आप अपने जीवन के छह दशक देख चुके हैं. ऐसे वक्त में आप अपना मूल्यांकन किस तरह करते हैं?
– आमतौर पर लोगों की शिकायत होती है कि उनके सपने पूरे नहीं होते. लेकिन जब मैं अपने जीवन को देखता हूं तो पाता हूं कि मेरे सारे सपने पूरे हुए हैं. यह कहना ज्यादा सही होगा कि मैने अपने सपनों से ज्यादा पाया है. वो इस मायने में कि मैं जिस परिवार में पैदा हुआ वो संपन्न परिवार था. छूतछात का कोई अनुभव हमारे जीवन में नहीं है. पिताजी सामाजिक कार्यकर्ता थे. और बाबा साहब की रिपब्लिकन पार्टी के वे अध्यक्ष रहे. 1970 में मैं भी डेढ़ साल तक जनरल सेक्रेट्री था. वो वक्त ऐसा था जब हमारे घर पर दुखियारे लोगों का तांता लगा रहता था. लोग शिकायत लेकर आते थे, सहायता मांगने आते थे कि हमें मंत्री के पास, नेता के पास ले चलो. तो उनके माध्यम से समाज की पीड़ा को प्रत्यक्ष रूप से देखने का मौका मिला.
बचपन में ही लकीरें खिंचने का शौक हुआ. नौकरी नहीं करना चाहता था लेकिन परिवार वालों और रिश्तेदारों के दबाव में मजबूरी में नौकरी करनी पड़ी. नौकरी करने लगा तो वहां साथ के लोगों को मेरी बातें अच्छी लगने लगी. आमतौर पर सरकारी दफ्तरों का माहौल गमगीन होता है लेकिन मैं अपनी बात कहता तो सबको मेरी बातें रोचक लगती थी. उन्होंने भी मुझे नौकरी छोड़ने नहीं दिया. लेकिन जब मैं नहीं माना तो उन्होनें मुझसे कहा कि मैं सस्पेंड हो जाऊं. क्योंकि ऐसा करने से जब मैं कुछ समय बाद लौटता तो मुझे एरियर आदि के रूप में ढ़ेर सारा पैसा मिलता. मुझे उनकी बात समझ में आ गई. नौकरी छोड़ने के बहाने के लिए मैने एक के बाद एक तीन अफसरों की पिटाई कर दी. इसके बावजूद उन्होंने मेरी शिकायत नहीं की. उनको पता था कि मैं आर्टिस्ट हूं तो उल्टी-सीधी लाइने डाल कर के अपना गुजारा कर लूंगा, लेकिन उनका क्या होगा. तो जहां मेरे हौंसले बुलंद थे तो उनमें असुरक्षा का माहौल था. लेकिन हुआ क्या कि उसी दौरान मुझे लाल सलाम (लेफ्ट) वाले मिल गए. जेसीएम एक लेबर यूनियन होती है वही लोग थे. उन्हें मेरे बारे में पता लगा था. उन्होंने कहा कि तुम बड़े काम के आदमी हो हमारे साथ आ जाओ. मैने भी उनसे अपने मन की बात कह दी कि मैं नौकरी में अपनी सीट पर नहीं आना चाहता. आपलोग मदद कर सकते हो तो बोलो. उन्होंने शर्त रखी कि मुझे उनके विरोध प्रदर्शनों और झगड़े-टंटों में जाना पड़ेगा, भाषण देना पड़ेगा. इस तरह काम चलता गया तबतक नौकरी में मेरे 20 साल पूरे हो गए और मैने वोलेंटरी रिटायरमेंट ले लिया और पेंटिंग के काम में एक बार फिर जोश-खरोश के साथ जुट गए. हालांकि यह कभी बंद नहीं हुआ था लेकिन तब फिर से औऱ ध्यान देकर करने लगे. उसी दौरान मैने अपना घर बना लिया. पेंटिंग और धर्म के काम से पूरी दुनिया घूम आया.
सम्यक प्रकाशन की स्थापना कैसे हुई?
– जिंदगी में एक ऐसा वक्त आया जब मैने संकल्प लिया कि अपने घर पर बैठकर कला के माध्यम से सेवा करुंगा. इसी दौरान हमारे एक मित्र ने यह कहना शुरू किया कि आप जो किताब निकाल रहे हैं भगवान बुद्ध और उनका धर्म, उसमें से भगवान शब्द हटा दीजिए. हमने उनसे कहा कि पहले वो मुझे कन्विंस करें कि इसका औचित्य क्या है. वो मुझे समझा तो नहीं पाए लेकिन मेरे खिलाफ लाबिंग शुरू कर दी कि ये शांति स्वरूप बौद्ध तो अड़ा हुआ है कि ‘भगवान’ शब्द छापेगा. उसी दौरान मेरे एक अन्य मित्र ने बताया कि उन्होंने एक किताब लिखी है, भगवान कौन और कैसे? हमारा हौंसला और मजबूत हुआ. हमने वो किताब छापी. उसका बहुत अच्छा रेस्पांस मिला और पूरी दिल्ली से भगवान शब्द को लेकर भ्रांति खत्म हो गई. तब हमको पता चला कि एक किताब में कितना बल, कितनी शक्ति होती है. उस समय से हमने निर्णय लिया कि हम किताब छापने का काम करेंगे. ये 1994-95 की बात है.
