुंतला खटक जैसे दलित विधायकों के सहारे दलितों का वोट प्राप्त कर लाएंगे तो ये उनका वहम है, क्यूंकि ये दोनों विधायक सिर्फ इसलिए बन पाते हैं क्योंकि ये जाट बहुमत क्षेत्र है और यहां भूपिंदर हुडा की मजबूत पकड़ है, परन्तु इन दोनों दलित विधायकों को अपने क्षेत्र से बाहर कोई जानता तक नहीं है। दूसरा, अब प्रत्येक व्यक्ति को इस बात कि समझ आ गई है कि उनका असल नेता कौन है, आप किसी दलित नेता को अपना रबर स्टैम्प बना कर दलित समाज का वोट नहीं ले सकते, दलित व पिछड़े अब अपने मजबूत व सक्रिय नेता के नाम पर मतदान करता है और कुमारी शैलजा की वजह से कांग्रेस पार्टी के पक्ष में करते हैं। इसलिए अब भूपिंदर सिंह हुड्डा के पास एक ही विकल्प है कि वह कुमारी शैलजा से सुलह कर उनका नेतृत्व स्वीकारते हुए प्रदेश में पार्टी को मजबूत करने का प्रयास करना चाहिए ताकि आगामी चुनावों में प्रदेश वासियों को बीजेपी से छुटकारा मिल सके।

अमेरिकी न्याय व्यवस्था बनाम भारतीय न्याय व्यवस्था

अमेरिका के मिनेसोटा में अश्वेत जार्ज फ्लायड की हत्या के मामले में फ्लायड के परिवार को न्याय मिल गया है। अदालत ने 26 जून को दोषी पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन को साढ़े बाइस साल की सजा सुनाई है। सजा जज पीटर ए काहिल ने सुनाई। यह मिनेसोटा के किसी पुलिस अधिकारी को सुनाई जाने वाली अब तक की सबसे लंबी सजा है। हालांकि फ्लायड के वकील ने अदालत से तीस साल की सजा दिए जाने का अनुरोध किया था। अमेरिका के मिनेसोटा में अश्वेत जार्ज फ्लायड की पिछले साल 25 अप्रैल को एक गोरे पुलिस के अधिकारी के घुटने के नीचे दबे रहने के कारण मौत हो गई थी। पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन ने नौ मिनट तक अपने घुटने से फ्लायड का गला दबाए रखा, जिससे उनकी मौत हो गई थी। सजा के ऐलान क साथ साफ है कि सिर्फ एक साल दो महीने में इस मामले में पीड़ित जार्ज फ्लायड और उनके परिवार को न्याय मिल गया।

पुलिस के मुताबिक, जॉर्ज पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 20 डॉलर यानी करीब 1500 रुपये के फर्जी नोट के जरिए एक दुकान से खरीदारी की कोशिश की। अगर ऐसा था तो यह गलत था और इस मामले की जांच होनी चाहिए थी, लेकिन जिस तरह से जार्ज फ्लायड को गोरे पुलिस अधिकारी ने बेरहमी से अपने घुटनों के नीचे दबा तक मार डाला था, उसका वीडियो वायरल होने के बाद पूरे अमेरिका में नस्ली भेदभाव को लेकर उग्र आंदोलन शुरु हो गया था। 46 साल के अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय के थे।

इस घटना के खिलाफ अमेरिका के 140 शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए। अमेरिकी समाज में ब्लैक लिव्स मैटर की गूंज सुनाई पड़ने लगी थी। जॉर्ज फ्लॉयड अमेरिका में न्यांय और बराबरी मांग के प्रतीक बन गए हैं। यहां तक की ब्लैक समुदाय के साथ अमेरिकी गोरे लोग भी जार्ज फ्लायड के लिए इंसाफ की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे। इसमें कई जानी-मानी हस्तियां भी थीं। यह विरोध रंग लाया और जितनी जल्दी सिर्फ एक साल दो महीने में जार्ज फ्लॉयट को इंसाफ मिला है, वह नस्ली भेदभाव करने वालों के लिए एक बड़ा सबक है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि भारत में किसी जातीय हमले में पीड़ित को इतनी जल्दी न्याय मिल सकता है? क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि हमारे देश में दलित अत्याचार के मामले में यहां का सवर्ण समुदाय इसी तरह इंसाफ की मांग करेगा? क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि हमारे देश में कभी सड़कों पर अगड़ी जाति के सैकड़ों लोग अपने हाथों में ‘दलित लिव्स मैटर’ की तख्तियां लिए इंसाफ की मांग करेंगे। फिलहाल का जवाब तो यही है, शायद नहीं।….

