Monday, June 16, 2025

मासूम इंद्र मेघवाल मामले में जानिए ताजा अपडेट, हैरान कर देगी यह खबर

0

मटकी से पानी पी लेने के कारण मार दिये गए नौ साल के मासूम इंद्र कुमार के मामले में हर रोज नई जानकारी सामने आ रही है। इस घटना से देश भर में दलित समाज के भीतर गुस्सा है और हर रोज देश के तमाम हिस्सों में लगातार प्रदर्शन जारी है।

राजस्थान की बात करें तो वहां कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़, टोंक, बांसवाड़ा, सवाईमाधोपुर, करोली, दौसा में प्रदर्शन किए गए। इस घटना से नाराज बारा-अटरु के विधायक पन्नालाल मेघवाल ने इस्तीफा दे दिया है। तो ताजा घटनाक्रम में उनका समर्थन करते हुए बारां नगर निकाय के 25 कांग्रेस पार्षदों में से 12 ने दलितों के खिलाफ अत्याचार के विरोध में इस्तीफा दे दिया। तो वहीं बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए विधायकों ने भी पीड़ित को न्याय न मिलने पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार से इस्तीफा लेने की बात कही है।

इंद्र कुमार की मौत के 40 घंटे बाद उसके अंतिम संस्कार को राजी हुए उसके परिजन बेटे को खो चुकने के बाद टूट गए हैं। परिजन 50 लाख मुआवजा, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी और स्कूल की मान्यता रद्द करने की मांग कर रहे हैं। दूसरी ओर सरकार से लेकर प्रशासन तक मामले की लीपापोती में लगा है और जाति के कारण हत्या की बात मानने को तैयार नहीं है। दूसरी ओर मनुवादी मीडिया भी गांव के सवर्णों से बातचीत के आधार पर अपना मत बना रहा है।

जबकि दूसरी ओर मृतक इंद्र कुमार मेघवाल के चाचा और मामले में शिकायतकर्ता किशोर कुमार मेघवाल का कहना है कि मेरे भतीजे की मृत्यु उसकी जाति के कारण हुई। हमारे क्षेत्र में दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार होता है। आज भी हमें नाइयों को खोजने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है जो हमारे बाल काट सकते हैं। जबसे हमने मुकदमा दर्ज कराया है, हम अपनी सुरक्षा के लिए डर रहे हैं।

तमाम मीडिया रिपोर्ट्स और पुलिस अधिकारी गांव वालों का हवाला देकर मटकी की बात से इंकार कर रहे हैं। लेकिन यहां सवाल यह है कि सरकार और गैर दलित गांव वालों की बात मानी जाय या फिर परिजनों की।

जब नेहरू के निजी सचिव एम.ओ. मथाई ने की बाबासाहेब पर टिप्पणी

 मेरे एक मित्र के माध्यम से, पी.के. पणिकर, जो संस्कृत के विद्वान और गहरे धार्मिक थे, बी.आर. अम्बेडकर मुझ में दिलचस्पी लेने लगे। मैंने पणिकर को अम्बेडकर के प्रति अपनी प्रशंसा के बारे में बताया था, लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि वह एक महान व्यक्ति होने के लिए इंच से कम हो गए क्योंकि वह पूरी तरह से कड़वाहट से ऊपर नहीं उठ सके। हालांकि, मैंने कहा कि किसी को भी उन्हें दोष देने का कोई अधिकार नहीं है, जीवन भर उन्हें जो अलगाव और अपमान सहना पड़ा, उसे देखते हुए। पणिकर, जो अम्बेडकर के पास बार-बार आते थे,ने जाहिर तौर पर उन्हें यह सब बताया। रविवार की सुबह अम्बेडकर ने मुझे फोन किया और शाम को चाय के लिए कहा। उन्होंने कहा कि उन्होंने पणिकर से भी पूछा था। मैं नियत समय पर आ गया। दुआ सलाम के बाद, अम्बेडकर ने अच्छे-अच्छे अंदाज में मुझसे कहा, “तो आपने मुझमें दोष पाया है, लेकिन मैं आपकी आलोचना को स्वीकार करने के लिए तैयार हूं।” फिर उन्होंने छुआछूत की बात की। उन्होंने कहा कि गांधी के अभियानों की तुलना में रेलवे और कारखानों ने अस्पृश्यता की समस्या से निपटने के लिए अधिक प्रयास किया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि अछूतों की वास्तविक समस्या आर्थिक थी न कि “मंदिर प्रवेश”, जैसा कि गांधी ने वकालत की थी। तब अम्बेडकर ने गर्व के साथ कहा, “हिंदुओं को वेद चाहिए थे, और उन्होंने व्यास को बुला भेजा जो हिंदू जाति के नहीं थे। हिंदू एक महाकाव्य चाहते थे और उन्होंने वाल्मीकि को बुला भेजा जो एक अछूत था। हिंदू एक संविधान चाहते हैं और उन्होंने मुझे बुला भेजा है।”

अम्बेडकर ने कहा, “हमारा संविधान निस्संदेह कागज पर छुआछूत को समाप्त कर देगा; लेकिन यह भारत में कम से कम सौ साल तक वायरस के रूप में रहेगा। यह लोगों के मन में गहराई से समाया हुआ है।” उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में दासता के उन्मूलन को याद किया और कहा, “नीग्रो की स्थिति में सुधार 150 साल बाद भी धीमा है।” मैंने कहा कि मैं उनसे पूर्णतया सहमत हूं और अपनी मां की कहानी सुनाई। अपने पीछे ईसाई धर्म के लगभग 2000 वर्षों के बावजूद, उन्होंने पंडित मदन मोहन मालवीय के समान दृढ़ विश्वास के साथ अस्पृश्यता का अनुपालन किया। वह एक हरिजन को गर्मियों में हमारे कुएं से पानी निकालने की अनुमति नहीं देती थी, जब पानी की आम तौर पर कमी होती थी। अगर कोई अछूत उसके बीस फीट के भीतर आ जाए तो वह नहाने के लिए दौड़ती थी।

 उन्होंने कहा, “भारत में हिंदी पट्टी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि क्षेत्र के लोगों ने वाल्मीकि को त्याग दिया और तुलसीदास की स्थापना की।” उन्होंने विचार व्यक्त किया कि इस विशाल क्षेत्र के लोग तब तक पिछड़े और अड़ियल बने रहेंगे जब तक कि वे वाल्मीकि द्वारा तुलसीदास की जगह नहीं ले लेते। उन्होंने मुझे याद दिलाया कि, वाल्मीकि रामायण के अनुसार, “जब राम और लक्ष्मण भारद्वाज के आश्रम में पहुंचे, तो ऋषि ने राम के लिए कुछ बछड़ों को इकट्ठा किया, ताकि वे दावत के लिए वध किए जा सकें। इसलिए राम और उनके दल को वील (गोमांस) खिलाया गया; तुलसीदास ने यह सब काट डाला। मैंने उनसे कहा कि वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में यह निर्धारित किया है कि युवा जोड़ों को शादी से छह महीने पहले वील खिलाना चाहिए।

अम्बेडकर ने मुझ पर उंगली उठाई और कहा, “आप मलयाली लोगों ने इस देश का सबसे बड़ा नुकसान किया है।” मैं चौंक गया और उनसे पूछा कि कैसे। उन्होंने कहा, “आपने उस आदमी शंकराचार्य को, जो तर्कशास्त्र में एक निराश विशेषज्ञ थे, इस देश से बौद्ध धर्म को भगाने के लिए उत्तर की ओर एक पदयात्रा पर भेजा।” अम्बेडकर ने कहा कि बुद्ध भारत की अब तक की सबसे महान आत्मा थे। उन्होंने यह भी कहा कि हाल की शताब्दियों में भारत ने जो सबसे महान व्यक्ति पैदा किया, वह गांधी नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद थे।

मैंने अम्बेडकर को याद दिलाया कि, “यह गांधी ही थे जिन्होंने नेहरू को सुझाव दिया था कि वे आपको सरकार में शामिल होने के लिए आमंत्रित करें।” उनके लिए यह खबर थी। मैंने यह कहकर अपने बयान में संशोधन किया कि यह विचार गांधी और नेहरू को एक साथ लगा। अम्बेडकर ने ही संविधान सभा में संविधान विधेयक पेश किया था। अम्बेडकर ने मुझे विश्वास में बताया कि उन्होंने बौद्ध बनने और अपने अनुयायियों को भी ऐसा करने की सलाह देने का फैसला किया है। जब तक उन्होंने दिल्ली नहीं छोड़ा, तब तक अम्बेडकर मेरे संपर्क में रहे। वह एक उल्लेखनीय व्यक्ति थे जो भारतीय लोगों की सलामी के बड़े पैमाने पर हकदार थे।


एमओ मथाई, “नेहरू युग की यादें”-1978, विकास पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, पृष्ठ: 24-25

दो ह्रदय विदारक घटनाओं के आईने में आजादी के 75 वर्ष

पहली घटना राजस्थान के जालौर की है, जहां शिक्षक ने 8 वर्षीय मासूम छात्र को इतनी बेहरहमी से पीटा की उसकी मौत हो गई गई। छात्र का ‘अपराध’ यह था कि वह दलित समाज में पैदा हुआ था और उसने अपने सवर्ण शिक्षक के मटके से पानी पी लिया था। यह वही अपराध था, जिसे कभी आंबेडकर ने किया था और जिसके चलते उन्हें बुरी तरह अपमानित किया गया था। गनीमत थी कि उनकी जान बख्श दी गई थी।
दूसरी घटना हरियाणा के फरीदाबाद की है, जहां रेलवे लाइन के किनारे मजदूर बस्ती में रहने वाली एक 12 वर्षीय मासूम बच्ची को दरिंदे खींचकर झाड़ियों में  ले गए, उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसे मार डाला। बच्ची का पहला अपराध यह था कि वह लड़की थी और दूसरा अपराध यह था कि घर में शौचालय न होने के नाते शौच के लिए रेल पटरी  पर गई थी। बच्ची के मजदूर पिता की मौत पहले ही हो चुकी है, उसकी मां मजदूरी करके बच्चों का पालन-पोषण करती है।
वीडियो देखें- https://www.youtube.com/watch?v=BszzdzXpWG4
क्या ये दो घटनाएं भारतीय समाज में अपवादस्वरूप होने वाली घटनाएं हैं, जिन्हें कुछ आपराधिक किस्म के लोग कभी-कभी अंजाम दे देते हैं या घटनाएं पूरे भारतीय समाज के आपराधिक मानसिकता को उजागर करती हैं और भारतीय समाज के अपराधिक सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट की अभिव्यक्त?जाति और स्त्री के  के मामले में भारतीय समाज बहुत ही गहरे स्तर पर एक बीमार समाज है।
तथाकथित आजादी के 75 वर्षों बाद भी भारतीय समाज का बहुलांश हिस्सा  जातिवादी और पितृसत्तावादी है और पुरूषों का एक बड़ा हिस्सा बलात्कारी मानसिकता का है। आजादी के 75 वर्षों बाद भी इन दोनों बीमारियों (जाति और पितृसत्ता) के इलाज का कोई गंभीर प्रयास दिखाई नहीं देता है, इलाज तो दूर की बात है, भारतीय राज्य और समाज के संचालक यह मानने को भी तैयार नहीं हैं कि भारतीय समाज एक बीमार, बहुत ही बीमार समाज है, दुर्योग यह है कि इन दोनों बीमारियों के खुलेआम पोषक आजादी के 75 वर्षों बाद सत्ता को शीर्ष पर विराजमान हो गए हैं।

बिहार के बदली सियासत में किसे सबसे ज्यादा फायदा? सर्वे में चौंकाने वाला खुलासा

 भारतीय जनता पार्टी से लगभग डेढ़ साल के याराने के बाद नीतीश कुमार ने भाजपा का हाथ झटक कर फिर से राजद का हाथ थाम लिया है। इसके बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि बिहार में हुए इस सियासी उठा पटक का सबसे ज्यादा फायदा किसे मिलेगा?

