डॉ अम्बेडकर की फोटो से भक्ति , विचार से नफ़रत

5 अक्टूबर 22 के दिन अंबेडकर भवन,नई दिल्ली में जय भीम मिशन द्वारा बौद्ध धम्म की दीक्षा दिलाई गई। यह कार्यक्रम 2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद सम्पन्न हुआ। जय भीम मिशन के संस्थापक दिल्ली सरकार में रहे समाज कल्याण मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम जी थे और इन्हीं के नेतृत्व में बौद्ध धम्म की दीक्षा का आयोजन हुआ। जैसे ही भाजपा को पता लगा इस पर हमला बोल दिया कि हिन्दू धर्म का अपमान हुआ है। कार्यक्रम के नायक दबाव में आ गये। जब कार्यक्रम के कर्ता-धर्ता थे तो यह स्वीकार करने में क्यों डरे  क्यों? जिन 10 हजार लोगों ने इनके साथ दीक्षा ली, उनको नेतृत्वविहीन कर दिया और कहा कि 22 प्रतिज्ञाओं के कारण हिन्दू धर्म को ठेस पहुंचा है तो वो माफ़ी मांगते हैं। सोचा था कि माफ़ी मांगने से पीछा छूट जाएगा  लेकिन मामला बढ़ता गया।

 इस्तीफ़ा देने के बाद मामला और तूल पकड लिया और समर्थक भी सकते में आ गये। मीडिया ने भी घेरा -घारी शुरू कर दिया।  तो जवाब क्या देना था वह भी बड़ा अचम्भित करने वाला है। गौतम जी ने कहा कि उनकी पार्टी– आम आदमी पार्टी गुजरात में चुनाव लड़ रही है। उस क्षति को बचाने के लिए इस्तीफ़ा दिया यह कहते नही थके नही कि वह अपने नेता अरविन्द केजरीवाल की छवि खराब न हो इसलिए ऐसा किया। इन्हें 14 अक्टूबर 1956 में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय 22 प्रतिज्ञा के साथ खड़ा  होना जरुरी नही समझा बल्कि अपने नेता को बचाना ज्यादा जरुरी लगा। कार्यक्रम के तैयारी के समय क्या इसका परिणाम के बारे नहीं सोचना था? समाज परिवर्तन करना आसान नहीं है और इसके लिए कुर्बानी भी देनी पड़ता है। यह सब करने के बाद भी यह कहना कि मिशन जारी रखेंगे तो कुछ अजीब सा ही लगता है। सही वक्त तो यही था कि कहते उन्होंने 22 प्रतिज्ञाओं की शपथ दिलाई और अगर यह गलत है तो बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ऐसी गलती पहले ही कर चुके हैं। अगर हिम्मत से खड़े रहते तो भाजपा भी पीछे हटती और बाबा साहेब की फोटो लगाने वाले हीरो केजरीवाल की भी हिम्मत ना होती कि इस्तीफ़ा मांग लेते।

भावना और प्रचार के चकाचौंध में जनता गुमराह हो जाती है। आम आदमी पार्टी दो ही महापुरुष का फोटो लगाती है। एक हैं- शहीद भगत सिंह और दूसरे डॉ. बी आर अम्बेडकर। अक्सर समर्थक फोटो देखकर ही भावविह्वल हो जाते हैं। बाबासाहेब अम्बेडकर को मानने वाले फोटो से ही प्रभावित हो रहे हैं। सवाल-जवाब नहीं कर हैं कि विचार का क्या होगा? भाजपा ने भी अम्बेडकर सर्किल बनाया जो दिल्ली, महू, नागपुर से होते हुए चैत्य भूमि बम्बई तक पहुँचता है। भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी से पूछना चाहिए कि क्या उनका फ्रेम फोटो तक ही है कि विचार से भी लेना- देना है। जब इतना सब कुछ हो गया है और जिसके लिए है उनका भी उल्लेख करना जरुरी है।

अब देखें बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाएँ  –

  1. मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करुँगा और न ही मैं उनकी पूजा करुँगा।
  2. मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करुँगा।
  3. मैं गौरी, गणपति और हिंदुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करुँगा।
  4. मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करुँगा।
  5. मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूँगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे। मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ।
  6. मैं श्राद्ध में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा।
  7. मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों का उल्लंघन करने वाले तरीके से कार्य नहीं करुँगा।
  8. मैं ब्राह्मणों द्वारा कोई भी कार्यक्रम नहीं कराऊँगा।
  9. मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ।
  10. मैं समानता स्थापित करने का प्रयास करुँगा।
  11. मैं बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का अनुशरण करूँगा।
  12. मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित दस पारमिताओं का पालन करुँगा।
  13. मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया रखूँगा तथा उनकी रक्षा करुँगा।
  14. मैं चोरी नहीं करुँगा।
  15. मैं झूठ नहीं बोलूँगा।
  16. मैं कामुक पापों को नहीं करुँगा।
  17. मैं शराब, ड्रग्स जैसे मादक पदार्थों का सेवन नहीं करुँगा।
  18. मैं महान आष्टांगिक मार्ग के पालन का प्रयास करुँगा एवं सहानुभूति और प्यार भरी दयालुता का दैनिक जीवन में अभ्यास करुँगा।
  19. मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है। क्योंकि यह असमानता पर आधारित हैं, और स्व-धर्म के रूप में बुद्ध धम्म को अपनाता हूँ।
  20. मैं ढृढ़ता के साथ यह विश्वास करता हूँ कि बुद्ध धम्म ही सच्चा मार्ग है।
  21. मुझे विश्वास है कि मैं फिर से जन्म लें रहा हूँ (धर्म परिवर्तन के द्वारा)
  22. मैं गंभीरता एवं दृढ़ता के साथ घोषित करता हूँ कि मैं इसके (धर्म परिवर्तन के) बाद अपने जीवन का बुद्ध के सिद्धांतों व शिक्षाओं एवं उनके धम्म के अनुसार मार्गदर्शन करुँगा। बीजेपी ने जिन प्रतिज्ञा के कारण विरोध किया, उसी की सरकार ने  ये प्रतिज्ञाएँ अंबेडकर वांग्मय के हिंदी Vol-37, पेज न. 498 से 524  और अंग्रेजी Vol- 17 के पार्ट न. 3, पेज 524 से 558 में छपवा रखा है। गौतम जी यह बोलते तो भाजपा वाले भाग खड़े होते।

तर्क और सत्य के साथ खड़ा रहना सबके बस का नहीं। यही तो वक्त था जब डट कर खड़ा होना था। अब पूरे देश में सवाल खड़ा किया जाए कि क्या बीजेपी और आम आदमी पार्टी को डॉ. आंबेडकर के फोटो से ही प्रेम और विचार से इतनी नफरत। इनके अनुआयी भी जुबान से ही  22 प्रतिज्ञा की रट ना लगाएं बल्कि वो अपने जीवन में भी उतारें। अगर इनको बाबा साहेब के विचारों से इतनी ही नफरत है तो खुलकर सामने आ जाएँ। आम आदमी पार्टी अपने कार्यालय से डॉ. आंबेडकर की तस्वीर को हटा दें, भाजपा बाबा साहेब का नाम लेकर बात न करे। इन लोगों को लुका छिपी बंद कर देना चाहिए। गुजरात एवं हिमाचल के चुनाव में भी यह विमर्श को स्थान देना बनता है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022 के आइनें में

असमानता ख़त्म करने का एक अभिनव विचार ! विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने का ढिंढोरा पीटने वाली मोदी सरकार की पोल खोलने वाली एक और रिपोर्ट सामने आई है. वह है ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022, जिसे मोदी सरकार ने नकार दिया है. हर वर्ष अक्तूबर के दूसरे सप्ताह के अंत में प्रकाशित होने वाली ग्लोबल हंगर इंडेक्स(जीएचआई) की ताजी रिपोर्ट 15 अक्तूबर, 2022 को प्रकाशित हुई है, जिसमे बताया गया है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2022 में भारत की रैंकिंग 121 देशों में107है. दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान को छोड़कर तकरीबन सभी देशों से भारत लिस्ट में पीछे है. मोदी राज में किसी भी क्षेत्र में शर्मनाक परिणाम देने वाला भारत यदि पकिस्तान से थोडा भी बेहतर परिणाम दे देता है तो राष्ट्रवादी सारी बातें भूल जाते हैं. किन्तु जीएचआई की ताजी रिपोर्ट में ऐसी कोई राहत नहीं मिली है. अगर भारत के पड़ोसी मुल्कों में श्रीलंका का रैंक 64, नेपाल का 81और चीन का सामूहिक रूप से 1 से 17 के बीच है तो पाकिस्तान का रैंक भी 99 है. भारत थोड़ी राहत की सांस ले सकता कि अफगानिस्तान जैसे एक मुस्लिम देश की रैंकिग उससे कुछ बदतर है:अफगानिस्तान का रैंक 109 है!

 ऐसा नहीं कि यह अचानक हुआ है: मोदी राज में लगभग हर साल यही स्थिति रही है. मोदी राज जमकर स्थापित होने के पहले भुखमरी से उबरने के लिए प्रयासरत देशों में भारत की रैंकिंग 2011, 2012, 2013 और 2014 में क्रमशः67, 66, 63 और 55 रही. मोदी राज  के ठीक से स्थापित होने के बाद यह अचानक जम्प करके 2015 में 80 ,2016में 97 और 2017 में 100 हो गयी और भारत पडोसी मुल्को से मात खाता रहा. 2021 की सूची में पड़ोसी देश- पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल भारत से आगे थे. बहरहाल जीएचआई की इस रिपोर्ट का सम्पर्क मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से है और मोदी – राज में इससे जुड़ी हर रिपोर्ट/इंडेक्स में भारत की स्थिति बद से बदतर होती गयी है.

बहरहाल मोदी- राज  में भारत ने हंगर इंडेक्स में ही शर्मनाक रैंकिग हासिल नहीं किया है ,  विगत वर्षों में मानव विकास सूचकांक, क्वालिटी ऑफ़ लाइफ, जच्चा-बच्चा मृत्यु दर , प्रति व्यक्ति डॉक्टरों की उपलब्धता, क्वालिटी एजुकेशन इत्यादि से जुड़ी जितनी भी इंडेक्स/रिपोर्ट्स जारी होती रही हैं, उसकी स्थिति बद से बदतर ही नजर आई है. किन्तु जिस रिपोर्ट ने भारत की स्थिति सबसे शर्मनाक की है, वह है ग्लोबल जेडर गैप रिपोर्ट! वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा 2006 से हर वर्ष जो ‘वैश्विक लैंगिक अन्तराल रिपोर्ट’ प्रकाशित हो रही है, उसमें साफ़ पता चलता है कि भारत में महिलाओं की स्थिति करुण से करुणतर हुए जा रही है और भारत दक्षिण एशियाई देशों सबसे नीचले पायदान पर है. बहरहाल आधी आबादी की करुणतर स्थिति को देखते हुए ‘वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट: 2020’  में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि भारत में महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लग सकते हैं. यह कितनी चिंताजनक स्थिति इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी 2019 की रिपोर्ट में 202 साल लगने का अनुमान लगाया गया था.लेकिन अगले एक साल में 202 से बढ़कर 257 हो गया, जो इस बात का संकेतक कि मोदी-राज में महिलाओं की स्थिति आश्चर्यजनक रूप से बद से बदतर होती जा रही है . अब यदि आधी आबादी को पुरुषों के बराबर आने में ढाई सौ साल से अधिक लग सकते हैं तो मानना पड़ेगा कि भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता की स्थिति अत्यंत भयावह है.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप चिन्हित भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है. ऐसी असमानता विश्व में शायद ही कहीं और हो, इस बात पर मोहर वर्ष 2021 में लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ में भी लगी. 2015 के बाद क्रेडिट सुइसे और ऑक्सफाम की प्रकाशित सभी रिपोर्टों में ही भारत में बढती भयावह आर्थिक विषमता को लेकर चिंता जाहिर की जाती रही है. पर,मोदी सरकार इसकी अनदेखी करती इसलिए हम विगत वर्षों से प्रकाशित रिपोर्टो में देश की स्थित देखकर शर्मसार हुए जा रहे हैं. बहरहाल जो लोग देश की शर्मनाक स्थिति से चिंतित हैं, उन्हें ही सारी समस्याओं की जननी आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने का कोई क्रांतिकारी उपाय ढूँढना होगा. इस मामले में काबिले गौर है कि विषमता से पार पाने के सारे उपाय विफल हो चुके हैं और यह समस्या नित नयी ऊँचाई छूती जा रही है. ऐसे में इससे पार पाने के लिए किसी अभिनव परिकल्पना पर विचार करना होगा .

आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए हमारे देश के योजनाकारों की ओर से कई प्रयास हुए पर, इस मामले में एक साधे, सब  सधे की कहावत को चरितार्थ करने का प्रयास नहीं हुआ. ऐसा करने पर विषमता-जन्य किसी खास समस्या पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता और उस समस्या के खात्मे के रास्ते आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे का पूरा लक्ष्य पा जाते. इससे विषमता के खात्मे के कई मोर्चों पर मुस्तैद नहीं होना पड़ता. अगर लगता है कि इस बात में दम है तो हम विषमता से उपजी ऐसी किसी खास समस्या पर ध्यान करें जो सबसे गंभीर हो. और जब हम ऐसी किसी समस्या पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो सबसे पहले जेहन में उभरती है भारत की आधी आबादी की समस्या, जिसके बारे में वैश्विक लैंगिक अन्तराल 2020 में बताया गया है कि भारत की महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं. ध्यान रहे हमारी आधी आबादी 66 करोड़ है,  यूरोप के प्रायः तीन दर्जन देशों से अधिक , अमेरिका की कुल आबादी का डबल और लैटिन अमेरिका की सकल आबादी के बराबर है. ऐसे में क्या हमारी आधी आबादी की आर्थिक असमानता से बड़ी कोई समस्या पूरे विश्व में है! अगर नहीं तो यदि आधी आबादी की समानता को ध्यान में रखकर विषमता के खिलाफ लड़ाई लड़ें, तो शायद बहुत ही बेहतर परिणाम दे पाएंगे!

इसमें ज्यादे मगजपच्ची की जरुरत नहीं कि भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता  का सर्वाधिक शिकार महिलायें हैं और महिलाओं में भी सर्वाधिक शिकार क्रमशः दलित और आदिवासी महिलाएं! यदि सवर्ण समुदाय की महिलाओं को आर्थिक समानता अर्जित करने में 250 साल लग सकते हैं तो दलित-आदिवासी महिलाओं को 350 साल से अधिक लग सकते हैं. बहरहाल भारतीय महिलाओं को 257 वर्षो के बजाय आगामी कुछेक दशकों में आर्थिक समानता दिलाना है तो इसके लिए अबतक आजमाए गए उपायों से कुछ अलग करना होगा. इस मामले में मेरे पास एक नया विचार है. इसके लिए हमें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करने होंगे. सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को, जिनकी आबादी बमुश्किल 7-8 प्रतिशत होगी,उनको उनकी संख्यानुपात पर लाना होगा. इसके लिए सवर्ण पुरुषों को प्राथमिकता के साथ समस्त क्षेत्रों में उनकी संख्यानुपात में उनको आरक्षण देकर उन्हें शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- में 7-8 प्रतिशत सीमित कर दिया जाय  ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त(Surplus) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो सके.

दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासियों की दुर्दशा के मूल में यही कारण था कि विदेशी मूल के गोरों ने अवसरों और संसाधनों पर अपने संख्यानुपात से कई गुना कब्ज़ा जमा कर बहुसंख्य लोगों के समक्ष भयावह समस्या खड़ी कर दिया था. बाद में कानून बनाकर गोरों को संख्यानुपात पर रोकने के बाद ही वहां के मूलनिवासियों में वाजिब मात्रा में अवसर बंटने की शुरुआत हुई. बहरहाल अवसरों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनके संख्यानुपात में सिमटाने के बाद दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसर और संसाधन प्राथमिकता के साथ आधी आबादी के हिस्से में जाए! इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा. पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जेनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं,उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है. यदि हमें 257 वर्षो के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा अर्थात सबसे पहले एससी/एसटी, उसके बाद ओबीसी, फिर धार्मिक अल्पसंख्यक और शेष में जेनरल अर्थात सवर्णों को अवसर निर्दिष्ट करना होगा.