भारत में यूं तो दलितों पर हिंसा के तमाम मामले आए दिन होते रहते हैं। लेकिन कई मामले हमें झकझोर कर रख देते हैं। और यहां कमजोर वर्ग के पीड़ित तबके को इंसाफ मिलना तो दूर सहानुभूति तक नहीं मिल पाती। ऐसे मामलों में भारतीय समाज से लेकर न्याय व्यवस्था तक का रवैया कैसा रहता है, यह तीन घटनाओं से समझा जा सकता है।

भंवरी देवी कांड भंवरी देवी मामला भारतीय समाज की कहानी कहता है। और कहीं न कहीं, भारत की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाता है। राजस्थान में जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर भटेरी गांवकी रहने वाली भंवरी देवी का सामूहिक बलात्कार 22 सितंबर, 1992 को हुआ था। उन्होंने अगड़ी जाति के लोगों पर इसका आरोप लगाया था। लापरवाही का आलम यह रहा कि उनकी मेडिकल जांच 52 घंटे बाद की गई जबकि ये 24 घंटे के भीतर किया जाना चाहिए था।

भंवरी देवी चुप रहने की बजाय इंसाफ मांगने अदालत पहुंची, लेकिन निचली अदालत ने आरोपियों को बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया।निचली अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ भंवरी देवी की अपील हाई कोर्ट में लंबित है।1993 में एक बार उम्मीद की किरण दिखी, जब राजस्थान हाई कोर्ट के जस्टिस एनएम तिबरेवाल ने आरोपियों को जमानत देने से इंकार कर दिया और गैंग रेप को माना। लेकिन चीजें यहां से बिगड़ती चली गईं। ट्रायल के दौरान बिना कोई कारण बताये पांच बार जज बदले गए और नवंबर, 1995 में अभियुक्तों को बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया गया। अभियुक्तों को रिहा करने वाले अदालती फैसले में जो दलील दी गई उसमें अजीबो गरीब तर्क देते हुए कहा गया था कि- गांव का प्रधान बलात्कार नहीं कर सकता.

  • अलग-अलग जाति के पुरुष गैंग रेप में शामिल नहीं हो सकते.
  • 60-70 साल के ‘बुजुर्ग’ बलात्कार नहीं कर सकते.
  • एक पुरुष अपने किसी रिश्तेदार के सामने रेप नहीं कर सकता.
  • और सबसे अजीब बयान यह था कि अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला का रेप नहीं कर सकता क्योंकि वह ‘अशुद्ध’ होती है। अदालत के यह तर्क हंसने को मजबूत करते हैं, क्योंकि यह उस देश में कहा जाता है, जिस देश में देवदासी प्रथा का और अगड़ी जातियों द्वारा पिछड़ी और कमजोर जातियों की औरतों के शोषण का लंबा इतिहास रहा है। https://www.youtube.com/watch?v=QWpeYwUju2k खैरलांजी मामला महाराष्ट्र के खैरलांजी में जो हुआ, वह मानवता पर धब्बा जैसा था। सुरेखा भोतमांगे महाराष्ट्र के भंडारा ज़िले के खैरलांजी गांव में रहती थीं। उनका परिवार ‘महार’ जाति का था, जिसे ‘छोटी’ जाति माना जाता है। अपनी जैसी और दलित महिलाओं की तुलना में उनके हालात काफ़ी बेहतर थे। वे शिक्षित थीं और अपने पैसों से अपना घर चलाती थीं। 45 साल की सुरेखा के परिवार में थे उनके 51 साल के पति भैयालाल, उनके दो बेटे एक बेटी थी, जो 12वीं की टॉपर भी थी।