बिहार के बदले सियासी हालात को लेकर सी वोटर ने एक टीवी चैनल के लिए बिहार की जनता के बीच जाकर सर्वे किया है। इस सर्वे में बदले सियासी हालात का सबसे ज्यादा फायदा तेजस्वी यादव को बताया जा रहा है। जनता से जब पूछा गया कि बिहार में गठबंधन टूटने का फायदा किसको होगा? इस सवाल पर 33 फीसदी लोगों ने बीजेपी का नाम लिया तो वहीं, महज 20 फीसदी लोगों ने नीतीश कुमार को फायदा पहुंचने की बात कही। सबसे ज्यादा 47 फीसदी लोगों ने कहा कि इसका लाभ तेजस्वी यादव को मिलेगा।

बीजेपी और जदयू में आई खटास की वजह पूछे जाने पर 28 फीसदी लोगों ने जेडीयू की ओर से उपराष्ट्रपति नहीं बनाने का कारण बताया। तो इतने ही प्रतिशत लोगों का कहना था कि भाजपा द्वारा आरसीपी सिंह को प्रमोट किए जाने की बाद से नीतीश कुमार नाराज थे। वहीं, 30 फीसदी लोगों ने कहा कि बिहार में मंत्रियों के बीच मतभेद के कारण बीजेपी-जेडीयू गठबंधन टूटा।

 हालांकि एक बार फिर से नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री और तेजस्वी यादव ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है, लेकिन सर्वे में जब पूछा गया कि नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव में से किसे मुख्यमंत्री बनना चाहिए तो करीब 56% लोगों ने तेजस्वी यादव के नाम पर मुहर लगाई। वहीं, 44 फीसदी लोगों ने नीतीश कुमार का नाम लिया।

बता दें कि यह सर्वे एबीपी न्यूज के लिए सी-वोटर ने किया था। इसमें बिहार के 1 हजार 415 लोगों की राय पूछी गई। कुल मिलाकर साफ है कि बिहार की सियासत में तेजस्वी यादव नंबर वन बनने की राह पर हैं।

अमेरिका में बनेगा 1.5 मिलियन का अंबेडकर मेमोरियल, रखी गई पहली ईंट

0

 अमेरिका में रहने वाले अंबेडकरवादियों के संगठन अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर विदेशी जमीन पर नया इतिहास बनाने जा रही है। और इसकी आधारशिला संगठन ने अपने 10वें स्थापना दिवस के मौके पर 23 जुलाई 2022 को रख दी। इस दिन संगठन द्वारा अंबेडकर मेमोरियल का पहली ईंट रख दी गई। खास बात यह रही कि यह पहली ईंट भारत के मध्य प्रदेश स्थित महू में बाबासाहेब आंबेडकर के जन्मस्थान से लाई गई थी। इस शानदार मौके के गवाह अमेरिका के 12 राज्यों से आए लगभग 200 अंबेडकरवादी बने। बहुजन नायकों के जयकारे के बीच पहला पत्थर अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर के मौजूदा अध्यक्ष संजय कुमार ने रखा। यह पूरा प्रोजेक्ट डेढ़ मिलियन डालर यानी 15 लाख अमेरिकी डॉलर का है। रुपये में बात करे तो यह प्रोजेक्ट तकरीबन 12 करोड़ रुपये का है।

खास बात यह रही कि अंबेडकर मेमोरियल की पहली ईंट रखने के दौरान हर जाति धर्म के लोग मौजूद थे। इसमें अंबेडकरवादियों के साथ ही ब्लैक, मुस्लिम एवं उन अमेरिकी एक्टिविस्टों ने हिस्सा लिया, जो बाबासाहेब आंबेडकर की मानवतावादी विचारधारा में यकीन रखते हैं। मेमोरियल की पहली ईंट रखते हुए अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर के प्रेसीडेंट संजय कुमार ने कहा कि- फाउंडेशन स्टोन को विभिन्न धर्मों और जातियों के अम्बेडकरवादियों द्वारा लगाया गया था, यह दर्शाता है कि एआईसी विविधता को कैसे अपनाना चाहता है। उन्होंने कहा कि यह इमारत सिर्फ ईंटों और लकड़ियों से नहीं बनेगा, बल्कि यह दुनिया भर में मौजूद बाबासाहेब के करोड़ों अनुयायियों की भावनाओं से भी बनाया जाएगा।

बताते चलें कि अंबेडकर मोमोरियल बनाने का बजट डेढ़ मिलियन यानी वन एंड हाफ मिलियन डालर है। यह मेमोरियल सेंटर के मुख्यालय पर बनना है जो कि अमेरिका के वशिंगटन डीसी में स्थित है। यह अंबेडकर मेमोरियल अमेरिका में बाबासाहेब का पहला स्मारक होगा। बता दें कि पिछले एक दशक से यह संगठन भारत में मानवाधिकार और समानता के लिए काम कर रहा है।

जितेन्द्र मेघवाल को न्याय दिलाने उतरी बसपा, सड़क से संसद तक संघर्ष का ऐलान

 हत्या के चार महीने से ज्यादा बीतने के बावजूद राजस्थान के युवा जितेन्द्र मेघवाल को इंसाफ नहीं मिलने के बाद बहुजन समाज पार्टी ने जितेन्द्र को इंसाफ दिलाने को लेकर मोर्चा खोल दिया है। बहुजन समाज पार्टी के प्रतिनिधिमंडल ने बीते 30 जुलाई को जितेन्द्र मेघवाल के घर पहुंच कर उनके परिवार से मुलाकात की और जितेंद्र मेघवाल के आश्रितों को भी उदयपुर के कन्हैया लाल हत्याकांड की तर्ज पर 50 लाख रुपये का मुआवजा और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने की मांग की।

 बसपा नेताओं ने राजस्थान सरकार पर आरोप लगाया कि राज्य सरकार एक जैसे ही मामलों में मृतकों को राहत सहायता देने में भी भेदभाव करती है। बसपा नेताओं का आरोप है कि जितेंद्र मेघवाल की हत्या भी जातिगत मानसिकता के चलते ही सार्वजनिक रूप से की गई थी। दिनदहाड़े हत्या के बावजूद सरकार ने उनके परिजनों को न तो आज तक 50 लाख रुपए की सहायता दी और ना ही किसी परिजन को सरकारी नौकरी दी, जबकि दूसरे मामलों में सरकार ऐसा करती रही है । बसपा नेताओं ने मुख्यमंत्री अशोक गहोलत सरकार के रवैये पर सवाल उठाया। बसपा प्रतिनिधिमंडल का कहना था कि इससे साफ है कि सरकार की दलितों के प्रति कथनी और करनी में अंतर है।

 तकरीबन चार महीने पहले राजस्थान में घटी एक घटना से देश भर में हंगामा मच गया था। 15 मार्च 2022 को जितेन्द्रपाल मेघवाल नाम के दलित समाज के एक युवक की हत्या कर दी गई। जितेन्द्र के परिवार का आरोप था कि जितेन्द्र अच्छे कपड़े पहनता था, मूंछे रखता था और रॉयल लाइफ जीने की बात करता था। साथ ही इसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर पोस्ट करता था, जो कि जातिवादी गुंडों सूरज सिंह, राजपुरोहित और रमेश सिंह को अखर गया था। इसके बाद 15 मार्च को बाइक से जा रहे जितेन्द्र मेघवाल की पीछे से चाकू गोदकर हत्या कर दी गई। जितेन्द्र पाली जिले के बाली स्थित सरकारी हॉस्पीटल में कोविड हेल्थ सहायक के पद पर तैनात थे।

जितेन्द्र की हत्या के बाद से ही उसके परिजन मृतक के भाई को सरकारी नौकरी देने, आर्थिक रूप से कमजोर मृतक के परिवार को 50 लाख रुपए देने की मांग कर रहे हैं। तब धरने पर बैठे परिजनों को स्थानीय प्रशासन ने उम्मीद दिलाई थी कि वो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तक परिवार की मांग पहुंचा देंगे। लेकिन लगता है कि तब से मुख्यमंत्री सचिवालय ने दलित समाज के जितेन्द्र मेघवाल के इस मामले में आंखें बंद कर ली है।

हालांकि बसपा के इस मुद्दे को उठाने से परिजनों को इंसाफ की उम्मीद जगी है।  बहुजन समाज पार्टी के प्रतिनिधिमंडल में भाजपा के प्रदेश प्रभारी और राज्यसभा सांसद राम जी गौतम, सुरेश आर्य,नप्रदेश अध्यक्ष भगवान सिंह बाबा, पूर्व विधायक पूरणमल सैनी, प्रदेश उपाध्यक्ष सीताराम मेघवाल सहित तमाम पदाधिकारी मौजूद रहें।

इस मुलाकात की तस्वीर ट्विट करते हुए बसपा के राज्यसभा सांसद रामजी गौतम ने कहा कि BSP राजस्थान यूनिट इस हक के लिये सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष करेगी। जितेन्द्र मेघवाल के परिजनों का जिक्र करते हुए बसपा सांसद ने लिखा कि आपका हाथ एक बेटे की हैसियत से पकड़कर यह वादा कर रहा हूँ न्याय दिलाकर रहूँगा।

“There is no problem to live in residential societies, It is difficult to live with our Bahujan Culture”

We live in a rented house. And sometimes there are problems with it. Especially when leaving one house and looking for another house. Sumit Chauhan and Azra Praveen Said. Sumit, a journalist by profession, comes from a Dalit background and Azra is a Muslim. Because of this, the problems of both increase more.

Sumit says, ‘My name is Sumit Chauhan. The Chauhan surname is written by many communities. In such a situation, many times while we looking for a house, landlord want to know about my caste, but they do not ask directly. I understand that they want to know the caste, so I also turn them around. Then, exhausted, they directly ask the caste. After knowing the caste, the attitude of the person talking changes.

