गांधी से बड़ा स्मारक बनने से उन्हें चिढ़ हो रही है – मुद्राराक्षस

ये मुद्राराक्षस हैं. सन् 77 के वक्त जब इमरजेंसी लगी थी तो इसे चुनौती देने का माद्दा बहुत कम लोगों में था. राजनीतिक तौर पर जयप्रकाश सहित कई लोग इसे चुनौती दे रहे थे तो सांस्कृति तौर पर भी इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती मिल रही थी. मुद्राराक्षस वो शख्स थे जिन्होंने नाटक के जरिए तानाशाह सरकार पर जोरदार कटाक्ष किया था. उनके नाटक ‘आला अफसर’ तब की जबरिया सरकार को कुछ ऐसा चुभा की इसे देखने के लिए कांग्रेस के कद्दावर अर्जुन सिंह पहुंचे. उनका लेखन कई सवाल खड़े कर चुका है. कई लोगों को चुभता भी है. विरोध भी होता है लेकिन इन सब से बेपरवाह 60 से ज्यादा रचनाएं रच चुके मुद्राराक्षस का सफर बदस्तूर जारी है. वह अपने मन की बात बिना लाग-लपेट के कह देने के लिए भी जाने जाते हैं. धर्मवीर उनको पसंद नहीं तो फट से कह देते हैं कि ‘वह आदमी कुंठित है.’ दलितों के प्रति दृष्टिकोण को लेकर नामवर सिंह, प्रेमचंद, प्रगतिशील लेखक संघ, वामपंथ, किसी को नहीं बख्शते. उन्हें इस बात का दुख है कि दलित होने के बावजूद दलित समुदाय रविंद्रनाथ टैगोर को अपना नहीं सका. मंच से उनके फोटो नदारद रहते हैं जबकि उनकी लेखनी दलित समाज के लिए भी समर्पित रही. वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक मुद्राराक्षस से बात की दलितमत.कॉम के संपादक अशोक दास ने. पेश है बातचीत के अंश…….. आपके बचपन से शुरू करें तो वो दौर कैसा था, आप उसे कैसे याद करते हैं? – गांव में जन्म हुआ (21 जून 1933, बेहटा). यह लखनऊ से करीब 24 किमी है. अब तो वो गांव शहर में ही शामिल हो गया है. वहां जन्म हुआ और चौथी तक वहीं प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की. उसके बाद पिता लखनऊ आ गए तब से फिर यहां रहते गए. बाकी की शिक्षा लखनऊ में हुई. यूनिवर्सिटी में हुई. और लिखना भी लगभग 1950 में शुरू हुआ. निराला, महादेवी और पंत वगैरह को पढ़ने से लिखने की प्रेरणा मिली. 1951 से लिखना शुरू किया. 1955 में लखनऊ से कलकत्ता चला गया. कलकत्ता से मैगजीन निकलती थी ‘ज्ञानोदय’. अब तो वो ‘नया ज्ञानोदय’ हो गया है. तो यहीं 55 में सहायक संपादक हो गया. 58 तक उसमें रहा. 58 में इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखन करने लगा. यह एक साल चला. फिर एक जैनियों की ‘अनवरत’ पत्रिका निकलती थी (लगातार कई बार उबासी आती है तो कहते हैं, ‘माफ कीजिएगा, वो कल रात को लाइट नहीं थी तो पूरी रात सो नहीं सका.’) तो उसमें करीब एक साल तक संपादक रहा. 60 में पत्रिका दिल्ली आ गई तो मैं भी दिल्ली आ गया. 76 तक दिल्ली में ही रहा. दिल्ली का जीवन जरा अगल किस्म का जीवन था. 62 में मैं आकाशवाणी में चला गया. एक साल काम करने के बाद मुझे लगा कि वहां जो लोग काम करते हैं, उनकी हालत ठीक नहीं है. काम करने की स्थितियां बेहतर नहीं थी. इसलिए हमने वहां एक यूनियन बनाया. यह पहला संगठन था. उसी के जो आंदोलन हुए उससे वहां लोगों के हालात में काफी सुधार हुआ. पहले लोग 3-6 महीने के कांट्रेक्ट पर होते थे. यूनियन बनने के बाद वो परमानेंट हुए. 76 में इमरजेंसी के दौरान मुझे वहां से छोड़ना पड़ा. क्योंकि तब वहां काम कर पाना मुश्किल था. जब नौकरी छोड़ी तो थोड़ी आपात स्थितियां भी थी. विद्याचरण शुक्ल थे मंत्री, उनको मेरा यूनियन चलाना पसंद नहीं आया. मैने मार्च में इस्तीफा दे दिया. उस पर जुलाई तक विचार होता रहा. लेकिन जब मैने जुलाई में साफ कह दिया कि अब मैं वापस आऊंगा ही नहीं तो वहां से छूटना फाइनल हो गया. फिर मैं लखनऊ आ गया. आपने कोलकात्ता और दिल्ली दोनों जगहों पर काम किया. दोनों जगहों की परिस्थितियों में क्या अंतर था? – अंतर तो कोई खास नहीं था. मतलब दोनों ही जगह अच्छी जगह थी. तो जो सामान्य जीवन हो सकता है, वो ठीक ही ठाक चल रहा था. आपने यूनियन की नींव रखी थी. जैसा कि आपने बताया कि इसका काफी फायदा भी हुआ था. लेकिन आपको याद होगा कि मीडिया में पिछले दिनों काफी बड़े पैमाने पर छंटनी हुई थी और कहीं से कोई आवाज नहीं आई, तो क्या वो आंदोलन कमजोर पर गया है? – वो तो खतम ही हो गया है लगभग. अब तो वहां एसोसिएशन है, यूनियन नहीं है. कोई खास ताकत भी नहीं है. सब बिखर गया. उसके लिए काफी जुझाड़ू किस्म का आदमी चाहिए, तब यूनियन चल पाता है. वरना वो तो लेन-देन की हो जाती है. तो क्या लेन-देन की वजह ने यूनियन खत्म हो गया? – नहीं ऐसा नही है. यह कोई इंडस्ट्री तो है नहीं कि सीधे पैसे दे देंगे. यह तो इंडस्ट्री में होता है. यहां लेन-देन का मतलब है कि प्रोमोशन दे दिया, अच्छी पोस्टिंग दे दी. यूनियन नेताओं को इसी से फायदा हो जाता है और इसी के आधार पर लोग कमजोर हो जाते हैं. तो ये फर्क पर जाता है. आपके जीवन में एक दौर था, जब आप नाटकों से जुड़े थे. उस दौर के बारे में बताइए? – आकाशवाणी एक ऐसी जगह थी (रूक कर कहते हैं, अब तो स्थितियां बदल गई है, वैसी रही नहीं), जहां थिएटर में काम करने वाले सारे अच्छे लोग आते थे और वहां होने वाले नाटक में हिस्सा लेते थे. जैसे- कुलभूषण खरबंदा, ओम शिवपुरी, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, ये लोग आकाशवाणी में होने वाले नाटकों में काम करने आते थे. क्योंकि तब आमदनी का जरिया कम था. यहां काम करने से उनका थोड़ा खर्चा निकल जाता था. इस दौरान नाटक का काम करने वालों से संबंध बना. उसी वक्त वहां नेमीचंद्र जैन हुआ करते थे. अब तो उनका देहांत हो गया. तो उनसे निकटता होने पर नाटक में काम करने की और नाटक लिखने की इच्छा पैदा हुई. फिर लिखा भी. 63-64 में स्टेज के लिए लिखने लगा. यहीं एनएसडी (National School of Drama) था जहां दुनिया के अच्छे नाटक होते थे. यहीं नाटक लिखने की प्रेरणा मिली. उस दौरान कईयों से निकटता थी. एक गुलशन कपूर थे. बहुत ही अच्छे इंसान थे. नाटक में उनके जैसी प्रतिभा बहुत कम होती है. ओम शिवपुरी, चमन बग्गा इसके अलावा बंबई के कुछ लोग आ जाते थे बीच-बीच में, इन सब से एक माहौल बनता था. सभी के साथ अनुभव बहुत लंबे हैं. नाटकों के उस दौर में आपका एक नाटक ‘आला अफसर’ काफी चर्चित और विवादास्पद रहा था. हुआ क्या था? – ‘आला अफसर’ असल में गोगोल (रुसी नाटककार) के एक नाटक ‘इंस्पेक्टर जनरल’ का भारतीयकरण था. शहर में एक बड़ा अधिकारी है और उसके यहां जांच के लिए कोई आने वाला है. जांच के लिए जो आता है, उसको ये बड़े आदर के साथ लाते हैं. हालांकि वह जांच के लिए नहीं आया था घूमने आया था. तो शासन और आम आदमी के बीच रिश्ता क्या है, ये उसका केंद्र है. तो जाहिर से उसमें विवाद होना था. शायद इंदिरा जी ने उसे देखने की इच्छा जताई थी? – (हंसते हुए, जैसे उन दिनों नाटक को लेकर मचे कोहराम को याद कर रहे हों) नहीं, उन्होंने नहीं की थी बल्कि मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह ने जरूर देखने की इच्छा जताई थी और उन्होंने देखा भी. अब ये पता नहीं चल सका कि उनको कैसा लगा. उस वक्त सामने बात हुई नहीं. ताली तो उन्होंने बजाई लेकिन उनका विचार पता नहीं चल सका. नाटक लिखना छूट कैसे गया, क्या वजह रही? – छूटा तो नहीं, क्योंकि मैं लिखता तो रहता हूं, लेकिन उसमें एक कठिनाई है. जो नाटक की दुनिया है वह पिछले 10-15 वर्षों में सरकार पर निर्भर हो गई है. स्वतंत्र रूप से नाटक होते नहीं. सरकार से जो ऐड मिल जाता है, उससे नाटक कर लेते हैं. ये जो सरकारीकरण है, उसने नाटक के पूरे माहौल को खराब कर दिया. मौलिक लेखन होना बंद हो गया. मौलिक लेखन न होने के कारण उससे मेरी दूरी बन गई. क्योंकि मौलिक लेखन ये लोग पसंद नहीं करते. अच्छा मेरी आदत है कि मैं अपना नाटक आम तौर पर करता नहीं हूं. एक ही बार किया था अपना नाटक. तो मेरा नाटक दूसरे किया करते थे. तो अब लोगों के पास ऐसे संसाधन नहीं है कि वो नाटक करें तो इस वजह से लिखना धीरे-धीरे छूट गया. यानि सरकारीकरण इतना ज्यादा हो गया कि वहां बैठे हुए लोग बने-बनाए नाटक ही ज्यादा लेना चाहते हैं. आपने मीडिया को भी करीब से देखा है. समाज के एक बड़े तबके की उपेक्षा करने का मीडिया का जो चरित्र है, उसको आप कैसे देखते हैं? – देखिए मीडिया हमेशा एक तो सांप्रदायिक रहा है. यानि मुस्लिम संस्कृति के विरुद्ध. दूसरे, मीडिया में, खासतौर पर आकाशवाणी औऱ दूरदर्शन में करीब 70 फीसदी बड़े आर्टिस्ट दलित थे. लेकिन उन्हीं की हालत सबसे ज्यादा खराब थी. कितनी भी कोशिश कर लिजिए उनको पहचान नहीं मिलती थी. हमने बहुत संघर्ष किया तो इतना हुआ कि चलो 25 फीसदी प्रोमोशन दे देंगे. लेकिन इसके बाद कोई प्रोमोशन नहीं हुआ. तो एक प्रोमोशन में जीवन बीत गया. तो इस तरह से वहां का माहौल वंचित समुदाय के पक्ष में नहीं था. ऐसा नहीं था कि उसकी हिस्सेदारी हो सके. जो दलित ऊपर तक पहुंचा था वो भी ब्राह्मणवादी होकर ही ऊपर पहुंच पाया. हालत ऐसी थी कि आकाशवाणी में (तब दूरदर्शन और आकाशवाणी एक ही थे) एक अमृतराव शिंदे थे. वो डिप्टी डायरेक्टर जनरल तक तो बन गए, फिर इनको डायरेक्टर जनरल बनाया जाना था. बाकी सारे डिप्टी डायरेक्टर जनरल ने सख्त विरोध किया. सांसदों तक से शिकायतें की कि उन्हें न बनाया जाए. हमने विरोध करने वालों से बात किया कि क्या दिक्कत है, तुमलोग विरोध क्यों कर रहे हो? वह सीनियर मोस्ट है तो उसको बनना चाहिए. तो उनका कहना था कि यार तुम समझते नहीं हो, ये दलित है और अभी इसकी नौकरी 6 साल बाकी है. ये छह साल तक इस पद पर रहेगा. मैने कहा कि दूसरे कई लोग तो लंबे अरसे तक रहे हैं. लेकिन वो फिर भी नहीं माने. इसके बाद शिंदे को एक्सटर्नल अफेयर मिनिस्ट्री में कहीं डायरेक्टर जनरल बनाकर भेज दिया गया. जब उनके तीन साल हो गए तब उनको ब्राडकास्टिंग में लाया गया. ताकि वो तीन साल ही इस पद पर रहें. तब तक मैं छोड़ चुका था. मैं उनसे मिलने गया. लेकिन तब तक वह आदमी पूरी तरह ब्राह्मण हो गया था. वहां दलित मुद्दा न उठाओ. वहां एक बहुत छोटी समस्या उठी थी. जो चौकीदार वहां होते थे. उनमें एक रण सिंह नाम का आदमी था. दलित था. उसने एक बार सवाल उठाया कि हमलोग सारा वो काम करते हैं जो इंडस्ट्रीयल सिक्यूरिटी आर्गेनाइजेशन में सिक्यूरिटी फोर्स वाले करते हैं. लेकिन उनकी और हमारी तनख्वाह में फर्क है. उन्हें हमसे दोगुनी तनख्वाह मिलती है. सिक्यूरिटी में ज्यादातर लोग दलित ही थे. लेकिन आखिर तक उनकी मांग खुद अमृतराव शिंदे ने स्वीकार नहीं की. जबिक ये बहुत छोटी बात थी. डायरेक्टर जनरल सिर्फ चाह देते तो उनको बढ़ा हुआ वेतन दे सकते थे. लेकिन दलित होने के बावजूद ब्राह्मणवादी होने के कारण उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसका विकल्प क्या हो सकता हैं. इतना लंबा वक्त बीत जाने के बावजूद मुख्यधारा की मीडिया में दलितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला. तो क्या दलितों को अपनी मीडिया स्थापित करनी चाहिए? – ये हो तो रहा है. लोग कोशिश तो कर रहे हैं. खासतौर से बामसेफ वाले कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ऐसा कोई काम हो सकेगा जिससे दलित सचमुच लाभान्वित हो सके, ऐसा मुझे नहीं लगता. देखिए जिस तरह का अखबार बामसेफ निकालना चाहते हैं या फिर वो निकालने लगे हैं. या इलेक्ट्रानिक मीडिया पर खर्च करना चाहते हैं तो उससे कोई लाभ नहीं होने वाला. क्योंकि देखिए सीधी सी बात है कि ये जो सवर्णों का मीडिया है वो क्या करता है कि सारी खबरें देता है. दलितों की भी खबरें देता है लेकिन अपने ढ़ंग से दे देता है. तो क्या होता है कि उसका जो दर्शक या फिर पाठक है वो बहुत बड़ा हो जाता है. दलितों को तो लाभ मिलता है, बाकियों को भी होता है. अब बामसेफ की कठिनाई ये है कि वो एक्सक्लूसिव दलितों के लिए निकालेंगे. अब जब एक्सक्लूसिव दलितों के लिए निकालेंगे तो बाकी लोग तो उसको देखेंगे नहीं. और सबसे बड़ी बात है कि बाकी लोगों को चुनौती कैसे मिलेगी. जैसे देखिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का जो आंदोलन है, वो हमें प्रभावित करता है कि नहीं. आपको यह भी देखना होगा कि सवर्ण क्या हैं, उनकी हैसियत क्या है, वो गड़बड़ियां कैसे करते हैं. और दलित के पक्ष में भी लिखिए. यानि जब तक पूरे समाज के बारे में क्रिटिकल नजरिया नहीं होगा, यह चलेगा नहीं. तो सबकी बात हो, दलितों का अपने तरीके से हो. जैसे अन्ना के आंदोलन में भी आरक्षण के बारे में कहा गया कि यह गलत है. आरक्षण पर एक फिल्म आई थी, उसपर जो शोर मचा उसमें मीडिया भी शामिल था. हालांकि मैने यह फिल्म देखी नहीं है. आपने अभी ‘आरक्षण’ फिल्म की बात की. पिछले कुछ वक्त में ऐसी कुछ फिल्में आई हैं जिसमें दलित किरदार मुख्य भूमिका में है. तो यह जो बदलाव आया है, जिसमें अब कम से कम बात होने लगी है, जैसे कहते हैं कि बहस जरूरी है, तो यह कितना साकारात्मक है? – ये तो सही है. लेकिन सारा जो फिल्म जगत है वो गैर दलित है. सारे फिल्मी दुनिया के लोग ये तो चाहते हैं कि उनकी फिल्म दलित भी देखें. इसलिए थोड़ी बात दलितों की भी डाल देते हैं. बाकी कोई चिंता नहीं है उनकी. फिल्म वाले इस बारे में थोड़े उदार तो हैं लेकिन उनकी उदारता की वजह आर्थिक है. जैसे मुस्लिम को बराबरी का ठहराने वाली बात हर फिल्म में मिल जाएगा. उनके विरुद्ध कोई बात नहीं होती. तो फिल्म वाले इस बारे में थोड़ा उदार हैं लेकिन अखबार और मीडिया वाले नहीं है. ‘आरक्षण’ फिल्म के प्रोमोशन के दौरान अमिताभ बच्चन और प्रकाश झा कई मंचों पर आएं लेकिन आरक्षण को लेकर उन्होंने कोई स्पष्ट मत नहीं दिया. तो उनका जो दोहरा चरित्र है, उसके बारे में आप क्या कहेंगे? – प्रकाश झा तो मैथिल ब्राह्मण हैं. जाहिर है वो बहुत कट्टर लोग हैं. ज्यादा हिलते नहीं. अमिताभ बच्चन की पूरी ट्रेनिंग ऐसी जगह हुई जहां ये बात मायने नहीं रखती. हरवंश राय बच्चन उनके पिता हैं. हैं तो ये शूद्र जाति के ही. कायस्थ थे. लेकिन बड़ी दुनिया में पहुंच गए. जाहिर है तब दलित प्रश्न उनके लिए मायने नहीं रखता. इसी मीडिया ने पिछले दिनों नोएडा में मायावती द्वारा दलित प्रेरणा स्थल बनाने की तीखी आलोचना की थी. लखनऊ में भी अंबेडकर पार्क बनाने के दौरान बहुत विरोध हुआ था. आपका क्या मानना है, क्या ऐसे पार्क और मूर्तियां बनना सही है? – ये तो सही है. बिल्कुल सही है. इससे एक स्थाई छाप तो पड़ेगी उस समूची जाति की, कि इतना बड़ा काम इनके पक्ष में हुआ. हालांकि उस काम को किसी सवर्ण ने प्रशंसा की दृष्टि से नहीं देखा. हर वक्त आलोचना ही होती रही. गांधी की लाखों मूर्तियां इस देश में होंगी और स्मारक होंगे. उस पर तो कोई आक्षेप कभी किसी ने नहीं लगाया कि गांधी की मूर्तियां इतनी क्यों बन रही हैं. अब गांधी से बड़े स्मारक बन रहे हैं तो उन्हें चिढ़ हो रही है. जब तक गांधी जी के सामानांतर मूर्तियां लगती थी तब तक दिक्कत नहीं थी. दिक्कत ये हुई कि उससे बड़े स्मारक बन गए हैं और अब गांधी की उतनी बड़ी मूर्तियां बनाने वाला कोई है नहीं, तो जाहिर है लोगों को कष्ट तो होना ही था इस निर्माण कार्य से. आप सोचिए कि आप सुभाष बाबू के नाम पर कितने स्मारक बना लेते हैं. अब सुभाष कोई सही आदमी तो थे नहीं, जर्मनी का जो हिटलर है, उसके साथ काम कर रहे थे. कभी उन्होंने अपने जीवन में एक शब्द नहीं कहा कि हिटलर अत्याचारी है. मेरा ख्याल है कि करीब 70 लाख लोगों को मरवाया उसने. तो सुभाष बाबू कभी उसके बारे में तो बोले नहीं. उनकी मूर्तियां लगी हुई है. अच्छा है कि अब वो सब मूर्तियां छोटी हो गई हैं. मैं तो बहुत खुश हूं. जैसे बुद्ध का है. बुद्ध के जो स्मारक हैं, उसके बराबर कोई नहीं पहुंच सकता. राम का कोई स्मारक उतना बड़ा नहीं बन सकता. यह संभव ही नहीं है. तो जाहिर है कि यह स्थिति कुछ लोगों को थोड़ा आतंकित करती है. उत्तर प्रदेश में बड़ा काम हो गया. हां, मायावती ने जो अपनी मूर्ति लगा दी है, उसको लेकर विवाद हुआ. मैं भी उसके पक्ष में नहीं हूं. कांशी राम ने उत्तर भारत में दलितों को आगे बढ़ाने में काफी योगदान दिया. तो उनकी मूर्ति लगनी चाहिए. बड़ी से बड़ी लगनी चाहिए. औरों की तो लगी ही है. लेकिन मायावती की खुद की मूर्ति लगाने से विरोध करने वालों को एक बहाना मिल गया. जो भी हल्ला मचता है वो मायावती की मूर्ति के लिए ही है. किसी दूसरे की मूर्ति के विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं है. आपने बुद्ध की बात की अभी. दलितों के विकास में, उनके आगे बढ़ने में बौद्ध धर्म का कितना महत्व है? – बहुत बड़ा महत्व है भाई. वो साधारण नहीं है. बुद्ध ने जातिवाद तोड़ा. जो भी जातिवाद तोड़ेगा और सफलता पूर्वक तोड़ेगा वह बड़ा तो होगा ही. इस देश में बौद्ध धर्म को बहुत नुकसान पहुंचा. यानि अगर यह बाहर न गया होता. यानि तिब्बत, चाइना, जापान आदि जगहों पर बौद्ध संस्कृति न फैली होती तो दिक्कत होती. अब यूपी की महत्ता भी उन जैसी होने लगी है. शूद्र जाति के लोग दलित आंदोलन से उतनी शिद्दत से नहीं जुड़ पाएं, उसकी क्या वजह है? – दलितों ने भी शूद्रों के बहुत नजदीक जाने की कोशिश नहीं की. बामसेफ जरूर उदार संगठन है. बसपा है तो वह जबरदस्त काम करती है. लेकिन ऐसी स्थिति नहीं बनाती है कि शूद्र उसके साथ आ जाएं. इसकी कमी है. ओबीसी में से कुछ लोग राजसत्ता में आ गए. जैसे यूपी में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार आएं. अब नीतीश कुमार तो कुर्मी है. हैं तो ओबीसी लेकिन ओबीसी जैसा काम नहीं करते हैं. काम वही ब्राह्मणों जैसी करते हैं. वही स्थिति मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की थी. बल्कि वो तो खतरनाक ढ़ंग से हिंदुत्व के साथ हो गए थे. कहते थे कि हम तो कृष्ण के वंशज हैं. उससे भी ज्यादा हास्यास्पद है कि आप जो हिंदु धर्म के तीज-त्यौहार है उसे उतने उत्साह से क्यों मनाते हैं. यह तो ब्राह्मणों का है. जो ओबीसी सत्ता में पहुंचा वो शिद्दत से सवर्ण हिंदू बन गया. इस मायने में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की जो भूमिका है, क्या आप उसकी सराहना करते हैं? – इधर नहीं. क्योंकि उनको नारा तक बदलना पड़ा. मैने बीच में टोकते हुए सत्ता की मजबूरी याद दिलाई, तो उन्होंने कहा- ‘बहुजन हिताय’ के बाद आप ‘सर्वजन हिताय’ कर दें इसकी क्या मजबूरी होगी. मजबूरी अधिक से अधिक ये थी की मनुस्मृति न जलने दी जाए. तो अगर वो सर्वजन नारा न लगाती तब भी ब्राह्मणों को कुछ पता नहीं चलता. उनको तो पता नहीं चलता कि बहुजन और सर्वजन का फर्क क्या था. अब बुद्ध तो इतने बुद्धू थे नहीं. जब उन्होंने बहुजन हिताय कहा तो साफ मतलब था कि उसमें किसी गलत काम करने वालों के सुख की कामना हम नहीं करते हैं. उसको तो दंड