एक दिन के भूख हड़ताल पर बैठेंगे ‘अन्नदाता’

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  कड़ाके की ठंड के बीच किसानों का आंदोलन 18वें दिन भी जारी है। दिल्ली के तमाम बार्डर पर किसान डटे हुए हैं। इस बीच 14 दिसंबर को किसानों ने एक दिन का भूख हड़ताल करने की घोषणा की है। सिंघु और टीकरी समेत अन्य तमाम जगहों पर प्रदर्शन अब भी जारी है। दिल्ली-जयपुर हाईवे बंद करने के लिए राजस्थान-हरियाणा बार्डर पर भारी संख्या में किसान इकट्ठा होने लगे हैं। दूसरी ओर दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी किसानों के समर्थन में आ गई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आज प्रेस कांफ्रेंस कर किसानों को अपना समर्थन देने का ऐलान किया। इस दौरान केजरीवाल ने भी एक दिन के अनशन में शामिल होने की घोषणा की। साथ ही पार्टी कार्यकर्ताओं से भी ऐसा करने की अपील की। इस बीच सरकार किसानों की एकता तोड़ने में लग गई है। उत्तराखंड के किसानों ने कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के साथ मिलकर तीनों कृषि कानूनों को लेकर अपना समर्थन दिया। इस दौरान उत्तराखंड के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय भी मौजूद थे।

डिबेट में किसान नेता ने अर्नब की बोलती बंद की

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 किसान आंदोलन के बीच गोदी मीडिया किसानों और इस आंदोलन को बदनाम करने में जुट गई है। मनुवादी मीडिया कभी किसानों के आंदोलन को खालिस्तानियों से जोड़ रही है, कभी पाकिस्तान से तो कभी चीन से। झूठी तस्वीरें फैलाकर उसके बहाने किसानों को बदनाम करने की साजिश भी रची जा रही है। मोदी और भाजपा सरकार के प्रचार चैनल बन चुके कई चैनल तो अपनी डिबेट में सरकार पर सवाल उठाने की बजाय किसानों पर ही सवाल उठा रहे हैं और उन्हें ही घेरने में जुटे हैं। तमाम चैनल सरकारी प्रवक्ता की तरह बात कर रहे हैं। हाल ही में हवालात का चक्कर लगाकर लौटे अर्णब गोस्वामी भी इनमें से एक है। लेकिन बहस के दौरान किसान नेता राकैश टिकैत ने अर्णब को जो जवाब दिया, उससे अर्नब की बोलती बंद हो गई। यह जवाब खूब वायरल हो रहा है।

 हुआ यह कि कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के प्रदर्शन को लेकर टीवी डिबेट के दौरान अर्नब गोस्वामी भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष राकेश टिकैत से “टुकड़े-टुकड़े गैंग” का जिक्र कर लगातार सवाल दागने लगे। अर्नब का आरोप था कि किसानों के आंदोलन में टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग घुस गए हैं और किसान उन्हें बाहर नहीं निकाल रहे हैं। अर्नब लगातार सवाल दागे जा रहे थे और किसान नेता को बोलने नहीं दे रहे थे। इस पर टिकैत ने कहा, बात तो सुन लो कि किसी हकीम ने बता रखा है कि बोलते ही रहोगे? टिकैत के इस जवाब को सुनकर अर्नब एक पल को झेंप गए। राकेश टिकैत का यह जवाब खूब वायरल हो रहा है।

 दरअसल किसानों के आंदोलन को कुछ मीडिया घरानों द्वारा लगातार सांप्रदायिकता का जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है। कोई इसे पाकिस्तान और चीन के समर्थन से चलने वाला आंदोलन बता रहा है तो कोई इसे शाहीन बाग पार्ट- टू कह कर बदनाम करने की साजिश रचने में जुटा है। वहीं दूसरी ओर किसान लगातार अपनी मांगों पर अड़े हैं और ठंड बढ़ने के बावजूद अपनी मांग मंगवाने तक पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।

हरामी व्यवस्थाः महज खाना छू लेने पर दलित युवक को पीटकर मारा डाला

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  देश के सामंती हिस्से में बुंदेलखंड का नाम भी लिया जाता है। अपने आप को तिसमार खां समझने वाले ऊंची जाति के गुंडों द्वारा यहां अक्सर सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग के साथ ज्यादती की खबर आती है। कहीं कहीं पिछड़े वर्ग में भी सामंती जातियों की यह बीमारी घुसती जा रही है। ताजा घटनाक्रम में बुंदेलखंड के छतरपुर के किशनगंज गांव में जातिवादी गुंडों ने एक युवक को इसलिए पीट-पीट कर मार डाला, क्योंकि उसने एक पार्टी में खाना छू दिया था। यह युवक पार्टी में साफ-सफाई के लिए गया था। आरोपियों का नाम भूरा सोनी और संतोष पाल है, जबकि पीड़ित युवक का नाम देवराज अनुरागी है। घटना के बाद से आरोपी फरार हैं। पुलिस दोनों को किसान बता रही है। दोनों के खिलाफ हत्या और एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया है।

लालू समर्थकों को फिर लगा झटका

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जमानत मिलने के बाद जेल से बाहर आने की राह देख रहे लालू प्रसाद यादव को फिर झटका लगा है। आज लालू प्रसाद यादव की जमानत पर होने वाली सुनवाई को फिर से छह हफ्ते के लिए टाल दिया गया है। खबर है कि सुनवाई को इसलिए टाल दिया गया क्योंकि लालू प्रसाद यादव की सजा का आधा वक्त अभी खत्म नहीं हुआ है। ऐसा होना रिहाई के लिए जरूरी शर्त है और इसमें अभी 40 दिन और बचे हैं। लालू यादव झारखंड में चारा घोटाले से जुड़े मामले में सजा काट रहे हैं। छह हफ्ते बाद यह चालीस दिन पूरे हो जाएंगे।

दरअसल लालू यादव के प्रशंसक 9 नवंबर से ही लालू यादव के जेल से रिहाई की राह देख रहे हैं, लेकिन वक्त लगातार खिंचता जा रहा है। पिछली बार सुनवाई इसलिए टली थी, क्योंकि सीबीआई ने झारखंड हाईकोर्ट में अपना पक्ष दाखिल नहीं किया था। भ्रष्टाचार के मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव चार साल की कैद की सजा काट रहे हैं। लालू को कई अन्य मामलों में जमानत मिल चुकी है और यह आखिरी मामला है, जिसमें जमानत मिलते ही वह जेल से रिहा हो जाएंगे। लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले से जुड़े चाईबासा ट्रेज़री केस में अक्टूबर में ही ज़मानत मिल गई थी, लेकिन ‘दुमका ट्रेज़री केस’ की सुनवाई पूरी नहीं होने के चलते उन्हें जेल में ही रहना पड़ा। लालू यादव भ्रष्टाचार के मामले में दोषी करार दिये जाने के बाद दिसंबर 2017 से ही जेल में हैं। हालांकि इसी मामले में बिहार के एक अन्य पूर्व ब्राह्मण मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को जमानत मिल गई। दूसरी ओर लालू यादव के वकील कपिल सिब्बल ने सीबीआई पर जानबूझकर जमानत अर्जी में देरी किए जाने का आरोप लगाया था।

बिहार में नीतीश ने चली चाल, भाजपा का छोटा भाई बनना स्वीकार नहीं

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  बिहार विधानसभा का चुनाव भले खत्म हो गया हो, वहां राजनीतिक हलचल थमी नहीं है। इस चुनावी नतीजे के बाद सबसे ज्यादा परेशान और बेचैन नीतीश कुमार हैं। नीतीश भले ही भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बन गए हैं, लेकिन भाजपा का छोटा भाई बनना और प्रदेश में तीसरे नंबर पर चले जाना, नीतीश को लगातार खटक रहा है। इसी को देखते हुए नीतीश कुमार ने अपने पुराने साथी उपेन्द्र कुशवाहा को अपने पाले में लाने की कोशिश तेज कर दी है।

 नीतीश कुमार और रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा के बीच मुलाकात हुई है। नीतीश कुमार कुशवाहा को एनडीए में लाना चाहते हैं। ऐसा कर नीतीश कुमार अपने लव-कुश वाले फार्मूले पर वापस आना चाहते हैं। बिहार में कुर्मी समाज की आबादी 4 फीसदी है और नीतीश इसी समाज से ताल्लुक रखते हैं।

दूसरी ओर किंगमेकर बनने का सपना पाले उपेन्द्र कुशवाहा बिहार विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाने के कारण हाशिये पर हैं। उन्हें भी राजनीतिक ऑक्सीजन की जरूरत है। और इस वक्त में सिर्फ नीतीश कुमार ही उन्हें नया मौका दिलवा सकते हैं। संभव है कि जल्दी ही बिहार की राजनीति में नया फेर बदल देखने को मिल सकता है। वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार चिराग पासवान को एनडीए से आउट करने के लिए भी पुरजोर ताकत लगा रहे हैं।

किसानों पर महामारी एक्ट में एफआईआर

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 तीन कृषि बिल के खिलाफ बीते 29 नवंबर से दिल्ली के सिंधु बार्डर की रेड लाइट पर धरने पर बैठे किसानों के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर लिया है। किसानों पर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन न करने के लिए महामारी एक्ट सहित तमाम अन्य धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। ये किसान 29 नवंबर को लामपुर बार्डर से दिल्ली की सीमा में घुस आए थे, और तब से सिंधु बार्डर की रेड लाइट पर रोड ब्लॉक कर धरने पर बैठे हैं। वहीं दूसरी ओर किसानों ने 12 दिसंबर को दिल्ली-जयपुर हाईवे बंद करने और सभी टोल प्लाजा पर कब्जा करने का ऐलान किया है। तो 14 दिसंबर से किसानों ने देशव्यापी आंदोलन की चेतावनी दी है। गौरतलब है कि नए कृषि बिल के खिलाफ पिछले कुछ महीने से देश भर के किसान आंदोलन कर रहे हैं और केंद्र सरकार से कानून को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। लेकिन लोकतंत्र का दम भरने वाली सरकार लोक की बात मानने को तैयार नहीं है। पिछले कुछ दिनों में रस्सा-कस्सी और बढ़ी है। हालांकि सरकार और किसानों के बीच अब तक पांच दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल पाया है।

क्या बुद्ध और कबीर की तरह अंबेडकर भी चुरा लिए जायेंगे?

