ये मुद्राराक्षस हैं.
सन् 77 के वक्त जब इमरजेंसी लगी थी तो इसे चुनौती देने का माद्दा बहुत कम लोगों में था. राजनीतिक तौर पर जयप्रकाश सहित कई लोग इसे चुनौती दे रहे थे तो सांस्कृति तौर पर भी इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती मिल रही थी. मुद्राराक्षस वो शख्स थे जिन्होंने नाटक के जरिए तानाशाह सरकार पर जोरदार कटाक्ष किया था. उनके नाटक ‘आला अफसर’ तब की जबरिया सरकार को कुछ ऐसा चुभा की इसे देखने के लिए कांग्रेस के कद्दावर अर्जुन सिंह पहुंचे. उनका लेखन कई सवाल खड़े कर चुका है. कई लोगों को चुभता भी है. विरोध भी होता है लेकिन इन सब से बेपरवाह 60 से ज्यादा रचनाएं रच चुके मुद्राराक्षस का सफर बदस्तूर जारी है. वह अपने मन की बात बिना लाग-लपेट के कह देने के लिए भी जाने जाते हैं. धर्मवीर उनको पसंद नहीं तो फट से कह देते हैं कि ‘वह आदमी कुंठित है.’ दलितों के प्रति दृष्टिकोण को लेकर नामवर सिंह, प्रेमचंद, प्रगतिशील लेखक संघ, वामपंथ, किसी को नहीं बख्शते. उन्हें इस बात का दुख है कि दलित होने के बावजूद दलित समुदाय रविंद्रनाथ टैगोर को अपना नहीं सका. मंच से उनके फोटो नदारद रहते हैं जबकि उनकी लेखनी दलित समाज के लिए भी समर्पित रही. वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक मुद्राराक्षस से बात की दलितमत.कॉम के संपादक अशोक दास ने. पेश है बातचीत के अंश……..
आपके बचपन से शुरू करें तो वो दौर कैसा था, आप उसे कैसे याद करते हैं?
– गांव में जन्म हुआ (21 जून 1933, बेहटा). यह लखनऊ से करीब 24 किमी है. अब तो वो गांव शहर में ही शामिल हो गया है. वहां जन्म हुआ और चौथी तक वहीं प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की. उसके बाद पिता लखनऊ आ गए तब से फिर यहां रहते गए. बाकी की शिक्षा लखनऊ में हुई. यूनिवर्सिटी में हुई. और लिखना भी लगभग 1950 में शुरू हुआ. निराला, महादेवी और पंत वगैरह को पढ़ने से लिखने की प्रेरणा मिली. 1951 से लिखना शुरू किया. 1955 में लखनऊ से कलकत्ता चला गया. कलकत्ता से मैगजीन निकलती थी ‘ज्ञानोदय’. अब तो वो ‘नया ज्ञानोदय’ हो गया है. तो यहीं 55 में सहायक संपादक हो गया. 58 तक उसमें रहा. 58 में इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखन करने लगा. यह एक साल चला. फिर एक जैनियों की ‘अनवरत’ पत्रिका निकलती थी (लगातार कई बार उबासी आती है तो कहते हैं, ‘माफ कीजिएगा, वो कल रात को लाइट नहीं थी तो पूरी रात सो नहीं सका.’) तो उसमें करीब एक साल तक संपादक रहा. 60 में पत्रिका दिल्ली आ गई तो मैं भी दिल्ली आ गया. 76 तक दिल्ली में ही रहा.
दिल्ली का जीवन जरा अगल किस्म का जीवन था. 62 में मैं आकाशवाणी में चला गया. एक साल काम करने के बाद मुझे लगा कि वहां जो लोग काम करते हैं, उनकी हालत ठीक नहीं है. काम करने की स्थितियां बेहतर नहीं थी. इसलिए हमने वहां एक यूनियन बनाया. यह पहला संगठन था. उसी के जो आंदोलन हुए उससे वहां लोगों के हालात में काफी सुधार हुआ. पहले लोग 3-6 महीने के कांट्रेक्ट पर होते थे. यूनियन बनने के बाद वो परमानेंट हुए. 76 में इमरजेंसी के दौरान मुझे वहां से छोड़ना पड़ा. क्योंकि तब वहां काम कर पाना मुश्किल था. जब नौकरी छोड़ी तो थोड़ी आपात स्थितियां भी थी. विद्याचरण शुक्ल थे मंत्री, उनको मेरा यूनियन चलाना पसंद नहीं आया. मैने मार्च में इस्तीफा दे दिया. उस पर जुलाई तक विचार होता रहा. लेकिन जब मैने जुलाई में साफ कह दिया कि अब मैं वापस आऊंगा ही नहीं तो वहां से छूटना फाइनल हो गया. फिर मैं लखनऊ आ गया.
आपने कोलकात्ता और दिल्ली दोनों जगहों पर काम किया. दोनों जगहों की परिस्थितियों में क्या अंतर था?
– अंतर तो कोई खास नहीं था. मतलब दोनों ही जगह अच्छी जगह थी. तो जो सामान्य जीवन हो सकता है, वो ठीक ही ठाक चल रहा था.
आपने यूनियन की नींव रखी थी. जैसा कि आपने बताया कि इसका काफी फायदा भी हुआ था. लेकिन आपको याद होगा कि मीडिया में पिछले दिनों काफी बड़े पैमाने पर छंटनी हुई थी और कहीं से कोई आवाज नहीं आई, तो क्या वो आंदोलन कमजोर पर गया है?
– वो तो खतम ही हो गया है लगभग. अब तो वहां एसोसिएशन है, यूनियन नहीं है. कोई खास ताकत भी नहीं है. सब बिखर गया. उसके लिए काफी जुझाड़ू किस्म का आदमी चाहिए, तब यूनियन चल पाता है. वरना वो तो लेन-देन की हो जाती है.
तो क्या लेन-देन की वजह ने यूनियन खत्म हो गया?
– नहीं ऐसा नही है. यह कोई इंडस्ट्री तो है नहीं कि सीधे पैसे दे देंगे. यह तो इंडस्ट्री में होता है. यहां लेन-देन का मतलब है कि प्रोमोशन दे दिया, अच्छी पोस्टिंग दे दी. यूनियन नेताओं को इसी से फायदा हो जाता है और इसी के आधार पर लोग कमजोर हो जाते हैं. तो ये फर्क पर जाता है.
