द्वंद में रहते हैं दलित स्कॉलर – प्रो. नंदू राम

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नायक कई तरह के होते हैं. एक किस्म खामोश नायक की भी होती है. जो बिना अपने काम की शेखी बघारे चुपचाप रहकर निरंतर अपना काम करता रहता है. जो ना आत्मकथा लिखकर खुद को महान बताते की कोशिश करता है, न ही राजनीतिक लाभ लेने के लिए किसी राजनीतिक दल का दामन थाम लेता है. जेएनयू पहुंचने वाले पहले दलित प्रोफेसर नंदू राम को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं. नंदू राम के कद और वरिष्ठता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वो जेएनयू पहुंचे थे, सुखदेव थोरात और तुलसी राम स्टूडेंट थे. तो वहीं हर मोर्चे पर दलित हक की आवाज बुलंद करने वाले डा. विवेक कुमार सरीखे अपने-अपने क्षेत्र के कई दिग्गज उनके शिष्य हैं. शख्सियत ऐसी कि जो भी एक बार उनसे मिल ले तो उनकी सादगी का कायल हो जाए. सच्चाई इतनी की जब डाक्टर ने सिगरेट पीने से मना कर दिया तो डाक्टर की बात का लिहाज कर के हर दूसरे मिनट सिगरेट सुलगाने से पहले आधी तोड़ कर फेंक देते हैं. जेएनयू के सोशल साइंस विभाग से रिटायर हो चुके प्रो. नंदू राम इन दिनों अपनी कई अधूरी किताबो को पूरा करने में लगे हैं. साथ ही देश भर के कई विश्वविद्यालयों में विभिन्न बॉडी के मेंबर हैं. पिछले दिनों उनके द्वारका स्थित घर पर दलित मत.कॉम और दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने उनसे दलित स्कॉलर, दलित राजनीतिज्ञो, जेएनयू और अब तक नहीं आ सकने वाली उनकी आत्मकथा के बारे में लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है …..

जिंदगी का सफर कहां से शुरू हुआ? जन्म, शिक्षा कहां हुई.

पूर्वी गाजीपुर में सैदपुर तहसील में मढ़िया गांव हैं, वहां का रहने वाला हूं. यहीं से प्राइमरी पास करने के बाद चार किलोमीटर दूर के एक स्कूल से हाई स्कूल किया. फिर प्लस टू करने बनारस चला आया. शहर के सबसे बढ़िया कालेज से प्लस टू किया 1965 में. बीएचयू चले गए बीए ऑनर्स करने. 67 में ऑनर्स हो गया और उसी साल पीएनटी विभाग में क्लर्क हो गए. गोरखपुर में. मन में था आईएएस बनने का. नौ-दस महीने नौकरी करने के बाद लगा कि ऐसे कुछ नहीं कर पाएंगे. नौकरी से रिजाइन देकर फिर बीएचयू आ गए एमए करने के लिए. सोसियोलाजी में एमए किया. यहीं छह महीने तक पीएचडी में रजिस्टर्ड रहा लेकिन देखा कि काम आगे नहीं बढ़ रहा है तो कानपुर आईआईटी में पीएचडी में सेलेक्शन हो गया तो यहां आ गए. बीटेक वालों को सोसियोलाजी पढ़ाते रहे.

77 में पीएचडी हो गया. 78 में जेएनयू में अप्वाइंटमेंट हो गया तो यहां चले आएं. जेएनयू में आने वाला मैं अकेला और पहला दलित शिक्षक था. तब रिजर्वेशन नहीं था. दलित स्टूडेंट भी आधे दर्जन के करीब ही थे. ज्यादातर महाराष्ट्र के थे. उसी समय दो और सेंट्रल यूनिवर्सिटी में सेलेक्शन हुआ था. एक बीएचयू में और दूसरा नार्थ-इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी शिलांग में. लेकिन मैने जेएनयू को चुना. तब से जेएनयू में ही रहे. बीच में 99 से मार्च 2004 तक बाबा साहेब अंबेडकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज जो मऊ में है, वहां डायरेक्टर जनरल रहें. जुलाई 2011 में जेएनयू से रिटायर हो गया. तब से रिटायर इंसान की जिंदगी बिता रहे हैं.