ए क महत्वपूर्ण कबीरपंथी सज्जन से मुलाक़ात का किस्सा सुनिए। एक गाँव में किसी काम से गया था, उसी सिलसिले में मालवा के दलितों के बीच फैले कबीरपंथ से परिचय हुआ। एक घर के बड़े से आँगन में कबीर पर गाने वाले और कबीर पर बोलने वाले एक सज्जन बैठे थे और आसपास बैठे गरीब दलित सुन रहे थे। मैं और मेरे एक मित्र कबीर की वाणी में सामाजिक क्रान्ति के सूत्र खोजने के मन से उन सज्जन से प्रश्न पूछ रहे थे। आसपास बैठे दलित गरीब चुपचाप सुन रहे थे।

बात निकली तो लोगों ने शेयर किया कि सब पञ्च तत्व के बने हैं, सब एक ही परमात्मा की संतान हैं और सबमे एक ही खुदा का नूर है आत्मा परमात्मा की ही औलाद है और भेदभाव सब इंसान के बनाये हुए हैं, सबका खून लाल है, सबको मरकर वहीं जाना है…  इत्यादि इत्यादि ..। फिर कुछ जागरूक लोगों ने बताया कि भाई जब तक ये प्रवचन चलता है तब तक सभी यह मानते हैं।।। उसके बाद आश्रम या सत्संग घर से निकलते ही दीवार के ठीक एक फुट दूर ही एकदूसरे के हाथ का छुआ खाना-पीना बंद हो जाता है और सब वापस कबीरपंथ या राधास्वामी या साहेब या सतनाम या बंदगी छोड़कर वर्णाश्रम के खोल में वापस लौट आते हैं।

चर्चा के दौरान लोग आते जाते हुए प्रवचनकार सज्जन के पैर छूते रहे और कबीर की वाणी में आये गुरु गोविंग दोउ खड़े काके लागु पांय, मैं तो राम की लुगइया, रस गगन गुफा में अजर झरे, सुन्न महल, कुण्डलिनी और षड्चक्र और न जाने क्या क्या चल रहा था। लेकिन बार बार पूछने पर भी ये बात कोई नहीं करना चाहता कि आप लोगों के इलाके में हैण्ड पम्प क्यों नहीं है? आपके बच्चों को स्कूल में पढने क्यों नहीं दिया जाता? आपके युवाओं को रोजगार क्यों नहीं दिया जाता? आपके बर्तनों को कुवें से लात मारकर क्यों फेंक दिया जाता है? आपकी स्त्रीयों को आसान शिकार क्यों समझा जाता है?

इन प्रश्नों पर कबीर की तरफ से उत्तर दिए गये हैं लेकिन वे उत्तर कबीरपंथ से गायब हैं। कबीरपंथियों ने जिस कबीर को रचा है वह सिर्फ आत्मा परमात्मा और मोक्ष की बात करता है। ठीक उसी तरह जैसे भारतीय ध्यानियों ने जिस बुद्ध को रचा है वह सिर्फ ध्यान समाधि और निर्वाण की बात करता है समाज की कोई बात नहीं करता।

क्या इन कबीरपंथियों ने कबीर को गलत समझा है? या ये सिलेक्टिव ढंग से कबीर को जिस तरह से रख रहे हैं उसमे कोई गलती है? या क्या यह कहा जा सकता है कि कबीर ने खुद ही कुछ गलती की है? ये बड़े प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढना बड़ा मुश्किल है लेकिन एक सावधान नजर से देखें तो इनका उत्तर मिलता है। आइये उस उत्तर में प्रवेश करें।

कबीर हो या बुद्ध हों, उनकी वाणी में कोई भी बात हो या कैसी भी समझाइश दी गयी हो, उसका अनुवाद या भावार्थ सीधे सीधे क्या जनता तक पहुँच रहा है? क्या उनके साहित्य में मिलावट करने वालों ने मिलावट के बाद उसकी व्याख्या का अधिकार दूसरों को दिया है? या यह एकाधिकार खुद ही अपने पास सुरक्षित रख लिया है? कबीर के बारे में दावे से कहा जा सकता है कि उनके काव्य को जिस तरह से अनुदित किया गया है और उनके चुने गये प्रतीकों और बिंबों में जिस तरह से वेदान्तिक अर्थ डाले गये हैं उससे कबीर अपने ही लोगों के लिए खतरनाक बना दिए गये हैं।

अगर कबीरपंथी अपनी रविवारीय बठक में आत्मा परमात्मा और बंकनाल, सुन्न महल और राम की भक्ति जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हैं तो वे शिक्षा, स्वास्थय, रोजगार और राजनीति पर कब बात करेंगे? अपने शोषण के मुद्दों पर या अपने जीवन के जरुरी मुद्दों पर कब बात करेंगे? हफ्ते भर जी तोड़ मेहनत करने के बाद एक दिन या एक शाम मिलती है जिसमे समाज के असल मुद्दों पर कोई सार्थक बात की जा सकती है।

लेकिन उसमे भी आत्मा परमात्मा का भूत छाया रहता है। गाँव के युवा इन बातों को अव्वल तो सुनते ही नहीं या सुनते भी हैं तो वे भक्त बनकर बैठते हैं, हाथ जोड़कर गर्दन हिलाते हुए हुंकारा देते रहते हैं। कबीर के साथ भी समाज में बदलाव की कोई बात नहीं हो रही है। बल्कि समाज में बदलाव की बात को अध्यात्म के जहर में दबाया जा रहा है। यह एक चमत्कार है। यही बुद्ध के साथ हो रहा है। भारतीय पंडितों और बाबाओं ने जिस तरह से बुद्ध को “अनुभव” “ध्यान” और “निर्वाण” जैसी बातों में लपेटा है उससे बुद्ध की क्रान्ति लगभग खत्म सी हो गयी है। लोग भूल ही गये हैं कि बुद्ध ने जहर की त्रिमूर्ति – आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म को नकारकर एक नयी भौतिकवादी जीवन दृष्टि दी है जो परलोक को खत्म करके समतामूलक और वैज्ञानिक समाज को संभव बनाता है।

स्वयं बुद्ध की परम्परा में घुसे वेदान्तियों ने जैसा महायान खड़ा किया उसने बुद्ध को और बौद्ध धर्म को इस देश से उखाड़ फेंका और फिर से परलोकी अन्धविश्वास का धर्म यहाँ फ़ैल गया। भारत के बाहर भी जो बौद्ध धर्म है वह महायानी अंधविश्वास और स्थानीय समझौतों की खिचडी से बना हुआ है। इस तरह के परलोक्वादी और समझौतावादी बौद्ध धर्म को  अंबेडकर ने सिरे से खारिज किया है।

लेकिन अब सवाल ये है कि क्या अंबेडकर को भी कबीर और बुद्ध की तरह खत्म कर दिया जाएगा? जिस तरह कबीर और बुद्ध की धारा को परलोक और मोक्ष की चादर में लपेटकर खत्म किया गया है, क्या उसी तरह अंबेडकर को खत्म करना संभव है?

मेरा उत्तर है कि अंबेडकर को पचाना और उन्हें नष्ट करना असंभव है।

बुद्ध और कबीर का साहित्य नष्ट कर दिया गया, उनके नाम पर झूठे सूत्र और साखियाँ लिखकर उनके मूल सन्देश को समाप्त कर दिया गया है। ब्रिटिश खोजियों और राहुल सांस्कृत्यायन की खोज के पहले लोग बुद्ध को और उनके साहित्य को जानते भी नहीं थे। हजारों साल तक बुद्ध और उनका साहित्य लुप्त रहा, जो मिला है उसमे भी वेदांती मिलावट है। इस मिलावट का महिमामंडन करने के लिए ओशो रजनीश और अन्य वेदांती बाबाओं ने बुद्ध को प्रच्छन्न वेदांती बनाकर पेश किया है। लेकिन अंबेडकर का पूरा नहीं तो लगभग अधिकाँश साहित्य हमारे पास है। उनकी जीवनी और उनका कर्तृत्व हमारे पास सुरक्षित है। उनके द्वारा महायान और हीनयान दोनों को अस्वीकार करते हुए “नवयान” की रचना करना और हिन्दू धर्म को त्यागने का निर्णय हमारे पास है। उनकी बाईस प्रतिज्ञाएँ हमारे पास हैं। अब हमें कोई डर नहीं कि अंबेडकर की वाणी में या उनके लेखन में मिलावट की जा सके। डर सिर्फ इस बात का है कि हमारे ही लोग उन्हें पढ़ना समझना बंद करके उनकी पूजा न करने लगें। अंबेडकर के दुश्मन यही चाहते हैं कि हम अंबेडकर को पढ़ना छोड़ दें और उन्हें पूजना शुरू कर दें। अगर यह होता है तो अंबेडकर भी हमसे छीन लिए जायेंगे।

अगर हम बुद्ध और कबीर की तरह अंबेडकर को खोने नहीं देना चाहते हो हमें अंबेडकर को घर घर तक उनके मूल साहित्य और विश्लेषण के साथ पहुंचाना होगा। उनकी लिखी बाईस प्रतिज्ञाओं को सबसे पहले लोगों को समझाना होगा। कम से कम भारत के गरीबों को समझाना होगा कि अंबेडकर ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गौरी गणेश, राम कृष्ण, आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म और इश्वर सहित आत्मा तक को नकारा है और इनसे तथा पूजा पाठ और भक्ति आदि से दूर रहने की सलाह दी है।

हमारे युवाओं को इस बात पर ध्यान देना चाहिए, आज हम उसी दौर में जी रहे हैं जिस तरह के दौर में अतीत में बुद्ध और कबीर को षड्यंत्रकारियों ने खत्म किया था। इस षड्यंत्र में हम अंबेडकर को नहीं फंसने देंगे, आइए यह संकल्प लें और अंबेडकर को खुद समझते हुए दूसरों को भी समझाएं।

किसानों का भारत बंदः 25 राज्यों में 10 हजार जगहों पर रहा बंद

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भारत में किसानों का आंदोलन चरम पर है। कृषि बिल को लेकर 8 दिसंबर को किसानों ने बंद बुलाया था। इस बीच देश के 25 राज्यों में 10 हज़ार जगहों पर बंद की खबर है। पंजाब, हरियाणा और तेलंगाना में पूर्ण बंद होने की खबर है तो कर्नाटक में 100 तालुका में पूर्ण बंद की सूचना है। जबकि भारत के तमाम अन्य हिस्सों में भी बंद का असर दिखा। महाराष्ट्र के बुलढाणा में रेल रोकी गई। खास बात यह रही कि जो सड़क पर नहीं उतरे थे, वो भी किसानों का समर्थन कर रहे थे। जहां तक किसानों की बात है तो वो अपनी मांगों पर अडिग हैं। उनकी मांग है कि सरकार तीनों कानून वापस ले और  MSP की गारंटी दे। बंद की खास बात यह भी रही कि कनाडा के शहर ब्रैम्पटन में पंजाबी समुदाय के लोगों की ओर से दिल्ली में धरने पर बैठे किसानों के समर्थन में एक रैली निकाली गई। किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने किसानों को मिलने के लिए बुलाया।    

