सहारनपुर से लौटे एक युवा रिपोर्टर ने यह कहकर मुझे चौंका दिया कि जिन दिनों वहां पुलिस मौजूदगी में सवर्ण-दबंगों का तांडव चल रहा था, दिल्ली स्थित ज्यादातर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और अखबारों के संवाददाता या अंशकालिक संवाददाता अपने कैमरे के साथ शब्बीरपुर और आसपास के इलाके में मौजूद थे, लेकिन ज्यादातर चैनलों और अखबारों में शब्बीरपुर की खबर नहीं दिखी.
उन दिनों ज्यादातर चैनलों की खबरों में जस्टिन बीबर छाये हुए थे और लाखों रुपये खर्चकर उनके कार्यक्रम में मुंबई जाने वालों के इंटरव्यू दिखाये जा रहे थे. देश के कथित राष्ट्रीय मीडिया के मुख्यालयों से सहारनपुर की दूरी महज 180 किमी की है. पर मीडिया दिल्ली सरकार के हटाये गये एक बड़बोले मंत्री की बागी अदाओं पर फिदा था. तीन तलाक़ की उबाऊ बहसों से टीवी चैनल अटे पड़े थे. गोया कि भारतीय मुसलमान की सबसे बड़ी समस्या तीन तलाक़ ही हो, जबकि इस समुदाय में महज 0.56 फ़ीसद तलाक़ होते हैं.
दूसरी तरफ, पश्चिम यूपी के शब्बीरपुर को जलाया जा रहा था. पुलिस की मौजूदगी में घर के घर उजाड़े गये. घरों में कुछ भी नहीं बचा. साइकिलें, चारपाइयां, कुछ छोटे-बड़े डब्बों में रखा राशन, कढ़ाई में बनी सब्जियां, अंबेडकर की किताबें और बच्चों के स्कूली बस्ते भी जलकर ख़ाक हो गए. महज बीस दिनों में तीसरी बार सहारनपुर का यह इलाक़ा सुलग रहा था. पर देश के बड़े न्यूज़ चैनलों और ज़्यादातर अख़बारों के लिये यह ख़बर नहीं थी.
अगर कुछ खास चैनलों और न्यूज वेबसाइटों ने इसे न कवर किया होता तो देश को सहारनपुर की सच्चाई शायद ही पता चल पाती.
‘जंगलराज’ का कोरस ग़ायब
यूपी या देश के कई प्रदेशों में ऐसी घटनाएं पहले से होती रही हैं और सिलसिला आज तक जारी है. पर हिंदी पट्टी के राज्यों में जब कभी किसी दलित या पिछड़े वर्ग के नेता की अगुवाई वाली सरकारें होती हैं, ऐसी घटनाओं के कवरेज में मीडिया, ख़ासकर न्यूज़ चैनल और हिन्दी अख़बार ‘बेहद सक्रिय’ दिखते रहे हैं-अच्छी तथ्यपरक रिपोर्टिंग मे नहीं, ‘जंगलराज’ का कोरस गाने में.
हर किसी आपराधिक घटना, हादसे या उपद्रव को मीडिया का बड़ा हिस्सा उक्त सरकारों की नाकामी से उपजे ‘जंगलराज’ के रूप में पेश करता आ रहा है. पर्दे और पृष्ठों पर बार-बार उभरता रहा है-जंगलराज! लेकिन उत्तर प्रदेश में सरकार क्या बदली, मीडिया का वह ‘जंगलराज’ ग़ायब! योगी जी के ‘रामराज’ को भला ‘जंगलराज’ कहने का दुस्साहस कौन करे!