आप बीएचयू और जेएनयू दोनों जगहों पर रहे. बीएचयू में थोड़ी कट्टरता है, जबकि जेएनयू का माहौल खुला माना जाता है, आपको क्या फर्क लगता है.

बीएचयू में जातिवाद तो था लेकिन 1970 तक पढ़ाई का माहौल था. टीचर औऱ स्टूडेंट दोनों Committed थे. बीएचयू की सेंट्रल लाइब्रेरी में दुर्लभ (Rare) किताबें थी. बाबा साहेब की ओरिजनल पांडुलिपी भी यहीं पढ़ी. बाबा साहेब द्वारा कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रजेंट की गई थिसिस भी यहीं पढ़ा. जेएनयू का माहौल जरा खुला था. 24 अप्रैल 1978 को ज्वाइन किया था. क्लास में गया तो स्टूडेंट ने पहला सवाल पूछा कि आप आईआईटी, कानपुर से आए हैं, जेएनयू और उसमें क्या फर्क है. मैने कहा कि मैं जेएनयू में काफी नया हूं और मुझे कोई अंतर नजर नहीं आता. हां, मैने यह फर्क बताया था कि जेएनयू में लड़के-लड़कियां एक ही हॉस्टल में रहते हैं. स्टूडेंट हंसने लगे.

तो आईएएस बनने का सपना कब छूट गया?

जब दुबारा बीएचयू लौट कर आएं तब इसका मोह छोड़ दिया. हमारे गांव के कुछ दलित और पिछड़े छात्र थे. सब हायर एजुकेशन वाले थे. तब मुझे भी लगा कि मुझे भी रिसर्च करना चाहिए. इसमे बाबा साहेब की किताबों का भी असर रहा था. यह दिमाग में आया कि कुछ नई चीजें लिखनी और करनी चाहिए. तय कर लिया कि एकेडमिक्स में आना है. सोच लिया कि इस फिल्ड में रहकर दलितों की समस्याओं को सोशल साइंस के माध्यम से सही तरीके से सामने लाना है. जब कानपुर में 5-6 महीने रहा था तो दलित समाज की स्थिति के बारे में काफी कुछ पढ़ा. अपनी एक समझ विकसित की और दलितों के बारे में समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से बात करने लगे. मैने अपनी पीएचडी में यह देखा कि दलितों मे किस तरह से सोशल मोबिलीटी आ रही है. पीएचडी का विषय था ‘सोशल मोबिलीटी एंड स्टेट्स आईडेंटिफिकेशन अमंग्स शिड्यूल कॉस्ट’ (Social mobility and states identification amongs schedule cast). जेएनयू में लगातार चार सेमेस्ट में चार नए कोर्सेस पढ़ाए.

जेएनयू आंदोलनों का गढ़ रहा है, उसको कैसे याद करते हैं.

शुरू में लोग बाबा साहेब की बातों को पब्लिकली डिस्कस नहीं करते थे. जब मैं यहां आया तो हॉस्टल में कुछ मराठी छात्र आपस में चर्चा करते थे. मुझे याद है कि जब मैं पहले दिन क्लॉस में पढ़ाने गया तो मैने डा. अंबेडकर का नाम लिया, उनकी पुस्तकों में से कुछ कोट किया. हर सेमेस्टर में मैने यह काम किया. बाबा साहेब की बातों को सब्जेक्ट के साथ रिलेट कर बताया. एक्जीक्यूटिव कमेटी का मेंबर रहते हमने विद्यार्थियों में आरक्षण लागू करवाया. मकान में आरक्षण लागू करवाया. आज खुले रूप में अंबेडकर के बारे में बात होती है. यह अच्छा है. जब मैने ज्वाइन किया तो तुलसी स्टूडेंट थे. एम ए कर रहे थे. एस के थोरात एम फिल में आए थे. लाइफ साइंस में आर के काले जो अभी गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी के वाइंस चांसलर हैं एमएससी में आए थे.

