क्या मुसलमान अपराधी और हिंसक हैं? इसका एक ताजा उदाहरण तो यह है कि हाल में उत्तर प्रदेश में, दो राजनैतिक दलों ने 66 अपराधी राजनेताओं की सूची जारी की है, जिनमें मुस्लिम नेताओं की संख्या सिर्फ पाँच हैं। इसमें भी रामपुर के मोहम्मद आज़म खाँ का नाम सिर्फ इसलिये है कि उन्होंने अपनी एक तकरीर में भारत माँ को डायन कहा था ।
राजनीति को हम अपने विषय का प्रतिपाद्य इसलिये नहीं बना सकते कि राजनीति का अपराधीकरण इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गये हैं ।
अत: सच तो यह है कि अपराधी की कोई जाति और कोई धर्म नहीं होता । अपराधी और हिंसक प्रवृत्ति के लोग हर वर्ग और हर समुदाय में मिल जायेंगे । उन्हें किसी वर्ग विशेष या धर्म विशेष से जोड़कर देखना एक ऐसा घृणित सिद्धान्त है, जो एक खतरनाक सांप्रदायिकता को जन्म देता है । हिन्दुओं का यह कहना कि मुसलमान अपराधी और हिंसक होते हैं , मुख्यत: विद्वेष की राजनीति पर आधारित है । यदि हम तथ्यों का निष्पक्ष विश्लेषण करें , तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि हिन्दू दृष्टिकोण निराधार है ।
भारत में मुसलमानों की आबादी 12 प्रतिशत के करीब है और सम्पूर्ण मुस्लिम आबादी का 71.2 प्रतिशत भाग गांवों में रहता है । नगरों में उनकी आबादी सिर्फ 17.8 प्रतिशत है । मुरादाबाद और अलीगढ़ आदि कुछ शहरों में उनकी जनसंख्या 27 प्रतिशत से अधिक होने के कारण उन्हें नागरी समाज मान लिया गया है, जो ग़लत है । मुसलमानों में शिक्षा की बद्तर स्थिति है । अधिकांश मुसलमान अशिक्षित हैं,जो मजदूरी करके जीवन यापन करते हैं । एक विद्वान ने लिखा है कि भारत के ग्रामीण इलाकों में मुसलमान या तो मजदूर हैं या कृषि से जुड़े छोटे-छोटे व्यवसाय में हैं । उनके व्यवसाय भी उनके हुनर से जुड़े हैं ।ये शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े और आर्थिक दृष्टि से ग़रीबी की रेखा के नीचे आते हैं । क्या ये मजदूर और दस्तकार मुसलमान हिंसक हो सकते हैं ? वह भी उस स्थिति में, जब उनके व्यवसाय हिन्दुओं पर निर्भर करते हैं ?
हिन्दू पंडितों का चिंतन इस तथ्य की सदैव उपेक्षा करता है कि हिन्दू धर्म ने वर्णव्यवस्था के अंतर्गत एक वर्ग विशेष को धन-सम्पत्ति अर्जित करने का अधिकार देकर अपराध और हिंसा को न केवल जन्म दिया है, अपितु उसको वैधानिक स्वरूप भी दिया है । वर्णव्यवस्था के उल्लंघन पर निम्न वर्ग के लोगों के लिये हिन्दू मानस का विधान ‘मनुस्मृति’, जो आज भी गांवों में हिन्दुओं के नीजी कानून के रूप में व्यवहार में है, कितने हिंसक और क्रूरतम आदेश देती है, यह नीचे दिये गये कुछ नमूमों से मालूम हो जायेगा –
“यदि अधम जाति शूद्र ऊंची जाति के कर्मों को करके धन कमाने लगे, तो राजा उसका सब धन छीन कर उसे देश से निकाल दे !”