हमने भारतीय बौद्ध महासभा का उपाध्यक्ष रहते हुए, भारतीय बौद्ध महासभा का अपने पैसे से किताब छापना शुरू किया. लोगों के पास पैसे नहीं होते थे. मैं अपने पैसे लगाता था. तमाम लेखकों से लिखवाता था और छाप कर बेचता था. बाद में मेरी पेमेंट हो जाया करती थी. आज अंबेडकर-बुद्धिस्ट मूवमेंट में जितनी सफल किताबें सम्यक प्रकाशन के जरिए लोगों को मिली है, इससे देश भर में एक बहुत बड़ा प्रशंसक वर्ग, साहित्य वर्ग खड़ा हो गया है. वो हमें हर तरीके से मदद भी करते हैं, आशीर्वाद भी देते हैं. उनकी बस यही तमन्ना है कि यह अभियान थमना नहीं चाहिए. सच कहूं तो इस काम को करने से हमें प्राणवायु मिलती है. बाबासाहेब डॉ. अंबडेकर का जो कर्ज हमारे ऊपर है वो तो उतर नहीं सकता लेकिन उनके प्रति दायित्व निभाने का मौका हमें सम्यक प्रकाशन के माध्यम से मिला है और जो दस सफल व्यक्ति अपने जीवन में जितना काम नहीं कर सकते, उतना काम मैने अकेले कर के दिखा दिया है. न हम सिर्फ डॉ. अंबेडकर, दलित वर्ग और पिछड़े वर्ग का साहित्य छाप रहे हैं, बल्कि जहां जो लोग बाबा साहेब के खिलाफ गलत लिख और बोल रहे हैं, उनको भी अगर कहीं से मुंहतोड़ जवाब मिलता है तो वो सम्यक प्रकाशन और शांति स्वरूप बौद्ध से मिलता है. उनलोगों को पहचान कर नंगा करने का काम शांति स्वरूप बौद्ध और सम्यक प्रकाशन ने किया है. आज उनके ऊपर हमारा भय बना हुआ है. क्योंकि उनके पास चारित्रिक बल नहीं है जबकि हमारे पास हमारी सबसे बड़ी पूंजी हमारा चरित्र है.
सम्यक प्रकाशन अब तक अपने ग्यारह साल पूरे कर चुका है. इन 11 सालों के सफर को आप कैसे देखते हैं? क्या दिक्कतें आई? और 11 सालों में धीरे-धीरे चलते हुए सम्यक प्रकाशन कहां पहुंच गया है?
– दिक्कतें तो बहुत आईं. सबसे बड़ी दिक्कत यह आई कि जो किताब बेचने वाले थे, वो किताब बेचकर पैसा नहीं देते थे. लेकर भाग जाते थे. कहां से फिर हम उतना पैसा लाएंगे. पहली दिक्कत तो यह आई. जैसे-तैसे हमने उनसे मुक्ति पाई तो फिर देखा कि जिस गति से हम किताब छाप रहे हैं, उस गति वह बिकती नहीं है. क्योंकि हमारे पास बेचने का कोई इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है. जबकि हमारे हर जिले, हर गांव में इसके लिए एप्रोच होनी चाहिए. तो बहुत दिनों तक हम इससे जूझते रहें. अंतत्वोगत्वा, अब हमें बहुत अच्छे मित्र मिले हैं. उन्होंने हमारी मदद की है. और ये सम्यक प्रकाशन की हमारी पुस्तकों की बिक्री का जो ढ़ांचा है, उसे उन्होंने अखिल भारतीय स्तर का बनाया है. तो धीरे-धीरे सारी दिक्कतें दूर हुई हैं. दिक्कते आती हैं लेकिन ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाती. मित्रों की मदद से उसका रास्ता भी निकल जाता है.
एक चीज का मुझे गर्व है कि मेरा नाम मुझे बाबा साहेब अंबेडकर ने दिया. दूसरा गर्व मुझे यह है कि बाबा साहेब की जो पुस्तक है, भगवान बुद्ध और उनका धम्म, उसको गौरवशाली रूप में चार किलों में रंगीन रूप में इस तरह छापा है कि देश की शासक जातियां भी अपने ग्रंथ रामायण और महाभारत को ऐसे नहीं छाप पाईं. जबकि उनके पास साधनों की कमी नहीं है और यहां साधनों का ही अभाव है. मैने ये जो काम किया है वह बहुत गौरवशाली है. दूसरा, सम्यक प्रकाशन ने दूसरी भाषाओं में जिस अधिकार से अपना प्रकाशन आरंभ किया है, कोई दूसरा ऐसा नहीं कर पाया था. मैं न सिर्फ हिंदी में छाप रहा हूं बल्कि पंजाबी सहित बंगाली, मराठी, तेलेगू में भी किताबें हैं. इसके अलावा कई अन्य भारतीय भाषाओं में मेरा काम जल्दी ही सामने आने वाला है. इसके अलावा विदेशी भाषाओं में श्रीलंका की सिंघवी भाषा में किताबें लाएंगे. वर्मा की वर्मी भाषा में तो हमारी 20 किताबे हैं और 2012 के अंत तक स्पैनिश और रशियन भाषा में भी हमारी किताबें आने वाली है. इस तरीके का सफर मैं समझता हूं कि कम प्रकाशकों ने किया है. सम्यक प्रकाशन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि देश के 200-250 लेखक हमसे जुड़े हुए हैं. उसमें डा. धर्मकीर्ती, डा. विमलकीर्ती, डा. सुरेंद्र, डा. प्रदीप आगलावे (नागपुर), डा. अन्नेलाल, राज्यपाल रह चुके माता प्रसाद. इस तरह के ख्यातिनाम लेखक हमसे जुड़े हुए हैं और बाबा साहेब के मिशन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं.