मिलना चाहिए. इसलिए उन्होंने बहुजन सुखाय नारा दिया था. लेकिन अब तो हो गया. पर ये कारण है जिससे आंदोलन को थोड़ा फर्क पड़ता है. आप वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे हैं. लेकिन इसने दलित सवालों को मुखरता से क्यों नहीं उठाया? – बिल्कुल सही कह रहे हैं. कभी नहीं उठाया. बहुत खराब स्थिति है. हाल में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि दलित प्रश्न और स्त्री प्रश्न क्या होता है, क्यों उठाते हैं लेखक लोग? तो अब इस मानसिकता को क्या कहेंगे? शुरू से आज तक दलित प्रश्न पर और स्त्री प्रश्न पर भी वामपंथ ने कोई सीधा काम कभी नहीं किया. इसमें वो जो 500 पन्नों का बनता है घोषणा पत्र, उसमें पांच हजार मुद्दे होते हैं. उसी में एक छोटा सा प्रश्न दलित मुद्दा होता है. यह बेकार है. तो वामपंथ कभी करेगा ही नहीं. मैं टोकता हूं, लेकिन आज जब दलित आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से संपन्न होने लगे हैं तो कुछ वामपंथी धरे जाति के प्रश्न को उठाने लगा है. मुद्राराक्षस पहले के ही भाव में कहते हैं- यह बिल्कुल धोखाधड़ी है. कोई रिश्ता ही नहीं है. प्रगतिशील लेखक संघ जिसकी आपने बात की, उसकी नींव यहीं लखनऊ में पड़ी. हाल ही में लखनऊ में ही इसका 75वां वर्ष मनाया गया. तो प्रेमचंद से अब तक प्रगतिशील लेखक संघ कितनी प्रगति कर पाया है? – देखिए, इस मामले में तो प्रेमचंद भी पिछड़े हुए थे. वो कोई दलित पक्षधऱ नहीं थे. उन्होंने ऐसी दो-एक कहानियां जरूर लिखी जिसमें दलित पात्र है. लेकिन वो कहानियां ही विवाद का विषय है. और प्रेमचंद्र कठोरता के साथ गांधी के समर्थक थे. जिस मुद्दे पर पूना पैक्ट हुआ. यह प्रेमचंद्र के ही शब्द हैं कि “दलित हमारे पैर हैं और अगर पैर ही कट गए तो हम कैसे जीवित रहेंगे.” (तल्खी के साथ कहते हैं) पैर ही क्यों हैं भाई. आप हमें पूरे शरीर का हिस्सा क्यों नहीं मानते. क्योंकि हर हालत में आप हमें नीचे ही देखते हैं. तो प्रेमचंद घोर दलित विरोधी हैं. नामवर सिंह ने सार्वजनिक मंच से आरक्षण का विरोध किया है. उनके बयान को आप कैसे देखते हैं? – वो तो बोलेंगे ही. ये तो सारा वो वर्ग है जिसके बारे में देखा जा चुका है. जब ओबीसी को आरक्षण मिला तो इन लोगों ने विरोध के नाम पर कुछ लोगों को जिंदा तक जलवा दिया. तो ये तो हमेशा विरोध में रहेंगे. ये कभी पक्ष में नहीं रहेंगे. जब भी दलित विमर्श की बात आती है तो अक्सर विवाद उठता है कि दलितों की बात सिर्फ दलित ही कर सकते हैं, तो दूसरी आवाज आती है कि सिर्फ दलित ही क्यों, गैर दलित भी कर सकते हैं. आपका क्या मानना है? – ये अजीब है. एक बात बताइए, ये जो हिंदी का लेखक है जो ऐसी बातें करता है, उससे कहिए कि वो इंडोनेशिया के बारे में क्यों नहीं लिखता, जापान के बारे में क्यों नहीं लिखता. वहां भी तो किसान हैं, वहां भी तो औरते हैं-आदमी हैं. आप उनके बारे में तो कहानी नहीं लिखते हैं. क्योंकि वो एलियन है. अब सवाल यह उठता है कि आप दलित के बारे में क्यों लिखना चाहते हैं. (व्यंग्य के लहजे में कहते हैं) अगर आप दलित के बारे में कहानियां नहीं लिखेंगे तो क्या हो जाएगा, क्या आप बीमार हो जाएंगे. आखिर क्यों लिखना चाहते हैं. आपके पास आपकी पूरी दुनिया है, उसके बारे में लिखते रहें. ये तो अजब बात है कि दलित पर भी हम ही लिखेंगे. मैं टोकता हूं, ‘’कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये जो स्पेस है, उसे गैर दलित हड़पना चाहते हैं ’’ मुद्राराक्षस सहमति जताते हुए कहते हैं, बिल्कुल यही बात है. ये एक बड़ा क्षेत्र है. तो वो सोचते हैं कि उधर भी जमें रहो, इधर भी टांग अड़ाए रहो. मोहनदास नैमिशराय ‘बयान’ नाम की एक पत्रिका निकालते हैं, उसमें कई बार बाबा साहेब डा. अंबेडकर के ऊपर उंगली उठाई जाती रही है. पिछले दिनों ‘सम्यक प्रकाशन’ के शांति स्वरूप बौद्ध ने सार्वजनिक रूप से इसका विरोध भी किया था. तो इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं, आज के वक्त में कौन लोग ठीक लिख रहे हैं? – ये तो कुछ दलितों में डा. धर्मवीर का प्रभाव है. एक बात नहीं सोचते हैं आप, कि जितनी पढ़ाई लिखाई बाबा साहेब ने अपने वक्त में कर लिया था. 25-26 में वो एक गहरे विद्वान के रूप में सामने आए. दुनिया भर का साहित्य उन्होंने पढ़ रखा था. तो बाबा साहेब के जितना बड़ा कोई आदमी हो तो उनके विरुद्ध बोले. बाबा साहेब की कई बातें ऐसी हो सकती है जो सही न हो. एक तो बहुत जल्दी उनका देहांत हो गया. तो इतनी जल्दी जिस आदमी का देहांत हो जाए और उससे पहले वो इतना बड़ा काम कर गया हो, ये कोई साधारण तो है नहीं भाई. उतना बड़ा काम उनसे लंबा जीवन पाने वालों ने आज तक नहीं किया. इसलिए बाबा साहेब की आलोचना मुझे सही नहीं लगती. यह गलत काम है. ये डा. धर्मवीर ने चला रखा है ज्यादा. जो केरल में थे. उन्होंने बुद्ध की आलोचना की है. अंबेडकर की भी आलोचना की है. हालांकि खुद भी दलित हैं. तो आलोचना का अधिकार एक तो उसे होता है जो आलोच्य से ज्यादा बड़ा हों, जिसकी आलोचना कर रहे हैं उससे बड़े हों. कह के तो बड़ा नहीं हो सकता कोई. कल को हम कह दें कि बुद्ध से भी बड़े हैं और बुद्ध की आलोचना करने लगें तो यह गलत है. जहां तक लेखन की बात है. चंद्रभान ठीक लिखते हैं. सही सोचते हैं, सही बोलते हैं. लेकिन ये आदमी गलत है, कुंठित है. डा. धर्मवीर. सही नहीं लिखता. हालांकि उनके पक्ष में बहुत पत्रिकाएं निकलती हैं. वो बहुरि नहिं आवना भी उन्हीं के पक्ष की है. लगभग सारे अंक में उन्हीं पर छपा होता है. जहां तक दलित लेखन है नैमिशराय अच्छा कर रहे हैं. लेकिन वो धर्मवीर के विचारों से सहमत हों, ये अच्छा नहीं लगता. महाराष्ट्र में सांस्कृतिक जागरूकता है जबकि यूपी में राजनीतिक जागरूकता है, लेकिन दोनों एक-दूसरे की खूबियों को साझा नहीं कर सके, इसकी क्या वजह है? – भाषा का अंतर है. भाषा भिन्न होने के कारण लोगों के बीच संवाद नहीं हो पाता. मराठी भाषा हिंदी से अलग है. तो जाहिर है हिंदी भाषी जो क्षेत्र है वो मराठी आंदोलन से प्रभावित नहीं हो पाते. अगर मराठी भाषा यहां भी चल गई होती तो आंदोलन का स्वरूप कुछ और होता. हिंदू जातिवादियों को सबसे ज्यादा डर दो जगहों से लगता है, एक चेन्नई और दूसरा महाराष्ट्रा से. ये भाषा अगर हिंदी प्रदेश में समझी जाने लगी तो बड़ा आंदोलन हो जाएगा. नाचने-गाने का जो काम है वह दलितों-शूद्रों से जुड़ा रहा है. सांस्कृतिक इतिहास में इसका क्या महत्व है? – जो बेहतर गायक या नर्तक है इस वक्त वो सारे शूद्र जाति के हैं. ब्राह्मणों ने कुछ कोशिश जरूर की हमला करने की, कि वो ज्यादा बड़े हैं, लेकिन हो नहीं पाया. बनारस के शहनाइ वादक बिस्मिल्लां खां तो अति दलित जाति के थे. अब वो इनकी बराबरी तो कर नहीं पाते. जब मैं ब्राडकास्टिंग में था तो वहां आर्चाय बृहस्पति नाम के एक एडवाइजर आ गए. वो इस बात पर अमादा थे कि दुनिया का सबसे बड़ा संगीतकार पंडित ओमकार नाथ ठाकुर को मानो. हमलोगों ने काफी हल्ला-गुल्ला भी किया. लेकिन अपने जीते जी उस आदमी ने कुमार गंधर्व को कभी ब्राडकास्टिंग में आने नहीं दिया. क्योंकि कुमार गंधर्व ओबीसी थे. लेकिन कुछ लोग अपने को पंडित लिखने लगे. जैसे वो जो बांसुरीवादक हरि प्रसाद चौरसिया हैं, अपने को पंडित भी लिखने लगें. लेकिन हैं तो चौरसिया हीं. तो कुछ संगीतकारों में भी यह हो गया कि वो अपने को ब्राह्मण दिखाएं. नर्तक अच्छन महाराज, शंभू महाराज, लच्छू महाराज इनकी जो भी संतान हैं दिल्ली में, वो सारे पंडित लिखते हैं अपने को. जबकि ये लोग पंडित हैं नहीं, सब दलित हैं. तो क्या कर सकते हैं. आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी साहित्यिक और सांस्कृतिक रही है. उसके बारे में बताएंगे? – नाना आचार्य चतुर सेन शास्त्री साहित्य में एक जाने-माने नाम थे. पिता शिवचरण लाल प्रेम ड्रामा परफारमर थे. उन्होंने काफी काम किया लेकिन उन्हें आर्थिक सफलता नहीं मिल पाई. उन्होंने साईकिल का पंचर लगाया, रेलवे में मैकेनिक का काम किया, दर्जी का काम किया. पैसे के लिए हलवाई भी बने. लेकिन बुनियादी तौर पर वो आर्टिस्ट थे. पर आर्ट के जरिए कैसे अपनी जीविका चलाएं वह इसे समझ नहीं पाएं. लेकिन इसकी वजह क्या है आखिर, क्यों करते हैं वो ऐसा? – वजह साफ है कि खुद को पंडित लिखकर वो ज्यादा सम्मान पाते हैं. सवर्ण उनको और ज्यादा आदर देते हैं. अब यूं देखो, रविंद्रनाथ टैगोर अछूत जाति के थे. जिसको चांडाल कहा जाता है, उस जाति के थे. सारे लोग उनको ब्राह्मण मानते हैं. यहां तक की उनकी जो जीवनी लिखी गई है उसमें भी उनको ब्राह्मण बताया गया है, जबकि ये गलत है. बिल्कुल गलत है. यहां तक की हिंदुत्व की जितनी गहरी और गंभीर आलोचना गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने की है, उतनी किसी दूसरे बड़े लेखक ने नहीं की. वो जानते थे. उनका सारा लेखन इस बात का उदाहरण है. उन्होंने हमेशा दलित जाति के पक्ष में ही लिखा. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि दलित जाति भी उनको स्वीकार नहीं करती. आप किसी भी मंच से उनका नाम नहीं सुनेंगे. जबकि कायदे से तो मंच पर उनकी तस्वीर लगानी चाहिए. क्या वो खुद को अपने लोगों से जोड़ नहीं कर पाएं ? – ऐसा नहीं है. लोग ही उनसे खुद को नहीं जोड़ पाएं. उनका जो लेखन है आप उसे देखिए, सारा का सारा दलितों पर है. उनकी कविता जो है जूते का अविष्कार वो काफी प्रचलित है. (वो कहानी सुनाने लगते हैं.) “एक राजा था. जब वो चलता था तो उसके पांव में धूल लग जाया करती थी. उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई. कहा कि मैं चलता हूं तो पैरों में धूल लग जाती है. तो मंत्रिमंडल ने आपस में बैठक कर के तय किया कि एक लाख झाड़ू लगाने वाले लोग बुलाए जाएं और उनसे झाड़ू लगवा दिया जाए. एक लाख लोगों ने जब झाड़ू लगाया तो चारो ओर धूल ही धूल छा गई. राजा ने फिर मंत्रिमंडल को बुलाया और दूसरा उपाय करने को कहा, तब मंत्रिमंडल ने एक लाख पानी छिड़कने वाले लोगों को बुला लिया ताकि धूल न उड़े. जब उन एक लाख लोगों ने पानी छिड़का तो चारो ओर कीचड़ ही कीचड़ हो गया. मंत्रिमंडल फिर बैठा. इस बार तय हुआ कि सारी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ दो. इससे ना धूल उड़ेगी ना कीचड़. तो एक लाख चर्मकार बुलवा लिए गए. उनको जब कहा गया कि पूरी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ना है, तो उनका जो नेता था वो आगे आया और उसने राजा से पूछा कि आखिर आप ऐसा क्यों करना चाहते है. राजा ने कहा कि हमारे पैर में धूल लग जाती है, कीचड़ लग जाता है. तो उसने कहा कि जब कीचड़ और धूल लगने का ही प्रश्न है तो फिर आप अपने पैर को ही चमड़े से मढ़वा लिजिए. ” तो सारी व्यवस्था से ज्यादा सही सोच वह चर्मकार निकला. यह रविंद्रनाथ टैगोर के चिंतन का एक बड़ा पक्ष है. कि वो समाज में सर्वश्रेष्ठ किनको मानते हैं. आप धार्मिक सद्भाव को लेकर भी एक मिसाल रहें हैं. (मुद्राराक्षस जी की पत्नी मुस्लिम समुदाय से संबंध रखती हैं ) तो उस वक्त कितनी मुश्किल आई थी आपके सामने? – देखिए मेरे जीवन की जो शुरुआत है, उसमें मैं बता दूं. मेरा परिवार बेहद धार्मिक किस्म का था. मेरे परिवार में कोई भी अपने को शूद्र जाति का मानता नहीं था. थे. चूकि वह लिखने-पढ़ने का काम करते थे तो सब अपने को पंडित मानते थे. ब्राह्मण लिखते थे. सब आर्यसमाजी हो गए थे. हालांकि कोई ब्राह्मण उनको मान्यता देने को तैयार नहीं था. परिवार में यही माहौल था. मेरे नाना जी मुझे पढ़ाया करते थे. पहली बार जब मैने अपने उनसे धर्मग्रंथों का विरोध किया तो वो इतने नाराज हो गए कि फिर उन्होंने घर आना ही बंद कर दिया. मैने उनको कहा कि देखिए सारे धर्मग्रंथों में तो हमारे बारे में ये लिखा गया है. तो उनका जवाब था कि ये सब बाद में अलग से डाल दिया गया है. यानि 124 गृहसूत और धर्मसूत है, सबमें कैसे अलग से डाला जा सकता है. लेकिन नाना जी मानने को तैयार नहीं थे. तो ये जो धार्मिक जूनून था, उस वक्त थोड़ा मुझे भी लगता था कि एक बड़ा धर्मनेता बनना चाहिए. लेकिन जब मेरे कुछ कम्यूनिस्ट मित्र आएं उन्होंने मुझे पूरा परिवर्तित कर दिया. ये फायदा हुआ. हालांकि कम्यूनिस्ट बाद में खुद ही बदल गए. आपकी शादी को लेकर भी काफी विवाद हुआ था, तब आप स्थिति से कैसे निपटे थे? – मुझे तो कोई ज्यादा दिक्कत नहीं हुई क्योंकि मैं बहुत जल्दी जाना-माना लेखक बन गया था. तो कष्ट उन्हें ज्यादा हुआ जो विरोध कर रहे थे, इसमें मेरे पिता भी शामिल थे. पुस्कारों का आपके जीवन में कितना महत्व है. आपको काफी सम्मान मिला लेकिन 2008 के बाद यह रूक सा गया. क्या वजह मानते हैं आप इसकी? – ये जो सरकारी सम्मान है, वो जरा कम है. लेकिन इसको छोड़ दिया जाए तो जितना सम्मान हमको मिला है उतना जल्दी किसी को मिलता नहीं है. क्योंकि सारे देश में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां मुझे इज्जत न मिली हो. जन सम्मान तो इतना ज्यादा है कि दूसरे इसकी कल्पना नहीं कर सकते. ये जो सरकारी सम्मान होते हैं इन पर अभी मैने एक टिप्पणी लिखी थी कि ये प्रगतिशील लेखकों का ब्लैकमेल है. यानि खासतौर से जो प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष हैं वो लोगों को इतना ब्लैकमेल करते हैं कि क्या कहा जाए. उनकी कोशिश रहती है कि सारे संसाधन, सारे इनामात सब उनके अपने लोगों को मिलते रहे. यहां तक करते हैं कि प्रकाशक को फोन करते हैं कि ‘फलां’ कि किताब मत छापिएगा. ‘अमुक’ की बात मत सुनिएगा. आपने संघर्ष के वक्त को आप कैसे याद करते हैं, वह वक्त कैसा रहा? – संघर्ष का जीवन तो आज भी है. अभी का मतलब यह कि जो आर्थिक साधन होते हैं, मैं उनमें कुछ पिछड़ा हुआ हूं. उसके लिए ज्यादा प्रयत्न नहीं करता. तो थोड़ी-बहुत आर्थिक कठिनाईयां तो बनी रहती है. बाकी सब ठीक है. अपना काम चल जाता है. जैसे यहां के लेखकों में मशहूर है कि मेरा कुत्ता भी छिछला नहीं खाता है. मुर्गा आता है उसके लिए. अब जो मैने पाला है उसके लिए बोनलेस मछली जो 400 रुपये किलो वाली होती है, वो आता है. इतना मैं अपने बूते पर कर लेता हूं. मुझे किसी पर निर्भर नहीं होना है. सबसे बड़ी बात ये है कि किसी का कृपाकांक्षी नहीं बनना है. क्या आपको कभी अजीब नहीं लगा कि आप जिस समाज से आते हैं, जिस समाज की बात करते हैं, वो सत्ता में आया, बावजूद इसके आपकी सुध नहीं ली? – (हंसते हैं.) नहीं शासन का कोई दोष नहीं है. जितने साहित्य और सांस्कृतिक संस्थान हैं वो ब्राह्मणों के कब्जे में हैं. इन गोपाल चतुर्वेदी को आप क्या कहेंगे? प्रेम शंकर को आप क्या कहेंगे? तो अखड़ता नहीं है. शुरू में भी उन्हीं के कब्जे में था. अभी भी उन्हीं के कब्जे में है. बावजूद इसके मैं शिखर पर पहुंच गया. तो ठीक है. आपके जीवन में किनका प्रभाव रहा? – एक हमारे अध्यापक थे, डा. देवराज. फिलासफी पढ़ाते थे. लखनऊ विश्वविद्यालय में. उनकी खासियत यह थी कि वो तार्किक व्यक्तित्व थे. किसी तरह के ईश्वर या धर्म से उनका कोई ताल्लुक नहीं था. एक तो उन्होंने प्रभावित किया. भाषा शैली और शिल्प के रूप में निराला ने प्रभावित किया. भाषा का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए, ये हमने उसी आदमी से सीखा. हालांकि मैं उस आदमी का कठोर आलोचक हूं क्योंकि दलित मुद्दे पर वो आदमी बहुत गलत सोचता था. चिंतन बहुत खराब था. दलितों को वह सचमुच बहुत दलित मानता था वह आदमी. एक जगह उन्होंने लिखा है कि दलित तो सिर्फ डंडे से ही ठीक हो सकता है. वो आदमी कहीं भी बराबरी नहीं चाहता था. जब अंग्रेजी स्कूलों में यह व्यवस्था हुई कि सवर्ण और दलित इकठ्ठा पढ़ेंगे तो इस आदमी ने लंबा लेख लिखा था इसके विरूद्ध. विचारों से असहमत होने के बावजूद जो भाषा क्षमता है उनकी, उन्हीं से सीखा. क्या आपको कभी ऐसा लगता है कि आप दिल्ली में होते तो ज्यादा कुछ कर पातें? – नहीं, ऐसा नहीं लगा. मुझे नहीं लगता इसके कोई मायने है. मैं दिल्ली में रहता या लखनऊ में हूं, लिखता तो हूं ही, जाहिर है जो लिख रहा हूं वही मेरे व्यक्तित्व का आधार है. इंसान की जिंदगी में कई लोग आते हैं, जो याद रह जाते हैं. आपके जीवन में वो कौन लोग थे, जिनसे आपकी बनती थी? – दो लोग हमारे मित्र थे. इसमें से एक की Death हो गई है जबकि दूसरा कैंसर में पड़ा हुआ है. एक गौरीशंकर कपूर और दूसरा बलदेव शर्मा. दोनों ब्राडकास्टिंग में थे लेकिन बहुत ज्यादा पढ़ने-लिखने वाले थे. हालांकि उम्र में मुझसे बहुत छोटे हैं लेकिन बराबरी से बहस होती है. और एक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना थे जिनसे निकटतम मित्रता थी. इन्हीं तीन लोगों को मैं हमेशा याद करता हूं. भविष्य की क्या योजना है आपकी, अभी क्या लिख रहे हैं? – अभी एक लेखन पूरा किया है. लंबा उपन्यास है. देश की राजनीति और वंचित समुदाय पर एक किताब आ रही है. ‘अर्धवृत’ के नाम से. किताब घर प्रकाशन से आ रही है. एक-दो महीनों में आ जाएगी. भविष्य में भी लिखते ही रहना है. जो हिंदू धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ था, मैं उसी तरह से एक किताब इस्लाम धर्म पर लिखना चाहता हूं. क्योंकि मुसलमान भी खुद को सही ढ़ंग से नहीं रख पा रहे हैं. क्योंकि अनपढ़ लोग हैं. (क्या लिखेंगे, मैं बीच में टोकता हूं) कहते हैं- जो ओरिजनल फर्स्ट मैन था, मोहम्मद, उनकी क्या नियती और उद्देश्य था और उन्होंने पूरी जिंदगी में कैसे काम किया, ये लिखना है. क्योंकि ये मामूली बात नहीं है कि जिसके पास खाने को अनाज न हो. जो दूसरों से मांग कर काम चलाता हो, उधार किया हो, कई चीजें गिरवी रखकर काम चलाया. उस आदमी को जरा सही ढ़ंग से लोगों के सामने आना चाहिए. जबकि उनकी इमेज यह है कि वह बड़ा धर्मांध था. जबकि वो समाज के लिए काम करने वाला था. काफी उदार था. अब तक आपकी कितनी किताबें आ चुकी हैं? – अब तो तकरीबन 60 किताबें हो गई है. आपके नाम को लेकर एक सवाल उठता है, आपने यह नाम क्यों अपनाया? – इसके बारे में तो कई जगहों पर लिखता रहा हूं मैं. असल में मैने एक आलोचनात्मक लेख लिखा था. उस समय मैं एक स्टूडेंट था. संपादक ने कहा कि तुम्हारा नाम नहीं छापेंगे वरना जिसके खिलाफ लिखा है वो बड़े-बड़े लोग हैं, नाराज हो जाएंगे. छद्म नाम से छाप देते हैं. मैने हामी भर दी तो उन्होंने ही मुद्राराक्षस नाम से छाप दिया. और लोगों को लगा कि यह किसी बड़े बुजुर्ग का लेख है. बड़ा हंगामा हुआ उस लेख को लेकर के. बड़ी चर्चा हुई. (हंसते हुए) उसी लेख की बदौलत मैं ज्ञानोदय में सीधे सहायक संपादक हो गया. नाम चल गया तो चल ही गया. सर आपने इतना वक्त दिया. धन्यवाद – So nice of you.