हमें भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जेनरल अर्थात सवर्ण – को दो श्रेणियों -अग्रसर अर्थात अगड़े और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों-  में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करना होगा.इसके तहत संख्यानुपात में क्रमशः अति दलित और दलित; अनग्रसर आदिवासी और अग्रसर आदिवासी;अति पिछड़े और पिछड़े ;अनग्रसर और अग्रसर अल्पसंख्यकों तथा अनग्रसर और अग्रसर सवर्ण महिलाओं को संख्यानुपात में अवसर सुलभ कराने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ना होगा.एससी/एसटी, ओबीसी,धार्मिकअल्पसंख्यकों और सवर्ण समुदाय की अगड़ी-पिछड़ी महिलाओं को इनके समुदाय के संख्यानुपात का आधा हिस्सा देने के बाद फिर बाकी आधा हिस्सा इन समुदायों के अगड़े- पिछड़े पुरुषों के मध्य वितरित हो. यदि विभिन्न समुदायों की महिलाएं अपने प्राप्त हिस्से का सदुपयोग करने की स्थिति में न हों तो उनके हिस्से का बाकी अवसर उनके पुरुषों के मध्य ही बाँट दिया जाय: किसी भी सूरत में उनका हिस्सा अन्य समुदायों को न मिले.

यदि हमशक्ति के विविध स्रोतों – सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य,डीलरशिप; सप्लाई,सड़क-भवननिर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली राशि,ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादिके कार्यबल- में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक, और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 257 वर्षों के बजाय 57 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा. तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के मोर्चे पर आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें. यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, आर्थिक और सामाजिक के खात्मे में भी शर्तिया तौर पर सफल हो सकते हैं. कारण, सर्वाधिक पिछड़े समुदायों की महिलाओं के साथ उन समुदायों का बाकी बचा 50 प्रतिशत हिस्सा अनिवार्य रूप से उनके पुरुषों को मिलेगा. इस तरह  विविधतामय सभी समाजों को उनका शत प्रतिशत हिस्सा मिलने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा. ऐसा होने पर कोई भी समुदाय वंचित नहीं रहेगा. सभी को उनकी महिलाओं के रास्ते उनका पूरा हिस्सा मिलने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा. यदि हम इस अभिनव परिकल्पना को जमीन पर उतार सके तो ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट हो या ग्लोबल हंगर इंडेक्स: हम हर रिपोर्ट/इंडेक्स पर शर्मसार होने के बजाय गर्वकरने की स्थिति में आ जायेंगे!

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क: 9654816191)

मोहन भागवत के शब्द खोखले क्यों हैं?

“वर्ण और जाति को त्याग देना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने गलतियाँ की हैं, और उन गलतियों को स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए,” संघ प्रमुख डॉ मोहन भागवत ने पिछले सप्ताह नागपुर में कहा था। यह पहली बार नहीं है जब डॉ. भागवत ने ऐसी घोषणाएं की हैं।
2012 में, लोकसत्ता के साथ एक आइडिया एक्सचेंज सत्र में, डॉ भागवत ने जाति और आरएसएस में दलितों और महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर सवाल खड़े किए। वह एक सौम्य राष्ट्रवादी पिता तुल्य होने की आड़ में बंद थे, जो भेदभाव नहीं करते, फिर भी दलितों को “इन वर्गों” के रूप में संदर्भित करते हैं।
आइडिया एक्सचेंज के दौरान भागवत ने कहा कि आरएसएस जाति का समर्थन नहीं करता और जातिविहीन समाज में विश्वास करता है। “किसी भी प्रणाली को समय के साथ विकसित होना चाहिए। हम उस संरचना को लागू करने से पूरी तरह असहमत हैं जो एक हजार साल पहले चल रही थी।” उन्होंने एक बिंदु और आगे कहा, “इतने सारे लोगों के प्रयास के बावजूद जाति नहीं जा रही है क्योंकि यह लोगों के दिमाग में है। हम इस बहस में नहीं पड़ते कि वर्ण अतीत में उपयोगी था या नहीं। हम एक ऐसा समाज चाहते हैं जो समान और शोषण से मुक्त हो।” उन्होंने आर्थिक के विपरीत सामाजिक आरक्षण के प्रगतिशील तर्क को भी समझाया। “हम लोगों को बताते हैं कि एक ऐसा समूह था जिसने 2,000 वर्षों तक लाभ का आनंद लिया था, जब कोई आरक्षण नहीं था, यह समूह निरंतर लाभ का आनंद ले रहा था।”
भागवत ने जाति और वर्ण के सवाल को अपने साथी, जनेऊ धारण करने वाले, कर्मकांड में विश्वास रखने वाले हिंदुओं को संबोधित किया, जो रोजमर्रा की जिंदगी में जाति का प्रयोग करते हैं और इसे अपने पूर्वजों द्वारा संपन्न एक पवित्र मूल्य के रूप में पेश करते हैं।
दुर्भाग्य से, देश में जातिवाद और जातिगत हिंसा का सामना करने के लिए आरएसएस द्वारा अक्षम्य निष्क्रियता के कारण ये प्रेरक घोषणाएं बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं। आरएसएस के पूर्व प्रमुख बालासाहेब देवरस ने चार दशक पहले इसी तरह की भावना व्यक्त की थी, और रिपोर्ट कार्ड दयनीय है।
जाति से छुटकारा पाने का क्या मतलब है? यह उन सभी संरचनाओं को नष्ट करना है जो समानता और समान अवसर में बाधक हैं। यह उन लोगों के लिए रास्ता बनाना है जिन पर अत्याचार किया गया है। यह उन गलतियों के बारे में नैतिक अपराधबोध की पीड़ा है जिनके परिणाम ने शीर्ष पर रहने वालों के आराम के लिए उदारतापूर्वक मार्ग प्रशस्त किया है। यह कि अपमान और चोट के बिना विविधता की अनुमति देश के धन और संसाधनों के पुनर्वितरण और संपत्ति में समानता रखने से प्रमाणित होती है। यह सभी के लिए अपनी क्षमता के अनुसार समान रूप से बढ़ने और उन्हें करदाता बनाकर राष्ट्रीय जीवन में शामिल करने के अवसर पैदा करना है।
यह सामयिक विस्फोट कहाँ से आता है? यह अंतर-ब्राह्मण प्रतिद्वंद्विता और संघर्षों में है। व्यापक समूह चितपावन, देशसस्ता, करहड़े, देवरुखे और सारस्वत हैं। प्रत्येक जाति कबीले दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करती है। तटीय ब्राह्मण देशस्थ ब्राह्मणों को दक्कन के पठार में मुसलमानों के साथ दोस्ती करने के लिए हीन मानते हैं। देशस्थ ने चितपावन पर पलटवार किया।
यह पवित्रता के बारे में एक बहस है, जो जाति की स्थिति का एक प्रमुख संकेत है। इंट्रा-ब्राह्मण तनाव एक अनसुलझा संघर्ष है, जहां मध्य भारत और आंध्र देश के ब्राह्मणों ने राष्ट्रवाद का एक नया सिद्धांत तैयार किया है जिसमें वे ब्राह्मण अनुष्ठान अभिजात वर्ग के टाइटन्स द्वारा उन्हें अस्वीकार किए गए स्थान पर कब्जा कर लेते हैं।
आरएसएस को अंततः अंबेडकर, बुद्ध और अन्य गैर-ब्राह्मणवादी पूर्वजों के साहस और विद्रोही इतिहास के तहत निर्देशित दलित कौशल की ताकत के साथ आना होगा। दलित कोई भोली प्रजाति नहीं है जिसे आसानी से घुमाया जा सके। वे अपने पूर्वजों के शासन को वापस लाने के लिए काम करते हैं। जबकि प्रतिवादी बल अत्याचार करता रहता है, शासक बनने के उनके सपने प्रतिबंधित हैं।
यह देखते हुए कि आरएसएस ने सक्रिय रूप से समाज से जाति को खत्म करने की कोशिश नहीं की है, पदानुक्रमित वर्ण संरचना अभी भी अपने कार्यकर्ताओं द्वारा पवित्र है। शपथ ग्रहण करने वाले हिंदू दलितों पर हो रहे अत्याचारों को चुनौती नहीं देते। जब हाथरस जैसे मामले होते हैं, तो डॉ भागवत के शब्दों की ईमानदारी खोखली हो जाती है। वे केवल आरएसएस द्वारा भाजपा को छाया देने की कोशिश कर रहे एक पक्ष की बात है और दोहराते हैं कि वे अभी भी शॉट्स को कॉल करने वाले हैं।
इंडियन एक्सप्रेस में अंग्रेजी में प्रकाशित लेख का हिन्दी अनुवाद  एस आर दारा पुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट द्वारा किया गया है। 

In solidarity with Rajendra Pal Gautam, Strong condemnation of Delhi and central government

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NRI Ambedkarites from USA, Canada, UK, Germany, France, Nederland, Ireland, Spain, Sweden, Japan, Korea, Singapore, New Zealand, Belgium, Hungary, Australia, UAE, Oman, Qatar, Saudi Arabia, Bahrain and Malaysia condemn the manner in which Delhi’s Social Welfare minister Rajendra Pal Gautam had to resign from his post due to his presence at an event embracing Buddhism in Delhi on Wednesday October 5th 2022.Rajendra Pal Gautam attended the Ashoka Vijaya Dashami celebrations at Ambedkar Bhawan in Jhandewalan, where over 10,000 people from various religions embraced Buddhism. We condemn the manner in which mainstream Indian media villainized Mr Gautam, tried to defame him by taking some vows out of context, mischaracterizing them and attempting to divide the society.

The gathering, an annual affair held every October, was a peaceful event organized by a local social groups called the Buddhist Society of India and Mission JaiBheem. Dozens of such events take place every year all over India where thousands of people embraced peacefully to Buddhism. This event in Delhi was no different. These events commemorate the 1956 mass embracing Buddhism held at Nagpur on October 14, 1956 known as Ashok Vijaya Dashmi, where Dr. BR Ambedkar led lakhs of people in adopting Buddhism by taking the famous 22 vows. The same 22 vows were also recited peacefully at the event in Delhi, where Mr. Gautam was present. Reciting the 22 vows is a common practice in all embracing Buddhism ceremonies. These vows are nothing but a guide to an individual to stay away from superstition, not to believe in caste system and treat everyone with dignity and respect. There is nothing disrespectful to any community in the 22 vows. We condemn the attempts made by mainstream media to spread negative propaganda against the 22 vows.

During this distressing time, the NRI Ambedkarites are seething with pain, sadness and are appalled at the turn of events.  We offer solidarity to Mr. Gautam in this difficult time. We trust that the government will fulfill its constitutional obligation and prevent attempts by media and anti-social elements to divide the society. The world is watching.

https://twitter.com/AdvRajendraPal/status/1579071211497480192?s=20&t=i6-ZtGpTAyc3JFu_7ulwfA

List of endorsing organization

  1. Buddhist Council of America (BCA)
  2. Dhamma Waves, Canada
  3. Ambedkar Association of North America (AANA)
  4. Ambedkar Buddhist association of Texas (ABAT)
  5. Ambedkar International Mission, USA (AIM)
  6. B. R. Ambedkar International Mission Center, Houston Texas
  7. Ambedkar International Mission, Japan (AIM)
  8. Ambedkar International Mission, UAE (AIM)
  9. Ambedkar International Center (AIC)
  10. Boston Study Group (BSG)
  11. Coalition of Seattle Indian American’s (CSIA)
  12. Dr Ambedkar Buddhist Society ,New York
  13. International Bahujan Organization, New York
  14. International Boddhisatva Guru Ravidas Organization, New York
  15. Ambedkar Mission, Toronto, Canada
  16. Ambedkarites International Mission Society-Canada (AIMS)
  17. Ambedkar King Study Circle, USA (AKSC)
  18. Periyar International USA
  19. SamataSainik Dal HQ Deekshabhumi Nagpur (SSD)
  20. South Asian Dalit Adivasi Network Canada (SADAN)
  21. Dr Ambedkar Buddhist organisation Birmingham UK
  22. Dr Ambedkar Mission Society Glasgow Scotland
  23. Dr Ambedkar Mission Society Europe
  24. Indian Association of Minorities New Zealand.(IAM)
  25. Mulnivasi Nayak
  26. International SSD, California,USA
  27. BhimPatrika Media
  28. Ambedkar Nama
  29. Dalit Dastak
  30. Ambedkar Times
  31. Blue Morning Weekly
  32. Lokmanya Samiti, Maharashtra, India
  33. Ambedkar Chetna Parishad, Jharkhand
  34. BodhimaggoMahavihara
  35. Human Metta Foundation