हम दलितों के लिए छाप रहे हैं, हम आदिवासियों के लिए छाप रहे हैं, पिछड़ों के लिए छाप रहे हैं, महिलाओं के लिए छाप रहे हैं. आप कह सकते हैं कि देश का जो दलित, दमित, पीड़ित और वंचित समाज है, वही हमारा कार्यक्षेत्र है. पिछले 11 सालों में हमारी लगभग 11 सौ किताबें आ चुकी हैं. अभी हमारा एक प्रोजेक्ट चल रहा है धम्मपद. दुनिया की सबसे ज्यादा प्रिंटेड किताब यही है. हम उसका गौरवशाली संस्करण अपने मित्रों के सहयोग से छापने जा रहे हैं और अगले वर्ष तक यह पाठकों के हाथ में होगा. हमारी जो दूसरी सबसे बडी चाह है, वह यह कि बाबा साहेब की रचनाएं मराठी में सबसे अधिक हैं. हिंदी में इसका अनुवाद बहुत कम हुआ है. तो हम मराठी में लिखे अंबेडकरी विचारधारा को हिंदी में लाने के लिए प्रयत्नशील हैं. अभी हमने डा. गंगाधर पानतावड़े जो मराठी साहित्य जगत के अध्यक्ष हैं, हमने उनका जीवन चरित्र छापा है, ताकि लोगों को पता चले कि बाबा साहेब का मूवमेंट कहां से कहां तक पहुंचा है. ऐसे ही और भी लोग हैं. हमने फुले की गुलामगिरी, किसान का कोड़ा, इशारा नाम की किताबों का हिंदी में अनुवाद कर दिया है. निकट भविष्य में बाबा साहेब के भाषणों का अनुवाद करेंगे.
महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने पिछले दिनों तकरीबन 175-200 फोटो का बाबा साहेब का एलबम निकाला है. तो लोगों को ये न लगे कि बाबा साहेब के इतने ही फोटो थे. तो इस भ्रांति से लोगों को निकालने के लिए बाबा साहेब के 1500 फोटो की एलबम निकालने वाले हैं. सम्यक प्रकाशन किताबों के अलावा, कैलेंडर, फ्रेम पिक्चर भी छापता है. बाबा साहेब के जीवन चरित्र से संबंधित जितना बड़ा कलेक्शन हमारे पास है, उत्तर भारत में शायद किसी के पास नहीं है. उसको भी हम जनता के सामने लाने जा रहे हैं.
आपने बताया कि सम्यक प्रकाशन से 250 लेखक जुड़े हुए हैं. जाहिर है वो मंझे लेखक हैं. लेकिन सम्यक प्रकाशन युवा लेखकों को मौका उपलब्ध कराने के बारे में क्या सोचता है?
– सम्यक प्रकाशक कि यह भी एक उपलब्धि है कि हमारा एक नारा है कि हमें घर-घर में लेखक पैदा करना है. जितनी तेज गति से नए लेखकों को हम सामने लेकर आए हैं, उतना मौका दूसरे किसी ने नहीं दिया है. पहले दिक्कत यह थी कि लेखक जब अपनी किताब लेकर प्रकाशक के पास पहुंचता था तो प्रकाशक यह पूछता था कि कितनी किताबे छपी है. हमने इस बात को समझा कि कोई बच्चा मां के पेट से कुछ भी सीखकर नहीं आता. हमने कई नई प्रतिभाओं को मौका दिया है. यह सूची बहुत लंबी है. 30-40 लोग ऐसे हैं, जिनको हमने पहला मौका दिया है. इसमें ज्यादातर युवा है. इनकी 3-4 किताबें छप चुकी हैं. सतनाम सिंह आज चर्चित नाम है. इन्हें हमने मौका दिया. उनकी 15 किताबें आ चुकी हैं और 15 किताबें आने वाली है. हमारे समाज में जो लेखन का टेलैंट है, उसे हम सामने लेकर आते हैं. (मुझसे कहते हैं), अगर आपके संपर्क में भी ऐसे लेखक हैं तो उसके बारे में बताइए, हम उनकी किताबें छापेंगे.
भारतीय बौद्ध महासभा से आपका नाता कितना पुराना है?
– 1970 से मैं भारतीय बौद्ध महासभा का कार्यकर्ता हूं. सभी बड़े पदों पर रह चुका हूं और आज की तारीख में मैं इस महासभा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हूं. मेरा संकल्प है कि ना तो मैं यह संस्था कभी छोड़ूंगा, ना ही कभी तोड़ूंगा. हालांकि एक स्थिति ऐसी आई थी जब मुझे संस्था तोड़ देनी चाहिए थी. लेकिन चूकि मैं बौद्ध हूं तो लोग कहते कि बौद्ध होकर भी मैने अबौद्ध वाला काम किया है तो दोनों में क्या अंतर है. बौद्ध धर्म में जो पांच शील बताए गए हैं, उनका उल्लंघन पाप बताया गया है. वो लोग पांचो शील का उल्लंघन करते हैं, जबकि हम यह ध्यान रखते हैं कि हमारे जान जाए तो जाए पर एक भी शील ना छूटने-टूटने पाए. तो इतना कंट्रास्ट हममे है और हम अपने काम में लगे हुए हैं. मैं बौद्ध हूं. भारतीय बौद्ध महासभा का पदाधिकारी हूं. मगर क्योंकि बौद्ध हूं इसलिए सभी बौद्ध संस्थाओं से मेरी निकटता है. ये मेरा काम करने का एक तरीका है. जब सबका धर्म एक है फिर झगड़ा काहे का.
बातचीत की शुरुआत में आप बता रहे थे कि आप काफी संपन्न परिवार में पैदा हुए थे. आपके पूर्वज समाज का प्रतिनिधित्व करते थे. उसके बारे में विस्तार से बताएंगे?
