प्रोन्नति में आरक्षण पर हंगामा बरपा है. बामसेफ इस पूरे मसले को कैसे देखती है?
– रिजर्वेशन इन प्रोमोशन हमारा फंडामेंटल राइट (मूलभूत अधिकार) है, और फंडामेंटल राइट होने की वजह से ये हमें मिलना जरूरी है. अगर उन्होंने प्रोन्नति में रिजर्वेशन नहीं दिया तो उचित प्रतिनिधित्व की बात अधूरी रह जाएगी. इस बारे में बाबासाहेब ने लिखा है. हमारे विरोधी कह रहे हैं कि नियुक्ति तक तो ठीक है लेकिन वो प्रोमोशन में नहीं देना चाहते. संविधान में उचित प्रतिनिधित्व की बात है वो कोई शुरुआती चरण में नहीं है. यह हर स्टेज पे है. अगर यह नहीं मिलता है तो बाबासाहेब जो जीवन के हर क्षेत्र में बराबरी की व्यवस्था लागू करना चाहते थे वो नहीं आएगी.
बामसेफ अपने स्तर पर इस मामले में क्या कर रही है.
– बामसेफ इस मसले के ऊपर 20 राज्यों में जन जागरण के कार्यक्रम कर रही है. इसमे यह मुद्दा उठा रहे हैं. इन मुद्दों के ऊपर मूलनिवासी संघ के सीईसी की मीटिंग बुलाई है, जिसमें हम धरना-आंदोलन का कार्यक्रम तय करेंगे.
जिस तरह ज्यादातर राजनीतिक दल इस पर गोल-मोल बातें कर रहे हैं, क्या संसद में यह बिल पास हो पाएगा.
– मुझे ऐसा लगता है कि हो पाएगा. ओबीसी को इसमें शामिल कर के यह हो पाएगा. बामसेफ ने इसे सबसे पहले उठाया. आपने देखा होगा कि एनडीए औऱ यूपीए के घटक दलों ने इस मुद्दे पर ओपनली स्टैंड लिया है. कांग्रेस भी राजनीति कर रही है. भले ही यूपी में अनुसूचित जाति के लोग मायावती के साथ हैं, मगर देश भर में यह समाज आज भी कांग्रेस के साथ है. इसलिए कांग्रेस अनुसूचित जातियों को प्रोन्नति में आरक्षण देना चाहती है मगर ओबीसी को नहीं देना चाहती है. अगर ओबीसी को भी आरक्षण देने की बात पुरजोर तरीके से उठाई जाती है तो इसका पोलराइजेशन (ध्रुवीकरण) होगा. मैं आशावादी हूं कि पदोन्नति में आरक्षण मिलेगा.
बामसेफ वंचित तबके का संगठन है. एससी/एसटी अधिकारियों पर आरोप है कि ये समाज से कट जाते हैं और इनका अपना एक क्लास बन गया है.
– ये इस आंदोलन के प्रति बेईमान किस्म के लोग हैं. मैं बहुत सख्त शब्द बोल रहा हूं. लेकिन सारे लोग ऐसे नहीं है. अब मैं यहां बोल रहा हूं, कृष्णा साब (आनंद श्रीकृष्ण, रेवेन्यू सर्विस) भी यहीं पर हैं, उनको देखिए. समस्या यह है कि बड़ा तबका इसे नौकरी समझता है. उसमें अहम का भाव है कि मैने अपनी मेहनत से पाया, मैं बहुत ज्ञानी हूं. लेकिन ऐसा नहीं है. अगर ये प्रावधान नहीं होता तो ऐसा नहीं मिलता. मुझे यह बताइए कि हमारे समाज के लोग जो अफसर बने बैठे हैं और खुद को ज्ञानी (meritorious) समझ रहे हैं, उन्हें यह सब इसलिए मिल पाया है क्योंकि बाबासाहेब ने संविधान में प्रावधान किया. तो इसलिए हम एक्जीक्यूटिव में अपने समाज का रिप्रेंसेंटेशन कर रहे हैं. यह केवल नौकरी नहीं है. अगर हम सेक्रेट्री बनते तो अपने समाज के हित में काम करते. लेकिन नौकरी समझ के बैठ गए इसलिए दिक्कत है.