डॉ.आम्बेडकर और गाँधी आमने-सामने

मोहनदास करमचंद गांधी (2 अक्टूबर 1869 – 30 जनवरी 1948) की जिस व्यक्तित्व से निरंतर वैचारिक, राजनीतिक और नैतिक टकराहट होती रही, उस व्यक्तित्व का नाम डॉ. भीम राव आंबेडकर ( 14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956 )। दोनों के पास भारत के भविष्य के भारत के निर्माण का एक मुकम्मिल स्वप्न था। जिसके प्रति दोनों पूरी तरह प्रतिबद्ध थे। दोनों आधुनिक भारत के ऐसे व्यक्तित्व थे, जो एक साथ चिंतक, विचारक,नेता और संघर्षशील कार्यकर्ता थे। जहां गांधी का यह मानना था कि ब्रिटिश औपनिवेशिक दासता से भारत की मुक्ति सबसे बड़ा कार्यभार है, यही भारत की समस्याओं की मूल जड़ है। वहीं आंबेडकर का मानना था कि वर्ण-जाति की व्यवस्था से मुक्ति का संघर्ष ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था से मुक्ति के संघर्ष जितना ही जरूरी और महत्वपूर्ण है और दोनों संघर्ष एक साथ चलाया जाना चाहिए। वर्ण-जाति व्यवस्था को ही वे ब्राह्मणवाद कहते थे। जहां गांधी आदर्श समाज के रूप में रामराज्य की कल्पना करते थे, वहीं आंबेडकर बुद्ध से प्रेरणा लेते हुए स्वतंत्रता, समता और बंधुता पर आधारित भारत के निर्माण का स्वप्न देखते थे। दोनों नैतिक प्रेरणा के लिए धर्म की आवश्कता महसूस करते थे, लेकिन जहां अन्य धर्मों को सम्मान देते हुए गांधी हिदू धर्म को अपने नैतिक प्रेरणा का स्रोत मानते थे,वहीं आंबेडकर हिंदू धर्म को पूर्णतया खाारिज करते थे। गांधी के धर्म में ईश्वर और आस्था के लिए जगह थी, जबकि आंबेडकर बुद्ध धम्म के रूप में एक ऐसे धर्म की बात करते थे, जिसमें ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी और जिसमेें आस्था नहीं तर्क धर्म के केंद्र में था।
जीवन शुरूआती बड़े हिस्से में गांधी वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था दोनों का समर्थन करते रहे, बाद में उन्होंने अस्पृश्यता के साथ जााति व्यवस्था का विरोध करना शुरू कर दिया और अन्तरजातीय विवाहों का भी समर्थन करने लगे, लेकिन जीवन के अंतिम समय तक वे वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते रहे। इसके विपरीत आंबेडकर वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था दोनों को एक दूसरे का पर्याय मानते थे और उनका कहना था कि गांधी वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करके जाति व्यवस्था के पक्ष में ही खड़े हो जाते हैं, क्योंकि वर्ण-व्यवस्था से ही जाति व्यवस्था निकली है। गांधी अछूत प्रथा के खिलाफ संघर्ष करते रहे, आंबेडकर कहते थे कि छुआछूत का खात्मा वर्ण-जाति व्यवस्था के खात्में के बिना नहीं हो सकता है।
उम्र में भले ही गांधी आंबेडकर से करीब 23 वर्ष बडे थे, लेकिन भारत में दोनों के संघर्षों की शुरूआत कमोवेश एक साथ ही होती है। गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत आते हैं जबकि उनकी उम्र करीब 46 वर्ष है और 1921 में कांग्रेस बागडोर संभालते हैं। आंबेडकर 1917 में कोलंबिया विश्विद्यालय से पी-एच.डी की डिग्री प्राप्त करके वापस भारत आते हैं और 1918 में वर्ण-जाति व्यवस्था के खिलाफ अपने संघर्षो की शुरूआत तब करते हैं, जब वे नागपुर में शोषित वर्गो के सम्मेलन में शिरकत करते हैं। भारत में संघर्षों की शुरूआत के साथ ही गांधी के निशाने पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन है, तो आंबेडकर के निशाने पर वर्ण-जाति व्यवस्था है। गांधी और आंबेडकर दोनों अपने संघर्षों की शुरूआत सत्याग्रह से करते हैं। गांधी अपने संघर्षों की शुरूआत 1918 में चम्पारण सत्याग्रह से करते हैं, तो आंबेडकर महाड़ सत्याग्रह से।
गांधी नमक सत्याग्रह के लिए जाने जाते हैं, तो आंबेडकर महाड़ सत्याग्रह के लिए। 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के महाड स्थान पर दलितों को सार्वजनिक चवदार तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के आंबेडकर ने यह सत्याग्रह किया था। नमक सत्याग्रह की शुरूआत 12 मार्च 1930 को हुई। 12 मार्च, 1930 में गांधी ने अहमदाबाद के पास स्थित साबरमती आश्रम से दांडी गांव तक 24 दिनों का पैदल मार्च निकाला था। महाड़ सत्याग्रह अछूतों के पानी पीने अधिकार के लिए था, तो नमक सत्याग्रह नमक बनाने के भारतीयों के अधिकार के लिए था। महाड़ सत्याग्रह हजारों वर्षों की वर्ण-जाति श्रेष्ठता को चुनौती था, तो नमक सत्याग्रह ब्रिटिश साम्राज्य के लिए चुनौती था। महाड़ सत्याग्रह के साथ ही आंबेडकर और गांधी के बीच वैचारिक संघर्षों की मुखर शुरूआत हो जाती है। गांधी महाड़ सत्याग्रह को दुराग्रह कह कर उसकी आलोचना करते हैं।
दोनों के बीच पहली सीधी मुलाकत 14 अगस्त 1931 को मनीभवन मालाबार हिल, बाम्बे में होती है। आंबेडकर पहले गालोमेज सम्मेलन से लौटकर आए थे। यह 12 नवम्बर ,1930 से 13 जनवरी ,1931 तक लंदन में चला था। इस सम्मेलन में आंबेडकर शामिल हुए थे, लेकिन गांधी ने इसका बहिष्कार किया था। इस सम्मेलन में आंबेडकर ने अछूतों के अलग से प्रतिनिधित्व की मांग किया था, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर भारत की बदतर स्थिति की भी चर्चा की थी। आमने-सामने की पहली मुलाकात में गांधी ने आंबेडकर की देशभक्ति की तारीफ करते हुए, कुछ बाते कहीं और कुछ सवाल पूछे। जिनका मुकम्मिल और तीखा जवाब डॉ. आंबेडकर ने दिया।
फिर दोनों की मुलाकात द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में हुई, जहां दोनों व्यक्तित्वों के बीच तीखी बहस हुई। गांधी ने इस सम्मेलन में कहा कि पूरे भारत का प्रतिनिधत्व करते हैं, आंबेडकर ने उनका प्रतिवाद करते हुए कहा कि गांधी सिर्फ सवर्णों का प्रतिनिधित्व करते है, वे अछूतों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसी सम्मेलन में आंबेडकर ने अछूतों के लिए भी मुसलामनों और सिक्खों की तरह ही पृथक निर्वाचक मंडल और दोहरे मतदान के अधिकार की मांग रखी, जिसका गांधी ने तीखा विरोध किया। आखिरकार ब्रिटिश सरकार ने आंबेडकर की मांग मान ली।
अछूतों को पृथक निर्वाचन मंडल प्रदान करने के विरोध में गांधी जी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। इसके बाद आंबेडकर को गांधी के साथ 24 सिंतबर 1932 को पूना पैक्ट करना पड़ा। आंबेडकर ने परिस्थितिजन्म कारणों से पूना पैक्ट कर तो लिया, लेकिन कभी इसके लिए वे गांधी को माफ नहीं कर पाए। उन्होंने कई अवसरों पर यह कहा कि इस समझौते ने अछूतों की राजनीतिक रीढ़ तोड़ दी। पूना पैक्ट के बाद गांधी अछूतोद्धार के कार्यक्रम में चोर-शोर से लग गए। गांधी और आंबेडकर के बीच एक तीखी टकहराहट आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’ आने बाद हुए। उन्होंने इस किताब पर बड़ी टिप्पणी अपने अखबार ‘हरिजन’ में लिखी। जिसमें उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का पक्ष लिया और हिदू धर्म पर आंबेडकर के हमले को खारिज करने की कोशिश किया, लेकिन साथ ही ‘जाति का विनाश’ किताब को हर भारतीय को पढ़ने की सलाह देते हुए कहा कि डॉ. आंबेडकर हिंदुत्व के लिए चुनौती हैं।
डा. सिद्धार्थ रामू जी की फेसबुक वाल से

तीसरे मोर्चे में शामिल होगी बसपा !, रखा यह शर्त

024 में भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता से बाहर करने के लिए तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट तेज है। पिछले दिनों नीतीश कुमार के तीन दिवसीय दिल्ली दौरे के दौरान कई नेताओं से मुलाकात ने इस चर्चा को हवा दे दी थी। हालांकि तब उत्तर प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई थी। लेकिन अब बहुजन समाज पार्टी की ओर से तीसरे मोर्चे में शामिल होने के संकेत मिले हैं। बसपा तीसरे मोर्चे में शामिल होगी, लेकिन इसके लिए बसपा ने एक शर्त रख दी है।

 बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता धर्मवीर चौधरी ने एक बयान जारी कर बसपा के तीसरे मोर्चे में शामिल होने की बात कही है। लेकिन इसकी शर्त बताते हुए उन्होंने कहा कि यह तभी संभव है, जब तीसरा मोर्चा बसपा अध्यक्ष मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाएं। बसपा प्रवक्ता धर्मवीर चौधरी ने बयान जारी कर कहा कि बहन मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए तो बसपा तीसरे मोर्चे में शामिल होने के लिए तैयार है। उन्होंने कहा कि इन शर्तो के साथ तीसरे मार्चे में शामिल होने से कोई परहेज नहीं होगा। उन्होंने कहा कि वैसे भी केंद्र में सरकार बनाने के लिए यूपी की भागीदारी बहुत जरूरी है। यहां बसपा का प्रभाव बड़े वर्ग पर है। बसपा प्रवक्ता ने कहा कि प्रदेश में मायावती के कद का कोई दूसरा नेता नहीं है।

 दरअसल बसपा की ओर से यह सुगबुगाहट समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद शुरू हुई है। सपा के राष्ट्रीय सम्मेलन में पार्टी के वरिष्ठ नेता रविदास मेहरोत्रा ने अखिलेश यादव के प्रधानमंत्री बनने की बात कही। तो कई अन्य नेताओं ने इसका समर्थन किया। अखिलेश यादव ने इससे इंकार नहीं किया, हालांकि उन्होंने इतना जरूर कहा कि उनका उद्देश्य भाजपा को रोकना है। लेकिन जैसे ही सपा के नेता अखिलेश यादव के नाम को आगे बढ़ाने लगे, बसपा भी हरकत में आ गई है और उसने विपक्षी दलों को अपनी शर्त सुना दी है।

यादव शक्ति पत्रिका से अलग हुए चन्द्रभूषण सिंह यादव

पिछले कई सालों से यादव शक्ति त्रैमासिक पत्रिका से जुड़े बहुजन विचारक चंद्रभूषण सिंह यादव ने खुद को पत्रिका से अलग कर लिया है। श्री यादव संपादक राजवीर सिंह के कार्य करने के तरीके से सहमत नहीं थे। इस अलगाव की खबर खुद चंद्रभूषण सिंह यादव ने फेसबुक पर साझा किया है। उन्होंने जो लिखा है, उसे हम हू-ब-हू दे रहे हैं।

निः सन्देह “यादव शक्ति” पत्रिका उत्तर भारत में एक बहुजन पत्रिका के रुप में उभरी है। इसके सम्पादक मण्डल में प्रधान सम्पादक के रूप में कार्य करते रहने के बावजूद सम्पादक राजवीर सिंह जी द्वारा लोगों से असहज व्यवहार करने से काफी दिनों से मैं दुखी था। लेकिन पत्रिका चलती रहे तथा बहुजन जागृति का कारवां बाधित न हो इस हेतु खुद को दबा कर रखता रहा। परंतु 28 सितम्बर 2022 को दारुलशफा-लखनऊ के पत्रिका के कार्यालय में इलाहाबाद के एक साथी कलेक्टर पटेल जी से हाथ में कलावा की तरह का कुछ बांधे रखने के कारण उनसे किये गए अपमानजनक व्यवहार ने मुझे इतना आहत किया कि मैं इस निर्णय पर पँहुचने को विवश हो गया कि राजवीर सिंह जी से अलग हो जाऊं।

मेरी ऐसी धारणा है कि सामाजिक परिवर्तन का कार्य हम सामने वाले को कन्विंस कर करें, न कि उसे अपमानित करके।हम अपने तर्क व अकाट्य साक्ष्य आदि से आम आदमी को मोल्ड करें, न कि उसे लट्ठ मारकर। पर सम्पादक राजवीर सिंह जी सीधे लट्ठमार प्रहार कर लोगो को अपमानित करने में सिद्धहस्त हैं जो कत्तई उचित नहीं माना जा सकता। इसलिए बिना किसी विवाद के उनसे अलग हो जाना श्रेयस्कर रहेगा।

पुनः मैं कहूंगा कि सामाजिक परिवर्तन मिशन में निःसन्देह “यादव शक्ति” पत्रिका बेहतर असर डाल रही है परंतु सम्पादक राजवीर सिंह जी के कार्य व्यवहार से दुखी हो मैं खुद को इससे अलग कर रहा हूँ।

मेरी मंगलकामना है कि पत्रिका बेहतरीन कार्य करती रहे और इतने के बावजूद अपेक्षा रखता हूँ कि सम्पादक राजवीर सिंह जी मे सुधार हो।

-चन्द्रभूषण सिंह यादव (29 सितम्बर 2022)

असमानता, ऐतिहासिक अन्याय की जंजीरें तोड़ें

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट)

(पुनर्वितरण न्याय के अंतर्गत ऐतिहासिक अन्याय सहने वालों के लिए विशेष प्रावधान किया जाना चाहिए। दलित और अनुसूचित जनजाति दोहरे वंचित हैं। उनके साथ जन्म के आधार पर सामाजिक रूप से भेदभाव किया जाता है और अवसरों से भी वंचित किया जाता है। स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिदृश्य में जाति-आधारित भेदभाव जारी है।)

22 सितंबर को, सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को कोटा आवंटित करने में सरकार की समझदारी पर सवाल उठाया। इस उपाय को इस आधार पर उचित ठहराया गया है कि यह अति गरीब लोगों की मदद के लिए है। अदालत द्वारा पूछा गया कि दोहरे वंचित समुदायों के दावों को क्यों नजरअंदाज किया जाना चाहिए, जिन्होंने ऐतिहासिक अन्याय का सामना किया है और ऐसा करना आज भी जारी है?

अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों को 103वें संविधान संशोधन के तहत सामान्य वर्ग को आवंटित 50 प्रतिशत में से 10 प्रतिशत कोटे से बाहर रखा गया है। एसटी आबादी का चालीस प्रतिशत हिस्सा सबसे गरीब है, लेकिन उसका कुल आरक्षण सिर्फ 7.5 प्रतिशत है। “क्या यह एक समतावादी संविधान के लिए एक अच्छा विचार है,” न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने पूछा, “गरीब से यह कहने के लिए कि उन्होंने अपना कोटा पूरा कर लिया है, और अन्य वर्गों को अतिरिक्त आरक्षण दिया जाएगा?” बेंच ने सुझाव दिया कि आर्थिक पिछड़ेपन का विचार अस्पष्ट है; यह एक अस्थायी घटना हो सकती है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने एक दिलचस्प तर्क दिया है जिसे समानता की ओर ले जाने के लिए विस्तारित किया जा सकता है। क्योंकि, हमारे राजनीतिक विमर्श से समानता का मानदंड गायब हो गया है, हालांकि असमानता की सीमा वास्तव में चौंका देने वाली है।

विश्व असमानता रिपोर्ट-2022 के अनुसार, लुकास चांसल द्वारा लिखित और थॉमस पिकेटी, इमैनुएल सैज़ और गेब्रियल ज़ुकमैन द्वारा समन्वित, शीर्ष 1 प्रतिशत और शीर्ष 10  प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का क्रमशः 22 प्रतिशत और 57 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि निचले 50 प्रतिशत लोगों के पास आय का केवल 13 प्रतिशत है।

कौन किसका मालिक है, इस पर आंकड़े असमानता की भयावहता को दर्शाते हैं। आंकड़े महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे हमारे समाज में दो प्रकार की संरचनात्मक समस्याओं की सतह को अच्छी तरह से हटा सकते हैं – पुनर्वितरण न्याय के प्रति असावधानी और ऐतिहासिक गलतियों के लिए भरपाई। आर्थिक पिछड़ापन पूर्व को दर्शाता है और दोहरा नुकसान बाद की विशेषता है। आइए इन दो श्रेणियों को न मिलाएं। दोनों में पुनर्वितरण न्याय शामिल है, लेकिन प्रत्येक रूप का औचित्य और विभिन्न रणनीतियों के कारण विशिष्ट हैं।

आय असमानता पर आंकड़े लें जो हमारे समाज में धन और गरीबी की सीमा को दर्शाते हैं। गरीबी और धन समानांतर प्रक्रियाएं नहीं हैं; वे संबंधपरक हैं। एक महिला तब गरीब होती है जब उसके पास ऐसे संसाधनों तक पहुंच नहीं होती है जो उसे स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कौशल, रोजगार, आवास और अन्य बुनियादी सुविधाओं का लाभ उठाने में सक्षम बनाते हैं जो सम्मान के जीवन के लिए बनाते हैं। यानी वह सिर्फ गरीब नहीं है; वह दूसरों के लिए भी असमान है। गरीबों को नीचा दिखाया जाता है क्योंकि उन्हें रोजमर्रा की जिंदगी की प्रथाओं के माध्यम से अभद्रता के अधीन किया जाता है। असमानता हाशिए पर और राजनीतिक महत्वहीनता को तेज करती है और लोगों को कम करती है। गरीब होने का मतलब समानता के स्तर से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लेनदेन में भाग लेने के अवसर से वंचित होना है। समानता हमें दूसरों के साथ खड़े होने की अनुमति देती है क्योंकि हम भी महत्व रखते हैं। असमानता अपर्याप्तता या इस विश्वास को तेज करती है कि हमारा कोई महत्व नहीं है।