2 अक्टूबर को जन्म लेने का अफसोस है- शांति स्वरूप

आप अपने जीवन के छह दशक देख चुके हैं. ऐसे वक्त में आप अपना मूल्यांकन किस तरह करते हैं?  – आमतौर पर लोगों की शिकायत होती है कि उनके सपने पूरे नहीं होते. लेकिन जब मैं अपने जीवन को देखता हूं तो पाता हूं कि मेरे सारे सपने पूरे हुए हैं. यह कहना ज्यादा सही होगा कि मैने अपने सपनों से ज्यादा पाया है. वो इस मायने में कि मैं जिस परिवार में पैदा हुआ वो संपन्न परिवार था. छूतछात का कोई अनुभव हमारे जीवन में नहीं है. पिताजी सामाजिक कार्यकर्ता थे. और बाबा साहब की रिपब्लिकन पार्टी के वे अध्यक्ष रहे. 1970 में मैं भी डेढ़ साल तक जनरल सेक्रेट्री था. वो वक्त ऐसा था जब हमारे घर पर दुखियारे लोगों का तांता लगा रहता था. लोग शिकायत लेकर आते थे, सहायता मांगने आते थे कि हमें मंत्री के पास, नेता के पास ले चलो. तो उनके माध्यम से समाज की पीड़ा को प्रत्यक्ष रूप से देखने का मौका मिला. बचपन में ही लकीरें खिंचने का शौक हुआ. नौकरी नहीं करना चाहता था लेकिन परिवार वालों और रिश्तेदारों के दबाव में मजबूरी में नौकरी करनी पड़ी. नौकरी करने लगा तो वहां साथ के लोगों को मेरी बातें अच्छी लगने लगी. आमतौर पर सरकारी दफ्तरों का माहौल गमगीन होता है लेकिन मैं अपनी बात कहता तो सबको मेरी बातें रोचक लगती थी. उन्होंने भी मुझे नौकरी छोड़ने नहीं दिया. लेकिन जब मैं नहीं माना तो उन्होनें मुझसे कहा कि मैं सस्पेंड हो जाऊं. क्योंकि ऐसा करने से जब मैं कुछ समय बाद लौटता तो मुझे एरियर आदि के रूप में ढ़ेर सारा पैसा मिलता. मुझे उनकी बात समझ में आ गई. नौकरी छोड़ने के बहाने के लिए मैने एक के बाद एक तीन अफसरों की पिटाई कर दी. इसके बावजूद उन्होंने मेरी शिकायत नहीं की. उनको पता था कि मैं आर्टिस्ट हूं तो उल्टी-सीधी लाइने डाल कर के अपना गुजारा कर लूंगा, लेकिन उनका क्या होगा. तो जहां मेरे हौंसले बुलंद थे तो उनमें असुरक्षा का माहौल था. लेकिन हुआ क्या कि उसी दौरान मुझे लाल सलाम (लेफ्ट) वाले मिल गए. जेसीएम एक लेबर यूनियन होती है वही लोग थे. उन्हें मेरे बारे में पता लगा था. उन्होंने कहा कि तुम बड़े काम के आदमी हो हमारे साथ आ जाओ. मैने भी उनसे अपने मन की बात कह दी कि मैं नौकरी में अपनी सीट पर नहीं आना चाहता. आपलोग मदद कर सकते हो तो बोलो. उन्होंने शर्त रखी कि मुझे उनके विरोध प्रदर्शनों और झगड़े-टंटों में जाना पड़ेगा, भाषण देना पड़ेगा. इस तरह काम चलता गया तबतक नौकरी में मेरे 20 साल पूरे हो गए और मैने वोलेंटरी रिटायरमेंट ले लिया और पेंटिंग के काम में एक बार फिर जोश-खरोश के साथ जुट गए. हालांकि यह कभी बंद नहीं हुआ था लेकिन तब फिर से औऱ ध्यान देकर करने लगे. उसी दौरान मैने अपना घर बना लिया. पेंटिंग और धर्म के काम से पूरी दुनिया घूम आया. सम्यक प्रकाशन की स्थापना कैसे हुई? – जिंदगी में एक ऐसा वक्त आया जब मैने संकल्प लिया कि अपने घर पर बैठकर कला के माध्यम से सेवा करुंगा. इसी दौरान हमारे एक मित्र ने यह कहना शुरू किया कि आप जो किताब निकाल रहे हैं भगवान बुद्ध और उनका धर्म, उसमें से भगवान शब्द हटा दीजिए. हमने उनसे कहा कि पहले वो मुझे कन्विंस करें कि इसका औचित्य क्या है. वो मुझे समझा तो नहीं पाए लेकिन मेरे खिलाफ लाबिंग शुरू कर दी कि ये शांति स्वरूप बौद्ध तो अड़ा हुआ है कि ‘भगवान’ शब्द छापेगा. उसी दौरान मेरे एक अन्य मित्र ने बताया कि उन्होंने एक किताब लिखी है, भगवान कौन और कैसे? हमारा हौंसला और मजबूत हुआ. हमने वो किताब छापी. उसका बहुत अच्छा रेस्पांस मिला और पूरी दिल्ली से भगवान शब्द को लेकर भ्रांति खत्म हो गई. तब हमको पता चला कि एक किताब में कितना बल, कितनी शक्ति होती है. उस समय से हमने निर्णय लिया कि हम किताब छापने का काम करेंगे. ये 1994-95 की बात है. हमने भारतीय बौद्ध महासभा का उपाध्यक्ष रहते हुए, भारतीय बौद्ध महासभा का अपने पैसे से किताब छापना शुरू किया. लोगों के पास पैसे नहीं होते थे. मैं अपने पैसे लगाता था. तमाम लेखकों से लिखवाता था और छाप कर बेचता था. बाद में मेरी पेमेंट हो जाया करती थी. आज अंबेडकर-बुद्धिस्ट मूवमेंट में जितनी सफल किताबें सम्यक प्रकाशन के जरिए लोगों को मिली है, इससे देश भर में एक बहुत बड़ा प्रशंसक वर्ग, साहित्य वर्ग खड़ा हो गया है. वो हमें हर तरीके से मदद भी करते हैं, आशीर्वाद भी देते हैं. उनकी बस यही तमन्ना है कि यह अभियान थमना नहीं चाहिए. सच कहूं तो इस काम को करने से हमें प्राणवायु मिलती है. बाबासाहेब डॉ. अंबडेकर का जो कर्ज हमारे ऊपर है वो तो उतर नहीं सकता लेकिन उनके प्रति दायित्व निभाने का मौका हमें सम्यक प्रकाशन के माध्यम से मिला है और जो दस सफल व्यक्ति अपने जीवन में जितना काम नहीं कर सकते, उतना काम मैने अकेले कर के दिखा दिया है. न हम सिर्फ डॉ. अंबेडकर, दलित वर्ग और पिछड़े वर्ग का साहित्य छाप रहे हैं, बल्कि जहां जो लोग बाबा साहेब के खिलाफ गलत लिख और बोल रहे हैं, उनको भी अगर कहीं से मुंहतोड़ जवाब मिलता है तो वो सम्यक प्रकाशन और शांति स्वरूप बौद्ध से मिलता है. उनलोगों को पहचान कर नंगा करने का काम शांति स्वरूप बौद्ध और सम्यक प्रकाशन ने किया है. आज उनके ऊपर हमारा भय बना हुआ है. क्योंकि उनके पास चारित्रिक बल नहीं है जबकि हमारे पास हमारी सबसे बड़ी पूंजी हमारा चरित्र है. सम्यक प्रकाशन अब तक अपने ग्यारह साल पूरे कर चुका है. इन 11 सालों के सफर को आप कैसे देखते हैं? क्या दिक्कतें आई? और 11 सालों में धीरे-धीरे चलते हुए सम्यक प्रकाशन कहां पहुंच गया है? – दिक्कतें तो बहुत आईं. सबसे बड़ी दिक्कत यह आई कि जो किताब बेचने वाले थे, वो किताब बेचकर पैसा नहीं देते थे. लेकर भाग जाते थे. कहां से फिर हम उतना पैसा लाएंगे. पहली दिक्कत तो यह आई. जैसे-तैसे हमने उनसे मुक्ति पाई तो फिर देखा कि जिस गति से हम किताब छाप रहे हैं, उस गति वह बिकती नहीं है. क्योंकि हमारे पास बेचने का कोई इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है. जबकि हमारे हर जिले, हर गांव में इसके लिए एप्रोच होनी चाहिए. तो बहुत दिनों तक हम इससे जूझते रहें. अंतत्वोगत्वा, अब हमें बहुत अच्छे मित्र मिले हैं. उन्होंने हमारी मदद की है. और ये सम्यक प्रकाशन की हमारी पुस्तकों की बिक्री का जो ढ़ांचा है, उसे उन्होंने अखिल भारतीय स्तर का बनाया है. तो धीरे-धीरे सारी दिक्कतें दूर हुई हैं. दिक्कते आती हैं लेकिन ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाती. मित्रों की मदद से उसका रास्ता भी निकल जाता है. एक चीज का मुझे गर्व है कि मेरा नाम मुझे बाबा साहेब अंबेडकर ने दिया. दूसरा गर्व मुझे यह है कि बाबा साहेब की जो पुस्तक है, भगवान बुद्ध और उनका धम्म, उसको गौरवशाली रूप में चार किलों में रंगीन रूप में इस तरह छापा है कि देश की शासक जातियां भी अपने ग्रंथ रामायण और महाभारत को ऐसे नहीं छाप पाईं. जबकि उनके पास साधनों की कमी नहीं है और यहां साधनों का ही अभाव है. मैने ये जो काम किया है वह बहुत गौरवशाली है. दूसरा, सम्यक प्रकाशन ने दूसरी भाषाओं में जिस अधिकार से अपना प्रकाशन आरंभ किया है, कोई दूसरा ऐसा नहीं कर पाया था. मैं न सिर्फ हिंदी में छाप रहा हूं बल्कि पंजाबी सहित बंगाली, मराठी, तेलेगू में भी किताबें हैं. इसके अलावा कई अन्य भारतीय भाषाओं में मेरा काम जल्दी ही सामने आने वाला है. इसके अलावा विदेशी भाषाओं में श्रीलंका की सिंघवी भाषा में किताबें लाएंगे. वर्मा की वर्मी भाषा में तो हमारी 20 किताबे हैं और 2012 के अंत तक स्पैनिश और रशियन भाषा में भी हमारी किताबें आने वाली है. इस तरीके का सफर मैं समझता हूं कि कम प्रकाशकों ने किया है. सम्यक प्रकाशन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि देश के 200-250 लेखक हमसे जुड़े हुए हैं. उसमें डा. धर्मकीर्ती, डा. विमलकीर्ती, डा. सुरेंद्र, डा. प्रदीप आगलावे (नागपुर), डा. अन्नेलाल, राज्यपाल रह चुके माता प्रसाद. इस तरह के ख्यातिनाम लेखक हमसे जुड़े हुए हैं और बाबा साहेब के मिशन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. हम दलितों के लिए छाप रहे हैं, हम आदिवासियों के लिए छाप रहे हैं, पिछड़ों के लिए छाप रहे हैं, महिलाओं के लिए छाप रहे हैं. आप कह सकते हैं कि देश का जो दलित, दमित, पीड़ित और वंचित समाज है, वही हमारा कार्यक्षेत्र है. पिछले 11 सालों में हमारी लगभग 11 सौ किताबें आ चुकी हैं. अभी हमारा एक प्रोजेक्ट चल रहा है धम्मपद. दुनिया की सबसे ज्यादा प्रिंटेड किताब यही है. हम उसका गौरवशाली संस्करण अपने मित्रों के सहयोग से छापने जा रहे हैं और अगले वर्ष तक यह पाठकों के हाथ में होगा. हमारी जो दूसरी सबसे बडी चाह है, वह यह कि बाबा साहेब की रचनाएं मराठी में सबसे अधिक हैं. हिंदी में इसका अनुवाद बहुत कम हुआ है. तो हम मराठी में लिखे अंबेडकरी विचारधारा को हिंदी में लाने के लिए प्रयत्नशील हैं. अभी हमने डा. गंगाधर पानतावड़े जो मराठी साहित्य जगत के अध्यक्ष हैं, हमने उनका जीवन चरित्र छापा है, ताकि लोगों को पता चले कि बाबा साहेब का मूवमेंट कहां से कहां तक पहुंचा है. ऐसे ही और भी लोग हैं. हमने फुले की गुलामगिरी, किसान का कोड़ा, इशारा नाम की किताबों का हिंदी में अनुवाद कर दिया है. निकट भविष्य में बाबा साहेब के भाषणों का अनुवाद करेंगे. महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने पिछले दिनों तकरीबन 175-200 फोटो का बाबा साहेब का एलबम निकाला है. तो लोगों को ये न लगे कि बाबा साहेब के इतने ही फोटो थे. तो इस भ्रांति से लोगों को निकालने के लिए बाबा साहेब के 1500 फोटो की एलबम निकालने वाले हैं. सम्यक प्रकाशन किताबों के अलावा, कैलेंडर, फ्रेम पिक्चर भी छापता है. बाबा साहेब के जीवन चरित्र से संबंधित जितना बड़ा कलेक्शन हमारे पास है, उत्तर भारत में शायद किसी के पास नहीं है. उसको भी हम जनता के सामने लाने जा रहे हैं. आपने बताया कि सम्यक प्रकाशन से 250 लेखक जुड़े हुए हैं. जाहिर है वो मंझे लेखक हैं. लेकिन सम्यक प्रकाशन युवा लेखकों को मौका उपलब्ध कराने के बारे में क्या सोचता है?  – सम्यक प्रकाशक कि यह भी एक उपलब्धि है कि हमारा एक नारा है कि हमें घर-घर में लेखक पैदा करना है. जितनी तेज गति से नए लेखकों को हम सामने लेकर आए हैं, उतना मौका दूसरे किसी ने नहीं दिया है. पहले दिक्कत यह थी कि लेखक जब अपनी किताब लेकर प्रकाशक के पास पहुंचता था तो प्रकाशक यह पूछता था कि कितनी किताबे छपी है. हमने इस बात को समझा कि कोई बच्चा मां के पेट से कुछ भी सीखकर नहीं आता. हमने कई नई प्रतिभाओं को मौका दिया है. यह सूची बहुत लंबी है. 30-40 लोग ऐसे हैं, जिनको हमने पहला मौका दिया है. इसमें ज्यादातर युवा है. इनकी 3-4 किताबें छप चुकी हैं. सतनाम सिंह आज चर्चित नाम है. इन्हें हमने मौका दिया. उनकी 15 किताबें आ चुकी हैं और 15 किताबें आने वाली है. हमारे समाज में जो लेखन का टेलैंट है, उसे हम सामने लेकर आते हैं. (मुझसे कहते हैं), अगर आपके संपर्क में भी ऐसे लेखक हैं तो उसके बारे में बताइए, हम उनकी किताबें छापेंगे. भारतीय बौद्ध महासभा से आपका नाता कितना पुराना है? – 1970 से मैं भारतीय बौद्ध महासभा का कार्यकर्ता हूं. सभी बड़े पदों पर रह चुका हूं और आज की तारीख में मैं इस महासभा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हूं. मेरा संकल्प है कि ना तो मैं यह संस्था कभी छोड़ूंगा, ना ही कभी तोड़ूंगा. हालांकि एक स्थिति ऐसी आई थी जब मुझे संस्था तोड़ देनी चाहिए थी. लेकिन चूकि मैं बौद्ध हूं तो लोग कहते कि बौद्ध होकर भी मैने अबौद्ध वाला काम किया है तो दोनों में क्या अंतर है. बौद्ध धर्म में जो पांच शील बताए गए हैं, उनका उल्लंघन पाप बताया गया है. वो लोग पांचो शील का उल्लंघन करते हैं, जबकि हम यह ध्यान रखते हैं कि हमारे जान जाए तो जाए पर एक भी शील ना छूटने-टूटने पाए. तो इतना कंट्रास्ट हममे है और हम अपने काम में लगे हुए हैं. मैं बौद्ध हूं. भारतीय बौद्ध महासभा का पदाधिकारी हूं. मगर क्योंकि बौद्ध हूं इसलिए सभी बौद्ध संस्थाओं से मेरी निकटता है. ये मेरा काम करने का एक तरीका है. जब सबका धर्म एक है फिर झगड़ा काहे का. बातचीत की शुरुआत में आप बता रहे थे कि आप काफी संपन्न परिवार में पैदा हुए थे. आपके पूर्वज समाज का प्रतिनिधित्व करते थे. उसके बारे में विस्तार से बताएंगे? – पहले दिल्ली में तीन पंचायतें हुआ करती थी. उसे तब बावनी कहा जाता था. क्योंकि 52 गांव की एक पंचायत होती है. हमारा परिवार 3 बावनी का वजीर रहा. 1650 के लगभग. उस समय हमारा जो परिवार था वो रोहिणी के पास प्रह्ललादपुर गांव था उस वक्त उसे दिल्ली देहात कहते थे. तो हमारा परिवार यहीं रहता था. हमारे दादा का नाम था फूला. सर्दी का समय था, घर में पानी था नहीं. दूर से पानी लाना पड़ता था. उस दिन उन्हें आलस हो गया. सुबह के 4 बज रहे थे. उन्होंने सोचा कि सुबह का समय है तो पानी चोरी से लेने के लिए कुएं पर गए. उन्होंने कुएं में बाल्टी तो डाल दी लेकिन तभी एक पंडित जी ने उन्हें देख लिया. पंडित के मुताबिक एक छोटी जाति के आदमी के कुएं पर चढ़ने से सारा कुंआ अपवित्र हो गया. उसने शोर मचा दिया. शोर मचाने का मतलब मृत्यु का वारंट था. क्योंकि गांव इकठ्ठा होता और उन्हें मार डालता. तब दादा जी को और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बाल्टी घुमाकर पंडित को मार दिया. बाल्टी सीधे पंडित की कनपट्टी पर लगी और वह वहीं ढ़ेर हो गया. यह देख उन्हें लग गया कि अब उनकी खैर नहीं है. वह भागे-भागे घर गए. अपने परिवार को अपने साथ लिया. एक बैलगाड़ी खोल लिया और अपनी ससुराल अजमेरी गेट रेलवे स्टेशन के पास भाग आए. जब लोगों को यह पता लगा कि वह एक ब्राह्मण को मार कर आया है तो उनका खूब स्वागत हुआ. क्योंकि मार खाने वाले लोग जब मारने लगें तो उनका एक अलग समाजिक महत्व बनता है. वह सुंदर थे, लंबे-चौड़े थे तो सबके दुलारा बन गए. अपने समझदारी के बल पर वह थोड़े ही दिनों में समाज के मुखिया बन गए. इसी दौरान लालकिले का निर्माण चल रहा था. दिल्ली में एक संकट आ गया. तब जामा मस्जिद बन गया था, बादशाह रहने के लिए दिल्ली में आ गए थे. तब मटियामेट नाम का एक महल था. माटी का यह महल टेंपरेरी था. लाल किले का जो निर्माण हुआ था तो जामा मस्जिद के सामने काफी पत्थर का मलबा फैल गया था. अब दिक्कत यह भी थी कि मलबा हटे तो बादशाह नमाज पढ़ने जामा मस्जिद जाएं फिर लौटकर लाल किले आएं. बादशाह ने कहा कि यह जगह साफ होनी चाहिए. बादशाह के मंत्रियों ने ढ़िंढ़ोरा पिटवाया कि सभी आम और खास लोग दिल्ली के जामा मस्जिद पर आएं. सभी लोग वहां जुटे. बादशाह के वजीर ने कहा कि जो लोग इस जगह की सफाई करने में मदद करेंगे, बादशाह उनको ईनाम बख्शेंगे. बहुत लोगों ने अपने सुझाव दिए. मेरे दादा ने कहा कि अगर आप माफ करें तो मैं भी एक सुझाव दूं क्योंकि छोटा मुंह और बड़ी बात हो जाए तो हमें माफ कर देना. हम ये चाहते हैं कि आपके जो पत्थर साफ करने हैं, ये उसी का हो जाए जो इसे उठाकर ले जाए. हमें इतना अधिकार दे दीजिए. वजीर ने दादा की बात मान ली. जूते का काम करने में पत्थर की जरूरत होती है क्योंकि उसमें चमड़ा रखकर कूटा जाता है. पत्थर पर ही बिछाकर चमड़े को रगड़ा भी जाता है, साफ किया जाता है. दादा ने अपने लोगों के बीच आकर कहा कि वहां फ्री में पत्थर मिल रहा है. जिसको चाहिए वो जाकर उठा ले. सबको जरूरत थी. सब पत्थर लेने पहुंच गए. इस तरह सारा पत्थर समय से पहले साफ हो गया. बादशाह आएं और उन्होंने नमाज अदा की. वहां उन्होंने दो दरबार बनाए. दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास. दीवान-ए-खास में खास लोग जैसे राजदूत, मंत्री आदि होते थे. दीवान-ए-आम में ज्यादातर अपने-अपने क्षेत्र के हुनरमंद होते थे. यहां हर बिरादरी का एक-एक प्रतिनिधित्व होता था. ऐसे में लाल किले के दीवान-ए-आम में हमारी बिरादरी से सर्वसम्मति से हमारे दादा चौधरी मनफूल गए. इसमें भी मजेदार बात यह थी कि बादशाह ने जामा मस्जिद की तीन सीढ़ियां चमार बिरादरी को भेंट दे दी थी. यह बिरादरी अगर चाहती तो इस पर टैक्स लगा सकती थी. बादशाह ने एक तमगा भी दिया. दिल्ली के चमारों को खुश करने के लिए बादशाह ने अपना मटिया महल दे दिया. क्योंकि उन्हीं की वजह से बादशाह को समय पर नमाज अता करने का मौका मिल पाया था. बादशाह ने एक बात यह भी कही कि तुम अपना चमड़े का काम करो या ना करो लेकिन लाल किला, जामा मस्जिद और मकबरें आदि मेरी इमारतों पर सफेदी का काम किया करो. इस तरह तब से लेकर 1947 तक अंग्रेजों के रहने तक हमारे परिवार ने सफेदी का काम किया. इस तरह दिल्ली को बनाने, सजाने और संवारने में चमार जाति का बहुत बड़ा योगदान रहा है. यही हमारे परिवार का किस्सा था. 1648 में हमें वजीर का पद मिला. आज भी पुराने लोग हमें वजीर कह कर पुकारते हैं. हालांकि अब इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है. बाबा साहेब से आपके पूवर्ज या फिर दिल्ली वालों की जुड़ी कोई याद है? हमारे दादा जी चौधरी देवी दास जी दिल्ली में पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने वायरसाय आफिस में बाबा साहेब डा. अंबेडकर को देखा. यह ऐसे हुआ कि हमारे लोग पहले सिर्फ अपने मुहल्ले और गांव तक ही सिमटे रहते थे. यहां से निकलने का उनका कोई उद्देश्य, कोई काम नहीं था. मगर दादा जी सफेदी करने के काम से बाहर जाते थे. एक बार वो सेंट्रल सेक्रेटेरिएट में सफेदी का काम कर रहे थे तो वहां एक आफिसर ने उनको बताया कि देवी क्या तुम्हें मालूम है कि तुम्हारा एक बहुत बड़ा आदमी यहां दिल्ली में आया है. दादा जी उसके कहने के अनुसार वहां गए. दादा जी वहां गए तो उन्होंने देखा कि बहुत सुंदर व्यक्तित्व, विलायती सूट, चश्मा पहने, बालों में कंघा किए, चमकदार जूते पहने, कोट की ऊपरी जेब में कलम लगाए बाबा साहेब मिलने वाले लोगों से अंग्रेजी में गिटपिट-गिटपिट बात कर रहे हैं. दादा जी वहां से दौड़कर मुहल्ले में आएं और दूसरे चौधरियों को बाबा साहेब के व्यक्तित्व और भेषभूषा के बारे में बताया कि वो बालों में तेल डालते हैं. जूते इतने चमकदार हैं कि उनमें आप अपना चेहरा देख सकते हैं. यानि की तब हमारे लोगों को बालों में तेल तक डालना और जूते पहनना तक नसीब नहीं था. लोगों को यकीन नहीं हुआ तो वो उन्हें साथ लेकर बाबा साहेब जहां ठहरे थे वहां लेकर गए. सारे लोग उन्हें देखकर ठगे से रह गए कि इतना सुंदर हमारा आदमी हो सकता है. इस तरह दिल्ली वालों का वहां आना-जाना शुरू हो गया. बाबा साहेब जब दिल्ली में आएं तो पहले वह हैटमैंट हाऊस, जिसे अब वीपी हाऊस कहते हैं वहां रहें. यहां से शिफ्ट होकर फिर जनपथ स्थित वेस्टर्न कोर्ट आएं. यहां वो पहले 2 नंबर फिर 29 नंबर के कमरे में रहें. उसके बाद उन्हें पृथ्वीराज रोड पर 22 नंबर की कोठी मिल गई, फिर वो वहां शिफ्ट हो गए. इस तरह जब तक वो अंग्रेजों की वायसराय काउंसिल के मेंबर रहें, तब तक 22 नंबर में ही रहे. फिर जब वो नेहरू मंत्रिमंडल में मंत्री बन गए तो हार्डिंग एवेन्यू (पटियाला हाऊस के पास कोने वाली कोठी). हिंदू कोड बिल पर विवाद के कारण जब उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया तो 26, अलीपुर रोड पर आ गए. तो हमारे परिवार के लोग बाबा साहेब से उनके 22 पृथ्वीराज रोड पर मिले थे. मैने सुना है कि आपका नामकरण बाबा साहेब ने किया था. उस घटना के बारे में बताएंगे. कैसे हुआ यह? – जैसा कि मैने बताया कि हमारे परिवार के लोग बाबा साहेब से मिलने आते-जाते रहते थे. इसी दौरान मेरा जन्म हुआ. 2 अक्टूबर 1949 को जब मेरा जन्म हुआ तो दादाजी मिठाई लेकर बाबा साहेब के पास गए. वहां हमारे नाम को लेकर चर्चा छिड़ी. चर्चा के दौरान बाबा साहेब ने पूछा कि ब्राह्मण के पास नाम रखवाने के लिए क्यों गए. बाबा साहेब के सवालों के आगे आखिर हमारे दादा जी कैसे टिकते. दादा जी ने हथियार डालते हुए बाबा साहेब से कहा कि आप ही नाम रख दीजिए. क्या हुआ कि उस दिन अंग्रेजी के एक अखबारे में प्रसिद्ध वैज्ञानिक शांतिस्वरूप भटनागर के बारे में छपा था. उन्होंने दादा जी कहा कि अपने बेटे का नाम शांतिस्वरूप रखना. भटनागर को फेंक देना. इस तरह से हमारा नाम रखा गया. बाबा साहेब की वेशभूषा के ऊपर एक सवाल अक्सर सुनने को मिलता है कि एक गांधी थे जिन्होंने गरीबों के दुख को देखकर अपने कपड़े उतार दिए और एक डा. अंबेडकर थे, जो सूट-बूट पहन कर रहते थे. आखिर यह विवाद क्यों है? – यह विवाद नहीं है, यह लोगों की नासमझी है. गांधी जी से पहले भी बहुत महापुरुष हुए हैं हिंदुओं में. उन्होंने भी दलितों की पीड़ा देखी है लेकिन किसी ने कपड़े नहीं उतारे. गांधी एक ऐसे हिंदुओं के महापुरुष आए हैं, जिसके समय में बाबा साहेब अंबेडकर थे. उसे मजबूरी में कपड़े उतारने पड़े. वो तो बेचारा बाहर संघर्ष कर रहा था दक्षिण अफ्रीका में. उसने डा. अंबेडकर की धमक वहां सुन ली थी. मगर उसने अंदाजा लगाया था इतना पढ़ा-लिखा विद्वान डा. अंबेडकर कोई ब्राह्मण ही होंगे. जब आप गांधी को पढ़ेंगे तो यह पता भी चलेगा कि पहले उन्हें डा. अंबेडकर की जाति पता नहीं थी. लेकिन जब उसे पता चला कि डा. अंबेडकर दलित हैं, जो उसके होश उड़ गए. उसे चोट लगी कि दलित भी इतना आगे बढ़कर बात करते हैं. गांधी ने अंदजा लगाया कि डा. अंबेडकर कोई छोड़ी कद-काठी के दुबले-पतले इंसान होंगे. लेकिन जब उसने डा. अंबेडकर को देखा तो उसके होश उड़ गए. ऐसे में गांधी उनके सामने कहीं नहीं टिकते. अब उसके सामने चुनौती थी कि या तो वह सूट-बूट पहन कर डा. अंबेडकर जैसा प्रभावी बने या फिर उसे छोड़ दे. तो उसने दलितों को यह मैसेज देने की कोशिश की थी कि डा. अंबेडकर का रास्ता गलत है, मेरा रास्ता सही है. उसका कहना था कि डा. अंबेडकर जैसा सूट-बूट मत पहनों बल्कि मेरा जैसा लंगोटा पहनो. जो दलितों को लंगोटा पहनाने के लिए गांधी ने खुद लंगोटा पहना था. अब यह बात भी सोचने की है कि डा. अंबेडकर आखिर सूट क्यों न पहने? वह तो मनुस्मृति का विधान रद्द कराने आए थे. एक वक्त यह था कि दलितों को नया और अच्छे कपड़े पहनने पर प्रतिबंध था. अगर आप नया कपड़ा पहन लेते थे तो उसे उतार कर कीचड़ में गंदा कर दिया जाता था फिर पहनने को कहा जाता था. तो डा. अंबेडकर ने सूट-बूट पहनकर एक तरह से उन्हें चुनौती दी थी कि उतारो मेरा कोट, तुममें कितनी हिम्मत है. तो बाबा साहब का कोट उतारने की हिम्मत तो गांधी में थी नहीं तो उसने अपना कोट ही उतार कर लंगोट पहन लिया. बाबा साहब का साफ मानना था कि हमें बेटर ऑफ द बेस्ट बनना है. ऐसा करने के लिए लंगोट पहनकर नहीं बल्कि सूट-बूट पहन कर आगे चलना है. जो गांधीवादी अंबेडकर के कोट पहनने को लेकर उलाहना देते हैं, पहले वो अपने गिरेबां में झांककर देखें कि गांधी के चेले नेहरू ने क्या पहना, देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद क्या पहनते थे, ये दोनों नवाबों के ड्रेस पहनते थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जो गांधी जी के समधी थे उन्होंने भी लंगोट नहीं पहना. ये तो हमारे लोगों को बहला कर लंगोट पहनाने का एक विशेष अभियान चला रखा गया था लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल सकी. बाबा साहेब का आंदोलन सफल हो रहा है. (खुद की ओर दिखाते हुए) आप देखिए कि मैं टाई-कोट में बैठा हूं, यानि हम बाबा साहेब के बताए रास्ते पर चल रहे हैं. गांधीजी को लेकर एक विवाद चला है कि नोट पर उनकी जो तस्वीर है वो असंवैधानिक है. इसे आप कैसे देखते हैं? – नोटों के ऊपर जो गांधीजी का चित्र आया है, इस लड़ाई को बहुत पहले से लड़ा जा रहा था. और सम्राट अशोक का चार स्तंभों वाले राष्ट्रीय चिन्ह को जो बहुत छोटा कर दिया गया है, यह उसको पूरी तरह से हटाने का षड्यंत्र है. उसकी भी लड़ाई पहले से लड़ी जा रही थी. हमारे एक बचपन के मित्र हैं, रतनलाल केन. पुरानी दिल्ली के रहने वाले हैं. उन्होंने आरटीआई के कानून के माध्यम से सरकार से यह मनवा लिया कि गांधी राष्ट्रपिता नहीं हैं. सरकार की ओर से गांधीजी को राष्ट्रपिता की उपाधि कभी नहीं दी गई, यह भारत के गृहमंत्री रह चुके लालकृष्ण आडवाणी स्वीकार कर चुके हैं. अगर फिर भी गांधी का चित्र नोट पर है, तो इसका मतलब यह है कि दलितों के विरोध में सरकार की दबंगई है, हठधर्मिता है. मगर, ये संविधान इसलिए महान है क्योंकि इसके तहत जिसके काल में यह गांधी का चित्र नोटों पर आय़ा वह वित्तमंत्री वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री हैं. अब या तो भारत के प्रधानमंत्री मुकदमें का सामना करेंगे या फिर देश की करेंसी पर हमारे बाबा साहेब अंबेडकर का भी चित्र लगेगा. और भी नेताओं का छपेगा, जिसमें सुभाष चंद्र बोस का नाम निश्चित है. आप चूकि प्रकाशन के क्षेत्र में है, इसलिए लेखकों के बारे में पूछें तो आप किन लेखकों का नाम लेंगे जिन्होंने आंदोलन को आगे बढ़ाया है, या फिर वैसे नाम जिन्होंने नुकसान पहुंचाया है. आपने पिछले दिनों बौद्ध महासभा के अधिवेशन में कुछ लोगों को सीधे चुनौती भी दी थी ? – दलित साहित्यकारों के बारे में ये कहते हुए मुझे बहुत शर्म महसूस हो रही है कि कुछ लोग बहुत जल्दबाजी में हैं. वो लिखना तो चाहते हैं लेकिन पहले का दूसरों का लिखा पढ़ना नहीं चाहते हैं. इससे आगे चलकर एक खामी और आ गई है कि अपने आप को दलित कहने वाले कुछ साहित्यकार ऐसे भी हैं जो बौद्ध धर्म और बाबा साहेब के खिलाफ भी लिखने लगे हैं. यहां आकर पीड़ा होती है. लेकिन इससे इतर गौरव के बिंदु भी हैं. अब आप देखें कि डा. जयप्रकाश कर्दम, डा. धर्मकीर्ती और डा. विमलकीर्ती जैसे साहित्यकार, जोधपुर के प्रो. ताराराम, डा. अनिल गजवीय, डा. संजय गजवीय, सविता मेंडेकांबले जैसे असंख्य साहित्यकार भी हैं. जुगलकिशोर बौद्ध, भद्रशील रावत लोग भी हैं. ये लोग जितना लिख रहे हैं काफी उम्दा लिख रहे हैं. बहुत अच्छे परिणाम सामने आ रहा हैं. मुद्राराक्षस जी का मैं धन्यवाद करना चाहूंगा जिन्होंने बाबा साहब का विरोध करने वालों को उचित जवाब दिया है. क्योंकि वो दलितवादी नहीं बल्कि ललितवादी हैं. उनके आंसू कलम के माध्यम से हमारे सामने आते हैं. कुछ लोगों ने उनके बारे में बहुत भद्दी टिप्पणियां लिखी है जो मानवता के स्तर से नीचे उतर कर है. जहां तक आपने बौद्धमहासभा का जिक्र किया तो मैं आपको बताऊं कि मेरे बचपन के मित्र भाई मोहनदास नैमिशराय पर मैने जो टिप्पणी की थी वो व्यक्तिगत नहीं सैद्धांतिक है. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि तुम्हारी क्या मजबूरी है कि तुम बाबा साहेब डा. अंबेडकर के खिलाफ लिखते हो. तुम्हारी क्या मजबूरी है कि तुम बौद्ध धर्म के खिलाफ लिखते हो. आरएसएस के लोग लिखते हैं तो बात समझ में आती है लेकिन तुम आरएसएस की सरकारों यानि भाजपा की सरकारों से विज्ञापन लेकर लिखते हो तो हमें ऐसा शक होता है कि आपको ये जो मोटे-मोटे विज्ञापन मिलते हैं, ये वहां से आपको रिश्वत के रूप में मिलता है कि डा. अंबेडकर के विरोध में लिखो. अंबेडकर फाउंडेशन की जिन किताबों का अनुवाद मोहनदास नैमिशराय ने किया है, मेरा आरोप है उनपर, कि उनका अनुवाद बहुत निम्न स्तर का हुआ है. बल्कि उन्होंने बाबा साहेब के विचार की धार को कुंद करने का काम किया है जो बहुत घिनौना अपराध है. दूसरी ओर मैं मुद्राराक्षस जी और जयप्रकाश कर्दम जी को जिनमें एक वयोवृद्ध हैं तो दूसरे युवा तुर्क हैं, मैं देश के दलितों की ओर से किसी से भी लोहा लेने के लिए बौद्धिक स्तर पर सक्षम पाता हूं. किसी के भी सवालों का जवाब अगर हम न दे पाएं तो ये दोनों लोग निश्चित रूप से उनको जवाब देंगे और संतुष्ट करेंगे. नोएडा में राष्ट्रीय दलित स्मारक के उदघाटन के वक्त मायावती जी ने एक मुद्दा उठाया था कि बाबा साहेब का निधन दिल्ली में हुआ, कांशी राम जी का निधन दिल्ली में हुआ लेकिन कांग्रेस ने किसी को तव्वजो नहीं दी. जबकि दलित समाज बाबा साहेब का तो ऋणी है ही, कांशी राम जी का भी काफी योदगान रहा है. तो इस आरोप को आप कैसे देखते हैं? – मायावती जी ने जो बात कही मैं उससे सहमत नहीं हूं. सहमत इसलिए नहीं हूं क्योंकि वह बहुत कम बता रही हैं. उनलोगों ने बाबा साहेब को अहमियत नहीं दी बात यह नहीं है. बात यह है कि ये लोग बाबा साहेब के नाम को मिटाने के लिए पैसा खर्च कर रहे हैं. और करोड़ो रुपया खर्च कर रहे हैं. बाबा साहेब की एक किताब शूद्रों की खोज की हिंदी अनुवाद की मेरी एक किताब है. उसमें मैने बताया है कि गांधी जी के वांड़मय सौ खंडों का है. इसमें कोई खोट नजर आ गया तो वो सौ खंड फिर से छपकर छह महीने में सामने आ गया. बहुत अच्छी बात है. खुशी की बात है कि हमारे देश में इतनी तेज गति से भी काम होता है. मगर सवाल यह उठता है कि ये प्रतिबद्धता डा अंबेडकर के साहित्य के प्रकाशन और पुनःप्रकाशन में कहां खो जाती है. कहां तो गांधी जी के 100 खंड छह महीने में छप गए जबकि बाबा साहेब के 22 खंड (मैं महाराष्ट्र सरकार की बात कर रहा हूं क्योंकि केंद्र वालों ने तो 10 खंड के 21 खंड बना दिए हैं) छापने में एक तिहाई शताब्दी (वन थर्ड सेंचुरी) लग गई. तो मायावती जी कम बता रही हैं इसलिए मैं उनसे सहमत नहीं हूं. असलियत में डा. अंबेडकर की विचारधारा को फैलाने के लिए जितने भी मंत्री बिठाए गए हैं असल में वो अंबेडकर विरोधी हैं. और जब हमने इसका विरोध किया तो उनका और प्रोमोशन कर दिया गया क्योंकि उन्हें लगा कि वो अच्छा काम कर रहे हैं. दलितों का अपना मीडिया बनाने की जो बात होती है, वो क्यों नहीं हो पा रही है. काबिल लोग भी है. पैसे भी हैं, फिर दिक्कतें कहां है.? – हमारे बौद्ध धर्म में कहते हैं कि प्रज्ञा यानि ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है. शील का मतलब है सदाचार, लोककल्याण की भावना. इसलिए अगर शील साथ में नहीं है, तो वो ज्ञान भी बेकार है. ये जो दलित समाज के ऊपर 50-60 पत्रिकाएं निकल रही हैं, नाम के लिए तो ठीक है कि निकल रही हैं, लेकिन आखिर उसमें सामग्री क्या है? प्रायः ज्यादातर पत्रिकाएं बस निकालने के लिए निकल रही हैं. बाकि उनका ज्यादा मतलब नहीं है कि हम उनमें छाप क्या रहे हैं? इधर-उधर का दूसरी जगहों से लेकर छाप रहे हैं, वाहियात छाप रहे हैं. लोग एक साथ मिलकर बैठने के लिए तैयार नहीं है. बात करने को तैयार नहीं है. बल्कि 50-60 की संख्या तो बहुत कम है. मेरी नजर में तो 200 से ज्यादा पत्रिकाएं हैं. अगर ये सब मिलकर एक साथ पत्रिका निकाल दें तो मेरा ख्याल है कि ज्यादा सामग्री मिलेगी. ज्यादा बेहतर काम होगा और ज्यादा लोगों तक पहुंच होगी. जब तम हमारे बीच में एक सशक्त सोशल लीडरशिप पैदा नहीं होगी तब तक हमारी अपनी मीडिया विस्तार नहीं ले पाएगा. क्योंकि राजनीतिक लोगों की अपनी जरूरतें होती है, अपनी बातें होती है. यह सोशल लीडरशिप से ही पैदा हो पाएगा. बहुत लोग हमसे ही यह उम्मीद करते हैं लेकिन हमारा कमिटमेंट सम्यक प्रकाशन के लिए है. जरा पीछे चलते हैं और आपकी पेंटिंग की बात करते हैं. यह जुनून कहां से आया ? – बहुत छोटी उमर से ही पिताजी के प्रयास से और एक भाई, जो अब नहीं रहें, उनके प्रयास से रेखा खिंचने और चित्र बनाने में रुचि पैदा हो गई. उसके कारण स्कूल में बहुत अच्छे नंबर आते थे. हालांकि जब हम हायर सेक्रेंड्री स्कूल में गए तो मेरी अपनी कमजोरी की वजह से मुझे आर्ट का विषय नहीं मिल पाया. ज्योग्राफी का विषय मिला. तब उसके लिए चित्र बनाना करते थे. बड़े हुए तो दयाल सिंह कालेज गए. वहा अपनी कला के बूते हम बेस्ट आर्टिस्ट ऑफ दयालसिंह कालेज हो गए. वहां हम कॉलेज के दीवार पर भितीचित्र बनाते थे. वहां जो हमारे हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे उनसे एक बार एक आदमी मिलने आए. उस आदमी ने उनसे पूछा कि आप यह चित्र किस कलाकार से बनवाते हैं. तो मेरे शिक्षक ने उन्हें बताया कि यह हमारा एक छात्र बनाता है. उन्होंने कहा कि उन्हें अपनी किताब के लिए कुछ चित्र बनाना है उसे मेरे पास भेजो. हम उनके पास गए. उन्होंने कहा कि कुछ डाइग्राम बनवाना है, कितने पैसे लोगे. मैने कहा कि हमने अब तक तो ऐसे पैसे लेकर काम किया नहीं है, आप ही बता दो कि हमें क्या दोगे. उन्होनें कहा कि वो सात रुपये देंगे जिसमें पांच रुपये चित्र के और दो रुपये स्याही, पेंसिल और पेपर के लिए होंगे. तो इस तरह मैने उनके लिए पांच सौ चित्र बनाया. यह 1968 की बात है. तब मैं ग्रेज्यूशन फर्स्ट इयर में था और कॉलेज में मेरा पहला महीना ही था. जब उनका काम हो गया तो उनके किसी दूसरे मित्र ने मुझे बुला लिया. तो यह क्रम चलने लगा. उन्हीं में से एक मित्र ने मुझे अमेरिकन ऐंबेसी में भेजा. वहां अंग्रेजों की जो हाउसवाइफ थीं. वो चित्रकारी करना, स्क्लपचर करना सीखना चाहती थी. तो मुझे वहां भेजा गया कि जाओ और उनको ड्राइंग सिखाओ. बहुत अच्छा पैसा मिलता था. उसी दौरान हमने अपने घर में बाटिक पेंटिग का काम शुरू किया. यह बहुत अच्छा चला. मैं अपनी पत्नी के साथ मिलकर करता था. इसमें में मेरी नियुक्ति एलडीसी में हो गई. हालांकि हम जाना नहीं चाहते थे. क्योंकि उस नौकरी में हमें 263 रुपये तनख्वाह मिलनी थी और हम अपने घर में अपना काम कर के हफ्ते में 500 रुपये कमा लेते थे. ऐसे में 2 हजार रुपये महीने का काम छोड़कर 200 रुपये का काम करने का मन नहीं था. लेकिन नाते-रिश्तेदारों का कहना था कि पेंटिंग का काम हमेशा का नहीं है. जबकि सरकारी नौकरी में आंधी आए चाहे तूफान, पैसे मिलने हैं. तो घरवालों और घरवाली के मजबूर करने पर मैने वो नौकरी ज्वाइन कर ली. एक वक्त ऐसा भी था जब मेरे अंडर में 60 आर्टिस्ट काम करते थे. इस पेंटिंग के काम के कारण हमारा विदेशियों से भी संपर्क हुआ क्योंकि पेंटिंग बेचने के लिए हमें बाहर जाना पड़ता था. उनके सोच में आने से हमारी सोच में अंतर आया. हम जो थोड़ा बहुत विजन रखते हैं तो इसलिए क्योंकि हमने उनके काम करने के तरीके को, निर्णय लेने की क्षमता को देखा तो उसी को अपने जीवन में उतार कर के सम्यक प्रकाशन को आगे बढ़ाने का काम किया है. और आज मैं बहुत गर्व के साथ कह सकता हूं कि इस दलित समाज के कम से कम दो सौ बच्चे मेरे यहां पेंटिंग का काम सीखकर अपना स्वतंत्र काम कर रहे हैं. तो उपलब्धियों से भरा जीवन है. जीवन में किसी बात का अफसोस ? बस एक ही अफसोस है कि हमारा जो जन्मदिन है, वो 2 अक्टूबर को है. मुझे इसका अफसोस है. लेकिन फिर भी हम उस 2 अक्टूबर को भी अंबेडकरमयी बनाने की कोशिश में लगे हैं. आप हमारे कैलेंडर में देखेंगे कि वहां अक्टूबर में गांधी का चित्र नहीं है बल्कि हमारा चित्र है. मित्र देखकर हंसते हैं. उस दिन बहुत फोन भी आते हैं लेकिन यही सच्चाई है. धन्यवाद शांतिजी. आपने इतना वक्त दिया. अपने अनुभव को बताया.  आपका भी धन्यवाद अशोक जी।

