बसपा कार्यकर्ताओं ने मनाया बहन मायावती का जन्मदिन, बहनजी ने की बड़ी घोषणा

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  जनवरी की 15 तारीख बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती का जन्मदिन होता है। इस मौके पर बसपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने देश भर में बहनजी का जन्मदिन धूमधाम से मनाया। अपने पिछले कई जन्मदिन की तरह इस साल भी बसपा प्रमुख ने  “मेरे संघर्षमय जीवन एवं बी.एस.पी. मूवमेन्ट का सफरनामा, भाग-16” के हिन्दी और अंग्रेजी वर्जन का विमोचन किया। इस पुस्तक की लेखक बसपा प्रमुख मायावती खुद हैं।

 इस दौरान बसपा प्रमुख मायावती ने एक बड़ी राजनीतिक घोषणा करते हुए कहा कि बसपा आगामी उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। उन्होंने उत्तराखंड चुनाव भी अकेले लड़ने की घोषणा की। यह अपने आप में बड़ी घोषणा इसलिए है क्योंकि माना जा रहा था कि बसपा प्रमुख मायावती भाजपा को रोकने के लिए कुछ छोटे दलों को बसपा के साथ गठबंधन में शामिल करेंगी। खासतौर पर इसके लिए असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम का नाम चर्चा में था, जिसके साथ बसपा ने बिहार चुनाव में गठबंधन किया था।

 अपने जन्मदिन पर मीडिया के लिए जारी बयान में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री ने एक बार फिर जहां किसान आंदोलन का समर्थन किया और सरकार से किसानों की मांगें मान लेने की मांग की तो वहीं एक राजनैतिक घोषणा में उन्होंने कहा कि यदि केन्द्र व यूपी की वर्तमान भाजपा सरकार कोरोना वैक्सीन ‘फ्री’ में नहीं देती है, तो बी.एस.पी की सरकार बनने पर इन्हें यह सुविधा ‘फ्री’ में ही दी जायेगी। बहन कुमारी मायावती ने अपना जन्मदिन मनाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं का आभार जताया। बताते चलें कि बसपा कार्यकर्ता पिछले कई सालों से बसपा प्रमुख के जन्मदिवस को जनकल्याणकारी दिवस के तौर पर मनाते हैं।

महिला सशक्तिकरण की प्रतीक मायावती : संघर्ष और चुनौतियाँ

mayawati  भारतीय राजनीति में सफल महिलाओं की संख्या गिनी-चुनी ही हैं। उनमें से एक नाम सुश्री मायावती का आता है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री के तौर पर नेतृत्व करना महिला सशक्तिकरण का सबसे बड़ा उदाहरण है। जिस उम्र में महिलाएं अपना जीवन ठीक से नहीं चला पाती हैं उस उम्र में मायावती सबसे बड़े राज्य का प्रतिनिधित्व कर रही थी। भारत में जाति व्यवस्था के दुष्चक्र से बाहर आ पाना पत्थर पर सर मारने जैसा है। मायावती एक दलित समुदाय से आती हैं ऐसे में वह जातीय संघर्ष करते हुए अपना रास्ता स्वयं बनाती हैं। उनके शासनकाल में उत्तरप्रदेश में दलितों व महिलाओं की स्थिति में अभूतपूर्व बदलाव दिखाई देता था। वह अपने छोटे-बड़े कार्यकाल को मिलाकर कुल चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं।