Sumit and Azra living in a residential society in Greater Noida, near to Delhi. When people like Sumit and Azra reach high-rise buildings, long-haul vehicles and people working in multi-national companies, there is a stir. Progressiveness of people who consider themselves to be progressive is lost in an instant when someone Sumit Chauhan or someone Azra Praveen is standing in front of them to ask for their house on rent.

Sumit says, “In 2018 we were looking for a house on rent. Then we had to face many problems. Sometimes because of caste, sometimes because of religion, we were not able to get a house, so we were very upset, at that time. We were looking for a house in Noida at a good location. We could have given all the money that others would have given. Here you have to find a house through a broker. One house is final. But suddenly we were refused on an excuse. Later the broker told that the house owner had a problem with our caste and religion.

Azra says that my experience is that people in cities ask more questions about caste and religion. On many occasions when they do not understand caste by surname, they even ask directly. I have realized that he does not hesitate.

Sumit adds, “My experience is that despite coming to cities and living in big buildings, people’s perception of caste has not changed. People are racist. They make a difference by caste, religion and your family background. You will also see that the big buildings owners in the cities maximum belong to the upper caste people. Dalit-Bahujans have reached there in very small numbers.

This experience is not just for Sumit and Azra. Rather, Dalits who have been able to reach the larger NCR community, and with their own ethnic identity, are made to feel isolated on many occasions. Or they are told untold, discrimination is done.

Sarvind, who is a geoscientist in ONGC and gets a handsom amount of salary, his experience has also not been normal. After living in two societies, he has now bought his own flat. But their experiences have been more or less the same everywhere.

Sarvind, who had come to Delhi posting from Assam in 2015, says, My office was in Noida, so I thought of shift here. I took a house on rent at Prateek Wisteria in Noida Sector 77-78. The rent was very high. But the religious pomp present there was shocking. After some time, the landlord had to sell the house; we had to leave from there.

 After this, sarvind took a flat on rent in Supertech Society in Sector 78 in 2017-2018. There was a temple built inside the society. There was a lot of noise all the time. All religious events were held there in full swing. I once proposed that when many events are organized in the society, then the birthday of Babasaheb Ambedkar, the architect of the constitution and other such great personalities should also be celebrated.

I clearly felt that he had become uncomfortable. He said at that time, it was okay to avoid it, but later he did not show any interest on my proposal. It was clear that he rejected the proposal to celebrate Ambedkar Jayanti.

Later I thought of getting my own house. I saw 30-40 societies in NCR. We have bought a flat in Exotica Dream Village in Noida Extension. Its owner was Jain. I do not believe in religious pomp. There was no temple anywhere on the map of that society, so I liked it.

When we started living here, after few days, 15-20 people brought a stone from outside the society shouting Jai Shri Ram. Guards to the society staff was opposed, but they did not agree. He was kept in a public place. Now it has been made a temple. Me and my wife Munni Bharti, who is an assistant professor at a college in Delhi University, protested that when people of all religions make their own symbols, where will people sit and walk. Then I proposed to these people to celebrate Ambedkar Jayanti and Phule Jayanti in the month of April. But the president of the society did not show any interest in this.

After this confrontation, our identity was revealed. People started moving away from us. People who used to meet warmly in the morning and evening walk, he started running away.

There are two things in this. As soon as you talk differently, people find out whether you live on rent or have your own house. When they come to know that you are the flat owner, then they cannot do much.

So what is the reaction of the society, when people with dalit and tribal identities go there to live, are they accepted them? I asked to Sarvind. He says that people with Dalit-Adivasi identity do not accept by them.

He adds that, it is not that Dalits do not live in the society. Now some people have started living but they are not coming out with their identity. My identity came to the fore when I raised a question about to celebrate Ambedkar Jayanti or a temple built illegally. But no one came with us. I believe that the day the Dalits come out with their own identity, the clash in the society will increase. There is no problem living there. It is difficult to live with our culture after buying a flat.

Ambedkarites of USA are going to create history

0

 On 23rd July 2022, AIC celebrated the 10th anniversary of the founding of the organization in a big way. On the occasion, AIC also conducted the ground-breaking ceremony of the Ambedkar Memorial by installing the first brick specially brought from Babasaheb’s birthplace, Mhow, India, at the AIC premises. This marks the beginning of the Dr. Ambedkar Memorial project. The ground breaking ceremony was attended by more than 200 Ambedkarites from across 12 states in the USA and also from India.

Sanjay Kumar, President of AIC, in a statement said, “It was overwhelming to see people marching together around the property with energetic Jai Bhim slogans while the brick was in transition. The brick was mounted by Ambedkarites of various faiths and ethnicities, demonstrating how AIC wants to embrace diversity. It was very encouraging to witness enthusiastic youth participating in large numbers. Thank you all, Let’s continue this momentum, together we will make our dreams (FIRST Memorial of Babasaheb in the USA) come true. Likewise any other building, Memorial will not just be built of wood and bricks, it will be built from the emotion of millions of Babasaheb followers worldwide.”

The budget is about USD 1.5 million. Any donation can be made through https://ambedkarinternationalcenter.org/

About AIC(Ambedkar International Center)

AIC is a Washington DC, USA based organization fighting for the cause of human rights and equality both in India and abroad.

For more information contact: Secretary, Ambedkar International Center secretary@ambedkarinternationalcenter.org

जातिवादियों ने दलित समाज की लड़की को स्कूल जाने से रोका

 प्रदेश के बच्चों से खुद को मामा कहलवाने के शौकीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राज में उनकी ‘दलित भांजी’ को स्कूल नहीं जाने दिया जा रहा। लड़की और उसके घरवालों ने जब इसका विरोध किया तो उनके साथ जातिवादी गुंडों ने मारपीट की। मामला शाजापुर जिले के बावलियाखेड़ी गांव का है, जहां 16 वर्षीय छात्रा लक्ष्मी मेवाड़ को स्कूल जाने को रोका गया।

दरअसल लक्ष्मी पढ़ना चाहती है। आगे बढ़ना चाहती है। परिवार और देश की सेवा करना चाहती है। लेकिन गांव के कथित ऊंची जाति के गुंडों को यह रास नहीं आ रहा था। स्कूल से लौटते समय इन गुंडों ने लक्ष्मी का रास्ता रोक लिया और उससे कहा कि गांव की लड़कियां स्कूल नहीं जाती, तू क्यों जाती है? लक्ष्मी ने कहा- जाउंगी, और उसके भाई ने भी बहन का पक्ष लिया। इसके बाद लक्ष्मी के भाई से मारपीट की गई। गुंडे पक्ष के लोगों को दलित समाज के बच्चों का इस तरह जवाब देना या यूं कहें कि नाफरमानी करना, रास नहीं आया। उस पक्ष के कई लोग एक साथ बच्चों पर टूट पड़े। इसमें छात्रा के परिवार के पांच लोग घायल हुए हैं, जो जिला अस्पताल में भर्ती हैं। उधर, आरोपी फरार है।

छात्रा लक्ष्मी मेवाड़ (16) ने बताया कि गांव के कुछ लोग उसके स्कूल जाने से खुश नहीं हैं। वे उसे स्कूल जाने से मना करते हैं। उसने बताया कि जब मैं स्कूल से लौट रही थी तो गांव के ही माखन, कुंदन और धर्मेंद्र सिंह ने मेरा रास्ता रोक लिया। उन्होंने कहा – हमारे गांव में लड़कियां स्कूल नहीं जाती, तुम भी नहीं जाओगी। यह बात मेरे भाई ने सुनी तो उसने विरोध करते हुए कहा – मेरी बहन तो पढ़ने जाएगी।

 विवाद में 55 साल के नारायण मेवाड़, 50 साल की अंतर बाई, 25 साल के लखन परिहार, 27 साल के कमल मेवाड़ और 16 साल के सचिन को चोट आई है। कोतवाली थाना प्रभारी एके शेषा ने बताया पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ एट्रोसिटी एक्ट के तहत मामला दर्ज कर लिया है।

भारतीय जनतंत्रः जितना बड़ा, उतना ही खोखला

प्राचीन भारत से ही राजे रजवाड़ों की शासन व्यवस्था रही है। कोई कहे कि जनतंत्र प्राचीन समय से आ रहा है वह झूठ है। इसके विपरीत ग्रीक और रोम का स्पष्ट इतिहास है, जहां जनतंत्र बहुत मजबूत था। सुकरात के विद्रोह का मुकदमा संसद में चला और 120 के मुकाबले 180 मत खिलाफ पड़े और तब जाकर मौत की सजा सुनाई गई। रोम साम्रज्य में तो सीनेट इतना शक्तिशाली हुआ करता था कि राजा के न रहने पर भी शासन व्ययस्था चलती रहती थी। प्रायः शासक और सीनेट में टकराव होता था। लिपि के अभाव में हमारे यहां क्या व्यवस्था थी बहुत स्पष्ट नहीं है। रोम, मिश्र, चीन व सिंधु सभ्यता में विकसित लिपि थी जिसके कारण उस समय के समाज का इतिहास मिलता है। कोली और शाक्य के बीच झगड़ा जातीय आधार पर था और वह मुख्य कारण हुआ कि गौतम बुद्ध ने गृह त्याग किया। उस समय भी जातीय भेदभाव चरम पर था और उसी के खिलाफ़ उनका अभियान था। चंद्र गुप्त मौर्य, गुप्त युग से लेकर हर्षवर्धन तक कहीं देखने को नहीं मिलता कि संसद या विधायिका के द्वारा शासन का निर्धारण हुआ हो। सामंत और राजा के दरबारी और सलाहकार हुए और वे राज-काज चलाने में सहयोग किया करते थे।

भारत में जितने भी अक्रांता आए आसानी से सफल होते रहे। एक जाति की जिम्मेदारी थी लड़ने और प्रशासन की और ऐसे में शेष तमाशबीन बने रहते थे। वह समाज कभी तरक्की नहीं कर सकता जो गलतियों को न माने और न सीखे। भारत के समाज की यही सच्चाई है। कुछ लोग श्रुति के आधार पर कुछ भी बोलते हैं। प्लास्टिक सर्जरी भी हुआ करती थी यह भी दावा करते हैं। प्राचीन काल में मिसाइल का होना तो आम बात थी और पाताल को भी चीर दिया करती थी। हवा, जल और सूरज से बच्चे पैदा हुआ करते थे। दावा किया जाता है सारी खोज और ज्ञान यहीं से दूसरे देशों में गए। जबकि सच्चाई है कि सारी खोज बाहर के हैं जिनका उपयोग हम करते हैं। जो भी खोज बाहर हो जाता है, उसके बाद कहते हैं कि यह तो हमारे यहां हुआ करता था।