आपके जीवन में एक दौर था, जब आप नाटकों से जुड़े थे. उस दौर के बारे में बताइए?
– आकाशवाणी एक ऐसी जगह थी (रूक कर कहते हैं, अब तो स्थितियां बदल गई है, वैसी रही नहीं), जहां थिएटर में काम करने वाले सारे अच्छे लोग आते थे और वहां होने वाले नाटक में हिस्सा लेते थे. जैसे- कुलभूषण खरबंदा, ओम शिवपुरी, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, ये लोग आकाशवाणी में होने वाले नाटकों में काम करने आते थे. क्योंकि तब आमदनी का जरिया कम था. यहां काम करने से उनका थोड़ा खर्चा निकल जाता था. इस दौरान नाटक का काम करने वालों से संबंध बना. उसी वक्त वहां नेमीचंद्र जैन हुआ करते थे. अब तो उनका देहांत हो गया. तो उनसे निकटता होने पर नाटक में काम करने की और नाटक लिखने की इच्छा पैदा हुई. फिर लिखा भी. 63-64 में स्टेज के लिए लिखने लगा. यहीं एनएसडी (National School of Drama) था जहां दुनिया के अच्छे नाटक होते थे. यहीं नाटक लिखने की प्रेरणा मिली. उस दौरान कईयों से निकटता थी. एक गुलशन कपूर थे. बहुत ही अच्छे इंसान थे. नाटक में उनके जैसी प्रतिभा बहुत कम होती है. ओम शिवपुरी, चमन बग्गा इसके अलावा बंबई के कुछ लोग आ जाते थे बीच-बीच में, इन सब से एक माहौल बनता था. सभी के साथ अनुभव बहुत लंबे हैं.
नाटकों के उस दौर में आपका एक नाटक ‘आला अफसर’ काफी चर्चित और विवादास्पद रहा था. हुआ क्या था?
– ‘आला अफसर’ असल में गोगोल (रुसी नाटककार) के एक नाटक ‘इंस्पेक्टर जनरल’ का भारतीयकरण था. शहर में एक बड़ा अधिकारी है और उसके यहां जांच के लिए कोई आने वाला है. जांच के लिए जो आता है, उसको ये बड़े आदर के साथ लाते हैं. हालांकि वह जांच के लिए नहीं आया था घूमने आया था. तो शासन और आम आदमी के बीच रिश्ता क्या है, ये उसका केंद्र है. तो जाहिर से उसमें विवाद होना था.
शायद इंदिरा जी ने उसे देखने की इच्छा जताई थी?
– (हंसते हुए, जैसे उन दिनों नाटक को लेकर मचे कोहराम को याद कर रहे हों) नहीं, उन्होंने नहीं की थी बल्कि मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह ने जरूर देखने की इच्छा जताई थी और उन्होंने देखा भी. अब ये पता नहीं चल सका कि उनको कैसा लगा. उस वक्त सामने बात हुई नहीं. ताली तो उन्होंने बजाई लेकिन उनका विचार पता नहीं चल सका.
नाटक लिखना छूट कैसे गया, क्या वजह रही?
– छूटा तो नहीं, क्योंकि मैं लिखता तो रहता हूं, लेकिन उसमें एक कठिनाई है. जो नाटक की दुनिया है वह पिछले 10-15 वर्षों में सरकार पर निर्भर हो गई है. स्वतंत्र रूप से नाटक होते नहीं. सरकार से जो ऐड मिल जाता है, उससे नाटक कर लेते हैं. ये जो सरकारीकरण है, उसने नाटक के पूरे माहौल को खराब कर दिया. मौलिक लेखन होना बंद हो गया. मौलिक लेखन न होने के कारण उससे मेरी दूरी बन गई. क्योंकि मौलिक लेखन ये लोग पसंद नहीं करते. अच्छा मेरी आदत है कि मैं अपना नाटक आम तौर पर करता नहीं हूं. एक ही बार किया था अपना नाटक. तो मेरा नाटक दूसरे किया करते थे. तो अब लोगों के पास ऐसे संसाधन नहीं है कि वो नाटक करें तो इस वजह से लिखना धीरे-धीरे छूट गया. यानि सरकारीकरण इतना ज्यादा हो गया कि वहां बैठे हुए लोग बने-बनाए नाटक ही ज्यादा लेना चाहते हैं.
आपने मीडिया को भी करीब से देखा है. समाज के एक बड़े तबके की उपेक्षा करने का मीडिया का जो चरित्र है, उसको आप कैसे देखते हैं?
– देखिए मीडिया हमेशा एक तो सांप्रदायिक रहा है. यानि मुस्लिम संस्कृति के विरुद्ध. दूसरे, मीडिया में, खासतौर पर आकाशवाणी औऱ दूरदर्शन में करीब 70 फीसदी बड़े आर्टिस्ट दलित थे. लेकिन उन्हीं की हालत सबसे ज्यादा खराब थी. कितनी भी कोशिश कर लिजिए उनको पहचान नहीं मिलती थी. हमने बहुत संघर्ष किया तो इतना हुआ कि चलो 25 फीसदी प्रोमोशन दे देंगे. लेकिन इसके बाद कोई प्रोमोशन नहीं हुआ. तो एक प्रोमोशन में जीवन बीत गया. तो इस तरह से वहां का माहौल वंचित समुदाय के पक्ष में नहीं था. ऐसा नहीं था कि उसकी हिस्सेदारी हो सके. जो दलित ऊपर तक पहुंचा था वो भी ब्राह्मणवादी होकर ही ऊपर पहुंच पाया. हालत ऐसी थी कि आकाशवाणी में (तब दूरदर्शन और आकाशवाणी एक ही थे) एक अमृतराव शिंदे थे. वो डिप्टी डायरेक्टर जनरल तक तो बन गए, फिर इनको डायरेक्टर जनरल बनाया जाना था. बाकी सारे डिप्टी डायरेक्टर जनरल ने सख्त विरोध किया. सांसदों तक से शिकायतें की कि उन्हें न बनाया जाए. हमने विरोध करने वालों से बात किया कि क्या दिक्कत है, तुमलोग विरोध क्यों कर रहे हो? वह सीनियर मोस्ट है तो उसको बनना चाहिए. तो उनका कहना था कि यार तुम समझते नहीं हो, ये दलित है और अभी इसकी नौकरी 6 साल बाकी है. ये छह साल तक इस पद पर रहेगा. मैने कहा कि दूसरे कई लोग तो लंबे अरसे तक रहे हैं. लेकिन वो फिर भी नहीं माने. इसके बाद शिंदे को एक्सटर्नल अफेयर मिनिस्ट्री में कहीं डायरेक्टर जनरल बनाकर भेज दिया गया. जब उनके तीन साल हो गए तब उनको ब्राडकास्टिंग में लाया गया. ताकि वो तीन साल ही इस पद पर रहें.