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देश की सियासत में कई बार किंगमेकर की भूमिका निभाने वाली मायावती एक सशक्त महिला की मिसाल हैं। एक ऐसी नेत्री, जिसे कभी देश के पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने ‘लोकतंत्र का चमत्कार (miracle of Democracy)’ कहा था। जिसने सियासी रूप से देश के सबसे ताकतवर सूबे उत्तर प्रदेश की सियासत के तमाम स्थापित समीकरणों को ध्वस्त करके रख दिया था जिसके बाद देश की राजनीति में दलित चेतना के नए युग का सूत्रपात हुआ। मायावती पहली दलित महिला हैं, जो भारत के किसी राज्य की मुख्यमंत्री बनीं। 1995 में गठबंधन की सरकार बनाते हुए मायावती मुख्यमंत्री बनीं थी, उस समय तक मायावती राज्य की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री बनी थीं। मायावती ने अपना पहला चुनाव साल 1984 में उत्तर प्रदेश में कैराना लोकसभा सीट से लड़ा था। इसके बाद दूसरी बार साल 1985 में उन्होंने बिजनौर और फिर 1987 में हरिद्वार से चुनाव लड़ा। साल 1989 में मायावती को बिजनौर से जीत हासिल हुई। मायावती पहली बार साल 1994 में राज्यसभा सांसद बनीं। उन्होंने अपने जीवन में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में ऐसे कार्य किये, जिसके कारण उनके फॉलोवर उन्हें ‘आयरन लेडी’ के नाम से बुलाते हैं।

   बहन मायावती ने अपने करियर की शुरुआत 1983 में दिल्ली विश्वविद्यालय से LL.B की डिग्री लेकर किया। उन्होंने कुछ समय तक अध्यापन का कार्य भी किया था। सन् 2003 में मायावती को मुख्यमंत्री के रूप में, पोलियो उन्मूलन में उनकी पहल के लिए यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन और रोटरी इंटरनेशनल द्वारा पॉल हैरिस फेलो पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। मायावती को राजर्षि शाहू मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा राजर्षि शाहू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। 2008 में, फोर्ब्स ने मायावती को दुनिया की 100 सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में 59 वें स्थान पर रखा। वह 2007 में न्यूज़ वीक की शीर्ष महिला की सूची में शामिल की गईं। 2009 में न्यूज़ वीक के एक लेख ने उन्हें बराक ओबामा के रूप में वर्णित किया गया और प्रधान मंत्री के लिए एक संभावित उम्मीदवार बताया गया। टाइम पत्रिका ने मायावती को 2007 के लिए भारत की 15 सबसे प्रभावशाली शख्सियत की सूची में शामिल किया।

      इन सबके बावजूद भारतीय राजनीति में महिला सशक्तिकरण के तौर पर मायावती का नाम बहुत कम लिया जाता है। मायावती को सिर्फ इस रूप में ही नहीं देखना चाहिए कि वह एक महिला मुख्यमंत्री थी। अथवा कई बार कि राज्यसभा सदस्य रही थीं। मायावती उन सभी महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं जो अपने पैरों पर खड़े होने कि जद्दोजहद में लगी हैं। मायावती का जन्म एक बेहद सामान्य से दलित (उपजाति जाटव चमार) परिवार में हुआ था। उनके पिता पोस्ट ऑफिस में कर्मचारी थे और माताजी गृहणी थीं। ऐसे सामान्य से घर से निकलकर मुख्यमंत्री बनना एक ऐतिहासिक कार्य था। अपने जीवनकाल में मायावती को अनेकों जातिगत भेदभावों व अन्य प्रकार कि सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। अपने मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होने उत्तर प्रदेश में दलितों व महिलाओं के सशक्तिकरण के अनेकों कार्य किए। कई जगह बालिका विद्यालय व अनेकों योजनाएं चलाकर महिलाओं को सशक्त बनाने का कार्य किया।

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 मायावती की एक खासियत यह भी है कि इन्होंने मान्यवर कांशीराम के सानिध्य और मार्गदर्शन में राजनीति में अपनी पहचान स्वयं बनाई। इनका पारिवारिक पृष्ठभूमि पूरी तरह से गैर राजनीतिक था। पिताजी का सपना था कि बेटी एक आईएएस ऑफिसर या वकील बनकर देश की सेवा करे। लेकिन मायावती कि दृढ़ इच्छा, स्पष्ट वाक्पटुता और मान्यवर कांशीराम के मार्गदर्शन में वो राजनीति की ओर आईं। इस बारे में मायावती ने कहा था ‘मैंने राजनीति में आने का जो फ़ैसला किया तो मुझे दूसरे नेताओं की तरह राजनीति विरासत में नहीं मिली। हमारे परिवार में कोई राजनीति में नहीं है, दूर-दूर तक हमारे रिश्ते नातों में भी कोई राजनीति में नहीं है।’ लेकिन बिना राजनीतिक विरासत के भी मायावती ने देश की सियासत खलबली मचा दी।