खैरलांजी गांव के कुनबी मराठाओं से ये बर्दाश्त नहीं होता था कि दलित होने के बावजूद सुरेखा काफ़ी संभ्रांत थी। और वे सुरेखा को परेशान करने का मौका ढूंढ़ते रहते थे। उन्हें मौका तब मिल गया जब उन्होंने सुरेखा के खेतों पर सड़क बनाने का फ़ैसला किया। सुरेखा ने इसका विरोध किया तो उन्होंने खेतों पर बैलगाड़ियां चलवा दीं। उसी दिन सुरेखा ने थाने में शिकायत दर्ज कर दी, जिससे कुनबी मराठे बौखला गए। 29 सितंबर 2006 को शाम के 6 बजे, ट्रैक्टर में लगभग 70 लोगों ने सुरेखा के घर को घेर लिया। सुरेखा और प्रियंका को सरेआम नंगा करके एक बैलगाड़ी से बांधा गया और पूरे गांव में घुमाया गया। उनके दोनों बेटों को भी नंगा करके पीटने के बाद उन्हें अपनी मां और बहन का बलात्कार करने को कहा गया। जब वो नहीं माने तो उनके प्राइवेट पार्ट काट दिए गए और पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी गई। वहीं सुरेखा और प्रियंका का सामूहिक बलात्कार करने के बाद उन्हें मार दिया गया और उन सबकी लाशें पास की सूखी नदी में फेंक दी गईं। सुरेखा के पति इसलिए बच गए क्योंकि वह घर पर मौजूद नहीं थे।

इस पूरे मामले में दलित समाज ने मीडिया से लेकर, पुलिस प्रशासन और न्ययापालिका की भूमिका पर सवाल उठाया। क्योंकि मीडिया ने जब खैरलांजी की इस घटना को कवर किया तो उसने जाति का कोई ज़िक्र ही नहीं किया और इस मुद्दे को सुरेखा के चरित्र से जोर दिया गया। अदालत ने भी एससी एसटी कानून लागू नहीं किया। सभी जानते थे कि इस मामले में 60 के करीब लोग शामिल थे, लेकिन उनमें से सिर्फ़ आठ लोग ही गिरफ़्तार हुए, जिनमें से अदालत ने छह लोगों को मौत और दो को उम्रकैद की सज़ा वसुनाई। लेकिन केस जब बंबई उच्च न्यायालय के नागपुर विभाग के सामने आया तो उन्होंने मौत की सज़ा की जगह 25 साल के कारावास की सज़ा सुना दी। केस अभी सुप्रीम कोर्ट में है और इसकी सुनवाई 2015 में होनी थी, पर नहीं हुई। 2017 के जनवरी में भैयालाल भोतमांगे 62 की उम्र में हार्ट अटैक से चल बसे। वे अपनी मृत पत्नी और बच्चों को इंसाफ़ नहीं दिला पाए।

लक्ष्मणपुर बाथे बिहार के अरवल जिले के लक्ष्मीणपुर बाथे गांव में एक दिसंबर 1997 को दलित बस्ती के 58 लोगों को मौत की घाट उतार दिया गया। मारे गए लोगों में तीन साल के बच्चे से लेकर 65 साल के बुज़ुर्ग तक शामिल थे। इस सामूहिक हत्याकांड में न्याय की बात करें तो सबसे खास बात यह है कि लोअर कोर्ट में जिन लोगों को इस घटना के लिए दोषी करार दिया गया था, उच्च न्यायालय ने उन सभी को सबूत के अभाव में बरी कर दिया। हत्याकांड के एकमात्र गवाह लक्ष्मण बचे, जिन्होंने अपनी पत्नी, बहू और बेटी को अपनी आंखों के सामने मरते देखा। लक्ष्मण ने बताया कि गांव की अगड़ी जाति के लोग घरों को चिन्हित कर रहे थे और हत्यारे उन्हें मारते जा रहे थे। इसमें रणबीर सेना का हाथ बताया गया। लक्ष्मण की गवाही पर दोषियों को निचली अदालत ने फांसी और उम्रकैद की सजा सुनाई। लेकिन लक्ष्मण का आरोप है कि हाईकोर्ट में एक करोड़ रुपये खर्च करके सब के सब बच गए। अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में हुई घटना भी बड़े सवाल खड़े करती है।