द्वंद में रहते हैं दलित स्कॉलर – प्रो. नंदू राम

नायक कई तरह के होते हैं. एक किस्म खामोश नायक की भी होती है. जो बिना अपने काम की शेखी बघारे चुपचाप रहकर निरंतर अपना काम करता रहता है. जो ना आत्मकथा लिखकर खुद को महान बताते की कोशिश करता है, न ही राजनीतिक लाभ लेने के लिए किसी राजनीतिक दल का दामन थाम लेता है. जेएनयू पहुंचने वाले पहले दलित प्रोफेसर नंदू राम को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं. नंदू राम के कद और वरिष्ठता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वो जेएनयू पहुंचे थे, सुखदेव थोरात और तुलसी राम स्टूडेंट थे. तो वहीं हर मोर्चे पर दलित हक की आवाज बुलंद करने वाले डा. विवेक कुमार सरीखे अपने-अपने क्षेत्र के कई दिग्गज उनके शिष्य हैं. शख्सियत ऐसी कि जो भी एक बार उनसे मिल ले तो उनकी सादगी का कायल हो जाए. सच्चाई इतनी की जब डाक्टर ने सिगरेट पीने से मना कर दिया तो डाक्टर की बात का लिहाज कर के हर दूसरे मिनट सिगरेट सुलगाने से पहले आधी तोड़ कर फेंक देते हैं. जेएनयू के सोशल साइंस विभाग से रिटायर हो चुके प्रो. नंदू राम इन दिनों अपनी कई अधूरी किताबो को पूरा करने में लगे हैं. साथ ही देश भर के कई विश्वविद्यालयों में विभिन्न बॉडी के मेंबर हैं. पिछले दिनों उनके द्वारका स्थित घर पर दलित मत.कॉम और दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने उनसे दलित स्कॉलर, दलित राजनीतिज्ञो, जेएनयू और अब तक नहीं आ सकने वाली उनकी आत्मकथा के बारे में लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है ….. जिंदगी का सफर कहां से शुरू हुआ? जन्म, शिक्षा कहां हुई. पूर्वी गाजीपुर में सैदपुर तहसील में मढ़िया गांव हैं, वहां का रहने वाला हूं. यहीं से प्राइमरी पास करने के बाद चार किलोमीटर दूर के एक स्कूल से हाई स्कूल किया. फिर प्लस टू करने बनारस चला आया. शहर के सबसे बढ़िया कालेज से प्लस टू किया 1965 में. बीएचयू चले गए बीए ऑनर्स करने. 67 में ऑनर्स हो गया और उसी साल पीएनटी विभाग में क्लर्क हो गए. गोरखपुर में. मन में था आईएएस बनने का. नौ-दस महीने नौकरी करने के बाद लगा कि ऐसे कुछ नहीं कर पाएंगे. नौकरी से रिजाइन देकर फिर बीएचयू आ गए एमए करने के लिए. सोसियोलाजी में एमए किया. यहीं छह महीने तक पीएचडी में रजिस्टर्ड रहा लेकिन देखा कि काम आगे नहीं बढ़ रहा है तो कानपुर आईआईटी में पीएचडी में सेलेक्शन हो गया तो यहां आ गए. बीटेक वालों को सोसियोलाजी पढ़ाते रहे. 77 में पीएचडी हो गया. 78 में जेएनयू में अप्वाइंटमेंट हो गया तो यहां चले आएं. जेएनयू में आने वाला मैं अकेला और पहला दलित शिक्षक था. तब रिजर्वेशन नहीं था. दलित स्टूडेंट भी आधे दर्जन के करीब ही थे. ज्यादातर महाराष्ट्र के थे. उसी समय दो और सेंट्रल यूनिवर्सिटी में सेलेक्शन हुआ था. एक बीएचयू में और दूसरा नार्थ-इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी शिलांग में. लेकिन मैने जेएनयू को चुना. तब से जेएनयू में ही रहे. बीच में 99 से मार्च 2004 तक बाबा साहेब अंबेडकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज जो मऊ में है, वहां डायरेक्टर जनरल रहें. जुलाई 2011 में जेएनयू से रिटायर हो गया. तब से रिटायर इंसान की जिंदगी बिता रहे हैं. आप बीएचयू और जेएनयू दोनों जगहों पर रहे. बीएचयू में थोड़ी कट्टरता है, जबकि जेएनयू का माहौल खुला माना जाता है, आपको क्या फर्क लगता है. बीएचयू में जातिवाद तो था लेकिन 1970 तक पढ़ाई का माहौल था. टीचर औऱ स्टूडेंट दोनों Committed थे. बीएचयू की सेंट्रल लाइब्रेरी में दुर्लभ (Rare) किताबें थी. बाबा साहेब की ओरिजनल पांडुलिपी भी यहीं पढ़ी. बाबा साहेब द्वारा कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रजेंट की गई थिसिस भी यहीं पढ़ा. जेएनयू का माहौल जरा खुला था. 24 अप्रैल 1978 को ज्वाइन किया था. क्लास में गया तो स्टूडेंट ने पहला सवाल पूछा कि आप आईआईटी, कानपुर से आए हैं, जेएनयू और उसमें क्या फर्क है. मैने कहा कि मैं जेएनयू में काफी नया हूं और मुझे कोई अंतर नजर नहीं आता. हां, मैने यह फर्क बताया था कि जेएनयू में लड़के-लड़कियां एक ही हॉस्टल में रहते हैं. स्टूडेंट हंसने लगे. तो आईएएस बनने का सपना कब छूट गया? जब दुबारा बीएचयू लौट कर आएं तब इसका मोह छोड़ दिया. हमारे गांव के कुछ दलित और पिछड़े छात्र थे. सब हायर एजुकेशन वाले थे. तब मुझे भी लगा कि मुझे भी रिसर्च करना चाहिए. इसमे बाबा साहेब की किताबों का भी असर रहा था. यह दिमाग में आया कि कुछ नई चीजें लिखनी और करनी चाहिए. तय कर लिया कि एकेडमिक्स में आना है. सोच लिया कि इस फिल्ड में रहकर दलितों की समस्याओं को सोशल साइंस के माध्यम से सही तरीके से सामने लाना है. जब कानपुर में 5-6 महीने रहा था तो दलित समाज की स्थिति के बारे में काफी कुछ पढ़ा. अपनी एक समझ विकसित की और दलितों के बारे में समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से बात करने लगे. मैने अपनी पीएचडी में यह देखा कि दलितों मे किस तरह से सोशल मोबिलीटी आ रही है. पीएचडी का विषय था ‘सोशल मोबिलीटी एंड स्टेट्स आईडेंटिफिकेशन अमंग्स शिड्यूल कॉस्ट’ (Social mobility and states identification amongs schedule cast). जेएनयू में लगातार चार सेमेस्ट में चार नए कोर्सेस पढ़ाए. जेएनयू आंदोलनों का गढ़ रहा है, उसको कैसे याद करते हैं. शुरू में लोग बाबा साहेब की बातों को पब्लिकली डिस्कस नहीं करते थे. जब मैं यहां आया तो हॉस्टल में कुछ मराठी छात्र आपस में चर्चा करते थे. मुझे याद है कि जब मैं पहले दिन क्लॉस में पढ़ाने गया तो मैने डा. अंबेडकर का नाम लिया, उनकी पुस्तकों में से कुछ कोट किया. हर सेमेस्टर में मैने यह काम किया. बाबा साहेब की बातों को सब्जेक्ट के साथ रिलेट कर बताया. एक्जीक्यूटिव कमेटी का मेंबर रहते हमने विद्यार्थियों में आरक्षण लागू करवाया. मकान में आरक्षण लागू करवाया. आज खुले रूप में अंबेडकर के बारे में बात होती है. यह अच्छा है. जब मैने ज्वाइन किया तो तुलसी स्टूडेंट थे. एम ए कर रहे थे. एस के थोरात एम फिल में आए थे. लाइफ साइंस में आर के काले जो अभी गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी के वाइंस चांसलर हैं एमएससी में आए थे. आपने कहा कि आप क्लास में बाबा साहेब की बातों को कोट किया करते थे. तो बाबा साहब की बातों को छात्रों तक पहुंचाने में शिक्षकों की कितनी भूमिका है, यह कितना हो पाया है? जितना होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है. मैं जब पढ़ाता था तो समाजशास्त्र से संबंधित बाबा साहेब की बातों को कोट किया करता था. जैसे समाजशास्त्री लोग जाति की उत्पति के बारे में उल्टा-सीधा लिखे हैं तो मैं इस विषय को पढ़ाते हुए बाबा साहेब की थिसिस को कोट करता था, जो उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में सबमिट किया था. उनके सामने रख देता था कि यह देखो और बाकियों से तुलना करो. मुझे लगता है कि दलित शिक्षकों को इस बारे में जितना करना चाहिए वो हो नहीं पाया है और गैरदलित शिक्षकों ने अंबेडकर को पढ़ा नहीं है. वो पढ़ना भी नहीं चाहते हैं क्योंकि अगर वह पढ़ेंगे और पढ़ाएंगे तो उनको लगेगा कि ये बातें उनके खिलाफ जा रही है. जिन इतिहासकारों ने भी समाज का इतिहास (Social History) लिखा है उन्होंने भी डा. अंबेडकर को महत्व नहीं दिया है. जैसे सुमित सरकार ने अपनी किताब Writing of Social History in india में एकदम आखिर में अंबेडकर पर दो पन्ने देकर बस खानापूर्ति की है. मार्डन हिस्टोरियन में विपिन चंद्र ने अंबेडकर के बारे में कभी लिखा ही नहीं. तो जरूरत है कि दलित संत, विचारकों और इस समाज के लिए काम करने वाले आंदोलनकारियों के विचारों को आगे लाना चाहिए और ये समाज विज्ञानी ही कर सकते हैं. महाराष्ट्र में कई लोग यह कर भी रहे हैं. आंध्रा में भी सुधाकर राव इसके लिए लगे हैं. जेएनयू में ही विवेक कुमार है, वह अच्छा कर रहा है. उससे काफी उम्मीद है. एक जे श्रीनिवास है. इन लोगों से उम्मीद की जाती है कि दलित मुद्दों को समाजशास्त्रीय भाषा में आगे ले आएं. उन्हीं से उम्मीद है. एक दौर था जब दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले कई बुद्धिजीवियों ने अपनी आत्मकथा लिखी. आप तमाम लोगों से वरिष्ठ हैं. सबसे पहले जेएनयू में आए, क्या आपने कभी नहीं सोचा आत्मकथा लिखने के लिए? बहुत गंभीरता से कभी नहीं सोचा. एक मेरे कलीग थे, मुझसे सिनियर थे, मैसूर के थे. हम दोनों अगल-बगल रहते थे. वो हमसे बार-बार कहते थे कि कुछ लिखो अपने बारे में तुम. लेकिन टलता गया. जिस तरह के माहौल से मैं आया हूं, उस तरह के माहौल से बहुत कम लोग आए हैं. मतलब मैं एक ऐसे परिवार में पैदा हुआ था जहां मेरे पिताजी एक राजपूत के यहां हलवाही (हल चलाते थे) करते थे. मां भी उन्हीं के यहां गोबर-वगैरह लिपने जाती थी. मेरे एक सौतेले भाई थे, जो बनारस में रिक्शा चलाते थे. लेकिन इतना जरूर था कि मेरे मां-बाप ने मुझे कभी मजदूरी नहीं करने दी. वह यह भी नहीं समझते थे कि पढ़ाई क्या होती है लेकिन हमेशा स्कूल जाने के लिए कहते रहते थे. झोपड़ी के ऊपर जो भी सब्जी लगी रहती, मां उसे तोड़कर पानी और नमक के साथ सब्जी बना देगी. मैं उसे खाकर स्कूल निकल जाता. वो एक ऐसा समय था जिस समय पैसे नहीं होते थे. कभी-कभार मजदूरी में पैसे मिल जाया करते थे. मेरे पिताजी मजदूरी के साथ ही लोगों के यहां शादी-ब्याह में बाजा भी बजाया करते थे. जूता-चप्पल भी बनाते थे. इससे जो थोड़ा बहुत पैसा मिल जाता था उसे बहुत संभाल कर रखते थे. उसी से स्कूल की फीस भरी जाती थी. हाई स्कूल तक मुझे स्कॉलरशिप मिला करती थी. पिताजी इस पैसे से मेरे लिए साबुन-तेल खरीद कर ले आते थे कि बेटा पढ़ रहा है तो उसे ठीक-ठाक दिखना चाहिए. तो उस तरह के माहौल में रहकर हाई स्कूल पास किए.फिर बनारस आ गए. वहां भाई रिक्शा चलाते थे. गरीबी तब भी बहुत थी. पैसे की बहुत तंगी थी. जब पैसे की जरूरत होती तो मां गांव में किसी से मांग कर भेजती थी. किंग्स कालेज में रहते हुए हमने छूआछूत वाला मुद्दा उठाया था. हॉस्टल में भले ही दूसरे स्टूडेंट के साथ रह लेते थे मगर हमारा मेस अलग था. हमारे कॉलेज से तीन स्टूडेंट फर्स्ट क्लास पास हुए थे. बाकी दोनों साइंस से थे, आर्ट्स से मैं अकेला था. लेकिन वह सवाल छूट गया कि सबने आत्मकथा लिखी लेकिन आपने नहीं क्यों? हमने आत्मकथा लिखने का सोचा था. चूकि मैं समाजशास्त्री हूं तो मेरी आत्मकथा समाजशास्त्रीय तरीके से आनी चाहिए. उसकी हेडिंग भी मैने सोच ली थी, “स्टेयर्स एंड मूवर्स”. मेरे तरह के माहौल से निकलकर बहुत से लोग बीच में ही रूक गए. बहुत कम लोग आगे आ पाएं. तो ये क्या चीज है कि एक समान परिस्थिति से निकलकर कुछ लोग रूक जाते हैं और कुछ लोग आगे निकल जाते हैं. इसी पर लिखना था लेकिन सोच कर ही रह गया, लिख नहीं पाया. एक दूसरी वजह व्यस्तता भी है. जैसे एक पुस्तक हमने 2007 में प्रकाशित किया, इनसाइक्लोपीडिया ऑफ शिड्यूल कॉस्ट इन इंडिया- वाल्यूम-1. तकरीबन 125 साल बाद इस तरह की पुस्तक आई है. पहला वाल्यूम साउथ इंडिया का है. चार वाल्यूम अभी और पड़े हुए हैं. तो अभी इतना सारा काम पेंडिग पड़ा हुआ है. तो ये है कि हेल्थ ठीक-ठाक रहा और सर्वाइव (Servive) कर गए तो ये सारा काम पूरा करने के बाद आत्मकथा लिखेंगे. प्रो. तुलसी राम, डा. धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकी आदि ने जो आत्मकथा लिखी है, उसे आप कैसे देखते हैं? आमतौर पर तो यह होता है कि लोग अपनी आत्मकथा बढ़ा-चढ़ा कर लिखते हैं. दूसरी बात कि आत्मकथा लिखने का एक उद्देश्य होता है. आत्मकथा लिखने का जो उद्देश्य होता है वह ये है कि दूसरे लोग इसे पढ़कर शिक्षा लें कि आगे कैसे पढ़ा जाता है. जैसे मेरे सामने एक उदाहरण है. बीएचयू में मेरे एक सीनियर थे गोविंद प्रसाद. जब मैं प्लस टू में पढ़ रहा था तो विद्यार्थियों ने अंबेडकर जयंती मनाई थी. गोविंद एकदम गोरे-चिट्टे थे. सूट पहने- हैट लगाए थे. लगता था कोई अंग्रेज हैं. गोविंद के पिता बचपन में ही खतम हो गए थे. उनकी मां ने दूसरों के यहां झाड़ू-पोछा कर के गोविंद को पढ़ाया था. तो यह था कि एक गरीब बच्चा जो इतने संघर्ष से पढ़-लिखकर आगे बढ़ा, दिल्ली आया, हिंदू कॉलेज से रिटायर हुए. तो मेरे सामने गोविंद एक आइडियल थे कि जब गोविंद यहां तक आएं तो फिर नंदू राम क्यों पीछे रहे? तो आत्मकथा लिखने का जो उद्देश्य हो वह यही होना चाहिए कि देखो जिस तरह के माहौल से कोई निकल नहीं पाता, वहां से निकल कर सफल होना दूसरों के लिए एक शिक्षा है. मुझे आत्मकथा लिखने में जो विलंब हो रहा है वह इसलिए क्योंकि वह तो जीवनी है. जीवन तो अभी चल ही रहा है. (मैं टोकता हूं, लेकिन लिखना भी तो जीवन रहते ही है. नंदू राम कहते हैं, ‘यही द्वंद है’…और दोनों हंस पड़ते हैं) अब जैसे तुलसी राम की मुर्दहिया है. तुलसी राम गांव से निकले और बनारस आएं, तब तक उसमें है. उसके बाद का नहीं है. यानि उनकी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा छूटा हुआ है. ऐसे ही ओमप्रकाश वाल्मीकी हैं, जिन्होंने जूठन लिखी है. तो ओमप्रकाश अभी सक्रिय हैं और कथा अभी पूरी नहीं हुई है. वैसे ही मराठी में शरण कुमार लिंबाले हैं, जिन्होंने अक्करमाशी लिखा. तो शरण कुमार तो आजकल ज्यादा एक्टिव हैं. इनकी अभी मैने एक पुस्तक पढ़ी है, हिंदू. कि हिंदू कैसे दलितों को को-आप्ट कर रहा है और को-आप्ट कर के करप्ट कर दे रहा है. ऐसी चीजें सामने आ रही हैं. मेरी जिंदगी की भी कई घटनाएं हैं, अब सोचता हूं कि कभी लिखें तो सब सामने लाएं. समाज से सबसे पहले निकले लोग विभिन्न क्षेत्रों में गए. जैसे सुखदेव थोरात हैं और भी कई नाम हैं, तो इन लोगों के काम को आप कैसे देखते हैं? दलित स्कॉलर के सामने दो तरह का द्वंद रहता है बल्कि सच्चाई कहिए. एक द्वंद ये है कि दलितों की बात को साहित्य या पठन-पाठन के माध्यम से आगे बढ़ाना है. दूसरा द्वंद ये है कि अगर ये सिर्फ दलित मुद्दों को ही आगे बढ़ाते रहें तो उनमें और दलित पॉलिटिशियन में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. इसलिए दलित शिक्षक के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती रहती है. चुनौती यह रहती है कि दलित समाज की बात को भी सही तरीके से कहे और उस विषय की भाषा में बोले, जिस विषय में वह शिक्षक है. एक और द्वंद इससे जुड़ा हुआ है कि वो गैरदलित को भी कंविन्स करे कि तुम जो बात कह रहे हो और जो तुमको कहनी चाहिए, वह नहीं कह रहे हो. उसी में कुछ दलित स्कॉलर पॉवर के साथ जुड़ गए हैं. इस कारण उन्हें पॉवर की तारीफ करते रहना है. क्योकि अगर तारीफ नहीं किए जाएंगे तो निकाल बाहर किए जाएंगे. यह एक बड़ी समस्या है कि पॉवर के साथ जुड़े रहो और इससे कुछ अपना भी फायदा हो जाए, कुछ समाज का भी फायदा हो जाए. ये दौड़ कुछ समय तक चलेगा अभी. इसका कारण यह भी है कि दलित हमेशा हाशिये पर रहा है और हाशिये पर रहने वाले को तथाकथित मेन स्ट्रीम में उतनी ही गंभीरता से सुना जाए जितना किसी गैर दलित को सुना जाता है, ये होने में अभी वक्त लगेगा. ऐसे में दलित समाजविज्ञानियों का रोल बहुत अहम हो जाता है. उनके सामने चुनौती ये है कि उनके विषय के लोग भी ये मानें कि जो वो कह रहे हैं वो विषय से जुड़ा हुआ है. साथ ही दलित भी यह माने की हमारी बात को ईमानदारी से कहा जा रहा हैं. अब इसमें थोरात भी हैं, तुलसी राम भी हैं, विवेक भी है. कभी-कभी मैं विवेक को कहता हूं कि तुम इतने गुस्से में क्यों बात करते हो. उसको थोड़ा ठंडे दिमाग से कहो. (मैं टोकता हूं- लेकिन क्या एक ऐसे युवा के तौर पर जिसे सब पता है, गुस्सा जायज नहीं है) हां गुस्सा तो जायज है. क्योंकि अगर सदियों से हाशिये पर रहने वालों को आप आज भी हाशिये पर रख रहे हैं तो गुस्सा तो आएगा हीं. लेकिन उस गुस्से को अभिव्यक्त करने का तरीका सोचना पड़ेगा. क्योंकि फिर सामने वाले को जब यह लगेगा कि कोई उससे टकरा रहा है तो वह एकजुट होकर आपको खतम करने पर जुट जाएगा. इसलिए अपने विषय की भाषा में ठंडे दिमाग से बात करनी चाहिए. जेएनयू में सबसे खराब अनुभव क्या रहा, अच्छे अनुभव के बारे में भी बताइए? एक छोटी सी बात हुई थी 1985 में. मैं सिनियर पोजिशन के लिए अप्लिकेंट नहीं था. लेकिन एक सरदार जी थे जो मेरे 4-5 साल बाद असिस्टेंट प्रोफेसर बने थे. चयनकर्ताओं ने उनको एसोसिएट प्रोफेसर बना दिया. हालांकि मैने अप्लाई नहीं किया था, बावजूद इसके मैं काफी परेशान रहा. मैने दूसरे सेंट्रल यूनिवर्सिटी को एप्लीकेशन भेजा, जहां मुझे चुन लिया गया. तब सीनियर प्रोफेसरों ने आकर समझाया कि आपके लिए कोशिश कर रहे हैं जल्दी ही आपका भी प्रोमोशन हो जाएगा. तो सर उठा कर काम किया. कभी किसी वाइस चांसलर से दबे नहीं. जो सच था, सही था वही किया. लोग तारीफ करते थे. हर विभाग के तमाम सीनियर लोग भी तारीफ करते थे. आज काफी नए शिक्षक आ गए हैं. कभी चला जाता हूं तो वो सब खूब आदर देते हैं. 33 साल गुजारा जेएनयू में. अच्छा अनुभव रहा. यूपी के संदर्भ में दलित राजनीतिक आंदोलन को आप कैसे देखते हैं? दिल्ली आने के पहले से ही रामविलास पासवान का नाम सुनता आ रहा था. यहां आएं तो 84 में कांशीराम का डीएस-4 शुरू हुआ. व्यक्तिगत तौर पर न तो मैं कांशीराम को जानता था और न ही देखा था. हां, एक बार जब जेएनयू में एक कार्यक्रम में वह आए थे तो देखा था. वह कास्ट सिस्टम के बारे में समझा रहे थे लेकिन उनका तरीका मुझे ज्यादा प्रभावित करने वाला नहीं लगा. रामविलास पासवान से हमारी दोस्ती तब हुई जब वो चुनाव हारे थे. तब मैने रामविलास से कहा था कि अगर बहुत बढ़िया राजनीति करनी है तो इस्टर्न यूपी में करनी चाहिए. क्योंकि उस क्षेत्र में गांव का दलित भी रामविलास पासवान का नाम जानने लगा था. लेकिन उनके सामने दूसरी समस्या थी. वह बिहार के थे और उधर अपनी राजनीति करना चाहते थे. ध्यान नहीं दिया. उसी वक्त कांशीराम ने एकदम से उस इलाके को ग्रैप कर लिया. उन्होंने बांदा से शुरू किया, फिर पूरी ईस्टर्न यूपी कांशीराम के साथ हो गई. उनसे पहले एक मोतीराम शास्त्री हुआ करते थे. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के. दलितों में चेतना लाने और डा. अंबेडकर को लोगों के बीच पहुंचाने की दिशा में उन्होंने बहुत काम किया. वह एक आंदोलन था. जब मैं जेएनयू आ गया तो मोतीराम शास्त्री मिलने आए थे. मैने कहा कि आपने जो सामाजिक आंदोलन शुरू किया था वो अभी भी अधूरा पड़ा हुआ है. लेकिन उन्हें राजनीति करनी थी. 77 में जब मैं दिल्ली में था तो मायावती उस समय बच्ची थी. मालवंकर हाल में जात-पात तोड़ो पर सम्मेलन हुआ था. उसमें मायावती ने जो भाषण दिया था तो मुझे लगा कि यह लड़की तेज-तर्रार है. एकदम आग लगाने वाली बात कर रही थी. दलित राजनीति की बात करें तो इनमें संगठन कमजोर है. यह आज भी बड़ी समस्या है. हमको याद है कि एक बार मैं आईआईटी कानपुर से यहां दिल्ली आया था. जगजीवन बाबू के घर 6 कृष्ण मेनन रोड पर गया. गेस्ट रूम में देखा कि दो मुसटंड लोग पड़े हुए थे. एक ठाकुर था तो दूसरा पंडित. वह दिन भर इधर-उधर घूमा करते थे और शाम को खाने और सोने के लिए यहां आ जाते थे. तब वो रक्षा मंत्री थे. एक बार दोपहर में रामविलास ने मुझे बुलावाया. पहुंचा तो देखा कि घर के बाहर 25-30 लोग पड़े हुए हैं. सबको बहुत चोट आई थी, सब खून से लथपथ थे. मैं ड्राइंग रूम में पहुंचा. हमारी बात होने लगी तो मैने कहा कि नंदू राम तो आपसे कभी भी मिल सकता है, लेकिन जो गेट के बाहर 25-30 लोग बैठे हैं, सब चोट खाएं हैं उनसे मिलना ज्यादा जरूरी था. रामविलास ने कहा कि मैं मिलता हूं. मैंने टोका- कहां मिलते हो, मिलते होते तो वो क्यों इस तरह बाहर होते? रामविलास ने कहा कि वो सिक्योरिटी रिजन के चलते देर होती है. मैं हंस पड़ा कि जो लोग खुद ही पीट-पीटा कर अपने समाज के नेता के पास आएं हैं, उनसे भला कैसी असुरक्षा. तो राजनीति का तो यही हाल है. यह बहुत बेमानी हो गई है. बतौर समाज विज्ञानी, आप मायावती की हार का आकलन कैसे करते हैं? उनसे क्या गलती हो गई? मायावती से यह गलती हो गई कि वो जनता से कट गई. और उनको दलितों से अलग करने में उनसे जुड़े रहने वाले गैर दलितों का हाथ ज्यादा था. मुझे लगता है कि ये सब योजना के तहत हुआ है. वरना मायावती इतनी बुरी तरह नहीं हारती. दलित बुद्धिजिवियों को साथ न लेना भी एक कारण रहा है. कांशीराम या फिर मायावती के साथ थिंक टैंक नहीं रहा. ये लोग इनसे दूर ही रहते आए हैं. दलित राजनीतिज्ञ के सामने बल्कि सिर्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं दलित स्कॉलर के सामने भी ये दिक्कत रहती है कि उसको लगता है कि दूसरा हमसे आगे ना निकल जाए. एक-दूसरे की तारीफ नहीं करते. राजनीति की हालत भी वही है. मुझे नहीं लगता कि दलित राजनेता पार्टी लाइन से हटकर एक-दूसरे से बात करते होंगे, साथ आते होंगे. गैर दलित नेता जरूर एक-दूसरे के यहां चले जाते हैं. आपस में मिलते रहते हैं. लेकिन दलित राजनीतिज्ञ कभी इकठ्ठा नहीं होते. ये सबसे बड़ी समस्या है. 26 अलीपुर रोड को लेकर एक कमेटी बनी है, आप भी उस कमेटी में है. तो वहां क्या हो रहा है? 26 अलीपुर रोड जहां पर बाबा साहेब की मृत्यु हुई थी, उसके बारे में एक स्ट्रक्चर हमने सोचा है कि उसे कैसे बनाना है. यह है कि इसे बुद्धिस्ट पैटर्न पर बनाना है. हमने कहा है कि बाबा साहेब के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी चीजें आनी चाहिए. अभी एक बड़ा प्रोजेक्ट रह गया है. अंबेडकर मेमोरियल बनना है. मेरे सहित कुछ लोगों का मानना है कि अंबेडकर फाउंडेशन को अंब्रेला मानकर हर गतिविधि इसके तहत होनी चाहिए. हालांकि इस बारे में अभी कई बैठकें बाकी है. वर्तमान में क्या कर रहे हैं और भविष्य की क्या योजना हैं? फिलहाल तो कुछ सेंट्रल यूनिवर्सिटी की काउंसिल का मेंबर हूं. त्रिपुरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के एकेडमिक काउंसिल का मेंबर हूं. मध्यप्रदेश के अमर कंटक में इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी है, वहां प्रेसिडेंट की ओर से एक्जीक्यूटिव काउंसिल के मेंबर के तौर पर नामित हूं. कई और जगहों पर ऐसे ही चल रहा है. जहां तक भविष्य की बात है तो अभी पांच पुस्तकें अधूरी पड़ी हुई है. उसे पूरा करना है. इसके बाद सोशल एक्सक्लूजन एंड इनक्लूजन पर एक किताब लिखनी है. फिर उसके बाद अपनी आत्मकथा पर हाथ डालेंगे. (मैं टोकता हूं- कब तक उम्मीद करें, नंदू राम कहते हैं-2013-2014 तक) आपके बाद के तमाम लोग अखबारों में लिखते रहते हैं, छपते रहते हैं. लोग इस वजह से उन्हें जानते हैं. लेकिन आप इन सबसे दूर रहे हैं, क्यों? मैं पब्लिसिटी में यकीन नहीं करता हूं. कभी-कभी मजाक में मैं लोगों से कहता भी हूं कि मैं जो कुछ भी लिखता रहा हूं यह स्वांत सुखाय है. तो मैं अपनी संतुष्टि के लिए लिखता हूं इसलिए आम जनता से कटा हूं. भाषा भी दूसरी है. मैं अंग्रेजी में लिखता हूं. वो भी समाजशास्त्रीय भाषा में. तो एक तो वो कारण है. दूसरा, मेरा जो लिखने-छपने का मकसद रहा है वह यह है कि जो स्कॉलर लोग हैं इनको कन्वींस करने की जरूरत ज्यादा है. हम ये करते रहे हैं. इसलिए अखबारों में लिखने के लिए वक्त भी नहीं निकाल पाते हैं. आत्मकथा किस भाषा में होगी? – हंसते हुए….. जाहिर है अंग्रेजी में होगी. लेकिन जब लिखेंगे तो देखेंगे. घंटे भर किसी से बात करके उसके जीवन के बारे में सबकुछ नहीं जाना जा सकता. कोई ऐसी बात जो मुझसे पूछने से रह गई हो और आप कहना चाहते हों? जो लोग यह कहते हैं कि जाति महत्वपूर्ण नहीं है, वह झूठ बोलते हैं. इसको तोड़ने की बात बहुतों ने की लेकिन बहुत गंभीरता से इस ओर काम नहीं हुआ. बाबा साहेब ने अपने जीवन में एक नया प्रयोग करते हुए दूसरी शादी एक ब्राह्मण लड़की से की. उन्होंने शादी तो कर ली लेकिन महाराष्ट्र के महारों ने सविता ताई को स्वीकार नहीं किया. मेरा कहना है कि जितनी भी दलित जातियां हैं वह आपस में जातिय भेदभाव को खत्म करें. आपस में शादी-विवाह करें. दलितों को इस लाइन पर गंभीरता से सोचना चाहिए. अगर वो आपस में जाति को खतम कर लेंगें तो बहुत बड़ी ताकत बन जाएंगे. फिर गैर दलित एकदम से डर कर पीछे हट जाएंगे. नई पीढ़ी की जिम्मेदारी ज्यादा है. सर आपने वक्त दिया, इतनी बातें शेयर की, बहुत धन्यवाद. धन्यवाद….  मुझे भी अच्छा लगा. आते रहिएगा.