– पहले दिल्ली में तीन पंचायतें हुआ करती थी. उसे तब बावनी कहा जाता था. क्योंकि 52 गांव की एक पंचायत होती है. हमारा परिवार 3 बावनी का वजीर रहा. 1650 के लगभग. उस समय हमारा जो परिवार था वो रोहिणी के पास प्रह्ललादपुर गांव था उस वक्त उसे दिल्ली देहात कहते थे. तो हमारा परिवार यहीं रहता था. हमारे दादा का नाम था फूला. सर्दी का समय था, घर में पानी था नहीं. दूर से पानी लाना पड़ता था. उस दिन उन्हें आलस हो गया. सुबह के 4 बज रहे थे. उन्होंने सोचा कि सुबह का समय है तो पानी चोरी से लेने के लिए कुएं पर गए. उन्होंने कुएं में बाल्टी तो डाल दी लेकिन तभी एक पंडित जी ने उन्हें देख लिया. पंडित के मुताबिक एक छोटी जाति के आदमी के कुएं पर चढ़ने से सारा कुंआ अपवित्र हो गया. उसने शोर मचा दिया. शोर मचाने का मतलब मृत्यु का वारंट था. क्योंकि गांव इकठ्ठा होता और उन्हें मार डालता. तब दादा जी को और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बाल्टी घुमाकर पंडित को मार दिया. बाल्टी सीधे पंडित की कनपट्टी पर लगी और वह वहीं ढ़ेर हो गया. यह देख उन्हें लग गया कि अब उनकी खैर नहीं है. वह भागे-भागे घर गए. अपने परिवार को अपने साथ लिया. एक बैलगाड़ी खोल लिया और अपनी ससुराल अजमेरी गेट रेलवे स्टेशन के पास भाग आए. जब लोगों को यह पता लगा कि वह एक ब्राह्मण को मार कर आया है तो उनका खूब स्वागत हुआ. क्योंकि मार खाने वाले लोग जब मारने लगें तो उनका एक अलग समाजिक महत्व बनता है. वह सुंदर थे, लंबे-चौड़े थे तो सबके दुलारा बन गए. अपने समझदारी के बल पर वह थोड़े ही दिनों में समाज के मुखिया बन गए.
इसी दौरान लालकिले का निर्माण चल रहा था. दिल्ली में एक संकट आ गया. तब जामा मस्जिद बन गया था, बादशाह रहने के लिए दिल्ली में आ गए थे. तब मटियामेट नाम का एक महल था. माटी का यह महल टेंपरेरी था. लाल किले का जो निर्माण हुआ था तो जामा मस्जिद के सामने काफी पत्थर का मलबा फैल गया था. अब दिक्कत यह भी थी कि मलबा हटे तो बादशाह नमाज पढ़ने जामा मस्जिद जाएं फिर लौटकर लाल किले आएं. बादशाह ने कहा कि यह जगह साफ होनी चाहिए. बादशाह के मंत्रियों ने ढ़िंढ़ोरा पिटवाया कि सभी आम और खास लोग दिल्ली के जामा मस्जिद पर आएं. सभी लोग वहां जुटे. बादशाह के वजीर ने कहा कि जो लोग इस जगह की सफाई करने में मदद करेंगे, बादशाह उनको ईनाम बख्शेंगे. बहुत लोगों ने अपने सुझाव दिए. मेरे दादा ने कहा कि अगर आप माफ करें तो मैं भी एक सुझाव दूं क्योंकि छोटा मुंह और बड़ी बात हो जाए तो हमें माफ कर देना. हम ये चाहते हैं कि आपके जो पत्थर साफ करने हैं, ये उसी का हो जाए जो इसे उठाकर ले जाए. हमें इतना अधिकार दे दीजिए. वजीर ने दादा की बात मान ली. जूते का काम करने में पत्थर की जरूरत होती है क्योंकि उसमें चमड़ा रखकर कूटा जाता है. पत्थर पर ही बिछाकर चमड़े को रगड़ा भी जाता है, साफ किया जाता है. दादा ने अपने लोगों के बीच आकर कहा कि वहां फ्री में पत्थर मिल रहा है. जिसको चाहिए वो जाकर उठा ले. सबको जरूरत थी. सब पत्थर लेने पहुंच गए. इस तरह सारा पत्थर समय से पहले साफ हो गया. बादशाह आएं और उन्होंने नमाज अदा की. वहां उन्होंने दो दरबार बनाए. दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास. दीवान-ए-खास में खास लोग जैसे राजदूत, मंत्री आदि होते थे. दीवान-ए-आम में ज्यादातर अपने-अपने क्षेत्र के हुनरमंद होते थे. यहां हर बिरादरी का एक-एक प्रतिनिधित्व होता था. ऐसे में लाल किले के दीवान-ए-आम में हमारी बिरादरी से सर्वसम्मति से हमारे दादा चौधरी मनफूल गए. इसमें भी मजेदार बात यह थी कि बादशाह ने जामा मस्जिद की तीन सीढ़ियां चमार बिरादरी को भेंट दे दी थी. यह बिरादरी अगर चाहती तो इस पर टैक्स लगा सकती थी. बादशाह ने एक तमगा भी दिया. दिल्ली के चमारों को खुश करने के लिए बादशाह ने अपना मटिया महल दे दिया. क्योंकि उन्हीं की वजह से बादशाह को समय पर नमाज अता करने का मौका मिल पाया था. बादशाह ने एक बात यह भी कही कि तुम अपना चमड़े का काम करो या ना करो लेकिन लाल किला, जामा मस्जिद और मकबरें आदि मेरी इमारतों पर सफेदी का काम किया करो. इस तरह तब से लेकर 1947 तक अंग्रेजों के रहने तक हमारे परिवार ने सफेदी का काम किया. इस तरह दिल्ली को बनाने, सजाने और संवारने में चमार जाति का बहुत बड़ा योगदान रहा है. यही हमारे परिवार का किस्सा था. 1648 में हमें वजीर का पद मिला. आज भी पुराने लोग हमें वजीर कह कर पुकारते हैं. हालांकि अब इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है.
बाबा साहेब से आपके पूवर्ज या फिर दिल्ली वालों की जुड़ी कोई याद है?