इन घटनाओं को देखते हुए आप समझ सकते हैं कि भारत में जातीय हिंसा के शिकार कमजोर वर्ग के किसी पीड़ित को न्याय मिलना कितना मुश्किल है। भारत में हालांकि समय-समय पर अगड़ी जातियों के कुछ लोग दलितों और पिछड़ों को इंसाफ दिलाने के लिए सामने आए हैं, लेकिन भारत में फिलहाल ऐसा संभव होता नहीं दिखता, जब यहां के सवर्ण अगड़ी जातियों के लोग दलितों के इंसाफ के लिए ‘दलित लिव्स मैटर’ की तख्तियां लिए सड़कों पर उतरेंगे। फिलहाल जार्ज फ्लायड के जिस तरह से इतनी जल्दी इंसाफ मिला, उससे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले हमारे देश के सिस्टम को भी जरूर सिखना चाहिए।

… तब शर्मिंदा होकर रवीन्द्रनाथ कबीर की तरफ लौटे

 जब रवीन्द्रनाथ यूरोपीय कवियों के संपर्क में आये तो उन कवियों ने रवीन्द्रनाथ से भारत की कविता के बारे में पूछा। रवीन्द्रनाथ ने भक्ति कवियों की चर्चा छेड़ी, चंडीदास, सूर, तुलसी इत्यादि। यूरोपिय कवियों ने जिज्ञासा की कि ये सब तो परलोक और भक्ति से संबंधित है, लेकिन गरीबों मजदूरों किसानों से जुड़ी, सामाजिक चेतना और जमीनी जीवन से संबंधित कोई कवि या कविता भारत मे हुई हो तो बताइए। तब शर्मिंदा होकर रवीन्द्रनाथ कबीर की तरफ लौटे।
कबीर एक क्रांतिकारी कवि और धर्मगुरु रहे हैं जिनकी समझ और रचनाओं पर इस्लाम का बड़ा प्रभाव रहा है। बाद में रवीन्द्रनाथ ने कबीर के पदों का अनुवाद किया और भारत में सामाजिक चेतना की कविताओं में जो शून्य बना हुआ था उसे भरने की कोशिश की। इस तरह भारत कबीर के माध्यम से यूरोप के बौद्धिक अभिजात्य में पहली बार सम्मानित हुआ। यह सामाजिक चेतना और क्रांतिचेतना भारत के तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य और दर्शन में एक विजातीय तत्व है। यह बाहरी धक्के से आया है। यह जागरण ऊपर ऊपर से ओढ़ा गया है। भीतर अभी भी वही पुराना कोढ़ बैठा हुआ है।
https://www.youtube.com/watch?v=5XflN7q8-sc&t=60s
आज भारत के समाज में जो चल रहा है वह एक तथ्य है, भारतीय समाज की वर्तमान दशा एक हकीकत है। इसमें फैली बर्बरता और जहालत के मूल कारण के स्त्रोत की पहचान और इन कारणों की व्याख्या धर्मदार्शनिक सूत्रों और स्मृतियों से हो रही है। इसे कहते हैं समाज मनोविज्ञान का या समाजशास्त्रीय विश्लेषण का कार्यकारण संबन्ध। इस देश का वर्तमान समाज बर्बर और असभ्य है। यहां स्वेच्छा से और स्वतः उद्भूत पुनर्जागरण कभी घटित ही न हुआ, जो भी हुआ वो इस्लाम और ईसाइयत के धक्के से हुआ है।
इस्लामिक शासन में और बाद में उपनिवेश काल मे कुछ महत्वपूर्ण बदलाव भारत के समाज मे हुए हैं। वे बदलाव भारत के बाहर जन्मे दो वैश्विक और सभ्य धर्मों के प्रभाव में हुए। उसी से एक चलताऊ सा सामाजिक जागरण भारत मे घटित हुआ। इसीलिए यह जागरण उधार है, इसलिए भारत के समाज मे कोई मौलिक बदलाव न हो सका। उम्मीद करें कि यह पुनर्जागरण भविष्य में सँभव हो सकेगा।