मूलनिवासी की बात पर वो डिफेंसिव हो जाते हैं- बोरकर

प्रोन्नति में आरक्षण पर हंगामा बरपा है. बामसेफ इस पूरे मसले को कैसे देखती है? – रिजर्वेशन इन प्रोमोशन हमारा फंडामेंटल राइट (मूलभूत अधिकार) है, और फंडामेंटल राइट होने की वजह से ये हमें मिलना जरूरी है. अगर उन्होंने प्रोन्नति में रिजर्वेशन नहीं दिया तो उचित प्रतिनिधित्व की बात अधूरी रह जाएगी. इस बारे में बाबासाहेब ने लिखा है. हमारे विरोधी कह रहे हैं कि नियुक्ति तक तो ठीक है लेकिन वो प्रोमोशन में नहीं देना चाहते. संविधान में उचित प्रतिनिधित्व की बात है वो कोई शुरुआती चरण में नहीं है. यह हर स्टेज पे है. अगर यह नहीं मिलता है तो बाबासाहेब जो जीवन के हर क्षेत्र में बराबरी की व्यवस्था लागू करना चाहते थे वो नहीं आएगी.  बामसेफ अपने स्तर पर इस मामले में क्या कर रही है.  – बामसेफ इस मसले के ऊपर 20 राज्यों में जन जागरण के कार्यक्रम कर रही है. इसमे यह मुद्दा उठा रहे हैं. इन मुद्दों के ऊपर मूलनिवासी संघ के सीईसी की मीटिंग बुलाई है, जिसमें हम धरना-आंदोलन का कार्यक्रम तय करेंगे.  जिस तरह ज्यादातर राजनीतिक दल इस पर गोल-मोल बातें कर रहे हैं, क्या संसद में यह बिल पास हो पाएगा. – मुझे ऐसा लगता है कि हो पाएगा. ओबीसी को इसमें शामिल कर के यह हो पाएगा. बामसेफ ने इसे सबसे पहले उठाया. आपने देखा होगा कि एनडीए औऱ यूपीए के घटक दलों ने इस मुद्दे पर ओपनली स्टैंड लिया है. कांग्रेस भी राजनीति कर रही है. भले ही यूपी में अनुसूचित जाति के लोग मायावती के साथ हैं, मगर देश भर में यह समाज आज भी कांग्रेस के साथ है. इसलिए कांग्रेस अनुसूचित जातियों को प्रोन्नति में आरक्षण देना चाहती है मगर ओबीसी को नहीं देना चाहती है. अगर ओबीसी को भी आरक्षण देने की बात पुरजोर तरीके से उठाई जाती है तो इसका पोलराइजेशन (ध्रुवीकरण) होगा. मैं आशावादी हूं कि पदोन्नति में आरक्षण मिलेगा.  बामसेफ वंचित तबके का संगठन है. एससी/एसटी अधिकारियों पर आरोप है कि ये समाज से कट जाते हैं और इनका अपना एक क्लास बन गया है. – ये इस आंदोलन के प्रति बेईमान किस्म के लोग हैं. मैं बहुत सख्त शब्द बोल रहा हूं. लेकिन सारे लोग ऐसे नहीं है. अब मैं यहां बोल रहा हूं, कृष्णा साब (आनंद श्रीकृष्ण, रेवेन्यू सर्विस) भी यहीं पर हैं, उनको देखिए. समस्या यह है कि बड़ा तबका इसे नौकरी समझता है. उसमें अहम का भाव है कि मैने अपनी मेहनत से पाया, मैं बहुत ज्ञानी हूं. लेकिन ऐसा नहीं है. अगर ये प्रावधान नहीं होता तो ऐसा नहीं मिलता. मुझे यह बताइए कि हमारे समाज के लोग जो अफसर बने बैठे हैं और खुद को ज्ञानी (meritorious) समझ रहे हैं, उन्हें यह सब इसलिए मिल पाया है क्योंकि बाबासाहेब ने संविधान में प्रावधान किया. तो इसलिए हम एक्जीक्यूटिव में अपने समाज का रिप्रेंसेंटेशन कर रहे हैं. यह केवल नौकरी नहीं है. अगर हम सेक्रेट्री बनते तो अपने समाज के हित में काम करते. लेकिन नौकरी समझ के बैठ गए इसलिए दिक्कत है. आरक्षण में क्रिमिलेयर की बात से आप कितना इत्तेफाक रखते हैं – हमने बहुत पहले ही इसका विरोध कर दिया है. जस्टिस कोलसे पाटिल को हमने अपने मंच पर बुलाया. हमने उनसे कहा कि सावंत साहब ने जो लिखा है वो गलत है. क्रिमिलेयर का जो क्राएटेरिया है, वह इकोनॉमिक क्राइटेरिया है और यह बैकडोर से लाया गया है. जो कंस्टीट्यूशंस की प्रेमोलॉजी है, उसमें सोशल एंड एजुकेशनली बैकवर्ड लिखा है. और क्रिमिलेयर का मामला income के साथ जुड़ा हुआ है, तो एक तो ये संविधान के नजरिए से गलत है. दूसरा, अगर इसे Social Aspect  से देखा जाए तो हमारे समाज का नेतृत्व तो बाबासाहेब ने ही न किया, किसी मजदूर ने तो नहीं किया. तो इसका मतलब कि बैकवर्ड क्लास का नेतृत्व करने वाला जो वर्ग है, उसे अगर आप क्रिमिलेयर बोलकर हटा देते हैं तो ऐसे में पढ़े-लिखे वर्ग में कुछ लेन-देन नहीं रहेगा. ऐसी स्थिति में वंचित तबके में नेतृत्व बनने की प्रक्रियी ही खत्म हो जाएगी. अगर नेतृत्व नहीं होगा तो फिर यह वर्ग गुलामी की ओर चला जाएगा. इसलिए क्रिमिलेयर की जो बात है वो सामाजिक दृष्टि से भी ठीक नहीं है और संविधान की दृष्टि से भी ठीक नहीं है. आप हिंदुत्व पर काफी चोट करते हैं, ओबीसी तक को हिंदू नहीं मानते. लेकिन महाराष्ट्र को छोड़ ज्यादातर हिस्सों में एससी/एसटी समुदाय का व्यक्ति खुद को हिंदुत्व के बंधन से मुक्त नहीं कर पाया है. ऐसा क्यों ? – वो इसलिए है क्योंकि हमारे समाज का सांस्कृतिक फोरम अभी तक तैयार नहीं हुआ है. जबकि हिंदुत्व कल्चराइज्ड हो गया है. तो लोगों को इससे निकालने के लिए अल्टरनेटिव कल्चर तैयार करना जरूरी है. इसलिए हमने अपने समाज के कुछ रिसर्च स्कॉलर को कहा है कि मूलनिवासी कल्चर को विशेष रूप से डिफाइन करो और ताकि इस कल्चर को समाज के सामने लेकर जाया जा सके. फिर हम मूलनिवासी मेलाओं के माध्यम से लोगों को इस बारे में समझाएंगे. अभी भी मेला लगा रहे हैं. पिछड़े वर्ग के लोग भी आ रहे हैं. लेकिन जिस अनुपात में लोगों को आना चाहिए, नहीं आ रहे हैं. हमें उन्हें बताना है कि अपना कल्चर क्या है, यह ब्राह्मणों से भिन्न है. मूलनिवासियों का खान-पान से लेकर, रहन-सहन और बातचीत से लेकर शादी-ब्याह तक का तरीका ब्राह्मणों से अलग है. हमारे Tribal भाई ऐसा नहीं करते हैं, पर उनको भी वो हिंदू बोलते हैं. आज इसका इतना घालमेल हो गया है कि अब यह पानी और दूध को अलग करने जैसा मामला है. जिस दिन हमारे रिसर्च स्कॉलर इसको अलग कर देंगे हम मूलनिवासी कल्चर को फोकस में लाएंगे. जिस तरह दलित राजनीति बिखरी हुई है, वैसे ही दलित आंदोलन भी बिखरा हुआ है. राजनीतिक तौर पर रिपब्लिकन पार्टी और संगठन के तौर पर बामसेफ के कई टुकड़े इसके उदाहरण हैं. इसने दलित राजनीति और दलित आंदोलन को कितना नुकसान पहुंचाया है ? – इतना ज्यादा नुकसान पहुंचाया है कि जो लोग इस ढ़ंग की राजनीति कर रहे हैं उनके लिए मेरे पास अपशब्द भी इस्तेमाल करने को नहीं है. ये इसलिए है कि अपने समाज के हित में संगठित रहने की प्रबल भावना इस समाज में नहीं है. मेरा मानना है कि अगर हमारे सोचने के ढ़ंग में कुछ अंतर है भी तब भी समाज के हित में हमें साथ ही रहना चाहिए. आगे चलकर हमारे विचार एक हो सकते हैं. इसलिए हमें समाज के हित में किसी भी हालात में एक रहना चाहिए. यह भावना नहीं रहने से दिक्कत होती है. लेकिन जब अपनों में ही चुनाव करना पड़े तो लोग किस ओर जाए, किसे सही और किसे गलत कहे. यह सवाल राजनीतिक पार्टियों और बामसेफ जैसे संगठनों, दोनों से है? – आम आदमी की तार्किक शक्ति उस स्तर की नहीं बढ़ाई गई है कि वो सही और गलत की पहचान करें. हम जो दलील दे रहे हैं वो सही और गलत की पहचान करने को लेकर दे रहे हैं. हम लोगों की तार्किक शक्ति को उस स्तर तक ले जाना चाहते हैं, जहां वो सही-गलत की पहचान कर सके. लेकिन इस काम को करने के लिए जितने लोग चाहिए होते हैं, मीडिया चाहिए होता हो वह हमारे समाज के पास नहीं है. इसलिए सारी परेशानी है. लेकिन आज तो हमारे पास तमाम संसाधन हैं, एक प्रदेश में सरकार भी रही, फिर क्यों नहीं हम अपना मीडिया खड़ा कर पाएं? – संसाधन तो हैं लेकिन वह व्यक्तिगत तौर पर कुछ लोगों के पास है, समाज के पास संसाधन नहीं है. मेरे पास जो पैसा है, या फिर आपके पास जो पैसा हो वो मेरा और आपका है, समाज का नहीं है. न ही समाज का आंदोलन चलाने वाले लोगों के पास पैसा है. अगर उन्हें मीडिया के ताकत या फिर उसकी समझ नहीं है तो सरकार आने ना आने का इससे कोई वास्ता नहीं है. अब जैसे आफिसर्स लोगों के पास भी पैसा है. बिजनेस मैन के पास भी पैसा है, आखिर वो इस दिशा में क्यों नहीं उतर रहे हैं? वह इसलिए नहीं उतर रहे हैं क्योंकि उनको यह डर है कि इन क्षेत्रों में अपना पैसा लगाने के बाद वापस आएगा या नहीं आएगा. उन्हें इसकी चिंता है. क्योंकि आदमी वहां पैसा लगाता है, जहां से पैसा निकलता है. जो पावर में आएं उन्होंने इसका महत्व ही नहीं समझा. जो दूसरे राजनीतिक दल हैं उनको देखिए, उन्होंने सत्ता में आते ही अपनी मीडिया खड़ी कर ली. दक्षिण को देखिए, सबके पास अपने अखबार और चैनल है. अब अगर ऐसे लोग पावर में आते हैं, तो क्या मतलब है? पावर में उनलोगों को आना चाहिए, जिनमें अपने समाज के प्रति प्रतिबद्धता और समझ दोनो है. हम अपने संगठन के माध्यम से इस तरह के वर्कर तैयार कर रहे हैं. माना जाता है कि राजनीतिक दल एक साथ नहीं आ सकते, क्योंकि उनके अपने स्वार्थ हैं. लेकिन संगठन साथ क्यों नहीं आ जाते, क्या उनके भी स्वार्थ हैं? – क्या है कि संगठन बनाने की जो प्रक्रिया है वह अलग ढ़ंग की है. जैसे- अगर आप अकेले हैं तो संगठन नहीं है, मैं अकेला हूं तो संगठन नहीं है. अब मैने यह सोचा कि मेरे समाज के सामने फलां-फलां समस्या है और इसे फलां तरीके से दूर करना चाहिए. पर मैं अकेला हूं. फिर मैने आपको बताया. आपने भी कहा कि करना चाहिए. बस हमारा संगठन बन गया. मगर अगले दिन आप कहते हैं कि कल मैने जो कहा था, उससे सहमत नहीं हूं. बस, संगठन टूट गया. यह बात साबित करता है कि जब हमने संगठन बनाया, आपका अपने अब्जेक्टिव के प्रति शत्-प्रतिशत कमिटमेंट नहीं था. तो जो लोग संगठन बनाने की प्रक्रिया में सामने आते हैं, अगर वो अपने अब्जेक्टिव के प्रति फोकस नहीं करते हैं, तो आदमी का दिमाग भटकता है. यह इसलिए होता है क्योंकि आप अकेले फिल्ड में नहीं हो. फिल्ड में बहुत सारी ताकतें काम करती हैं जो आपको प्रभावित करती है. इसलिए तो आप सुबह उठते ही मन बदल देते है. इसलिए हमें कुछ मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद एक रहना है. तभी संगठन चल सकता है.  क्या केंद्र में कभी वंचित तबके की सरकार बन पाएगी. – बिल्कुल बन पाएगी. हम जो काम कर रहे हैं इसीलिए कर रहे हैं. जिस दिन ओबीसी तबका हमारे साथ आ गया, हम केंद्र की सत्ता पर काबिज हो जाएंगे. 1948 में लखनऊ में दिए अपने राजनीतिक भाषण में बाबासाहेब ने भी यह बात कही थी. बाबसाहेब ने कहा कि सोशल प्लेटफार्म पर भले ही हम अलग हों, मगर धरातल पर हम एक हैं. और जिस दिन ऐसा हो गया. अपने आप को बड़ा कहने वाले लोग हमारे जूते का फीता बांधने में गौरव का अनुभव करेंगे. मायावती के मामले में हम यह देख चुके हैं. आपका कहना है कि ओबीसी के साथ आने पर हमारी सरकार बन जाएगी. लेकिन आप देखिए तो तमाम स्टेट में ओबीसी की सरकार है. बिहार में, नीतीश, यूपी में अखिलेश, गुजरात मे मोदी सब ओबीसी हैं, तो यह क्या है. क्या ब्राह्मणवादी ताकतें ओबीसी को सत्ता देकर खुद पीछे से राज कर रही हैं ? – आपने बिल्कुल ठीक समझा. असल में यह ओबीसी की सरकार नहीं है. यह ब्राह्मणों की सरकार है, जिसे वो ओबीसी को सामने कर के चला रहे है. इसलिए यह उनकी कठपुतली है. क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो हमें सड़क पर आने की जरूरत नहीं पड़ती. इनकी जितनी भी आर्थिक नीतियों का आप अध्ययन करेंगे, यह साफ पता चल जाएगा कि यह सब दलित विरोधी हैं. राज्यों में ओबीसी को प्रतिनिधित्व इसलिए दिया गया, उन्हें सत्ता इसलिए सौपी गई ताकि वो केंद्र में बने रहें. यह ‘GIVE AND TAKE’ जैसा है. अपने बचपन के बारे में बताइए. आप दलित आंदोलन से कब परिचित हुए? – मैं मजदूर का लड़का हूं. पिताजी की पढ़ाने की हैसियत नहीं थी. लेकिन हर बार अव्वल रहने के कारण मैं आगे पढ़ता गया. चूकि मैने फर्स्ट क्लास से पास किया इसलिए अंबेडकर कॉलेज, दीक्षाभूमि पर मैने दाखिला लिया. यहां से मैने बीएससी किया. चूकि मैने फर्स्ट क्लास में बीएससी किया इसलिए एमएससी कर पाया. मैं नागपुर विवि का थर्ड मेरिट हूं. जब मैं कॉलेज में था तो हमारे समाज के शिक्षकों ने मेरी पढ़ाई को देखते हुए मुझे फ्री में ट्यूशन दिया. मुझे उसका फायदा हुआ. तब मुझे लगा कि ये लोग तो मेरे कोई सगे नहीं है, बावजूद इसके उन्होंने मेरी मदद की. तो इसी तरह मेरा भी उत्तरदायित्व बनता है कि मुझे भी अपने समाज के लिए कुछ करना चाहिए. 1977 में जब मैं कस्टम में क्लास-2 आफिसर के तौर पर नौकरी में आया, उसी साल बामसेफ शुरू हुआ था और मैने बामसेफ ज्वाइन किया. तब कांशीराम अध्यक्ष थे. तब से लगा हूं. इतने सालों के बाद आप बामसेफ में क्या परिवर्तन देखते हैं? – तब से कई बदलाव आया है. वैचारिक तौर पर बदलाव आया है. आप देखेंगे कि जब हम कांशी राम जी के नेतृत्व में काम कर रहे थे तब आटोक्रेट (तानाशाह) लीडरशीप थी, आज डेमोक्रेटिक लिडरशिप है. कांशीराम जी के समय में एससी/एसटी/पिछड़ा वर्ग और इससे धर्म परिवर्तित लोगों को इकठ्ठा करने की कोशिश थी. तब मूलनिवासी की बात नहीं थी. हमने इसको ट्रांसफर्म किया और इसे मूलनिवासी की पहचान दी. इसको होमोजिनियस आइडेंटिटी (एक जैसी पहचान) दी. संगठन अगर होमोजिनियस होता है तो यह ज्यादा आगे बढ़ता है. क्योंकि जब तक एससी/एसटी और ओबीसी जैसी बातें रहेंगी, दिक्कत रहेगी. लोग कार्यक्रमों में तो आते हैं लेकिन यहां से जाते ही वह एससी/एसटी और ओबीसी हो जाते हैं. मेरा मानना है कि वह यहां आएं तो मूलनिवासी बनकर, घर भी जाएं तो मूलनिवासी ही बने रहे. यह जरूरी है. यह बदलाव आया है. बामसेफ के अलग-अलग गुटों में बंटने की क्या वजह है? – स्वार्थ। बामसेफ में बिखराव विचारों में मतभेद से ज्यादा स्वार्थ के कारण हुआ. यह कांशी राम जी के समय से ही शुरू हुआ. मायावती की तरफ कांशीराम का झुकाव होने की वजह से समर्पित कार्यकर्ताओं का अनादर हुआ. क्योंकि वह अध्यक्ष थे और उन्हें मायावती के नाम को प्रस्तावित करना था. मायावती उनके ऊपर हावी हो गई थी. नेतृत्व के ऊपर कोई हावी नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसा हुआ. ऐसा होने से हमने कांशीराम जी के सामने सवाल उठाया. 20-22 लोग उनसे मिले थे. 1985 की बात है. हमने उन्हें समझाया कि आइंदा से आप संगठन का निर्णय अकेले नहीं लेंगे. लेकिन वो नहीं माने. उन्होंने कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा. हमारे साथ रहना है तो रहो वरना मत रहो. तब हम अलग हो गए. आज बामसेफ चल रही है लेकिन बीएसपी का भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा. क्योंकि जिस तरह का नेतृत्व होना चाहिए वैसा नहीं है. कांशीराम जी को कैसे याद करते हैं? – मैं अपने सार्वजनिक जीवन में आने का श्रेय कांशीराम जी को ही देता हूं. मैने आंदोलन उन्हीं से सिखा. मैं महाराष्ट्र के अंबेडकर कॉलेज का प्रोडक्ट हूं. मगर वहां की रिपल्बिकन पार्टी से नहीं सीखा. लेकिन आज की तारीख में मैं उन्हें इससे ज्यादा महत्व नहीं देता. क्योंकि हमें तैयार करने का श्रेय तो उन्हें जाता है लेकिन इस आंदोलन को तोड़ने के लिए भी मैं उन्हें ही जिम्मेदार मानता हूं. हालांकि ऐसा कहने के लिए कई लोग मुझे कोसते भी हैं.  दो दशक बाद दलित राजनीति और दलित आंदोलन को आप कहां देखते हैं – हम तो ऊंचाई पर रहेंगे. वैसे मैं ‘दलित’ शब्द से परहेज करता हूं. क्योंकि हमारा दुश्मन भी हमें दलित कहता है और हम भी खुद को दलित कहते हैं, मतलब मामला तो सेटल्ड है. वह तो यही चाहते हैं. अब जैसे हमने खुद को मूलनिवासी कहना शुरू किया है तो वो बचाव की मुद्रा में हैं. हमने कहना शुरू किया है कि वो बाहर के हैं. पहचान किसी भी आंदोलन के लिए बहुत जरूरी है. वह हम कर रहे हैं. आपकी नजर में दलित आंदोलन से जुड़ी हुई खामियां क्या-क्या है? – आंदोलन की खामियां तो मैं आपको नहीं बता पाऊंगा लेकिन इतना कह सकता हूं कि आंदोलन चलाने के लिए नेतृत्व लगता है. हमारे समाज में लिडर्स ऑफ कैरेक्टर नहीं आ रहे हैं. कैरेक्टर बिल्डिंग की जो प्रक्रिया है, वह हो नहीं रही है. इसी वजह से सारी दिक्कते हैं. हम अपने संगठन के माध्यम से इसकी कोशिश कर रहे हैं.
बोरकर जी से संपर्क करने के लिए और इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप उनके मोबाइल नंबर 09930337444 पर संपर्क कर सकते हैं। अशोक दास से संपर्क करने के लिए आप 09711666056 पर फोन कर सकते हैं या ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।

माता सावित्रीबाई फुले को सलाम

आप टीना डॉबी के लिए उत्साहित होइए. उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा में टॉप किया है. यूपी बोर्ड का रिजल्ट भी आ गया है. हाई स्कूल की परीक्षा में रायबरेली की सौम्या पटेल और इंटर में बाराबंकी की साक्षी वर्मा टॉपर रही है. ऐसे ही आईसीएसई बोर्ड की परीक्षा में 96.40 प्रतिशत लाकर अपने क्षेत्र और समाज का नाम रौशन किया है. आप सब इन नामों की सफलता को लेकर गर्व कर सकते हैं. लेकिन मैं इन सारी सफलताओं के लिए माता सावित्रीबाई फुले को सलाम करुंगा, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर वह राह तैयार की, जिस पर चलकर ये बेटियां इस मुकाम को हासिल कर सकी. जब ज्योतिबा फुले ने स्त्री शिक्षा की नींव रखी होगी और माता सावित्रीबाई फुले लोगों के ताने सुनकर, खुद पर कीचड़ फेके जाने के बावजूद लड़कियों को पढ़ाने जाती होंगी तो उनके मन में बस इतनी सी बात होगी कि स्त्रियों को कुछ ज्ञान मिल जाए. तब उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब लगातार दो साल ये लड़कियां यूपीएससी की परीक्षा में टॉपर होंगी. जिन लड़कियों का नाम ऊपर लिया गया है, उनमें से कितनी लड़कियां फुले दंपत्ति के योगदान को जानती होगी ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर जानती भी होंगी तो उनके लिए उस दर्द और त्याग को महसूस कर पाना शायद संभव नहीं होगा, जिसने उनकी सफलता की नींव रखी है. और टॉपर करने वाली कोई लड़की जब वंचित तबके की हो तब तो इसका महत्व और बढ़ जाता है, क्योंकि फुले दंपत्ति जब संघर्ष कर रहे होंगे तब वह यह जरूर सोचते होंगे कि उनका संघर्ष उसी दिन पूरा होगा जब वंचित तबके से ताल्लुक रखने वाली कोई लड़की शीर्ष मुकाम को हासिल कर लेगी. ऐसे में कहा जा सकता है कि आज ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का सपना साकार हो गया है.

बसपा की तैयारी और विपक्षी दलों की बेचैनी

उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर बहुजन समाज पार्टी ने अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं. पार्टी की अध्यक्ष मायावती जिस तरीके से उत्तर प्रदेश के मुद्दों को लेकर लगातार मुखर हैं, उसने विपक्षी दलों की बेचैनी बढ़ा दी है. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर की जयंती 14 अप्रैल के दिन लखनऊ में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधन के बाद से मायावती लगातार प्रेस के माध्यम से सक्रिय हैं. उन्होंने हर मुद्दे पर अपनी राय रखनी शुरू कर दी है. चाहे अब स्मारक की बजाय सिर्फ विकास कार्यों पर जोर देने की बात हो या फिर विश्वविद्यालयों में ओबीसी वर्ग का आरक्षण रद्द करने का विरोध हो या फिर तीस्ता सीतलवाड़ के पक्ष में आने की बात. उन्होंने साफ कर दिया है कि वह हर वर्ग को लेकर विकास की राह पर चलना चाहती हैं. चुनाव पूर्व होने वाले सर्वे में मीडिया द्वारा बसपा को पहले ही सबसे बड़ी पार्टी बताया जा चुका है. इसकी जायज वजह भी है. जहां विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और भाजपा अब तक अपनी रणनीति को लेकर पसोपेश में हैं तो वहीं बसपा ने जमीन पर काम करना शुरू कर दिया है. पार्टी के कार्यकर्ता गांव-गांव में सक्रिय हैं. जबकि भाजपा और समाजवादी पार्टी अंदरुनी आपसी गठजोड़ के जरिए कैराना जैसे मुद्दों के भरोसे अपनी चुनावी नैया पार करने की सोच रही है. लेकिन उत्तर प्रदेश में यह संभव होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि प्रदेश की जनता भाजपा-सपा गठजोड़ को समझ चुकी है और उसने कहीं न कहीं बसपा को सत्ता में लाने का मन बना लिया है. विकास और भ्रष्टाचार के साथ वर्तमान में प्रदेश में सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा और कानून व्यवस्था का बन चुका है. प्रदेश में यह चर्चा आम है कि समाजवादी पार्टी की सरकार कानून व्यवस्था और सुरक्षा से जुड़े मामले पर पूरी तरह से विफल रही है. और जब सरकार से जुड़े लोग ही गुंडागर्दी पर उतर आएं तो फिर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. सर्वसमाज के विकास के मायावती और बसपा के संकल्प ने भी उत्तर प्रदेश में माहौल बसपा के पक्ष में किया है. पार्टी के एक दलित कार्यकर्ता द्वारा फेसबुक पर ब्राह्मण समाज के खिलाफ उग्र टिप्पणी करने पर मायावती ने उसे पार्टी से बाहर कर दिया. उनके इस कदम की आलोचना भी हुई लेकिन इससे बेफिक्र मायावती ने साफ कर दिया कि उनकी सोच किसी दूसरे वर्ग के खिलाफ नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलना है. हालांकि धर्म और पाखंड पर मायावती ने 14 अप्रैल को लखनऊ में दिए अपने भाषण में करारा प्रहार किया था. उन्होंने साफ कहा था कि दलितों का असली तीर्थ स्थल काशी और मथुरा नहीं बल्कि लखनऊ का यह सामाजिक परिवर्तन स्थल है, जो बहुजन महापुरुषों की स्थली है. इन सारे तथ्यों के बावजूद उत्तर प्रदेश में बसपा की कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि दलित और पिछड़ा समाज बसपा के पक्ष में कितना खड़ा होता है. क्योंकि लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज बहुजन समाज पार्टी को झटका दे चुका है. तमाम दावों और तैयारियों के बावजूद जमीन पर बसपा की चुनौती दलित-पिछड़े वोटरों को एकजुट करना होगा. यहां उसे भाजपा से चुनौती मिल सकती है, क्योंकि यादव वोट सपा को जाने के बाद पिछड़े वर्ग के अन्य समूहों के वोटों पर भाजपा की भी नजर है. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूत ऐसे दो वर्ग हैं, जिन पर बसपा और भाजपा दोनों का दावा है. बसपा का ज्यादातर दारोमदार असल में दलित-पिछड़े वोटरों पर निर्भर है. बसपा की जीत के लिए इन दोनों समाज के वोटरों का बसपा के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना जरूरी है. लेकिन जाति-धर्म और चुनावी गणित से इतर बसपा के पक्ष में सबसे मजबूत बात पार्टी की मुखिया मायावती का कड़ा प्रशासन है. उत्तर प्रदेश में सपा सरकार में जिस तरह कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही है, सबकी जबान पर सिर्फ एक नाम मायावती ही है. चुनावी सर्वे में यही बात बहुजन समाज पार्टी के पक्ष में जा रही है और उसे बढ़त दिलवा रही है. वैसे तो उत्तर प्रदेश के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के अलावा समाजवादी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस पार्टी चुनाव लड़ रही है लेकिन यहां राजनीति के केंद्र में सिर्फ बसपा है. हर राजनीतिक दल बसपा को केंद्र में रखकर ही अपनी रणनीति बना रही हैं. भाजपा सहित तमाम दल चुनाव के पहले आक्रामक प्रचार में जुटेंगे. बसपा को इस चुनौती का सामना करना होगा और अपने वोटरों पर मजबूत पकड़ बनाए रखना होगा. चुनावी बिसात में बसपा बढ़त बनाए हुए है. उसके लिए चुनाव होने तक इस बढ़त को जारी रखने की चुनौती होगी.