तब तक मैं छोड़ चुका था. मैं उनसे मिलने गया. लेकिन तब तक वह आदमी पूरी तरह ब्राह्मण हो गया था. वहां दलित मुद्दा न उठाओ. वहां एक बहुत छोटी समस्या उठी थी. जो चौकीदार वहां होते थे. उनमें एक रण सिंह नाम का आदमी था. दलित था. उसने एक बार सवाल उठाया कि हमलोग सारा वो काम करते हैं जो इंडस्ट्रीयल सिक्यूरिटी आर्गेनाइजेशन में सिक्यूरिटी फोर्स वाले करते हैं. लेकिन उनकी और हमारी तनख्वाह में फर्क है. उन्हें हमसे दोगुनी तनख्वाह मिलती है. सिक्यूरिटी में ज्यादातर लोग दलित ही थे. लेकिन आखिर तक उनकी मांग खुद अमृतराव शिंदे ने स्वीकार नहीं की. जबिक ये बहुत छोटी बात थी. डायरेक्टर जनरल सिर्फ चाह देते तो उनको बढ़ा हुआ वेतन दे सकते थे. लेकिन दलित होने के बावजूद ब्राह्मणवादी होने के कारण उन्होंने ऐसा नहीं किया.
इसका विकल्प क्या हो सकता हैं. इतना लंबा वक्त बीत जाने के बावजूद मुख्यधारा की मीडिया में दलितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला. तो क्या दलितों को अपनी मीडिया स्थापित करनी चाहिए?
– ये हो तो रहा है. लोग कोशिश तो कर रहे हैं. खासतौर से बामसेफ वाले कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ऐसा कोई काम हो सकेगा जिससे दलित सचमुच लाभान्वित हो सके, ऐसा मुझे नहीं लगता. देखिए जिस तरह का अखबार बामसेफ निकालना चाहते हैं या फिर वो निकालने लगे हैं. या इलेक्ट्रानिक मीडिया पर खर्च करना चाहते हैं तो उससे कोई लाभ नहीं होने वाला. क्योंकि देखिए सीधी सी बात है कि ये जो सवर्णों का मीडिया है वो क्या करता है कि सारी खबरें देता है. दलितों की भी खबरें देता है लेकिन अपने ढ़ंग से दे देता है. तो क्या होता है कि उसका जो दर्शक या फिर पाठक है वो बहुत बड़ा हो जाता है. दलितों को तो लाभ मिलता है, बाकियों को भी होता है. अब बामसेफ की कठिनाई ये है कि वो एक्सक्लूसिव दलितों के लिए निकालेंगे. अब जब एक्सक्लूसिव दलितों के लिए निकालेंगे तो बाकी लोग तो उसको देखेंगे नहीं. और सबसे बड़ी बात है कि बाकी लोगों को चुनौती कैसे मिलेगी.
जैसे देखिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का जो आंदोलन है, वो हमें प्रभावित करता है कि नहीं. आपको यह भी देखना होगा कि सवर्ण क्या हैं, उनकी हैसियत क्या है, वो गड़बड़ियां कैसे करते हैं. और दलित के पक्ष में भी लिखिए. यानि जब तक पूरे समाज के बारे में क्रिटिकल नजरिया नहीं होगा, यह चलेगा नहीं. तो सबकी बात हो, दलितों का अपने तरीके से हो. जैसे अन्ना के आंदोलन में भी आरक्षण के बारे में कहा गया कि यह गलत है. आरक्षण पर एक फिल्म आई थी, उसपर जो शोर मचा उसमें मीडिया भी शामिल था. हालांकि मैने यह फिल्म देखी नहीं है.
आपने अभी ‘आरक्षण’ फिल्म की बात की. पिछले कुछ वक्त में ऐसी कुछ फिल्में आई हैं जिसमें दलित किरदार मुख्य भूमिका में है. तो यह जो बदलाव आया है, जिसमें अब कम से कम बात होने लगी है, जैसे कहते हैं कि बहस जरूरी है, तो यह कितना साकारात्मक है?
– ये तो सही है. लेकिन सारा जो फिल्म जगत है वो गैर दलित है. सारे फिल्मी दुनिया के लोग ये तो चाहते हैं कि उनकी फिल्म दलित भी देखें. इसलिए थोड़ी बात दलितों की भी डाल देते हैं. बाकी कोई चिंता नहीं है उनकी. फिल्म वाले इस बारे में थोड़े उदार तो हैं लेकिन उनकी उदारता की वजह आर्थिक है. जैसे मुस्लिम को बराबरी का ठहराने वाली बात हर फिल्म में मिल जाएगा. उनके विरुद्ध कोई बात नहीं होती. तो फिल्म वाले इस बारे में थोड़ा उदार हैं लेकिन अखबार और मीडिया वाले नहीं है.
‘आरक्षण’ फिल्म के प्रोमोशन के दौरान अमिताभ बच्चन और प्रकाश झा कई मंचों पर आएं लेकिन आरक्षण को लेकर उन्होंने कोई स्पष्ट मत नहीं दिया. तो उनका जो दोहरा चरित्र है, उसके बारे में आप क्या कहेंगे?
– प्रकाश झा तो मैथिल ब्राह्मण हैं. जाहिर है वो बहुत कट्टर लोग हैं. ज्यादा हिलते नहीं. अमिताभ बच्चन की पूरी ट्रेनिंग ऐसी जगह हुई जहां ये बात मायने नहीं रखती. हरवंश राय बच्चन उनके पिता हैं. हैं तो ये शूद्र जाति के ही. कायस्थ थे. लेकिन बड़ी दुनिया में पहुंच गए. जाहिर है तब दलित प्रश्न उनके लिए मायने नहीं रखता.