जातिवाद का अड्डा बनते जा रहे हैं बड़े शिक्षण संस्थान

 लगता है भारत के बड़े शिक्षण संस्थानों को खास वर्ग के लोग अपनी बपौती मानते हैं। खासकर आईआईटी जैसे संस्थानों में दलित/आदिवासी और पिछड़े वर्ग के शिक्षकों और छात्रों के साथ जिस तरह लगातार भेदभाव की खबरें लगातार आ रही है, वह इस बड़े संस्थान के जातिवादी होने पर मुहर लगाता जा रहा है। ताजा मामले में एक जुलाई को सामने आई खबर के मुताबिक IIT मद्रास के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर विपिन पी. वीटिल ने जातिवाद के कारण संस्थान से इस्तीफा दे दिया है। अपने इस्तीफे में प्रोफेसर ने ऊंचे पदों पर बैठे लोगों द्वारा भेदभाव करने का आरोप लगाया है। विपिन उत्तरी केरल के पय्यान्नूर के रहने वाले हैं और मार्च 2019 से आईआईटी मद्रास में पढ़ा रहे हैं।

विपिन ने अपने इस्तीफे में आरोप लगाया कि ओबीसी और एससी, एसटी शिक्षकों को प्रमुख संस्थान में भारी भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। अपने इस्तीफे में मांग की है कि संस्थान एससी और ओबीसी फैकल्टी के अनुभव का अध्ययन करने के लिए एक समिति गठित करे। इस समिति में एससी, एसटी आयोग और ओबीसी आयोग के सदस्यों के साथ मनोवैज्ञानिक होने चाहिए।

ऐसा नहीं है कि विपिन कोई अयोग्य शिक्षक थे और उन्हें पढ़ाने नहीं आता था, जैसा की मनुवादी अक्सर आरक्षित वर्ग पर आरोप लगाते हैं। आईआईटी मद्रास की वेबसाइट के अनुसार, अर्थशास्त्र विभाग में पोस्ट-डॉक्टरेट फैकल्टी सदस्य रहे वीतिल ने चीन में अपनी स्कूली शिक्षा और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में अर्थशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई पूरी की है। उन्होंने अमेरिका के जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय से पीएचडी की है और विभिन्न जर्नल में उनके कई रिसर्च पेपर प्रकाशित हुए हैं। साल 2020 में उन्होंने दुनिया भर में कोविड-19 लॉकडाउन से हुए आर्थिक नुकसान का विश्लेषण किया था।

दरअसल आईआईटी से लगातार दलित, आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव की खबरें आती है। साल 2018 में आईआईटी कानपुर के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुब्रह्मण्यम सडरेला ने चार सीनियर प्रोफेसरों पर जातीय उत्पीड़न का आरोप लगाया था। डॉ. सडरेला ने प्रोफेसरों पर खुद को जातिसूचक शब्दों से संबोधित करने और मानसिक रूप से प्रताड़ित करने का आरोप लगाया था। हाल ही में आईआईटी खड़गपुर की एसोसिएट प्रोफेसर सीमा सिंह ने ऑनलाइन क्लास के दौरान एससी-एसटी छात्रों को गालियां तक दी थी, जिस पर काफी बवाल मचा था।