किसान आंदोलनः कृषि मंत्री की बजाय गृहमंत्री अमित शाह क्यों कर रहे हैं बात

भारत में किसानों का आंदोलन चरम पर है। कृषि बिल को लेकर 8 दिसंबर को किसानों ने बंद बुलाया था। 25 राज्यों में सफल भारत बंद की खबर है। इस बीच शाम को जब सरकार की ओर से बातचीत का न्यौता आया तो सभी चौंक गए। किसानों से बातचीत के लिए कृषि मंत्री नहीं, बल्कि बातचीत का न्यौता गृहमंत्री अमित शाह की ओर से आया। दरअसल सरकार को लग रहा था कि किसान आंदोलन दम तोड़ देगा, लेकिन जिस तरह किसानों ने सड़क पर उतर पर सरकार के खिलाफ खम ठोक दिया, उससे सरकार सकते में आ गई। सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी किसान डिगने को तैयार नहीं थे। स्वराज इंडिया के योगेन्द्र यादव भी किसानों के बंद के समर्थन में उतरे थे। उन्होंने दावा किया कि देश के 25 राज्यों में 10 हज़ार जगहों पर बंद हुआ है। पंजाब, हरियाणा और तेलंगाना में पूर्ण बंद होने की खबर है तो कर्नाटक में 100 तालुका में पूर्ण बंद की सूचना है। जबकि भारत के तमाम अन्य हिस्सों में भी बंद का असर दिखा। महाराष्ट्र के बुलढाणा में रेल रोकी गई। खास बात यह रही कि जो सड़क पर नहीं उतरे थे, वो भी किसानों का समर्थन कर रहे थे। यानी कुल मिलाकर देश के आम जनता की भावना किसानों के साथ है। जहां तक किसानों की बात है तो वो अपनी मांगों पर अडिग हैं। उनकी मांग है कि सरकार तीनों कानून वापस ले और MSP की गारंटी दे। बंद की खास बात यह भी रही कि कनाडा के शहर ब्रैम्पटन में पंजाबी समुदाय के लोगों की ओर से दिल्ली में धरने पर बैठे किसानों के समर्थन में एक रैली निकाली गई। माना जा रहा है कि देश के तमाम हिस्सों की इन खबरों पर सीधे प्रधानमंत्री मोदी की ओर से गृहमंत्री अमित शाह नजर बनाए हुए थे। इसलिए किसानों को बैठक के लिए कृषि नहीं गृह मंत्री का फोन आया। इससे एक बार फिर यह साबित हो गया कि मोदी सरकार में तमाम मंत्रियों की अहमियत कितनी है। प्रधानमंत्री मोदी चाहे जिसे जो जिम्मेदारी दें, उन्हें भरोसा सिर्फ अमित शाह पर ही है।

हरामी व्यवस्थाः मोदी-शाह के गुजरात में दलित युवक से हुई बड़ी ज्यादती

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देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के गृहराज्य गुजरात में दलित समाज के एक युवक से ऊंची जाति के लोगों ने इसलिए मारपीट की क्योंकि उसने कथित ऊंची जाति जैसा ‘सरनेम’ रखा था। मामला गुजरात के साणंद जिले का है। 21 साल के युवक भरत जाधव गुजरात के गिर सोमनाथ जिले के वेरावल तालुका के भेटड़ी गांव से ताल्लुक रखते हैं। पिछले कुछ महीनों से वो अहमदाबाद के नजदीक साणंद जीआईडीसी में एक कारखाने में काम कर रहे थे। यहीं कथित ऊंची जाति ‘दरबार’ जाति के एक जातिवादी गुंडे हर्षद ने उनके साथ मारपीट की। आरोपी जातिवादी गुंडे भरत से इसलिए भी नाराज थे, क्योंंकि वह अपनी शर्ट के बटन खोलकर रखता था। पीड़ित भरत के साथ रात को 10 बजे के करीब स्थानीय बस स्टैंड पर हर्षद और उनके साथी गुंडों ने मारपीट की। भरत की हालत देखकर बस कंडेक्टर ने भरत को घटना की रिपोर्ट लिखवाने को कहा, जिसके बाद भरत ने रिपोर्ट लिखवाई। 24 घंटे से ज्यादा समय तक मामले को टालने के बाद बड़े अधिकारियों से गुहार करने और भरत के पक्ष में आए स्थानीय लोगों के दबाव के बाद जाकर आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। गौरतलब है कि भरत के पिता बाबूभाई जाधव वेरावल तालुका में एक खेतिहर मजदूर हैं, लेकिन उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया। भरत ने 10वीं पास करने के बाद मैकेनिकल इंजीनियरिंग का कोर्स किया और राजकोट में आगे की पढ़ाई कर रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन क्लास चल रही थी, जिसके कारण वो पढ़ाई के साथ-साथ काम भी कर रहे थे, ताकि परिवार की मदद कर सकें और आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए पैसे जोड़ सकें। लेकिन हरामी जातिवादी व्यवस्था के रखवालों को यह पसंद नहीं था कि दलित समाज का एक युवा जीवन में आगे बढ़े। भारत लोकतांत्रिक देश है लेकिन यहां सरनेम और नाम भी कुछ गुंडे अपनी बपौती समझते हैं।

न्यूज सोर्स- बीबीसी, फोटो क्रेडिट- बीबीसी

किसानों के समर्थन में उतरी बसपा, बहनजी ने दिया बड़ा बयान

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किसानों के समर्थन में तमाम विपक्षी दल सामने आ गए हैं। इसी क्रम में बहुजन समाज पार्टी भी किसानों के पक्ष में उतर गई है। बसपा प्रमुख मायावती ने इस संबंध में बड़ा बयान दिया है। बसपा प्रमुख मायावती ने किसानों के समर्थन में ट्विट किया है। अपने ट्विट में उन्होंने लिखा- कृषि से सम्बंधित तीन नये कानूनों की वापसी को लेकर पूरे देश भर में किसान आन्दोलित हैं व उनके संगठनों ने दिनांक 8 दिसम्बर को ’’भारत बंद’’ का जो एलान किया है, बी.एस.पी उसका समर्थन करती है। साथ ही, केन्द्र से किसानों की माँगों को मानने की भी पुनः अपील। इसके अलावा सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी किसानों के समर्थन में सड़क पर उतर गए हैं। सोमवार को उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार भी कर लिया। कांग्रेस पार्टी भी भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है।

किसानों के समर्थन में अवार्ड वापसी को अड़े 30 खिलाड़ी

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किसानों के आंदोलन को देश भर में समर्थन मिल रहा है। हर क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति किसानों के साथ खड़े हैं। इसी क्रम में 30 खिलाड़ी अपने-अपने अवार्ड लौटाने पर अड़ गए हैं। आज सुबह वो अवार्ड लौटाने के लिए राष्ट्रपति भवन की ओर गए लेकिन पुलिस ने उन्हें रास्ते में ही रोक दिया। अवार्ड वापसी को अड़े 30 खिलाड़ी में कई प्रमुख नाम शामिल हैं। इसमें बॉक्सर विजेंदर सिंह भी शामिल हैं, जिन्होंने नए कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने की स्थिति में राजीव गांधी खेल रत्न सम्मान लौटाने की धमकी दी। गौरतलबहै कि तमाम बड़े खिलाड़ियों का संबंध पंजाब और हरियाणा से है। कृषि कानून के खिलाफ सड़कों पर भी इन्हीं दोनों प्रदेशों के किसान सबसे ज्यादा हैं। देश के नामचीन खिलाड़ियों के इस कदम से केंद्र सरकार काफी दबाव में आ गई है। साथ ही अब वह कृषि बिल के मुद्दे पर चारो ओर से घिरती नजर आ रही है। देखना है कि 8 दिसंबर के भारत बंद में क्यो होता है।

धर्मान्तरण से हिंदुओं को मिर्ची क्यों लगती है?

लेखकः कँवल भारती

1993 में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने, जो कांग्रेस की थी, राजनीति में धर्म का उपयोग रोकने के लिए संसद में धर्म-विधेयक प्रस्तुत किया था। जाहिरा तौर पर कांग्रेस का मकसद भाजपा के मंदिर आन्दोलन को रोकना था। पर हुआ उल्टा। भाजपा और संघ परिवार ने उस विधेयक को हिंदू धर्म पर प्रहार के रूप में प्रचारित कर पूरे देश के माहौल को हिंदुत्व से गरमा दिया था। उसने ग्यारह हजार किलोमीटर लम्बी हिंदुत्व-यात्रा निकाली। हिंदू अख़बारों ने इस मुद्दे को और ज्यादा उछाला, बड़े-बड़े अग्रलेख लिखे गए, और  लेखकों ने हिंदू धर्म की अजब-गजब परिभाषाएं दीं। उसी दौर में सुप्रीमकोर्ट ने भी हिंदुत्व को आरएसएस की मनमाफिक  परिभाषित करते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया। वह विधेयक टायं- टायं फिस हो गया। 1999 में आरएसएस और भाजपा ने सोनिया गाँधी के बहाने पूरे देश में धर्मान्तरण के विरोध में ईसाईयों और उनके चर्चों पर हमले कराए। उनके द्वारा  ईसाईयों के खिलाफ बड़े-बड़े झूठ के पहाड़ खड़े किए गए। उसी तरह मुस्लिम मदरसों के खिलाफ लगातार झूठा प्रचार किया गया, उन्हें आतंकवाद के अड्डे बताया गया। इस सारे झूठ के पीछे आरएसएस और भाजपा का एक ही मकसद था, दलित जातियों को दलित बनाकर रखना।

 वाजिब सवाल है कि आरएसएस और भाजपा को धर्मान्तरण से मिर्ची क्यों लगती है, जो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने धर्म-परिवर्तन के खिलाफ ‘प्रतिषेध अध्यादेश 2020’ पास कर दिया? राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद यह कानून बन गया है, और अब उत्तर प्रदेश में धर्मान्तरण गैर-कानूनी हो जायेगा।

जब भारत का संविधान अनुच्छेद 25 यह आजादी देता है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कोई भी धर्म चुन सकता है, तो उत्तर प्रदेश के भगवाधारी मुख्यमंत्री के दिमाग में धर्म-परिवर्तन के खिलाफ उल्लू कैसे बैठ गया? संविधान की शपथ खाकर पदासीन कैबिनेट ने संविधान-विरोधी इस अध्यादेश को पास कैसे कर दिया? अनुच्छेद 25 में यह भी कहा गया है कि राज्य अपना कोई धर्म स्थापित नहीं करेगा, और न किसी विशिष्ट धर्म को प्रोत्साहित करेगा। फिर योगी आदित्य नाथ, जो मनुस्मृति की नहीं, भारतीय संविधान की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठे हैं, हिंदू धर्म को राज्य-धर्म बनाकर उसे प्रोत्साहित करने में सरकारी खजाना क्यों लुटा रहे हैं?

वास्तव में तो इस घोर संविधान-विरोधी कार्य के लिए योगी और उनकी पूरी सरकार बर्खास्त होनी चाहिए, पर कौन बर्खास्त करेगा, जब सईंयाभये कोतवाल? आरएसएस और केन्द्र में मोदी सरकार का पूरा समर्थन योगी को मिला हुआ है। राज्यपाल भी भाजपाई हैं, उनसे अपेक्षा ही नहीं की जा सकती कि वह अध्यादेश को खारिज करेंगी। इसे अब कोर्ट के द्वारा ही रोका जा सकता है। अगर कोर्ट द्वारा भी नहीं रोका गया, तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा, क्योंकि संविधान द्वारा निर्मित राज्य का धर्मनिरपेक्ष ढांचा ध्वस्त हो जायेगा। और उसकी जगह हिंदुत्व राज्य का धर्म बन जायेगा, जो अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों और उन लोगों के लिए, जो हिंदुत्व से पीड़ित समुदाय हैं, विनाशकारी होगा।

 उत्तर प्रदेश के भाजपाइयों में योगी के धर्म-परिवर्तन-विरोधी अध्यादेश को लेकर खुशी की लहर दौड़ रही है। मुख्यमंत्री योगी को ऐसी बधाइयाँ  दी जा रही हैं, जैसे योगी ने पाकिस्तान की लड़ाई जीत ली है। और सीएम योगी के चेहरे पर जैसे संविधान को परास्त करने का दर्प झलक रहा है। पर सच यह है कि गुरु गोरखनाथ की आत्मा उनको लाख-लाख धिक्कार भेज रही है, जिसने चिल्ला-चिल्लाकर कहा था :