इसी मीडिया ने पिछले दिनों नोएडा में मायावती द्वारा दलित प्रेरणा स्थल बनाने की तीखी आलोचना की थी. लखनऊ में भी अंबेडकर पार्क बनाने के दौरान बहुत विरोध हुआ था. आपका क्या मानना है, क्या ऐसे पार्क और मूर्तियां बनना सही है?
– ये तो सही है. बिल्कुल सही है. इससे एक स्थाई छाप तो पड़ेगी उस समूची जाति की, कि इतना बड़ा काम इनके पक्ष में हुआ. हालांकि उस काम को किसी सवर्ण ने प्रशंसा की दृष्टि से नहीं देखा. हर वक्त आलोचना ही होती रही. गांधी की लाखों मूर्तियां इस देश में होंगी और स्मारक होंगे. उस पर तो कोई आक्षेप कभी किसी ने नहीं लगाया कि गांधी की मूर्तियां इतनी क्यों बन रही हैं. अब गांधी से बड़े स्मारक बन रहे हैं तो उन्हें चिढ़ हो रही है. जब तक गांधी जी के सामानांतर मूर्तियां लगती थी तब तक दिक्कत नहीं थी. दिक्कत ये हुई कि उससे बड़े स्मारक बन गए हैं और अब गांधी की उतनी बड़ी मूर्तियां बनाने वाला कोई है नहीं, तो जाहिर है लोगों को कष्ट तो होना ही था इस निर्माण कार्य से.
आप सोचिए कि आप सुभाष बाबू के नाम पर कितने स्मारक बना लेते हैं. अब सुभाष कोई सही आदमी तो थे नहीं, जर्मनी का जो हिटलर है, उसके साथ काम कर रहे थे. कभी उन्होंने अपने जीवन में एक शब्द नहीं कहा कि हिटलर अत्याचारी है. मेरा ख्याल है कि करीब 70 लाख लोगों को मरवाया उसने. तो सुभाष बाबू कभी उसके बारे में तो बोले नहीं. उनकी मूर्तियां लगी हुई है. अच्छा है कि अब वो सब मूर्तियां छोटी हो गई हैं. मैं तो बहुत खुश हूं. जैसे बुद्ध का है. बुद्ध के जो स्मारक हैं, उसके बराबर कोई नहीं पहुंच सकता. राम का कोई स्मारक उतना बड़ा नहीं बन सकता. यह संभव ही नहीं है. तो जाहिर है कि यह स्थिति कुछ लोगों को थोड़ा आतंकित करती है. उत्तर प्रदेश में बड़ा काम हो गया.
हां, मायावती ने जो अपनी मूर्ति लगा दी है, उसको लेकर विवाद हुआ. मैं भी उसके पक्ष में नहीं हूं. कांशी राम ने उत्तर भारत में दलितों को आगे बढ़ाने में काफी योगदान दिया. तो उनकी मूर्ति लगनी चाहिए. बड़ी से बड़ी लगनी चाहिए. औरों की तो लगी ही है. लेकिन मायावती की खुद की मूर्ति लगाने से विरोध करने वालों को एक बहाना मिल गया. जो भी हल्ला मचता है वो मायावती की मूर्ति के लिए ही है. किसी दूसरे की मूर्ति के विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं है.
आपने बुद्ध की बात की अभी. दलितों के विकास में, उनके आगे बढ़ने में बौद्ध धर्म का कितना महत्व है?
– बहुत बड़ा महत्व है भाई. वो साधारण नहीं है. बुद्ध ने जातिवाद तोड़ा. जो भी जातिवाद तोड़ेगा और सफलता पूर्वक तोड़ेगा वह बड़ा तो होगा ही. इस देश में बौद्ध धर्म को बहुत नुकसान पहुंचा. यानि अगर यह बाहर न गया होता. यानि तिब्बत, चाइना, जापान आदि जगहों पर बौद्ध संस्कृति न फैली होती तो दिक्कत होती. अब यूपी की महत्ता भी उन जैसी होने लगी है.
शूद्र जाति के लोग दलित आंदोलन से उतनी शिद्दत से नहीं जुड़ पाएं, उसकी क्या वजह है?
– दलितों ने भी शूद्रों के बहुत नजदीक जाने की कोशिश नहीं की. बामसेफ जरूर उदार संगठन है. बसपा है तो वह जबरदस्त काम करती है. लेकिन ऐसी स्थिति नहीं बनाती है कि शूद्र उसके साथ आ जाएं. इसकी कमी है. ओबीसी में से कुछ लोग राजसत्ता में आ गए. जैसे यूपी में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार आएं. अब नीतीश कुमार तो कुर्मी है. हैं तो ओबीसी लेकिन ओबीसी जैसा काम नहीं करते हैं. काम वही ब्राह्मणों जैसी करते हैं. वही स्थिति मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की थी. बल्कि वो तो खतरनाक ढ़ंग से हिंदुत्व के साथ हो गए थे. कहते थे कि हम तो कृष्ण के वंशज हैं. उससे भी ज्यादा हास्यास्पद है कि आप जो हिंदु धर्म के तीज-त्यौहार है उसे उतने उत्साह से क्यों मनाते हैं. यह तो ब्राह्मणों का है. जो ओबीसी सत्ता में पहुंचा वो शिद्दत से सवर्ण हिंदू बन गया.
इस मायने में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की जो भूमिका है, क्या आप उसकी सराहना करते हैं?
– इधर नहीं. क्योंकि उनको नारा तक बदलना पड़ा. मैने बीच में टोकते हुए सत्ता की मजबूरी याद दिलाई, तो उन्होंने कहा- ‘बहुजन हिताय’ के बाद आप ‘सर्वजन हिताय’ कर दें इसकी क्या मजबूरी होगी. मजबूरी अधिक से अधिक ये थी की मनुस्मृति न जलने दी जाए. तो अगर वो सर्वजन नारा न लगाती तब भी ब्राह्मणों को कुछ पता नहीं चलता. उनको तो पता नहीं चलता कि बहुजन और सर्वजन का फर्क क्या था. अब बुद्ध तो इतने बुद्धू थे नहीं. जब उन्होंने बहुजन हिताय कहा तो साफ मतलब था कि उसमें किसी गलत काम करने वालों के सुख की कामना हम नहीं करते हैं. उसको तो दंड मिलना चाहिए. इसलिए उन्होंने बहुजन सुखाय नारा दिया था. लेकिन अब तो हो गया. पर ये कारण है जिससे आंदोलन को थोड़ा फर्क पड़ता है.