तो बहुत लंबा वक्त नहीं बीता जब आईआईटी मद्रास में ही मानविकी की छात्रा फातिमा लतीफ ने अपने छात्रावास के कमरे में यह आरोप लगाते हुए आत्महत्या कर ली थी कि उसके धर्म के कारण कॉलेज द्वारा उसके साथ भेदभाव किया गया था। उसने अपने सुसाइड नोट में भेदभाव को लेकर आईआईटी मद्रास के एक प्रोफेसर का नाम लिया था। उसकी आत्महत्या पर फिलहाल जांच चल रही है।

रिपोर्ट के मुताबिक आईआईटी में भेदभाव के कारण सिर्फ शिक्षक ही नहीं, बल्कि छात्र भी मजबूरी में बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 25 जुलाई, 2019 को राज्य सभा में बताया था कि पिछले दो वर्षों के दौरान आईआईटी में रिजर्व कैटेगरी के 1171 छात्रों ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। आरक्षित श्रेणी के छात्र अवसरों की कमी और मानसिक प्रताडना के कारण संस्थानों को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं। एक और रिपोर्ट बताती है कि आईआईटी से स्नातक करने वाले 15 से 20 फीसदी छात्रों को कैंपस प्लेसमेंट नहीं मिलता। इनमें अधिकतर छात्र आरक्षित श्रेणी के होते हैं।

तो सवाल है कि क्या बड़े संस्थान को एक खास वर्ग के शक्तिशाली लोग अपनी जागीर बनाकर रखना चाहते हैं? क्या उन्हें वहां दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का पहुंचना खटक रहा है? …… लगता तो यही है।

बिहार में हाशिये की पत्रकारिता करने वाले वेद प्रकाश को जान से मारने की धमकी, नीतीश सरकार की पुलिस ने साधी चुप्पी

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हाशिये की पत्रकारिता करने वाले यू-ट्यूबर पत्रकार वेद प्रकाश को जातिवादी गुंडों ने जान से मारने की धमकी दी है। पत्रकार वेद प्रकाश को मारने के लिए फुलवारीशरीफ से लेकर एम्स और नौबतपुर के रास्ते में घंटों दौड़ाया गया। इस दौरान वेद प्रकाश को धमकी देने वाला शख्स फेसबुक लाइव पर आकर अपने साथियों से वेद प्रकाश को घेरने और सबक सिखाने की बात करता रहा। जब पत्रकार का पीछा किया जा रहा था तो वह अपनी बहन और भांजों के साथ थे। यानी कि अगर आरोपी पत्रकार को घेरने में सफल रहते तो अनहोनी होने की आशंका थी।

इस घटना के बाद पत्रकार वेद प्रकाश ने शिकायत दर्ज कराई है और सुरक्षा की मांग की है। बिहार के डीजीपी को दिए गए आवेदन में वेद प्रकाश ने अपने साथ हुई घटना के बारे में बताया है। उन्होंने कहा कि गुरुवार की शाम वह अपनी बहन और भतीजे के साथ कार से जा रहे थे। जब वे फुलवारीशरीफ में थे तो कुछ लोगों की हरकत उन्हें ठीक नहीं लगी। वहां से वे जैसे ही निकले तो उनका पीछा किया जाने लगा। शाम के करीब पांच बजे से लेकर छह बजे के बीच उन्हें मारने की नीयत से इस तरह उनके साथ किया गया। इस घटना में उन्होंने अमृतांशु पर आरोप लगाया है। बताया कि अमृतांशु ही फेसबुक पर लाइव आकर सबको नौबतपुर और बीएमपी की तरफ से उन्हें घेरने के लिए निर्देश दे रहा था। काफी देर तक अमृतांशु ने पीछा किया, लेकिन किसी तरह उन्होंने अपनी जान बचाई।