जब पता है कि पूर्वजों का है तो क्यों नहीं पहले इजात कर लेते। जब इतने ज्ञानी और ताकतवर थे तो दूसरे छीन और चोरी कैसे कर ले गए? देश आजाद होने के पहले संसद भवन ही नही विधान सभाएं भी कार्यरत थीं। कुछ महीनों और वर्षों में ही जनतंत्र नहीं पैदा हो गया। अंग्रेजों की बड़ी भूमिका थी, भले ही उन्होने अपने हित में ही क्यों न किया हो ? करीब सारी संस्थाएं आजादी के पहले की हैं चाहे न्याय पालिका हो या कार्यपालिका। सेना, पुलिस, रेल आदि अंग्रेज छोड़ गए।

हमारे लोग जनतांत्रिक नहीं हैं, व्यक्ति पूजक हैं । अपने से कमज़ोर को इज्जत देने के बजाय दबाने की प्रवृत्ति रहती है। कांग्रेस अगर न होती तो शायद जनतंत्र स्थापित न हो पाता। गांधी जी और नेहरू जी को भारतीय जनतंत्र को मज़बूत करने का सबसे ज्यादा श्रेय जाता है। कांग्रेस पार्टी इतनी ताकतवर थी कि देश में एक पार्टी सिस्टम कायम कर सकती थी। विपक्ष को कांग्रेस ने पैदा किया और सींचा। कांग्रेस का जो विरोध करते थे उन्हें भी प्रथम मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया, जैसे डॉ अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि। आजादी के समय में विपक्ष के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी। कुछ अन्य दल भी जरूर थे परंतु प्रभावहीन। आपातकाल एक अपवाद जरूर है। बीजेपी जिस तरह से जनतंत्र को ख़त्म कर रही है अगर कांग्रेस ने थोड़ा सा भी ऐसा किया होता तो अन्य दल पैदा ही नहीं होते। भारत चीन और रूस के रास्ते पर भी चल सकता था।

विपक्ष बहुत ही कमज़ोर था और धीरे धीरे पनपने का मौका मिलता गया। 2000 के पहले तक जो सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता जनता के सवालों को तहसील, थाना और सड़क पर उतरकर उठाते थे उन्हें जनता विधान सभा और संसद में पहुंचा देती थी, भले ही ये फटे हाल हुआ करते थे। कांग्रेस चाहती तो चुनाव को शुरू में महंगा कर देती और चुनाव आयोग में राजनैतिक नियुक्ति कर सकती थी या करती ही न। उस समय किसी की ताकत नहीं थी विरोध करने की और करते तो आवाज को दबाना मुश्किल नहीं था। इसको हम और बेहतर समझ सकते थे कि 2010 से ही मीडिया तत्कालीन केंद्र सरकार की एक तरफा खिलाफत करने लगी। विद्वान और कर्मशील मनमोहन सिंह को क्या-क्या नहीं कहा गया। उस समय के पीएम की खबर शायद छपती थी। 2012-13 में तो अखबार और टीवी पर खोजने से भी नहीं मिलता कि कांग्रेस के अच्छे कार्य को लिखा या दिखाया हो। जी टू स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले में इतना बदनाम किया कि हार हुई जबकि बाद में सिद्ध हुआ कि वो सब झूठ था। क्या इससे बड़ा कोई प्रमाण हो सकता है कि जिसकी केंद्र में सरकार और अनुभवी सांसद और मंत्री हों क्या मीडिया मैनेज नहीं कर सकते थे? मीडिया के मालिकों को लोग जानते नहीं थे और यहां तक कि सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार को भी नेता और मंत्री कम जानते थे और बीट देखने वाला पत्रकार ताकतवर हुआ करता था। आज संपादक की कोई अवकात नहीं रह गई और सीधे मालिक को हुकुम जाता है। कांग्रेस क्या यह कृत्य नहीं कर सकती थी ? बस नियत बदलने की आवश्यकता थी। आज भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी महंगाई, बेरोजगारी और विकास के मुद्दे तक सीमित रहते हैं। धर्म का कार्ड कांग्रेस कभी खेली नहीं, लेकिन जाति का कार्ड आराम से खेलकर सत्ता में आ सकती है, परंतु वह भी नहीं किया।

जनतंत्र अंदर से खोखला हो गया है। जिसके पास पैसा न हो चुनाव लड़ने की सोचे भी न। जिसके के पास अथाह कालाधन हो वह मीडिया, चुनाव आयोग और वोट खरीद रहे हैं। क्या यह सब कांग्रेस नहीं कर सकती थी? कांग्रेस ने जनतंत्र को स्थापित किया है । कांग्रेस के शासन काल में विपक्ष के नेताओं की जितनी बात सुनी जाती थी उतना कई बार सत्ता पक्ष के लोगों की नहीं। आज विपक्ष की वाजिब बात सुनने की बात तो दूर की है बल्कि सरकार का काम हो गया कि जो सच भी बोले उसके मुंह को बंद कर दिया जाए । सरकारी संस्थाएं जनतंत्र की मजबूत दीवारें हुआ करती थीं लेकिन वे सत्ता की कठपुतली बनकर रह गई हैं।अब कोई कहे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र है वह बीते जमाने की बात हो गई है। वर्तमान को देखकर यह कहना मुश्किल है कि क्या मीडिया मैनेज नही कर सकते थे? मीडिया के मालिकों को लोग जानते नही थे और यहां तक कि सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार को भी नेता और मंत्री कम जानते थे और बीट देखने वाला पत्रकार ताकतवर हुआ करता था। आज संपादक की कोई अवकात नही रह गई और सीधे मालिक को हुकुम जाता है। कांग्रेस क्या यह कृत्य नहीं कर सकती थी ? बस नियत बदलने की आवश्यकता थी। आज भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी महंगाई, बेरोजगारी और विकास के मुद्दे तक सीमित रहते। धर्म का कार्ड कांग्रेस कभी खेली नही लेकिन जाति का कार्ड आराम से खेलकर सत्ता में आ सकती है, परंतु वो भी नही किया।

जनतंत्र अंदर से खोखला हो गया है। जिसके पास पैसा न हो चुनाव लडने की सोचे भी न। जिसके पास अथाह कालधन हो वह मीडिया, चुनाव आयोग और वोट खरीद रहे हैं। क्या ये सब कांग्रेस नही कर सकती थी? कांग्रेस ने जनतंत्र को स्थापित किया है । कांग्रेस के शासन काल में विपक्ष के नेताओं की जितनी बात सुनी जाती थी उतना कई बार सत्ता पक्ष के लोगों की नहीं। आज विपक्ष की वाजिब बात सुनने की बात तो दूर की है बल्कि सरकार का काम हो गया कि जो सच भी बोले उसके मुंह को बंद कर दिया जाए । सरकारी संस्थाएं जनतंत्र की मजबूत दीवारें हुआ करती थीं लेकिन वह सत्ता की कठपुतली बनकर रह गई हैं।अब कोई कहे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र है, वह बीते जमाने की बात हो गई है। वर्तमान को देखकर यह कहना मुश्किल है कि आने वाले दिनों में क्या होगा?


– लेखक डॉ. उदित राज, पूर्व सांसद के साथ कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) एवं अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं। मो. 9899382211, Emai-dr.uditraj@gmail.com

द्रौपदी मुर्मू ने ली राष्ट्रपति पद की शपथ, सबको किया ‘जोहार’

 संसद का सेंट्रल हॉल आजादी के बाद से ही कई खास लम्हों का गवाह रहा है। इसी कड़ी में 25 जुलाई को एक और खास पल उसकी दीवारों में दर्ज हो गया। देश की 15वीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद सभी को जोहार कर सबको चौंका दिया। नई राष्ट्रपति के ये कहते ही संसद का सेंट्रल हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। मुर्मू को देश के चीफ जस्टिस एनवी रमन ने शपथ दिलाई। मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज जिले से देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली पहली आदिवासी महिला बनी हैं।

 मुर्मू ने शपथ लेने के बाद संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में दोनों सदनों के नेताओं को संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने जैसे ही जोहार शब्द कहा, पूरा कक्ष तालियों की गड़गड़ागट से गूंज उठा। केंद्रीय मंत्री इरानी तो काफी खुश दिख रही थीं। दरअसल, महिला राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने की घोषणा के बाद ही इरानी ने इसका जोरदार स्वागत किया था। जैसे ही मुर्मू ने जोहार शब्द बोला तो इरानी बेहद खुश दिखीं। दरअसल, जोहार का मतलब नमस्कार होता है। आदिवासी इलाकों में इसका इस्तेमाल होता है।

मुर्मू के जय जोहरा शब्द ने कई संदेश दे दिए हैं। देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति बनने का गौरव पाने वालीं मुर्मू ने जोहार शब्द से उस तबके को भी जोड़ा जिनसे उनका ताल्लुक है।

देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली द्रौपदी मुर्मू की सादगी उनके राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बाद भी जारी रही। आज जब वह देश की सर्वोच्च पद की शपथ लेने पहुंची तो उनकी सादगी सबको भा गई। संथाली साड़ी, सफेद हवाई चप्पल में संसद के केंद्रीय कक्ष में उन्होंने देश के 15वें राष्ट्रपति की शपथ ली। ओडिशा के मयूरभंज जिले से रायसीना हिल्स की सबसे बड़ी इमारत में कदम रखने वालीं मुर्मू की सरलता में कोई कमी नहीं आई।

द्रौपदी मुर्मू का जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा के मयूरभंज जिले के बैदापोसी गांव में एक संथाल परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बिरंचि नारायण टुडु है। उनके दादा और उनके पिता दोनों ही उनके गाँव के प्रधान रहे। मुर्मू मयूरभंज जिले की कुसुमी तहसील के गांव उपरबेड़ा में स्थित एक स्कूल से पढ़ी हैं। यह गांव दिल्ली से लगभग 2000 किमी और ओडिशा के भुवनेश्वर से 313 किमी दूर है। उन्होंने श्याम चरण मुर्मू से विवाह किया था। अपने पति और दो बेटों के निधन के बाद द्रौपदी मुर्मू ने अपने घर में ही स्कूल खोल दिया, जहां वह बच्चों को पढ़ाती थीं। उस बोर्डिंग स्कूल में आज भी बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं। उनकी एकमात्र जीवित संतान उनकी पुत्री विवाहिता हैं और भुवनेश्वर में रहती हैं।

द्रौपदी मुर्मू को लेकर आदिवासी बुद्धिजीवियों और बहनजी ने दिया बड़ा बयान

आदिवासी समाज से आने वाली द्रौपदी मुर्मू देश की पंद्रहवीं राष्ट्रपति निर्वाचित हो गई हैं। चुनाव आयोग ने उन्हें जीत का सर्टिफिकेट जारी कर दिया है। इसके साथ उन्हें चारों ओर से बधाई मिलने लगी है। उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री रह चुकी बसपा प्रमुख मायावती ने द्रौपदी मुर्मू को बधाई दी है। बहनजी ने ट्विट कर लिखा- 