आप वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे हैं. लेकिन इसने दलित सवालों को मुखरता से क्यों नहीं उठाया?
– बिल्कुल सही कह रहे हैं. कभी नहीं उठाया. बहुत खराब स्थिति है. हाल में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि दलित प्रश्न और स्त्री प्रश्न क्या होता है, क्यों उठाते हैं लेखक लोग? तो अब इस मानसिकता को क्या कहेंगे? शुरू से आज तक दलित प्रश्न पर और स्त्री प्रश्न पर भी वामपंथ ने कोई सीधा काम कभी नहीं किया. इसमें वो जो 500 पन्नों का बनता है घोषणा पत्र, उसमें पांच हजार मुद्दे होते हैं. उसी में एक छोटा सा प्रश्न दलित मुद्दा होता है. यह बेकार है. तो वामपंथ कभी करेगा ही नहीं. मैं टोकता हूं, लेकिन आज जब दलित आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से संपन्न होने लगे हैं तो कुछ वामपंथी धरे जाति के प्रश्न को उठाने लगा है. मुद्राराक्षस पहले के ही भाव में कहते हैं- यह बिल्कुल धोखाधड़ी है. कोई रिश्ता ही नहीं है.
प्रगतिशील लेखक संघ जिसकी आपने बात की, उसकी नींव यहीं लखनऊ में पड़ी. हाल ही में लखनऊ में ही इसका 75वां वर्ष मनाया गया. तो प्रेमचंद से अब तक प्रगतिशील लेखक संघ कितनी प्रगति कर पाया है?
– देखिए, इस मामले में तो प्रेमचंद भी पिछड़े हुए थे. वो कोई दलित पक्षधऱ नहीं थे. उन्होंने ऐसी दो-एक कहानियां जरूर लिखी जिसमें दलित पात्र है. लेकिन वो कहानियां ही विवाद का विषय है. और प्रेमचंद्र कठोरता के साथ गांधी के समर्थक थे. जिस मुद्दे पर पूना पैक्ट हुआ. यह प्रेमचंद्र के ही शब्द हैं कि “दलित हमारे पैर हैं और अगर पैर ही कट गए तो हम कैसे जीवित रहेंगे.” (तल्खी के साथ कहते हैं) पैर ही क्यों हैं भाई. आप हमें पूरे शरीर का हिस्सा क्यों नहीं मानते. क्योंकि हर हालत में आप हमें नीचे ही देखते हैं. तो प्रेमचंद घोर दलित विरोधी हैं.
नामवर सिंह ने सार्वजनिक मंच से आरक्षण का विरोध किया है. उनके बयान को आप कैसे देखते हैं?
– वो तो बोलेंगे ही. ये तो सारा वो वर्ग है जिसके बारे में देखा जा चुका है. जब ओबीसी को आरक्षण मिला तो इन लोगों ने विरोध के नाम पर कुछ लोगों को जिंदा तक जलवा दिया. तो ये तो हमेशा विरोध में रहेंगे. ये कभी पक्ष में नहीं रहेंगे.
जब भी दलित विमर्श की बात आती है तो अक्सर विवाद उठता है कि दलितों की बात सिर्फ दलित ही कर सकते हैं, तो दूसरी आवाज आती है कि सिर्फ दलित ही क्यों, गैर दलित भी कर सकते हैं. आपका क्या मानना है?
– ये अजीब है. एक बात बताइए, ये जो हिंदी का लेखक है जो ऐसी बातें करता है, उससे कहिए कि वो इंडोनेशिया के बारे में क्यों नहीं लिखता, जापान के बारे में क्यों नहीं लिखता. वहां भी तो किसान हैं, वहां भी तो औरते हैं-आदमी हैं. आप उनके बारे में तो कहानी नहीं लिखते हैं. क्योंकि वो एलियन है. अब सवाल यह उठता है कि आप दलित के बारे में क्यों लिखना चाहते हैं. (व्यंग्य के लहजे में कहते हैं) अगर आप दलित के बारे में कहानियां नहीं लिखेंगे तो क्या हो जाएगा, क्या आप बीमार हो जाएंगे. आखिर क्यों लिखना चाहते हैं. आपके पास आपकी पूरी दुनिया है, उसके बारे में लिखते रहें. ये तो अजब बात है कि दलित पर भी हम ही लिखेंगे.
मैं टोकता हूं, ‘’कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये जो स्पेस है, उसे गैर दलित हड़पना चाहते हैं ’’ मुद्राराक्षस सहमति जताते हुए कहते हैं, बिल्कुल यही बात है. ये एक बड़ा क्षेत्र है. तो वो सोचते हैं कि उधर भी जमें रहो, इधर भी टांग अड़ाए रहो.
मोहनदास नैमिशराय ‘बयान’ नाम की एक पत्रिका निकालते हैं, उसमें कई बार बाबा साहेब डा. अंबेडकर के ऊपर उंगली उठाई जाती रही है. पिछले दिनों ‘सम्यक प्रकाशन’ के शांति स्वरूप बौद्ध ने सार्वजनिक रूप से इसका विरोध भी किया था. तो इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं, आज के वक्त में कौन लोग ठीक लिख रहे हैं?
– ये तो कुछ दलितों में डा. धर्मवीर का प्रभाव है. एक बात नहीं सोचते हैं आप, कि जितनी पढ़ाई लिखाई बाबा साहेब ने अपने वक्त में कर लिया था. 25-26 में वो एक गहरे विद्वान के रूप में सामने आए. दुनिया भर का साहित्य उन्होंने पढ़ रखा था. तो बाबा साहेब के जितना बड़ा कोई आदमी हो तो उनके विरुद्ध बोले. बाबा साहेब की कई बातें ऐसी हो सकती है जो सही न हो. एक तो बहुत जल्दी उनका देहांत हो गया. तो इतनी जल्दी जिस आदमी का देहांत हो जाए और उससे पहले वो इतना बड़ा काम कर गया हो, ये कोई साधारण तो है नहीं भाई. उतना बड़ा काम उनसे लंबा जीवन पाने वालों ने आज तक नहीं किया. इसलिए बाबा साहेब की आलोचना मुझे सही नहीं लगती. यह गलत काम है. ये डा. धर्मवीर ने चला रखा है ज्यादा. जो केरल में थे. उन्होंने बुद्ध की आलोचना की है. अंबेडकर की भी आलोचना की है. हालांकि खुद भी दलित हैं. तो आलोचना का अधिकार एक तो उसे होता है जो आलोच्य से ज्यादा बड़ा हों, जिसकी आलोचना कर रहे हैं उससे बड़े हों. कह के तो बड़ा नहीं हो सकता कोई. कल को हम कह दें कि बुद्ध से भी बड़े हैं और बुद्ध की आलोचना करने लगें तो यह गलत है.