आरक्षण में क्रिमिलेयर की बात से आप कितना इत्तेफाक रखते हैं
– हमने बहुत पहले ही इसका विरोध कर दिया है. जस्टिस कोलसे पाटिल को हमने अपने मंच पर बुलाया. हमने उनसे कहा कि सावंत साहब ने जो लिखा है वो गलत है. क्रिमिलेयर का जो क्राएटेरिया है, वह इकोनॉमिक क्राइटेरिया है और यह बैकडोर से लाया गया है. जो कंस्टीट्यूशंस की प्रेमोलॉजी है, उसमें सोशल एंड एजुकेशनली बैकवर्ड लिखा है. और क्रिमिलेयर का मामला income के साथ जुड़ा हुआ है, तो एक तो ये संविधान के नजरिए से गलत है. दूसरा, अगर इसे Social Aspect से देखा जाए तो हमारे समाज का नेतृत्व तो बाबासाहेब ने ही न किया, किसी मजदूर ने तो नहीं किया. तो इसका मतलब कि बैकवर्ड क्लास का नेतृत्व करने वाला जो वर्ग है, उसे अगर आप क्रिमिलेयर बोलकर हटा देते हैं तो ऐसे में पढ़े-लिखे वर्ग में कुछ लेन-देन नहीं रहेगा. ऐसी स्थिति में वंचित तबके में नेतृत्व बनने की प्रक्रियी ही खत्म हो जाएगी. अगर नेतृत्व नहीं होगा तो फिर यह वर्ग गुलामी की ओर चला जाएगा. इसलिए क्रिमिलेयर की जो बात है वो सामाजिक दृष्टि से भी ठीक नहीं है और संविधान की दृष्टि से भी ठीक नहीं है.
आप हिंदुत्व पर काफी चोट करते हैं, ओबीसी तक को हिंदू नहीं मानते. लेकिन महाराष्ट्र को छोड़ ज्यादातर हिस्सों में एससी/एसटी समुदाय का व्यक्ति खुद को हिंदुत्व के बंधन से मुक्त नहीं कर पाया है. ऐसा क्यों ?
– वो इसलिए है क्योंकि हमारे समाज का सांस्कृतिक फोरम अभी तक तैयार नहीं हुआ है. जबकि हिंदुत्व कल्चराइज्ड हो गया है. तो लोगों को इससे निकालने के लिए अल्टरनेटिव कल्चर तैयार करना जरूरी है. इसलिए हमने अपने समाज के कुछ रिसर्च स्कॉलर को कहा है कि मूलनिवासी कल्चर को विशेष रूप से डिफाइन करो और ताकि इस कल्चर को समाज के सामने लेकर जाया जा सके. फिर हम मूलनिवासी मेलाओं के माध्यम से लोगों को इस बारे में समझाएंगे. अभी भी मेला लगा रहे हैं. पिछड़े वर्ग के लोग भी आ रहे हैं. लेकिन जिस अनुपात में लोगों को आना चाहिए, नहीं आ रहे हैं. हमें उन्हें बताना है कि अपना कल्चर क्या है, यह ब्राह्मणों से भिन्न है. मूलनिवासियों का खान-पान से लेकर, रहन-सहन और बातचीत से लेकर शादी-ब्याह तक का तरीका ब्राह्मणों से अलग है. हमारे Tribal भाई ऐसा नहीं करते हैं, पर उनको भी वो हिंदू बोलते हैं. आज इसका इतना घालमेल हो गया है कि अब यह पानी और दूध को अलग करने जैसा मामला है. जिस दिन हमारे रिसर्च स्कॉलर इसको अलग कर देंगे हम मूलनिवासी कल्चर को फोकस में लाएंगे.
जिस तरह दलित राजनीति बिखरी हुई है, वैसे ही दलित आंदोलन भी बिखरा हुआ है. राजनीतिक तौर पर रिपब्लिकन पार्टी और संगठन के तौर पर बामसेफ के कई टुकड़े इसके उदाहरण हैं. इसने दलित राजनीति और दलित आंदोलन को कितना नुकसान पहुंचाया है ?
– इतना ज्यादा नुकसान पहुंचाया है कि जो लोग इस ढ़ंग की राजनीति कर रहे हैं उनके लिए मेरे पास अपशब्द भी इस्तेमाल करने को नहीं है. ये इसलिए है कि अपने समाज के हित में संगठित रहने की प्रबल भावना इस समाज में नहीं है. मेरा मानना है कि अगर हमारे सोचने के ढ़ंग में कुछ अंतर है भी तब भी समाज के हित में हमें साथ ही रहना चाहिए. आगे चलकर हमारे विचार एक हो सकते हैं. इसलिए हमें समाज के हित में किसी भी हालात में एक रहना चाहिए. यह भावना नहीं रहने से दिक्कत होती है.