इस मामले में वेद ने कहा कि फेसबुक लाइव पर ही आरोपी ने जातिगत बात भी कही है। इसके अलावा पत्रकारिता छोड़ा देने जैसी धमकी भी दी। पीड़ित वेद ने दिए गए आवेदन में फेसबुक लाइव वीडियो और कुछ तस्वीरें भी उपलब्ध कराई है। पुलिस ने इस मामले में प्राथमिकी दर्ज कर ली है, लेकिन बिहार पुलिस की ओर से अभी तक आरोपियों को गिरफ्तार किये जाने की खबर नहीं मिली है।

गौरतलब है कि वेद प्रकाश हाशिये के समाज की पत्रकारिता करते हैं और उनके मुद्दों को उठाते हैं। वह गरीब, कमजोर, दलित और वंचित समाज की खबरों को देश दुनिया के सामने लेकर आते हैं, जिस कारण जातिवादी गुंडो को उनसे चिढ़ है। इस घटना के बाद हाशिये की पत्रकारिता करने वाले तमाम लोग वेद प्रकाश के समर्थन में आ गए हैं। साथ ही बहुजन समाज के राजनेताओं ने घटना की निंदा करते हुए अपराधियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने और कार्रवाई करने की मांग की है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि आखिर अमृतांशु जैसे जातिवादी गुंडों को हाशिये के समाज की आवाज उठाने वाले पत्रकारों को सरेआम धमकी देने की हिम्मत कहां से मिलती है? क्या अमृतांशु जैसे जातिवादी गुंडों को सत्ताधारी राजनीतिक दल और राजनेता का संरक्षण हासिल है? क्या अमृतांशु ने ऐसा किसी के इशारे पर किया है? अगर नहीं तो फिर बिहार की पुलिस आरोपियों को जल्दी से गिरफ्तार क्यों नहीं कर रही है?

यूपी चुनाव के रण में उतरी आजाद समाज पार्टी, साईकिल यात्रा शुरू

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तमाम राजनीतिक दल अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जुट गए हैं। इसी कड़ी में आजाद समाज पार्टी ने एक जून से साईकिल यात्रा शुरू कर दी है। आजाद समाज पार्टी और भीम आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेखर आजाद ने एक जुलाई से 21 जुलाई तक प्रदेश भर में साईकिल यात्रा के जरिए अपनी पार्टी को घर-घर पहुंचाने का काम शुरू कर दिया है। उन्होंने अपनी इस यात्रा को ‘बहुजन साइकिल यात्रा’ का नाम दिया है। इस दौरान उन्होंने कहा, इस परिवर्तन यात्रा के जरिए “जाति तोड़ो समाज जोड़ो अभियान” से प्रदेश की राजनीति में नया मोड़ आएगा। आजाद खुद लोगों के बीच जाकर सरकार की पोल खोलते हुए बीजेपी सरकार की नाकामियों को सामने लाने का काम करेंगे।

चंद्रशेखर ने इस पूरी यात्रा का रोड मैप पार्टी नेताओं के साथ मिलकर तैयार किया और इस यात्रा को नारा दिया “मा. काशीराम का मिशन अधूरा हम सब मिलकर करेंगे पूरा”। इसके बाद उन्होंने प्रदेश के सभी नौजवानों इस साइकिल यात्रा के लिए तैयारी करने की अपील की। ये यात्रा सहारनपुर विधानसभा क्षेत्र के कार्यालय से शुरू हुई है।

इस यात्रा के दौरान पार्टी कार्यकर्ता लोगों के बीच जाकर कई मुद्दों पर अपनी बात रखेंगे। ‘बहुजन साइकिल यात्रा’ में शिक्षा का निजीकरण, एससी-एसटी और ओबीसी को शिक्षा व नौकरियों से वंचित रखना, रसोई गैस, डीजल व पेट्रोल की बढ़ती कीमतें, हिंदू मुस्लिम राजनीति और सेवानिवृत्त लोगों की पेंशन को खत्म करना आदि मुद्दे शामिल होंगे। इन सभी मुद्दों पर पार्टी कार्यकर्ता लोगों को बात करते नजर आएंगे।

