दलित समाज के सबसे बड़े कलाकार का निधन, मिल चुका था पद्मश्री

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यूं तो बिहार में जो भी भिखारी ठाकुर के नाम से परिचित है, वह रामचंद्र मांझी को उनकी टोली के आखिरी सदस्य के रूप में जानता था। लेकिन साल 2021 में रामचंद्र मांझी को कला में उनके योगदान के लिए जब पद्मश्री से सम्मानित किया गया तो हर किसी को उनका नाम पता चल गया। जीवन के आखिरी पड़ाव में मिले इस सम्मान से वह खासे उत्साहित थे। इसके पहले उन्हें साल 2017 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका था। रामचंद्र मांझी ने 96 वर्ष की उम्र में बुधवार 7 सितंबर की देर रात पटना के IGIMS में अंतिम सांस ली। वह बीते काफी वक्त से कई बीमारियों से घिरे थे। वह भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर के शागिर्द थे और उनकी मंडली में लौंडा नाच करने वाले शानदार कलाकार।

उनका जन्म 1925 में बिहार में सारण यानी छपरा जिले के नगरा स्थित तुजारपुर गांव में हुआ था। रामचंद्र मांझी बताते थे कि उन्होंने 10 साल की उम्र में ही गुरु भिखारी ठाकुर के साथ स्टेज पर पांव रख दिया था। इसके बाद वह तकरीबन तीन दशकों तक भिखारी ठाकुर की छाया तले ही कला का प्रदर्शन करते रहे। भिखारी ठाकुर के निधन के बाद रामचंद्र मांझी ने टोली के अन्य सदस्यों के साथ काम किया था। वे ‘भिखारी ठाकुर रंगमंडल प्रशिक्षण एवं शोध केंद्र’ के सबसे वरिष्ठ कलाकार थे।

अपने पैतृक गांव में ही रहते थे। रहन-सहन आम था। गांव में जैसे दलितों के घर होते हैं, वैसा ही उनका भी था। लौंडा नाच, जिसे वो करते थे, वह डांस का एक फार्म है। यह बिहार के प्राचीन लोक नृत्यों में से एक है। इसमें लड़का, लड़की की तरह मेकअप और कपड़े पहन कर डांस करता है। 90 के दशक तक शादी-ब्याह के मौकों पर बिहार और पूर्वांचल के इलाकों में लौंडा डांस आम हुआ करता था। लेकिन आस्केस्ट्रा के दौर में जब मंच पर लड़कियां उतरने लगी तो यह कला लुप्त सी होने लगी। इसका उन्हें दुख था।

इतिहास में दर्ज भिखारी ठाकुर के नाटक को उन्होंने आखिरी सांस तक जिंदा रखा। वह लौंडा नाच करते थे। साड़ी पहनकर सज-संवर कर स्टेज पर आते थे। कहते थे, तब मेरे भीतर एक स्त्री होती है। इस उम्र में भी जब वो कभी मंच पर पहुंच जाते तो जमकर थिरकते। उनकी भाव भंगिमा के कायल सभी थे। अपने भीतर एक स्त्री को समेटे रामचंद्र मांझी को दलित दस्तक आखिरी नमन करता है, श्रद्धांजलि देता है।

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