सम्राट अशोक और डॉ. अम्बेडकर के सपनों का भारत

ठीक से तो याद नहीं लेकिन शायद जब हम चौथी या पांचवीं में पढ़ रहे थे; तब पहली बार डॉ. अम्बेडकर का नाम सामने आया था. हम रट्टा मारा करते थे कि भारत का संविधान किसने बनाया और जवाब में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम याद करते थे. तब हमारे जहन में अम्बेडकर माने संविधान निर्माता बैठ गया था. और मुझे पता है कि लाखों लोग बाबासाहेब को इसी रूप में याद करते होंगे. तब मुझे पता नहीं था कि यही डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक दिन मेरे लिए बाबासाहेब हो जाएंगे. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को आप जितना जानने की कोशिश करते हैं, उनकी महानता, उनके द्वारा देश के हर वर्ग के लिए किए गए काम को जानकर आप हैरत में पड़ते जाते हैं. अप्रैल महीना जाहिर तौर पर अम्बेडकरमय होता है, बल्कि मार्च में मान्यवर कांशीराम जी की जयंती के साथ ही अम्बेडकर जयंती की तैयारियां शुरू हो जाती है. यह बात बार—बार खटकती रहती है कि डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए, नौकरीपेशा लोगों के लिए, किसानों के लिए और हाशिए पर खड़े हर वर्ग की बेहतरी के लिए काम किया, बावजूद इसके उनको सिर्फ संविधान निर्माता के तौर पर ही क्यों पेश किया जाता रहा? उनके व्यक्तित्व को, उनकी महानता को कम करने की साजिश क्यों रची जाती रही? अब इन सवालों के जवाब मिलने लगे हैं. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और सोशल मीडिया पर चल रही बहसों ने अम्बेडकरी-फुले विचारधारा को साजिशन दबाकर रखने की वजहों पर से पर्दा हटा दिया है. बहुजन समाज के ज्यादातर लोगों द्वारा बाबासाहेब और जोतिबा फुले सहित तमाम बहुजन नायकों पर अपना अधिकार जताया जाता रहा है. जाहिर है कि ये हमारे पूर्वज हैं और हमलोग अम्बेडकर, फुले, पेरियार और कबीर परंपरा के लोग हैं और उन पर सबसे पहला हक हमारा है. लेकिन बदले वक्त में तमाम अन्य विचारधाराओं के लोग बहुजन नायकों को अपने मंच से लोगों के बीच रखने लगे हैं. यहां फर्क यह है कि बाबासाहेब सहित तमाम बहुजन नायकों की बात करते वक्त वो उन्हें अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश करते हैं. ऐसे में हमारा दायित्व भी बनता है कि हम बहुजन नायकों के जीवन से जुड़े उन तमाम पक्षों को तमाम मंचों से समाज के सभी वर्गों के बीच लेकर जाएं जिसने देश के हर आम इंसान की जिंदगी को बेहतर किया है. बाबासाहेब को संविधान निर्माता की सीमित भूमिका से निकाल कर उन्हें किसानों, महिलाओं, सरकारी कर्मियों और यहां तक की निजी सेवाओं में लगे लोगों के हितैषी के रूप में पुरजोर तरीके से स्थापित करने की जरूरत है. क्योंकि बाबासाहेब का काम किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं था. ‘दलित दस्तक’ और अन्य मंचों से प्रो. विवेक कुमार जी ने बाबासाहेब को ‘राष्ट्रनिर्माता’ के तौर पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसी तरह अब माता सावित्रीबाई फुले को देश की प्रथम शिक्षिका और उनके जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा भी बहुजनों के बीच शुरू हो गई है. हमें इस बात को और आगे बढ़ाना होगा. हमें बाबासाहेब, जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार, कबीर आदि समाज सुधारकों को उन सीमाओं से आजाद कराना होगा, जिसमें अब तक देश की सत्ता पर काबिज रहने वाले सत्ताधारियों ने उन्हें बांध रखा है. हमें बहुजन नायकों को देश की आम जनता के बीच स्थापित करना होगा. एक वक्त में सम्राट अशोक ने यही काम किया था. उन्होंने तथागत बुद्ध की विचारधारा को देश-दुनिया में पहुंचाने के लिए अपनी जिंदगी लगा दी. यहां तक की अपने बच्चों को धम्म प्रचार के लिए देश से बाहर भेज दिया. इस साल अप्रैल की 14 तारीख का महत्व और ज्यादा है, क्योंकि 14 अप्रैल को बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के साथ-साथ भारत के मानवतावादी और महान सम्राट अशोक की भी जयंती है. बाबासाहेब और अशोक महान दोनों ने एक ही सपना देखा था. सम्राट अशोक ने भारत को बुद्धमय बनाया था. भगवान बुद्ध के संदेश को प्रचारित प्रसारित करने के लिए 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया. जब भगवान बुद्ध का नाम भारत के इतिहास से मिटाने की साजिश रची जा रही थी, उसी समय बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने भारत में बुद्ध को आम जन तक पहुंचाया. जिस तरह भगवान बुद्ध का दिया धम्म संदेश हर आमजन के जीवन में बेहतरी लाता है उसी तरह बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा किया गए काम ने भी देश के हर व्यक्ति के जीवन को बेहतर किया और उनको विशेष अधिकार दिलवाया. इस वर्ष जब हम बाबासाहेब की जयंती मना रहे होंगे तो हमारे जहन में बाबासाहेब के साथ ही सम्राट अशोक के बुद्धमय भारत का ख्वाब भी रखना होगा.

बुद्धमय भारत के लिए निरंतर आंदोलन जरूरी

bheemबहुजन आंदोलन के लिए मार्च से लेकर मई तक तीन महीने बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. मार्च में इस देश में सालों तक राज करने वाले सत्ताधिकारियों की सत्ता का गणित बिगाड़ देने वाले मान्यवर कांशीराम जी की जयंती होती है. अप्रैल में बहुजन समाज और महिलाओं के मुक्तिदाता बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर की जयंती होती है जबकि मई महीने में बुद्ध पूर्णिमा होता है. अप्रैल में बाबासाहेब की जयंती मनी है. और इस बार की जयंती बेजोड़ मनी है. दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक और लखनऊ से लेकर पटना तक जैसे सभी अंबेडकरवादी 14 अप्रैल को अपने उद्धारक की जयंती मनाने के लिए सड़कों पर थे. कहावत के शब्दों में पूरे देश को समेटने की बात करें तो कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक बाबासाहेब ही थे. बात सिर्फ भारत तक ही खत्म नहीं हुई, बल्कि न्यू जर्सी से लेकर दुबई तक में बाबासाहेब की जयंती मनाई गई. 14 के अलावा भी अप्रैल महीने के हर शनिवार और रविवार को जयंती का कार्यक्रम ही छाया रहा. चलो जश्न तो हो गया, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि मई महीने से लेकर अगले साल मार्च महीने तक आप क्या करेंगे? क्या आप बाबासाहेब के बताए रास्ते पर चलेंगे, उनकी कही बातों को मानेंगे, या फिर उन्हें ताले में बंद कर अपनी उसी जिंदगी में लौट आएंगे जिसे आप कल तक जी रहे थे. यह बात हर किसी के लिए नहीं है लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि जयंती मनाने वाले ज्यादातर लोग दोहरी जिंदगी जीते हैं. वो अपनी सुविधा के हिसाब से ‘नमो बुद्धाय’ और ‘नमस्कार’ के बीच झूलते रहते हैं. यह सारी बातें इसलिए क्योंकि महज जयंती मनाने भर से बात नहीं बनने वाली. बात उसके उद्देश्यों को जीवन में आत्मसात करने से बनेगी. आपका और आपके बच्चों का भविष्य वो ग्यारह महीने का संघर्ष तय करेगा जो आप बाबा साहेब की जयंती के बीतने के बाद से अगली जयंती आने के बीच करते हैं. मई महीना इसलिए भी महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस महीने में दुनिया के तकरीबन 170 देशों में तथागत बुद्ध की जयंती मनाई जाती है. दुनिया उस महामानव को याद करती है जिसने प्रज्ञा, करुणा और शील का संदेश दिया. आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि उन्हें आधी दुनिया के लोग अपना ‘भगवान’ मानते हैं. आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि खूंखार डकैत अंगुलीमाल उनके सामने नतमस्तक हो गया, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि जापान जैसे देश उनके बताए रास्ते पर चलकर दुनिया के नक्शे पर चमकते रहते हैं, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि दुनिया के श्रेष्ठ विद्वानों में से एक डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने उनके रास्ते को चुना और अपने अनुयायियों को भी तथागत बुद्ध की शरण में जाने का निर्देश दिया, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि तमाम लोग ‘धम्म’ के रास्ते पर चलने के बाद ही शांति हासिल कर पाते हैं. इस सवाल का जवाब ढ़ूंढ़ने की जरूरत है, क्योंकि इसका जवाब आपको ‘अपने आप’ से मिलवाएगा. आप सोचने बैठेंगे तो यह सवाल भी आएगा कि जिस भारत देश से बुद्ध का संदेश दुनिया में फैला आखिर उस देश ने ही बुद्ध को पराया क्यों कर दिया? कहते हैं कि प्रजा उसी रास्ते पर चलती है जिस रास्ते पर उस देश का शासक हो. ऐसे में भारत के जिस शासक सम्राट अशोक ने खुद बौद्ध धम्म को अंगीकार कर लिया था, जाहिर है उसकी प्रजा भी उसी धम्म को मानने वाली होगी. फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि भारत देश बौद्ध धम्म से बिसर गया. इन सवालों को उठाने का मकसद बस इतना भर है कि जब आप इन सवालों का जवाब ढ़ूंढ़ने जाएंगे तो बौद्ध धम्म को मिटाने की साजिश स्वतः आपके सामने आ जाएगी. बाबासाहेब के तमाम अनुयायियों ने इन सवालों के जवाब ढ़ूंढ़ने शुरु कर दिए हैं. यही वजह है कि डॉ. आम्बेडकर द्वारा भारत में पुर्नजीवित किए जाने के बाद बौद्ध धम्म लगातार अपने पैर पसार रहा है. कालांतर में साजिश के तहत इस धम्म से बिसरा दिए गए लोग अब वापस अपने धम्म की शरण में आने लगे हैं. सत्ता और धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में यह बात साबित हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में तमाम बहुजन नायकों सहित बुद्ध को स्थापित करने में बसपा की भूमिका अपने आप में अद्वितीय है. यह देश भी पहले की तरह ‘बुद्धमय’ तभी हो सकेगा जब इस देश में सत्ता के शीर्ष पर बाबासाहेब और भगवान बुद्ध के अनुयायी बैठेंगे. इसके लिए पूरे साल बाबासाहेब के बताए रास्ते पर बढ़ते रहने का आंदोलन चलाना होगा. जयंती के बीतने के बाद आंदोलन रुकना नहीं चाहिए.

हमें भी तुम्हारी देशभक्ति का सबूत चाहिए

कांशीराम जी कहा करते थे कि बहुजन समाज को एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि जब कभी भी ”ब्राह्मण समाज” देश संकट में है ऐसा कह कर शोर मचाये तो आपको समझ जाना चाहिए कि ”ब्राह्मण” सामाजिक तौर पर अकेला पड़ गया है. ऐसी स्थिति में वह अपनी रक्षा के लिए 3% से 90% बनने के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद का कवच या मुखौटा लगा लेता है. परन्तु जैसे ही उसके ऊपर से वह खतरा टल जाता है; वह फिर से जातिवाद का जहर घोलने मे लग जाता है. मौजूदा हालात को समझने के लिए कांशीराम जी का यह कथन अपने आप में पर्याप्त है. इन दिनों जिन लोगों द्वारा राष्ट्रभक्ति का स्वांग रचा जा रहा है, और जो लोग विरोधी विचारधाराओं से जुड़े लोगों को देश का दुश्मन बताने चले हैं, असल में देश, तिरंगा और संविधान के प्रति उनकी सोच क्या है, यह छुपी हुई बात नहीं है. उन्हें आज तक देश की गरीबी पर गुस्सा नहीं आया, उन्हें हर रोज महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कार पर गुस्सा नहीं आया, उन्हें जातिवाद पर गुस्सा नहीं आया. उन्हें उन पूंजिपतियों पर गुस्सा नहीं आया जो देश के करोड़ो रुपये डकार कर बैठे हैं. इन्हें गुस्सा सिर्फ तब आता है जब कश्मीर की बात होती है. इन्हें गुस्सा तब आता है जब मुसलमानों की बात होती है. इन्हें गुस्सा तब आता है जब इस देश के दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक और गरीब किसान अपने हक की बात करते हैं. असल में इन्होंने कश्मीर और मुसलमानों को अपनी राजनीति का हथियार बना रखा है और जब भी इनकी राजनीति भोथरी होती है, उसे चमकाने के लिए वो कश्मीर और मुसलमानों के बहाने देश का मुद्दा उठाना शुरू कर देते हैं. और जब इससे भी दाल नहीं गलती तो ये किसी विश्वविद्यालय के छात्र को भी जबरन इस्तेमाल करने से नहीं चूकते. जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया के साथ इन्होंने यही किया है. असल में कन्हैया के बहाने ये रोहित वेमुला की चिता से उठी आग की लपटों को शांत करने में जुटे हैं. ये सारी कहानी जनवरी की 17 तारीख को हैदराबाद विश्वविद्यालय से शुरू हुई, जब उन्होंने रोहित वेमुला को गले में रस्सी बांधकर झूलने को विवश कर दिया था. इसके विरोध में देश भर का सारा बहुजन समाज और इंसाफ पसंद लोग रोहित के पक्ष में आकर खड़े हो गए. देश भर के विश्वविद्यालयों से रोहित को इंसाफ दिलाने की मांग उठने लगी. जब रोहित के गले का फंदा चुनाव हारने के बावजूद ठसक से देश की शिक्षा मंत्री बन कर बैठी 12वीं पास स्मृति ईरानी के गले की फांस बनने लगा तो सरकार में कोहराम मच गया. दलितों को छेड़ कर यह सरकार फंस चुकी थी और उसे निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था. लेकिन तभी जेएनयू में हुए एक प्रकरण ने देश की सत्ता में बैठे लोगों को मौका मुहैया करा दिया और संविधान को ना मानने वाले लोग कथित तौर पर देश को ना मानने वाले लोगों से भिड़ गए. इस भिड़ंत ने उन्हें देशभक्ति और राष्ट्रवाद के अपने पसंदीदा नारे को उछालने का भरपूर मौका दिया. हाथों में तख्तियां लिए रोहित वेमुला के लिए इंसाफ की मांग कर रहे युवाओं के हाथ में इन्होंने तिरंगा पकड़ाने की कोशिश की. एक वक्त ऐसा भी आया जब लगा कि इस शोरगुल में रोहित वेमुला के लिए न्याय की मांग धीमी पड़ने लगी है, लेकिन अब बहुजन समाज के युवाओं को कथित देशभक्तों की यह चाल समझ में आने लगी है. बहुजनों को एक बार फिर रोहित वेमुला को इंसाफ दिलाने की अपनी मांग पर लौटना होगा, क्योंकि सिर्फ रोहित को फांसी पर झूलने के लिए मजबूर नहीं किया गया, बल्कि रोहित के साथ बहुजन समाज के उन हजारों-लाखों युवाओं में दहशत फैलाने की कोशिश की गई जो उच्च शिक्षा हासिल कर देश और समाज के लिए कुछ करने का सपना संजोते हैं. अप्पाराव, बंडारू दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी जैसे लोगों ने यह खौफ पैदा करने का जिम्मा ले रखा है. फेसबुक, ट्विटर और इन जैसे तमाम सोशल साइट्स एक खास समाज और वर्ग के लोगों में भरे जहर को सामने ला रहा है. रोहित की मौत के बाद वो जिस तरह रोहित को गलत ठहराने में जुटे हैं वह हैरत में डालने वाला है. हर दलित की मौत के बाद होने वाले विरोध को राजनीति का हिस्सा बताया जाता है. मैं कहता हूं कि दलितों को ही क्यों मारा जाता है या फिर उन्हीं को मरने के लिए क्यों मजबूर किया जाता है? क्या पानी का मटका छूने पर किसी तथाकथित सवर्ण के हाथ काटे गए हैं? क्या अपनी शादी में घोड़ी पर चढ़ने की वजह से किसी सवर्ण के साथ मारपीट की गई है? क्या किसी सवर्ण आबादी की बस्तियों को रातों रात आग लगाई गई है? मिर्चपुर, खैरलांजी और भगाणा जैसी घटनाएं दलितों के साथ ही क्यों होती है? रोहित की मौत के बाद उठा गुस्सा इन सभी घटनाओं के बाद दबे हुए गुस्से का परिणाम है. और यह महज दलितों का ही गुस्सा नहीं है, बल्कि यह विरोध समाज के हर उस सभ्य व्यक्ति की ओर से हो रहा है; जो सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत रखता है. और अगर समाज नहीं संभला तो इस विरोध की गूंज बढ़ती जाएगी. एक खास किस्म के देशभक्तों और राष्ट्रवादियों से मेरे दो सवाल हैं. अगर तुम इतने बड़े देशभक्त हो तो सबसे पहले नागपुर में भगवे के ऊपर तिरंगा फहरा कर दिखाओ. और अगर तुम्हें सच में इस देश के संविधान पर गर्व है तो जयपुर हाईकोर्ट में लगी मनु की उस मूर्ति को जमींदोज कर दो जो इस देश के संविधान को मुंह चिढ़ाता है. क्योंकि जब तुम लोगों के गिरेबां पकड़ कर उनसे देशभक्ति का सबूत मांग रहे हो तो सबूत मांगने का हक हमें भी है.

जीत पक्की है, बस लड़ाई शुरू करना है

vemulaरोहित ने आत्महत्या कर ली है. रोहित होनहार छात्र था, आम्बेडकरवादी था, बावजूद उसने आत्महत्या कर ली, इस बात से मैं परेशान हूं. तमाम लोग रोहित के जाने को शहादत मान रहे हैं, मैं उसे लड़ाई से भागना मान रहा हूं. हो सकता है कि वो ज्यादा परेशान हो, लेकिन रोहित के साथ निकाले तो चार अन्य छात्र भी गए थे. वो तो लड़ रहे हैं. फिर आखिर रोहित ने क्योंकर हार मान लिया. हालांकि मेरा इस बात पर भी संदेह है कि रोहित ने आत्महत्या की है. इस तथ्य को मैं शक की नजर से देख रहा हूं. तमाम लोग कह सकते हैं कि दलित समाज पर काफी जुल्म होते हैं और रोहित उसी जुल्म का शिकार हुआ है. जो लोग सिर्फ दलित समाज की बेहाली का रोना रोते हैं, उनसे मुझे हमेशा से चिढ़ रही है. आप लोगों ने भी कभी न कभी इस कहावत को सुना होगा कि “यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि गिलास आधा खाली है या फिर आधी भरी हुई.” मैं हमेशा से ही गिलास के आधे भरे हिस्से को महत्व देता हूं. शायद यही सोच काम करने की ताकत भी देती है. जब कोई मुझसे यह कहता है कि वंचित और शोषित समाज की स्थिति काफी बुरी है तो उसके जवाब में मैं यह कहता हूं कि हजारों साल की गुलामी के बाद महज 7 दशक में ही जो समाज प्रताड़ित करने वाले समाज को चुनौती देने की स्थिति में आ जाए वह कमजोर कैसे हो सकता है.? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सब कुछ ठीक हो गया, लेकिन मैं ठीक होने की गति को देखकर काफी आशान्वित हूं. मैं इस स्थिति को बहुत बड़ा अजूबा मानता हूं. यह वंचित समाज की मेहनत, कमर्ठता और जिद्द है, जिसके बूते वह तेज गति से आगे की ओर दौड़ रहा है. देश की अर्थव्यवस्था, शिक्षण केंद्र, राजनीति और न्याय व्यवस्था में जन्म से ही आरक्षण लेकर पैदा हुए देश की आबादी में मौजूद ‘मुट्ठी भर’ लोगों ने जिस तरह सत्ता के तमाम केंद्रों पर कब्जा किया हुआ है, वहां पहुंच कर उन्हें चुनौती देने का जज्बा यही वंचित समाज दिखा रहा है. दलित अत्याचार के विरोध को लेकर भी यही स्थिति है. हर रोज घटने वाली अत्याचार की घटनाओं के बीच अब सबकुछ चुपचाप सहने की बजाय जिस तरह लोग विरोध में सामने आ रहे हैं, वह भी गौर करने वाली बात है. हालांकि विरोध का स्तर अभी और तेज होना है और मेरा मानना है कि जैसे जैसे यह समाज शिक्षित और आत्मनिर्भर होगा, विरोध का स्तर जरूर बढ़ेगा. देखने में यह भी आ रहा है कि दलित अत्याचार के खिलाफ अब लोगों ने संगठित होकर लड़ना शुरू कर दिया है. हाल ही में मध्यप्रदेश की सड़कों पर ‘मेघ सेना’ के सैकड़ों लोगों ने संगठित होकर रोड शो के द्वारा अपनी ताकत का प्रदर्शन किया. आने वाले दिनों में इस संगठन का प्रभाव देखना बाकी है. लेकिन इस संगठन ने ‘दलित पैंथर’ की याद को ताजा कर दिया है, जिसने एक समय में नामदेव ढ़साल की अगुवाई में महाराष्ट्र में सामंतवादियों में दहशत पैदा कर दिया था. तमाम मौकों पर देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय अन्य संगठनों की बात सामने आती रहती है. यानि आज का युवा एकजुट हो रहा है. जो विरोध करने की स्थिति में है, वह विरोध कर रहा है और जो नहीं है वो छटपटा तो जरूर रहा है. एक छटपटाहट बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के विरोधी विचारधारा वाले लोगों में भी है. इस छटपटाहट की वजह यह है कि जैसे जैसे बाबासाहेब के लोग मजबूत होंगे, विरोधी विचारधारा के लोग कमजोर होंगे. शह मात के इसी खेल में बाबासाहेब के विरोधी अब अपने मुंह पर बाबासाहेब का मुखौटा पहनकर उनके अनुयायियों के बीच जा रहे हैं. सिक्के जारी करने से लेकर सेल्फी तक खिंचाई जा रही है. और ‘फिक्की’ से आगे निकलने की होड़ में जो बड़े-बड़े उद्योगपति अभिभूत दिख रहे हैं वो कुछ दिन पहले तक किसी ‘दूसरे’ दरवाजे पर भी यूं ही हाथ बांधे खड़े थे. खैर यह उद्योगपतियों की फितरत होती है और पैसा कमाना उनका अधिकार. खैर, किसी के ‘अधिकार’ पर ऊंगली उठाने का मेरा कोई इरादा नहीं है. लेकिन आम अम्बेडकरवादी को सचेत करना भी जरूरी है. आने वाले दिनों में यह सब और बढ़ने वाला है. वजह उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा के चुनाव है, जहां सीधे सीधे बाबासाहेब के अनुयायियों और बाबासाहेब के विरोधियों के बीच मुकाबला होना है. एक बार फिर गिलास के आधा भरे हिस्से की बात. यह खुशी तो देता है लेकिन चिंता का विषय यह भी है कि यह कहीं न कहीं स्थिर जैसा है. देश के विभिन्न हिस्सों से एकजुटता की खबर तो आ रही है. सफलता और संघर्ष की कहानियां भी सुनने को मिलती है लेकिन यह प्यासे के मुंह में पानी की कुछ बूंद जैसा है. यहां सफल और आत्मनिर्भर लोगों का दायित्व बनता है कि वह समाज के पिछड़े हिस्से को आगे लाने में अपनी भागीदारी निभाए. यह एक और तरीके से लाई जा सकती है. देश और विभिन्न प्रदेशों में बाबासाहेब की विचारधारा वाले राजनीतिक दल को सत्ता में लाकर इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जा सकता है. ध्यान रखने की बात यह है कि डॉ. अम्बेडकर को मानने वालों को एकजुट रहना होगा. क्योंकि जिस विचारधारा को बाबासाहेब वर्षों पहले खारिज कर चुके हैं, वह कभी हमारी हितैषी नहीं हो सकती. बाबासाहेब के सिपाहियों को चाहिए कि वो सिक्के और सेल्फी में ना फंसे. ‘शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, जाल में फंसना मत.’ मुझे यकीन है कि बचपन की यह कहानी भ्रम को दूर करने के लिए काफी होगी.