आपने कहा कि आप क्लास में बाबा साहेब की बातों को कोट किया करते थे. तो बाबा साहब की बातों को छात्रों तक पहुंचाने में शिक्षकों की कितनी भूमिका है, यह कितना हो पाया है?

जितना होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है. मैं जब पढ़ाता था तो समाजशास्त्र से संबंधित बाबा साहेब की बातों को कोट किया करता था. जैसे समाजशास्त्री लोग जाति की उत्पति के बारे में उल्टा-सीधा लिखे हैं तो मैं इस विषय को पढ़ाते हुए बाबा साहेब की थिसिस को कोट करता था, जो उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में सबमिट किया था. उनके सामने रख देता था कि यह देखो और बाकियों से तुलना करो. मुझे लगता है कि दलित शिक्षकों को इस बारे में जितना करना चाहिए वो हो नहीं पाया है और गैरदलित शिक्षकों ने अंबेडकर को पढ़ा नहीं है. वो पढ़ना भी नहीं चाहते हैं क्योंकि अगर वह पढ़ेंगे और पढ़ाएंगे तो उनको लगेगा कि ये बातें उनके खिलाफ जा रही है. जिन इतिहासकारों ने भी समाज का इतिहास (Social History) लिखा है उन्होंने भी डा. अंबेडकर को महत्व नहीं दिया है. जैसे सुमित सरकार ने अपनी किताब Writing of Social History in india में एकदम आखिर में अंबेडकर पर दो पन्ने देकर बस खानापूर्ति की है. मार्डन हिस्टोरियन में विपिन चंद्र ने अंबेडकर के बारे में कभी लिखा ही नहीं. तो जरूरत है कि दलित संत, विचारकों और इस समाज के लिए काम करने वाले आंदोलनकारियों के विचारों को आगे लाना चाहिए और ये समाज विज्ञानी ही कर सकते हैं. महाराष्ट्र में कई लोग यह कर भी रहे हैं. आंध्रा में भी सुधाकर राव इसके लिए लगे हैं. जेएनयू में ही विवेक कुमार है, वह अच्छा कर रहा है. उससे काफी उम्मीद है. एक जे श्रीनिवास है. इन लोगों से उम्मीद की जाती है कि दलित मुद्दों को समाजशास्त्रीय भाषा में आगे ले आएं. उन्हीं से उम्मीद है.

एक दौर था जब दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले कई बुद्धिजीवियों ने अपनी आत्मकथा लिखी. आप तमाम लोगों से वरिष्ठ हैं. सबसे पहले जेएनयू में आए, क्या आपने कभी नहीं सोचा आत्मकथा लिखने के लिए?

बहुत गंभीरता से कभी नहीं सोचा. एक मेरे कलीग थे, मुझसे सिनियर थे, मैसूर के थे. हम दोनों अगल-बगल रहते थे. वो हमसे बार-बार कहते थे कि कुछ लिखो अपने बारे में तुम. लेकिन टलता गया. जिस तरह के माहौल से मैं आया हूं, उस तरह के माहौल से बहुत कम लोग आए हैं. मतलब मैं एक ऐसे परिवार में पैदा हुआ था जहां मेरे पिताजी एक राजपूत के यहां हलवाही (हल चलाते थे) करते थे. मां भी उन्हीं के यहां गोबर-वगैरह लिपने जाती थी. मेरे एक सौतेले भाई थे, जो बनारस में रिक्शा चलाते थे. लेकिन इतना जरूर था कि मेरे मां-बाप ने मुझे कभी मजदूरी नहीं करने दी. वह यह भी नहीं समझते थे कि पढ़ाई क्या होती है लेकिन हमेशा स्कूल जाने के लिए कहते रहते थे. झोपड़ी के ऊपर जो भी सब्जी लगी रहती, मां उसे तोड़कर पानी और नमक के साथ सब्जी बना देगी. मैं उसे खाकर स्कूल निकल जाता. वो एक ऐसा समय था जिस समय पैसे नहीं होते थे. कभी-कभार मजदूरी में पैसे मिल जाया करते थे.