“शोषित व अति-पिछड़े आदिवासी समाज की महिला द्रौपदी मुर्मू को देश के राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में भारी मतों से आज निर्वाचित होने पर उन्हें हार्दिक बधाई एवं ढेरों शुभकामनाएं। वे एक कुशल व सफल राष्ट्रपति साबित होंगी, ऐसी देश को उम्मीद। देश में एसटी वर्ग की पहली महिला राष्ट्रपति उम्मीदवार होने के नाते बीएसपी ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उनको अपना समर्थन व वोट दिया। अब सरकार संविधान की सही मंशा के हिसाब से उनके उत्तरदायित्वों को निभाने में उन्हें सहयोग करे ताकि जन अपेक्षा पूरी हो व देश का मान-सम्मान भरपूर बढ़े।

आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाले सोशल एक्टिविस्ट हंसराज मीणा ने इसे संविधान का चमत्कार बताया। उन्होंने  मनुस्मृति और संविधान की तुलना का भी जिक्र किया। हंसराज मीणा ने लिखा- केवल ब्राह्मण ही मंदिर का पुजारी बन सकता है यह “मनुस्मृति” की देन है, लेकिन दलित, आदिवासी भी भारत का राष्ट्रपति बन सकता है, यह डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के “संविधान” की देन है। भारत गणराज्य की प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने पर श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी, को बधाई। जोहार। जय भीम।

आदिवासी समाज के एक अन्य बुद्धिजीवी और सोशल एक्टिविस्ट सुनील कुमार सुमन ने उन विरोधियों को करारा जवाब दिया है, जिसमें कई लोग सोशल मीडिया पर तंज कसते हुए यह सवाल उठा रहे थे कि द्रौपदी मुर्मू भी आदिवासियों के लिए उतनी ही लाभकारी होंगी जितने दलितो के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हुए थे। सुमन ने पहले विरोधियों की लाइन लिखी है, फिर उसका जवाब दिया है। ”आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में कोई अंतर नहीं आएगा !” -तो क्या गैर-आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में उजाला आ जाएगा?

द्रौपदी मुर्मू भारत की 15वीं राष्ट्रपति निर्वाचित, 25 जुलाई को लेंगी शपथ

सत्ता पक्ष की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू भारत की 15वीं राष्ट्रपति होंगी। मुर्मू की जीत इस मायने में भी अहम और ऐतिहासिक है क्योंकि वह भारत की पहली ऐसी राष्ट्रपति बन गई हैं, जो आदिवासी समाज से हैं। मुर्मू 64 फीसदी वोट लेकर जीतीं। द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति चुनाव में कुल 6,76,803 मतों के साथ जीत दर्ज की, जो कुल वोट का 64.03 फीसदी था। वहीं उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाले विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को कुल 3,80,177 वोट मिले। जोकि कुल वोट का 36 फीसदी था। आपको बता दें कि किसी भी उम्मीदवार को जीत दर्ज करने के लिए कुल 5,28,491 वोटों की जरूरत थी, जिसे मुर्मू ने आसानी से पार कर लिया। मुर्मू की इस जीत पर देश भर से उन्हें बधाई मिल रही है। वह 25 जुलाई को शपथ लेंगी। मुर्मू ने ओडिशा में पार्षद के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरु किया था। वह 1997 में रायरंगपुर अधिसूचित क्षेत्र परिषद में पार्षद बनीं। साल 2000 से 2004 तक वह ओडिशा की बीजद-बीजेपी गठबंधन सरकार में मंत्री रहीं। वह झारखंड की राज्यपाल भी रह चुकी हैं। 2015 में उन्हें झारखंड का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इस पद पर वह 2021 तक रहीं। राष्ट्रपति चुनाव में वह भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की उम्मीदवार थीं।

राष्ट्रपति पद के लिए 21 जून को राजग उम्मीदवार के रूप में नामित होने के बाद से, उन्होंने कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया। उनकी जीत निश्चित लग रही थी और बीजू जनता दल (बीजद), शिवसेना, झारखंड मुक्ति मोर्चा, वाईएसआर कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) जैसे विपक्षी दलों के समर्थन से उनका पक्ष मजबूत माना जा रहा था। मुर्मू ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए पूरे देश में प्रचार किया। सबको आभास था कि मुर्मू देश की अगली राष्ट्रपति बनने वाली हैं, इसको देखते हुए राज्य की राजधानियों में उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया था। हालांकि द्रौपदी मुर्मू के रुप में एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति के उम्मीदवार को तौर पर आगे करने को विपक्षी दल और कई संगठन एवं बुद्धिजीवि भाजपा की राजनीति बता रहे थे। तमाम लोग इसकी अपने तरीके से व्याख्या कर रहा था। इस पर आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाले बुद्धिजीवी एवं हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में असिस्टेंट प्रोफेसर सुनील कुमार ‘सुमन’ ने सटीक टिप्पणी की थी। ”आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में कोई अंतर नहीं आएगा!” के तमाम लोगों के बयान पर उन्होंने उल्टा सवाल खड़ा किया कि, “तो क्या गैर-आदिवासी राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के जीवन में उजाला आ जाएगा?” फिलहाल देश को नया राष्ट्रपति मिल गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज के सबसे आखिरी छोड़ पर खड़े आदिवासी समाज से आने वाली राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अपने कार्यकाल में वंचितों और शोषितों के हितों की रक्षा करेंगी।

गुजरात में मुस्लिमों के खिलाफ फतवा जारी!

 गुजरात के बनासकांठा की एक पंचायत का फरमान 30 जून को वायरल हुआ है। इस फरमान में कहा गया है कि मुस्लिम फेरीवालों से सामान नहीं खरीदना है। जो ऐसा नहीं करेगा उस पर 5100 रुपये जुर्माना लगाया जाएगा। हालांकि इस मामले में पुलिस कार्रवाई करने की बात कह रही है। घटना गुजरात के बनासकांठा वाघासन समूह की ग्राम पंचायत का है। पंचायत के लेटरपैड पर जारी इस फरमान में मुस्लिम फेरीवालों से सामान खरीदने पर जुर्माने की बात कही गईं थी। इसमें कहा गया हे कि वाघासन गांव के दुकानदारों को उदयपुर में टेलर की हत्या को देखते हुए मुस्लिम समुदाय के फेरीवालों से सामान नहीं खरीदना चाहिए। इसे पंचायत के लेटरपैड पर जारी किया गया है और इस पर पूर्व सरपंच माफीबेन पटेल के हस्ताक्षर और मोहर है। इस लेटर में कहा गया है- ‘अगर किसी दुकानदार को मुस्लिम व्यापारियों से सामान लेते हुए देखा गया तो उस पर 5100 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा और वो पैसा गोशाला को दिया जाएगा।’ ये लेटर जब सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ तो प्रशासन ने इस पर संज्ञान लिया। दूसरी ओर बनासकांठा प्रशासन की ओर से 2 जुलाई को कहा गया था कि वाघासन समूह की ग्राम पंचायत का वायरल हो रहा लेटर पैड आधिकारिक नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक, बनासकांठा जिला विकास अधिकारी स्वप्निल खरे ने कहा कि लेटर पैड पर जिस व्यक्ति ने हस्ताक्षर हैं, उसके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि सरपंच पद अभी खाली है। इसके लिए चुनाव होना है और फिलहाल, पंचायत वर्तमान में एक प्रशासक के अधीन है। खरे ने कहा, इस पर प्रशासक ने एक स्पष्टीकरण जारी किया है। इसमें कहा गया है कि (पहले) जारी किया गया पत्र निराधार है और किसी को भी इसका पालन करने की जरुरत नहीं है। अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की बात भी कहीं गईं थी। उसी तरह की ऐक और घटना गुजरात के बनासकांठा के सेद्रासना गांव 3 जुलाई को सामने आई है। सेद्रासना गांव में पोस्टर लगाए गए हैं, जिसमें कुछ पोस्टरों की तस्वीरें भी सामने आई हैं जिसमे लिखा गया है- ‘व्यापार के लिए मुस्लिम समुदाय के लोगों को इस गांव में आना सख्त मना हे,हिंदू राष्ट्र का सेद्रासण गांव. लेकिन 4 जुलाई को सेद्रासण गांव के सरपंच ने कहा कि पोस्टर और बैनर रात को दस बजे के बाद अपरिचित व्यक्ति द्वारा लगाया गया है क्योंकि रात दस बजे तक वो गांव में मौजूद थे, तब तक कुछ भी नहीं था। सुबह मुझे ख़बर मिलते ही मैंने पोस्टर और बैनर हटा दिया है। अब आगे कोई इश्यू ना बने इसके लिए में भी चिंतित हूं। लेकिन जब सोशल मीडिया पर वायरल हुई तस्वीरों के बारे में सरपंच से सवाल किया गया तो उन्होंने उसपर कोई जवाब नहीं दिया। इन दोनों दोनो घटना पर प्रशासन कार्रवाई करने की बात कर रहा है लेकिन अभी तक इस संबध में कोई भी कारवाई नहीं हुई है।

रिपोर्ट- मोहंमद चारोलीया

डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’ “हरिचाँद ठाकुर-गुरुचाँद ठाकुर सम्मान” से सम्मानित

युवा आदिवासी लेखक-विचारक एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’ को दलित-आदिवासी एवं पिछड़े समाज के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए ‘‘हरिचाँद ठाकुर-गुरुचाँद ठाकुर सम्मान’’ से सम्मानित किया गया है। हावड़ा, पश्चिम बंगाल स्थित रामगोपाल मंच सभागार में मूलनिवासी कर्मचारी कल्याण महासंघ (मक्कम) की प. बंगाल ईकाई,बाबासाहेब डॉ. बी.आर.अम्बेडकर मिशन, हुगली, भारतीय दलित साहित्यकार मंच (प.बं.) तथापश्चिम बंगाल सफाई कर्मचारी एकता संघ द्वारा 17 जून को संयुक्त रूप से आयोजित एक भव्य अभिनंदन समारोह में डॉ सुनील को यह सम्मान प्रदान किया गया।

इस कार्यक्रम का कुशल संचालन लेखक व कवि रामजीत राम ने किया। इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित भंते रखित श्रमण, समाजसेवी शारदा प्रसाद, वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘पैरोकार’ पत्रिका के संपादक अनवर हुसैन, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के राजभाषा अधिकारी डॉ. ब्रजेश कुमार यादव, महाराजा श्रीश चंद्र कालेज के राजनीतिशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ प्रेम बहादुर मांझी, सहायक प्रोफ़ेसर एवं युवा आलोचक डॉ. कार्तिक चौधरी सहित तमाम दिग्गज मौजूद रहें। गणमान्य वक्ताओं ने डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’ के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि डॉ. सुमन की सक्रियता एवं मार्गदर्शन से बंगाल के बहुजन समाज को वैचारिक ऊर्जा व ताकत मिली। इससे हमारा बौद्धिक संवर्द्धन भी हुआ।

