स्वच्छता अभियान के बजाय शिक्षा पर जोर होना चाहिये

जब से केन्द्र में नई सरकार बनी है, चारों तरफ स्वच्छता की ही चर्चा है। यहाँ तक कि नये नोटों पर भी स्वच्छ भारत और एक कदम स्वच्छता की ओर लिखा हुआ मिल जायेगा। शहरों और गाँवों को भी स्वच्छता की रैंकिंग दी जा रही है। लेकिन सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर हम पाते हैं कि यह उसी तरह है जिस तरह जड़ों को छोड़कर पत्तों और टहनियों को पानी देना। इसमें कोई दोराय नहीं है कि मनुष्य को स्वच्छ रहना चाहिये, साफ-सफाई रखना चाहिये, गन्दगी नहीं फैलाना चाहिये और पर्यावरण प्रदूशित होने से बचाना चाहिये। ये सब बहुत अच्छी बातें हैं और इनसे किसी का कोई विरोध नहीं होना चाहिये, मेरा भी कोई विरोध नहीं है। परन्तु राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार इस बात को रखकर अन्य प्रभावशाली मुद्दों को पीछे धकेला गया है, बल्कि जनता का ध्यान भटकाया गया है, वह सही नहीं है।

व्यक्ति के स्वस्थ रहने के लिये आवश्यक है कि वह स्वच्छ रहे। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों में भी स्वच्छता और शुचिता को उचित स्थान दिया गया है। अतः स्वच्छता का मामला हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ धार्मिक क्रिया-कलापों से भी जुड़ा हुआ है। कोई धार्मिक कार्यक्रम करने से पहले स्थान को झाड़-पोंछकर साफ-सुथरा कर लिया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि सब कोई नहा-धोकर साफ-सुथरे कपड़े पहन कर ही कार्यक्रम में शामिल हों। यह दर्शाता है कि हमें व्यक्तिगत और धार्मिक रूप से स्वच्छ रहना चाहिये। बात स्वच्छता को जानने, पहचानने और जीवन में धारण करने की है। किसी भी बात को अच्छी तरह जानने और पहचानने के लिये शिक्षा का होना अति आवश्यक है। भारत देश में शिक्षा के क्या हालात हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। अतः मुद्दा स्वच्छता का न होकर शिक्षा का होता तो अधिक अच्छा रहता।’सन 2025 तक प्रत्येक भारतीय शिक्षित होगा’, अगर यह संकल्प होता तो स्वच्छता पीछे-पीछे चली आती।

बच्चों से लेकर किशोरावस्था तक के युवकों को अनिवार्य रूप से शिक्षा की व्यवस्था होती और इनके तमाम कागज़ात (जाति प्रमाण पत्र, मूल निवास प्रमाण पत्र, मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड आदि) विद्यालयों के माध्यम से ही बनते तो अधिकतम लोग शिक्षा से जुड़ते। स्वच्छता की शिक्षा और इसके प्रति जागरुकता भी साथ-साथ ही चलती। यदि विद्यालयों में शिक्षकों के सारे पद भरे हुए हों, इनको अन्य किसी कार्य में व्यस्त नहीं किया जाये और ये पूरे समय रुककर विद्याध्ययन करवायें, पूरे देश में एकसमान पाठ्यक्रम लागू हो तो कुछ साल बाद परिदृश्य बदल सकता है। लेकिन कोई नहीं चाहता कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधरे, क्योंकि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सबके हित इसके खिलाफ जाते हैं।

शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पर्यावरण में व्याप्त गन्दगी (जिसके खिलाफ स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है) के साथ-साथ लोगों के दिलो-दिमाग़ में व्याप्त गन्दगी भी साफ की जा सकती है। शिक्षा रूपी एक तीर से कई शिकार हो सकते है- देश को स्वच्छ रखा जा सकता है (क्योंकि स्वच्छता जागृति से आती है और बिना शिक्षा के जागृति सम्भव नहीं है), छुआछूत मिटाई जा सकती है, समाज में समरसता की भावना पैदा की जा सकती है, हर प्रकार की चेतना उत्पन्न की जा सकती है, बेरोजगारी मिटाई जा सकती है, अच्छे नागरिक बनाये जा सकते हैं और साथ ही देश को साक्षर बनाया जा सकता है। लेकिन सरकार ने इस बारे में अधिक विचार किये बिना स्वच्छता को अत्यधिक तूल दे दिया ईमानदारी से देखा जाये तो यह योजना मात्र सफाईकर्मियों अथवा मेहतर समाज से ही जुड़ी हुई लगती है, क्योंकि अधिकतर सफाई का कार्य उनको ही करना होता है।