मेरे पिताजी मजदूरी के साथ ही लोगों के यहां शादी-ब्याह में बाजा भी बजाया करते थे. जूता-चप्पल भी बनाते थे. इससे जो थोड़ा बहुत पैसा मिल जाता था उसे बहुत संभाल कर रखते थे. उसी से स्कूल की फीस भरी जाती थी. हाई स्कूल तक मुझे स्कॉलरशिप मिला करती थी. पिताजी इस पैसे से मेरे लिए साबुन-तेल खरीद कर ले आते थे कि बेटा पढ़ रहा है तो उसे ठीक-ठाक दिखना चाहिए. तो उस तरह के माहौल में रहकर हाई स्कूल पास किए.फिर बनारस आ गए. वहां भाई रिक्शा चलाते थे. गरीबी तब भी बहुत थी. पैसे की बहुत तंगी थी. जब पैसे की जरूरत होती तो मां गांव में किसी से मांग कर भेजती थी. किंग्स कालेज में रहते हुए हमने छूआछूत वाला मुद्दा उठाया था. हॉस्टल में भले ही दूसरे स्टूडेंट के साथ रह लेते थे मगर हमारा मेस अलग था. हमारे कॉलेज से तीन स्टूडेंट फर्स्ट क्लास पास हुए थे. बाकी दोनों साइंस से थे, आर्ट्स से मैं अकेला था.

लेकिन वह सवाल छूट गया कि सबने आत्मकथा लिखी लेकिन आपने नहीं क्यों?

हमने आत्मकथा लिखने का सोचा था. चूकि मैं समाजशास्त्री हूं तो मेरी आत्मकथा समाजशास्त्रीय तरीके से आनी चाहिए. उसकी हेडिंग भी मैने सोच ली थी, “स्टेयर्स एंड मूवर्स”. मेरे तरह के माहौल से निकलकर बहुत से लोग बीच में ही रूक गए. बहुत कम लोग आगे आ पाएं. तो ये क्या चीज है कि एक समान परिस्थिति से निकलकर कुछ लोग रूक जाते हैं और कुछ लोग आगे निकल जाते हैं. इसी पर लिखना था लेकिन सोच कर ही रह गया, लिख नहीं पाया. एक दूसरी वजह व्यस्तता भी है. जैसे एक पुस्तक हमने 2007 में प्रकाशित किया, इनसाइक्लोपीडिया ऑफ शिड्यूल कॉस्ट इन इंडिया- वाल्यूम-1. तकरीबन 125 साल बाद इस तरह की पुस्तक आई है. पहला वाल्यूम साउथ इंडिया का है. चार वाल्यूम अभी और पड़े हुए हैं. तो अभी इतना सारा काम पेंडिग पड़ा हुआ है. तो ये है कि हेल्थ ठीक-ठाक रहा और सर्वाइव (Servive) कर गए तो ये सारा काम पूरा करने के बाद आत्मकथा लिखेंगे.

प्रो. तुलसी राम, डा. धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकी आदि ने जो आत्मकथा लिखी है, उसे आप कैसे देखते हैं?

आमतौर पर तो यह होता है कि लोग अपनी आत्मकथा बढ़ा-चढ़ा कर लिखते हैं. दूसरी बात कि आत्मकथा लिखने का एक उद्देश्य होता है. आत्मकथा लिखने का जो उद्देश्य होता है वह ये है कि दूसरे लोग इसे पढ़कर शिक्षा लें कि आगे कैसे पढ़ा जाता है. जैसे मेरे सामने एक उदाहरण है. बीएचयू में मेरे एक सीनियर थे गोविंद प्रसाद. जब मैं प्लस टू में पढ़ रहा था तो विद्यार्थियों ने अंबेडकर जयंती मनाई थी. गोविंद एकदम गोरे-चिट्टे थे. सूट पहने- हैट लगाए थे. लगता था कोई अंग्रेज हैं. गोविंद के पिता बचपन में ही खतम हो गए थे. उनकी मां ने दूसरों के यहां झाड़ू-पोछा कर के गोविंद को पढ़ाया था. तो यह था कि एक गरीब बच्चा जो इतने संघर्ष से पढ़-लिखकर आगे बढ़ा, दिल्ली आया, हिंदू कॉलेज से रिटायर हुए. तो मेरे सामने गोविंद एक आइडियल थे कि जब गोविंद यहां तक आएं तो फिर नंदू राम क्यों पीछे रहे? तो आत्मकथा लिखने का जो उद्देश्य हो वह यही होना चाहिए कि देखो जिस तरह के माहौल से कोई निकल नहीं पाता, वहां से निकल कर सफल होना दूसरों के लिए एक शिक्षा है.