सहारनपुर में सामुदायिक और सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं पहले भी होती रही हैं. लेकिन इस बार एक फ़र्क़ नज़र आता है. ख़बर के बजाय तमाशे पर टिके रहने वाले न्यूज़ चैनलों की छोड़िये, पश्चिम उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक प्रसारित हिन्दी अख़बारों ने भी इस पहलू को प्रमुखता से नहीं कवर किया. सांप्रदायिक-सामुदायिक तनाव की घटना की शुरुआत इस बार अंबेडकर जयंती के जुलूस से हुई. तब तक यूपी में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार आ चुकी थी. भाजपा के स्थानीय सांसद, कई-कई विधायक और नेता इस जुलूस के साथ थे.
जुलूस के ज़रिये दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच तनाव और टकराव पैदा करने की भरपूर कोशिश की गई. स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने कड़ाई से निपटना चाहा तो उन्मादी भीड़ ने एसएसपी के बंगले पर हमला कर दिया. बाद में उक्त एसएसपी का तबादला कर दिया गया, मानो सारे घटनाक्रम के लिए वह अफ़सर ही दोषी रहा हो! भाजपा या राज्य सरकार ने स्थानीय सांसद, विधायक या नेताओं के ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की.
आंबेडकर के नाम पर भाजपा-समर्थकों का यह जुलूस एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश कर रहा था. दलितों में यह भ्रम पैदा करने की कि सवर्ण वर्चस्व की ‘हिन्दुत्व-पार्टी’ अब दलितों के प्रिय नेता अंबेडकर को तवज्जो देने लगी है और दूसरा कि मुसलमान इस आयोजन में बाधा बन रहे हैं.
देश के किसी कथित राष्ट्रीय या क्षेत्रीय टीवी चैनल ने उस वक्त इस पहलू पर अपने सांध्यकालीन सत्र में बहस नहीं कराई. तब सारे चैनलों पर ‘यूपी में योगी-योगी’ का जयगान चल रहा था. ऊपरी तौर पर हाल के उपद्रव या हिंसक हमले की जड़ में था-महाराणा प्रताप की शोभा यात्रा और उक्त जूलूस के दौरान तेज़ आवाज़ में ‘डीजे’ का बजना. बताया जाता है कि यह आयोजन बिल्कुल झारखंड में रामनवमी के जूलूसों की तरह था. गाजे-बाजे के साथ हथियारों से लैस उन्मादी युवाओं का सैलाब. इसमें एक ख़ास दबंग सवर्ण जाति के लोगों की संख्या ज़्यादा थी.
गांव और आसपास के इलाक़े में खेती-बाड़ी और अन्य काम-धंधे पर इन जातियों का ही वर्चस्व है. दलितों के पास यहां खेती-बाड़ी की ज़मीन बहुत कम है. अनेक परिवार पशुपालक भी हैं. कुछ लोग छोटे-मोटे धंधे से जीवन-यापन करते हैं, जबकि कुछ नौकरियों में हैं. सामाजिक-राजनीतिक रूप से वे अपेक्षाकृत जागरूक और मुखर माने जाते हैं.
‘भीम सेना-भारत एकता मिशन’ इनका एक उभरता हुआ नया मंच है. चंद्रशेखर नामक एक युवा वकील इसके प्रमुख नेताओं में हैं. अलग-अलग नाम से इस तरह के संगठन देश के अन्य हिस्सों में भी बन रहे हैं. बसपा से निराश दलितों के बीच ये तेज़ी से लोकप्रिय भी हो रहे हैं.
जयंतियों पर हथियारबंद जूलूस क्यों?
सहारनपुर में हिंसा और उपद्रव के संदर्भ में सबसे पहला सवाल जो मीडिया को उठाना चाहिए था, वह ये कि 14 अप्रैल को यहां भाजपा नेताओं की अगुवाई में निकाले गए जुलूस के दौरान भारी हिंसा हुई थी और उन्मादी भीड़ ने कुछ लोगों के उकसावे पर जिले के एसएसपी के बंगले तक पर हमला किया, ऐसे में प्रशासन ने फिर किसी ऐसे जुलूस को निकलने ही क्यों दिया?
