बुद्धमय भारत के लिए निरंतर आंदोलन जरूरी

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bheemबहुजन आंदोलन के लिए मार्च से लेकर मई तक तीन महीने बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. मार्च में इस देश में सालों तक राज करने वाले सत्ताधिकारियों की सत्ता का गणित बिगाड़ देने वाले मान्यवर कांशीराम जी की जयंती होती है. अप्रैल में बहुजन समाज और महिलाओं के मुक्तिदाता बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर की जयंती होती है जबकि मई महीने में बुद्ध पूर्णिमा होता है. अप्रैल में बाबासाहेब की जयंती मनी है. और इस बार की जयंती बेजोड़ मनी है. दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक और लखनऊ से लेकर पटना तक जैसे सभी अंबेडकरवादी 14 अप्रैल को अपने उद्धारक की जयंती मनाने के लिए सड़कों पर थे. कहावत के शब्दों में पूरे देश को समेटने की बात करें तो कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक बाबासाहेब ही थे. बात सिर्फ भारत तक ही खत्म नहीं हुई, बल्कि न्यू जर्सी से लेकर दुबई तक में बाबासाहेब की जयंती मनाई गई. 14 के अलावा भी अप्रैल महीने के हर शनिवार और रविवार को जयंती का कार्यक्रम ही छाया रहा. चलो जश्न तो हो गया, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि मई महीने से लेकर अगले साल मार्च महीने तक आप क्या करेंगे?

क्या आप बाबासाहेब के बताए रास्ते पर चलेंगे, उनकी कही बातों को मानेंगे, या फिर उन्हें ताले में बंद कर अपनी उसी जिंदगी में लौट आएंगे जिसे आप कल तक जी रहे थे. यह बात हर किसी के लिए नहीं है लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि जयंती मनाने वाले ज्यादातर लोग दोहरी जिंदगी जीते हैं. वो अपनी सुविधा के हिसाब से ‘नमो बुद्धाय’ और ‘नमस्कार’ के बीच झूलते रहते हैं. यह सारी बातें इसलिए क्योंकि महज जयंती मनाने भर से बात नहीं बनने वाली. बात उसके उद्देश्यों को जीवन में आत्मसात करने से बनेगी. आपका और आपके बच्चों का भविष्य वो ग्यारह महीने का संघर्ष तय करेगा जो आप बाबा साहेब की जयंती के बीतने के बाद से अगली जयंती आने के बीच करते हैं.

मई महीना इसलिए भी महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस महीने में दुनिया के तकरीबन 170 देशों में तथागत बुद्ध की जयंती मनाई जाती है. दुनिया उस महामानव को याद करती है जिसने प्रज्ञा, करुणा और शील का संदेश दिया. आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि उन्हें आधी दुनिया के लोग अपना ‘भगवान’ मानते हैं. आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि खूंखार डकैत अंगुलीमाल उनके सामने नतमस्तक हो गया, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि जापान जैसे देश उनके बताए रास्ते पर चलकर दुनिया के नक्शे पर चमकते रहते हैं, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि दुनिया के श्रेष्ठ विद्वानों में से एक डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने उनके रास्ते को चुना और अपने अनुयायियों को भी तथागत बुद्ध की शरण में जाने का निर्देश दिया, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि तमाम लोग ‘धम्म’ के रास्ते पर चलने के बाद ही शांति हासिल कर पाते हैं. इस सवाल का जवाब ढ़ूंढ़ने की जरूरत है, क्योंकि इसका जवाब आपको ‘अपने आप’ से मिलवाएगा.

आप सोचने बैठेंगे तो यह सवाल भी आएगा कि जिस भारत देश से बुद्ध का संदेश दुनिया में फैला आखिर उस देश ने ही बुद्ध को पराया क्यों कर दिया? कहते हैं कि प्रजा उसी रास्ते पर चलती है जिस रास्ते पर उस देश का शासक हो. ऐसे में भारत के जिस शासक सम्राट अशोक ने खुद बौद्ध धम्म को अंगीकार कर लिया था, जाहिर है उसकी प्रजा भी उसी धम्म को मानने वाली होगी. फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि भारत देश बौद्ध धम्म से बिसर गया. इन सवालों को उठाने का मकसद बस इतना भर है कि जब आप इन सवालों का जवाब ढ़ूंढ़ने जाएंगे तो बौद्ध धम्म को मिटाने की साजिश स्वतः आपके सामने आ जाएगी. बाबासाहेब के तमाम अनुयायियों ने इन सवालों के जवाब ढ़ूंढ़ने शुरु कर दिए हैं. यही वजह है कि डॉ. आम्बेडकर द्वारा भारत में पुर्नजीवित किए जाने के बाद बौद्ध धम्म लगातार अपने पैर पसार रहा है. कालांतर में साजिश के तहत इस धम्म से बिसरा दिए गए लोग अब वापस अपने धम्म की शरण में आने लगे हैं. सत्ता और धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में यह बात साबित हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में तमाम बहुजन नायकों सहित बुद्ध को स्थापित करने में बसपा की भूमिका अपने आप में अद्वितीय है. यह देश भी पहले की तरह ‘बुद्धमय’ तभी हो सकेगा जब इस देश में सत्ता के शीर्ष पर बाबासाहेब और भगवान बुद्ध के अनुयायी बैठेंगे. इसके लिए पूरे साल बाबासाहेब के बताए रास्ते पर बढ़ते रहने का आंदोलन चलाना होगा. जयंती के बीतने के बाद आंदोलन रुकना नहीं चाहिए.

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