एक न्यायसंगत समाज विभिन्न तरीकों से असमानताओं से निपटता है। पहला तरीका है वितरणात्मक न्याय। प्रगतिशील कराधान, भूमि सुधार, संपत्ति की सीमा और रोजगार के अवसरों जैसे जानबूझकर राजनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से संसाधनों को समृद्ध से बदतर स्थिति वालों में स्थानांतरित किया जाना है। समतावादी केवल यही माँग करते हैं कि सभी मनुष्यों को कुछ को उपलब्ध अवसरों तक पहुँचने का समान अवसर दिया जाए और यह स्वीकार किया जाए कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संस्थाएँ व्यवस्थित रूप से कई व्यक्तियों को नुकसान पहुँचाती हैं।

पुनर्वितरण न्याय के अंतर्गत ऐतिहासिक अन्याय सहने वालों के लिए विशेष प्रावधान किया जाना चाहिए। दलित और अनुसूचित जनजाति दोहरे वंचित हैं। उनके साथ जन्म के आधार पर सामाजिक रूप से भेदभाव किया जाता है और अवसरों से भी वंचित किया जाता है। सकारात्मक कार्रवाई नीतियां राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों, सार्वजनिक रोजगार और निर्वाचित निकायों में दलितों की भौतिक उपस्थिति की गारंटी के लिए तैयार की गई हैं। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि जाति-आधारित भेदभाव स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिदृश्य को लगातार प्रभावित कर रहा है। आज तक, हम किस जाति के हैं, हमारे सामाजिक संबंधों को परिभाषित करता है, असमानताओं को संहिताबद्ध करता है और अवसरों और विशेषाधिकारों तक पहुंच को नियंत्रित करता है। समाज ने नैतिक रूप से मनमाने कारणों से हमारे लोगों के एक वर्ग को नुकसान पहुंचाया है। चूंकि दोहरा नुकसान जीवन को ट्रैक करना जारी रखता है, इसलिए हमें नुकसान की भरपाई करनी होगी। हम कम से कम उन साथी नागरिकों के लिए ऋणी हैं जो ऐतिहासिक अन्याय के तहत श्रम करना जारी रखते हैं।

आर्थिक बदहाली और ऐतिहासिक अन्याय के बीच का मिश्रण पुनर्वितरण न्याय की जटिलता को दर्शाता है। आरक्षण नौकरी की गारंटी योजना नहीं है। वे दोहरे वंचितों के लिए हैं।

अंत में, क्या हम सभी गरीबी के शिकार लोगों के ऋणी हैं? क्या हमें ऐसी राजनीतिक आम सहमति बनाने की दिशा में काम नहीं करना चाहिए कि गरीबी मौलिक रूप से समानता की मूल धारणा का उल्लंघन करती है? क्या हमें इस साझा परियोजना में भागीदार के रूप में यह सोचने पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए कि समानता पर आधारित न्यायपूर्ण समाज कैसा दिखना चाहिए?

समतावादी का काम हर नुकसान के लिए आरक्षण तैयार करना नहीं है। इसका कार्य संसाधनों तक पहुंच और ऐतिहासिक अन्याय की असमानता की जंजीरों को तोड़ना और समतावादी लोकतंत्र की एक साझा दृष्टि की ओर बढ़ना है, जहां लोग न्यूनतम क्षतिपूर्ति या उपचार की धारणाओं में फंसे रहने के बजाय पूर्ण जीवन जी सकते हैं। हमें उन लोगों के लिए निबंधन दायित्वों की समानता के मूल्य को अग्रभूमि बनाने की वांछनीयता को मजबूत करना चाहिए जिनके अधिकारों को गंभीर रूप से बाधित किया गया है और अन्य नागरिकों को एक न्यायपूर्ण समाज का गठन करने वाली बहस में भाग लेने के लिए राजी करना चाहिए।

 

नीरा चंडोके राजनीति – शास्त्री

साभार: दी ट्रिब्यून

जाति बताते ही फ्लैट देने से किया इंकार, मू्र्ति छूने पर लगाया 60 हजार का जुर्माना 

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भारत के दक्षिण से जातिवाद का दो हैरान करने वाले मामला सामने आया है। तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले में जहां एक दलित शख्स को मकान मालिक ने किराए पर फ्लैट देने से इंकार कर दिया है, वहीं कर्नाटक के कोप्पल जिले में एक दलित परिवार पर 60,000 रुपए का जुर्माना महज इसलिए लगाया गया है, क्योंकि उसने मंदिर में प्रवेश कर एक हिंदू भगवान की मूर्ति को छूने का जुर्म किया था। इन दोनों मामले में से एक में आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर घटना की जांच शुरू कर दी है, जबकि दूसरे मामले में दलित परिवार ने डर के मारे पुलिस में शिकायत तक नहीं की है।

पहला मामला तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले में दलित समाज के एक शख्स से जुड़ा है। यहां उसे किराए पर मकान देने से इनकार किया गया. जानकारी के मुताबिक, अरसापिल्लईपट्टी गांव के रहने वाले वीरन ने किराए पर एक फ्लैट लेने के लिए लक्ष्मी और वेलुसामी नाम के शख्स से संपर्क किया था. वीरन और उनके साथ आए एक दूसरे आदमी को फ्लैट दिखाते हुए लक्ष्मी ने उनकी जाति पूछी थी. जब वीरन ने बताया कि वह अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखता है, तो उसने आदमी ने उसे फ्लैट किराए पर देने से साफ तौर पर इंकार कर दिया.

महिला का साफ कहना है कि वह अपना फ्लैट मुस्लिम, ईसाई या एससी/एसटी लोगों को किराए पर नहीं देगी, क्योंकि इससे उनके परिवार के देवता नाराज हो सकते है।’’ जबकि इसी जातिवादी शख्स वेलुसामी की एक थोक सब्जी की दुकान है, जिसमें वह दलितों को काम पर रखकर लाखों कमाता है। पुलिस ने लक्ष्मी के खिलाफ एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर इस मामले की जांच शुरू कर दी है। फिलहाल आरोपी महिला फरार है और पुलिस उसकी तलाश कर रही है।

मूर्ति को छूने पर दलित परिवार पर 60 हजार का जुर्माना

दूसरा मामला, कर्नाटक के कोप्पल जिले में एक दलित युवाक द्वारा भगवान की मूर्ति को छूने के लिए 60,000 रुपए का जुर्माना लगाया गया है। जी न्यूज की खबर के मुताबिक, दलित समाज के युवक ने मलूर तालुक के हुल्लेरहल्ली गांव में एक धार्मिक जुलूस के लिए निकाले जाने के लिए तैयार हो रही मूर्ति को छू दिया था। ग्रामीणों ने जब उसे ऐसा करते देखा तो पंचायत लगाकर उसके परिवार पर 60,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया। जातिवादियों ने फरमान सुना दिया है कि जब तक दलित परिवार जुर्माने की रकम नहीं भर देते तब तक उनके गांव में आने पर प्रतिबंध रहेगा। इस संबंध में दलित परिवार द्वारा पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं कराया गया है।

 

 

बहनजी के बयान से सियासी हलचल तेज, बैकफुट पर योगी-मोदी

उत्तर प्रदेश में विधानसभा का सत्र चल रहा है। ऐसे में पक्ष और विपक्ष आमने सामने हैं। इस बीच 19 सितंबर को जब अखिलेश यादव योगी सरकार को घेरने के लिए सड़क पर उतरे तो भाजपा की सरकार ने अपनी पुलिस को उतार कर उन्हें रोकने की पुरजोर कोशिश की। इसको लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिस तरह भाजपा पर हमला बोला है, वह लखनऊ से लेकर दिल्ली तक चर्चा का विषय बना हुआ है। कयास लग रहे हैं कि कहीं बहनजी के मन में कोई योजना तो नहीं चल रही।

दरअसल मंगलवार 20 सितंबर की सुबह बीएसपी प्रमुख मायावती ने एक के बाद एक तीन ट्वीट कर दिए, जिसके बाद राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गई है। इस ट्विट में उन्होंने सपा के पैदल मार्च को पुलिस का इस्तेमाल कर रोकने पर भाजपा को जमकर घेरा।

उन्होंने लिखा-  विपक्षी पार्टियों को सरकार की जनविरोधी नीतियों व उसकी निरंकुशता तथा जुल्म-ज्यादती आदि को लेकर धरना-प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं देना भाजपा सरकार की नई तानाशाही प्रवृति हो गई है. साथ हीबात-बात पर मुकदमे व लोगों की गिरफ्तारी एवं विरोध को कुचलने की बनी सरकारी धारणा अति-घातक.

इसके बाद बहनजी ने दूसरे ट्वीट में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फीस बढ़ोतरी का मुद्दा उठा दिया। उन्होंने लिखा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा फीस में एकमुश्त भारी वृद्धि करने के विरोध में छात्रों के आन्दोलन को जिस प्रकार कुचलने का प्रयास जारी है वह अनुचित व निन्दनीय. यूपी सरकार अपनी निरंकुशता को त्याग कर छात्रों की वाजिब माँगों पर सहानुभतिपूर्वक विचार करेबीएसपी की माँग‘.

अपने तीसरे ट्वीट में बीएसपी सुप्रीमो ने सीधे भाजपा पर हमला बोल दिया। उन्होंने लिखा- महंगाईगरीबीबेरोजगारीबदहाल सड़कशिक्षास्वास्थ्य व कानून व्यवस्था आदि के प्रति यूपी सरकार की लापरवाही के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन नहीं करने देने व उन पर दमन चक्र के पहले भाजपा जरूर सोचे कि विधानभवन के सामने बात-बात पर सड़क जाम करके आम जनजीवन ठप करने का उनका क्रूर इतिहास है.

बहनजी के इस बदले रुख की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि 2019 के चुनाव के बाद यह शायद पहला मौका है, जब बहनजी ने कुछ ऐसा कहा हो, जो समाजवादी पार्टी को राहत दे सके। बहनजी के बयान को इसलिए भी अहम माना जा रहा है क्योंकि ये बयान ऐसे समय में आया है जब बिहार से लेकर दिल्ली तक विपक्षी एकता की बात कही जा रही है। हालांकि विपक्षी एकता की बात पर यूपी की दो प्रमुख पार्टियां सपा और बीएसपी इससे पूरी तरह दूरी बनाकर रखी है। लेकिन बहनजी का ताजा बयान विपक्ष के लिए उम्मीद की किरण बन सकता है।

बहुजन समाज के लाल ने किया कमाल, दुनिया में बढ़ाया भारत का मान।

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भारत के लिए और हर भारतीय के लिए एक बड़ी खबर लंदन से आई है। जहां बहुजन समाज के लाल दिव्यांग तैराक सतेन्द्र सिंह लोहिया ने एक कीर्तीमान रच दिया है। सतेन्द्र सिंह ने 36 किलोमीटर लंबे नार्थ चैनल को पार कर लिया है। अंबेडकरी समाज से ताल्लुक रखने वाले सतेन्द्र सिंह लोहिया ने यह कारनामा 14 घंटे 39 मिनट में 20  सितंबर को पूरा किया। सतेन्द्र सिंह ने खुद ट्विट कर यह जानकारी दी है। इसके बाद खेल जगत से लेकर राजनीतिक जगत तक से बड़े-बड़े दिग्गज सतेन्द्र सिंह को बधाई दे रहे हैं। आप सतेन्द्र के हौसले का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उन्होंने जिस नार्थ चैनल को पार किया है, उसका पानी बेहद ठंडा होता है और उसका तापमान 12 डिग्री सेल्सियस होता है।

सतेन्द्र सिंह 31 अगस्त को भारत से लंदन स्थित बेलफास्ट आयरलैंड के लिए निकले थे। वहां पहुंचने के बाद उन्होंने 4 सितंबर से अपनी ट्रेनिंग शुरू कर दी थी। इसके बाद सतेन्द्र भाई ने यूके के समय के मुताबिक सुबह 6.30 बजे और भारतीय समय के हिसाब से सुबह 11 बजे 12 डिग्री ठंडे नार्थ चैनल में उतरे थे। इसके बाद उन्होंने इस कीर्तीमान को स्थापित किया।

सतेन्द्र की इस सफलता से उनके गृह राज्य मध्यप्रदेश में भी खुशी की लहर है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर खेल मंत्री तक ने उनको बधाई दी है। सतेन्द्र मध्य प्रदेश के सबसे सम्मानित खेल पुरस्कार विक्रम अवार्ड से भी सम्मानितहो चुके हैं। उन्हें दिव्यांग श्रेणी में 2019 का नेशनल अवार्ड मिल चुका है। तब खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सतेन्द्र लोहिया को बुलाकर उनकी हौंसला अफजाई की थी।

दलित दस्तक ने भी दिसंबर 2019 में सतेन्द्र सिंह लोहिया को अपनी मैगजीन के कवर पेज पर जगह देकर उनकी प्रतिभा को सम्मान दिया था। सतेन्द्र भाई इस बेजोर सफलता के लिए दलित दस्तक और पूरे अंबेडकरी समाज की ओर से भी आपको बहुत बहुत बधाई।

 राजनीति में बढ़ते आकाश आनंद के कदम

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बसपा प्रमुख सुश्री मायावती ने भतीजे और नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद को तीन राज्यों के चुनाव की कमान दे दी है। आकाश आनंद गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में होने वाले विधानसभा चुनाव के चुनाव प्रमुख होंगे। आकाश आनंद इन तीनों राज्यों को लेकर चुनावी रणनीति बनाएंगे और सीधे बसपा प्रमुख और अपनी बुआ सुश्री मायावती को रिपोर्ट करेंगे। 2019 में आकाश आनंद को नेशनल को-आर्डिनेटर बनाए जाने के बाद पहली बार उनको यह बड़ी जिम्मेदारी दी गई है। बसपा प्रमुख के इस कदम से साफ है कि आकाश आनंद अब सीधे फ्रंट पर आकर राजनीति करेंगे।

 इससे पहले आकाश आनंद पंजाब चुनाव के दौरान भी सक्रिय रहे थे। पंजाब चुनाव में अकाली दल के साथ बसपा के गठबंधन के कारण यह माना जा रहा था कि विधानसभा चुनाव में बसपा बेहतर प्रदर्शन करेगी। यह भी संभावना जताई जा रही थी कि तब बहनजी पार्टी के प्रदर्शन का श्रेय आकाश आनंद को देकर उन्हें आगे बढ़ाएंगी। लेकिन बसपा के खराब प्रदर्शन के बाद आकाश आनंद को यूपी चुनाव से भी दूर रखा गया। इसको लेकर काफी चर्चाएं भी चली थीं। क्योंकि तब सतीश चंद्र मिश्रा के बेटे काफी सक्रिय थे, जबकि आकाश आनंद सामने नहीं आ रहे थे। लेकिन इसके बाद जिस तरह से बहनजी ने धीरे-धीरे आकाश आनंद को राजनीति के गुर सीखने के लिए मैदान में उतारा उससे आकाश आनंद राजनैतिक तौर पर काफी परिपक्व भी हुए हैं। हाल ही में उन्हें जेएनयू के प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार के साथ भी देखा गया था। प्रो. विवेक को बसपा का शुभचिंतक माना जाता है। ऐसे में साफ है कि आकाश आनंद लगातार समाज के बुद्धिजीवियों से भी मिलकर उनके ज्ञान और अनुभव का लाभ ले रहे हैं।

पिछले कुछ समय से वह लगातार पार्टी कार्यकर्ताओं से मिल रहे हैं और उनके साथ बैठक कर रहे हैं। हाल ही में आकाश आनंद ने 27 अगस्त को चेन्नई में यूथ कांफ्रेंस में शिरकत की थी, जहां उन्होंने दलित समाज के राजनैतिक और सामाजिक आंदोलन पर युवाओं से चर्चा की थी। इसमें ‘जय भीम’ मॉडल पर फोकस किया गया था। आकाश आनंद के खुल कर राजनीतिक मैदान पर उतरने से बसपा के भीतर युवाओं में खासा उत्साह है।