बीते 5 मई को महाराणा प्रताप जयंती के नाम पर सवर्ण दबंगों को पारंपरिक हथियारों और आग्नेयास्त्रों के साथ जुलूस निकालने क्यों दिया गया? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सहारनपुर के जिला प्रशासन या समूची योगी सरकार के पास कोई भी तर्कसंगत जवाब नहीं.
इन शोभा यात्राओं और जूलूसों पर प्रशासन की तरह मीडिया का बड़ा हिस्सा भी ख़ामोश रहता है, या तो वह इन्हें बढ़चढ़ कर कवर करता है या इन्हें सामान्य घटना के रूप में लेता है. समाज को बांटने और टकराव बढ़ाने वाले ऐसे जुलूसों को वह सिरे से ख़ारिज क्यों नहीं करता? अगर मीडिया ऐसा करता तो प्रशासन पर इसका भारी दबाव पड़ता और वह ऐसे जुलूसों को रोकने के लिए मजबूर हो जाता.
मीडिया ऐसा करके निहित स्वार्थ से प्रेरित उन्मादी जुलूसों के ख़िलाफ़ पब्लिक ओपिनियन बना सकता था. पर देश के ज़्यादातर हिस्सों में सांप्रदायिक य़ा सामुदायिक तनाव पैदा करने वाले ऐसे जूलूस एक तरह का दैनन्दिन कर्मकांड बनते जा रहे हैं और मीडिया का बड़ा हिस्सा उनके शांतिपूर्ण समापन या रक्तरंजित होने का मानो इंतज़ार करता है!
दूसरा अहम सवाल 5 मई के घटनाक्रम को लेकर उठना चाहिए था. जिस दिन शब्बीरपुर गांव में दलितों पर हमला हुआ, पूरे पांच घंटे हमला जारी रहा. घटनास्थल से लौटे पत्रकारों के मुताबिक उस वक्त पुलिस भारी मात्रा में वहां मौजूद थी. फिर उसने दबंग हमलावरों को रोका क्यों नहीं? क्या पुलिस-प्रशासन का उस दिन सवर्ण समुदाय के दबंग हमलावरों को समर्थन था? पुलिस ने बाद में दलितों की पंचायत रोकी. पर पांच घंटे का हमला क्यों नहीं रोका? मीडिया में यह सवाल कितनी शिद्दत से उठा?
सहारनपुर के दलित वकील चंद्रशेखर सवाल उठाते हैः ’ख़ून तो सबका एक सा है फिर यह पूर्वाग्रह क्यों?’ समाज में जो पूर्वाग्रह हैं, उनकी अभिव्यक्ति सिर्फ़ शासन और सियासत तक सीमित नहीं है, वह मीडिया में भी है. अब कुछ चैनलों को चंद्रशेखर में दलित-आक्रोश के पीछे का चेहरा नज़र आ रहा है. पता नहीं, उसे नायक बनाना है या खलनायक?
सहारनपुर में सांप्रदायिक और सामुदायिक तनाव व हिंसा को लेकर तीसरा सवाल है- इसके राजनीतिक संदर्भ का. क्या इस तरह की जातीय गोलबंदी के पीछे कुछ शक्तियों के कोई सियासी स्वार्थ भी हैं? कुछ माह बाद होने वाले स्थायी निकाय चुनावों से तो इनका कोई रिश्ता नहीं? दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच एकता की संभावना से किसे परेशानी है? क्या कुछ लोगों को ऐसी एकता से किसी तरह का राजनीतिक भय है?
क्या यह सब किसी योजना के तहत शुरू हुआ, जो बाद के दिनों में अनियंत्रित हो गया. और अब शांति की बात हो रही है! मीडिया के बड़े हिस्से ने सहारनपुर के संदर्भ में ऐसे सवालों को नहीं छुआ.
– लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह आलेख न्यूज वेबसाइट ”द वायर” से साभार प्रकाशित
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