हमारे दादा जी चौधरी देवी दास जी दिल्ली में पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने वायरसाय आफिस में बाबा साहेब डा. अंबेडकर को देखा. यह ऐसे हुआ कि हमारे लोग पहले सिर्फ अपने मुहल्ले और गांव तक ही सिमटे रहते थे. यहां से निकलने का उनका कोई उद्देश्य, कोई काम नहीं था. मगर दादा जी सफेदी करने के काम से बाहर जाते थे. एक बार वो सेंट्रल सेक्रेटेरिएट में सफेदी का काम कर रहे थे तो वहां एक आफिसर ने उनको बताया कि देवी क्या तुम्हें मालूम है कि तुम्हारा एक बहुत बड़ा आदमी यहां दिल्ली में आया है. दादा जी उसके कहने के अनुसार वहां गए. दादा जी वहां गए तो उन्होंने देखा कि बहुत सुंदर व्यक्तित्व, विलायती सूट, चश्मा पहने, बालों में कंघा किए, चमकदार जूते पहने, कोट की ऊपरी जेब में कलम लगाए बाबा साहेब मिलने वाले लोगों से अंग्रेजी में गिटपिट-गिटपिट बात कर रहे हैं. दादा जी वहां से दौड़कर मुहल्ले में आएं और दूसरे चौधरियों को बाबा साहेब के व्यक्तित्व और भेषभूषा के बारे में बताया कि वो बालों में तेल डालते हैं. जूते इतने चमकदार हैं कि उनमें आप अपना चेहरा देख सकते हैं. यानि की तब हमारे लोगों को बालों में तेल तक डालना और जूते पहनना तक नसीब नहीं था. लोगों को यकीन नहीं हुआ तो वो उन्हें साथ लेकर बाबा साहेब जहां ठहरे थे वहां लेकर गए. सारे लोग उन्हें देखकर ठगे से रह गए कि इतना सुंदर हमारा आदमी हो सकता है. इस तरह दिल्ली वालों का वहां आना-जाना शुरू हो गया. बाबा साहेब जब दिल्ली में आएं तो पहले वह हैटमैंट हाऊस, जिसे अब वीपी हाऊस कहते हैं वहां रहें. यहां से शिफ्ट होकर फिर जनपथ स्थित वेस्टर्न कोर्ट आएं. यहां वो पहले 2 नंबर फिर 29 नंबर के कमरे में रहें. उसके बाद उन्हें पृथ्वीराज रोड पर 22 नंबर की कोठी मिल गई, फिर वो वहां शिफ्ट हो गए. इस तरह जब तक वो अंग्रेजों की वायसराय काउंसिल के मेंबर रहें, तब तक 22 नंबर में ही रहे. फिर जब वो नेहरू मंत्रिमंडल में मंत्री बन गए तो हार्डिंग एवेन्यू (पटियाला हाऊस के पास कोने वाली कोठी). हिंदू कोड बिल पर विवाद के कारण जब उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया तो 26, अलीपुर रोड पर आ गए. तो हमारे परिवार के लोग बाबा साहेब से उनके 22 पृथ्वीराज रोड पर मिले थे.
मैने सुना है कि आपका नामकरण बाबा साहेब ने किया था. उस घटना के बारे में बताएंगे. कैसे हुआ यह?
– जैसा कि मैने बताया कि हमारे परिवार के लोग बाबा साहेब से मिलने आते-जाते रहते थे. इसी दौरान मेरा जन्म हुआ. 2 अक्टूबर 1949 को जब मेरा जन्म हुआ तो दादाजी मिठाई लेकर बाबा साहेब के पास गए. वहां हमारे नाम को लेकर चर्चा छिड़ी. चर्चा के दौरान बाबा साहेब ने पूछा कि ब्राह्मण के पास नाम रखवाने के लिए क्यों गए. बाबा साहेब के सवालों के आगे आखिर हमारे दादा जी कैसे टिकते. दादा जी ने हथियार डालते हुए बाबा साहेब से कहा कि आप ही नाम रख दीजिए. क्या हुआ कि उस दिन अंग्रेजी के एक अखबारे में प्रसिद्ध वैज्ञानिक शांतिस्वरूप भटनागर के बारे में छपा था. उन्होंने दादा जी कहा कि अपने बेटे का नाम शांतिस्वरूप रखना. भटनागर को फेंक देना. इस तरह से हमारा नाम रखा गया.
बाबा साहेब की वेशभूषा के ऊपर एक सवाल अक्सर सुनने को मिलता है कि एक गांधी थे जिन्होंने गरीबों के दुख को देखकर अपने कपड़े उतार दिए और एक डा. अंबेडकर थे, जो सूट-बूट पहन कर रहते थे. आखिर यह विवाद क्यों है?
– यह विवाद नहीं है, यह लोगों की नासमझी है. गांधी जी से पहले भी बहुत महापुरुष हुए हैं हिंदुओं में. उन्होंने भी दलितों की पीड़ा देखी है लेकिन किसी ने कपड़े नहीं उतारे. गांधी एक ऐसे हिंदुओं के महापुरुष आए हैं, जिसके समय में बाबा साहेब अंबेडकर थे. उसे मजबूरी में कपड़े उतारने पड़े. वो तो बेचारा बाहर संघर्ष कर रहा था दक्षिण अफ्रीका में. उसने डा. अंबेडकर की धमक वहां सुन ली थी. मगर उसने अंदाजा लगाया था इतना पढ़ा-लिखा विद्वान डा. अंबेडकर कोई ब्राह्मण ही होंगे. जब आप गांधी को पढ़ेंगे तो यह पता भी चलेगा कि पहले उन्हें डा. अंबेडकर की जाति पता नहीं थी. लेकिन जब उसे पता चला कि डा. अंबेडकर दलित हैं, जो उसके होश उड़ गए. उसे चोट लगी कि दलित भी इतना आगे बढ़कर बात करते हैं. गांधी ने अंदजा लगाया कि डा. अंबेडकर कोई छोड़ी कद-काठी के दुबले-पतले इंसान होंगे. लेकिन जब उसने डा. अंबेडकर को देखा तो उसके होश उड़ गए. ऐसे में गांधी उनके सामने कहीं नहीं टिकते. अब उसके सामने चुनौती थी कि या तो वह सूट-बूट पहन कर डा. अंबेडकर जैसा प्रभावी बने या फिर उसे छोड़ दे. तो उसने दलितों को यह मैसेज देने की कोशिश की थी कि डा. अंबेडकर का रास्ता गलत है, मेरा रास्ता सही है. उसका कहना था कि डा. अंबेडकर जैसा सूट-बूट मत पहनों बल्कि मेरा जैसा लंगोटा पहनो. जो दलितों को लंगोटा पहनाने के लिए गांधी ने खुद लंगोटा पहना था.