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम इनकी भाषण कला से इतने प्रभावित हुए थे कि इन्हें राजनीति में आने की सलाह दे डाली। मायावती और कांशीराम के के रिश्ते बेहद विनम्र थे। कांशीराम ने उनके प्रथम भाषण को सुनकर ही उनके राजनीतिक जीवन की भविष्यवाणी कर दी थी। दरअसल इस मुलाक़ात से एक दिन पहले मायावती दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में भाषण दे रही थीं… मायावती ने मंच से ही कांग्रेसी नेता राजनारायण को दलितों को बार-बार ‘हरिजन’ कहने पर बुरी तरह लताड़ा था। एक 21 साल की लड़की का ऐसा रुख़ देखकर ही मान्यवर कांशीराम साहब मायावती से इतने प्रभावित हो गए थे कि सीधे उनके घर जाकर उनसे अपने साथ साथ काम करने का अनुरोध किया।

उन दोनों के संबंधों का ज़िक्र पत्रकार नेहा दीक्षित ने ‘कारवां’ पत्रिका में मायावती पर छपे अपने लेख में किया है। दीक्षित लिखती हैं, “जब कांशीराम अपने हुमायूं रोड वाले घर में आए तो मायावती को वहां रहने के लिए कोई कमरा नहीं दिया गया। जब कांशीराम भारतीय राजनीति के दिग्गजों से अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर मंत्रणा कर रहे होते थे, तो मायावती घर के पिछवाड़े के आंगन में दरी पर बैठ कर ग्रामीण इलाकों से आने वाले कार्यकर्ताओं के साथ बात कर रही होती थीं। कांशीराम अपने घर के फ़्रिज को ‘लॉक’ कर चाबी अपने पास रखते थे। उन्होंने मायावती और अपने दूसरे सहयोगियों को निर्देश दे रखे थे कि फ़्रिज से उन लोगों को ही कोल्ड ड्रिंक ‘सर्व’ किया जाए जिनसे वो अपने ड्राइंग रूम में मिलते हैं।” मायावती और कांशीराम साहब के रिश्ते को लेकर भी सवाल उठते रहे। अक्सर उनके चरित्र पर भी दाग़ लगाने की कोशिश की गई। लेकिन इससे मायावती विचलित नहीं हुईं। एक इंटरव्यू में मायावती ने इस बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था ‘जब कोई त्याग करके आगे बढ़ता है तो विरोधियों के पास एक ही मुद्दा होता है, कैरेक्टर को लेकर बदनाम करना। मान्यवर कांशीराम जी को मैं अपना गुरु मानती हूँ और वो मुझे अपना शिष्य मानते हैं।’

आज के समय में महिलाओं को मायावती को अपने आइकन के तौर देखने की जरूरत है। मायावती ने अपने शासनकाल में उन तमाम दलित, बहुजन नायकों की तस्वीरों व मूर्तियों को स्थापित किया जो नेपथ्य से पीछे थे या गुमशुदा थे। उन्होंने बहुजन राजनीति की नई इबारत लिखी। पूरे उत्तर प्रदेश में बहुजन नायकों को दुबारा स्थापित करने का श्रेय मायावती को ही जाता है। वैसे तो बहुजन राजनीति में पुरे देश में मायावती के नाम के बिना अधूरा है लेकिन बात उत्तरप्रदेश की राजनीति की करें तो वो मायावती के जिक्र के बिना पूरी हो ही नहीं सकती है। उस समय मायावती को यूपी में दलितों के लिए आइकन के रूप देखते थे जो आज भी बरकरार है।