लेकिन जब अपनों में ही चुनाव करना पड़े तो लोग किस ओर जाए, किसे सही और किसे गलत कहे. यह सवाल राजनीतिक पार्टियों और बामसेफ जैसे संगठनों, दोनों से है?
– आम आदमी की तार्किक शक्ति उस स्तर की नहीं बढ़ाई गई है कि वो सही और गलत की पहचान करें. हम जो दलील दे रहे हैं वो सही और गलत की पहचान करने को लेकर दे रहे हैं. हम लोगों की तार्किक शक्ति को उस स्तर तक ले जाना चाहते हैं, जहां वो सही-गलत की पहचान कर सके. लेकिन इस काम को करने के लिए जितने लोग चाहिए होते हैं, मीडिया चाहिए होता हो वह हमारे समाज के पास नहीं है. इसलिए सारी परेशानी है.
लेकिन आज तो हमारे पास तमाम संसाधन हैं, एक प्रदेश में सरकार भी रही, फिर क्यों नहीं हम अपना मीडिया खड़ा कर पाएं?
– संसाधन तो हैं लेकिन वह व्यक्तिगत तौर पर कुछ लोगों के पास है, समाज के पास संसाधन नहीं है. मेरे पास जो पैसा है, या फिर आपके पास जो पैसा हो वो मेरा और आपका है, समाज का नहीं है. न ही समाज का आंदोलन चलाने वाले लोगों के पास पैसा है. अगर उन्हें मीडिया के ताकत या फिर उसकी समझ नहीं है तो सरकार आने ना आने का इससे कोई वास्ता नहीं है. अब जैसे आफिसर्स लोगों के पास भी पैसा है. बिजनेस मैन के पास भी पैसा है, आखिर वो इस दिशा में क्यों नहीं उतर रहे हैं? वह इसलिए नहीं उतर रहे हैं क्योंकि उनको यह डर है कि इन क्षेत्रों में अपना पैसा लगाने के बाद वापस आएगा या नहीं आएगा. उन्हें इसकी चिंता है. क्योंकि आदमी वहां पैसा लगाता है, जहां से पैसा निकलता है. जो पावर में आएं उन्होंने इसका महत्व ही नहीं समझा. जो दूसरे राजनीतिक दल हैं उनको देखिए, उन्होंने सत्ता में आते ही अपनी मीडिया खड़ी कर ली. दक्षिण को देखिए, सबके पास अपने अखबार और चैनल है. अब अगर ऐसे लोग पावर में आते हैं, तो क्या मतलब है? पावर में उनलोगों को आना चाहिए, जिनमें अपने समाज के प्रति प्रतिबद्धता और समझ दोनो है. हम अपने संगठन के माध्यम से इस तरह के वर्कर तैयार कर रहे हैं.
माना जाता है कि राजनीतिक दल एक साथ नहीं आ सकते, क्योंकि उनके अपने स्वार्थ हैं. लेकिन संगठन साथ क्यों नहीं आ जाते, क्या उनके भी स्वार्थ हैं?
– क्या है कि संगठन बनाने की जो प्रक्रिया है वह अलग ढ़ंग की है. जैसे- अगर आप अकेले हैं तो संगठन नहीं है, मैं अकेला हूं तो संगठन नहीं है. अब मैने यह सोचा कि मेरे समाज के सामने फलां-फलां समस्या है और इसे फलां तरीके से दूर करना चाहिए. पर मैं अकेला हूं. फिर मैने आपको बताया. आपने भी कहा कि करना चाहिए. बस हमारा संगठन बन गया. मगर अगले दिन आप कहते हैं कि कल मैने जो कहा था, उससे सहमत नहीं हूं. बस, संगठन टूट गया. यह बात साबित करता है कि जब हमने संगठन बनाया, आपका अपने अब्जेक्टिव के प्रति शत्-प्रतिशत कमिटमेंट नहीं था. तो जो लोग संगठन बनाने की प्रक्रिया में सामने आते हैं, अगर वो अपने अब्जेक्टिव के प्रति फोकस नहीं करते हैं, तो आदमी का दिमाग भटकता है. यह इसलिए होता है क्योंकि आप अकेले फिल्ड में नहीं हो. फिल्ड में बहुत सारी ताकतें काम करती हैं जो आपको प्रभावित करती है. इसलिए तो आप सुबह उठते ही मन बदल देते है. इसलिए हमें कुछ मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद एक रहना है. तभी संगठन चल सकता है.