उत्पति हिंदू जरणा जोगी अकलिपरिमुसलमांदी । हिन्दू ध्यावैदेहुरा मुसलमान मसीत। जोगी ध्यावैपरमपद जहाँ देहुरा न मसीत।

इसका मतलब है जन्म से जोगी हिंदू है, पर अकल से मुसलमान है। हिंदू मंदिर में ध्यान लगाता है, और मुसलमान मस्जिद में इबादत करता है। पर जोगी वह है, जो मस्जिद-मंदिर से परे परम पद का ध्यान करता है।

   जोगी अपने विधि-विरोधी अध्यादेश की तारीफ़ में कहते हैं कि धर्म-परिवर्तन करने वालों को अब दस साल तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है। यह कहते हुए उन्होंने जरा भी नहीं सोचा कि धर्म मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है। और व्यक्तिगत रूप से इतिहास में सबसे ज्यादा धर्म-परिवर्तन ब्राह्मणों और ठाकुरों ने किया है। अब ब्राह्मण-ठाकुर धर्म-परिवर्तन क्यों नहीं कर रहे हैं, क्योंकि अब वे भारत में स्वयं शासक वर्ग हैं। जब वे शासक वर्ग नहीं थे, तो उन्होंने हर धर्म में प्रवेश किया। और जिन धर्मों में भी वे गए, अपनी जातिव्यवस्था साथ लेकर गए, और उनको भी दूषित कर दिया। अगर ब्राह्मण-ठाकुर धर्मान्तरण नहीं करते, तो मानवता पर बहुत बड़ा उपकार करते।

   जिस तरह मनुस्मृति में द्विजों के मामले में सबसे कम और शूद्रों को अधिक दंड दिए जाने का प्रावधान है, उसी प्रकार योगी सरकार के अध्यादेश में सामान्य वर्ग के धर्मान्तरण के मामले में पांच वर्ष तक की सजा और 15 हजार रुपए के जुर्माने का प्रावधान है, किन्तु दलित वर्ग से सम्बन्धित धर्मान्तरण के मामले में 10 वर्ष की सजा और 25 हजार रुपये के  जुरमाने का प्रावधान किया गया है। लगता है, योगी सरकार ने यह दंड-विधान भी मनुस्मृति से ग्रहण किया है। यह विशेषता हिंदू वर्णव्यवस्था की ही है कि वह किसी क्षेत्र में समानता पसंद नहीं करती। असमानता का यह सिद्धांत मनु ने असल में शूद्रों का दमन करने के लिए बनाया था। योगी ने भी उसी आधार पर दलितों का दमन करने के लिए असमान दंड-विधान को मंजूरी दी है। आखिर योगी को दलितों के धर्मान्तरण से क्या परेशानी है? परेशानी वही है, जो मनु को थी। जिस कारण से मनु शूद्रों का दमन करना चाहता था, उसी कारण से योगी की हिंदू सरकार भी दलितों का दमन करना चाहती है। दूसरे शब्दों में जिस कारण से मनु शूद्रों को स्वतंत्रता देना नहीं चाहता था, उसी कारण से योगी का हिंदुत्व भी दलितों को स्वतंत्रता नहीं देना चाहता। मनु की तरह योगी भी दलितों की स्वतंत्रता छीनकर उन्हें दलित ही बनाकर रखना चाहते हैं।

buddhismमुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने धर्मान्तरण के विरुद्ध अध्यादेश लाने के पीछे ‘लव-जिहाद’ को कारण बताया है, जबकि सच्चाई यह है कि लव-जिहाद एक मिथक है; इसका कोई वजूद अभी तक नहीं पाया गया है। हिंदू युवक और मुस्लिम युवती के बीच अथवा मुस्लिम युवक और हिंदू युवती के बीच प्रेम-विवाह की जितनी भी घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सभी सामान्य मानवीय प्रेम की घटनाएँ हैं। किसी जाँच एजेंसी को उनमें मुस्लिम जिहाद का हाथ होने का प्रमाण नहीं मिला। हालाँकि हिंदू-मुस्लिम युवतियों से प्रेम और विवाह करने की अधिकांश घटनाएँ भाजपा और आरएसएस के खेमे में ही हुई हैं। मुरली मनोहर जोशी, लालकृष्ण अडवानी, प्रवीण तोगडिया, अशोक सिंघल, रामलाल जैसे दिग्गज भाजपाई नेताओं के परिवारों ने मुस्लिम परिवारों में शादियाँ की हैं। वहाँ भाजपा और आरएसएस ने लव-जिहाद का प्रश्न क्यों नहीं उठाया? दलित जातियों के मामले में ही आरएसएस और भाजपा को लव-जिहाद क्यों नजर आता है?

 असल में लव-जिहाद तो बहाना है, असल मकसद दलितों के धर्मान्तरण को रोकना है। अगर ऐसा न होता, तो योगी द्वारा अध्यादेश में सामूहिक धर्म-परिवर्तन पर रोक क्यों लगाई गयी, जिसके तहत 10 वर्ष की जेल और 50 हजार रूपए के अर्थ-दंड का प्रावधान है।

मुझे इसका कारण, गत दिनों हाथरस कांड के बाद, गाजियाबाद में कुछ दलितों द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने का मामला लगता है। बौद्ध धर्मान्तरण की यह घटना जब अख़बारों में छपी थी, तो जिला  प्रशासन के अधिकारियों द्वारा धर्मान्तरित दलितों को, जो वाल्मीकि समुदाय से थे, काफी परेशान किया गया था। विगत में भी जिन वाल्मीकियों ने ईसाई-धर्म अपनाया था, आरएसएस के संगठन उनकी जबरन घर-वापसी करा चुके हैं। अब जब वे बौद्ध-धर्म अपनाना चाहते हैं, तो आरएसएस और भाजपा की योगी सरकार ने उसको रोकने का प्रावधान अध्यादेश में कर दिया। इसका साफ़ अर्थ है, कि हिन्दुत्ववादी ताकतों को दलितों का बौद्ध-धर्म अपनाना भी स्वीकार नहीं है। वे दलितों का आध्यात्मिक विकास नहीं चाहतीं। वे चाहती हैं कि दलित जातियों के गरीब लोग जीवन-भर दलित ही बने रहें, और जिस नर्क में रह रहे हैं, उसी में पड़े सड़ते रहें।

यह न केवल संविधान के विरुद्ध है, बल्कि एक वर्ग विशेष के आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध करने वाली फासीवादी तानाशाही भी है। यह अध्यादेश अगर कानून बन गया, तो यह दलितों की स्वतंत्रता का दमन करने वाला सबसे खतरनाक, बदसूरत और घृणित कानून होगा।

भाजपा और आरएसएस ने वाल्मीकि समुदाय को महादलित के नाम पर पहले ही आंबेडकरवादी दलितों से अलग कर दिया है। हालाँकि इसके बावजूद उनमें डॉ. आंबेडकर की शिक्षा का प्रचार चल रहा है, और शिक्षित वाल्मीकि उससे प्रभावित होकर हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी ढांचे से बाहर निकल रहे हैं। गाज़ियाबाद में हुआ बौद्ध-धर्मान्तरण उसी का परिणाम था, जिससे हिन्दुत्ववादी शासक वर्ग यह सोचकर भयभीत हो गया कि अगर वाल्मीकि समुदाय डॉ. आंबेडकर की चेतना से लैस हो गया, और बौद्ध हो गया, तो गटर-नालियां कौन साफ़ करेगा, और मल-मूत्र कौन उठाएगा? सिर्फ इसी कारण से भाजपा की सरकारें न उनकी उच्च शिक्षा चाहती हैं और न उनका पुनर्वास। क्या योगी सरकार सिर्फ यही चाहती है कि दलित जातियों का भौतिक और सामाजिक विकास न हो, और सवर्ण जातियों का ही सर्वत्र विकास होता रहे, और वे ही सारी स्वतंत्रता के अधिकारी हों?

अध्यादेश में कहा गया है कि धर्म-परिवर्तन के इच्छुक व्यक्ति या व्यक्तियों को दो माह पहले जिला मजिस्ट्रेट को सूचना देनी होगी और धर्म बदलने के लिए उसकी अनुमति प्राप्त करनी होगी। क्या यह कल्पना की जा सकती है कि कोई मजिस्ट्रेट अनुमति देकर सरकार को नाराज करने का जोखिम लेगा? वह अनुमति देना तो दूर, अनुमति के आवेदक को ही जेल भिजवा देगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं।

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मोदी सरकार की अनदेखी से साठ लाख दलित बच्चों का भविष्य अधर में

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दलित और आदिवासी समाज के लिए केंद्र की मोदी सरकार भले ही कितने भी दिखावे कर ले, हकीकत यह है कि भाजपा की सरकार दलितों और आदिवासियों को कमजोर और लाचार ही बनाए रखना चाहती है। हाल ही में आई एक खबर इस पर मुहर भी लगाती है। दरअसल केंद्र की मोदी सरकार की अनदेखी की वजह से दलित समाज के उन साठ लाख बच्चों का भविष्य अधर में अटक गया है, जो सरकारी स्कॉलरशिप के भरोसे अपनी 10वीं और 12वीं की पढ़ाई पूरी करते थे। देश के दर्जन भर से ज्यादा राज्यों के उन तकरीबन 60 लाख बच्चों को मिलने वाली सेंट्रल स्कॉलरशिप बंद होने की कगार पर है, जो राज्य सरकारों को 2017 फार्मूला के अंतर्गत दिया जाता था।

 पिछले लगभग एक साल से मंजूरी की राह जोह रहे इस मुद्दे को हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने रखा गया है, जिस पर चर्चा होने की खबर है। सरकारी योजना के तहत 10वीं और 12वीं में पढ़ने वाले अनुसूचित जाति के स्कूली छात्रों को शत् प्रतिशत छात्रवृति मिलती है, जबकि अनुसूचित जनजाति के छात्रों को 75 प्रतिशत केंद्रीय वित्तपोषित छात्रवृति मिलती है।

हालांकि उच्च स्कूली शिक्षा हासिल करने वाले 60 लाख अनुसूचित जाति के विद्यार्थी केंद्र के टालमटोल वाले रवैये के कारण फंड की कमी का सामना कर रहे हैं। इसके कारण तमाम राज्य या तो इस छात्रवृति योजना को धीरे-धीरे बंद कर रहे हैं या फिर बीते कुछ सालों से बहुत सीमित मात्रा में चला रहे हैं। पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप स्कीम के तहत अनुसूचित जाति के छात्रों को साल में 18 हजार रुपये की मदद मिलती है, जिससे उन्हें अपनी 11वीं-12वीं की शिक्षा पूरी करने में काफी मदद मिलती है।

पंजाब, हरियाणा, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, बिहार, वेस्ट बंगाल और उत्तराखंड उन राज्यों में से है, जो लगातार सोशल जस्टिस एंड इंपावरमेंट मिनिस्ट्री के सामने इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। वहीं वित्त मंत्रालय से यह मांग की जा रही है कि वह 60-40 के अनुपात के तहत केंद्र और राज्य के फंडिंग पैटर्न को वापस लागू करे, जिससे स्कॉलरशिप के तहत विद्यार्थियों को हॉस्टल, मेनटेनेंस फी और ट्यूशन फी बिल आदि का भुगतान किया जा सके। वहीं दूसरी ओर इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भाजपा पर निशाना साधा है। राहुल गांधी ने इस रिपोर्ट को आधार बनाते हुए ट्विट किया कि भाजपा और आरएसएस नहीं चाहते कि दलितों और आदिवासियों तक शिक्षा पहुंचे।