अपने संबोधन में डॉ सुनील कुमार ‘सुमन’ ने आयोजकों का धन्यवाद देते हुए कहा कि बंगाल के दो महापुरुषों के नाम पर स्थापित इसनअमूल्य सम्मान को हासिल करना मेरे लिए बहुत ही गौरव की बात है। इससे मेरी सामाजिक ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है। हमें ‘पे बैक टू सोसाइटी’ को लेकर लगातार सक्रिय रहना है और अपने बौद्धिक-वैचारिक कारवां को हमेशा आगे बढ़ाने का काम करते रहना है। उल्लेखनीय है कि डॉ सुनील कुमार ‘सुमन’ पिछले पाँच वर्षों से वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र प्रभारी के रूप में अपना योगदान दे रहे थे। ‘दलित दस्तक’ परिवार भी सुनील कुमार ‘सुमन’ को बधाई देता है।

राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ी बारीकियों को यहां समझे, जाने कैसे चुना जाता है देश का राष्ट्रपति

चुनाव आयोग ने देश में नए राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर तारीख का एलान कर दिया है। 18 जुलाई को देश के 15वें राष्ट्रपति के लिए मतदान होगा और 21 जुलाई को देश को नया राष्ट्रपति मिल जाएगा। लेकिन क्या आपको पता है कि  भारत का राष्ट्रपति कैसे चुना जाता है? इस वीडियो में हम आपको राष्ट्रपति के चुने जाने की प्रक्रिया, उनके अधिकार और योग्यता सहित तमाम जानकारी देंगे। साथ ही यह भी बताएंगे कि राष्ट्रपति चुनाव में सांसद और विधायक का क्या महत्व होता है।  कैसे होता है राष्ट्रपति का चुनाव राष्ट्रपति का निर्वाचन इलेक्टोरल कॉलेज के द्वारा किया जाता है। इसके सदस्य  लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य के अलावा सभी विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। यानी राष्ट्रपति के मतदान में लोकसभा सांसद, राज्यसभा सांसद और राज्यों के विधायकों को वोट करने का अधिकार होता है। ध्यान रहे कि राष्ट्रपति चुनाव में एमएलसी यानी विधान परिषद के सदस्यों और लोकसभा एवं राज्यसभा में नामित सदस्यों को वोट का अधिकार नहीं होता। हर राज्य के विधायकों की वैल्यू अलग-अलग होती है दिलचस्प बात यह है कि इन सभी के मतों का मूल्य अलग-अलग होता है। लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों के वोट का मूल्य एक समान होता है और विधानसभा के सदस्यों का अलग होता है। विधायकों के वोटों का मूल्य राज्य की जनसंख्या के आधार पर तय होता है। वर्ष 1952 में हुए पहले राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक संसद सदस्य के मत का मूल्य 494 था। तब से अलग-अलग परिस्थियों में यह बढ़ता रहा। इस चुनाव में एक सांसद के वोटों की वैल्यू 700 होगी। इसके पहले यह 708 था, लेकिन जम्मू कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश होने से और वहां विधायक नहीं होने से वोटों का मूल्य घट गया है। एक समय यह 702 भी रह चुका है।
जहां तक विधायकों के वोटों के मूल्य का सवाल है तो यह प्रदेश की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित होता है। जैसे देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट का मूल्य 208 है। इसी तरह बिहार के एक विधायक के वोट की वैल्यू 173 है। तो सबसे कम जनसंख्या वाले प्रदेश सिक्किम के वोट का मूल्य मात्र सात। यानी की अगर यूपी का एक विधायक वोट डालेगा तो उसकी गिनती सीधे 208 होगी और वहीं सिक्किम का एक विधायक वोट डालेगा तो उसकी गिनी सात होगी। इसी आधार पर आप राज्य के विधायकों के मूल्य का आंकलन कर सकते हैं। मतदान के वक्त बैलेट पेपर पर पहली, दूसरी और तीसरी पसंद का जिक्र किया जाता है। इसके बाद जिसकी जीत होती है उसकी घोषणा की जाती है। क्या कार्यकाल खत्म होने के बाद राष्ट्रपति का राजनीतिक जीवन थम जाता है राष्ट्रपति के बारे में एक धारणा यह भी है कि राष्ट्रपति का कार्यकाल खत्म होने के बाद उनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो जाता है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। वो चाहे तो किसी भी तरह से राजनीतिक जीवन में रह सकते हैं। लेकिन देश के सर्वोच्च पद पर रहने के बाद स्वाभाविक है कि वो सांसद या विधायक या राज्यपाल बनना पसंद नहीं करेंगे, क्योंकि ये सब तो राष्ट्रपति के नीचे के पद हैं। राष्ट्रपति के अधिकार राष्ट्रपति के अधिकारों की बात करें तो भले वह सरकार के कैबिनेट और प्रधानमंत्री की मंजूरी से काम करते हैं लेकिन  कोई भी अधिनियम उनकी मंजूरी के बिना पारित नहीं हो सकता। वो वित्त बिल को छोड़कर किसी भी बिल को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं। राष्ट्रपति का मूल कर्तव्य संघ की कार्यकारी शक्तियों का निर्वहन करना है। फौज के प्रमुखों की नियुक्ति भी वो करते हैं।
राष्ट्रपति उम्मीदवार की योग्यता राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की उम्र और योग्यता की बात करें तो राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को भारत का नागरिक होना चाहिए। उनकी उम्र कम से कम 35 साल होनी चाहिए। और इसके साथ इलेक्टोरल कॉलेज के पचास प्रस्तावक और पचास समर्थन करने वाले होने चाहिए। राष्ट्रपति को पद से कैसे हटाया जा सकता है राष्ट्रपति को उसके पद से महाभियोग के ज़रिये हटाया जा सकता है। इसके लिए लोकसभा और राज्यसभा में सदस्य को चौदह दिन का नोटिस देना होता है। इस पर कम से कम एक चौथाई सदस्यों के दस्तख़त ज़रूरी होते हैं। इसके बाद महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होती है। अब तक हुए राष्ट्रपति चुनावों को देखें तो नीलम संजीव रेड्डी अकेले राष्ट्रपति हुए जो निर्विरोध चुने गए थे और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अकेले राष्ट्रपति थे जो दो बार चुने गए।

कबीर को लेकर मनुवादी साजिश

महीने और तारीख के हिसाब से देखें तो हर साल संभवतः जून महीने में सद्गुरु कबीर की जयंती होती है। जाहिर सी बात है कि जयंती के दौरान तमाम धाराओं के लोग अपने-अपने तरीके से कबीर की बातें कहते हैं। लेकिन कबीर को कैसे समझा जाए, किसके जरिये समझा जाय, यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि कई लोग ऐसे भी मौजूद हैं जो बहुजन समाज के संतों और नायकों को लेकर षड्यंत्र में जुटे रहते हैं। मुझे भी इसका अनुभव हो चुका है।

कुछ साल पहले मध्यप्रदेश के मालवा के गांवो में मैं कबीर के संबंध में कुछ अध्ययन कर रहा था। कई गरीब दलित कबीरपंथियों के साथ एक ऊंची जाति के राधास्वामी डेरे के भक्त भी बैठे हुए थे। हम सब बैठकर आपस में बातें कर रहे थे। मैं उनकी चर्चा ध्यान से सुन रहा था, वे अपने अध्यात्म और लोक परलोक की लंबी लंबी बातें कर रहे थे। मैंने थोड़ी देर बाद उनसे पूछा इस सब का गरीब और अछूत आदमी को क्या फायदा है? सारे दलित कबीरपंथी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, वे कुछ बोलना तो चाह रहे थे लेकिन राधास्वामी संप्रदाय के उस एक बनिया मित्र की उपस्थिति में कुछ बोल नहीं पा रहे थे।

मैंने उन राधास्वामी के भक्त मित्र से पूछा कि आप ही बताइए आप सब लोग इतनी आत्मा परमात्मा और अध्यात्म की बात करते हैं क्या आप एक दूसरे के घर में खाना खा सकते हैं? क्या आपके बेटा बेटी एक दूसरे से शादी कर सकते हैं? वे ऊंची जाति के सज्जन बोले कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता। वे सज्जन इस प्रश्न से चिंतित हो गए लेकिन गरीब दलितों के सामने महान बनते हुए कहने लगे कि मैं जात पात बिल्कुल नहीं मानता मैं तो यहां आप लोगों के बीच में बैठकर चाय तक पी लेता हूं। बात उन्होंने बड़े गर्व से बोली, हालांकि मेरे साथ बैठे अन्य गरीब दलित कबीरपंथी कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे। मैंने मौके की नजाकत को समझते हुए वह चर्चा बंद कर दी, थोड़ी देर बाद राधास्वामी के भक्त वहां से चले गए।

मैंने फिर से वही बात निकाली। अब गरीब दलित कबीरपंथी मेरे साथ अकेले थे। मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या लगता है आत्मा परमात्मा नाम साधना घट साधना भक्ति भजन करके आपको क्या मिलता है? वे सब एक स्वर में कहने लगे कि इससे आत्मा की कमाई होती है। अगले जन्म में अच्छा लोक मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा। अपने कर्म अच्छे होंगे तो कर्म का पुण्य मिलेगा।मैंने उनसे पूछा है कि अभी यह जो जिंदगी सामने है इसमें क्या मिलेगा? वे लोग इसके उत्तर में कुछ नहीं कह पाए। वे बार-बार कहने लगे परमात्मा की भक्ति भजन का इस संसार से कोई मतलब नहीं है, यह तो अंतर लोक की बात है। फिर इस बात को समझाने के लिए वह कबीर के दोहे दोहराने लगे। बीच-बीच में वे जाति पाती और धर्म के झगड़े कि निंदा करने वाली साखियां भी गाते जाते थे।उनमें से एक युवा व्यक्ति ने मेरे प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया। उन्होंने बताया कि यहां पर कुछ नाम जपने वाले डेरे हैं हफ्ते में एक बार उनका सत्संग होता है। सत्संग घर के अंदर जब सब लोग बैठे होते हैं तब सभी एक साथ बैठे होते हैं, वहां पर जात पात का कोई भेदभाव नहीं होता। लेकिन जैसे ही सत्संग घर का गेट लगाकर बाहर निकलते हैं फिर से जात पात शुरू हो जाता है।

मैंने पूछा कि क्या आपके ऊंची जाति के सत्संगी मित्र आपके बच्चों को पढ़ने लिखने के बारे में या नौकरी व्यवसाय के बारे में कोई सलाह देते हैं? उन्होंने कहा नहीं वे भक्ति भजन के बारे में सलाह देते हैं। फिर उन्होंने यह भी बताया कि गांव में करीबन 10 हैंडपंप है सारे के सारे ऊंची जाति के लोगों के मोहल्लो में लगे हुए हैं। धीरे-धीरे चर्चा में पता चला कि जितने भी सत्संगी लोग हैं उनमें ऊंची जाति के लोगों का अपना एक नेटवर्क है, यह लोग गरीब सत्संगी लोगों को ना तो बेहतर मजदूरी देते हैं ना उनकी शिक्षा, रोजगार, पानी, खेती किसानी के लिए कोई मदद करते हैं। बल्कि आए दिन इन गरीबों की महिलाओं के साथ छेड़छाड़ जरूर करते हैं।मैंने इन लोगों से सीधे-सीधे पूछा कि आप कबीर की बात करते हैं, कबीर तो समाज में बदलाव की बात उठाते थे। आप यह भक्ति भाव में कब से लग गए? वे इस बात को समझना ही नहीं चाहते थे। वे कहने लगे कि भैया इस समाज को क्या बदलेंगे घर में खाने को रोटी नहीं है यह जो लोग हमारी औरतों और बेटियां को छेड़ते हैं उन्हीं के घर हमको मजदूरी करनी होती है। मैंने फिर पूछा अगर ऐसा है आप इन लोगों के भजन और सत्संग करने वाले लोगों से शिकायत क्यों नहीं करते?