 भारत में आरक्षण एक ऐसी प्रणाली है जिसके तहत विश्वविद्यालयों में सरकारी पदों और सीटों का एक प्रतिशत पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति और जनजाति के व्यक्तियों के लिए आरक्षित है। अपने राजनीतिक जीवन के दौरान, मायावती ने पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में आरक्षण का समर्थन किया, जिसमें कोटा और धार्मिक अल्पसंख्यकों और आर्थिक रूप से कमजोर उच्च जातियों जैसे समुदायों को शामिल किया गया। अगस्त 2012 में एक बिल को मंजूरी दी गई थी जो संविधान में संशोधन की प्रक्रिया शुरू करती है ताकि राज्य की नौकरियों में पदोन्नति के लिए आरक्षण प्रणाली का विस्तार किया जा सके। जाति के दंश को इस रूप में भी समझा सकता है कि आप बहुत अच्छे हैं, कोई कमी नहीं है आपमें। जाति पता चलते ही आप बुरे हो जाते हैं। आप कामचोर हो जाते हैं, आपकी सारी ‘मेरिट’ ख़त्म हो जाती है और आप आरक्षण का फ़ायदा लेकर हर जगह घुसपैठ करने वाले बन जाते हैं। मायावती ने इन सबको धता बताते हुए अपनी पहचान स्वयं बनाई। मायावती के करियर को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव द्वारा “लोकतंत्र का चमत्कार” कहा गया है। लाखों दलित समर्थक उन्हें एक आइकन के रूप में देखते हैं और उन्हें ‘बहन जी’ के रूप में संदर्भित करते हैं।50 बहुजन नायक पुस्तक खरीदें

      मायावती स्वयं डॉ. भीमराव अंबेडकर को अपना आदर्श मानती हैं। उन्होंने एकबार अपने पिता से पूछ लिया था कि क्या मैं भी बाबा साहब की तरह काम करूँ तो मेरी भी पुण्यतिथि उनकी तरह मनाई जाएगी। यह सुनकर उनके पिता हतप्रभ रह गए थे। गौरतलब है कि उनके पिताजी ने बाबा साहब कि जीवनी मायावती को पढ़ने के लिए दिया था। यहीं से मायावती बाबा साहब को अपना आदर्श मनाने लगी थी। राजनीति में आने के बाद उनके पिताजी ने उनसे दूरियाँ बना ली थी। मायावती ने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया था ताकि वह बहुजन समाज की सेवा कर सकें।

      मायावती को अपने जीवनकाल में यहाँ तक की सांसद बन जाने के बाद भी जातीय भेदभाव सहने पड़े। अजय बोस ‘बहनजी : अ पॉलिटिकल बायोग्राफ़ी ऑफ़ मायावती’ में लिखते हैं, “जब मायावती पहली बार लोकसभा में चुन कर आईं तो उनके तेल लगे बाल और देहाती लिबास तथाकथित सभ्रांत महिला सांसदों के लिए मज़े की चीज़ हुआ करते थे। वो अक्सर शिकायत करती थीं कि मायावती को बहुत पसीना आता है। उनमें से एक ने एक वरिष्ठ महिला सांसद से यहां तक कहा था कि वो मायावती से कहें कि वो अच्छा ‘परफ़्यूम’ लगा कर सदन में आया करें।” सफाई को लेकर उनका व्यवहार धीरे-धीरे बदल गया। मायावती के नज़दीकी लोगों के अनुसार बार-बार उनकी जाति का उल्लेख और उनको ये आभास दिलाने की कोशिश कि दलित अक्सर गंदे होते हैं, का उन पर दीर्घकालीन असर पड़ा। उन्होंने हुक्म दिया कि ‘उनके कमरे में कोई भी व्यक्ति वो चाहे जितना बड़ा ही क्यों ना हो, जूता पहन कर नहीं जाएगा।’ मायावती की जीवनी लिखने वाली कारंवा पत्रिका की पत्रकार नेहा दीक्षित ने भी अपने लिखे एक लेख ‘द मिशन – इनसाइड मायावतीज़ बैटल फ़ॉर उत्तर प्रदेश’ में लिखा था, “मायावती में सफ़ाई के लिए इस हद तक जुनून है कि वो अपने घर में दिन में तीन बार पोछा लगवाती हैं।”