अब यह बात भी सोचने की है कि डा. अंबेडकर आखिर सूट क्यों न पहने? वह तो मनुस्मृति का विधान रद्द कराने आए थे. एक वक्त यह था कि दलितों को नया और अच्छे कपड़े पहनने पर प्रतिबंध था. अगर आप नया कपड़ा पहन लेते थे तो उसे उतार कर कीचड़ में गंदा कर दिया जाता था फिर पहनने को कहा जाता था. तो डा. अंबेडकर ने सूट-बूट पहनकर एक तरह से उन्हें चुनौती दी थी कि उतारो मेरा कोट, तुममें कितनी हिम्मत है. तो बाबा साहब का कोट उतारने की हिम्मत तो गांधी में थी नहीं तो उसने अपना कोट ही उतार कर लंगोट पहन लिया. बाबा साहब का साफ मानना था कि हमें बेटर ऑफ द बेस्ट बनना है. ऐसा करने के लिए लंगोट पहनकर नहीं बल्कि सूट-बूट पहन कर आगे चलना है. जो गांधीवादी अंबेडकर के कोट पहनने को लेकर उलाहना देते हैं, पहले वो अपने गिरेबां में झांककर देखें कि गांधी के चेले नेहरू ने क्या पहना, देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद क्या पहनते थे, ये दोनों नवाबों के ड्रेस पहनते थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जो गांधी जी के समधी थे उन्होंने भी लंगोट नहीं पहना. ये तो हमारे लोगों को बहला कर लंगोट पहनाने का एक विशेष अभियान चला रखा गया था लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल सकी. बाबा साहेब का आंदोलन सफल हो रहा है. (खुद की ओर दिखाते हुए) आप देखिए कि मैं टाई-कोट में बैठा हूं, यानि हम बाबा साहेब के बताए रास्ते पर चल रहे हैं.
गांधीजी को लेकर एक विवाद चला है कि नोट पर उनकी जो तस्वीर है वो असंवैधानिक है. इसे आप कैसे देखते हैं?
– नोटों के ऊपर जो गांधीजी का चित्र आया है, इस लड़ाई को बहुत पहले से लड़ा जा रहा था. और सम्राट अशोक का चार स्तंभों वाले राष्ट्रीय चिन्ह को जो बहुत छोटा कर दिया गया है, यह उसको पूरी तरह से हटाने का षड्यंत्र है. उसकी भी लड़ाई पहले से लड़ी जा रही थी. हमारे एक बचपन के मित्र हैं, रतनलाल केन. पुरानी दिल्ली के रहने वाले हैं. उन्होंने आरटीआई के कानून के माध्यम से सरकार से यह मनवा लिया कि गांधी राष्ट्रपिता नहीं हैं. सरकार की ओर से गांधीजी को राष्ट्रपिता की उपाधि कभी नहीं दी गई, यह भारत के गृहमंत्री रह चुके लालकृष्ण आडवाणी स्वीकार कर चुके हैं. अगर फिर भी गांधी का चित्र नोट पर है, तो इसका मतलब यह है कि दलितों के विरोध में सरकार की दबंगई है, हठधर्मिता है. मगर, ये संविधान इसलिए महान है क्योंकि इसके तहत जिसके काल में यह गांधी का चित्र नोटों पर आय़ा वह वित्तमंत्री वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री हैं. अब या तो भारत के प्रधानमंत्री मुकदमें का सामना करेंगे या फिर देश की करेंसी पर हमारे बाबा साहेब अंबेडकर का भी चित्र लगेगा. और भी नेताओं का छपेगा, जिसमें सुभाष चंद्र बोस का नाम निश्चित है.
आप चूकि प्रकाशन के क्षेत्र में है, इसलिए लेखकों के बारे में पूछें तो आप किन लेखकों का नाम लेंगे जिन्होंने आंदोलन को आगे बढ़ाया है, या फिर वैसे नाम जिन्होंने नुकसान पहुंचाया है. आपने पिछले दिनों बौद्ध महासभा के अधिवेशन में कुछ लोगों को सीधे चुनौती भी दी थी ?
– दलित साहित्यकारों के बारे में ये कहते हुए मुझे बहुत शर्म महसूस हो रही है कि कुछ लोग बहुत जल्दबाजी में हैं. वो लिखना तो चाहते हैं लेकिन पहले का दूसरों का लिखा पढ़ना नहीं चाहते हैं. इससे आगे चलकर एक खामी और आ गई है कि अपने आप को दलित कहने वाले कुछ साहित्यकार ऐसे भी हैं जो बौद्ध धर्म और बाबा साहेब के खिलाफ भी लिखने लगे हैं. यहां आकर पीड़ा होती है. लेकिन इससे इतर गौरव के बिंदु भी हैं. अब आप देखें कि डा. जयप्रकाश कर्दम, डा. धर्मकीर्ती और डा. विमलकीर्ती जैसे साहित्यकार, जोधपुर के प्रो. ताराराम, डा. अनिल गजवीय, डा. संजय गजवीय, सविता मेंडेकांबले जैसे असंख्य साहित्यकार भी हैं. जुगलकिशोर बौद्ध, भद्रशील रावत लोग भी हैं. ये लोग जितना लिख रहे हैं काफी उम्दा लिख रहे हैं. बहुत अच्छे परिणाम सामने आ रहा हैं. मुद्राराक्षस जी का मैं धन्यवाद करना चाहूंगा जिन्होंने बाबा साहब का विरोध करने वालों को उचित जवाब दिया है. क्योंकि वो दलितवादी नहीं बल्कि ललितवादी हैं. उनके आंसू कलम के माध्यम से हमारे सामने आते हैं. कुछ लोगों ने उनके बारे में बहुत भद्दी टिप्पणियां लिखी है जो मानवता के स्तर से नीचे उतर कर है.