 हालांकि सच्चाई यह है कि पांच दशक से ज्यादा समय तक देश की सत्ता पर काबिज रहने के दौरान कांग्रेस ने भी दलित-आदिवासी समाज के उत्थान के लिए कुछ खास नहीं किया। तो सबका साथ-सबका विकास का दावा करने वाली भाजपा सरकार भी लगातार दलित और आदिवासी समाज के हितों की अनदेखी करती रही। यह रिपोर्ट भी इसका सबूत है। दरअसल हकीकत यह है कि देश की सत्ता पर हमेशा से ऊंची जातियों का कब्जा रहा है, आजादी के सात दशक बाद भी वंचित जातियों की जो स्थिति है, वह साफ बताती है कि ये जातियां कभी भी नहीं चाहती कि दलित और आदिवासी समाज आगे बढ़े। खास तौर पर बात जब शिक्षा की हो तो वंचितों की राह में खूब रोड़े अटकाए जाते हैं। क्योंकि शिक्षा कमजोर जातियों की मुक्ति की राह खोलती है, और मजबूत जातियां नहीं चाहती कि हाशिये पर पड़ा समाज मुक्त हो। देखना यह है कि इस मामले के तूल पकड़ने के बाद केंद्र की भाजपा सरकार क्या वंचित समाज के विद्यार्थियों के हित में फैसले लेती है, या फिर से इसे आगे के लिए टाल देगी।


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दीपावली का एक सच यह भी है

 Written By- संजय श्रमण
आर्य जब भारत मे प्रवेश कर रहे थे तब उनके पास इन्द्र था, भारत मे वैदिक से पौराणिक काल तक आते आते उनके पास ब्रह्मा, विष्णु, शिव और अन्य हजारों पात्र आ गए। बीते दो सौ साल मे साईं बाबा और संतोषी मैया भी आ गयीं।
अब संत कबीर और रैदास भी उनके हुए जा रहे हैं, बाबा साहब को भी वे हड़पने की कोशिश मे हैं।
अब दुबारा सोचिए, जिन लोगों ने इतना व्यवस्थित षड्यन्त्र रच डाला हो क्या मूल भारतीय त्योहारों को उन लोगों ने नहीं छेड़ा होगा?
ऐसा हो ही नहीं सकता कि उन्होंने भारतीय श्रमण/ट्राइबल त्योहारों मे अपने प्रतीक और नेरेटिव न मिलाए हों।
भारत ही नहीं दुनिया के सभी त्योहार अपनी मिट्टी और अपनी एतिहासिक प्रष्ठभूमि मे उगते हैं। अभी भी पूरे ईसाई जगत मे पेगन धर्मों और संस्कृतियों के त्योहार बदले हुए नेरेटिव और प्रतीकों मे कुछ हेरफेर के साथ चलते हैं। होलोवीन और सेन्टा क्लाज़ जीसस और मोज़ेस से भी बहुत पुराने हैं। हर नया धर्म पुराने त्योहारों को अपने मेटाफिजिक्स और दर्शन के अनुरूप कस्टमाइज़ करता है। यह इतिहास सिद्ध प्रक्रियाएं हैं जिन्हे कोई नकार नहीं सकता।
इसका यह मतलब भी नहीं है कि जो लोग आज दिवाली माना रहे हैं वे अपराधी हैं, या फिर जो दीपदानोत्सव को फिर से खोज रहे हैं वे किसी से कोई बदला ले रहे हैं।
एक ही देश मे एक ही समाज मे एक ही त्योहार के कई पहलू होते हैं। समाज मे अलग अलग श्रम आधारित विभाजन हैं, कोई किसान है कोई लोहा बनाता है कोइ कपड़ा बुनता है इत्यादि इत्यादि। जब उत्सव होता है तो सभी को उसमे अपने हिस्से के आनंद की रचना करने और उसे भोगने का अधिकार मिलता है। यही संस्कृति का विराट फलक है। जो लोग एक दूसरे को मित्र या शत्रु मानते हैं ये संस्कृति उन दोनों को अपनी ममता का दूध पिलाती है।
अब मामला बस इतना है कि अगर नए धर्म ने पुराने धर्म के त्योहारों को बदलकर उसमे “शोषण” और विभाजन का कोई नेरेटिव मिला दिया है तो शोषण से बचने के मार्ग और मेथडोलोजी की रचना करते हुए उस शोषक नेरेटिव को बेनकाब करना होगा। अगर हमारे त्योहारों मे आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म से जुड़ी कोई बीमारी मिला दी है तो हमें उस गंदगी को साफ करके अपने त्योहार को ठीक करना होगा। साथ ही उसका एक प्राचीन स्वरूप उजागर करते हुए शोषण मुक्ति की नई डिजाइन मे शेष शोषितों को शामिल करना होगा।
इसका एक अर्थ यह भी है कि प्राचीन धर्म के जिन अनुयायियों को नए धर्म ने शूद्र (ओबीसी) या अतिशूद्र/वनवासी (एससी एसटी/आदिवासी) बना दिया है वे भारत के मौजूदा त्योहारों के पीछे छुपे अपने मूल त्योहारों को खोजकर उन्हे मनाना शुरू करें।
फिर से ध्यान रखा जाए कि जो लोग नए ढंग से दिवाली मना रहे हैं वे भी भारत के नागरिक हैं। संविधान उन्हे समान स्वतंत्रता देता है। आप किसी का विरोध या अपमान किए बिना इतिहास की सच्चाई को उजागर करते हुए अपने पूर्वजों और धर्म की प्रशंसा करें और अपने त्योहार मनाएं।
लेखक संजय श्रमण विचारक हैं। स्कॉलर हैं। संपर्क- sanjayjothe@gmail.com

क्या आप दीपदानोत्सव के नाम पर दीपावली मना रहे हैं?

प्रा यः हर वर्ष दीपावली आते ही दीपावली और दीपदानोत्सव को लेकर चर्चा शुरू हो जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि महाराजा अशोक ने इसी दिन 84 हजार स्तूपों का अनावरण किया था, जिसकी सजावट दीपों से किया गया था, इसलिए इसे दीपदानोत्सव कहते हैं।

प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या अशोक प्रतिवर्ष अनावरण दिवस पर दीपदानोत्सव करते रहे? अशोक ने जिस दिन पाटलीपुत्र में स्तूपों का अनावरण किया था उसी दिन धम्म दीक्षा भी ग्रहण की थी, उस महान दिवस को अशोक धम्म विजय दशमी के नाम से जाना जाता है, अर्थात वह दिन कार्तिक मास की आमावस्या नहीं दसमी का दिन था, फिर आमावस्या के दिन दीपदानोत्सव क्यों?

कुछ लोगों का मत है कि इसी दिन तथागत गौतम बुद्ध संबोधि प्राप्ति के 7वें वर्ष बाद कार्तिक अमावस्या को कपिलवस्तु पधारे थे, यहाँ भी प्रश्न उतपन्न होता है कि कपिलवस्तु आगमन के 38 वर्ष बाद तथागत का महापरिनिर्वाण हुआ, क्या कपिलवस्तु के लोगों द्वारा तथागत बुद्ध के आगमन के पावन स्मृति में पुनः कभी दीपोत्सव जैसा आयोजन किया गया?

उत्तर स्पष्ट है कि कभी नहीं।

तो आज क्यों तथागत बुद्ध के कपिलवस्तु आगमन को दिवाली के रूप में मनाया जा रहा है?

मैंने जितना भी प्राचीन बौद्ध साहित्य या त्रिपिटक साहित्य को पढ़ा है, दीपदानोत्सव के बारे कोई जानकारी नहीं मिलती। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि महाराजा अशोक ने अनावरण के समय दीपदानोत्सव कराया था, लेकिन प्रति वर्ष ऐसा उत्सव देखने को नहीं मिला जबकि वह कई वर्ष जीवित रहे।

आज भी जब लोगों द्वारा कोई नया विहार या आवास बनाया जाता हैं तब उसके उद्घाटन या अनावरण के अवसर पर साज-सज्जा किया जाता हैं। लेकिन प्रति वर्ष इस प्रकार का उत्सव देखने को नहीं मिलता। यदि दीपदानोत्सव का संबंध तथागत बुद्ध या अशोक के जीवन से संबंधित होता तो तथागत बुद्ध के अनुयायी जिन-जिन देशों में गये वहा “बुद्ध पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा, आषाढ़ पूर्णिमा” आदि की भांति यह पर्व भी धूम-धाम से मनाया जाता। लेकिन किसी भी बौद्ध देश में दीपदानोत्सव नहीं मनाया जाता है। इसलिए मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि दीपावली का संबंध बुद्ध-धम्म से नहीं है। इसलिए मेरा मत है कि सांस्कृतिक घालमेल करने से अच्छा है कि दीपदानोत्स का आयोजन इन प्रमुख दिवस पर किया जा सकता हैं-

वैशाख पूर्णिमा आषाढी पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा अशोक धम्मविजय दसमी तथा 14 अप्रैल

श्रद्धालु उपासकगणों को चाहिए कि वह प्रत्येक अमावस्या की भांति इस अमावस्या को भी उपोसथ दिवस के रूप में ही मनाते हुए आठ शीलों का पालन करें। सायं त्रिरत्न वंदना, परितपाठ, ध्यान- साधना तथा धम्म चर्चा करें।

घनसारप्पदित्तेन दीपेन तमधंसिना। तिलोकदीपं सम्बुद्धं पूजयामि तमोनुदं।

इन गाथाओं के साथ भगवान बुद्ध के सम्मुख दीप प्रज्वलित करें। स्मरण रहे कि बुद्धत्व देवत्व से बढ़ कर है। बुद्ध के समकक्ष कोई देव नहीं है। जिसने बुद्ध की पूजा कर ली उसको और किसी को पूजना शेष नहीं रह जाता।


इस आलेख के लेखक भिक्खु चन्दिमा हैं। वह धम्म लर्निंग सेंटर, सारनाथ के फाउंडर हैं। सारनाथ में रहते हैं और धम्म के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। 

तेजस्वी… आपको एक शानदार लड़ाई के लिए बधाई

Written By- लक्ष्मण यादव

इतना भी गुमान न कर आपनी जीत पर ऐ बेखबर, शहर में तेरी जीत से ज्यादा चर्चे तो मेरी हार के हैं।

आपकी (तेजस्वी यादव) हार की चर्चा फिज़ाओं में है। इस पर कई तरह की प्रतिक्रियाएँ भी आ रही हैं। चुनावी राजनीति को चुनावी पैंतरेबाजियों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक हदों के आईने में ही देखना चाहिए। सच तो यह है कि उन हदों के बीच इस शख़्स ने प्रभावित किया। हर दौर में वर्चस्वशाली पूँजी व सामाजिक राजनीतिक वर्चस्व वाली ताक़तों से मुठभेड़ करने का रस्ता बहुत मुश्किल होता ही रहा है। यहां भी था। महागठबंधन के नेता के बतौर आपने अपनी भाषा, अपने नारों व अपनी शैली से चुनावी राजनीति के स्थापित व्याकरण को बदलकर रख दिया। मैं इसे एक शानदार शुरुआत के बतौर देख रहा हूँ। एक नेता की शुरुआत।