 

प्रोफेसर विवेक कुमार के अनुसार वास्तविक सार्वजनिक जीवन में सफाई की नींव में कम से कम सात परतें होती हैं-

1.सार्वजनिक सड़कों पर झाड़ू लगाना,

2.सार्वजनिक नाले और नालियों के कीचड़ की सफाई करना,

3.मेनहोल और गहरे गटर के अन्दर उतर कर मल-मूत्र एवं कीचड़ की सफाई करना,

4.सार्वजनिक कूड़ा स्थलों से हाथ एवं मोटरगाड़ियों से कूड़ा उठाना,

5.मल की सफाई करना (यथा शुश्क मलों का सिर पर उठाना {जो कि कानूनन अपराध भी घोशित किया जा चुका है}, पानी से मल को बहाकर सफाई करना एवं फ्लेश टॉयलेट की सफाई),

6.रेलवे प्लेटफॉर्म की रेल लाईनों पर पड़े मल-मूत्र एवं कूड़े की सफाई, एवं

7.मरे हुए जानवरों की सफाई।

स्वच्छता प्रेमी जरा सोचकर बतायें- उपरोक्त में से कौन-कौनसी सफाई वे अपने हाथों से करना पसंद करेंगें और कौन-कौनसी सफाईकर्मियों के लिये छोड़ देंगे? शायद ही अधिकतम दो नम्बर के आगे की सफाई कोई भी स्वच्छता प्रेमी करना पसंद करेगा। इसके आगे की सफाई तो सफाईकर्मियों को ही करनी है। अतः ज्यो-ज्यों स्वच्छता अभियान का फैलाव होता जायेगा, अधिक से अधिक सफाईकर्मियों की आवश्यकता होगी, जिनकी पूर्ति निश्चित रूप से मेहतर समाज से ही होनी है। तो क्या स्वच्छता अभियान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मेहतर समाज को उनके पुश्तैनी धन्धे से जोड़े रखने की योजना है ?

बाबा साहेब की सोच अलग थी। उनका विचार था कि शिक्षा से ही मानव का विकास होता है, अतः प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित होना ही चाहिये। तभी तो उनके सिद्धांत त्रयी में शिक्षित बनों सबसे ऊपर है। तब भी और आज भी, सबसे अधिक गन्दगी यदि कही रही है तो वह मूल निवासी समाज की बस्तियों में रही है। बाबा साहेब भी इस बात से वाकिफ थे, वे अपने भाषणों में लोगों को स्वच्छ रहने को कहते भी थे (1921 व 1925 में दिये गये भाषणों से), लेकिन उनकी नजर में शिक्षा का स्थान स्वच्छता से कहीं अधिक था, अतः उन्होनें शिक्षा के जरिये घृणित काम-धन्धे वालों के औजार छीने और सबको कलम पकड़ाई, झाड़ू नहीं। जिन लोगों ने उनकी यह बात समझी, आज वे सम्मान की जिन्दगी जी रहे हैं। लेकिन दलित समाज की कई जातियों ने उनकी बात नहीं मानी और आज भी घृणित पुश्तैनी धन्धा किये जा रहे हैं। इसका नुकसान यह हो रहा है कि उनके लिये आरक्षित पदों पर अन्य समाजों के और सामान्य वर्ग के लोग नौकरिया पा रहे हैं और आरक्षण के प्रति बढ़ती उदासीनता से कई विभाग के विभाग समाप्त हो रहे हैं और अधिक बैकलॉग होने पर सरकार द्वारा सारे पद ही समाप्त कर दिये जाते है, जैसा कि कुछ माह पूर्व राजस्थान में किये गये। कहने को तो अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 12 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है परन्तु आजादी से लेकर आज तक आरक्षण का आँकड़ा 3-4 प्रतिशत से अधिक नहीं है। अतःसभी वर्गों के हित को ध्यान रखते हुए आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाये और साथ ही जागरुकता पर भी, ताकि एक काम के साधने मात्र से कई कार्य सध जाये।

​                                                                                                                                                                                                                                                                                           लेखक अपने विचार

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