जहां तक आपने बौद्धमहासभा का जिक्र किया तो मैं आपको बताऊं कि मेरे बचपन के मित्र भाई मोहनदास नैमिशराय पर मैने जो टिप्पणी की थी वो व्यक्तिगत नहीं सैद्धांतिक है. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि तुम्हारी क्या मजबूरी है कि तुम बाबा साहेब डा. अंबेडकर के खिलाफ लिखते हो. तुम्हारी क्या मजबूरी है कि तुम बौद्ध धर्म के खिलाफ लिखते हो. आरएसएस के लोग लिखते हैं तो बात समझ में आती है लेकिन तुम आरएसएस की सरकारों यानि भाजपा की सरकारों से विज्ञापन लेकर लिखते हो तो हमें ऐसा शक होता है कि आपको ये जो मोटे-मोटे विज्ञापन मिलते हैं, ये वहां से आपको रिश्वत के रूप में मिलता है कि डा. अंबेडकर के विरोध में लिखो. अंबेडकर फाउंडेशन की जिन किताबों का अनुवाद मोहनदास नैमिशराय ने किया है, मेरा आरोप है उनपर, कि उनका अनुवाद बहुत निम्न स्तर का हुआ है. बल्कि उन्होंने बाबा साहेब के विचार की धार को कुंद करने का काम किया है जो बहुत घिनौना अपराध है. दूसरी ओर मैं मुद्राराक्षस जी और जयप्रकाश कर्दम जी को जिनमें एक वयोवृद्ध हैं तो दूसरे युवा तुर्क हैं, मैं देश के दलितों की ओर से किसी से भी लोहा लेने के लिए बौद्धिक स्तर पर सक्षम पाता हूं. किसी के भी सवालों का जवाब अगर हम न दे पाएं तो ये दोनों लोग निश्चित रूप से उनको जवाब देंगे और संतुष्ट करेंगे.
नोएडा में राष्ट्रीय दलित स्मारक के उदघाटन के वक्त मायावती जी ने एक मुद्दा उठाया था कि बाबा साहेब का निधन दिल्ली में हुआ, कांशी राम जी का निधन दिल्ली में हुआ लेकिन कांग्रेस ने किसी को तव्वजो नहीं दी. जबकि दलित समाज बाबा साहेब का तो ऋणी है ही, कांशी राम जी का भी काफी योदगान रहा है. तो इस आरोप को आप कैसे देखते हैं?
– मायावती जी ने जो बात कही मैं उससे सहमत नहीं हूं. सहमत इसलिए नहीं हूं क्योंकि वह बहुत कम बता रही हैं. उनलोगों ने बाबा साहेब को अहमियत नहीं दी बात यह नहीं है. बात यह है कि ये लोग बाबा साहेब के नाम को मिटाने के लिए पैसा खर्च कर रहे हैं. और करोड़ो रुपया खर्च कर रहे हैं. बाबा साहेब की एक किताब शूद्रों की खोज की हिंदी अनुवाद की मेरी एक किताब है. उसमें मैने बताया है कि गांधी जी के वांड़मय सौ खंडों का है. इसमें कोई खोट नजर आ गया तो वो सौ खंड फिर से छपकर छह महीने में सामने आ गया. बहुत अच्छी बात है. खुशी की बात है कि हमारे देश में इतनी तेज गति से भी काम होता है. मगर सवाल यह उठता है कि ये प्रतिबद्धता डा अंबेडकर के साहित्य के प्रकाशन और पुनःप्रकाशन में कहां खो जाती है. कहां तो गांधी जी के 100 खंड छह महीने में छप गए जबकि बाबा साहेब के 22 खंड (मैं महाराष्ट्र सरकार की बात कर रहा हूं क्योंकि केंद्र वालों ने तो 10 खंड के 21 खंड बना दिए हैं) छापने में एक तिहाई शताब्दी (वन थर्ड सेंचुरी) लग गई. तो मायावती जी कम बता रही हैं इसलिए मैं उनसे सहमत नहीं हूं. असलियत में डा. अंबेडकर की विचारधारा को फैलाने के लिए जितने भी मंत्री बिठाए गए हैं असल में वो अंबेडकर विरोधी हैं. और जब हमने इसका विरोध किया तो उनका और प्रोमोशन कर दिया गया क्योंकि उन्हें लगा कि वो अच्छा काम कर रहे हैं.
दलितों का अपना मीडिया बनाने की जो बात होती है, वो क्यों नहीं हो पा रही है. काबिल लोग भी है. पैसे भी हैं, फिर दिक्कतें कहां है.?
– हमारे बौद्ध धर्म में कहते हैं कि प्रज्ञा यानि ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है. शील का मतलब है सदाचार, लोककल्याण की भावना. इसलिए अगर शील साथ में नहीं है, तो वो ज्ञान भी बेकार है. ये जो दलित समाज के ऊपर 50-60 पत्रिकाएं निकल रही हैं, नाम के लिए तो ठीक है कि निकल रही हैं, लेकिन आखिर उसमें सामग्री क्या है? प्रायः ज्यादातर पत्रिकाएं बस निकालने के लिए निकल रही हैं. बाकि उनका ज्यादा मतलब नहीं है कि हम उनमें छाप क्या रहे हैं? इधर-उधर का दूसरी जगहों से लेकर छाप रहे हैं, वाहियात छाप रहे हैं. लोग एक साथ मिलकर बैठने के लिए तैयार नहीं है. बात करने को तैयार नहीं है. बल्कि 50-60 की संख्या तो बहुत कम है. मेरी नजर में तो 200 से ज्यादा पत्रिकाएं हैं. अगर ये सब मिलकर एक साथ पत्रिका निकाल दें तो मेरा ख्याल है कि ज्यादा सामग्री मिलेगी. ज्यादा बेहतर काम होगा और ज्यादा लोगों तक पहुंच होगी. जब तम हमारे बीच में एक सशक्त सोशल लीडरशिप पैदा नहीं होगी तब तक हमारी अपनी मीडिया विस्तार नहीं ले पाएगा. क्योंकि राजनीतिक लोगों की अपनी जरूरतें होती है, अपनी बातें होती है. यह सोशल लीडरशिप से ही पैदा हो पाएगा. बहुत लोग हमसे ही यह उम्मीद करते हैं लेकिन हमारा कमिटमेंट सम्यक प्रकाशन के लिए है.