जहां तक लेखन की बात है. चंद्रभान ठीक लिखते हैं. सही सोचते हैं, सही बोलते हैं. लेकिन ये आदमी गलत है, कुंठित है. डा. धर्मवीर. सही नहीं लिखता. हालांकि उनके पक्ष में बहुत पत्रिकाएं निकलती हैं. वो बहुरि नहिं आवना भी उन्हीं के पक्ष की है. लगभग सारे अंक में उन्हीं पर छपा होता है. जहां तक दलित लेखन है नैमिशराय अच्छा कर रहे हैं. लेकिन वो धर्मवीर के विचारों से सहमत हों, ये अच्छा नहीं लगता.
महाराष्ट्र में सांस्कृतिक जागरूकता है जबकि यूपी में राजनीतिक जागरूकता है, लेकिन दोनों एक-दूसरे की खूबियों को साझा नहीं कर सके, इसकी क्या वजह है?
– भाषा का अंतर है. भाषा भिन्न होने के कारण लोगों के बीच संवाद नहीं हो पाता. मराठी भाषा हिंदी से अलग है. तो जाहिर है हिंदी भाषी जो क्षेत्र है वो मराठी आंदोलन से प्रभावित नहीं हो पाते. अगर मराठी भाषा यहां भी चल गई होती तो आंदोलन का स्वरूप कुछ और होता. हिंदू जातिवादियों को सबसे ज्यादा डर दो जगहों से लगता है, एक चेन्नई और दूसरा महाराष्ट्रा से. ये भाषा अगर हिंदी प्रदेश में समझी जाने लगी तो बड़ा आंदोलन हो जाएगा.
नाचने-गाने का जो काम है वह दलितों-शूद्रों से जुड़ा रहा है. सांस्कृतिक इतिहास में इसका क्या महत्व है?
– जो बेहतर गायक या नर्तक है इस वक्त वो सारे शूद्र जाति के हैं. ब्राह्मणों ने कुछ कोशिश जरूर की हमला करने की, कि वो ज्यादा बड़े हैं, लेकिन हो नहीं पाया. बनारस के शहनाइ वादक बिस्मिल्लां खां तो अति दलित जाति के थे. अब वो इनकी बराबरी तो कर नहीं पाते. जब मैं ब्राडकास्टिंग में था तो वहां आर्चाय बृहस्पति नाम के एक एडवाइजर आ गए. वो इस बात पर अमादा थे कि दुनिया का सबसे बड़ा संगीतकार पंडित ओमकार नाथ ठाकुर को मानो. हमलोगों ने काफी हल्ला-गुल्ला भी किया. लेकिन अपने जीते जी उस आदमी ने कुमार गंधर्व को कभी ब्राडकास्टिंग में आने नहीं दिया. क्योंकि कुमार गंधर्व ओबीसी थे. लेकिन कुछ लोग अपने को पंडित लिखने लगे. जैसे वो जो बांसुरीवादक हरि प्रसाद चौरसिया हैं, अपने को पंडित भी लिखने लगें. लेकिन हैं तो चौरसिया हीं. तो कुछ संगीतकारों में भी यह हो गया कि वो अपने को ब्राह्मण दिखाएं. नर्तक अच्छन महाराज, शंभू महाराज, लच्छू महाराज इनकी जो भी संतान हैं दिल्ली में, वो सारे पंडित लिखते हैं अपने को. जबकि ये लोग पंडित हैं नहीं, सब दलित हैं. तो क्या कर सकते हैं.
आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी साहित्यिक और सांस्कृतिक रही है. उसके बारे में बताएंगे?
– नाना आचार्य चतुर सेन शास्त्री साहित्य में एक जाने-माने नाम थे. पिता शिवचरण लाल प्रेम ड्रामा परफारमर थे. उन्होंने काफी काम किया लेकिन उन्हें आर्थिक सफलता नहीं मिल पाई. उन्होंने साईकिल का पंचर लगाया, रेलवे में मैकेनिक का काम किया, दर्जी का काम किया. पैसे के लिए हलवाई भी बने. लेकिन बुनियादी तौर पर वो आर्टिस्ट थे. पर आर्ट के जरिए कैसे अपनी जीविका चलाएं वह इसे समझ नहीं पाएं.
लेकिन इसकी वजह क्या है आखिर, क्यों करते हैं वो ऐसा?
– वजह साफ है कि खुद को पंडित लिखकर वो ज्यादा सम्मान पाते हैं. सवर्ण उनको और ज्यादा आदर देते हैं. अब यूं देखो, रविंद्रनाथ टैगोर अछूत जाति के थे. जिसको चांडाल कहा जाता है, उस जाति के थे. सारे लोग उनको ब्राह्मण मानते हैं. यहां तक की उनकी जो जीवनी लिखी गई है उसमें भी उनको ब्राह्मण बताया गया है, जबकि ये गलत है. बिल्कुल गलत है. यहां तक की हिंदुत्व की जितनी गहरी और गंभीर आलोचना गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने की है, उतनी किसी दूसरे बड़े लेखक ने नहीं की. वो जानते थे. उनका सारा लेखन इस बात का उदाहरण है. उन्होंने हमेशा दलित जाति के पक्ष में ही लिखा. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि दलित जाति भी उनको स्वीकार नहीं करती. आप किसी भी मंच से उनका नाम नहीं सुनेंगे. जबकि कायदे से तो मंच पर उनकी तस्वीर लगानी चाहिए.
क्या वो खुद को अपने लोगों से जोड़ नहीं कर पाएं ?