आप शानदार लड़े। जिन्हें चुनावी जंग के आगाज़ से पहले ही शिकस्त पाया हुआ मान लिया गया था, उन धारणाओं को आपने बदलकर रख दिया। यह आपके नेतृत्व में बने महागठबंधन ने कर दिखाया। क्योंकि इस चुनाव में एजेंडा महागठबंधन ने सेट किया। पढ़ाई, दवाई, सिंचाई, कमाई, मंहगाई, सुनवाई, कार्यवाही। यह इस चुनाव की सबसे बड़ी जीत है कि यहाँ किसी भी नफ़रती एजेंडे पर चुनाव नहीं लड़ा गया। बावजूद इसके आप हार गए, या सच कहें तो सायास साज़िशन हरा दिए गए हैं। फिर भी इस लड़ाई ने चुनावी राजनीति को लेकर एक आत्मविश्वास तो पैदा कर ही दिया।

तेजस्वी जी, आप हारे ज़रूर हो लेकिन आपने ख़ुद को साबित किया है। बस एक सुझाव ज़रूर देना चाहूँगा। चुनावी राजनीति के दबाव में आपने सामाजिक न्याय की अपनी तेवर वाली भाषा से भी समझौता किया कि ‘सबका’ वोट लेकर आप जीत सकें। समर्थन व वोट मिले भी हैं। लेकिन सामाजिक न्याय के बाद आर्थिक न्याय की बात एक गंभीर चूक है। ‘बाद’ की बजाय ‘साथ’ होना चाहिए था। क्योंकि असल में सामाजिक न्याय में ही आर्थिक, लैंगिक सब न्याय समाहित हैं। वोट के दबाव एक राजनीतिक दल पर होते ही हैं, बावजूद इसके आपने ख़ुद ही तो सामाजिक न्याय की रेडिकल पक्षधरता को लेकर उम्मीद जगाई है। वापस वही तेवर अख्तियार करना चाहिए। सड़क से सदन तक।

 दूसरी बात, सामाजिक न्याय की ज़मीन पर चुनावी राजनीति करने वाले दलों को हर एक जमात के प्रतिभाशाली, तेज़ तर्रार, वैचारिक प्रतिबद्धता वाले युवाओं को मौक़ा देकर अगुआ नेता के बतौर स्थापित करना चाहिए। सामाजिक न्याय पर किसी एक जाति का आरोप बहुत कुछ लील रहा है। कोशिश सब कर रहे हैं, आपने भी की। लेकिन अब इसे प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। किसी राजनीतिक दल में हर कोई अपने खित्ते के ‘अपनों’ को आगे खड़ा देखना चाहता है। क्योंकि अभी समाज बदला नहीं है। वोट जाति देखकर करता है। आप जैसे नेताओं को ‘अपनों’ का और ज़्यादा भरोसा जीतना होगा। माना मुश्किल है, लेकिन इस रस्ते को नहीं छोड़ना चाहिए।

 बाकी हम जैसों की भूमिका यही है कि हम सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों व बदलावों के लिए काम करते रहें। हम जैसे लोग चुनाव नहीं लड़ रहे। इसलिए हम एक आलोचनात्मक नज़रिया हर वक़्त रखते हैं। मौजूदा विकल्पों में सबसे कम पथभ्रष्ट, विचारभ्रष्ट, नैतिकता भ्रष्ट के साथ खड़े होकर सबसे बड़े ख़तरे को हराने की बात करते हैं, क्योंकि चुनावी राजनीति में निर्वात कभी नहीं हो सकता। इसलिए हम महागठबंधन के साथ रहे। इसके साथ ही नए नए विकल्पों के लिए काम करते हैं। वे आदर्श विकल्प, जो वाक़ई फुले बिरसा आम्बेडकर के नाम पर चुनाव लड़ें और जीत कर असल में सामाजिक न्याय करें

आप एक राजनीतिक दल व राजनेता के बतौर उभरे हैं। आपका भविष्य है। कुछ नया किया है, कुछ बेहतर किया है, अथक मेहनत की है। आपको बधाई। जीत कर काम करते तो एक नई इबारत दर्ज़ होती। अफ़सोस कि आपको रोका गया। येन केन प्रकारेण रोका गया। लेकिन अब इसी तेवर को बनाए रखिए। माले जैसे दलों के साथ सड़क से सदन तक आम आवाम के सरोकारी मुद्दों के साथ लड़ेंगे और जीतेंगे। आशा है आप और आपके सलाहकार अपनी सियासी रणनीतियों पर मंथन ज़रूर करेंगे और कुछ और बेहतर लौटेंगे।

लौट कर यक़ीनन मैं एक रोज़ आऊँगा, पलकों पे चराग़ों का एहतिमाम कर लेना।

हमारी दिल की बात पूछें तो हम तो चाहते हैं कि अब पूरे पाँच साल फुले आम्बेडकर पेरियार लोहिया कर्पूरी के रस्ते पर दौड़ पड़ें। मौक़ा है, वक़्त की माँग है, दस्तूर है। वरना चुनावी हार जीत से कहाँ बहुत कुछ हो रहा। जिनसे महागठबंधन की लड़ाई थी, वे निहायत अनैतिक ताक़तें हैं। वे समाज का बहुत नुकसान कर रहीं। समाज लड़ भी रहा है। इसलिए हम जैसे लोग महागठबंधन को जीतता हुआ देखना चाहते थे। हमारी नज़र में तो आप सब जीते भी हो। मग़र छल से हारे। अब फिर से लौटिए। सड़क से लेकर सदन तक सब जगह खाली है।

फ़िलवक्त एक शानदार लड़ाई के लिए बधाई।


लेखक लक्ष्मण यादव जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। आप उन्हें फेसबुक पर यहां फॉलो कर सकते हैं।    

क्या दलित वोटों की अनदेखी और मुस्लिम वोटों को जागीर समझने के कारण चूक गए तेजस्वी

अगर  भारतीय जनता पार्टी अपना मुख्यमंत्री आगे नहीं करती है और नीतीश कुमार पिछले चुनाव की तरह गठबंधन से भागते नहीं हैं तो बिहार चुनाव के नतीजों के बाद 125 सीटें जीतने वाली एनडीए की सरकार बनना तय दिख रहा है। जिस तेजस्वी यादव को बिहार के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देखा जा रहा था, महागठबंधन के 110 सीटों पर रुक जाने के कारण उनको बड़ा झटका लगा है। ऐसे में अब इस पर चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर एनडीए की जीत और महागठबंधन के जीत के करीब पहुंच कर ठिठक जाने की वजह क्या है।

शुरुआती तौर पर महागठबंधन के 122 सीटों के मुहाने पर पहुंच कर रुक जाने की बड़ी वजह कांग्रेस को दी गई 70 सीटों को माना जा रहा है, जिसमें कांग्रेस सिर्फ 19 सीटें जीत सकीं। 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 41 सीटों पर लड़ी थी और उसने 27 सीटों पर जीत हासिल की थी। हालांकि कांग्रेस के एक पूर्व अध्यक्ष का कहना है कि 70 सीटें भले मिलीं लेकिन आरजेडी ने वही सीट दी जहां एनडीए बहुत मज़बूत था।

दरअसल महागठबंधन अगर सत्ता हासिल करने से चूक गई है तो इसके पीछे उसका बसपा, ओवैसी और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी की अनदेखी करना भी एक बड़ा कारण सामने आया है। क्योंकि अगर राजद ने महागठबंधन में इन तीनों दलों को शामिल किया होता तो नतीजे कुछ और होते। भले ही उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व में बना ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट जिसमें बसपा, रालोसपा और ओवैसी की AIMIM शामिल थी, ज्यादा सीटें नहीं जीत सकीं, लेकिन वो राजद को ज्यादा सीटें जीता जरूर सकती थी। गठबंधन में शामिल लेफ्ट पार्टियों को मिली सफलता भी यह बताती है कि जिन दलों का आधार समाज का सबसे कमजोर वर्ग रहा, उसके गठबंधन में शामिल रहने पर गठबंधन और दल दोनों को फायदा हुआ। तो एक बड़ा फैक्टर मुस्लिम मतदाता भी हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय जनता दल से पहले मुस्लिम उम्मीदवार पर भरोसा किया, चाहे वह किसी पार्टी से क्यों न खड़ा हो। क्योंकि जिस यादव-मुस्लिम गठजोड़ के बूते राजद बिहार की सत्ता में कई सालों तक काबिज रही, इस बार मुस्लिम मतदाताओं ने कुछ क्षेत्रों में गठबंधन का साथ नहीं दिया।

बिहार के सीमांचल क्षेत्र को मुस्लिमों का गढ़ माना जाता है। इसमें किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार जिले आते हैं, जहां कुल 24 विधानसभा सीटें है। इन चार जिलों के मुस्लिम वोटों को देखें तो किशनगंज में करीब 70 फीसद, अररिया में 42 फीसद, कटिहार में 43 फीसद और पूर्णिया में 38 फीसद मुस्लिम वोटर हैं। AIMIM ने बिहार की 20 सीटों पर अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें से 14 उम्मीदवार सीमांचल इलाके की सीटों पर हैं। यहां ओवैसी की पार्टी ने बसपा के समर्थन से मुस्लिम-दलित गठजोड़ के बूते अमौर, बैसी, जोकीहाट, कोचाधामन और बहादुरगढ़ की सीट जीत ली। इसमें पूर्णिया की अमौर सीट पिछले 36 सालों से जबकि बहादुरगंज सीट पिछले 16 सालों से कांग्रेस के पास थी। मिथिलांचल और कोसी में भी ओवैसी एक फैक्टर रहें और उन्होंने वहां की सीटों को प्रभावित किया।

जबकि बहुजन समाज पार्टी के साकारात्मक रुख के बावजूद राजद ने बसपा से गठबंधन करने से परहेज किया। खबर है कि राजद ने तब बसपा से संपर्क किया जब बसपा, ओवैसी और कुशवाहा ने अपने गठबंधन की घोषणा कर दी। उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाला ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट के तरह RLSP ने 99, बसपा, ने 78, AIMIM ने 20 जबकि गठबंधन में शामिल तीन अन्य दलों ने 26 सीटों पर चुनाव लड़ा।

उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी के खाते में भले कोई सीट ना आई हो लेकिन आरएलएसपी ने दिनारा, केसरिया सहित कई सीटों पर अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज कराई। तो बीएसपी ने यूपी से सटे बिहार के इलाकों में अपना दम दिखाया। पार्टी ने चैनपुर सीट पर जीत हासिल की। तो रामगढ़ सीट पर बीएसपी के अंबिका सिंह और आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर सिंह में कड़ा मुकाबला रहा, जहां बसपा का आरोप है कि उसे प्रशासन की मिली भगत से हरा दिया गया। गोपालगंज में बीएसपी दूसरे नंबर पर रही। इसके अलावा भोजपुर, शाहाबाद की कई सीटों पर भी बसपा मजबूती से लड़ी। वोट प्रतिशत की बात करें तो BSP को 1.49 प्रतिशत वोट, RLSP को 1.77 प्रतिशत वोट, जबकि AIMIM को 1.24 प्रतिशत वोट यानी मिला। यानी तीनो को मिलाकर कुल 4.50 प्रतिशत वोट मिले, जो इस काटे की टक्कर में काफी अहम साबित हुए हैं। हालांकि राष्ट्रीय जनता दल ने चुनाव में गड़बड़ी के आरोप लगाए है, जिनकी जांच चुनाव आयोग को जरूर करनी चाहिए।