जरा पीछे चलते हैं और आपकी पेंटिंग की बात करते हैं. यह जुनून कहां से आया ?
– बहुत छोटी उमर से ही पिताजी के प्रयास से और एक भाई, जो अब नहीं रहें, उनके प्रयास से रेखा खिंचने और चित्र बनाने में रुचि पैदा हो गई. उसके कारण स्कूल में बहुत अच्छे नंबर आते थे. हालांकि जब हम हायर सेक्रेंड्री स्कूल में गए तो मेरी अपनी कमजोरी की वजह से मुझे आर्ट का विषय नहीं मिल पाया. ज्योग्राफी का विषय मिला. तब उसके लिए चित्र बनाना करते थे. बड़े हुए तो दयाल सिंह कालेज गए. वहा अपनी कला के बूते हम बेस्ट आर्टिस्ट ऑफ दयालसिंह कालेज हो गए. वहां हम कॉलेज के दीवार पर भितीचित्र बनाते थे. वहां जो हमारे हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे उनसे एक बार एक आदमी मिलने आए. उस आदमी ने उनसे पूछा कि आप यह चित्र किस कलाकार से बनवाते हैं. तो मेरे शिक्षक ने उन्हें बताया कि यह हमारा एक छात्र बनाता है. उन्होंने कहा कि उन्हें अपनी किताब के लिए कुछ चित्र बनाना है उसे मेरे पास भेजो. हम उनके पास गए. उन्होंने कहा कि कुछ डाइग्राम बनवाना है, कितने पैसे लोगे. मैने कहा कि हमने अब तक तो ऐसे पैसे लेकर काम किया नहीं है, आप ही बता दो कि हमें क्या दोगे. उन्होनें कहा कि वो सात रुपये देंगे जिसमें पांच रुपये चित्र के और दो रुपये स्याही, पेंसिल और पेपर के लिए होंगे. तो इस तरह मैने उनके लिए पांच सौ चित्र बनाया. यह 1968 की बात है. तब मैं ग्रेज्यूशन फर्स्ट इयर में था और कॉलेज में मेरा पहला महीना ही था. जब उनका काम हो गया तो उनके किसी दूसरे मित्र ने मुझे बुला लिया. तो यह क्रम चलने लगा.
उन्हीं में से एक मित्र ने मुझे अमेरिकन ऐंबेसी में भेजा. वहां अंग्रेजों की जो हाउसवाइफ थीं. वो चित्रकारी करना, स्क्लपचर करना सीखना चाहती थी. तो मुझे वहां भेजा गया कि जाओ और उनको ड्राइंग सिखाओ. बहुत अच्छा पैसा मिलता था. उसी दौरान हमने अपने घर में बाटिक पेंटिग का काम शुरू किया. यह बहुत अच्छा चला. मैं अपनी पत्नी के साथ मिलकर करता था. इसमें में मेरी नियुक्ति एलडीसी में हो गई. हालांकि हम जाना नहीं चाहते थे. क्योंकि उस नौकरी में हमें 263 रुपये तनख्वाह मिलनी थी और हम अपने घर में अपना काम कर के हफ्ते में 500 रुपये कमा लेते थे. ऐसे में 2 हजार रुपये महीने का काम छोड़कर 200 रुपये का काम करने का मन नहीं था. लेकिन नाते-रिश्तेदारों का कहना था कि पेंटिंग का काम हमेशा का नहीं है. जबकि सरकारी नौकरी में आंधी आए चाहे तूफान, पैसे मिलने हैं. तो घरवालों और घरवाली के मजबूर करने पर मैने वो नौकरी ज्वाइन कर ली. एक वक्त ऐसा भी था जब मेरे अंडर में 60 आर्टिस्ट काम करते थे. इस पेंटिंग के काम के कारण हमारा विदेशियों से भी संपर्क हुआ क्योंकि पेंटिंग बेचने के लिए हमें बाहर जाना पड़ता था. उनके सोच में आने से हमारी सोच में अंतर आया. हम जो थोड़ा बहुत विजन रखते हैं तो इसलिए क्योंकि हमने उनके काम करने के तरीके को, निर्णय लेने की क्षमता को देखा तो उसी को अपने जीवन में उतार कर के सम्यक प्रकाशन को आगे बढ़ाने का काम किया है. और आज मैं बहुत गर्व के साथ कह सकता हूं कि इस दलित समाज के कम से कम दो सौ बच्चे मेरे यहां पेंटिंग का काम सीखकर अपना स्वतंत्र काम कर रहे हैं. तो उपलब्धियों से भरा जीवन है.
जीवन में किसी बात का अफसोस ?
बस एक ही अफसोस है कि हमारा जो जन्मदिन है, वो 2 अक्टूबर को है. मुझे इसका अफसोस है. लेकिन फिर भी हम उस 2 अक्टूबर को भी अंबेडकरमयी बनाने की कोशिश में लगे हैं. आप हमारे कैलेंडर में देखेंगे कि वहां अक्टूबर में गांधी का चित्र नहीं है बल्कि हमारा चित्र है. मित्र देखकर हंसते हैं. उस दिन बहुत फोन भी आते हैं लेकिन यही सच्चाई है.
धन्यवाद शांतिजी. आपने इतना वक्त दिया. अपने अनुभव को बताया.
आपका भी धन्यवाद अशोक जी।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