सीएम नीतीश कुमार का ऐलान, बिहार में विपश्यना के लिए मिलेगी 15 दिन की छुट्टी

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बिहार विधानसभा भवन के 100 साल पूरे होने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार के सरकारी कर्मचारियों के लिए बड़ा ऐलान किया है। शताब्दी समारोह कार्यक्रम में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने विपश्यना योग की चर्चा की। इसके ठीक बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐलान किया कि राज्य सरकार को जो भी कर्मचारी विपश्यना करना चाहेगा, उसे 15 दिनों की सरकारी छुट्टी दी जाएगी।

उन्होंने कहा कि बुद्ध स्‍मृति पार्क में विपश्यना केंद्र बनाया गया है। इसमें शामिल होने वाले इच्छुक अधिकारियों और कर्मचारियों को सरकार की तरफ से 15 दिनों की छुट्टी दी जाएगी। बता दें कि पटना जंक्शन के पास बुद्ध स्मृति पार्क बनाया गया है, उसी में विपश्यना केंद्र चल रहा है। इसके लिए एडवांस बुकिंग होती है। यहां 10 दिनों का रहना-खाना बिल्कुल निःशुल्क होता है। फिलहाल बिहार के पांच जगहों पर विपश्यना केंद्र चल रहे हैं। इनमें पटना के अलावा बोधगया, मुजफ्फरपुर, नालंदा और वैशाली में भी सेंटर है।

 जहां तक विपश्यना की बात है तो देश के दिग्गज नेता, उद्योगपति और फिल्मी कलाकार से लेकर खिलाड़ी तक विपश्ना की शरण में जा चुके हैं। विपश्यना ध्यान की सबसे पुरानी तकनीकों में से एक है। इसे ढाई हजार साल से भी पहले, गौतम बुद्ध ने फिर से खोजा था। सार्वभौमिक बीमारियों के लिए एक सार्वभौमिक उपचार यानी आर्ट ऑफ लिविंग के रूप में सिखाया गया था। इसका उद्देश्य मानसिक अशुद्धियों का पूर्ण उन्मूलन और पूर्ण मुक्ति के बाद का सुख है। भगवान बुद्ध ने ध्यान की ‘विपश्यना-साधना’ से बुद्धत्व प्राप्त किया था।

विपश्यना का अर्थ है, चीजों को वैसे ही देखना जैसे वो वास्तव में है। यह वास्तव में सत्य की उपासना है। सत्य में जीने का अभ्यास है। वर्तमान में जीने की कला ही विपश्यना है। भूत की चिंताएं और भविष्य की आशंकाओं में जीने की जगह भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को आज के बारे में सोचने के लिए कहा था। विपश्यना जीवन की सच्चाई से भागने की शिक्षा नहीं देता है, बल्कि यह जीवन की सच्चाई को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देता है।

धर्मांतरण कर ईसाई और मुस्लिम बने दलितों को लेकर केंद्र का बड़ा फैसला

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धर्मांतरण कर के ईसाई और मुसलमान बने दलितों को लेकर केंद्र सरकार ने एक बड़ा फैसला किया है। केंद्र सरकार एक नेशनल कमीशन का गठन करने की तैयारी में है। यह कमीशन धर्मांतरित ईसाई और मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति की जानकारी हासिल करेगी। हालांकि उन दलितों को इस प्रक्रिया से अलग रखा गया है, जिन्होंने हिंदू धर्म से अलग होकर बौद्ध और सिख धर्म में धर्मांतरण किया है। हालांकि अभी तक कमीशन का गठन नहीं हुआ है, लेकिन केंद्र ने इस दिशा में पहल शुरू कर दी है। माना जा रहा है कि बहुत जल्द ही इस पर अंतिम फैसला हो सकता है।

 अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और कार्मिक व प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के सूत्रों का कहना है कि उन्होंने इस तरह के कदम के लिए हरी झंडी दे दी है। फिलहाल, इस प्रस्ताव पर गृह, कानून, सामाजिक न्याय और अधिकारिता व वित्त मंत्रालयों के बीच विचार-विमर्श चल रहा है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, प्रस्तावित आयोग में तीन या चार सदस्य हो सकते हैं, जिसके अध्यक्ष के पास केंद्रीय कैबिनेट मंत्री का पद हो सकता है। कमीशन को अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिए एक साल का समय दिया जा सकता है। यह कमीशन ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलितों की स्थिति और उसमें बदलाव का अध्ययन करेगा। साथ ही मौजूदा अनुसूचित जाति की सूची में अधिक सदस्यों को जोड़ने के प्रभाव का भी पता लगाया जाएगा।

 दरअसल सुप्रीम कोर्ट में ऐसी कई याचिकाएं लंबित हैं जिनमें ईसाई या इस्लाम में धर्मांतरण करने वाले दलितों को आरक्षण का लाभ देने की मांग की गई है। इसे देखते हुए ऐसे मामलों में कमीशन गठित करने का सुझाव और भी अहम हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने 30 अगस्त को केंद्र सरकार को उन याचिकाओं पर रुख स्पष्ट करने के लिए तीन हफ्ते का समय दिया, जिसमें ईसाई और इस्लाम धर्म अपना चुके दलितों को अनुसूचित जाति आरक्षण का लाभ देने का मुद्दा उठाने वाली याचिकाएं शामिल हैं। SC में दायर जनहित याचिका में धर्मांतरण करने वाले दलितों के लिए उसी तरह आरक्षण की मांग की गई है, जैसे हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म के अनुसूचित जातियों को आरक्षण मिलता है।

 बताते चलें कि संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950, अनुच्छेद 341 के तहत यह निर्धारित किया गया कि हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानने वाले किसी भी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है। हालांकि, केवल हिंदुओं को अनुसूचित जाति का बताने वाले इस मूल आदेश में 1956 में सिखों और 1990 में बौद्धों को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था।

   

पेरियार का दर्शन सभ्य समाज में प्रासंगिक

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        पेरियार ई.वी.रामास्वामी नायकर का जन्म दक्षिण भारत के ईरोड (तमिलनाडु) नामक स्थान पर 17 सितम्बर 1879 ई. को हुआ था। उस समय वर्णव्यवस्था के अनुसार ये शूद्र वर्ण की गडरिया जाति में आते हैं। पेरियार रामास्वामी नायकर की औपचारिक शिक्षा चौथी कक्षा तक हुई थी। 10 वर्ष की उम्र में उन्होंने पाठशाला को सदा के लिए छोड़ दिया। पेरियार रामास्वामी का परिवार धार्मिक तथा रूढ़िवादी था। लेकिन अपने परिवार की परम्पराओं के विपरीत पेरियार रामास्वामी किशोरावस्था से ही तार्किक पद्धति से चिन्तन–मनन करने लगे थे और समाजिक कुरीतियों के प्रति जागरूक/एक जिंदा इंसान की तरह तर्क करने लगे थे। 1925 में अखिल भारतीय कांग्रेस के परित्याग के पश्चात् रामास्वामी ने ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की स्थापना की। 1931 में उन्होंने रूस, जर्मनी, इंग्लैण्ड, स्पेन, फ्रांस तथा मध्यपूर्व के अन्य देशों का भ्रमण किया। उन्होंने रूस के कल-कारखाने, कृषि-फार्म, स्कूल, अस्पताल, मजदूर संगठन, वैज्ञानिक शोध केन्द्र, उत्तम कला केन्द्र संस्थाओं का अवलोकन किया और वह अत्यधिक प्रभावित हुए। भारत देश की स्वतंत्रता के सम्बंध में पेरियार कहते हैं कि, कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच हुए समझौते के कारण यह सरकार अस्तित्व में आई है। यह वह स्वतंत्रता नहीं है, जो सभी भारतीयों को दी गई है। इस स्वतंत्रता से गैर-ब्राह्मणों को कोई लाभ नहीं हुआ है। वे कहीं भी प्रतिनिधित्त्व नहीं करते हैं। कांग्रेस पार्टी का नेता ब्राह्मण है। सोशलिस्टों का नेता ब्राह्मण है। कम्युनिस्टों का नेता ब्राह्मण है। हिन्दू महासभा का नेता ब्राह्मण है। आरएसएस का नेता ब्राह्मण है। ट्रेड यूनियन का नेता ब्राह्मण है। भारत का राष्ट्रपति ब्राह्मण है। वे सभी दिलों के दिल में हैं। जब तक हम शासक वर्गों को चाहते रहेंगे, यहां चिंताएं और चिंतित लोग बने रहेंगे। हमारे देश में सकारात्मक परिवर्तन नहीं होने से देश में गरीबी और महामारी हमेशा बनी रही है। गरीबी मिटाओ के नारे तो बहुत लगे पर कभी दिल से मिटाने का प्रयास नहीं किया गया इसलिए आज भी गरीब गरीब बना हुआ है।
पेरियार का मानना था कि धर्म एक षड्यंत्र है। धन और प्रचार ही धर्म को जिन्दा रखता है। कार्ल मार्क्स तो इसे अफीम के समान मानते हैं। ऐसी कोई दिव्य शक्ति नहीं है, जो धर्म की ज्योति को जलाए रखती है। धर्म का आधार अन्धविश्वास है। विज्ञान में धर्मों का कोई स्थान नहीं है। इसलिए बुद्धिवाद धर्म से भिन्न है। सभी धर्मवादी कहते हैं कि किसी को भी धर्म पर संदेह या कुछ भी सवाल नहीं करना चाहिए। इसने मूर्खों को धर्म के नाम पर कुछ भी कहने की छूट दी है। धर्म और ईश्वर के नाम पर मूर्खता एक सनातन परम्परा है। धर्म ब्रह्म रखने की सेवाएं और कुछ नहीं। डॉक्टर अंबेडकर का मानना था कि धर्म इंसान के लिए है ना कि इंसान धर्म के लिए। यदि हम मंदिरों की संपत्ति और मंदिरों में अर्जित आय को नए उद्योग शुरू करने के लिए खर्च कर दें, तो न कोई भिखारी, न कोई अशिक्षित और न कोई निम्न स्तर वाला व्यक्ति होगा। एक समाजवादी समाज होगा, जिसमें सब समान होंगे। परंतु क्या सरकार ऐसा कर पाएगी क्या धर्माधिकारी और धर्म को मानने वाले यह सब स्वीकार करेंगे कदापि नहीं तो फिर कहां से देश और देश वासी प्रगति करेंगे फिर तो जैसा चल रहा है उसे मानो या फिर सकारात्मक सोच धारण करके अंधविश्वास आरंभ और कुप्रथा पर देखना से उठा फेको तब ही मानव समाज के अंदर से गरीबी दूर होगी। पेरियार मूलरूप से एक सामाजिक क्रान्तिकारी थे। वे एक बुद्धिवादी, अनीश्वरवादी एवं मानववादी थे। उनके चिंतन का मुख्य विषय समाज था, उनका कहना था कि राजनैतिक सुधार से पहले सामाजिक सुधार होना चाहिए। जब सभी मनुष्य जन्म से बराबर हैं, तो यह कहना कि अकेले ब्राह्मण ही उच्च हैं, और दूसरे सब नीच हैं, इस मानसिकता को बदलना पहली जरूरत है। प्राकृतिक विधि के अनुसार सभी समान है ना कोई छोटा है ना कोई बड़ा।
हिन्दू धर्म और जाति-व्यवस्था नौकर और मालिक का सिद्धांत स्थापित करती है। अगर भगवान हमारे पतन का मूल कारण है, तो भगवान को नष्ट कर दो। यह काम मनु धर्म, गीता या कोई अन्य पुराण कर रहा है, तो उन्हें भी जलाकर राख कर दो। अगर यह काम मन्दिर, कुंड या पर्व करता है, तो उनका भी बहिष्कार करो। अंतत: यह हमारी राजनीति है, तो इसे आगे आगे बढ़कर खुलेआम घोषित करो। दक्षिण भारत में द्रविड़ियन आत्मसम्मान का आन्दोलन ब्राह्मणवाद के खात्मे तक सक्रिय और जिन्दा रहेगा। आंदोलन के दौरान हमारे दुश्मनों या सरकार द्वारा हमारे साथ अत्याचार, दमन, साजिश और विश्वासघात किया जा सकता है, पर हमें विश्वास है कि सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए अंततः निश्चित रूप से हमें सफलता मिलेगी क्योंकि सत्य की सदा विजय होती है। ई वी रामास्वामी नायकर के अनुयायियों ने उन्हें ‘थंथाई’ (पिता) ‘पेरियार’ (महान) की उपाधियों से विभूषित किया। यूनेस्को ने उन्हें नये जमाने का ‘पैगम्बर’, दक्षिण पूर्व एशिया का ‘सुकरात’, समाज सुधार का ‘जनक’, अज्ञानता, अंधविस्वास और निरर्थक प्रथाओं का ‘यम’ जैसे विशेषणों से सम्मानित किया है। 15 दिसंबर, 1973 को वेल्लोर के एक अस्पताल में पेरियार रामास्वामी ने अंतिम सांसें ली। पेरियार का दर्शन को निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देकर समझ सकते हैं- १. द्रविड़ आत्मसम्मान का आंदोलन- पेरियार का आंदोलन ऐतिहासिक भारत के मूलनिवासी द्रविड़ अस्मिता को जगाकर विदेशी आर्य ब्राह्मण के खिलाफ आधुनिक युग में लड़ा गया आर्यावर्त के विरुद्ध दक्षिण का आंदोलन था, जो ठीक उसी तरह था जैसे काल्पनिक ग्रन्थ रामायण में राम के विरुद्ध रावण का था। पेरियार ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को दक्षिण में किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नही थे। इसलिए उन्होंने पाकिस्तान की तरह द्रवड़ितस्तान की मांग को जोर सौर से उठाया था। वास्तविकता तो यह है कि ब्राह्मणवाद समाज के लिए जहर का काम करता है। २- ईश्वरवाद के खिलाफ आंदोलन- ईश्वर और भक्त (सामान्य जन) के बीच ब्राह्मण पुरोहित बनकर सामान्य जन का शोषण तब तक करता रहेगा जब तक काल्पनिक ईश्वर का अस्तित्व रहेगा। इसलिए पेरियार ने ईश्वर का जिस सख्ती से खंडन किया शायद ही किसी ने किया होगा। पेरियार ने किसी भी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नही किया वे एक महान नास्तिक हैं जिन्होंने तर्क और विज्ञान को सर्वोपरि माना था। इसलिए आपका दर्शन आज भी प्रासंगिक है।
३- ब्राह्मण मान्यता विरोधी आंदोलन- पेरियार ने ब्राह्मणवाद से मुक्ति का मार्ग धर्मपरिवर्तन के बजाय ब्राह्मण मान्यताओं का बहिष्कार करना ज्यादा उचित समझा। उनका मानना था कि यदि व्यक्ति ब्राह्मण मान्यता, परम्परा, संस्कार, त्योंहार, व्रत, ज्योतिष, भगवान आदि को ही नकार देगा तो ब्राह्मणों का सनातन (हिन्दू) धर्म अपने आप खत्म हो जाएगा। समाज में व्याप्त अंधविश्वास आडंबर अहंकार तमाम तरह के अपराध फिर स्वता ही समाप्त हो जाएंगे।बाबा साहब डॉक्टर अम्बेडकर और रामासामी पेरियार के वैचारिक सम्बंध बहुत गहरे थे, वे आपस में तात्कालिक परिस्थियों के अनुसार सलाह मशवरा किया करते थे। 6ठवां बौद्ध संघायन रंगून में भी एक साथ शामिल हुए थे। डॉ अम्बेडकर धर्मपरिवर्तन को अनिवार्य मानते थे उनका मानना था कि एक सामान्य व्यक्ति के लिए धर्म बेहद जरूरी है, धर्म उसके सामाजिक संस्कारों की जरूरत को पूरा करता है। निष्कर्ष : आज हम कह सकते हैं कि पश्चिम भारत में शूद्र/अतिशूद्र की आजादी का आंदोलन फुले/शाहू/अम्बेडकर ने चलाया वही आंदोलन दक्षिण में नारायणा गुरु और पेरियार ने चलाया था। सामाजिक अंधविश्वास कुरीतियों बुराइयों औरा नंबरों के विरुद्ध जीवन भर टीवी स्वामी वेरिया संघर्ष करते रहे हमेशा तर्कशील वैज्ञानिक और तथ्यपरक विचारधारा का समर्थन किया । आज आप इस दुनिया में नहीं है किंतु आप का दर्शन भारतीय तर्कशील समाज के लिए आज भी प्रासंगिक है।
सत्य प्रकाश 
शोधार्थी ( इतिहास विभाग)
कला संकाय, मंगलायतन विश्वविद्यालय अलीगढ़

भारत को जोड़ने की जरूरत क्यों पड़ी?