      मायावती होना एक गर्व की निशानी भी है। मायावती भारतीय महिला राजनीति में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन भी लाई हैं। अपने कार्यकाल में हमेशा कड़े फैसले लेने व उसको क्रियान्वित करके दिखने की क्षमता सुश्री मायावती में थी। मायावती का मुख्यमंत्री बनना इस बात का संकेत भी है कि हाशिये कि महिलाओं को यदि अवसर दिया जाए तो वह समाज व देश कि सेवा में आमूलचूल परिवर्तन लाने में सक्षम हैं। मायावती द्वारा किया गया कार्य हाशिये के समाज के लिए एक इतिहास बन गया है। आज भारत की कोई भी हाशिये के वर्ग की महिला मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सकती है। यह ताकत उसे मायावती से मिलती है। अपने राजनीतिक जीवन में तमाम असहमतियों व सफलता-असफलता के बावजूद मायावती भारतीय राजनीति की एकमात्र दलित राजनेता हैं जिन्हें आप पूरी तरह से नकार नहीं सकते हैं। विरोध के बावजूद उनके किए कार्यों का बखान तो करना ही पड़ेगा। उत्तर प्रदेश की दलित महिलाएं जो कभी पुरुषों के आज्ञा के बगैर घर से बाहर नहीं निकलती थी वह मायावती के राजनीतिक रैलियों में बड़े आदर के साथ मायावती का कटाउट या उनका मुखौटा लिए हिस्सा लेती हैं।

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मायावती के होने से हाशिये के समाज की महिलाओं के अंदर एक चेतना आई है। मायावती अपने शासनकाल में कई विवादों और घोटालों के आरोपों में जरूर रही हों पर उनका राजनितिक अभ्युदय सचमुच अद्भुत रहा है। एक सामान्य परिवार से आई दलित महिला ने ऐसा मक़ाम हासिल किया जैसा इस देश के इतिहास में कम ही महिलाओं ने किया है। विवादों की परवाह किए बिना मायावती के समर्थको ने हर बार उनका साथ दिया और अपनी वफादारी साबित की है। मायावती ने दलितों के दिल में अपनी खुद की जगह बनाई है और दलितों में अपने प्रति विश्वास कायम किया है। जो मायावती को उनकी ज़िन्दगी में एक सफल राजनेता बनाता है। मायावती अभी तक अविवाहित है जो की उनके किये कार्यो के प्रति लगन और उनके सिद्धांतो को दर्शाता है। हमारे देशवासियों को ऐसी महिला राजनेता पर गर्व होना चाहिए। मायावती ने अपनी चौथे कार्यकाल में बहुजन इतिहास को जीवित करने के लिए भी काफ़ी काम किया। मायावती ने बहुजन नायक-नायिकाओं के सम्मान में ऐतिहासिक काम कर दिखाया। जिन बहुजन नायक-नायिकाओं को इतिहास में कभी उचित सम्मान नहीं मिला था, मायावती ने उनकी शानदार प्रतिमाएँ लगाकर बहुजन समाज से उनका परिचय कराया।

प्रो. विवेक कुमार द्वारा संपादित, राष्ट्रनिर्माता बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर पुस्तक खरीदें

      मायावती के जीवन संघर्ष पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के प्रो. विवेक कुमार ने पिछले दिनों अपने एक लेख में लिखा था, ‘यह विडंबना है कि लोग आज मायावती के गहने देखते हैं, उनका लंबा संघर्ष और एक-एक कार्यकर्ता तक जाने की मेहनत नहीं देखते। वे यह जानना ही नहीं चाहते कि संगठन खड़ा करने के लिए मायावती कितना पैदल चलीं, कितने दिन-रात उन्होंने दलित बस्तियों में काटे। मीडिया इस तथ्य से आंखें मूंदे है। जाति और मजहब की बेड़ियां तोड़ते हुए मायावती ने अपनी पकड़ समाज के हर वर्ग में बनाई है। वह उत्तर प्रदेश की पहली ऐसी नेता हैं, जिन्होंने नौकरशाहों को बताया कि वे मालिक नहीं, जनसेवक हैं। अब सर्वजन का नारा देकर उन्होंने बहुजन के मन में अपना पहला दलित प्रधानमंत्री देखने की इच्छा बढ़ा दी है। दलित आंदोलन और समाज अब मायावती में अपना चेहरा देख रहा है। भारतीय लोकतंत्र को समाज की सबसे पिछली कतार से निकली एक बहुजन महिला की उपलब्धियों पर गर्व होना चाहिए।’