पेंगुइन ने प्रकाशित की रामविलास पासवान की जीवनी

रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद अचानक से हर कोई उनके बारे में ज्यादा जानने की चाह रखने लगा। उन पर किताबें ढूंढ़ी जाने लगी। इसी बीच पेंगुइन रैंडम हाउस ने हाल ही में देश के कद्दावर नेता और राष्ट्रीय दलित राजनीति के प्रमुख हस्ताक्षर रामविलास पासवान की पहली अधिकृत जीवनी प्रकाशित कर दी है। रामविलास पासवान; संकल्प, साहस और संघर्ष नाम से लिखी गई इस जीवनी के लेखक वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव हैं और यह किताब नवंबर 2020 की शुरुआत में बाज़ार में आ गई है। यह किताब अभी ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर प्री-ऑर्डर के लिए उपलब्ध है।

रामविलास पासवान की इस जीवनी में बिहार के खगड़िया जिले के एक सुदूर गाँव शहरबन्नी से शुरू हुई उनकी जीवन और राजनीतिक यात्रा से लेकर, उनके व्यक्तिगत संघर्षों और उनके मूल्यों का विशद वर्णन है। यह जीवनी इस मायने में भी ख़ास है क्योंकि पासवान की जीवनी आज़ाद भारत के अहम कालखंड की राजनीतिक दास्तां भी साथ में बयाँ करती चलती है। इस किताब में पासवान के व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन के सफ़र के कई ऐसे अनछुए पहलुओं को समेटा गया है जो दुनिया की नज़रों से अभी तक ओझल रहे हैं। पासवान को ऐसा नेता माना गया जो सभी वर्गों और समुदायों में समान रूप से लोकप्रिय थे। अपने पाँच दशकों से भी ज़्यादा के राजनीतिक जीवन में पासवान ने कई अहम पदों की ज़िम्मेवारियाँ संभाली जिसमें रेलवे, संचार और सूचना तकनीक और केमिकल और फर्टिलाइज़र जैसे मंत्रालयों की जिम्मेवारियाँ भी शामिल थीं। अपनी मृत्यु से ठीक पहले वह मौजूदा केंद्र सरकार में खाद्य, सार्वजनिक वितरण और उपभोक्ता मामलों के मंत्री थे।

पासवान को लंबे समय से जानने वाले इस पुस्तक के लेखक और पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि उन्हें इस बात का गहरा दुख है कि पासवान इस पुस्तक को प्रकाशित होते हुए नहीं देख पाए, हालाँकि उन्होंने निधन के तीन महीने पहले इस पुस्तक की की मुद्रित पांडुलिपि शुरू से अंत तक पढ़ी थी और उन्होंने संतोष जाहिर करने के साथ इसकी तारीफ भी की थी। प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, ‘यह पुस्तक पासवान जी के जीवन के चार पहलुओं को समेटती है। पहला, बिहार के एक अति पिछड़े गांव शहरबन्नी से शुरू हुआ उनका बचपन, पढ़ाई-लिखाई, और फिर उनका पारिवारिक जीवन। दूसरा, राजनीति में उनके प्रवेश से लेकर अभी तक की राजनीतिक यात्रा; तीसरा, समाजिक न्याय के लिए उनके द्वारा किया गया अनवरत संघर्ष और चौथा, उनकी प्रशासनिक क्षमता, प्रशासनिक फैसले और केंद्रीय मंत्री के तौर पर किए गए उनके कार्य’। उन्होंने आगे कहा, ‘इस किताब को लिखने के क्रम में मेरी छह साल में कई बार पासवान जी से बातचीत हुई। मैंने पासवान जी से जुड़े अनगिनत लोगों से साक्षात्कार किया, इनमें उनके राजनीतिक सहयोगियों, मंत्रालय में उनके साथ काम किए अधिकारियों के साथ उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं।’ पासवान की इस जीवनी पर बात करते हुए पेंगुइन रैंडम हाउस की पब्लिशर, इंडियन लैंग्वेजेज वैशाली माथुर कहती हैं, ‘मैं इस किताब के संपादन के समय इसके ब्यौरों और इसकी किस्सागोई में एक तरह से डूब गई थी, क्योंकि पासवानजी के बारे में अभी तक बहुत कम जानकारी उपलब्ध थी। वे दलित समुदाय के सबसे महत्वपूण नेताओं में से एक थे और केंद्र में बिहार का अहम चेहरा थे। रामविलास पासवान जी की यह प्रामाणिक जीवनी उनके जीवन के सभी पक्षों पर प्रकाश डालती है’। 309 पन्नों की इस पुस्तक का मूल्य 399 रुपये है।

इस पुस्तक के लेखक प्रदीप श्रीवास्तव वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार हैं और पत्रकारिता में तीन दशकों से ज़्यादा समय से सक्रिय हैं। उन्होंने जनसत्ता (इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप) के दिल्ली ब्यूरो में दो दशकों से ज़्यादा समय तक विशेष संवाददाता के रूप में काम किया और उसके बाद दैनिक सन्मार्ग में पाँच साल तक एसोशिएट एडिटर और उसके दिल्ली ब्यूरो के इंचार्ज रहे। इस पुस्तक के प्रकाशक पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे प्रकाशन समूह है जो हर साल 250 से ज़्यादा पुस्तकों का प्रकाशन करता है और जिसके पास 3000 से ज़्यादा किताबों का एक बैकलिस्ट है। पेंगुइन के कई लेखकों को भारत रत्न और पद्म विभूषण भी मिल चुका है जो भारत के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान हैं।

प्रेस रिलिज

पुस्तक समीक्षाः कब तक मैला साफ करोगे, तुम कब तक मारे जाओगे

पुस्तक समीक्षाः डॉ. पूनम तुषामड़

भारतीय समाज के सच को जानने-समझने के लिए उनकी पीड़ा को समझना आवश्यक है, जो समाज के अंतिम पायदान पर हैं या कहिए कि हाशिए पर हैं। वाल्मीकि समाज, जिसे कई संबोधनों से पुकारा जाता है उसकी पीड़ा और वेदना की साहित्य जगत के विमर्श में कम ही उपस्थिति रही है। इस समय जब पूरी दुनिया का समाज बदल रहा है और भारत में भी लोग अपने पारंपरिक पेशों को छोड़ कर विकास की मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं तब भी वाल्मीकि समाज के लोग अपने पारंपरिक पेशे को चुनने के लिए मजबूर हैं। यह पारंपरिक पेशा है हाथ से मैला साफ करना और गंदे नाले-नालियों और सड़कों की सफाई करना। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि इस समाज की पीड़ा लोगों के संज्ञान में लाया जाए ताकि उनके मसलों पर विचार-विमर्श हो। युवा रचनाकार और कवि नरेंद्र वाल्मीकि द्वारा संपादित पुस्तक “कब तक मारे जाओगे” इसी मकसद की प्राप्ति हेतु की गई एक पहल है। उन्होंने वाल्मीकि समाज के कवियों द्वारा लिखी जा रही समकालीन कविताओं को चुनकर एक संकलन के रूप में प्रकाशित किया है।

‘कब तक मारे जाओगे’ सिद्धार्थ बुक्स प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस कविता संग्रह का आवरण चित्र “कुंवर रविंद्र” द्वारा डिजाइन किया गया हैं। कविता संग्रह में 62 कवियों की 129 कविताएं शामिल हैं। जिससे संग्रह काफी अच्छा बन पड़ा हैं। संग्रह के फ्लैप पर सम्मानीय दलित साहित्यकार ‘जयप्रकाश कर्दम जी’ की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी हैं, जिसमें वे कहते हैं कि “सत्ता एवं सम्पदा पर काबिज प्रभु वर्ग द्वारा धर्म के नाम पर किसी समुदाय को जन्मना अस्पृश्य घोषित कर उसे मल-मूत्र ढोने और सफाई कार्य करने के लिए बाध्य करना किसी भी सभ्य समाज के मस्तक पर एक बड़ा कलंक हैं”। आज इक्कीसवीं सदी में भी भारतीय गाँवों में दलितों और खासकर भंगी अथवा वाल्मीकि कहे जाने वाले समुदाय की यही स्थिति है। उसमें भी इस जाति की महिलाऐं तिहरे शोषण का शिकार हैं। इसका बेहद मार्मिक रूप कवि डी.के.भास्कर की कविता “एक रोटी के एवज में” से अंकित इन पंक्तियों में देखा जा सकता है।

दाई बनकर जनाती है बच्चे नाभि-नाल काटती है, नहलाती है मुँह में उंगली डाल, साफ़ करती है गला बाद में वही बड़ा होकर, साफ़ करता है गाला उसे गाली देकर …

इससे भी आगे की घृणा और मनोवृति की आसान शिकार होती हैं इन सेठ, साहूकारों के घरों में काम करने वाली महिलाऐं जिनके दर्द को अन्य नामों से पुकार कर इनसे घृणा करने वाले को इनका बलात्कार करते हुए किसी प्रकार की छूत महसूस नहीं होती ..दलित स्त्रियों की इस पीड़ा को इसी संग्रह में प्रकाशित कवि ‘हसन रजा’ की ‘साहूकार ‘नामक कविता से समझा जा सकता है :-

उसके घर की सफाई तो मैं /कर देती हूँ /पर उसकी उन नज़रों का मैल/साफ़ नहीं कर पाती/ जो पोंछा लगते वक्त मेरे सीने पर/ और झाड़ू लगते वक्त /मेरे पिछवाड़े पर टिकी रहती हैं /ये सब झेलते हुए भी / दुनिया वाले हम पर ही / कहर ढाते हैं /हमें कचरे वाली /और उन्हें साहूकार बुलाते हैं.

इस कविता में अभिव्यक्त सवाल अगर आज भी इस विवशता के साथ उठाया जा रहा है, तो ये विचारणीय है कि सामाजिक स्थितियां इन दलित स्त्रियों के लिए किस हद तक क्रूर हैं। कविता संग्रह ‘कब तक मारे जाओगे’ की कविताओं को पढ़ते हुए हम कह सकते हैं कि भिन्न-भिन्न कवियों की कविताएं होते हुए भी विषय में काफी समानता है। किसी को यह एक विषय का दोहराव भी लग सकता है। किन्तु इन कविताओं का एक दूसरा महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक पक्ष भी है और वह है कि ये कविताएँ नहीं बल्कि सफाई पेशे से जुड़े समुदाय की महागाथा है। जहाँ सभी कविताओं के भिन्न होने पर भी उसमे व्यक्त वेदना और भाव वही है किन्तु इस संग्रह की अनेक कविताएं अपनी धारदार भाषा में तथाकथित स्वर्ण और सभ्य समझे जाने वाले समाज को सीधे ललकारती और चुनौती भी देती हैं।कवि राज वाल्मीकि की ग़ज़ल की कुछ पक्तियां देखें :

हमने जुल्म सही सदियों तक तू, इनको न समझ सका. समझ जाएगा तू भी प्यारे ,हम दलितों में रह कर देख. हम तो रोज़ गटर में घुस कर, नरक सफाई करते हैं. कैसा अनुभव है ये करना एक बार तो करके देख.