क्या केंद्र में कभी वंचित तबके की सरकार बन पाएगी.
– बिल्कुल बन पाएगी. हम जो काम कर रहे हैं इसीलिए कर रहे हैं. जिस दिन ओबीसी तबका हमारे साथ आ गया, हम केंद्र की सत्ता पर काबिज हो जाएंगे. 1948 में लखनऊ में दिए अपने राजनीतिक भाषण में बाबासाहेब ने भी यह बात कही थी. बाबसाहेब ने कहा कि सोशल प्लेटफार्म पर भले ही हम अलग हों, मगर धरातल पर हम एक हैं. और जिस दिन ऐसा हो गया. अपने आप को बड़ा कहने वाले लोग हमारे जूते का फीता बांधने में गौरव का अनुभव करेंगे. मायावती के मामले में हम यह देख चुके हैं.
आपका कहना है कि ओबीसी के साथ आने पर हमारी सरकार बन जाएगी. लेकिन आप देखिए तो तमाम स्टेट में ओबीसी की सरकार है. बिहार में, नीतीश, यूपी में अखिलेश, गुजरात मे मोदी सब ओबीसी हैं, तो यह क्या है. क्या ब्राह्मणवादी ताकतें ओबीसी को सत्ता देकर खुद पीछे से राज कर रही हैं ?
– आपने बिल्कुल ठीक समझा. असल में यह ओबीसी की सरकार नहीं है. यह ब्राह्मणों की सरकार है, जिसे वो ओबीसी को सामने कर के चला रहे है. इसलिए यह उनकी कठपुतली है. क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो हमें सड़क पर आने की जरूरत नहीं पड़ती. इनकी जितनी भी आर्थिक नीतियों का आप अध्ययन करेंगे, यह साफ पता चल जाएगा कि यह सब दलित विरोधी हैं. राज्यों में ओबीसी को प्रतिनिधित्व इसलिए दिया गया, उन्हें सत्ता इसलिए सौपी गई ताकि वो केंद्र में बने रहें. यह ‘GIVE AND TAKE’ जैसा है.
अपने बचपन के बारे में बताइए. आप दलित आंदोलन से कब परिचित हुए?
– मैं मजदूर का लड़का हूं. पिताजी की पढ़ाने की हैसियत नहीं थी. लेकिन हर बार अव्वल रहने के कारण मैं आगे पढ़ता गया. चूकि मैने फर्स्ट क्लास से पास किया इसलिए अंबेडकर कॉलेज, दीक्षाभूमि पर मैने दाखिला लिया. यहां से मैने बीएससी किया. चूकि मैने फर्स्ट क्लास में बीएससी किया इसलिए एमएससी कर पाया. मैं नागपुर विवि का थर्ड मेरिट हूं. जब मैं कॉलेज में था तो हमारे समाज के शिक्षकों ने मेरी पढ़ाई को देखते हुए मुझे फ्री में ट्यूशन दिया. मुझे उसका फायदा हुआ. तब मुझे लगा कि ये लोग तो मेरे कोई सगे नहीं है, बावजूद इसके उन्होंने मेरी मदद की. तो इसी तरह मेरा भी उत्तरदायित्व बनता है कि मुझे भी अपने समाज के लिए कुछ करना चाहिए. 1977 में जब मैं कस्टम में क्लास-2 आफिसर के तौर पर नौकरी में आया, उसी साल बामसेफ शुरू हुआ था और मैने बामसेफ ज्वाइन किया. तब कांशीराम अध्यक्ष थे. तब से लगा हूं.
इतने सालों के बाद आप बामसेफ में क्या परिवर्तन देखते हैं?