मुझे आत्मकथा लिखने में जो विलंब हो रहा है वह इसलिए क्योंकि वह तो जीवनी है. जीवन तो अभी चल ही रहा है. (मैं टोकता हूं, लेकिन लिखना भी तो जीवन रहते ही है. नंदू राम कहते हैं, ‘यही द्वंद है’…और दोनों हंस पड़ते हैं) अब जैसे तुलसी राम की मुर्दहिया है. तुलसी राम गांव से निकले और बनारस आएं, तब तक उसमें है. उसके बाद का नहीं है. यानि उनकी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा छूटा हुआ है. ऐसे ही ओमप्रकाश वाल्मीकी हैं, जिन्होंने जूठन लिखी है. तो ओमप्रकाश अभी सक्रिय हैं और कथा अभी पूरी नहीं हुई है. वैसे ही मराठी में शरण कुमार लिंबाले हैं, जिन्होंने अक्करमाशी लिखा. तो शरण कुमार तो आजकल ज्यादा एक्टिव हैं. इनकी अभी मैने एक पुस्तक पढ़ी है, हिंदू. कि हिंदू कैसे दलितों को को-आप्ट कर रहा है और को-आप्ट कर के करप्ट कर दे रहा है. ऐसी चीजें सामने आ रही हैं. मेरी जिंदगी की भी कई घटनाएं हैं, अब सोचता हूं कि कभी लिखें तो सब सामने लाएं.

समाज से सबसे पहले निकले लोग विभिन्न क्षेत्रों में गए. जैसे सुखदेव थोरात हैं और भी कई नाम हैं, तो इन लोगों के काम को आप कैसे देखते हैं?

दलित स्कॉलर के सामने दो तरह का द्वंद रहता है बल्कि सच्चाई कहिए. एक द्वंद ये है कि दलितों की बात को साहित्य या पठन-पाठन के माध्यम से आगे बढ़ाना है. दूसरा द्वंद ये है कि अगर ये सिर्फ दलित मुद्दों को ही आगे बढ़ाते रहें तो उनमें और दलित पॉलिटिशियन में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. इसलिए दलित शिक्षक के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती रहती है. चुनौती यह रहती है कि दलित समाज की बात को भी सही तरीके से कहे और उस विषय की भाषा में बोले, जिस विषय में वह शिक्षक है. एक और द्वंद इससे जुड़ा हुआ है कि वो गैरदलित को भी कंविन्स करे कि तुम जो बात कह रहे हो और जो तुमको कहनी चाहिए, वह नहीं कह रहे हो. उसी में कुछ दलित स्कॉलर पॉवर के साथ जुड़ गए हैं. इस कारण उन्हें पॉवर की तारीफ करते रहना है. क्योकि अगर तारीफ नहीं किए जाएंगे तो निकाल बाहर किए जाएंगे. यह एक बड़ी समस्या है कि पॉवर के साथ जुड़े रहो और इससे कुछ अपना भी फायदा हो जाए, कुछ समाज का भी फायदा हो जाए. ये दौड़ कुछ समय तक चलेगा अभी. इसका कारण यह भी है कि दलित हमेशा हाशिये पर रहा है और हाशिये पर रहने वाले को तथाकथित मेन स्ट्रीम में उतनी ही गंभीरता से सुना जाए जितना किसी गैर दलित को सुना जाता है, ये होने में अभी वक्त लगेगा.