7 सितम्बर 2022 से राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत को जोड़ने की यात्रा की शुरुआत की गई है। यात्रा कुल 3570 किलोमीटर होगी और यह 12  राज्यों 2  केंद्र शासित प्रदेशों के अंतर्गत आने वाले 113 स्थानों और 65 जिलों से होकर गुजरेगी। कई सवाल पैदा होते हैं जिन पर चर्चा करना जरूरी है। कुछ के मन में होगा कहां भारत टूट रहा है जो जोड़ने की जरूरत आ पड़ी। देश मात्र भौगोलिक दृष्टि से  ही नहीं टूटता बल्कि आर्थिक, समाजिक और राजनैतिक रूप से भी खंडित होता है। विरोधी कुछ भी कह सकते हैं जैसे कांग्रेस लोगों को मूर्ख बना रही है। यह भी कह सकते हैं कि कांग्रेस अपने अंतर्विरोध ख़त्म करने की कयावद कर रही है। राहुल गांधी अपना नेतृत्व स्थापित करना चाहते हैं। भारत जोड़ना मुश्किल है और भारत माता की जय बोलना आसान है। आजादी के अंदोलन के दौर में भारत माता की जय बहुत ही प्रमुख नारा था। नेहरू जी ने इसकी सबसे अच्छी व्याख्या की है कि भारत माता की जय का मतलब क्या है?  भारत जमीन का टुकड़ा, नदी, नाले, समुद्र और पहाड़ से नही बना है। अगर लोग न हों तो किसकी जय ? अगर लोग हैं भी लेकिन नफ़रत, असमानता, भेदभाव के शिकार हों तो क्या भारत माता की जय है?

लोगों को नौकरी न मिलें और महंगाई की भयंकर मार झेल रहे हैं तो क्या  दिल से जुड़ेंगे?  संवैधानिक संस्थाएं तबाह हो रही हों और विपक्ष की आवाज़ दबाई जा रही हो तो भी भारत माता की जय है?भारत टूट रहा है लेकिन आम लोग नहीं महसूस कर सकते और वे तभी विश्वास करेगें जब यह हो जायेगा। दक्षिण भारत जैसे तमिनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक में यह भावना पैदा हो गई है कि केंद्र सरकार उनके साथ  अन्याय कर रही है। हिंदी भाषा उनके ऊपर थोपी जा रही है। संघीय ढांचा चरमरा रहा है। आम लोगों से चर्चा करें तो पता चलता है।  यह भी सोच बन रही है कि  दक्षिण भारत  राजस्व का ज्यादा योगदान दे रहा हैं परन्तु उस अनुपात में बजट का आवंटन नहीं  किया जाता। राजनैतिक शक्ति अक्सर उत्तर भारतीयों के हाथ में होती है। वर्तमान में ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स के भारी दुरुपयोग से मनभेद बढ़ा है।

अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव ही नही बल्कि बार-बार कहना कि पाकिस्तान चले जाएं, इनके मन में क्या गुजरती है, वही जानते हैं। किसी बटवारें की बुनियाद कुछ दिनों में नही पड़ती। यह प्रक्रिया है, जो समय लेती है लेकिन जब चरम सीमा पर पहुंच जाती है तो रोकना असंभव हो जाता है।

राहुल गांधी को यात्रा की शुरुआत में ही सभी वर्गो का अपार सहयोग मिलना शूरू हो गया। जो सोचा नहीं था उससे कई गुना अधिक समर्थन मिल रहा है।  हर वर्ग के लोग स्वतः जुड़ते जा रहे हैं। यह सही वक्त है तानाशाही के खिलाफ लड़ने का । यह अकेले के बस का नहीं है। सभी जनतांत्रिक ताकतों को जुड़ना होगा और दूर से चिंता करना या आलोचना से काम नहीं चलेगा। आदतन  भारतीयों की सोच है कि हमारे अकेले के न जुड़ने से क्या फर्क पड़ेगा ? इसी सोच से देश गुलाम हुआ। भारत को जोड़ने का प्रयास पार्टी स्तर से भी ऊपर उठकर किया जा रहा है। तिंरगा प्रतीक को लेकर लोग शमिल हो रहे हैं न कि चुनाव चिन्ह। विपक्ष को भी जोड़ने का आवाह्न किया गया है। तमिलनाडु के मुख्य मंत्री स्टालिन यात्रा की शुरुआत में शमिल हुए और शुभकामनाए दी। शिव सेना ने भी समर्थन कर दिया है और आशा है कि सारा विपक्ष अंत तक समर्थन दे सकता है। असंगठित मजदूर, किसान, दस्तकार, रंगकर्मी, लेखक, पिछड़े सभी मिलकर अपनी-अपनी समस्या को रखने के लिए आगे आ रहे हैं।

जो भारत की आजादी में भाग नहीं  लिए उन्हें भारत टूटने की क्या फिक्र है? 1942  में जब गांधी जी ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने का आवाहन किया था तो इनके पूर्वज अंग्रेजों के साथ थे । इनके आदर्श श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के राज्यपाल को लिख कर दिया था कि आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के खिलाफ शक्ति से पेश आया जाए। आरएसएस के सर संघ चालक गोलवलकर  ने यहां तक कह दिया था कि आजादी के बाद अगर दलितों और पिछड़ों को सत्ता में साझेदारी मिलती है तो बेहतर होगा भारत पर  अंग्रेजों का राज रहे। देश आगे और न टूटे उसके लिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकालना जरुरी था।

केंद्र की भाजपा सरकार के कार्यकाल में अमीर और अमीर हुए और गरीब और गरीब। यह भी तोड़ना हुआ। बड़े पूंजीपति तेजी से बढ़े हैं। यूपीए की सरकार ने 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया था जबकि 8  साल के दैरान 22  करोड़ लोग गरीब हुए हैं। बढ़ती असमानता रोकी नही गई तो लोगों के मन में नफ़रत और  बढ़ेगी और भारत टूट सकता है।

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए यह आखिरी मौका है भारत को जोड़ने और पार्टी को मजबूत करने का। जोड़े रखने की जम्मेदारी विरासत में मिली है। उन्हें क्या जो तोड़ रहे हैं, वे तो आजादी के आंदोलन में भाग नहीं लिए उल्टे साम्राज्यवादी ताकतों के साथ रहे। कांग्रेस के अच्छे दिनों में जो सत्ता का लाभ लिए हैं, अब समय आ गया है कि  कर्ज को अदा करें। इन्हें तन, मन और धन से सहयोग देना होगा। दिखावे और परिक्रमा लगाने से अब फ़ायदा नहीं होने वाला है, क्योंकि वह  जमाना नहीं  रहा कि जब पार्टी मजबूत थी तो कोई भी चुनावी राजनीति में सफल हो जाता था। अब तो संगठन  बनाना ही पड़ेगा और लोगों से लागातार जुड़कर रहना है। भौगोलिक दृष्टि से ही देश नहीं टूटता बल्कि कई और कारण हैं, तभी इसे भारत जोड़ो कहा गया।

डॉ. उदित राज पूर्व सांसदराष्ट्रीय चेयरमैन, असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) एवं अनुसूचित जाति / जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ 192, नॉर्थ ऐवन्यू, नई दिल्ली मो. 9899382211, 9899766882 dr.uditraj@gmail.com

अब लखीमपुर खीरी पर विलाप, उपाय कब ढूंढेंगा दलित समाज |

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कभी त्रिपाठी और मिश्रा, कभी ठाकुर और राजपूताना, कभी जाट, कभी गुर्जर, कभी यादव, कभी गुप्ता। इस बार जुनैद, आरिफ, हफीज, करीमुद्दीन और सोहैल। सामने वालों के नाम बदलते रहते हैं, लेकिन पीड़ित पक्ष आज भी वही है- दलित समाज की बेटी।

भारत के ग्रामीण इलाकों से बच्चियों के साथ हैवानियत की जितनी भी खबरें आती हैं, उसमें 90 फीसदी से ज्यादा पीड़ित दलित समाज की बेटी होती है। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी से फिर एक खबर आई है। दलित समाज की दो सगी बहनों के साथ जो हैवानियत हुई, उसकी चर्चा देश भर में है। प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई है। राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में दक्षिण में हैं, लेकिन उन्होंने घटना की निंदा की है। बसपा प्रमुख बहन मायावती ने घटना को लेकर रोष जताया है, बाकी सबने भी बोला है।

घटना के बाद यूपी पुलिस ने मुख्य आरोपी जुनैद को पुलिस मुठभेड़ में लगी गोली, जबकि अन्य आरोपियों सोहैल, आरिफ़, हफ़ीज़, करीमुद्दीन और छोटे को गिरफ्तार कर लिया गया है। इस बार आरोपियों के नाम की वजह से सियासत भी गर्म है और कार्रवाई भी तेजी से हुई। राजनीतिक दल उसको किस तरह से देख रहे हैं, यह भी देखिये।

बहुजन समाज पार्टी के सांसद और मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाले कुंवर दानिश अली का कहना है कि-

हाथरस की घटना और बिलक़ीस बानो के बलात्कारियों की समय पूर्व रिहाई से देश में, ख़ास तौर से भाजपा शासित राज्यों में अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और लखीमपुर खीरी की दलित बहनों से बलात्कार और उनकी निश्रृंस हत्या इसी का परिणाम है।

राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में दक्षिण में हैं। राजस्थान में हुई इंद्र मेघवाल के मुद्दे पर चुप्पी साधने वाले राहुल गांधी को इस घटना के बहाने भाजपा पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। उनका कहना है-

लखीमपुर में दिन-दहाड़े, दो नाबालिग दलित बहनों के अपहरण के बाद उनकी हत्या, बेहद विचलित करने वाली घटना है। बलात्कारियों को रिहा करवाने और उनका सम्मान करने वालों से महिला सुरक्षा की उम्मीद की भी नहीं जा सकती। हमें अपनी बहनों-बच्चियों के लिए देश में एक सुरक्षित माहौल बनाना ही होगा।

बसपा प्रमुख मायावती ने योगी सरकार को आड़े हाथों लिया है। इस हैवानियत पर प्रतिक्रिया देते हुए बहनजी ने कहा है कि यूपी में अपराधी बेखौफ हैं क्योंकि सरकार की प्राथमिकताएं गलत है। यह घटना यूपी में कानून-व्यवस्था व महिला सुरक्षा आदि के मामले में सरकार के दावों की जबर्दस्त पोल खोलती है। हाथरस सहित ऐसे जघन्य अपराधों के मामलों में ज्यादातर लीपापोती होने से ही अपराधी बेखौफ हैं। यूपी सरकार अपनी नीति, कार्यप्रणाली व प्राथमिकताओं में आवश्यक सुधार करे।

आम तौर पर भाजपा शासित राज्यों में होने वाले दलित उत्पीड़न पर चुप्पी साध लेने वाला राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग भी आरोपियों के नाम देखकर जाग गया है। आयोग के चेयरमैन विजय सांपला ने घटना का स्वतः संज्ञान लेते हुए यूपी पुलिस और प्रदेश के डीजीपी को नोटिस जारी कर विस्तृत जानकारी मांगी है।

दरअसल घटना यूं है कि दो दलित बहनों को घर के बाहर से बाइक सवाल युवक अगवा कर ले गए थे। कुछ देर बाद उन दोनों की लाश पेड़ पर लटकी हुई मिली।

यानी हर कोई मौका ढूंढ रहा है, लेकिन ऐसी घटनाओं के रोकने के तरीकों पर कोई बात नहीं कर रहा। न सरकार, न नेता, न पुलिस। तो क्या यह नहीं समझा जाए कि ऐसी घटनाएं समाज के जागने पर ही रुक पाएंगी। सवाल है कि दलित समाज के युवा आखिर ऐसा क्या करें कि उनके समाज की बहन-बेटियों से हैवानियत करने वाले अंजाम की सोच कर कांप जाएं। क्या जातिवाद के खिलाफ क्रांति ही इसे रोकने का उपाय नहीं है? सोचिएगा जरूर…….

भारत में प्रबोधन और पेरियार ललई सिंह का चिंतन

उत्तर भारत के हिंदी क्षेत्र को लेकर यह धारणा बनी हुई है कि जहां हिंदी पट्टी ने स्वाधीनता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई, वहीं सांस्कृतिक पुनर्जागरण में इसका अपेक्षित योगदान लगभग नगण्य रहा| कबीर औररविदास ने भक्ति-आंदोलन के दौरान श्रमशील समाज के जीवानानुभवों, संघर्षों, सहज ज्ञान व तर्क से जिस सामाजिक चेतना की आधारशिला रखी थी, उसे तुलसी की भक्ति मार्गी वर्णा श्रमी धारा नेअधिग्रहित कर काफी कुछ निष्प्रभावी बना दिया था| उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में ज्योतिबाफुले,सावित्री फुले,पेरियारई.वी.रामास्वामीऔर बाबा साहब डॉ.अंबेडकर के वैचारिक व सामाजिक हस्तक्षेप द्वारा गैर हिंदी क्षेत्रों के हाशिए के समाज की इस वैचारिकी को जो पुनर्जीवन मिला, उससे हिंदी भाषी क्षेत्र भी अछूते नही रहे| उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) में स्वामी अछूतानंद(1879-1933) और रामचरन (1888-1939) के ‘आदि हिंदू’ आंदोलन के माध्यम से हाशिए के मेहनत कश और निम्न कही जानी वाली जातियों में नई चेतना का संचार किया| सामाजिक न्याय और समता के आदर्शों से प्रेरित इनकी वैचारिकी ब्राह्मणवादी शोषण की व्यव्स्था के विरुद्ध सशक्त उद्घोष थी| इसी दौर में चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, संतराम बी.ए., रामस्वरूप वर्मा आदि के साथ पेरियार ललई सिंह एक प्रमुख नाम थे| इन सभी के मानवीय और समतामूलक समाज निर्माण को हिंदी समाज की वर्चस्वशाली सामाजिक और सांस्कृतिक चिंतन धारा से अनुपस्थित और अचर्चित रखा गया| ये सभी मूलत: शूद्र समुदाय से सम्बंधित और पहली शिक्षित पीढ़ी से थे|ललई सिंह (1911-1993) मुख्यत: पेरियार ई. वी. रामास्वामी की वैचारिकी से प्रेरितथे| वे स्वाभिमानी और विद्रोही स्वभाव के थे| जो चेतना पेरियार के ‘आत्मसम्मान’ (Self Respect) आंदोलन से निकली थी| वे हाई-कमांडर थे, ग्वालियर नेशनलआर्मी में| आर्मी में सेवा करते हुए भी, उन्होंने ‘सिपाही की तबाही’ शीर्षक से क्रांतिकारी एकांकी लिखा, सिपाहियों को संगठित कर आंदोलन किया और जेल गए| जेल में भी उन्होंने ‘कैदी महासभा’ का गठन किया| उन्होंने सन् 1946 में देश की आज़ादी के साथ देशी रियासतों की गुलामी से भी आज़ादी की मांग तेज की|उनका पूर्ण स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी नारा था – ‘ब्रिटिश इम्पीरियलज्म डाउन-डाउन! सिंधिया फ्लैग डाउन-डाउन!! ’पेरियार ललई सिंह को अपने जमीनी अनुभवों के चलते इस बात का अहसास था कि देश की राजनीतिक आज़ादी तब तक पूर्ण नहीं होगी जब तक उसे सामाजिक और आर्थिक गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी| पेरियार के नेतृत्व में दक्षिण भारत का ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ इस दिशा में उनकी मूल प्रेरणा बना| पेरियार के जन्मदिन (17 सितम्बर) के अवसर पर 1960 में उन्होंने ‘सस्ता प्रेस’ की शुरुआत की जहां से उन्होंने छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के माध्यम से दलित व पिछड़े समाजों के मेहनतकश वर्गों में ईश्वर, धर्म और हिंदू मिथकों, देवी-देवताओं की जकड़ बंदी के विरुद्ध नवजागरण अभियान छेड़ा| वे पेरियार को अपना गुरु मानते थे|