इस पर उन्होंने बड़े दुखी मन से जवाब दिया, कि ये सब लोग एक ही हैं ये लोग समय और माथा देखकर तिलक लगाते हैं। जब हम इनसे कोई शिकायत करते हैं वो कहते हैं कि कहां मोह माया में फंसे हो परमात्मा का नाम जपो। लेकिन जब यही ऊंची जात के सत्संगीअकेले में बात करते हैं अब एक एक रुपए का हिसाब ठीक से करते हैं, किसको कितनी मजदूरी देनी है, किसको काम कर रखना है नहीं रखना है, किसने किसके घर में घुसकर चाय पी ली, किसकी बेटी किसके बेटे से बात कर रही है, या फिर किसको किसके साथ नहीं बैठना चाहिए यह सब बातें हैं वे दिन भर करते रहते हैं। इसी तरह की बातें जब गरीब कबीरपंथी जब उनसे करना चाहते हैं, तो उनसे कहा जाता है कि तुम मोह माया छोड़कर ध्यान भजन करो।कुछ पुराने बहुत बूढ़े मित्र कहने लगे कि जात पात और धर्म का भेद तभी तक रहता है जब तक की आत्मा में ज्ञान का उदय नहीं होता। वे कबीर के कुछ पद बताकर मुझे समझाने लगे कि परमात्मा ने सबको एक जैसा बनाया है, उस परमात्मा का ज्ञान होते ही मनुष्य के बीच का भेद मिट जाता है। इसलिए जात पात खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका है परमात्मा का ज्ञान हासिल करना।

मैंने तुरंत उनसे पूछा कि आपको परमात्मा का ज्ञान कब हुआ है? तो उन्होंने हंसते हुए कहा ‘अरे यह तो जन्मों-जन्मों की बात है, ऐसे ही थोड़ी परमात्मा का ज्ञान मिल जाता है। वर्षों तक साधना करनी पड़ती है।’इस पर मैंने उनसे पूछा कि अगर एक इंसान को परमात्मा का ज्ञान पाँच जन्मों की साधना से होता है,और यह इंसान अगर सबको भाई-बहन मानने लगता है तो इस एक इंसान से पूरे समाज को क्या फायदा होगा? आप जैसे करोड़ों गरीबों की जिंदगी में क्या बदलाव आ जाएगा? यह बात सुनकर वह एक दूसरे का मुंह देखने लगे। वह गरीब कबीरपंथी समझना ही नहीं चाहते थे कि उनका आत्मा परमात्मा पाप पुण्य और पुनर्जन्म का यह खेल कबीर को पसंद नहीं था। उनके मन में गहरा बैठा हुआ है कि यह सब कबीर ने ही सिखाया है।अब हमारे लिए सवाल यह है कि कबीर की शिक्षा मोक्ष और परलोक के लिए है, ऐसी बात उन्हे किसने और क्यों सिखाई है?

याद कीजिए आपको स्कूल मे कबीर के कौनसे दोहे सिखाए गए हैं? क्या उन्मे सामाजिक बदलाव की बातें थीं? या फिर गुरु गोविंद दौ खड़े वाले दोहे मात्र थे? इसी मालवा में एक विश्वविख्यात शास्त्री गायक भी रहने आए थे, उन्होंने कबीर को जिस तरह से गाया है उसमें अध्यात्म लोक परलोक आत्मा परमात्मा गुरु की भक्ति रहस्यवाद कूट कूट कर भरा गया है। उनकी ‘दिव्य’ आवाज में कबीर के बाद सुने तो लगता है कि कबीर कोई बहुत बड़े रहस्यवादी थे, और ऐसे रहस्यवादी थे जिसका समाज से कोई मतलब ही नहीं था। पूरे मीडिया ने और यहां तक कि बड़े-बड़े साहित्यकारों ने भी कबीर की उन्हीं साखियों को खूब ऊंची आवाज मे गाया है जिससे बनियों ब्राह्मणों और क्षत्रियों की स्थानीय शक्ति संरचना पर कोई बुरा प्रभाव ना पड़े।

दुनिया भर के शास्त्री गायक, साहित्यकार नाम जाप सिखाने वाले डेरे हो,या कबीरपंथी महंत हो, या फिर कबीर को गाने वाले अन्य कलाकार हों, ये सब बहुत सावधानी से सबसे गरीब लोगों को ध्यान साधना आत्मा परमात्मा सिखाते हैं, ये लोग गलती से भी समाज में बदलाव की बात नहीं करते। लेकिन दूसरी तरफ जो शक्तिशाली तबका होता है उसके साथ इन्ही लोगों की चर्चा बहुत ही अलग होती है। यह षड्यन्त्र असल मे जमीन और खेत खलिहान से लेकर साहित्य कला और विमर्श के सबसे ऊंचे प्रतिष्ठानों तक फैला हुआ है।ऐसा नहीं है कि यह खेल सिर्फ कबीर तक सीमित है, यह खेल अब गौतम बुद्ध के साथ भी भयानक ढंग से शुरू हो चुका है। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं को भी आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की दिशा में मोड़ जा रहा है। धर्म संस्कृति इतिहास और अध्यात्म की राजनीति ना समझने वाले बौद्ध मित्र भी इस खेल में अपने दुश्मनों की मदद कर रहे हैं। ये लोग बुद्ध के धर्म को लोक परलोक ध्यान साधना मोक्ष और निर्वाण तक ही सीमित रखते हैं। परिवार समाज और आचार व्यवहार में बदलाव की बात पर ये लोग अचानक चुप हो जाते हैं।

यह भी उन गरीब कबीरपंथीओं की तरह कहते हैं कि अपने अनुभव से अपनी साधना से अंतर्मन को साफ करो, अपना दीपक खुद जलाओ यह बुद्ध का मार्ग है। लेकिन यह लोग यह नहीं देखते गौतम बुद्ध स्वयं बुद्धत्व प्राप्ति के पहले ही अपने जीवन में कितना बड़ा बदलाव लाए थे। सुख सुविधा का जीवन छोड़कर कष्ट का मार्ग चुना,अपना भोजन अपना पहनावा अपने मित्र अपनी सोच अपनी दिनचर्या सब बदल डाली। लेकिन आज के अधिकांश कबीरपंथी और बौद्ध मित्र नाम साधना या फिर विपस्सना मे ही लगे रहते हैं। वे अपने घर अपने बीवी बच्चों को अपने परिवार को, उनके त्योहारों उनके कर्मकांड इत्यादि को बदलने की कोशिश नहीं करते।जैसे कबीर की सामाजिक क्रांति को भ्रष्ट करने के लिए दुनिया भर के शास्त्रीय महापंडित रहस्यवादी गीत गाते हैं, उसी तरह गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति को नष्ट करने के लिए दाढ़ी वाले बाबा लोग गौतम बुद्ध को बड़ा रहस्यवादी बताते हैं। ये एक ही खेल के दो चेहरे हैं। दुर्भाग्य से भारत के कबीरपंथी और बौद्ध धर्म इस खेल में गहराई तक फंसे हुए हैं। ये लोग कबीर और बुद्ध को ढंग से पेश करते हैं जैसे कि उनका अपने समाज राजनीति अर्थव्यवस्था स्त्रियों की स्थिति गरीबों की स्थिति इत्यादि से कोई संबंध ही नहीं रहा है।

असल में यह ऊंची जाति के लोगों द्वारा रचा हुआ खेल है। वे सबसे गरीब लोगों को कबीर और बुद्ध के बारे में यही सिखाते रहते हैं कि कबीर और बुद्ध तो मोह माया से दूर रहते थे और साधना के द्वारा स्वर्ग की बात करते थे, अगर तुम इनके सच्चे शिष्य हो तो तुम्हें समाज और दुनिया की मोह माया में नहीं पड़ना चाहिए।इसलिए मुझे बार-बार लगता है कि, संत कबीर हो या गौतम बुद्ध हो जब तक उन्हें आप बाबा साहेब आंबेडकर के नजरिए से देखना जरूरी है। जब तक यह नहीं होगा तब तक भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग संत कबीर या गौतम बुद्ध के नाम से भी स्वयं का नुकसान ही करते रहेंगे। कोई दवाई कितनी भी शक्तिशाली या अच्छी क्यों ना हो, जब तक एक कुशल चिकित्सक उसका उपयोग करना आपको नहीं सिखाता तब तक आप सुरक्षित नहीं हो सकते।

जो लोग कहते हैं कि कबीर को सीधे-सीधे पढ़ लो या गौतम बुद्ध को सीधे-सीधे पढ़ लो या विपससना कर लेने से सच्चा ज्ञान मिल जाएगा, वे लोग या तो बहुत ही मासूम है या फिर बहुत ही बड़े धूर्त हैं।कबीर या गौतम बुद्ध के साहित्य को सीधे-सीधे पढ़ने पर हजारों दिशाओं में हजारों बातें नजर आती हैं। उनके साहित्य में भयानक मिलावट भी की गई है, इसलिए सामान्य आदमी को यह पता लगाना मुश्किल होता है कि इनकी असली शिक्षा क्या है? ऐसे असमंजस में वे समाज में ऊंची जाति के लोगों मे प्रचलित बातों को ही गौतम बुद्ध या कबीर की असली शिक्षा मान लेते हैं। यही वह असल षड्यन्त्र और खेल है जिससे बाबा साहब अंबेडकर हमें बचाना चाहते हैं।

बसपा की दो दिवसीय बैठक से आई बड़ी खबर

बहुजन समाज पार्टी फिर से खुद को मजबूती से लड़ाई में लाने की कोशिश में जुट गई है। उत्तर प्रदेश में हालिया विधानसभा चुनाव की करारी हार के बाद बसपा प्रमुख मायावती लगातार पार्टी नेताओं के साथ बैठक कर स्थिति को मजबूत करने में लगी हैं। बसपा प्रमुख ने एक बार फिर लखनऊ में दो दिनों तक पार्टी के नेताओं के साथ मंथन किया। इसके बाद 29 मई को बयान जारी कर उन्होंने भाजपा के खिलाफ हुंकार भरा। बहनजी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बसपा ने उखाड़ फेंका था, और भाजपा की भी जड़ हिलाने में बसपा ही सक्षम है। इस दो दिवसीय बैठक में बहनजी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश भी दिये।