ऐसे में दलित समाजविज्ञानियों का रोल बहुत अहम हो जाता है. उनके सामने चुनौती ये है कि उनके विषय के लोग भी ये मानें कि जो वो कह रहे हैं वो विषय से जुड़ा हुआ है. साथ ही दलित भी यह माने की हमारी बात को ईमानदारी से कहा जा रहा हैं. अब इसमें थोरात भी हैं, तुलसी राम भी हैं, विवेक भी है. कभी-कभी मैं विवेक को कहता हूं कि तुम इतने गुस्से में क्यों बात करते हो. उसको थोड़ा ठंडे दिमाग से कहो. (मैं टोकता हूं- लेकिन क्या एक ऐसे युवा के तौर पर जिसे सब पता है, गुस्सा जायज नहीं है) हां गुस्सा तो जायज है. क्योंकि अगर सदियों से हाशिये पर रहने वालों को आप आज भी हाशिये पर रख रहे हैं तो गुस्सा तो आएगा हीं. लेकिन उस गुस्से को अभिव्यक्त करने का तरीका सोचना पड़ेगा. क्योंकि फिर सामने वाले को जब यह लगेगा कि कोई उससे टकरा रहा है तो वह एकजुट होकर आपको खतम करने पर जुट जाएगा. इसलिए अपने विषय की भाषा में ठंडे दिमाग से बात करनी चाहिए.

जेएनयू में सबसे खराब अनुभव क्या रहा, अच्छे अनुभव के बारे में भी बताइए?

एक छोटी सी बात हुई थी 1985 में. मैं सिनियर पोजिशन के लिए अप्लिकेंट नहीं था. लेकिन एक सरदार जी थे जो मेरे 4-5 साल बाद असिस्टेंट प्रोफेसर बने थे. चयनकर्ताओं ने उनको एसोसिएट प्रोफेसर बना दिया. हालांकि मैने अप्लाई नहीं किया था, बावजूद इसके मैं काफी परेशान रहा. मैने दूसरे सेंट्रल यूनिवर्सिटी को एप्लीकेशन भेजा, जहां मुझे चुन लिया गया. तब सीनियर प्रोफेसरों ने आकर समझाया कि आपके लिए कोशिश कर रहे हैं जल्दी ही आपका भी प्रोमोशन हो जाएगा. तो सर उठा कर काम किया. कभी किसी वाइस चांसलर से दबे नहीं. जो सच था, सही था वही किया. लोग तारीफ करते थे. हर विभाग के तमाम सीनियर लोग भी तारीफ करते थे. आज काफी नए शिक्षक आ गए हैं. कभी चला जाता हूं तो वो सब खूब आदर देते हैं. 33 साल गुजारा जेएनयू में. अच्छा अनुभव रहा.

यूपी के संदर्भ में दलित राजनीतिक आंदोलन को आप कैसे देखते हैं?

दिल्ली आने के पहले से ही रामविलास पासवान का नाम सुनता आ रहा था. यहां आएं तो 84 में कांशीराम का डीएस-4 शुरू हुआ. व्यक्तिगत तौर पर न तो मैं कांशीराम को जानता था और न ही देखा था. हां, एक बार जब जेएनयू में एक कार्यक्रम में वह आए थे तो देखा था. वह कास्ट सिस्टम के बारे में समझा रहे थे लेकिन उनका तरीका मुझे ज्यादा प्रभावित करने वाला नहीं लगा. रामविलास पासवान से हमारी दोस्ती तब हुई जब वो चुनाव हारे थे. तब मैने रामविलास से कहा था कि अगर बहुत बढ़िया राजनीति करनी है तो इस्टर्न यूपी में करनी चाहिए. क्योंकि उस क्षेत्र में गांव का दलित भी रामविलास पासवान का नाम जानने लगा था. लेकिन उनके सामने दूसरी समस्या थी. वह बिहार के थे और उधर अपनी राजनीति करना चाहते थे. ध्यान नहीं दिया. उसी वक्त कांशीराम ने एकदम से उस इलाके को ग्रैप कर लिया. उन्होंने बांदा से शुरू किया, फिर पूरी ईस्टर्न यूपी कांशीराम के साथ हो गई.