लखनऊ में बनेगा आंबेडकर सांस्कृतिक केंद्र

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 उत्तर प्रदेश में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। और जब भी चुनाव आते हैं, वोटों और प्रतीकों की राजनीति शुरू हो जाती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने इसी कड़ी में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के नाम पर आंबेडकर सांस्कृतिक केंद्र बनाने का काम शुरू कर दिया है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने कानपुर दौरे के दौरान 29 जून को इसकी आधारशिला रख दी है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने लोकभवन सभागार में बटन दबाकर सांस्कृतिक केन्द्र का शिलान्यास किया। इस मौके पर राज्यपाल आनंदीबेन पटेल भी मौजूद रही। अंबेडकर सांस्कृतिक केंद्र राजधानी लखनऊ के ऐशबाग इलाके में बनाया जा रहा है। यह सांस्कृतिक केंद्र 1.34 एकड़ क्षेत्रफल में फैला होगा। साथ ही इसमें बाबासाहेब अंबेडकर की 25 फुट की मूर्ति लगाई जाएगी। स्मारक केंद्र को बनाने में लगभग 45 से 50 करोड़ की लागत आएगी।

सरकार की तैयारी बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस छह दिसंबर तक आंबेडकर सांस्कृतिक केंद्र का उद्घाटन करने की है। इस केंद्र पर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की विशाल प्रतिमा लगने के साथ ही बाबासाहेब से जुड़ी यादों को संग्राहलय में संकलित करके रखने की योजना है। यहां कार्यक्रमों के लिए पांच सौ से अधिक क्षमता का सभागार बनाने की तैयारी है। वहीं दूसरी ओर योगी सरकार की इस घोषणा को बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने दिखावे की राजनीति कहा है।

कांग्रेस के दिग्गज दलित नेता का उभरा दर्द

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कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता और पूर्व गृहमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसे अहम पदों पर रह चुके सुशील कुमार शिंदे ने कांग्रेस के बारे में बड़ा बयान दिया है।  सुशील कुमार शिंदे ने पिछले दिनों पुणे में आयोजित एक कार्यक्रम में पार्टी के मौजूदा कल्चर पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि पार्टी की कार्यशैली में काफी बदलाव आ गया है। शिंदे ने कहा, ‘कांग्रेस की जो परंपरा डिबेट करने और बातचीत के लिए सेशन करने की थी, अब वह खत्म हो चुकी है। मैं इसके लिए दुखी हूं।’

उन्होंने आगे कहा, ‘आत्मचिंतन के लिए बैठकें होना जरूरी है। हमारी नीतियां गलत हो सकती हैं, लेकिन हम उसे सही कर सकते हैं। पार्टी में ऐसे और सेशंस की जरूरत है।’ शिंदे ने आगे कहा कि एक समय था, जब कांग्रेस पार्टी में मेरे शब्दों की कुछ कीमत थी, लेकिन मुझे पता नहीं है कि अब है या नहीं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस अपनी विचारधारा की संस्कृति भी खोती जा रही है। शिंदे ने कहा, ‘एक समय था जब कांग्रेस में शिविर, कार्यशालाएं आयोजित किए जाते थे। इन शिविर में मंथन होता था कि पार्टी कहां जा रही है, लेकिन आज के वक्त में यह समझना मुश्किल है कि आखिर पार्टी कहां जा रही है। अब चिंतन शिविर का आयोजन नहीं किया जाता है, मैं इसको लेकर काफी दुखी महसूस करता हूं।’

गौरतलब है कि शिंदे की तरह ही गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल और वीरप्पा मोइली समेत कई नेता पार्टी की कार्यशैली को लेकर सवाल उठा चुके हैं। वे पार्टी में व्यापक फेरबदल की वकालत भी कर चुके हैं। सुशील कुमार शिंदे को महाराष्ट्र के दिग्गज नेताओं में गिना जाता रहा है। UPA सरकार के दौरान शिंदे के पास गृह मंत्रालय जैसी अहम जिम्मेदारी थी।