– ऐसा नहीं है. लोग ही उनसे खुद को नहीं जोड़ पाएं. उनका जो लेखन है आप उसे देखिए, सारा का सारा दलितों पर है. उनकी कविता जो है जूते का अविष्कार वो काफी प्रचलित है. (वो कहानी सुनाने लगते हैं.) “एक राजा था. जब वो चलता था तो उसके पांव में धूल लग जाया करती थी. उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई. कहा कि मैं चलता हूं तो पैरों में धूल लग जाती है. तो मंत्रिमंडल ने आपस में बैठक कर के तय किया कि एक लाख झाड़ू लगाने वाले लोग बुलाए जाएं और उनसे झाड़ू लगवा दिया जाए. एक लाख लोगों ने जब झाड़ू लगाया तो चारो ओर धूल ही धूल छा गई. राजा ने फिर मंत्रिमंडल को बुलाया और दूसरा उपाय करने को कहा, तब मंत्रिमंडल ने एक लाख पानी छिड़कने वाले लोगों को बुला लिया ताकि धूल न उड़े. जब उन एक लाख लोगों ने पानी छिड़का तो चारो ओर कीचड़ ही कीचड़ हो गया. मंत्रिमंडल फिर बैठा. इस बार तय हुआ कि सारी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ दो. इससे ना धूल उड़ेगी ना कीचड़. तो एक लाख चर्मकार बुलवा लिए गए. उनको जब कहा गया कि पूरी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ना है, तो उनका जो नेता था वो आगे आया और उसने राजा से पूछा कि आखिर आप ऐसा क्यों करना चाहते है. राजा ने कहा कि हमारे पैर में धूल लग जाती है, कीचड़ लग जाता है. तो उसने कहा कि जब कीचड़ और धूल लगने का ही प्रश्न है तो फिर आप अपने पैर को ही चमड़े से मढ़वा लिजिए. ” तो सारी व्यवस्था से ज्यादा सही सोच वह चर्मकार निकला. यह रविंद्रनाथ टैगोर के चिंतन का एक बड़ा पक्ष है. कि वो समाज में सर्वश्रेष्ठ किनको मानते हैं.
आप धार्मिक सद्भाव को लेकर भी एक मिसाल रहें हैं. (मुद्राराक्षस जी की पत्नी मुस्लिम समुदाय से संबंध रखती हैं ) तो उस वक्त कितनी मुश्किल आई थी आपके सामने?
– देखिए मेरे जीवन की जो शुरुआत है, उसमें मैं बता दूं. मेरा परिवार बेहद धार्मिक किस्म का था. मेरे परिवार में कोई भी अपने को शूद्र जाति का मानता नहीं था. थे. चूकि वह लिखने-पढ़ने का काम करते थे तो सब अपने को पंडित मानते थे. ब्राह्मण लिखते थे. सब आर्यसमाजी हो गए थे. हालांकि कोई ब्राह्मण उनको मान्यता देने को तैयार नहीं था. परिवार में यही माहौल था. मेरे नाना जी मुझे पढ़ाया करते थे. पहली बार जब मैने अपने उनसे धर्मग्रंथों का विरोध किया तो वो इतने नाराज हो गए कि फिर उन्होंने घर आना ही बंद कर दिया. मैने उनको कहा कि देखिए सारे धर्मग्रंथों में तो हमारे बारे में ये लिखा गया है. तो उनका जवाब था कि ये सब बाद में अलग से डाल दिया गया है. यानि 124 गृहसूत और धर्मसूत है, सबमें कैसे अलग से डाला जा सकता है. लेकिन नाना जी मानने को तैयार नहीं थे. तो ये जो धार्मिक जूनून था, उस वक्त थोड़ा मुझे भी लगता था कि एक बड़ा धर्मनेता बनना चाहिए. लेकिन जब मेरे कुछ कम्यूनिस्ट मित्र आएं उन्होंने मुझे पूरा परिवर्तित कर दिया. ये फायदा हुआ. हालांकि कम्यूनिस्ट बाद में खुद ही बदल गए.
आपकी शादी को लेकर भी काफी विवाद हुआ था, तब आप स्थिति से कैसे निपटे थे?
– मुझे तो कोई ज्यादा दिक्कत नहीं हुई क्योंकि मैं बहुत जल्दी जाना-माना लेखक बन गया था. तो कष्ट उन्हें ज्यादा हुआ जो विरोध कर रहे थे, इसमें मेरे पिता भी शामिल थे.
पुस्कारों का आपके जीवन में कितना महत्व है. आपको काफी सम्मान मिला लेकिन 2008 के बाद यह रूक सा गया. क्या वजह मानते हैं आप इसकी?
– ये जो सरकारी सम्मान है, वो जरा कम है. लेकिन इसको छोड़ दिया जाए तो जितना सम्मान हमको मिला है उतना जल्दी किसी को मिलता नहीं है. क्योंकि सारे देश में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां मुझे इज्जत न मिली हो. जन सम्मान तो इतना ज्यादा है कि दूसरे इसकी कल्पना नहीं कर सकते. ये जो सरकारी सम्मान होते हैं इन पर अभी मैने एक टिप्पणी लिखी थी कि ये प्रगतिशील लेखकों का ब्लैकमेल है. यानि खासतौर से जो प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष हैं वो लोगों को इतना ब्लैकमेल करते हैं कि क्या कहा जाए. उनकी कोशिश रहती है कि सारे संसाधन, सारे इनामात सब उनके अपने लोगों को मिलते रहे. यहां तक करते हैं कि प्रकाशक को फोन करते हैं कि ‘फलां’ कि किताब मत छापिएगा. ‘अमुक’ की बात मत सुनिएगा.
आपने संघर्ष के वक्त को आप कैसे याद करते हैं, वह वक्त कैसा रहा?
– संघर्ष का जीवन तो आज भी है. अभी का मतलब यह कि जो आर्थिक साधन होते हैं, मैं उनमें कुछ पिछड़ा हुआ हूं. उसके लिए ज्यादा प्रयत्न नहीं करता. तो थोड़ी-बहुत आर्थिक कठिनाईयां तो बनी रहती है. बाकी सब ठीक है. अपना काम चल जाता है. जैसे यहां के लेखकों में मशहूर है कि मेरा कुत्ता भी छिछला नहीं खाता है. मुर्गा आता है उसके लिए. अब जो मैने पाला है उसके लिए बोनलेस मछली जो 400 रुपये किलो वाली होती है, वो आता है. इतना मैं अपने बूते पर कर लेता हूं. मुझे किसी पर निर्भर नहीं होना है. सबसे बड़ी बात ये है कि किसी का कृपाकांक्षी नहीं बनना है.