उनसे पहले एक मोतीराम शास्त्री हुआ करते थे. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के. दलितों में चेतना लाने और डा. अंबेडकर को लोगों के बीच पहुंचाने की दिशा में उन्होंने बहुत काम किया. वह एक आंदोलन था. जब मैं जेएनयू आ गया तो मोतीराम शास्त्री मिलने आए थे. मैने कहा कि आपने जो सामाजिक आंदोलन शुरू किया था वो अभी भी अधूरा पड़ा हुआ है. लेकिन उन्हें राजनीति करनी थी. 77 में जब मैं दिल्ली में था तो मायावती उस समय बच्ची थी. मालवंकर हाल में जात-पात तोड़ो पर सम्मेलन हुआ था. उसमें मायावती ने जो भाषण दिया था तो मुझे लगा कि यह लड़की तेज-तर्रार है. एकदम आग लगाने वाली बात कर रही थी. दलित राजनीति की बात करें तो इनमें संगठन कमजोर है. यह आज भी बड़ी समस्या है.

हमको याद है कि एक बार मैं आईआईटी कानपुर से यहां दिल्ली आया था. जगजीवन बाबू के घर 6 कृष्ण मेनन रोड पर गया. गेस्ट रूम में देखा कि दो मुसटंड लोग पड़े हुए थे. एक ठाकुर था तो दूसरा पंडित. वह दिन भर इधर-उधर घूमा करते थे और शाम को खाने और सोने के लिए यहां आ जाते थे. तब वो रक्षा मंत्री थे. एक बार दोपहर में रामविलास ने मुझे बुलावाया. पहुंचा तो देखा कि घर के बाहर 25-30 लोग पड़े हुए हैं. सबको बहुत चोट आई थी, सब खून से लथपथ थे. मैं ड्राइंग रूम में पहुंचा. हमारी बात होने लगी तो मैने कहा कि नंदू राम तो आपसे कभी भी मिल सकता है, लेकिन जो गेट के बाहर 25-30 लोग बैठे हैं, सब चोट खाएं हैं उनसे मिलना ज्यादा जरूरी था. रामविलास ने कहा कि मैं मिलता हूं. मैंने टोका- कहां मिलते हो, मिलते होते तो वो क्यों इस तरह बाहर होते? रामविलास ने कहा कि वो सिक्योरिटी रिजन के चलते देर होती है. मैं हंस पड़ा कि जो लोग खुद ही पीट-पीटा कर अपने समाज के नेता के पास आएं हैं, उनसे भला कैसी असुरक्षा. तो राजनीति का तो यही हाल है. यह बहुत बेमानी हो गई है.

बतौर समाज विज्ञानी, आप मायावती की हार का आकलन कैसे करते हैं? उनसे क्या गलती हो गई?

मायावती से यह गलती हो गई कि वो जनता से कट गई. और उनको दलितों से अलग करने में उनसे जुड़े रहने वाले गैर दलितों का हाथ ज्यादा था. मुझे लगता है कि ये सब योजना के तहत हुआ है. वरना मायावती इतनी बुरी तरह नहीं हारती. दलित बुद्धिजिवियों को साथ न लेना भी एक कारण रहा है. कांशीराम या फिर मायावती के साथ थिंक टैंक नहीं रहा. ये लोग इनसे दूर ही रहते आए हैं. दलित राजनीतिज्ञ के सामने बल्कि सिर्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं दलित स्कॉलर के सामने भी ये दिक्कत रहती है कि उसको लगता है कि दूसरा हमसे आगे ना निकल जाए. एक-दूसरे की तारीफ नहीं करते. राजनीति की हालत भी वही है. मुझे नहीं लगता कि दलित राजनेता पार्टी लाइन से हटकर एक-दूसरे से बात करते होंगे, साथ आते होंगे. गैर दलित नेता जरूर एक-दूसरे के यहां चले जाते हैं. आपस में मिलते रहते हैं. लेकिन दलित राजनीतिज्ञ कभी इकठ्ठा नहीं होते. ये सबसे बड़ी समस्या है.

26 अलीपुर रोड को लेकर एक कमेटी बनी है, आप भी उस कमेटी में है. तो वहां क्या हो रहा है?