ये संग्रह भारतीय समाज की ढकी-छिपी जातिवादी सोच की परतों को उघाड़ फैंकता हैं। जहाँ समाज अपने ही समाज के एक समुदाय या जाति के प्रति इस कदर क्रूर है कि उसे उसके मानवीय मूल्यों से भी विमुख होकर जीने को मजबूर कर दिया है। इसी समाज व्यवस्था का दोहरा रूप और व्यवहार किसी संकट और माहमारी के समय कैसे बदल जाता है उस पर बेहद सटीक प्रश्न इस संग्रह की कई कविताओं में उठाए गए हैं जिनमें से डॉ. सुरेखा की कविता “सफाई सैनिक” बेहद सटीक व्यंग्यात्मकता के साथ प्रश्न करती है।

करते थे जो अपमान हर दिन आज गले में माला पहना रहे हैं क्या समझ गए हैं अहमियत इन की जो सफाई सैनिक पूजे जा रहे है ?

सम्मान जो आज मिल रहा है क्या कल बरक़रार रह पाएगा ?

सवाल और भी बहुत हैं जैसे भारत को विश्व गुरु बनाने वाली सत्ता कि नज़र में ये सफाई मजदूर समुदाय आखिर क्यों इंसान नहीं है ?.आधुनिक तकनीक के नाम पर रोज नए-नए उपकरणों की खोज और अनुसन्धान करने वाली कॉर्पोरेट कम्पनीज़ की नज़र में आज तक सीवरेज में जहरीली गैसों से मरने वालों के लिए कोई आधुनिक उपकरण तैयार करने का विकल्प क्यों नहीं है। एक सीवरेज वर्कर सफाई सैनिक की इसी पीड़ा को ‘दीपक मेवाती’ की कविता में देखा जा सकता है जहाँ वह मौजूदा सत्ता से सीधे सवाल करता है। :-

विज्ञान तरक्की कर बैठा है, पर उस पर कोई फर्क नहीं चाँद पर दुनिया जा बैठी है, पर उस पर कोई तर्क नहीं देह उसकी औज़ार बानी है, गंदे नालों की खातिर . मौत ने जीवन छीन लिया, सबके सु जीवन की खातिर.

इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए जो मुख्य मुद्दे नज़र आते हैं वे इन समाज के सफाई कर्मी की आत्मपीड़ा, उस पीड़ा से जन्मा आक्रोश, इस आक्रोश के चलते इस अपमानित जीवन से मुक्ति की छटपटाहट, पूरे संग्रह में इन कवियों ने अपनी दयनीय स्थितियों को रखते हुए उस से मुक्त होने के लिए शिक्षा और संघर्ष का मार्ग सुझाया है।

यह संग्रह जैसे ही प्रकाशित होकर आया इस पर लगातार अनेक कवियों की इतनी सारी महत्वपूर्ण और सुन्दर टिप्पणियां आई। जिसमें उन्होंने इस संग्रह की प्रशंसा करते हुए सकारात्मक टिप्पणियां एवं प्रतिक्रियाएं सोशल मिडिया एवं अन्य स्थानों पर दी। किन्तु कुछ साहित्यकारों का मत इनसे भिन्न भी रहा।इस संग्रह को लेकर उन्हें इसके किसी एक जाति विशेष अथवा समुदाय विशेष पर होने से ऐतराज़ था। उनका मानना था कि ‘दलितों में साहित्यिक स्तर पर विभेद उत्पन्न नहीं होना चाहिए’। यह बात सही हैं कि दलित एक इकाई हैं। एक वृहद् अम्ब्रेला हैं, जिसके अंतर्गत सफाई पेशे से जुडी सभी जातियां आती हैं, किन्तु ‘वाल्मीकि’ या ‘भंगी’ कही जाने वाली यह जाति अपने पर थोपी गई परंपरागत पेशेगत पहचान के चलते अपनी सहगामी जातियों के द्वारा भी भेदभाव एवं निम्न समझी जाती है। संभवतः यही कारण हैं कि वह अपनी एक अलग पहचान निर्मित करने की और अग्रसर हैं। जहाँ वह संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करते हुए अपने महापुरुषों से प्रेरणा पाकर स्वयं को शिक्षित, जागरूक और चेतनशील बनाने की ओर बढ़ता दिखाई देता है। इस संग्रह की ऐसी अनेक कविताएं हैं जो ‘झाड़ू’ को ‘कलम’ तब्दील करने की बात करती हैं और सदियों से अपमानित जीवन को त्याग कर शिक्षित और सम्मानित जीवन और पेशे अपनाने की बात करती हैं.. जिनमें कोई एक सफाईकर्मी सदियों की गुलामी समाज में अपने संवैधानिक सामाजिक हकों के लिए आह्वान करता दिखता है। कवि श्याम किशोर बैचेन की ये कविता देखें..

झाड़ू छोड़ो कलम उठाओ परिवर्तन आ जाएगा शिक्षा को हथियार बनाओ परिवर्तन आ जाएगा दारू छोड़ो ज्ञान बढ़ाओ परिवर्तन आ जाएगा हर कीमत पर पढ़ो, पढ़ाओ परिवर्तन आ जाएगा

वाल्मीकि या भंगी कही जाने वाली ये जाति भी डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर को अपना आदर्श मानकर अपने अन्य जननायकों बुद्ध और फुले के विचारों को आत्मसात कर अपनी चेतना और अभिव्यक्ति का आधार बनाने लगी हैं। कविता संग्रह ‘कब तक मारे जाओगे’ में सम्मिलित कविताएं इन दलित रचनाकारों की इसी प्रकार की अभिव्यक्ति का सामूहिक प्रयास हैं।

प्रत्येक कवि की कविता में आपको अपने पुश्तैनी पेशों को त्याग कर, अपनी अगली पीढ़ी के लिए शिक्षा और सम्मानित जीवन जीने की छटपटाहट स्वतः दिखाई देगी। इस संग्रह के शुरुआती पृष्ठों में पृष्ठ संख्या चार पर अंकित एक खूबसूरत चित्र जिसमें बांस की लम्बी झाड़ू को कलम के रूप में चित्रित करके उसके शीर्ष पर ताज दिखाया गया है, बेहद अर्थपूर्ण एवं आशान्वित करने वाला है। यह चित्र कानपूर (यू.पी.) के प्रख्यात लेखक देव कुमार जी की है। इसके पश्चात् अगले पृष्ठ पर सम्पादकिय है जिसमें संपादक नरेंद्र वाल्मीकि समाज में सफाई कर्मियों की दशा पर चिंतित होते हुए कहते हैं कहते हैं कि “सफाई कर्मियों के मात्र पैर धो देने से इस वर्ग का भला नहीं हो सकता है साहब ! इस समाज के सर्वांगीण विकास पर भी ध्यान देना होगा “..

कोरोना जैसी महामारी के दौर में सफाई कर्मचारियों द्वारा दी गई अपनी अभूतपूर्व सेवाओं के लिए सरकार एवं लोगों द्वारा इन सफाई सैनिकों का सम्मान किये जाने पर व्यंग्य करते हुए सम्पादक कहते हैं कि “सफाई पेशे से जुड़े लोगों को अपने घरों की चौखट तक पर न चढ़ने देने वाले लोग आज कोरोना महामारी के दौर में सफाई कर्मचारियों को जगह-जगह फूलमाला पहनाकर सम्मानित कर रहे हैं। यहाँ संपादक ने समाज एवं सत्ता के दोगले व्यवहार पर सटीक प्रहार किया है। संग्रह के पृष्ठ आठ पर एक चित्र और अंकित है जिसमें एक सफाई कर्मचारी पिता अपने बच्चे को स्कूल की और ले जा रहा है और उसके पैरों में पड़ी पुश्तैनी पेशे की बेड़ी को शिक्षा की कलम के प्रहार से टूटते दिखाया गया है। ये है नवीन पीढ़ी की सोच जिसे जितनी खूबसूरती से युवा कवि ‘शिवा वाल्मीकि’ ने चित्रांकित किया है। वह अद्द्भुत है। इस संग्रह में उपयोग किये जाने वाले दोनों चित्रों के चयन का श्रेय युवा संपादक नरेन्द्र वाल्मीकि को ही जाता है।

इस संग्रह की कविताएं केवल सदियों से संतप्त अभिशप्त जीवन का आर्तनाद या विलाप भर नहीं हैं, बल्कि वे आधुनिक सोच लिए हुए एक स्वच्छ समतामूलक समाज की कल्पना को साकार करने की ओर उन्मुख कदम हैं। इन कविताओं में जीवन का चुनौतीपूर्ण यथार्त भी है और बेहतर भविष्य का स्वप्न भी। घृणित पेशों का धिक्कार भी है और सम्मानित पेशों को अपनाने की ललकार भी। इस संग्रह में जाने-माने प्रख्यात कवियों के साथ-साथ आप का परिचय कई ऐसे युवा कवियों से भी होगा जिन्होंने शायद पहली बार कविताएं कहीं प्रकाशित कराई हैं जो बेहद खूबसूरत कविताएं हैं। जिनमे ‘रेखा सहदेव’ की ‘सम्मान’ कविता, देविंदर लक्की की ‘बस्स ! बहुत हुआ’ कविता, हसन रज़ा की ‘साहूकार’ अनिल बिडलान की मैं झाड़ू कहीं पर भूल जाऊं.. जैसी अनेक उत्कृष्ट कविताएं जो आपको अपमानित घृणित पेशों की बेड़ियों को तोड़ कर मुक्ति पथ की ओर लेकर जाती महसूस होंगी तथा अपनी निश्छल सपाट बयानी से इस क्रूर व्यवस्था पर सवाल भी खड़े करती हैं…इस संग्रह में ऐसी अनेक कविताएं हैं, सभी का जिक्र यहाँ पर संभव नहीं है किन्तु यह कहा जा सकता है कि ये कविताएं निश्चित ही दलित साहित्य की वैचारिक ज़मी को एक उन्नत फलक प्रदान करती हैं।

देश के भिन्न-भिन्न राज्यों से सम्बंधित भंगी अथवा वाल्मीकि समुदाय के कवियों का साझा संकलन होने के कारण भाषा शैली और शिल्प पर बात यहाँ बेमानी है। पुस्तक में अनेक स्थानों पर शाब्दिक त्रुटियां रह गई हैं, किन्तु भंगी अथवा वाल्मीकि समाज की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने वाले इस महत्वपूर्ण संग्रह की मुखर कविताओं के सामने वे नज़रअंदाज़ की जानी चाहिए

दलितों में भी दलित समाज की आधुनिक विचारशैली से गुंथी कविताओं का मिला-जुला संकलन है, “कविता संग्रह कब तक मारे जाओगे” जो समाज और व्यवस्था को तो कटघरे में ला कर सवाल खड़ा करता ही है। उसके अतिरिक्त समाज में सदियों से फैली अज्ञानता के अंधकार को चीर कर उसे डॉ. आंबेडकर के विचारों के आलोक में आगे बढ़ने की दिशा भी देता है। संपादक तथा संग्रह में शामिल सभी क्रांतिकारी कवियों को शुभकामनाएं।

पुस्तक : कब तक मारे जाओगे (काव्य संकलन) संपादक : नरेंद्र वाल्मीकि प्रकाशक : सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली पृष्ठ : 240 मूल्य : ₹150 वर्ष : 2020 इस लिंक से बुकिंग कर सकते हैं। 


समीक्षक

डॉ. पूनम तूषामड़ दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में “मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह ‘माँ मुझे मत दो’ (हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति : आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं। मोबाइल : 9013893213