50 बहुजन नायक

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हिंदुत्व की राजनैतिक ताकतों को हराने के लिए बसपा अंतिम विकल्पः भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी राजस्थान के प्रगतिशील दलित आंदोलन के एक प्रमुख स्तम्भ है और आज के हालातो पर उनकी लेखनी बेबाक जारी है. उन्होंने देश भर के जन आंदोलनों के साथ लगातार हिस्सेदारी की है और गांव-गांव साम्प्रदायिकता, जातिवाद, महिला हिंसा, वैश्वीकरण, विस्थापन आदि के प्रश्नों पर जनजागरण किया है. राजस्थान में भीलवाड़ा जिले के एक छोटे से गांव सिरडीयास में 25 फरवरी 1975 को दलित बुनकर परिवार में जन्मे भंवर मेघवंशी को महज 13 साल की उम्र में ही कट्टरपंथी आर एस एस जैसे संगठन ने अपने साथ जोड़ लिया ,जिसके साथ उन्होंने तकरीबन पांच साल तक सक्रिय रूप से काम किया .वे अपने गांव की शाखा के मुख्य शिक्षक रहे ,बाद में कार्यवाह बने और अंततः जिला कार्यालय प्रमुख के पद तक भी पंहुचे .उन्होंने बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए हुई पहली कारसेवा में भी शिरकत की, मगर अयोध्या पंहुचने से पहले ही गिरफ्तार हुए तथा 10 दिन आगरा की जेल में रहे. बाद में एक घटना से उनका आरएसएस की दलित विरोधी सोच और नफरत एवं कट्टरता की विचारधारा से मोहभंग हो गया और उन्होंने संघ से अपना नाता तोड़ लिया और खुलकर आरएसएस का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया . आरएसएस छोड़ने के बाद मेघवंशी ने एक फुल टाइम कार्यकर्ता के रूप कौमी एकता, भाईचारे और शांति एवं सद्भाव के लिए काम शुरू किया जो आज तक जारी है. उन्होंने 2002 में गुजरात में हुए अल्पसंख्यकों के नरसंहार के विरुद्ध जमकर आवाज उठाई, गुजरात पीड़ितों के लिए बने पीपुल्स ट्रिब्यूनल के सदस्यों के साथ दस्तावेजीकरण किया और लेख लिखे. साम्प्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ जमकर संघर्ष करते हुए उन्होंने 2000 से वर्ष 2012 तक डायमण्ड इंडिया नामक मासिक पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन किया. भंवर मेघवंशी ने एक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सदैव अपनी कलम शांति, आपसी सद्भाव, भाईचारे और सोहार्द्र के लिए काम किया. उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में व्याप्त स्टीरियो टाईप मिथ्स को तोड़ने और सच्चाई को सामने लाने का काम किया है. भंवर जी से आज के ज्वलंत प्रश्नों पर मैंने विस्तारपूर्वक बातचीत की जो यहां प्रस्तुत है. -भंवर जी, आज के दौर में दलित आंदोलन की सबसे बड़ी चुनौती क्या है ? भंवर मेघवंशी: आज दलित आन्दोलन को कई प्रकार की चुनोतियों को झेलना पड़ रहा है, यह बाहरी चुनौतियां भी है और भीतरी भी. जिस प्रकार से साम्प्रदायिक शक्तियां दलित आन्दोलन को हजम कर रही है, वह चिंताजनक स्थिति है. आज बड़े पैमाने पर दलित नेतृत्व संघ भाजपा द्वारा बिछाये गए जाल में फंस गया है. सत्ता का झूठा लालच देकर उनकी जुबानें बंद कर दी गई है. दलितों के चुने हुए प्रतिनिधि दलितों की बात नहीं करते. नौकरशाही ओर सत्ता में बैठे लोग दलित आवाजों के दमन में लगे हुये है. अभी संघ का एक एजेंडा चल रहा है कि या तो अपने साथ ले लो, अगर नहीं आये तो उन्हें फंसा दो. इस तरह हम देख रहे है कि दलितों का दमन और तीव्र होता जा रहा है. दलित आन्दोलन अपनी स्वाभाविक उग्रता को खो रहा है, वह कई बार भ्रमित नजर आता है, उसे समझ नहीं आता है कि वो किनके साथ खड़ा हो. उसे अपने दोस्तों और दुश्मनों की शिनाख्त करने में आज काफी मुश्किल हो रही है. समुदाय के बीच में पनप आये दलाल लोगों ने आन्दोलन की मूल भावना को ही विकृत कर दिया है. अधिकांश दलित लीडर उम्र के थका देने वाले पड़ाव पर पंहुच गए है. चुनौतियां बेहद नई है ओर समाधान पुरातन है. नई पीढ़ी का दलित आन्दोलन कुछ अलग चाहता है, पर उसे दिशा नहीं मिल पा रही है. भीतरी चुनौतियां भी उभर रही है, दलितों के मध्य के जातिय अंतर को अब जातिवाद का रूप दिया जा रहा है. कई दलित जातियां स्वयं को इस हद तक मजबूत करने में लगी है कि उन्होंने जाति उच्छेद के काम से लगभग मुंह ही मोड़ लिया है. दलित समुदाय के भीतर जातियों को मजबूती देने का काम जाति तोड़ने के बड़े उद्देश्य की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा बनकर उभर रहा है. यह हमारे आन्दोलन को कमजोर बना रहा है. संघ की विघटनकारी राजनीति के लिए यह स्थिति मुफीद है, इसलिए वो दलितों के मध्य के छोटे मोटे फर्क को दुश्मनी के स्थायी भाव में बदलने की कोशिश में लगा रहता है. -रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद लगा के अम्बेडकरी और वामपंथी ताकते साथ आएंगी लेकिन JNU के चुनावों ने दोनों के बीच में खायी को और बड़ा बना दिया है. आप क्या सोचते हैं इस सन्दर्भ में? भंवर मेघवंशी: हां यह बात सही है कि रोहित वेमुला के सांस्थानिक मर्डर के बाद अम्बेडकरी और वामपंथी ताकतें एक साथ आई. जय भीम ओर लाल सलाम का नारा एक साथ गुंजायमान हुआ. उम्मीद जगी कि यह जुगलबंदी आगे बढ़ेगी. यह समय की मांग भी रही. यह संतोष का विषय रहा कि भारत के वामपंथियों ने जाति के सवाल को स्वीकारना शुरू किया और वे अम्बेडकरवादी आन्दोलन के साथ खड़े दिखाई देने लगे. मगर हाल ही में जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव में लेफ्ट यूनिटी और बापसा के आमने सामने आने से लोगों को लगा कि रोहित के मामले में बनी एकता ख़त्म हो गई है. जिस पर कई लोगों ने चिंता व्यक्त की है, लेकिन मैं थोड़ा अलग तरह से इस पूरे घटनाक्रम को देखता हूं. हमें समझना होगा कि भारत के वामपंथी कभी भी अम्बेडकरवादी समूहों के स्वाभाविक दोस्त नहीं रहे है, सदैव ही ये दो धाराएं रही है. रोहित के मुद्दे पर ये सडकों पर संघर्ष में एक साथ थे. इसका मतलब यह तो नहीं कि उनके मध्य कोई वैचारिक एकता बन गई. मेरे ख्याल से वह एक मुद्दे पर तात्कालिक एकता थी, जिसे एक न एक दिन खत्म होना ही था. फिर ऐसे मुद्दे आयेंगे तो ऐसी क्षणिक एकता फिर से बनेगी ओर बिगड़ेगी भी. रही बात जेएनयू चुनाव की तो इसे विचारधाराओं के संघर्ष के रूप में देखना अभी जल्दबाजी होगी. इससे वामपंथियों को अपने भीतर देखने का मौका मिलेगा. बापसा और लेफ्ट यूनिटी को न्यूनतम सांझे मिलन बिंदु ढूंढने चाहिए. चुनावी संघर्ष दोस्त ओर दुश्मन की विभाजक रेखा नहीं बननी चाहिए. -वामपंथियो ने तो बहुत गलतियां की है. न केवल जाति की स्वीकार्यता के विषय में बल्कि वर्ग चरित्र में भी उनका नेतृत्व कभी भी गरीबो के हाथ में नहीं था. लेकिन जब हम राजनैतिक आंदोलन करते है तो हर एक आंदोलन की एक स्वस्थ आलोचना होनी चाहिए क्योंकि अगर हम सभी में कमिया नहीं होती तो ब्राह्मणवाद कभी इतना मज़बूत नहीं होता. इसलिए ये भी जरुरी है के अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनों के जो विभिन्न ध्रुव है उनकी भी कमियों और अवसरवाद पर बोला जाये. आज का समय केवल कम्युनिस्टों की कमी निकालने से नहीं होगा बल्कि स्वस्थ रूप से सभी सम्बंधित आंदोलनों के कमियों को समझकर एक नए आंदोलन की रुपरेखा बनाने का होना चाहिए. भंवर मेघवंशीः आपकी बात से मेरी सहमति है कि आज का वक्त सिर्फ वामपंथियों की कमियां निकालने का नहीं है, पर सवाल जरुर उठाये जाने चाहिए .इसका जवाब कौन देगा कि वामपंथियों ने जाति के सवाल को कालीन के नीचे क्यों दबाये रखा आज तक ,उनके यहाँ नेतृत्व में दलित आदिवासी लोग क्यों नहीं आगे आ पाए. आप वर्ग की बात तो करेंगे लेकिन वर्ण की बात को नहीं स्वीकारेंगे यह नहीं चल सकता है. आप गरीबी का ढोल तो पीटेंगे मगर जाति की तरफ से आंख मूंद लेंगे ,यह नहीं चल सकता है .भारतीय  वामपंथ को ईमानदारी से इस देश के परिप्रेक्ष्य में उसी तरह से ब्राह्मणवाद से भी लड़ना होगा ,जिस तरह वे पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ने की बात करते है . मुझे भी लगता है कि दलित बहुजन आन्दोलन को भी अपने भीतर झांकना होगा ,अगर वह अपनी स्वस्थ आलोचना स्वयं कर सके तो उसके हक़ में यह बहुत अच्छा होगा ,अम्बेडकरी आन्दोलन को भी अपने जातिवादी चरित्र से छुटकारा पाना होगा तथा उसे ब्राह्मणवाद से भी बचना होगा . -दलित बहुजन आंदोलन की बहुत चर्चा होती है लेकिन उसका मेल बिंदु केवल गैर ब्राह्मणवाद है. दोनों ध्रुवो को साथ आने के लिए क्या कोई सकारात्मक कार्यक्रम की जरूरत नहीं है. जैसे कम्युनिस्तो ने जाति को नहीं माना वैसे ही अगर हम ये सोच ले के बहुजन ध्रुवीकरण के अंदर सारे तत्त्व एक से हैं तो बहुत बड़ी भूल होगी. बाबा साहेब ने जातियो के वर्गीकरण के बारे में साफ़ कहा था के ये ””ग्रेडेड इनएक्वलिटी”” है, हर एक जाति एक एक ऊपर चढ़ी है और अपने को दूसरे से बड़ी मानती है. अपने आपसी संबंधों के बारे में जब हमारी समानता का कोई सिद्धांत नहीं बनेगा तो एकता कैसी ? भंवर मेघवंशी: दलित बहुजन एकता के सारे तत्व एक से नहीं है, सिर्फ मंचीय ध्रुवीकरण परिलक्षित होता है जो गाहे बगाहे ब्राह्मणवाद को कोसते रहते है. मगर इस मिलन बिंदु से आज कुछ भी उम्मीद नहीं लगाई जा सकती है. बहुजन विचार में शामिल जो पिछड़ा तबका है, वह आज मनुवाद का सबसे बड़ा संवाहक बना नजर आता है. पाखंड, पूजा पाठ तथा धर्म कर्म में आकंठ डूबा हुआ. वह जो आज ब्राह्मणवाद का हरावल दस्ता है, उससे ब्राह्मण से लड़ने की उम्मीद करना बचकानी बात होगी. दलित अत्याचार के प्रकरणों को उठाकर देखिये कई इलाकों में 90 प्रतिशत मामलों के मुख्य अभियुक्त ओबीसी से आते है. जो पिछड़ा रोज दलित को जूता मार रहा है, उसके साथ कैसी एकता? धरातल के हालात तो बेहद भयंकर है ओर हमारे आसमानी नेता है जो कभी दलित पिछड़ा एकता ओर कभी मूलनिवासी एकता का राग अलापते रहते है. बहुजन ध्रुवीकरण एक कोरी कल्पना है. अब तो बहुजन के नाम से जाने जाने वाले संगठन ही ब्राह्मण नेता चलाते है. पिछड़े जब तक मनुवाद के अग्रिम मोर्चे पर खड़े दिखेंगे ओर दलितों पर अत्याचार करेंगे तब तब वे हमारे उतने ही बड़े दुश्मन है ,जितने कि कथित उच्च वर्णीय लोग है. -रोहित वेमुला के मामले को मीडिया ने बहुत उछाला. बहुतो को लगा शायद अब मीडिया दलित प्रश्नों पर बहुत संवेदनशील हो गया है लेकिन डेल्टा मामले को तो लगभग दबा दिया गया.  अभी गांवों में बहुत क्रूर घटनाक्रम होता है और मीडिया भूल जाता है. भागना के लोग पिछले 4 वर्ष से आंदोलन कर रहे हैं लेकिन अभी भी न्याय के इंतजार में हैं और अब उनके पास न दलित संगठन आते न वामपंथी? मीडिया तो खैर गया ही नहीं? क्यों हो रहा है ऐसा? भंवर मेघवंशीः रोहित के मामले को मुख्यधारा मीडिया ने कोई खास तव्वजो दी हो ऐसा मैं नहीं मानता, हां जब सोशल मीडिया ने इस मुद्दे को बहुत बड़ा बना दिया तब प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक माध्यमों ने अपने जातिवादी चरित्र के मुताबिक नेगेटिव रिपोर्टिंग शुरू की. रोहित की जाति पर भ्रम पैदा किया, उसे गोमांस भक्षी देश विरोधी तत्व के रूप में निरुपित किया. हर संभव कोशिश यह की कि कैसे भी करके रोहित वेमुला को बदनाम कर दिया जाये, लेकिन अच्छा यह हुआ कि वैकल्पिक मीडिया ने इस मनुवादी मीडिया को धूल चटा दी ओर वे रोहित के मामले को दबा नहीं पाये. रही बात डेल्टा मेघवाल मामले की, तो यहां भी मीडिया की भूमिका नकारात्मक ही रही. पहले डेल्टा का चरित्र हनन का प्रयास हुआ और बाद में मामले को ठन्डे बस्ते में फेंक दिया. रोहित के मामले में आरोपी सरकारी लोग थे, मगर डेल्टा के मामले में विज्ञापन देने वाले समुदाय के लोग थे. जिनका अखबारों ओर टीवी चैनल्स पर मालिकाना हक है, उन्हीं की जमात के लोग जब आरोपी बने तो मीडिया उनके आगे पूंछ हिलाने लग गया. दलितों पर होने वाले अत्याचार सेक्सी स्टोरी नहीं होते. दलित महिलाओं का बलात्कार जातिवादी मीडिया की संवेदनाओं को नहीं जगाता. भगाना हो चाहे डांगावास, डेल्टा हो या उना दलित अत्याचार, सिर्फ सोशल मीडिया ही इन मुद्दों को आगे बढ़ा रहा है. वैसे भी मीडिया ज्ञापन देने वालों से ज्यादा विज्ञापन देने वालों की परवाह करता है. -आप तो राजस्थान के बहुत से आंदोलनों से जुड़े रहे हैं जैसे मज़दूर किसान शक्ति संगठन, भोजन का अधिकार अभियान, पीयूसीएल इत्यादि. क्या तथाकथित मुख्यधारा के आंदोलनों में दलितों की जगह बची है या उनका केवल एक लेबल की तरह इस्तेमाल हो रहा है? भंवर मेघवंशी: मुख्यधारा की किसी भी चीज़ में दलितों के लिए कभी जगह नहीं थी और न ही आज है. सभी जगह दलित सिर्फ दिखाने की वस्तु भर होते है. सामाजिक आंदोलनों का चरित्र भी इससे भिन्न नजर नहीं आता. कहीं पर भी स्वतंत्र दलित नेतृत्व को स्वीकारा नहीं जाता. पिछलग्गू दलित सबको प्रिय है, बोलनेवाले. सवाल उठानेवाले दलित कहीं भी पसंद नहीं किये जाते. मेरा मानना है कि सिविल सोसाइटी को भी लोकतान्त्रिक और समावेशी बनना होगा तथा दलितों को सिर्फ लेबल की तरह इस्तेमाल करने से बचना होगा. -राजस्थान में अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनों की क्या स्थिति है। भंवर मेघवंशी: राजस्थान पारम्परिक रूप से एक सामन्ती स्टेट रहा है. यहां विद्रोह की कोई भी सामाजिक राजनीतिक या सांस्कृतिक धारा नहीं रही है. यहां तक कि भक्तिकाल में भी यहां कबीर या रैदास जैसे लोग नहीं पैदा हुए. यहां तो दास्य भाव शाश्वत रहा है. तो मानसिक दासता सदियों से बरकरार रही है. दलित मुक्ति की लड़ाई में भी राजस्थान का योगदान नगण्य रहा है. पूना पैक्ट के वक़्त राजस्थान के कतिपय दलित नेता बाबा साहब के विरोध में पर्चे बांट रहे थे. यहां कबीर, फुले और अम्बेडकर के दलित के बजाय गांधी के हरिजन और पार्टियों के बंधुआ दलित लीडर ही ज्यादा रहे है. आज़ादी के बाद हेडगेवार-गोलवलकर के भक्त दलित ओर गांधी नेहरु को पूजने वाले दलितों के हाथ में दलित आन्दोलन की बागडोर रही. फिर समाजवादी किस्म के राजनीतिक दलित आन्दोलन पैदा हुये, जिन्होंने सामाजिक न्याय के नारे तो लगाये. पर उसके नेतृत्व में वही जातियां प्रमुखता से आगे रही जो शोषक जमातें थी. 1992 में कुम्हेर भरतपुर में दलितों के सामूहिक नरसंहार के बाद राजनीती से परे एक दलित आन्दोलन उभरने लगा ,जो बाद में एनजीओकरण का शिकार हो गया. प्रोजेक्ट बेस्ड दलित आन्दोलन ने भी दलित आन्दोलन की स्थितियां ख़राब की है. आज राजस्थान का दलित आन्दोलन बिखराव का शिकार है. व्यक्तिवादी अहम की लड़ाइयों के चलते कई छोटे छोटे खेमे बन गये है. कुछ लोग तो दलित के नाम पर सिर्फ अपनी जाति या परिवार का समूह बना बैठे हैं जबकि आज राजस्थान दलित अत्याचार, छुआछुत और भेदभाव का सबसे बड़ा गढ़ बन गया है. पर संतोष की बात यह है कि डांगावास दलित संहार के पश्चात दलित युवा पीढ़ी ने स्वतः स्फूर्त आन्दोलन खड़ा किया तथा संघर्ष कर विजय पाई है. राजस्थान के दलित युवा आन्दोलन ने अपने खामोश राजनीतिक नेतृत्व को पूना पैक्ट की खरपतवार करार दिया है तथा जातिवादी समूहों को भी नकारने का काम किया है. सामाजिक संगठनों के नाम से दशकों से दुकानदारी चला रहे लोगों को भी बहुत सारे सवालों का सामना करना पड़ा है. धीरे-धीरे ही सही परन्तु डांगावास से लेकर डेल्टा तक के मामलों में एक आत्मनिर्भर दलित अम्बेडकरवादी आन्दोलन का उभर एक सुखद घटना मानी जा सकती है. -क्या दलित संगठनों को बिलकुल अलग होकर काम चलना चाहिए आवश्यकता अनुसार निर्णय लेने चाहिए क्योंकि- जब वामपंथी शक्तियां साथ न दे तो क्या विकल्प है या दलित बहुजन अल्पसंख्यको को अब एक नयी पहल करनी होगी ताकि उनकी बुनियाद मज़बूत हो और वे राजनैतिक तौर पर अपनी ताकत का एहसास करवा सके. भंवर मेघवंशी: दलित संगठनों को अलगाव के साथ काम करने की जरूरत नहीं है. उन्हें स्वतंत्र ओर आत्मनिर्भर होने की जरूरत है. उन्हें अपने फैसले खुद लेने ही चाहिए. वामपंथी हो या अन्य किसी प्रगतिशील धारा के लोग हो, अगर वे साथ नहीं दे तब भी दलित संगठनों को अपने बूते सब कुछ कर पाने का माद्दा रखना होगा. दलित, आदिवासी, घुमंतू ओर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को एक साथ आ जाना चाहिए, हमें पिछड़ों को साथ लेने का मोह फिलहाल छोड़ देना चाहिए. अभी तमाम उत्पीड़ित तबको की एकता कायम करने की जरूरत है. अगर हम ऐसा कर पाते है तो हम राजनीतिक रूप से भी बड़ी ताकत निर्मित कर सकते है. -अस्मिताओं की राजनीति जरुरी है या विचारधारा की? हालांकि लोग कहते हैं के अस्मिताओं में भी विचारधारा होती है- लेकिन ऐसा गलत भी है, क्योंकि अस्मिताओं का इस्तेमाल करने में संघ परिवार सबसे आगे है. लोग कैसे समझे के सामने वाला आदमी मेरा है. वो सजातीय हो सकता है लेकिन अपने समुदायों के हितो का दलाल भी? भंवर मेघवंशी: मुझे लगता है कि दलित आन्दोलन का अस्मितादर्शी राजनीति का काल बीत चुका है. अस्मिता राजनीति का आज सर्वाधिक फायदा संघ गिरोह के लोग उठा ले जाते है. वे अस्मिताओं का हमसे बेहतर इस्तेमाल करना जानते है. हमें अब अपनी राजनीति विचारधारा पर केन्द्रित करनी होगी. अगर हम दीर्घजीवी बदलाव चाहते है तो यह जरुरी हो जाता है कि हम बुद्ध, फुले, शाहू, कबीर, रैदास और अम्बेडकर की मानवतावादी समानतावादी विचारधारा को स्थापित करने का काम करना होगा. अब सजातीय से आगे बढ़कर समविचारी से नाता जोड़ना होगा. -आपकी आत्मकथा एक बेहतरीन दस्तावेज है के जहां हमें ””””अपनों”””” को समझने की जरुरत होती है. मैं समझता हूं हमारे देश में हर एक का अपना राष्ट्रवाद है और उसके ताकतवर लोग उसे इस्तेमाल करते रहते हैं.  हम सब अपने अपने समूहों को नियंत्रित करना चाहते हैं और उसके लिए सिद्धांत गढ़ते हैं जिसमे विलन दूसरी जाति, धर्म या देश होता है. ये विलन सुविधा के अनुसार बनाये जाते हैं लेकिन ज्यादातर मामलो में हम स्वयं ही विलन रहते हैं? भंवर मेघवंशी: शायद आत्मकथा के लिहाज से यह जल्दबाजी कही जायेगी क्योंकि अभी बहुत कुछ करना बाकी है, लेकिन इस आपबीती को कहना भी बहुत जरुरी है. हालांकि उसे कोई भी प्रकाशक छापने का साहस नहीं कर पाया. नए दौर के मीडिया ने उसे लोगों तक पंहुचाया है. हिन्दू तालिबान में मैंने अपनों पर भी और अपने पर भी सवाल उठाये है. आपका यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अपनी सुविधा के अनुसार खलनायक गढ़ लेते है जो कि प्रायः किसी अन्य जाति, धर्म या संप्रदाय के होते है. नियंत्रण की राजनीति जिसे वर्चस्व का संघर्ष कहना मुझे ज्यादा ठीक लगता है. वह हमारी कमजोरियों तथा महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किये जाने वाले गलत फैसलों को भी सिद्धांतों का बाना पहना देता है. दलित नेतृत्व ओर दलित संगठनों को अपने आलोचकों का आदर करना सीखना चाहिए. कोई तो होना चाहिए जो हमारे अन्दर के खलनायक पर भी सवाल खड़े कर सके. राष्ट्र की पूरी अवधारणा ही ताकत ओर सत्ता के बेजा इस्तेमाल से जुडी हुयी है. इसलिए हर दौर में हर समूह का अलग राष्ट्रवाद होगा और उसका उपयोग भी सब अपनी सुविधा के अनुसार ही करेंगे. अंततः राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की पूरी बहस ही एक किस्म का फर्जीवाड़ा ही है. -आप एक लेखक है और बहुत नया लेखन आ रहा है. कैसे देखते नए दौर के दलित लेखन को? भंवर मेघवंशीः यह ख़ुशी की बात है कि बहुत सारा दलित लेखन आ रहा है. उसमे अब भी पीड़ा का भाव बेहद घनीभूत है. आत्मकथाएं अब भी आत्मव्यथाएं ही बनी हुई है. आज प्रतिरोध का साहित्य विपुलता से आ रहा है. कई भाषाओँ में आ रहा है. फिर भी वह कथित मुख्यधारा साहित्य को टक्कर नहीं दे पा रहा है. हमें दलित साहित्य को मानवता का साहित्य बनाना होगा. वह सिर्फ दलितों का, दलितों द्वारा, दलितों के लिए साहित्य नहीं होना चाहिए. हर भारतीय उसे चाव से पढ़े. सबको लगे कि इसे पढ़ना बेहद जरुरी है. हमें प्रतिरोध के साहित्य को भी लोकप्रिय बनाना होगा और उसकी पंहुच का दायरा विस्तृत करना होगा. हिंदी पट्टी के दलित लेखकों को नवाचार करने चाहिए. आनंद नीलकंठन के पौराणिक उपन्यास असुर तथा अजेय को पढ़िए. आपको लगेगा कि किसी केडर केम्प में बैठकर आप बात सुन रहे है. नीलकंठन ने रावण, दुर्योधन, कर्ण जैसे पात्रों के ज़रिये ब्राह्मणवाद पर भारी चोट मारी है. यह तो एक उदहारण मात्र है. मेरा मत है कि हमें दलित साहित्य जो कि वस्तुत समतावादी साहित्य है. उसके स्वरों को मुख्यधारा के स्वरों में तब्दील करना होगा. -क्या हम बहुत ज्यादा ””चिंतक ””तो नहीं हो गए क्योंकि भूमिहीन किसानों, मज़दूरों, गांव में मैला ढोने वालों, बाल श्रमिको, आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण के मुद्दे धीरे-धीरे हमारे आंदोलनों से गायब हो गए हैं. ये सारे प्रश्न तो आंबेडकरवादियो के एजेंडे में होनी चाहिए? भंवर मेघवंशीः हम चिन्तक हो पाते तब भी हम समाज के लिए उपयोगी जीव साबित होते. मगर हम चिंतित प्राणी हो गए है. सदैव रुदन, शाश्वत रुदन करनेवाले. जो बुद्धिजीवी है हमारे समाज के उनको इतना ज्ञानाभिमान हो गया है कि वो किसी और ही लोक में जीते है. आज भी हमारे करोड़ों भाई बहन रोटी के अभाव में भीख मांगने पर मजबूर है. लाखों लोग आज भी मैला उठा रहे है. हमारी बहुत बड़ी आबादी घर, खेती या शमशान की भूमि तक से महरूम है. हमारे लाखों बच्चे कूड़ा-कचरा बीन रहे है, सड़कों पर ज़िन्दगी बसर कर रहे है तो हमें सोचना पड़ेगा कि आखिर इस आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण ने हमको क्या दिया है. अगर जनता के ये मुद्दे हमारे विमर्श और आन्दोलनों से गायब है तो मानकर चलिये कि हम किसी और ही युग में जी रहे है. इस देश के तमाम वंचित, पीड़ित गरीब जन के बुनियादी मुद्दे अम्बेडकरी आन्दोलन के एजेंडे में लाने होंगे तभी हमारा आन्दोलन जन आन्दोलन होगा. -जो बाबा साहेब को सही ढंग से मानता होगा तो उसके लिए मनुवाद और पूंजीवाद सबसे बड़े दुश्मन हैं. आज दलित खड़ा हुआ है. नये युवा आ रहे हैं लेकिन आंदोलन एक ””””रिएक्शन भी है. हालांकि जो हमारे साथ घटित हो रहा है उसका मुंहतोड़ जवाब तो देना होगा और गुजरात, हैदराबाद आदि की घटनाओ ने साबित कर दिया है के दलित अब चुप नहीं रहेंगे लेकिन समाज बदलाव की अम्बेडकरवादी मुहीम तो चलती रहनी चाहिए ताकि एक प्रबुद्ध भारत का निर्माण हो सके. आपको इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या लगता है? भंवर मेघवंशीः प्रतिक्रिया भी जरुरी है ओर तात्कालिक जवाब देना भी कभी कभार बहुत आवश्यक हो जाता है. इसलिए उना और हैदराबाद के मुद्दों पर हुयी त्वरित प्रतिक्रियाओं का मैं तहेदिल से इस्तकबाल करता हूं. यह संकेत है कि दलितों की नई पीढ़ी बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करेगी. लेकिन इसके पीछे कि साजिश को भी समझना होगा कि कहीं वे हमें अत्याचारों के चक्रव्यूह में तो नहीं फंसा रहे है ताकि हम अपनी सारी उर्जा सिर्फ इसी के विरोध में खर्च करते रहे ओर वे लोग आराम से हम पर राज करते रहे. मनुवाद और पूंजीवाद एक दूसरे के पूरक है. दोनों ही हमारे दुश्मन है. हम मनुवाद से तो लडाई करते है और पूंजीवाद का समर्थन करते है, तब लडाई भौंथरी हो जाती है. बाज़ार और ब्राह्मणवाद एक दूसरे से जुड़े हुए है. किसी भी एक का साथ देना दूसरे को प्राण वायु पंहुचाने जैसा है .हमें प्रबुद्ध और समृद्ध भारत बनाना है सिर्फ आर्थिक समृद्धि मात्र नहीं. हर तरह से सक्षम और आत्मनिर्भर ,प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक चेतना से लेश भारत बनाना होगा ,जो मनु और पूंजी के गुलामों से पूर्णत मुक्त भारत होगा. इसके लिए हमें सांस्कृतिक एवं आर्थिक मोर्चों पर अपनी भागीदारी के लिए काम करना होगा ,अभी हमारी सारी लड़ाई राजनीतिक बराबरी और सामाजिक समानता के लिए चल रही है पर इस शास्त्रीय गुलामी और आर्थिक गैरबराबरी को ख़त्म करने की दिशा में हमारे प्रयास अभी भी नाकाफी दिखाई पड़ते है. इन मोर्चों पर ध्यान देना होगा. -आप आरएसएस के संपर्क में कैसे आये. क्या उन्होंने आपको ढूंढा या आप कौतूहलवश उसमें गए ? भंवर मेघवंशीः बचपन में खेलकूद की इच्छा ने अनायास ही मुझे आरएसएस तक पहुंचा दिया. मैं जब सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था, तब हमारे भूगोल के अध्यापक जी ने मेरे गांव में आ कर हम बच्चों को इकट्ठा करके खेल खिलाना शुरू किया. बाद में वे गीत भी सिखाने लगे. थोड़े दिन बाद उन्होंने हर दिन बिठाकर कुछ बातें भी बतानी शुरू कर दी. बाद में भगवा ध्वज भी लगाया जाने लगा. हमने खाकी निकर और काली टोपी पहनना शुरू कर दिया. हमें यह बताया गया कि हम इश्वर की योजना से संघ की शाखा के लिये चुने गये है. हम भाग्यशाली है कि हमें अपनी मातृभूमि की सेवा करने का अवसर मिला है. शुरू में तो कौतुहलवश तथा खेलकूद के लालच में ही मैं उन तक गया, पर बाद में उन्होंने मेरी क्षमताओं को पहचानते हुये मुख्यशिक्षक, कार्यवाह बनाते हुये जिला कार्यालय प्रमुख तक बनाया. -संघ में गैर मुस्लिमों को शामिल करने का एक उत्साह बना रहता है, कुछ इमोशन, कुछ देश भक्ति और कुछ धर्म की रक्षा का नाटक. भंवर मेघवंशी: राष्ट्रवाद की भावना तथा धर्मो रक्षति रक्षित: की बातें तो महज दिखावा है. असल में मुस्लिमों का डर दिखा कर तथा इसाईयों के प्रति नफरत का भाव पैदा करके वे लोगों को शामिल कर लेते है. -मुझे आज भी याद है के बाबरी मस्जिद के ध्वंश से करीब दो दिन पूर्व में एक सज्जन के पास हरियाणा गया था और जो शब्द आपने कहे वही उस वक़्त उन्होंने कहे कि अब की बार कार सेवा अच्छे से होगी. क्या आपको पता था के अबकी बार मस्जिद गिरनी ही है? भंवर मेघवंशीः बिल्कुल पता था. यह तो पूर्वनियोजित ही था. बाबरी मस्जिद तोड़ना ही कारसेवा का असली मकसद था. -संघ आज भी दलितों और आदिवासी गांवों की ओर जा रहा है. राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उसका उदहारण है.  क्या कारण है कि लोग उनके कार्यक्रमो में भाग लेते हैं. क्या अम्बेडकरवादी, बहुजनवादी, समाजवादी, वामपंधी और कोई वादी लोगो के पास जनता की सांस्कृतिक महत्वाकांक्षा को लेकर कोई कार्यक्रम नहीं है या हमने लोगों के पास जाना छोड़ दिया है.  ये बात सही है के हिंदुत्व के लोगो के पास पैसो की कमी नहीं है लेकिन उसका जो कर्मठ कार्यकर्ता है, जो दूर दराज से आता है वो तो अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ काम करता है. भंवर मेघवंशी: संघ के लोग मिशनरीज लोगों की तर्ज पर आज सुदूर दुर्गम इलाकों तक में फैल गये है. वे शहरों की वाल्मीकि बस्तियों में मौजूद होते है तो जंगल पहाड़ों में आदिवासियों के बीच भी. सेवा के काम के जरिये वे अपनी विचारधारा को स्थापित करते है.लोगों के सुख दुख में साथ दिखाई पड़ते है. वे लोगों की जरूरतों को समझकर उनकी पूर्ति करते है, जबकि हम लोग सिर्फ सिद्धांत बताते है और भाषण पिलाते है. हमारी धरातल पर उपस्थिति निरंतर घट रही है, जबकि संघ सम्प्रदाय के प्रचारक गण लोगों के बीच घुलमिल गये है. वामपंथ, अम्बेडकवाद, समाजवाद, बहुजनवाद तथा अन्य गैरसंघवादी ताकतों के लोगों ने वाकई आम जन के बीच जाना छोड़ दिया. ये लोग या तो चुनावी बहसों में नजर आते है या खोखले बौद्धिक विमर्शों में. बात केवल पैसे की नहीं है, प्रतिबद्धता की भी है. आरएसएस के पास आज पैसे की कमी नहीं है, यह सर्वमान्य सत्य है. मगर हमें यह भी याद रखना है कि चाहिये कि उसके पास समर्पित कैडर का संख्याबल भी है. उसका कैडर कहीं भी जाने के लिये तैयार है. -अम्बेडकरवादी सांस्कृतिक परिवर्तन की धारा आपके राज्यों मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में कितनी मज़बूत है. भंवर मेघवंशी: ग़ुजरात तो अभी बदलाव का संवाहक बना हुआ ही है. मध्यप्रदेश और राजस्थान में अन्दर ही अन्दर बहुत उबाल आया हुआ. सांस्कृतिक परिवर्तन की धारा का तेज बहाव आने को तत्पर है.सही पहल करने वाले ईमानदार नेतृत्व की जरूरत है. -संघी प्रोपगंडे का मुकाबला कैसे हो, कभी गाय, कभी बीफ, कभी भारत माता, कभी गंगा और पाकिस्तान और मुसलमान तो चौबीस घंटे उनके जुबान पर रहता है. ज्यादातर ये राष्ट्र और सांस्कृतिक प्रश्न है जिसमें लोग आसानी से बहक जाते हैं क्योंकि लोगों को लगता है देश की और संस्कृति की बात है. दलित, पिछड़े, आदिवासी इसको कैसे रेस्पोंड करे. भंवर मेघवंशी: हम प्रोपेगंडे का मुकाबला तथ्य और सत्य पर आधारित कथ्य से ही कर सकते है. संघ झूठ बनाने तथा उसे सच की पैंकिंग करके फैलाने की विश्व की सबसे बड़ी फैक्ट्री है. गाय, गंगा, गायत्री, गौमाता, भारतमाता, बीफ ,राष्ट्रवाद, देशभक्ति, वंदेमातरम् ये सब इनके उपकरण मात्र है. असल मकसद तो इस देश के मेहनतकश गरीब गुरबा का शोषण करते रहना है. उन्होनें संघ और राष्ट्र को एक दूसरे का पूरक बना दिया है. भाजपा को वोट देने को राष्ट्रभक्ति से जोड़ दिया है. गाय जैसे जानवरों की रक्षा को संस्कृति का सवाल बना दिया है. हमें अपने लोगों तक असली बात को पहुंचाना होगा. देश, समाज और संस्कृति के मूल्यों की गैर साम्प्रदायिक व्याख्या करनी होगी. जनता के मध्य सीधी बहस करनी होगी. मुझे पक्का यकीन है कि इस हिन्दुत्व के जहरीले राजनीतिक विषाणु को मात सिर्फ दलित विचारधारा ही दे सकती है. हमें पूरी शिद्दत से संघ सम्प्रदाय को एक्सपोज करना चाहिये. -आपने कहा के वामपंथियो ने जाति को कभी समझा नहीं इसलिए उनके और दलितों के बीच में गैप रहेगा.  इस पूरे राजनैतिक परिदृश्य में तो ब्राह्मणवादी फासीवादी ताकतों को हराने के लिए एक समझ तो विकसित करनी होगी. कई स्थानों पर दलित मुसलमानो की अच्छी संख्या है और कई जगह पर नहीं. इसलिए वैचारिक तौर पर हमें अपने साथी तो बनाने पड़ेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जो जैसा आपने कहा विचारधारा की मबबूती से आएगी. लंबे समय में आप दलितों, आदिवासियों की लड़ाई में किस प्रकार के लोगो का साथ चाहते हैं. भंवर मेघवंशी: ब्राहमणवादी फासीवाद से मुकाबला करने के लिये कई प्रकार के एलायंस बनाने होंगे. जहां-जहां हम न्यूनतम सांझे मिलन बिन्दूओं के जरिये वामपंथ के साथ चल सकते है. हमें बेहिचक वामपंथ के साथ चलना चाहिये. जहां हमारे पास बहुजन विकल्प हो, उनके साथ जाने में भी कोई बुराई नहीं है. अगर हम कहीं धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ स्वयं को सहज पाते है तो उनके साथ भी चलने पर विचार करना चाहिये. हमारा विचार शत्रु बहुत व्यापक और विशाल है. उससे कई मोर्चों पर कई सारे समूहों के साथ मिलकर लड़ना होगा. -आपने कहा के दलितों पे अत्याचार के मामलो में पिछड़ी जातियो का ज्यादा रोल है. मैं ये मानता हूं के ये भी एक सिंपल स्टेटमेंट है के क्योंकि पिछडो की categorization देखेंगे तो इसमें भूमिहीन तबका वो दलितों का नेचुरल साथी है. जो थोड़ा जमीन जायदाद के मामले में धनी है वो भले ही ब्राह्मण ठाकुरो को गरियाले लेकिन दलितों के नेतृत्व में काम करने को तैयार नहीं लेकिन ये तो ग्रेडेड इन एक़ुअलिविटी वाली बात है जब हम ऊपर वाले के साथ जुड़ना चाहते है लेकिन नीचे वाले के नेत्रेत्व में आने को तैयार नहीं ?  क्या आप पिछडो में बदलाव की उम्मीद नहीं करते? भंवर मेघवंशी: दलितों पर दबंग पिछड़ों का अत्याचार महज सिंपल स्टेटमेंट नहीं है. यह ग्रासरूट की सच्चाई है. आप एट्रोसिटी एक्ट के तहत दर्ज मुकदमों का विश्लेषण कर लीजिये, आप मेरी स्थापना को तथ्यात्मक पायेंगे. मैं हवा में बात नहीं कर रहा हूं. पिछड़ों का भूमिहीन तबका भले ही आर्थिक तल पर दलितों के नजदीक दिखाई देता हो, मगर वह सामाजिक स्तर पर उसी ब्राहम्णवादी ऊंच नीच की मानसिकता से ग्रस्त है. दलितों का नेतृत्व जिस दिन पिॆछड़ों द्वारा स्वीकार लिया जायेगा तथा भेदभाव व अन्याय अत्याचार बंद कर दिया जायेगा, तब ही बदलाव की उम्मीद बलवती होगी. -जैसे के मैंने कहा, कोई भी राजनैतिक लड़ाई केवल नकारात्मक नहीं हो सकती. बुद्ध ने अपना रास्ता दिखाया और पूरी दुनिया में बौद्ध धर्म फैल गया और उसने बड़े बदलाव दिखाए.  बुद्ध ने तो दुश्मनो का नाम तक नहीं लिया. बाबा साहेब ने राजनैतिक लड़ाई लड़ी, हमें अधिकार दिलवाये लेकिन आखिर में ये भी समझ आया के सांस्कृतिक परिवर्तनों के बिना हम राजनैतिक लड़ाई भी नहीं जीत सकते.  क्या आप समझते हैं के बौद्ध संस्कृति की और गए बिना हमारी लड़ाई अधूरी है और केवल राजनैतिक परिवर्तन प्रबुद्ध भारत के निर्माण के लिए नाकाफी है. भंवर मेघवंशी: राजनीतिक बदलावों को स्थाई करने के लिये सांस्कृतिक परिवर्तनों की आवश्यकता पड़ती है. बु्द्ध का मार्ग वैज्ञानिक चेतना और शांति का सम्यक मार्ग है. यहीं दलितों के लिये श्रेयकर भी है .इसको अंगीकार किये बिना ब्राह्मणवाद से मुक्ति संभव ही नहीं है. -उत्तर प्रदेश का चुनाव देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. क्या कहेंगे इस प्रश्न पर? भंवर मेघवंशी: उत्तरप्रदेश का चुनाव इस अंधकार के समय में एक रोशनी ला सकता है. बाज़ार और मनुवाद की ताकतों को अगर वहां से मात मिल सके तो यह हमारे देश की सेहत के लिए बहुत अच्छा होगा. यह सिर्फ चुनाव नहीं है, इसे जनमत संग्रह के रूप में लेना चाहिए. यह बड़बोले पंतप्रधान के आधे कार्यकाल के प्रति रायशुमारी भी हो सकता है. इसलिए इस चुनाव का अपना एक महत्व है. सारी पार्टियां भी इसे युद्ध की तरह लड़ रही है. इसे राजनीतिक दलों के मध्य चुनावी संघर्ष से ज्यादा विचारधाराओं के बीच का संघर्ष बनाना होगा. मुझे तो लगता है कि नफरत की राजनीति करनेवालों को इसमें हारना ही चाहिये. -उत्तर प्रदेश के चुनावो को आप नरेंद्र मोदी और हिंदुत्व के लिए रेफेरेंडम मान रहे है. वह बसपा और समाजवादी पार्टी आमने सामने हैं. आप किस और लोगो को वोट के लिए कहेंगे. मैं जानता हूं ये एक कठिन प्रश्न हो सकता है लेकिन जैसा मेरा मानना है लोगो को ””बीजेपी”” को हराने वाली पार्टी को वोट देने के लिए कहने का मतलब है उनको भ्रमित करना. इसलिए हम सभी साथियों से साफगोई से अपील करने को कह रहे हैं. लोग किसको चुने और क्यों ? भंवर मेघवंशी: इसमें कोई कठिनाई नहीं है. पहला लक्ष्य तो बीजेपी को हराना चाहिये, दूसरा जीतने वाली गैर भाजपाई पार्टी को वोट देना होना चाहिये. सपा और बसपा आमने सामने है. हालांकि भाजपा बार बार यह कह रही है कि उसका मुकाबला समाजवादी पार्टी से है. सारे मीडिया हाउसेज की नजर मे भी यूपी के मुख्य प्लेयर सपा, भाजपा और कांग्रेस है. उनकी नजर में बसपा कहीं है ही नहीं. क्या यह आंकलन ठीक है. मैं तमाम अंतर्विरोधों व असहमतियों के बावजूद उत्तरप्रदेश की जनता से अपील करना चाहता हूं कि वह बहन मायावती को राज में लाने के लिये हाथी पर बटन दबायें. ऐसा इसलिये कह रहा हूं, क्योंकि सपा अपनों की वजह से इस बार अपने आप ही हार रही है. कांग्रेस की खटिया तो बिछ गई है. राहुल गांधी मेहनत भी कर रहे है, पर बहुत ज्यादा हासिल होने वाला है नहीं. भाजपा को जीतने नहीं देना है, ऐसे में फिलहाल बसपा ही अंतिम विकल्प बचता है.

