आज से सौ साल पहले 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर स्थिर जलियांवाला बाग में जो घटा उसने भारत को एक ऐसा दर्द दे दिया, जिसका दर्द अब भी रह-रह कर सालता है। इस दिन अंग्रेजों के रौलेट एक्ट के विरोध में जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण तरीके से सभा कर रहे निहत्थे निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दी गई थी। जनरल डायर ने खुद अपने एक संस्मरण में लिखा था, “1650 राउंड गोलियां चलाने में छह मिनट से ज्यादा ही लगे होंगे।” यह ऐसा दर्द था, जिसे भारत के लोग हर साल याद करते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस अंधाधुंध गोलीबारी में 337 लोगों के मरने और 1500 के घायल होने की बात कही जाती है, लेकिन सही आंकड़ा क्या है, वह आज तक सामने नहीं आ पाया है। अंग्रेजों की खूनी गोलियों से बचने के लिए सैकड़ों लोग बाग में स्थित कुएं में कूद गए। इसमें पुरुषों के अलावा महिलाएं और बच्चे भी थे। जब बाग में गोलीबारी हो रही थी, एक बालक उधम सिंह भी वहां मौजूद था। उसने अपनी आंखों के सामने अंग्रेजों के इस खूनी खेल को देखा था। उन्होंने उसी बाग की मिट्टी को हाथ में लेकर इसका बदला लेने की कसम खाई थी। 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को उधम सिंह ने अंग्रेजों से इसका बदला लिया।
उधम सिंह ने जो किया वह इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और जीवन का संघर्ष इतना बड़ा था कि ऐसी स्थिति में कोई इस तरह का फैसला लेने की सोच नहीं सकता था। क्रान्तिवीर शहीद उधमसिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरुर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। उधम सिंह जब दस साल के हुए तब तक उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उधम सिंह अपने बड़े भाई मुक्तासिंह के साथ अनाथालय में रहने लगे। इस बीच उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गई। इसके बाद उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। तमाम क्रांतिकारियों के बीच उधम सिंह एक अलग तरह के क्रांतिकारी थे। सामाजिक रूप निचले पायदान से ताल्लुक रखने के कारण उनको इसकी पीड़ा पता थी। वह जाति और धर्म से खुद को मुक्त कर दा चाहते थे। यही वजह है कि उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘राम मोहम्मद आजाद सिंह’ रख लिया था, जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है। धार्मिक एकता का संदेश देने वाले वो इकलौते क्रान्तिकारी थे।

13 अप्रैल 1919 को जब बैसाखी के दिन एक सभा रखी गई, जिस दौरान उन पर गोलीबारी हुई थी, उसी सभा में उधम सिंह अपने अन्य साथियों के साथ पानी पिलाने का काम कर रहे थे। इस सभा से तिलमिलाए पंजाब प्रांत के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिगेडियर जनरल डायर को आदेश दिया कि सभा कर रहे भारतीयों को सबक सिखाओ। इस पर उसी के हमनाम जनरल डायर ने सैकड़ों सैनिकों के साथ सभा स्थल जलियांवाला बाग में निहत्थे, मासूम व निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए।
उधम सिंह भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश हुकुमत द्वारा कराये गये सबसे बड़े नरसंहार, जालियावाला बाग के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस घटना से तिलमिलाए उधमसिंह ने जलियावाला बाग की मिट्टी को हाथ में लेकर इस नरसंहार के दोषी माइकल ओ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ली थी। अनाथ होने के बावजूद भी वीर उधम सिंह कभी विचलित नहीं हुए और देश की आजादी तथा माइकल ओ डायर को मारने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए लगातार कोशिश करते रहें। उधम सिंह ने अपने काम को अंजाम देने के लिए कई देशों की यात्रा भी की। इसी रणनीति के तहत सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे। भारत के इस आजादी के दीवाने क्रान्तिवीर उधम सिंह को जिस मौके का इंतजार था वह मौका उन्हें जलियांवाला बाग नरसंहार के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओ डायर लंदन के काक्सटेन सभागार में एक सभा में सम्मिलित होने गया। इस महान वीर सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उसमें वहां खरीदी रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर प्रवेश कर गए। मोर्चा संभालकर उन्होंने माइकल ओ डायर को निशाना बनाकर गोलियां दागनी शुरू कर दी जिससे वो वहीं ढ़ेर हो गया।
माइकल ओ डायर की मौत के बाद ब्रिटिश हुकुमत दहल गई। फांसी की सजा से पहले लंदन की कोर्ट में जज एटकिंग्सन के सामने जिरह करते हुए उधम सिंह ने कहा था- ‘मैंने ब्रिटिश राज के दौरान भारत में बच्चों को कुपोषण से मरते देखा है, साथ ही जलियांवाला बाग नरसंहार भी अपनी आंखों से देखा है। अतः मुझे कोई दुख नहीं है, चाहे मुझे 10-20 साल की सजा दी जाये या फांसी पर लटका दिया जाए। जो मेरी प्रतिज्ञा थी अब वह पूरी हो चुकी है। अब मैं अपने वतन के लिए शहीद होने को तैयार हूं.’ अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और वो महिलाओं पर हमला नहीं करते। फांसी की सजा की खबर सुनने के बाद आजादी के दीवाने इस क्रान्तिवीर ने ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाकर देश के लिए हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की अपनी मंशा जता दी। 31 जुलाई 1940 को ब्रिटेन के पेंटनविले जेल में उधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया, जिसे भारत के इस वीर सपूत ने हंसते-हंसते स्वीकार किया। उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते।
परंतु अफसोस की बात यह है कि इस देश की सरकारें जिस शिद्दत के साथ बाकी क्रान्तिकारियों को याद करती हैं, उधम सिंह को नहीं करती. आजाद भारत की सरकारें उधम सिंह को आज तक वह सम्मान नहीं दे सकीं जिसके वह हकदार थे। इसके पीछे का कारण उधम सिंह की सामाजिक पृष्ठभूमि या राजनैतिक कुछ भी हो सकता है। हां, उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री मायावती ने शहीद उधम सिंह को उचित सम्मान देते हुए उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर जिले का गठन किया।
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। साल 2012 से लगातार मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ को संपादित और प्रकाशित कर रहे हैं। दलित दस्तक नाम से यू-ट्यूब चैनल भी चलाते हैं एवं ‘दास पब्लिकेशन’ के जरिए प्रकाशन में भी सक्रिय हैं।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