इस जन-जागरण अभियान के अंतर्गत पेरियार ललई सिंह ने ‘वीर संत माया बलिदान’, ‘शम्बूकवध’, ‘एकलव्य’, ‘नाग यज्ञ’ और ‘अंगुलिमाल’ सरीखे नाटक लिखकर धर्म की वर्चस्वशाली परंपरा का प्रतिविमर्श रच कर हाशिये के बहुजन समाज को चेतना सम्पन्न बनाने की पहल कदमी की| इन नाटकों के लिखे जाने के मंतव्य का खुलासा करते हुए उन्होंने ‘शम्बूक वध’ नाटक की भूमिका में लिखा, “नाटक के छापे जाने की पहली मंशा है अधिकार वंचित शूद्र व महाशूद्र अपने अधिकार समझें| मांगें! छीनें! इसी स्थिति के कारण मैं बार-बार कहता हूं कि–‘अधिकार माँगे नहीं, छीने जाते हैं|’ और ‘सामाजिक अपमान गरीबी से अधिक खटकता है|’ दूसरी मंशा, इस देश के सवर्ण हिंदू शूद्रों व महा शूद्रों को उनका मानवीय अधिकार सौंप दें| तीसरी मंशा, सरकार के लिए कड़ी चेतावनी है कि उसने यदि उन्हें प्रत्येक प्रकार के मानवीय अधिकार न दिलाए तो इस देश में गृह युद्ध का संकट सदैव बना रहेगा|” पेरियार ललई सिंह की इस चेतावनी में बाबा साहब डॉ.अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में 25 नवम्बर, 1949 को दिए गए उस भाषण की अनुगूंज थी जिसमें उन्होंने कहा था, “इस संविधान द्वारा आज हम एक व्यक्ति एक मत के सिद्धांत को स्वीकार कर राजनीतिक जनतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन यदि यह राजनीतिक जनतंत्र सामाजिक जनतंत्र व आर्थिक जनतंत्र का रूप नले सका तो राजनीतिक जनतंत्र भी खतरे में पड़ जाएगा|”

इसी क्रम में पेरियार ललई सिंह ने‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’, ‘आदिवासियोंकी पहचान’, ‘सच्ची रामायण’, ’सच्ची रामायण की चाभी’ सरीखी पुस्तकों की भी रचना की थी| इन रचनाओं द्वारा वे उस जन-बुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वहन कर रहे थे, जो तर्क, ज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के माध्यम से अंधविश्वास, हिंदू मिथ्या धार्मिक चेतना और ब्राह्मणवादी कर्मकांड के विरुद्ध तर्कशील आधुनिक सोच को आंदोलन का रूप दे रहे थे| कहना न होगा कि पेरियार ललई सिंह भाषा और अभिव्यक्ति के स्तर पर किताबी बौद्धिक का मुहावरा न अपना कर उस जमीनी श्रम शील समाज की भाषा में संवाद कर रहे थे,जो सर्वाधिक प्रभावी व कारगर था| वे सैद्धांतिक रूप से भी हिंदी के जनभाषी स्वरूप के ही पक्षधर थे, उसके संस्कृत निष्ठ तत्समीकृत रूप के नहीं| ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के नारे को नकारते हुए उन्होंने शासक वर्ग के उस सवर्ण पाखंड का खुलासा किया था,जिसमें वे अपनी संतानों को अंग्रेजी शिक्षा देते थे और मेहनत कश वर्गों को इससे वंचित रखना चाहते थे|देश के अन्य भू-भाग के निम्न वर्गों (सबाल्टर्न) के जन-बुद्धिजीवियों की तरह वे सामाजिक न्याय व समता के आदर्शों से प्रेरित होकर वैदिक ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठता वादी विभेदकारी वर्ण और जाति-संस्कृति के विरुद्ध जमीनी चेतना का प्रचार प्रसार कर रहे थे| वे वर्चस्ववादी सत्ता-संरचना को चुनौती देते हुए,आमूल चूल उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध बौद्धिक और आंदोलनकारी पहल कर रहे थे लेकिन समाज की मुख्यधारा में उनकी स्वीकृति इसलिए नहीं बन सकी क्योंकि उनके सुधारवादी मुहावरे में प्रभुत्ववादी संस्कृति के प्रति समन्वय का भाव न होकर स्पष्ट रूप से तार्किक, नकार व अधिकार की हुंकार थी|स्वाधीनता पूर्व और बाद के वर्षों में प्रभुत्वकारी राजनीतिक व सामाजिक दृष्टिकोण के समन्वयकारी रुप और जमीनी सामाजिक यथार्थ में रची बसी तार्किक सोच के बीच इस विलगावके चलते देशज आधुनिकता का विकास अवरुद्ध हुआ|

स्वीकार किया जाना चाहिए कि राजनीतिक स्वाधीनता और सामाजिक स्वाधीनता के सह-मेल के न चलते भारतीय राष्ट्र-राज्य को समतावादी आधुनिक जनतंत्र बनाने की परियोजना आधी-अधूरी रही| वर्णा श्रमी जाति-व्यव्स्था की सोपानी कृत व्यवस्था में उच्च पदस्थ लोगों द्वारा अपने विशेषाधिकारों से मुक्ति की उम्मीद वांछ्नीय तो थी, लेकिन व्यावहारिक नहीं| ऐसे में पेरियार के आमूल चूल परिवर्तनकारी सामाजिक आंदोलन से ललई सिंह सरीखे सामाजिक कार्यकर्ताओं का प्रेरित होना स्वाभाविक था|उत्तर भारत की धर्म भीरु जनता को धर्म, अंधविश्वास और परंपरा की जकड़न से मुक्ति के लिए जहां उन्होंने ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ व ‘आदि निवासियों की पहचान’ सरीखी पुस्तकें लिखकर आर्यों की आमद, प्रभुत्व व विस्तार का लोक ग्राही वृतांत लिखा तो वहीं यहां के मूल निवासियों की अस्मिता का अहसास कराया| यह सब उच्च सवर्ण चिंतन का प्रति-विमर्श होने के चलते ब्राह्मणवादी सवर्ण बौद्धिकों को तो अस्वीकार्य था ही, मुख्यधारा के परिवर्त नकामी बौद्धिक भी धर्म और मिथक की इस जनोन्मुखी व्याख्या को लेकर सहज नहीं थे| यह अकारण नहीं है कि पेरियार ललई सिंह की वैचारिक व साहित्यिक पुस्तिकाओं की संस्तुति चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ व संतराम बी.ए. व छेदीलाल साथी सरीखे सहधर्मी सामाजिक आंदोलन कारियों ने तो की, लेकिन उच्च सवर्ण पृष्ठ भूमि के बौद्धिकों ने नहीं| यह लक्षित किया जाना चाहिए कि प्रगतिशील मार्क्सवादी सांस्कृतिक आंदोलन में भी इन सबाल्टर्न बौद्धिकों का कोई उल्लेख नहीं है| कारण यह कि सोवियत क्रांति के प्रभाव व प्रेरणा के चलते मार्क्सवादी आंदोलन समता,समानता के समाजवादी मूल्यों का तो पक्षधर होकर वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए प्रतिश्रुत था, लेकिन वर्ण गत और जाति गत विभाजन के विरुद्ध प्रभावी संघर्ष उसके एजेंडे में शामिल नहीं था| यही कारण था कि चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, पेरियार ललई सिंह, रामस्वरूप वर्मा आदि सरीखे सबाल्टर्न बौद्धिकों की वामपंथी आंदोलन से निकटता नहीं स्थापित हो पाई|

हिंदी में साहित्यिक और वैचारिक लेखन के बावजूद ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ के पवित्र आंगन में तो इन निम्नवर्गीय (सबाल्टर्न) जन-बौद्धिकों का प्रवेश वर्ज्य था ही, स्वाधीन भारत में साहित्य अकादमी सरीखी स्वायत्त संस्थाओं द्वारा प्रकाशित ‘ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिट्रेचर’ में भी इन्हें दर्ज़ नहीं किया गया| इसी कारण इस ग्रंथ के संकलन कर्ता धर्मवीर यादव गगन को संपूर्ण भारत में घूम-घूम कर साधारण लोगों के बीच से पेरियार ललई सिंह की किताबें, साक्षात्कार, पत्र, भाषण, संस्मरण आदि एकत्रित करना पड़े| देश के विश्वविद्यालयों के शोध-प्रबंधों के दायरे से तो इन्हें पूर्णत: वंचित ही रहना था| पेरियार ललई सिंह के ही शब्दों में, “आज जितनी भी पुस्तकें स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं, सब आर्यों द्वारा आर्यों के वर्चस्व की मानसिकता से लिखी गई हैं…हमारे मूलनिवासी आदि निवासियों का इतिहास किसी भी संस्था में नहीं दिया जाता है| न ही मूल निवासियों की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से लिखी गई कोई पुस्तक कहीं भी पढ़ाई जाती है…हमारी सारी महान विभूतियों को निगल लिया ब्राह्मण-पुरोहितों, वर्चस्ववादी संस्कृति ने…इनकी पुस्तकों को खोज-खोज कर जलाया, नष्ट किया| इसे आप आदि निवासियों और बौद्ध साहित्य, दर्शन को नष्ट किए जाने वाले आर्यों के अभियान से समझ सकते हैं|” इस समूची प्रक्रिया और षडयंत्र का पर्दाफाश पेरियार ललई सिंह ने अपनी पुस्तिकाओं ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’और ‘आदि निवासियों की पहचान’में किया है| इन पुस्तकों के साथ-साथ उनके अन्य लेखन का प्रकाशन साहित्य व समाज-विज्ञान की बड़ी रिक्ति की बहुप्रतीक्षित भरपाई है|उनके चिंतन पर हिंदी साहित्य के साथ हिंदू मिथक, धर्म, दर्शन, समाजविज्ञान, निम्नवर्गीय अध्ययन (सबाल्टर्न स्टडीज) आदि में पूर्ण अध्ययन हो सकता है|

पेरियार ललई सिंह भारतीय समाज में वर्ण और जातिआधारित शोषण का निदान उत्पीड़क जातियों के विरुद्ध उत्पीड़ित जातियों की गोलबंदी तक सीमित न करके वर्ण-जाति-उन्मूलन के लक्ष्यमें तलाशते थे| वे वर्ण जाति भेद को उच्च जातियों तक सीमित न करके निचले स्तर की जातियों में भी इसके दुष्प्रभावों को निशान देही करते थे| उनका कहना था, “ब्राह्मणवादी ऊंच-नीच की भावना अछूतों में भी है–चमार, भंगी को नीच और अपने को ऊंच समझते हैं| अहीर चमार से अपने आपको ऊंचा समझते हैं|अत: अछूतों को चाहिए कि वे किसी को भी नीच-ऊंच नसमझें| ” उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि स्कूलों, कालेजों की पाठ्य-पुस्तकों में जाति-पांति के विरुद्ध पाठ निर्धारित किए जाएं और भारत सरकार व राज्य सरकारें जाति-पांति के विरुद्ध छोटी-छोटी पुस्तिकाएं विभिन्न भाषाओं में लिखवा और छपवा कर बहुत बड़ी संख्या में मुफ्त बांटे| उनका सुझाव था कि ‘जाति तोड़कर विवाह करने वाले जोड़ों और उनकी संतान को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाए| ऐसे विवाहों में एक वर्ग (अर्थात पुरुष या स्त्री) अछूत जरूर हो| ’ उनका यह भी सुझाव था कि ‘जाति नामधारी शैक्षणिक संस्थाओं को न तो सरकारी अनुदान दिया जाए और न इनको शिक्षा विभाग स्वीकृति ही दे| ’ और यह भी कि ‘अदालती कागजों और स्कूलों तथा कालेजों के रजिस्टरों से जाति का खाना निकाल दिया जाए और किसी से उसकी जाति पूछना, उसकी आमदनी पूछने की तरह खराब समझी जाए|

यह जानना दिलचस्प और जरूरी है कि जिन पेरियार ई.वी.रामास्वामी के भौतिकतावादी तर्कशील चिंतन ने दक्षिण भारत की राजनीति व वैचारिकी को आमूल चूल परिवर्तनकारी दिशा प्रदान की, जिस पर आज भी दक्षिण भारत की राजनीति  और समाज टिका हुआ है, चल रहा है, उसे ही जब ललई सिंह ने उत्तर भारत में प्रचारित-प्रसारित करने का संकल्प लिया तब उत्तर प्रदेश सरकार ने पूरी तरह अवरोध पैदा किए|ललई सिंह ने पेरियार द्वारा लिखित बहुचर्चित पुस्तक ‘दिरामायना: ए ट्रूरीडिंग’ का रामअधार कृत हिंदी अनुवाद‘सच्ची रामायण’ का प्रकाशन साल 1968 में झींझक,कानपुर के अपने ‘अशोक पुस्तकालय’ प्रकाशन और ‘सस्ता प्रेस’ मुद्रण से किया| इसके पहले ही संस्करण की एक हजार प्रतियां छापी गईं| रामायण के वर्णाश्रमी वर्चस्व के मूल्यों को चुनौती देने वाली इस पुस्तक की लोकप्रियता से सशंकित होकर उत्तर प्रदेश सरकार ने एक वर्ष के अंदर ही इस पर प्रतिबंध लगा दिया| इस जब्ती को हाईकोर्ट में पेरियार ललई सिंह द्वारा चुनौती दिए जाने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया| उत्तर प्रदेश सरकार पर जुर्माना ठोक दिया| इसके खर्च आदि की भरपाई का आदेश भी दिया| इसके विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की,वहां भी प्रदेश सरकार की हार हुई और अंतत: 16 सितम्बर,1976 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पुस्तक पर प्रतिबंध हटा और कोर्ट ने जब्त प्रतियां पेरियारललई सिंह को वापस करने का आदेश दिया|इसके बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार की वक्रदृष्टि पेरियार ललई सिंह के साहित्य और चिंतन पर बरकरार रही| इसी कारण उनकी अन्य लगभग सभी किताबों पर मुकद में सरकार करती रही| एक किताब तो प्रतिबंधित ही करवा दी| इन बाधाओं के होते हुए भी सन् 1990 तक लगभग हर वर्ष इस पुस्तक के नए संस्करण प्रकाशित होते रहे| बहुजन समाज के बीच इसे उपलब्ध करवाने के लिए मेलों और विभिन्न सामाजिक अवसरों पर पेरियार ललई सिंह स्वयं इस पुस्तक को साईकिल पर रखकर बेचा करते थे| यह तथ्य उल्लेखनीय है कि ‘सच्ची रामायण’ की बुक-स्टाल पर खुली बिक्री तभी सुनिश्चित हो सकी जब कांशीराम की पहल कदमी पर सन् 1995 में बहुजन समाज पार्टी की पहली बार सरकार बनी| पेरियार ललई सिंह के अथक प्रयासों और संघर्षों के परिणाम स्वरूप हिंदी में ‘सच्ची रामायण’ की पहली बार उपलब्द्धता तो सुनिश्चित हुई, लेकिन ब.स.पा. सरकार के प्रयासों के बावजूद पेरियार ई.वी. रामास्वामी की प्रतिमा लखनऊ के अंबेडकर स्मारक में या उत्तर प्रदेश में कहीं भी हिंदुत्व वादियों के प्रबल विरोध के चलते आज तक न स्थापित हो सकी|