मीडिया में सहारनपुर कहां है?

सहारनपुर से लौटे एक युवा रिपोर्टर ने यह कहकर मुझे चौंका दिया कि जिन दिनों वहां पुलिस मौजूदगी में सवर्ण-दबंगों का तांडव चल रहा था, दिल्ली स्थित ज्यादातर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और अखबारों के संवाददाता या अंशकालिक संवाददाता अपने कैमरे के साथ शब्बीरपुर और आसपास के इलाके में मौजूद थे, लेकिन ज्यादातर चैनलों और अखबारों में शब्बीरपुर की खबर नहीं दिखी.

उन दिनों ज्यादातर चैनलों की खबरों में जस्टिन बीबर छाये हुए थे और लाखों रुपये खर्चकर उनके कार्यक्रम में मुंबई जाने वालों के इंटरव्यू दिखाये जा रहे थे. देश के कथित राष्ट्रीय मीडिया के मुख्यालयों से सहारनपुर की दूरी महज 180 किमी की है. पर मीडिया दिल्ली सरकार के हटाये गये एक बड़बोले मंत्री की बागी अदाओं पर फिदा था. तीन तलाक़ की उबाऊ बहसों से टीवी चैनल अटे पड़े थे. गोया कि भारतीय मुसलमान की सबसे बड़ी समस्या तीन तलाक़ ही हो, जबकि इस समुदाय में महज 0.56 फ़ीसद तलाक़ होते हैं.

दूसरी तरफ, पश्चिम यूपी के शब्बीरपुर को जलाया जा रहा था. पुलिस की मौजूदगी में घर के घर उजाड़े गये. घरों में कुछ भी नहीं बचा. साइकिलें, चारपाइयां, कुछ छोटे-बड़े डब्बों में रखा राशन, कढ़ाई में बनी सब्जियां, अंबेडकर की किताबें और बच्चों के स्कूली बस्ते भी जलकर ख़ाक हो गए. महज बीस दिनों में तीसरी बार सहारनपुर का यह इलाक़ा सुलग रहा था. पर देश के बड़े न्यूज़ चैनलों और ज़्यादातर अख़बारों के लिये यह ख़बर नहीं थी.

अगर कुछ खास चैनलों और न्यूज वेबसाइटों ने इसे न कवर किया होता तो देश को सहारनपुर की सच्चाई शायद ही पता चल पाती.

‘जंगलराज’ का कोरस ग़ायब यूपी या देश के कई प्रदेशों में ऐसी घटनाएं पहले से होती रही हैं और सिलसिला आज तक जारी है. पर हिंदी पट्टी के राज्यों में जब कभी किसी दलित या पिछड़े वर्ग के नेता की अगुवाई वाली सरकारें होती हैं, ऐसी घटनाओं के कवरेज में मीडिया, ख़ासकर न्यूज़ चैनल और हिन्दी अख़बार ‘बेहद सक्रिय’ दिखते रहे हैं-अच्छी तथ्यपरक रिपोर्टिंग मे नहीं, ‘जंगलराज’ का कोरस गाने में.

हर किसी आपराधिक घटना, हादसे या उपद्रव को मीडिया का बड़ा हिस्सा उक्त सरकारों की नाकामी से उपजे ‘जंगलराज’ के रूप में पेश करता आ रहा है. पर्दे और पृष्ठों पर बार-बार उभरता रहा है-जंगलराज! लेकिन उत्तर प्रदेश में सरकार क्या बदली, मीडिया का वह ‘जंगलराज’ ग़ायब! योगी जी के ‘रामराज’ को भला ‘जंगलराज’ कहने का दुस्साहस कौन करे!

सहारनपुर में सामुदायिक और सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं पहले भी होती रही हैं. लेकिन इस बार एक फ़र्क़ नज़र आता है. ख़बर के बजाय तमाशे पर टिके रहने वाले न्यूज़ चैनलों की छोड़िये, पश्चिम उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक प्रसारित हिन्दी अख़बारों ने भी इस पहलू को प्रमुखता से नहीं कवर किया. सांप्रदायिक-सामुदायिक तनाव की घटना की शुरुआत इस बार अंबेडकर जयंती के जुलूस से हुई. तब तक यूपी में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार आ चुकी थी. भाजपा के स्थानीय सांसद, कई-कई विधायक और नेता इस जुलूस के साथ थे.

जुलूस के ज़रिये दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच तनाव और टकराव पैदा करने की भरपूर कोशिश की गई. स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने कड़ाई से निपटना चाहा तो उन्मादी भीड़ ने एसएसपी के बंगले पर हमला कर दिया. बाद में उक्त एसएसपी का तबादला कर दिया गया, मानो सारे घटनाक्रम के लिए वह अफ़सर ही दोषी रहा हो! भाजपा या राज्य सरकार ने स्थानीय सांसद, विधायक या नेताओं के ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की.

आंबेडकर के नाम पर भाजपा-समर्थकों का यह जुलूस एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश कर रहा था. दलितों में यह भ्रम पैदा करने की कि सवर्ण वर्चस्व की ‘हिन्दुत्व-पार्टी’ अब दलितों के प्रिय नेता अंबेडकर को तवज्जो देने लगी है और दूसरा कि मुसलमान इस आयोजन में बाधा बन रहे हैं.

देश के किसी कथित राष्ट्रीय या क्षेत्रीय टीवी चैनल ने उस वक्त इस पहलू पर अपने सांध्यकालीन सत्र में बहस नहीं कराई. तब सारे चैनलों पर ‘यूपी में योगी-योगी’ का जयगान चल रहा था. ऊपरी तौर पर हाल के उपद्रव या हिंसक हमले की जड़ में था-महाराणा प्रताप की शोभा यात्रा और उक्त जूलूस के दौरान तेज़ आवाज़ में ‘डीजे’ का बजना. बताया जाता है कि यह आयोजन बिल्कुल झारखंड में रामनवमी के जूलूसों की तरह था. गाजे-बाजे के साथ हथियारों से लैस उन्मादी युवाओं का सैलाब. इसमें एक ख़ास दबंग सवर्ण जाति के लोगों की संख्या ज़्यादा थी.

गांव और आसपास के इलाक़े में खेती-बाड़ी और अन्य काम-धंधे पर इन जातियों का ही वर्चस्व है. दलितों के पास यहां खेती-बाड़ी की ज़मीन बहुत कम है. अनेक परिवार पशुपालक भी हैं. कुछ लोग छोटे-मोटे धंधे से जीवन-यापन करते हैं, जबकि कुछ नौकरियों में हैं. सामाजिक-राजनीतिक रूप से वे अपेक्षाकृत जागरूक और मुखर माने जाते हैं.

‘भीम सेना-भारत एकता मिशन’ इनका एक उभरता हुआ नया मंच है. चंद्रशेखर नामक एक युवा वकील इसके प्रमुख नेताओं में हैं. अलग-अलग नाम से इस तरह के संगठन देश के अन्य हिस्सों में भी बन रहे हैं. बसपा से निराश दलितों के बीच ये तेज़ी से लोकप्रिय भी हो रहे हैं.

जयंतियों पर हथियारबंद जूलूस क्यों? सहारनपुर में हिंसा और उपद्रव के संदर्भ में सबसे पहला सवाल जो मीडिया को उठाना चाहिए था, वह ये कि 14 अप्रैल को यहां भाजपा नेताओं की अगुवाई में निकाले गए जुलूस के दौरान भारी हिंसा हुई थी और उन्मादी भीड़ ने कुछ लोगों के उकसावे पर जिले के एसएसपी के बंगले तक पर हमला किया, ऐसे में प्रशासन ने फिर किसी ऐसे जुलूस को निकलने ही क्यों दिया?

बीते 5 मई को महाराणा प्रताप जयंती के नाम पर सवर्ण दबंगों को पारंपरिक हथियारों और आग्नेयास्त्रों के साथ जुलूस निकालने क्यों दिया गया? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सहारनपुर के जिला प्रशासन या समूची योगी सरकार के पास कोई भी तर्कसंगत जवाब नहीं.

इन शोभा यात्राओं और जूलूसों पर प्रशासन की तरह मीडिया का बड़ा हिस्सा भी ख़ामोश रहता है, या तो वह इन्हें बढ़चढ़ कर कवर करता है या इन्हें सामान्य घटना के रूप में लेता है. समाज को बांटने और टकराव बढ़ाने वाले ऐसे जुलूसों को वह सिरे से ख़ारिज क्यों नहीं करता? अगर मीडिया ऐसा करता तो प्रशासन पर इसका भारी दबाव पड़ता और वह ऐसे जुलूसों को रोकने के लिए मजबूर हो जाता.

मीडिया ऐसा करके निहित स्वार्थ से प्रेरित उन्मादी जुलूसों के ख़िलाफ़ पब्लिक ओपिनियन बना सकता था. पर देश के ज़्यादातर हिस्सों में सांप्रदायिक य़ा सामुदायिक तनाव पैदा करने वाले ऐसे जूलूस एक तरह का दैनन्दिन कर्मकांड बनते जा रहे हैं और मीडिया का बड़ा हिस्सा उनके शांतिपूर्ण समापन या रक्तरंजित होने का मानो इंतज़ार करता है!

दूसरा अहम सवाल 5 मई के घटनाक्रम को लेकर उठना चाहिए था. जिस दिन शब्बीरपुर गांव में दलितों पर हमला हुआ, पूरे पांच घंटे हमला जारी रहा. घटनास्थल से लौटे पत्रकारों के मुताबिक उस वक्त पुलिस भारी मात्रा में वहां मौजूद थी. फिर उसने दबंग हमलावरों को रोका क्यों नहीं? क्या पुलिस-प्रशासन का उस दिन सवर्ण समुदाय के दबंग हमलावरों को समर्थन था? पुलिस ने बाद में दलितों की पंचायत रोकी. पर पांच घंटे का हमला क्यों नहीं रोका? मीडिया में यह सवाल कितनी शिद्दत से उठा?

सहारनपुर के दलित वकील चंद्रशेखर सवाल उठाते हैः ’ख़ून तो सबका एक सा है फिर यह पूर्वाग्रह क्यों?’ समाज में जो पूर्वाग्रह हैं, उनकी अभिव्यक्ति सिर्फ़ शासन और सियासत तक सीमित नहीं है, वह मीडिया में भी है. अब कुछ चैनलों को चंद्रशेखर में दलित-आक्रोश के पीछे का चेहरा नज़र आ रहा है. पता नहीं, उसे नायक बनाना है या खलनायक?

सहारनपुर में सांप्रदायिक और सामुदायिक तनाव व हिंसा को लेकर तीसरा सवाल है- इसके राजनीतिक संदर्भ का. क्या इस तरह की जातीय गोलबंदी के पीछे कुछ शक्तियों के कोई सियासी स्वार्थ भी हैं? कुछ माह बाद होने वाले स्थायी निकाय चुनावों से तो इनका कोई रिश्ता नहीं? दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच एकता की संभावना से किसे परेशानी है? क्या कुछ लोगों को ऐसी एकता से किसी तरह का राजनीतिक भय है?

क्या यह सब किसी योजना के तहत शुरू हुआ, जो बाद के दिनों में अनियंत्रित हो गया. और अब शांति की बात हो रही है! मीडिया के बड़े हिस्से ने सहारनपुर के संदर्भ में ऐसे सवालों को नहीं छुआ.

– लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह आलेख न्यूज वेबसाइट ”द वायर” से साभार प्रकाशित

दलित एजेंडा 2050

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स्वच्छता अभियान के बजाय शिक्षा पर जोर होना चाहिये

जब से केन्द्र में नई सरकार बनी है, चारों तरफ स्वच्छता की ही चर्चा है। यहाँ तक कि नये नोटों पर भी स्वच्छ भारत और एक कदम स्वच्छता की ओर लिखा हुआ मिल जायेगा। शहरों और गाँवों को भी स्वच्छता की रैंकिंग दी जा रही है। लेकिन सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर हम पाते हैं कि यह उसी तरह है जिस तरह जड़ों को छोड़कर पत्तों और टहनियों को पानी देना। इसमें कोई दोराय नहीं है कि मनुष्य को स्वच्छ रहना चाहिये, साफ-सफाई रखना चाहिये, गन्दगी नहीं फैलाना चाहिये और पर्यावरण प्रदूशित होने से बचाना चाहिये। ये सब बहुत अच्छी बातें हैं और इनसे किसी का कोई विरोध नहीं होना चाहिये, मेरा भी कोई विरोध नहीं है। परन्तु राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार इस बात को रखकर अन्य प्रभावशाली मुद्दों को पीछे धकेला गया है, बल्कि जनता का ध्यान भटकाया गया है, वह सही नहीं है। व्यक्ति के स्वस्थ रहने के लिये आवश्यक है कि वह स्वच्छ रहे। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों में भी स्वच्छता और शुचिता को उचित स्थान दिया गया है। अतः स्वच्छता का मामला हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ धार्मिक क्रिया-कलापों से भी जुड़ा हुआ है। कोई धार्मिक कार्यक्रम करने से पहले स्थान को झाड़-पोंछकर साफ-सुथरा कर लिया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि सब कोई नहा-धोकर साफ-सुथरे कपड़े पहन कर ही कार्यक्रम में शामिल हों। यह दर्शाता है कि हमें व्यक्तिगत और धार्मिक रूप से स्वच्छ रहना चाहिये। बात स्वच्छता को जानने, पहचानने और जीवन में धारण करने की है। किसी भी बात को अच्छी तरह जानने और पहचानने के लिये शिक्षा का होना अति आवश्यक है। भारत देश में शिक्षा के क्या हालात हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। अतः मुद्दा स्वच्छता का न होकर शिक्षा का होता तो अधिक अच्छा रहता।’सन 2025 तक प्रत्येक भारतीय शिक्षित होगा’, अगर यह संकल्प होता तो स्वच्छता पीछे-पीछे चली आती। बच्चों से लेकर किशोरावस्था तक के युवकों को अनिवार्य रूप से शिक्षा की व्यवस्था होती और इनके तमाम कागज़ात (जाति प्रमाण पत्र, मूल निवास प्रमाण पत्र, मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड आदि) विद्यालयों के माध्यम से ही बनते तो अधिकतम लोग शिक्षा से जुड़ते। स्वच्छता की शिक्षा और इसके प्रति जागरुकता भी साथ-साथ ही चलती। यदि विद्यालयों में शिक्षकों के सारे पद भरे हुए हों, इनको अन्य किसी कार्य में व्यस्त नहीं किया जाये और ये पूरे समय रुककर विद्याध्ययन करवायें, पूरे देश में एकसमान पाठ्यक्रम लागू हो तो कुछ साल बाद परिदृश्य बदल सकता है। लेकिन कोई नहीं चाहता कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधरे, क्योंकि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सबके हित इसके खिलाफ जाते हैं। शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पर्यावरण में व्याप्त गन्दगी (जिसके खिलाफ स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है) के साथ-साथ लोगों के दिलो-दिमाग़ में व्याप्त गन्दगी भी साफ की जा सकती है। शिक्षा रूपी एक तीर से कई शिकार हो सकते है- देश को स्वच्छ रखा जा सकता है (क्योंकि स्वच्छता जागृति से आती है और बिना शिक्षा के जागृति सम्भव नहीं है), छुआछूत मिटाई जा सकती है, समाज में समरसता की भावना पैदा की जा सकती है, हर प्रकार की चेतना उत्पन्न की जा सकती है, बेरोजगारी मिटाई जा सकती है, अच्छे नागरिक बनाये जा सकते हैं और साथ ही देश को साक्षर बनाया जा सकता है। लेकिन सरकार ने इस बारे में अधिक विचार किये बिना स्वच्छता को अत्यधिक तूल दे दिया ईमानदारी से देखा जाये तो यह योजना मात्र सफाईकर्मियों अथवा मेहतर समाज से ही जुड़ी हुई लगती है, क्योंकि अधिकतर सफाई का कार्य उनको ही करना होता है।   प्रोफेसर विवेक कुमार के अनुसार वास्तविक सार्वजनिक जीवन में सफाई की नींव में कम से कम सात परतें होती हैं- 1.सार्वजनिक सड़कों पर झाड़ू लगाना, 2.सार्वजनिक नाले और नालियों के कीचड़ की सफाई करना, 3.मेनहोल और गहरे गटर के अन्दर उतर कर मल-मूत्र एवं कीचड़ की सफाई करना, 4.सार्वजनिक कूड़ा स्थलों से हाथ एवं मोटरगाड़ियों से कूड़ा उठाना, 5.मल की सफाई करना (यथा शुश्क मलों का सिर पर उठाना {जो कि कानूनन अपराध भी घोशित किया जा चुका है}, पानी से मल को बहाकर सफाई करना एवं फ्लेश टॉयलेट की सफाई), 6.रेलवे प्लेटफॉर्म की रेल लाईनों पर पड़े मल-मूत्र एवं कूड़े की सफाई, एवं 7.मरे हुए जानवरों की सफाई। स्वच्छता प्रेमी जरा सोचकर बतायें- उपरोक्त में से कौन-कौनसी सफाई वे अपने हाथों से करना पसंद करेंगें और कौन-कौनसी सफाईकर्मियों के लिये छोड़ देंगे? शायद ही अधिकतम दो नम्बर के आगे की सफाई कोई भी स्वच्छता प्रेमी करना पसंद करेगा। इसके आगे की सफाई तो सफाईकर्मियों को ही करनी है। अतः ज्यो-ज्यों स्वच्छता अभियान का फैलाव होता जायेगा, अधिक से अधिक सफाईकर्मियों की आवश्यकता होगी, जिनकी पूर्ति निश्चित रूप से मेहतर समाज से ही होनी है। तो क्या स्वच्छता अभियान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मेहतर समाज को उनके पुश्तैनी धन्धे से जोड़े रखने की योजना है ? बाबा साहेब की सोच अलग थी। उनका विचार था कि शिक्षा से ही मानव का विकास होता है, अतः प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित होना ही चाहिये। तभी तो उनके सिद्धांत त्रयी में शिक्षित बनों सबसे ऊपर है। तब भी और आज भी, सबसे अधिक गन्दगी यदि कही रही है तो वह मूल निवासी समाज की बस्तियों में रही है। बाबा साहेब भी इस बात से वाकिफ थे, वे अपने भाषणों में लोगों को स्वच्छ रहने को कहते भी थे (1921 व 1925 में दिये गये भाषणों से), लेकिन उनकी नजर में शिक्षा का स्थान स्वच्छता से कहीं अधिक था, अतः उन्होनें शिक्षा के जरिये घृणित काम-धन्धे वालों के औजार छीने और सबको कलम पकड़ाई, झाड़ू नहीं। जिन लोगों ने उनकी यह बात समझी, आज वे सम्मान की जिन्दगी जी रहे हैं। लेकिन दलित समाज की कई जातियों ने उनकी बात नहीं मानी और आज भी घृणित पुश्तैनी धन्धा किये जा रहे हैं। इसका नुकसान यह हो रहा है कि उनके लिये आरक्षित पदों पर अन्य समाजों के और सामान्य वर्ग के लोग नौकरिया पा रहे हैं और आरक्षण के प्रति बढ़ती उदासीनता से कई विभाग के विभाग समाप्त हो रहे हैं और अधिक बैकलॉग होने पर सरकार द्वारा सारे पद ही समाप्त कर दिये जाते है, जैसा कि कुछ माह पूर्व राजस्थान में किये गये। कहने को तो अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 12 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है परन्तु आजादी से लेकर आज तक आरक्षण का आँकड़ा 3-4 प्रतिशत से अधिक नहीं है। अतःसभी वर्गों के हित को ध्यान रखते हुए आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाये और साथ ही जागरुकता पर भी, ताकि एक काम के साधने मात्र से कई कार्य सध जाये। ​                                                                                                                                                                                                                                                                                           लेखक अपने विचार

संकलन 2015

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