बुलंदशहर के मनीष को बड़ी सफलता, बहुजन युवाओं के लिए प्रेरणा बने

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 बुलंदशहर। आमतौर पर यह देखने में आता है कि दलित समाज के युवा छोटी नौकरियों के पीछे भागते हैं और सामाजिक एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण वह बड़े सपने देखने से डरते हैं। लेकिन गांवों से निकल कर शहर पहुंच चुके इस समाज की दूसरी पीढ़ी के युवा तमाम महत्वपूर्ण क्षेत्रों में झंडा गाड़ रहे हैं। वो ऐसे विभागों और क्षेत्रों में बहुत रहे हैं, जहां अब तक इस समाज के युवाओं की मौजूदगी नहीं के बराबर थी। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के मनीष कुमार सिंह ने एक बड़ी सफलता हासिल की है।

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शहर के यमुनापुरम के निवासी और एलआईसी में डीओ के पद पर कार्यरत बीरेन्द्र सिंह के पुत्र मनीष का चयन भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र मुंबई में हुआ है। यह भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा विभाग के तहत आता है। मनीष का चयन ग्रुप ए में हुआ है और उनका पद वैज्ञानिक अधिकारी (Scientist) के पद पर हुआ है। मनीष के पिता बीरेन्द्र सिंह अंबेडकरवादी हैं और उन्होंने अपने सभी बच्चों को बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के पदचिन्हों पर चलते हुए उच्च शिक्षा के लिए अक्सर प्रेरित किया है। मनीष सिंह ने अपनी सफलता का श्रेय बहुजन नायकों के संघर्ष और अपने परिवार एवं मित्रों के सहयोग को दिया है।

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गौरतलब है कि मनीष सिंह की यह सफलता पूरे वंचित समाज के युवाओं के लिए प्रेरणा देने वाली है। मनीष की यह सफलता यह भी बताती है कि वंचित तबके के युवा अगर ठान लें तो हर क्षेत्र में परचम फहरा सकते हैं। मनीष की यह सफलता बहुजन युवाओं को बड़े ख्वाब देखने के लिए भी प्रेरित करने वाला है।

क्या किसान आंदोलन को तोड़ने की सरकार की कवायद का हिस्सा बन रहा है सुप्रीमकोर्ट?