“ बिल्ली, नेवला, चिड़िया, मेढक, कुत्त, उल्लू और कौए की हत्या में जितना पाप लगता है , उतना ही शूद्र की हत्या में होता है ।
“यदि शूद्र कठोर शब्द कहे तो, उसकी जीभ काट दें ।यदि वह ऊंची जातियों के नाम और जाति का नाम द्रोह से ले तो उसके मुंह में जलती हुई दस अंगुल की कील ठोंक दें । यदि वह अहंकार से ब्राह्मण को धर्म सिखाये, तो उसके मुंह और कान में गरम तेल डाल दें । यदि वह ऊंची जातियों के बराबर आसन पर बैठने की इच्छा करे, तो राजा उसकी कमर दाग़ कर देश से निकाल दें या उसके चूतड़ कटवा दें।”
इन्हीं हिंसक आदेशों के कारण हिन्दुओं को दलितों का उत्थान बरदाश्त नहीं है और वे निरन्न्तर उनको अपनी हिंसा से दबाते रहते हैं । क्या हिन्दुओं की भाँति मुसलमानों को दूसरे मनुष्य पर महज़ इसलिये अत्याचार करने का इस्लाम आदेश देता है कि वे उन्हीं जैसे समान अधिकार चाहते हैं ?
सितम्बर 1990 में करनैल गंज (गौण्डा) के दंगों, अक्टूबर व नवम्बर 1990 में अयोध्या में कारसेवा के बाद भड़के दंगों, नवम्बर 1991 में बनारस के मदनपुरा में हुए दंगों की रिपोर्ट पूर्ण रूप से हिन्दू-आक्रामाकता को ही प्रमाणित करती है । इन दंगों में जिस क्रूर और बर्बर तरीकों से मुसलमान बूढ़े, बच्चों और औरतों का कत्लेआम हुआ, वह अत्यंत मार्मिक, हृदयविदारक और आतंकित कर देने वाला है । वह मनुष्यता के लिये अभिशाप और हिन्दुत्व का वह रूप है, जिसके लिये हिंसक और अपराधी शब्द भी छोटे लगते हैं । उसे यदि कोई सार्थक नाम दिया जा सकता है, तो वह ‘आतंक’ के सिवा दूसरा नहीं हो सकता ।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुसलमान अतिवादी नहीं हैं ।यह कहना भी उचित नहीं होगा कि मुसलमानों ने दंगों में हिंसक भूमिका नहीं निभायी । किन्तु, इस सच को भी स्मरण रखना होगा कि मुस्लिम-हिंसा प्रतिरक्षा के अर्थ में उत्पन्न हुई है ।
दंगे सिर्फ मुसलमानों को तबाह और बरबाद करने की साजिश होते हैं । प्रमाण इससे अधिक और क्या हो सकता है कि सभी दंगों में हिन्दुओं के सारे हमले मुसलमानों के कारोबारों पर हुए । बनारस का मदनपुरा मौहल्ला मुसलमानों का साड़ी उद्योग का प्रमुख केंद्र था और एक पत्रकार की रिपोर्ट है कि हिन्दुओं ने उस केंद्र को तबाह करने के इरादे से ही बनारस में दंगे की योजना बनायी थी ।” इस आधार पर, मुसलमान , जैसा कि असगर अली इंजीनियर का कथन है , “यह सोचने पर मजबूर करता है कि साम्प्रदायिक तत्व आर्थिक रूप से उसे कभी भी उभरने नहीं देंगें ।” वह आगे कहते हैं –
“ आज मुस्लिम समुदाय स्वंय को चारों ओर से घिरा हुआ महसूस कर रहा है । बहुसंख्यक वर्ग का छोटा सा, किन्तु सशक्त और संगठित साम्प्रदायिक वर्ग दिन-प्रतिदिन आक्रामक और हिंसक रुख अपना रहा है। उनमें मौजूद धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शक्तियाँ कमजोर पड़ रही हैं । मुसलमानों के इतिहास, रहन-सहन रीति-रिवाज और कई मामलों में धार्मिक आचरण पर भी हमले हो रहे हैं ।”
ऐसी स्थिति में , अपनी पहचान बनाये रखने अपने व्यवसायों की असुरक्षा की दृष्टि से हिन्दू आक्रामकता का सामना करना मुसलमानों की स्वभाविक नहीं, तात्कालिक आवश्यकता है । इस आवश्यकता को, उनकी चारित्रिक हिंसा कहना उन्हें बदनाम करने की ही एक खतरनाक साजिश है ।
(कंवल भारती के फेसबुक से साभार)