क्या आपको कभी अजीब नहीं लगा कि आप जिस समाज से आते हैं, जिस समाज की बात करते हैं, वो सत्ता में आया, बावजूद इसके आपकी सुध नहीं ली?
– (हंसते हैं.) नहीं शासन का कोई दोष नहीं है. जितने साहित्य और सांस्कृतिक संस्थान हैं वो ब्राह्मणों के कब्जे में हैं. इन गोपाल चतुर्वेदी को आप क्या कहेंगे? प्रेम शंकर को आप क्या कहेंगे? तो अखड़ता नहीं है. शुरू में भी उन्हीं के कब्जे में था. अभी भी उन्हीं के कब्जे में है. बावजूद इसके मैं शिखर पर पहुंच गया. तो ठीक है.
आपके जीवन में किनका प्रभाव रहा?
– एक हमारे अध्यापक थे, डा. देवराज. फिलासफी पढ़ाते थे. लखनऊ विश्वविद्यालय में. उनकी खासियत यह थी कि वो तार्किक व्यक्तित्व थे. किसी तरह के ईश्वर या धर्म से उनका कोई ताल्लुक नहीं था. एक तो उन्होंने प्रभावित किया. भाषा शैली और शिल्प के रूप में निराला ने प्रभावित किया. भाषा का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए, ये हमने उसी आदमी से सीखा. हालांकि मैं उस आदमी का कठोर आलोचक हूं क्योंकि दलित मुद्दे पर वो आदमी बहुत गलत सोचता था. चिंतन बहुत खराब था. दलितों को वह सचमुच बहुत दलित मानता था वह आदमी. एक जगह उन्होंने लिखा है कि दलित तो सिर्फ डंडे से ही ठीक हो सकता है. वो आदमी कहीं भी बराबरी नहीं चाहता था. जब अंग्रेजी स्कूलों में यह व्यवस्था हुई कि सवर्ण और दलित इकठ्ठा पढ़ेंगे तो इस आदमी ने लंबा लेख लिखा था इसके विरूद्ध. विचारों से असहमत होने के बावजूद जो भाषा क्षमता है उनकी, उन्हीं से सीखा.
क्या आपको कभी ऐसा लगता है कि आप दिल्ली में होते तो ज्यादा कुछ कर पातें?
– नहीं, ऐसा नहीं लगा. मुझे नहीं लगता इसके कोई मायने है. मैं दिल्ली में रहता या लखनऊ में हूं, लिखता तो हूं ही, जाहिर है जो लिख रहा हूं वही मेरे व्यक्तित्व का आधार है.
इंसान की जिंदगी में कई लोग आते हैं, जो याद रह जाते हैं. आपके जीवन में वो कौन लोग थे, जिनसे आपकी बनती थी?
– दो लोग हमारे मित्र थे. इसमें से एक की Death हो गई है जबकि दूसरा कैंसर में पड़ा हुआ है. एक गौरीशंकर कपूर और दूसरा बलदेव शर्मा. दोनों ब्राडकास्टिंग में थे लेकिन बहुत ज्यादा पढ़ने-लिखने वाले थे. हालांकि उम्र में मुझसे बहुत छोटे हैं लेकिन बराबरी से बहस होती है. और एक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना थे जिनसे निकटतम मित्रता थी. इन्हीं तीन लोगों को मैं हमेशा याद करता हूं.
भविष्य की क्या योजना है आपकी, अभी क्या लिख रहे हैं?
– अभी एक लेखन पूरा किया है. लंबा उपन्यास है. देश की राजनीति और वंचित समुदाय पर एक किताब आ रही है. ‘अर्धवृत’ के नाम से. किताब घर प्रकाशन से आ रही है. एक-दो महीनों में आ जाएगी. भविष्य में भी लिखते ही रहना है. जो हिंदू धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ था, मैं उसी तरह से एक किताब इस्लाम धर्म पर लिखना चाहता हूं. क्योंकि मुसलमान भी खुद को सही ढ़ंग से नहीं रख पा रहे हैं. क्योंकि अनपढ़ लोग हैं. (क्या लिखेंगे, मैं बीच में टोकता हूं) कहते हैं- जो ओरिजनल फर्स्ट मैन था, मोहम्मद, उनकी क्या नियती और उद्देश्य था और उन्होंने पूरी जिंदगी में कैसे काम किया, ये लिखना है. क्योंकि ये मामूली बात नहीं है कि जिसके पास खाने को अनाज न हो. जो दूसरों से मांग कर काम चलाता हो, उधार किया हो, कई चीजें गिरवी रखकर काम चलाया. उस आदमी को जरा सही ढ़ंग से लोगों के सामने आना चाहिए. जबकि उनकी इमेज यह है कि वह बड़ा धर्मांध था. जबकि वो समाज के लिए काम करने वाला था. काफी उदार था.
अब तक आपकी कितनी किताबें आ चुकी हैं?
– अब तो तकरीबन 60 किताबें हो गई है.
आपके नाम को लेकर एक सवाल उठता है, आपने यह नाम क्यों अपनाया?
– इसके बारे में तो कई जगहों पर लिखता रहा हूं मैं. असल में मैने एक आलोचनात्मक लेख लिखा था. उस समय मैं एक स्टूडेंट था. संपादक ने कहा कि तुम्हारा नाम नहीं छापेंगे वरना जिसके खिलाफ लिखा है वो बड़े-बड़े लोग हैं, नाराज हो जाएंगे. छद्म नाम से छाप देते हैं. मैने हामी भर दी तो उन्होंने ही मुद्राराक्षस नाम से छाप दिया. और लोगों को लगा कि यह किसी बड़े बुजुर्ग का लेख है. बड़ा हंगामा हुआ उस लेख को लेकर के. बड़ी चर्चा हुई. (हंसते हुए) उसी लेख की बदौलत मैं ज्ञानोदय में सीधे सहायक संपादक हो गया. नाम चल गया तो चल ही गया.
सर आपने इतना वक्त दिया. धन्यवाद
– So nice of you.
अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.