‘सच्ची रामायण’ के अतिरिक्त पेरियार ललई सिंह की जिन अन्य पुस्तकों को सरकारी कोप भाजन का समय-समय पर शिकार होना पड़ा, उनमें ‘सिपाही की तबाही’ तो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित हुई, ‘ईश्वर, आत्मा एवं वेदों आदि में विश्वास अधर्म है’, ‘हिंदू संस्कृति में वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद’, ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ आदि शामिल हैं| ये सभी पुस्तकें बहुसंख्यक समुदाय के मुखर वर्चस्वशाली लोगों की भावनाओं के आहत होने के आधार पर प्रतिबंधित की गई थीं| दरअसल आहत भावनाओं का यह तर्क भारतीय राष्ट्र-राज्य के वर्ण वादी ब्राह्मणवाद के प्रति सहृदयताका परिणाम अधिक था,आहत भावनाओं का क्रम, जो आज तक सतत जारी है| इन प्रतिबंधों से यह तथ्य भी सुस्पष्ट है कि भारतीय संविधान की वैज्ञानिक व तर्कवादी अवधारणा के बावजूद तर्क, ज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिके प्रचार-प्रसार में पेरियार ललई सिंह सरीखे जमीनी बौद्धिकों को कितना संघर्ष करना पड़ा था| सच तो यह है कि ललई सिंह हिंदी क्षेत्र में आजीवन पेरियारके विचारों के अकेले सेनानी रहे और सहज सरल भाषा में लिखित उनकी पुस्तकें तर्कशील वैज्ञानिक विचारों की वाहक रहीं लेकिन परिवर्तन कामी सशक्त सामाजिक आंदोलन के अभाव में ये प्रयास दूरगामी लक्ष्यों को न प्राप्त कर सके| उनके जीवन और विचारों में कोई द्वैत नहीं था| वे विचार और आचरण से पूरी तरह नास्तिक और स्पष्ट वक्ता थे| वे 14 अक्टूबर, 1956 को बाबा साहब डॉ.भीमराव अंबेडकर के बौद्ध धम्म दीक्षा ग्रहण, नागपुर में जाकर बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहते थे किंतु क्षय रोग से उन्हें खून की उल्टी हो रही थी| इस कारण वे नहीं जा सके| 21 जुलाई, 1967 को उन्हीं महाथेरा ऊ चंद्रमणि स्थविर से, जिनसे बाबा साहब ने बौद्ध धम्म ग्रहण किया था, कुशीनगर में बौद्ध धर्म ग्रहण किया|वे बुद्ध के भौतिकता वादी सोच और सिद्धांत को मानते थे| इस दीक्षा ग्रहण के बाद अपने नाम से कुँवर, चौधरी, यादव हटा दियाऔर सिर्फ ललई सिंह लिखने लगे| उसके बाद उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि एक बौद्धिष्ट की वर्ण और जाति नहीं होती वो मनुष्य होता है| यदि वो वर्ण और जाति को मानता है तो वह वर्ण वर्णाश्रमी हिंदू है| 12 अक्टूबर 1968 ईस्वी को पेरियार को चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, ललई सिंह और छेदीलाल साथी ने‘ अल्प संख्यक एवं पिछडेर वर्ग के सम्मेलन’ लखनऊ में भाषण के लिए बुलाया था| इसके बाद ललई सिंह ने 14 अक्टूबर, 1968 ईस्वी को नानाराव पार्क, कानपुर में बौद्ध धम्म दीक्षा ग्रहण का आयोजन किया था जिसमें हिंदू धर्म के वर्णवाद, श्रेष्ठता और नीचता की मानसिकता पर करारा प्रहार करते हुए, उसकी धज्जियाँ उड़ा रहे थे, सामने खड़ी दस हजार जनता से बौद्ध धर्म ग्रहण करने की सार्वजनिक गुहार लगाई और सबको बौद्ध धर्म ग्रहण करवाया| इस भिक्षु निर्गुणानंद ने कहा ललई सिंह तो उत्तर भारत के पेरियार हैं| तब से इनके शुभ चिंतकों ने पेरियार ललई सिंह संबोधन प्रारंभ कर दिया|  1968 ईस्वी में सच्ची रामायण के प्रकाशन और पेरियार की सोच से उत्तर भारत में धूम मचाने के कारण भी इनके शुभ चिंतकों इन्हें ‘उत्तर भारत का पेरियार’ की उपमा दी और इन्हें, पेरियार ललई सिंह के रूप में पुकारने लगे, तब से ये अपना नाम ‘पेरियार ललई सिंह’ लिखने लगे|

यह स्वीकार करना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र में हिंदू मानस के मौजूदा वर्चस्व के पीछे उच्चवर्णी सेकुलर हिंदू बौद्धिकों का वह अवचेतन रहा है जो लम्बे समय तक धर्म व वर्ण-जाति के प्रश्नों को अनुपस्थित मानकर सर्वधर्म समभाव की कथित गंगा-जमुनी संस्कृति के भ्रमजाल का भेदन न कर सका| कोई आश्चर्य नहीं कि उस दौर में वर्ण-जातिभेद के मुद्दे को लेकर उच्च सवर्णों का यह अंधत्व वर्तमान समय में अल्पसंख्यक व दलित समुदायों के प्रति दुराव व भेदभाव का आग्रही नहीं तो उसके विरुद्ध उदासीन अवश्य है| अपने समय मेंपेरियारऔर अंबेडकर के चिंतन का अनुगमन कर के पेरियार ललई सिंह ने अपनी आर्मी की और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन, इकहत्तर बीघा जमीन और बाग आदि बेच कर अपने सीमित सामर्थ्य में बहुजन वैचारिकी द्वारा इसका प्रतिविमर्श तो रचा, लेकिन वे इसे जन आंदोलन का स्वरूप न दे पाए| नब्बे के दशक में जब सामाजिक न्याय की शक्तियों का राजनीतिक उभार हुआ तब उनका दायित्व था कि सामाजिक न्याय की राजनीति का रिश्ता चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, पेरियार ललई सिंह और रामस्वरूप वर्मा सरीखे सबाल्टर्न बौद्धिकों की वैचारिकी के साथ जुड़ता, लेकिन आमूल चूल सामाजिक परिवर्तन की इच्छा शक्ति के अभाव और तात्कालिक राजनीतिक लाभ तक सीमित रहने के चलते यह सम्भव न हो सका| हिंदुत्ववादी उभार के इस समय में बहुजन समाज को इस वैचारिक रिक्ति की मंहगी कीमत चुकानी पड़ रही है|

कहना न होगा कि धार्मिक कट्टरता,अंधविश्वास, नफरत के इस समय में तर्क, वैज्ञानिक सोच व मानवीय सद्भाव की बहुजन वैचारिकी के चिंतकों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अवदान को संजोने और पुनर्संदर्भित करने की जरूरत है|पेरियार ललई सिंह की ग्रंथावली का प्रकाशन इस दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है| दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा अध्येता डॉ. धर्मवीर यादव गगन ने जिस लगन और समर्पण भाव से इसे सम्भव किया है,वह उनकी खोजी और अध्ययनशील वृत्ति के बिना संभव नहीं था| उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक बिखरी सामग्री को जुटाकर संदर्भ प्रदान करना व ग्रंथावली का रूप देना एक दुष्कर व श्रम साध्य कार्य था|इस दूरगामी महत्व के ऐतिहासिक कार्य के लिए उन्हें बधाई और साधुवाद! उम्मीद की जानी चाहिए कि बहुजन समाज के अन्य जन-बौद्धिकों के अवदान को संरक्षित व सुरक्षित करने के प्रयासों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी|

“वीरेन्द्र यादव” पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली राजकमल प्रकाशन समूह, नई दिल्ली मो.9311397733

सुप्रीम कोर्ट में उड़ी EWS कोटे की धज्जियां

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EWS यानी सीधे तौर पर सवर्ण समाज के गरीबों को दस फीसदी आरक्षण के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है। 13 सितंबर से इस पर चल रही बहस को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने अगले पांच दिनों में पूरा करने की बात कही है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट में ईडब्ल्यूएस कोटे पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने इसकी धज्जियां उड़ा कर रख दी है। याचिकाकर्ताओं की दलील इतनी मजबूत है कि इसपर सुप्रीम कोर्ट में हलचल मच गई है।

जाने-माने शिक्षाविद् डॉ. मोहन गोपाल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दी गई दलीलों के बाद उसकी खूब चर्चा हो रही है। डॉ. गोपाल ने इस मामले पर सुनवाई कर रहे पीठ के सामने जो दलीलें दी हैं आइए उस पर नजर डालते हैं-

  • आरक्षण को वंचित समूह को प्रतिनिधित्व देने का साधन माना जाता रहा है, लेकिन EWS कोटा ने इस कांसेप्ट को पूरी तरह से उलट दिया है।
  • ईडब्लूएस कोटे का लाभ अगड़े वर्ग को मिलता है, लेकिन इससे सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग बाहर हो जाते हैं।
  • ऐसा होने से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन होता है, जिसके तहत समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत की बात की गई है।
  • डॉ. मोहन गोपाल ने 103वें संशोधन पर भी सवाल उठाया, जिसके तहत यह आरक्षण दिया गया है। उन्होंने कहा कि यह संशोधन संविधान पर हमले के रूप में देखा जाना चाहिए।
  • अगर ईडब्लूएस वास्तव में आर्थिक आरक्षण होता, तो यह जाति के बावजूद गरीब लोगों को दिया जाता, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
  • ईडब्ल्यूएस कोटा लागू होने से पहले जो आरक्षण मौजूद थे, वे जाति-पहचान पर आधारित नहीं थे बल्कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की कमी पर आधारित थे।
  • 103वें संशोधन में कहा गया है कि पिछड़े वर्ग ईडब्ल्यूएस कोटा के हकदार नहीं हैं। यह केवल अगड़े वर्गों में गरीबों के लिए उपलब्ध है। उन्होंने कहा कि कुमारी बनाम केरल राज्य में यह कहा गया था कि सभी वर्ग सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के रूप में शामिल होने के हकदार हैं।

अपनी दलील पेश करते हुए डॉ. गोपाल ने कहा कि हमें आरक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं है। हम प्रतिनिधित्व में रुचि रखते हैं। अगर कोई आरक्षण से बेहतर प्रतिनिधित्व का तरीका लाता है, तो हम आरक्षण को अरब सागर में फेंक देंगे। उन्होंने अपनी दलील देते हुए कहा कि किसी की भी फाइनेंशियल कंडीशन एक क्षणिक स्थिति है। यह लॉटरी जीतने या जुआ हारने जैसी किसी एक घटना से बदल सकती है।

इससे पहले शिक्षाविद मोहन गोपाल ने दलीलों की शुरुआत करते हुए EWS कोटे की जमकर आलोचना की। उन्होंने सीधे तौर पर कहा कि ‘ईडब्ल्यूएस कोटा अगड़े वर्ग को आरक्षण देकर, छलपूर्ण और पिछले दरवाजे से आरक्षण की अवधारणा को नष्ट करने का प्रयास है।’

बताते चलें कि, चीफ जस्टिस उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने ईडब्ल्यूएस कोटा संबंधी 103वें संविधान संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की है। इसके बाद से EWS कोटा, जिसे बहुजन समाज के बुद्धिजीवी सुदामा कोटा कहते हैं, को लेकर बहस शुरू हो गई है।

आरक्षण की लगातार समाजशास्त्रीय व्याख्या करने वाले जेएनयू के प्रोफेसर और प्रख्यात समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार ने इस बहस के बीच ट्विटर पर एक पोस्ट साझा कर आर्थिक आधार पर आरक्षण का विरोध किया है। उनका कहना है कि-

– आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है।

– गरीबी के कारण पिछड़ापन दूर करने के अन्य उपाय भी मौजूद हैं।

– सवर्णों के पास सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पूंजी का हजारों वर्षों का बैंक है

– आरक्षण हजारों वर्षों से समाज के अनेक आयामों में वंचना झेल रहे समाजों को प्रतिनिधित्व देना है।

– आरक्षण में क्रीमी लेयर पिछड़ी जातियों के साथ अन्याय है।

– हजारों वर्षों की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विपन्नता मानव सधिकारों की क्षति एवं आर्थिक विपन्नता में कोई समानता नहीं हो सकती हैं। 

बता दें कि एससी/एसटी/ओबीसी समाज EWS कोटे का लगातार विरोध कर रहा है। यहां तक की राजनैतिक मोर्चे पर डीएमके ने भी इसके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। देखना यह है कि पांच दिनों की बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट EWS यानी आर्थिक आधार पर आरक्षण को लेकर क्या फैसला सुनाता है।

दलित समाज के सबसे बड़े कलाकार का निधन, मिल चुका था पद्मश्री

यूं तो बिहार में जो भी भिखारी ठाकुर के नाम से परिचित है, वह रामचंद्र मांझी को उनकी टोली के आखिरी सदस्य के रूप में जानता था। लेकिन साल 2021 में रामचंद्र मांझी को कला में उनके योगदान के लिए जब पद्मश्री से सम्मानित किया गया तो हर किसी को उनका नाम पता चल गया। जीवन के आखिरी पड़ाव में मिले इस सम्मान से वह खासे उत्साहित थे। इसके पहले उन्हें साल 2017 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका था। रामचंद्र मांझी ने 96 वर्ष की उम्र में बुधवार 7 सितंबर की देर रात पटना के IGIMS में अंतिम सांस ली। वह बीते काफी वक्त से कई बीमारियों से घिरे थे। वह भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर के शागिर्द थे और उनकी मंडली में लौंडा नाच करने वाले शानदार कलाकार।

उनका जन्म 1925 में बिहार में सारण यानी छपरा जिले के नगरा स्थित तुजारपुर गांव में हुआ था। रामचंद्र मांझी बताते थे कि उन्होंने 10 साल की उम्र में ही गुरु भिखारी ठाकुर के साथ स्टेज पर पांव रख दिया था। इसके बाद वह तकरीबन तीन दशकों तक भिखारी ठाकुर की छाया तले ही कला का प्रदर्शन करते रहे। भिखारी ठाकुर के निधन के बाद रामचंद्र मांझी ने टोली के अन्य सदस्यों के साथ काम किया था। वे ‘भिखारी ठाकुर रंगमंडल प्रशिक्षण एवं शोध केंद्र’ के सबसे वरिष्ठ कलाकार थे।
अपने पैतृक गांव में ही रहते थे। रहन-सहन आम था। गांव में जैसे दलितों के घर होते हैं, वैसा ही उनका भी था। लौंडा नाच, जिसे वो करते थे, वह डांस का एक फार्म है। यह बिहार के प्राचीन लोक नृत्यों में से एक है। इसमें लड़का, लड़की की तरह मेकअप और कपड़े पहन कर डांस करता है। 90 के दशक तक शादी-ब्याह के मौकों पर बिहार और पूर्वांचल के इलाकों में लौंडा डांस आम हुआ करता था। लेकिन आस्केस्ट्रा के दौर में जब मंच पर लड़कियां उतरने लगी तो यह कला लुप्त सी होने लगी। इसका उन्हें दुख था। इतिहास में दर्ज भिखारी ठाकुर के नाटक को उन्होंने आखिरी सांस तक जिंदा रखा। वह लौंडा नाच करते थे। साड़ी पहनकर सज-संवर कर स्टेज पर आते थे। कहते थे, तब मेरे भीतर एक स्त्री होती है। इस उम्र में भी जब वो कभी मंच पर पहुंच जाते तो जमकर थिरकते। उनकी भाव भंगिमा के कायल सभी थे। अपने भीतर एक स्त्री को समेटे रामचंद्र मांझी को दलित दस्तक आखिरी नमन करता है, श्रद्धांजलि देता है।