26 अलीपुर रोड जहां पर बाबा साहेब की मृत्यु हुई थी, उसके बारे में एक स्ट्रक्चर हमने सोचा है कि उसे कैसे बनाना है. यह है कि इसे बुद्धिस्ट पैटर्न पर बनाना है. हमने कहा है कि बाबा साहेब के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी चीजें आनी चाहिए. अभी एक बड़ा प्रोजेक्ट रह गया है. अंबेडकर मेमोरियल बनना है. मेरे सहित कुछ लोगों का मानना है कि अंबेडकर फाउंडेशन को अंब्रेला मानकर हर गतिविधि इसके तहत होनी चाहिए. हालांकि इस बारे में अभी कई बैठकें बाकी है.

वर्तमान में क्या कर रहे हैं और भविष्य की क्या योजना हैं?

फिलहाल तो कुछ सेंट्रल यूनिवर्सिटी की काउंसिल का मेंबर हूं. त्रिपुरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के एकेडमिक काउंसिल का मेंबर हूं. मध्यप्रदेश के अमर कंटक में इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी है, वहां प्रेसिडेंट की ओर से एक्जीक्यूटिव काउंसिल के मेंबर के तौर पर नामित हूं. कई और जगहों पर ऐसे ही चल रहा है. जहां तक भविष्य की बात है तो अभी पांच पुस्तकें अधूरी पड़ी हुई है. उसे पूरा करना है. इसके बाद सोशल एक्सक्लूजन एंड इनक्लूजन पर एक किताब लिखनी है. फिर उसके बाद अपनी आत्मकथा पर हाथ डालेंगे. (मैं टोकता हूं- कब तक उम्मीद करें, नंदू राम कहते हैं-2013-2014 तक)

आपके बाद के तमाम लोग अखबारों में लिखते रहते हैं, छपते रहते हैं. लोग इस वजह से उन्हें जानते हैं. लेकिन आप इन सबसे दूर रहे हैं, क्यों?

मैं पब्लिसिटी में यकीन नहीं करता हूं. कभी-कभी मजाक में मैं लोगों से कहता भी हूं कि मैं जो कुछ भी लिखता रहा हूं यह स्वांत सुखाय है. तो मैं अपनी संतुष्टि के लिए लिखता हूं इसलिए आम जनता से कटा हूं. भाषा भी दूसरी है. मैं अंग्रेजी में लिखता हूं. वो भी समाजशास्त्रीय भाषा में. तो एक तो वो कारण है. दूसरा, मेरा जो लिखने-छपने का मकसद रहा है वह यह है कि जो स्कॉलर लोग हैं इनको कन्वींस करने की जरूरत ज्यादा है. हम ये करते रहे हैं. इसलिए अखबारों में लिखने के लिए वक्त भी नहीं निकाल पाते हैं.

आत्मकथा किस भाषा में होगी?

– हंसते हुए….. जाहिर है अंग्रेजी में होगी. लेकिन जब लिखेंगे तो देखेंगे.

घंटे भर किसी से बात करके उसके जीवन के बारे में सबकुछ नहीं जाना जा सकता. कोई ऐसी बात जो मुझसे पूछने से रह गई हो और आप कहना चाहते हों?

जो लोग यह कहते हैं कि जाति महत्वपूर्ण नहीं है, वह झूठ बोलते हैं. इसको तोड़ने की बात बहुतों ने की लेकिन बहुत गंभीरता से इस ओर काम नहीं हुआ. बाबा साहेब ने अपने जीवन में एक नया प्रयोग करते हुए दूसरी शादी एक ब्राह्मण लड़की से की. उन्होंने शादी तो कर ली लेकिन महाराष्ट्र के महारों ने सविता ताई को स्वीकार नहीं किया. मेरा कहना है कि जितनी भी दलित जातियां हैं वह आपस में जातिय भेदभाव को खत्म करें. आपस में शादी-विवाह करें. दलितों को इस लाइन पर गंभीरता से सोचना चाहिए. अगर वो आपस में जाति को खतम कर लेंगें तो बहुत बड़ी ताकत बन जाएंगे. फिर गैर दलित एकदम से डर कर पीछे हट जाएंगे. नई पीढ़ी की जिम्मेदारी ज्यादा है.

सर आपने वक्त दिया, इतनी बातें शेयर की, बहुत धन्यवाद.

धन्यवाद….  मुझे भी अच्छा लगा. आते रहिएगा.

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