– तब से कई बदलाव आया है. वैचारिक तौर पर बदलाव आया है. आप देखेंगे कि जब हम कांशी राम जी के नेतृत्व में काम कर रहे थे तब आटोक्रेट (तानाशाह) लीडरशीप थी, आज डेमोक्रेटिक लिडरशिप है. कांशीराम जी के समय में एससी/एसटी/पिछड़ा वर्ग और इससे धर्म परिवर्तित लोगों को इकठ्ठा करने की कोशिश थी. तब मूलनिवासी की बात नहीं थी. हमने इसको ट्रांसफर्म किया और इसे मूलनिवासी की पहचान दी. इसको होमोजिनियस आइडेंटिटी (एक जैसी पहचान) दी. संगठन अगर होमोजिनियस होता है तो यह ज्यादा आगे बढ़ता है. क्योंकि जब तक एससी/एसटी और ओबीसी जैसी बातें रहेंगी, दिक्कत रहेगी. लोग कार्यक्रमों में तो आते हैं लेकिन यहां से जाते ही वह एससी/एसटी और ओबीसी हो जाते हैं. मेरा मानना है कि वह यहां आएं तो मूलनिवासी बनकर, घर भी जाएं तो मूलनिवासी ही बने रहे. यह जरूरी है. यह बदलाव आया है.
बामसेफ के अलग-अलग गुटों में बंटने की क्या वजह है?
– स्वार्थ। बामसेफ में बिखराव विचारों में मतभेद से ज्यादा स्वार्थ के कारण हुआ. यह कांशी राम जी के समय से ही शुरू हुआ. मायावती की तरफ कांशीराम का झुकाव होने की वजह से समर्पित कार्यकर्ताओं का अनादर हुआ. क्योंकि वह अध्यक्ष थे और उन्हें मायावती के नाम को प्रस्तावित करना था. मायावती उनके ऊपर हावी हो गई थी. नेतृत्व के ऊपर कोई हावी नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसा हुआ. ऐसा होने से हमने कांशीराम जी के सामने सवाल उठाया. 20-22 लोग उनसे मिले थे. 1985 की बात है. हमने उन्हें समझाया कि आइंदा से आप संगठन का निर्णय अकेले नहीं लेंगे. लेकिन वो नहीं माने. उन्होंने कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा. हमारे साथ रहना है तो रहो वरना मत रहो. तब हम अलग हो गए. आज बामसेफ चल रही है लेकिन बीएसपी का भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा. क्योंकि जिस तरह का नेतृत्व होना चाहिए वैसा नहीं है.
कांशीराम जी को कैसे याद करते हैं?
– मैं अपने सार्वजनिक जीवन में आने का श्रेय कांशीराम जी को ही देता हूं. मैने आंदोलन उन्हीं से सिखा. मैं महाराष्ट्र के अंबेडकर कॉलेज का प्रोडक्ट हूं. मगर वहां की रिपल्बिकन पार्टी से नहीं सीखा. लेकिन आज की तारीख में मैं उन्हें इससे ज्यादा महत्व नहीं देता. क्योंकि हमें तैयार करने का श्रेय तो उन्हें जाता है लेकिन इस आंदोलन को तोड़ने के लिए भी मैं उन्हें ही जिम्मेदार मानता हूं. हालांकि ऐसा कहने के लिए कई लोग मुझे कोसते भी हैं.
दो दशक बाद दलित राजनीति और दलित आंदोलन को आप कहां देखते हैं
– हम तो ऊंचाई पर रहेंगे. वैसे मैं ‘दलित’ शब्द से परहेज करता हूं. क्योंकि हमारा दुश्मन भी हमें दलित कहता है और हम भी खुद को दलित कहते हैं, मतलब मामला तो सेटल्ड है. वह तो यही चाहते हैं. अब जैसे हमने खुद को मूलनिवासी कहना शुरू किया है तो वो बचाव की मुद्रा में हैं. हमने कहना शुरू किया है कि वो बाहर के हैं. पहचान किसी भी आंदोलन के लिए बहुत जरूरी है. वह हम कर रहे हैं.
आपकी नजर में दलित आंदोलन से जुड़ी हुई खामियां क्या-क्या है?
– आंदोलन की खामियां तो मैं आपको नहीं बता पाऊंगा लेकिन इतना कह सकता हूं कि आंदोलन चलाने के लिए नेतृत्व लगता है. हमारे समाज में लिडर्स ऑफ कैरेक्टर नहीं आ रहे हैं. कैरेक्टर बिल्डिंग की जो प्रक्रिया है, वह हो नहीं रही है. इसी वजह से सारी दिक्कते हैं. हम अपने संगठन के माध्यम से इसकी कोशिश कर रहे हैं.
बोरकर जी से संपर्क करने के लिए और इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप उनके मोबाइल नंबर 09930337444 पर संपर्क कर सकते हैं। अशोक दास से संपर्क करने के लिए आप 09711666056 पर फोन कर सकते हैं या ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
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