बहनजी ने कहा कि बी.एस.पी. सीमित संसाधनों वाली पार्टी है, जबकि इसका मुकाबला ज्यादातर बड़े-बड़े पूंजीपतियों व धन्नासेठों के धनबल पर चलने वाली विरोधी पार्टियों से है। जो कि साम, दाम, दण्ड, भेद आदि हथकण्डे अपनाती है। इसीलिए पार्टी व इसके जनाधार को शाहखर्ची आदि से दूर छोटी-छोटी कैडर बैठकों के बल पर ही मजबूत बनाना होगा।

यूपी विधानसभा आमचुनाव के नतीजों को बसपा प्रमुख ने दुर्घटना कहा। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति व मिशन इसी उतार-चढ़ाव का ही नाम है तथा परमपूज्य बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के जीवन संघर्ष व उनके मिशन की तरह हिम्मत कतई नहीं हारना है। कार्यकर्ताओं में उत्साह भरते हुए उन्होंने कहा कि कोई एक राजनीतिक घटनाक्रम पार्टी में दोबारा जान फूंक देगा, जिसके लिए सतत् प्रयास जारी है।

बसपा प्रमुख ने भाजपा सरकार को जमकर घेरा। बेरोज़गारी का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने आरोप लगाया कि बेरोजगार युवा जो अब मजबूरीवश छोटे-छोटे काम कर स्वरोजगार में लगे हैं, अतिक्रमण हटाने के नाम पर उन पर हर दिन सरकारी जुल्म-ज्यादती हो रही है और उन्हें बुलडोजर के आंतक का शिकार बनाया जा रहा है। उन्होंने भाजपा की सरकार को गरीब विरोधी कहा और सरकार द्वारा हाल ही में लिए गए कई फैसलों पर उसकी आलोचना की।

40 फीसदी SC-ST आबादी वाले मध्यप्रदेश में 52 में से 33 कलेक्टर ऊंची जाति के

 चुनावी मौसम में जिस वर्ग और समाज की सबसे ज्यादा बात होती है, वह है इस देश का वंचित समाज। यानी दलित, आदिवासी और पिछड़ा समाज। लेकिन चुनावी नतीजे आते ही सत्ता में आने वाले दल इन जातियों को हाशिये पर धकेल देते हैं। और सत्ता की सारा लाभ सवर्णों को मिलता है। मंत्री से लेकर बड़े अधिकारियों का पद इन्हीं को मिलता है औऱ दलित एवं आदिवासी समाज मुंह ताकता रह जाता है।

तकरीबन 23 फीसदी आदिवासी और 16.50 प्रतिशत दलित आबादी वाले मध्यप्रदेश में प्रशासन में भागेदारी के नाम पर झुनझुना थमा दिया गया है। प्रदेश के समाचार पत्र अग्निबाण ने एक रिपोर्ट प्रकाशित किया है, जिसमें चौंकाने वाली बात सामने आई है। रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के 52 जिलों में से 33 कलेक्टर ऊंची जाति से हैं। जबकि ओबीसी के 13 कलेक्टरों हैं। दलितों और आदिवासियों की बात करें तो तकरीबन 23 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले मध्यप्रदेश के सिर्फ 2 कलेक्टर हैं, जबकि 21 फीसदी दलित समाज के 4 अधिकारियों के जिम्में कलेक्टर का पद है। थोड़ी और बारीकी से नजर डालने पर एक और चौंकाने वाली बात सामने आती है। प्रदेश में मध्यप्रदेश मूल का ओबीसी कलेक्टर सिर्फ एक है। तो वहीं मध्य प्रदेश मूल का एक भी आदिवासी अफसर कलेक्टर नहीं है। जबकि वहीं दूसरी ओर सामान्य वर्ग के 33 कलेक्टर हैं, जिसमें से 15 ब्राह्मण, 8 ठाकुर, 4 वैश्य और 6 अन्य जातियों के हैं। इस पूरे सिस्टम में सिर्फ एक मुस्लिम अफसर कलेक्टर का पद पा सका है।

यानी साफ है कि प्रदेश के 64 प्रतिशत कलेक्टर सामान्य वर्ग से हैं। जिनमें अकेले 30 फीसदी कलेक्टर ब्राह्मण अफसर हैं। जबकि ब्राह्मणों की जनसंख्या प्रदेश में महज 5-6 फीसदी ही है। तो वहीं 15 फीसदी ठाकुर और 8 फीसदी अफसर वैश्य हैं। अनुसूचित जाति वर्ग के 7 फीसदी और अनुसूचित जनजाति वर्ग के 4 फीसदी अफसर ही कलेक्टर हैं। खास बात यह भी है कि आरक्षित वर्ग के एक भी अफसर के पास कोई बड़ा जिला नहीं है। सिर्फ ओबीसी वर्ग के अफसर टी इलैया राजा जबलपुर के कलेक्टर हैं। यह तब है जबकि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद ओबीसी समाज से आते हैं। यानी साफ है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की बातें राजनीतिक दल सिर्फ वोटों के लिए करती हैं और सत्ता में आते ही मंत्रालयो से लेकर प्रशासन में ऊंची जाति के लोगों को बैठा दिया जाता है। दुख की बात यह है कि वंचित समाज सालों बाद भी इस साजिश को समझ नहीं सका है।

मुंबई स्लम से JNU और फिर अमेरिका के कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी पहुंची सरिता माली

 सोशल मीडिया पर सरिता माली नाम की जेएनयू की छात्रा का एक पोस्ट तेजी से वायरल हो रहा है। सरिता ने यह पोस्ट 7 मई की रात फेसबुक पर लिखा था। दरअसल बहुजन समाज से ताल्लुक रखने वाली सरिता ने अमेरिका की एक युनिवर्सिटी में शानदार उपलब्धि हासिल की है। बचपन में रेड लाइट पर फूल बेचने से लेकर जेएनयू और फिर अमेरिका तक सरिता का सफर शानदार रहा है। सरिता माली 28 साल की हैं। उनके पिता चाइल्ड लेबर बनकर मुंबई चले गए थे। सरिता का जन्म और परवरिश मुंबई के स्लम इलाके में ही हुई। एक छोटे सी जगह जिसे हम साइज के हिसाब से 10×12 कह सकते हैं, उसमें परिवार के छह लोग रहते थे। सरिता माली ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई तक वह यहीं स्लम में ही रही। अपने इस मुश्किल भरे सफर और फिर शानदार उपलब्धि के बारे में सरिता ने फेसबुक पर लिखा है, जो वायरल हो गया है। सरिता ने जो लिखा है, आप खुद उन्हीं के शब्दों में सुनिए।

मेरा अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में चयन हुआ है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंग्टन। मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया को वरीयता दी है। मुझे इस यूनिवर्सिटी ने मेरी मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप में से एक ‘चांसलर फ़ेलोशिप’ दी है।

मुंबई की झोपड़पट्टी, जेएनयू, कैलिफ़ोर्निया, चांसलर फ़ेलोशिप, अमेरिका और हिंदी साहित्य…। कुछ सफ़र के अंत में हम भावुक हो उठते हैं, क्योंकि ये ऐसा सफ़र है; जहाँ मंजिल की चाह से अधिक उसके साथ की चाह अधिक सुकून देती हैं। हो सकता है आपको यह कहानी अविश्वसनीय लगे लेकिन यह मेरी कहानी है, मेरी अपनी कहानी।

मैं मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से हूँ, लेकिन मेरा जन्म और मेरी परवरिश मुंबई में हुयी। मैं भारत के जिस वंचित समाज से आई हूँ, वह भारत के करोड़ो लोगों की नियति है। लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है, क्योंकि मैं यहाँ तक पहुंची हूँ। जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रौशनी जो दूर से रह -रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है। मैं भी उसी टिमटिमाती हुयी शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी। मैं ऐसे समाज में पैदा हुयी जहाँ भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था।

हमें कीड़े-मकोड़ो के अतिरिक्त कुछ नही समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढाई। मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं। मैं आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर गरीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती हूँ तो मुझे मेरा बचपन याद आता और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आनेवाला भविष्य कैसा होगा? जब हम सब भाई- बहन त्यौहारों पर पापा के साथ सड़क के किनारे बैठकर फूल बेंचते थे, तब हम भी गाड़ी वालो के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे।

पापा उस समय हमें समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है। अगर हम नही पढेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जायेगा। हम इस देश और समाज को कुछ नही दे पायेंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे। मैं यह सब नही कहना चाहती हूँ लेकिन मैं यह भी नही चाहती कि सड़क किनारे फूल बेचते किसी बच्चे की उम्मीद टूटे उसका हौसला ख़त्म हो।

इसी भूख अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में मैं जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई। सही पढ़ा आपने ‘जेएनयू’ वही जेएनयू जिसे कई लोग बंद करने की मांग करते हैं, जिसे आतंकवादी, देशद्रोही, देशविरोधी पता नही क्या क्या कहतें हैं। लेकिन जब मैं इन शब्दों को सुनती हूँ तो भीतर एक उम्मीद टूटती है। कुछ ऐसी ज़िंदगियाँ जो यहाँ आकर बदल सकती हैं और बाहर जाकर अपने समाज को कुछ दे सकती हैं यह सुनने के बाद मैं उनको ख़त्म होते हुए देखती हूँ। यहाँ के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने मुझे इस देश को सही अर्थो में समझने और मेरे अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी।

जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया। यहाँ की प्रगतिशील छात्र राजनीति जो न केवल किसान-मजदूर, पिछडो, दलितों, आदिवासियों, गरीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हक़ के लिए आवाज उठाती है बल्कि इसके साथ-साथ उनके लिए अहिंसक प्रतिरोध करना का साहस भी देती है। जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके। मैं बेहद उत्साहित हूँ कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है। 2014 में 20 साल की उम्र में मै JNU मास्टर्स करने आई थी, और अब यहाँ से MA, M.PhiL की डिग्री लेकर इस वर्ष PhD जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा PhD करने और वहां पढ़ाने का मौका मिला है। पढाई को लेकर हमेशा मेरे भीतर एक जूनून रहा है। 22 साल की उम्र में मैंने शोध की दुनिया में कदम रखा था। खुश हूँ कि यह सफ़र आगे 7 वर्षो के लिए अनवरत जारी रहेगा।

अपने पोस्ट के आखिर में सरिता ने इस मुहिम में साथ देने वाले अपने शिक्षकों और शुभचिंतकों का आभार जताया है। निश्चित तौर पर सरिता माली की उपलब्धि उन तमाम युवाओं के लिए प्रेरणा है, जो जीवन में आगे बढ़ने का ख्वाब देखते हैं।

सरिता माली के फेसबुक पेज से 
Skip to content