 कभी-कभार के अपवादों को छोड़कर भारत के सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश निर्णायक फैसले वर्ण-जाति व्यवस्था, पितृसत्ता, जमींदारों-भूस्वामियों के हितों की रक्षा और पूंजीवाद के पक्ष की ओर झुकते मिले हैं यानि सुप्रीकोर्ट अपरकॉस्ट, मर्दों, सामंतो-भूस्वामियों और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करता रहा है। इन वर्चस्वशाली समूहों के विपरीत सुप्रीमकोर्ट ने भी तभी फैसले दिए, जब उसे जन दबाव का सामना करना पड़ा या इस बात की आशंका पैदा हुई कि उसके किसी फैसले से भारी जनाक्रोश पैदा हो सकता है, जो वर्चस्वशाली समुदायों के लिए खतरा बन सकता है।
2014 के बाद तो धीरे-धीरे सुप्रीमकोर्ट खुले तौर पर हिदू राष्ट्र निर्माण और कार्पोरेट हितों की रक्षा का सबसे बड़ा टूल
(उपकरण) बनता दिखा। एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला, आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले, रामजन्मभूमि मामला, नागरिकता (संशोधन) कानून 2019, आर्थिक आधार पर आरक्षण (सवर्ण आरक्षण, 124 वां संविधान संशोधन 2019) और संविधान के अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर सुप्रीम कोर्ट का रूख इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं।
धीरे-धीरे एक और काम सुप्रीम कोर्ट करने लगा है, वह है सरकार के जनविरोधी और राष्ट्र विरोधी निर्णयों और संविधान संशोधनो को वैध ठहराना। इसका बड़ा सबूत राफेल कांड पर सरकार के निर्णय पर मुहर, अमित शाह का केस देख रहे, जज लोया की मृत्यु पर फैसला, शाहीन बाग पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, भीमा कोरेगांव षडयंत्र के नाम पर मनमानी गिरफ्तारियों और गिरफ्तार लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार उसका रवैया आदि हैं।
पिछले दिनों कई मामले आए, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की राह आसान की। अकारण नहीं है, किसानों के साथ आठवें दौर की बात-चीत में सरकार ने किसानों को सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए कहा। किसान आंदोलन के मुद्दे पर सतही रूप में सुप्रीम कोर्ट जितना भी सरकार के खिलाफ दिख रहा हो और किसानों के साथ हमदर्दी भरी टिप्पणियां कर रहा हो, लेकिन टिप्पणियों के बीच की पंक्तियां और सुप्रीमकोर्ट द्वारा बताए जा रहे समाधान के उपाय इस बात के प्रमाण हैं कि सुप्रीम कोर्ट देश के इतिहास के सबसे बड़े जनांदोलन में से एक वर्तमान किसान आंदोलन को तोड़ने और तितर-बितर करने की सरकार की मंशा का एक उपकरण बनने जा रहा है। जिस किसान आंदोलन के निशाने पर कार्पोरेट और उनके हिंदू राष्ट्रवादी नुमांइंदे नरेंद्र मोदी हैं और जो किसान आंदोलन देश को नई दिशा देने की कूबत रखता है।
सुप्रीम कोर्ट और सरकार की मिलीभगत से तैयार इस मंशा को किसान आंदोलन के नेता बखूबी समझ रहे हैं, इसलिए उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया है कि वे सरकार और किसानों के बीच सुप्रीम कोर्ट को मध्यस्थ के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। यही लोकतांत्रिक तरीका है, फैसला सीधे राजसत्ता और जनता के बीच के संवाद से लिया जाए। इसलिए किसानों का रूख पूर्णतया लोकतांत्रिक वसूलों- मूल्यों के अनुसार है।
इस जनांदोलन की हार देश के जनतंत्र और जनता के हितों के लिए एक और बहुत बड़ा धक्का होगी। यदि सुप्रीम कोर्ट इसमें हस्तक्षेप जनहित में नहीं, सत्ता के दीर्घकालिक हित में कर रहा है, क्योंकि यह जनांदोलन सरकार को कानून वापस लेने के लिए बाध्य करने की क्षमता रखता है।

मूल निवासी श्रमण धर्मों की जरूरत और उनका उभार

  महाराष्ट्र के कुछ बौध्द परिवारों ने मिलकर यह बौध्द मंदिर बनाया है। यह असल में बोधगया के महाबोधि मंदिर की प्रतिकृति है। यह बहुत उत्साहवर्धक बात है, इस तरह की पहल पूरे भारत में होनी चाहिए। अब समय आ गया है कि पूरे भारत मे बौद्ध धर्म सहित अन्य प्राचीन श्रमण धर्मों का बड़े पैमाने पर प्रचार होना चाहिए। आर्यों के आगमन के पूर्व एवं आर्यों की भारत विजय के दौरान व बाद मे जन्मे या बने हुए मूल निवासी श्रमण धर्मों को फिर से उभरने का समय आ गया है। अब जनजातीय समाज, शूद्र (ओबीसी) समाज और अन्य अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों को अपने मौलिक धर्मों और परंपराओं की तरफ लौटना चाहिए। याद रखिए कि सरकारें और और नीतियां शून्य में नहीं जन्मतीं। हर सरकार और उसकी किसानों, मजदूरों या महिलाओं से जुड़ी हर नीति एक विशेष धर्म-दार्शनिक परम्परा से आती है। इसीलिए नई सरकारें, नई नीतियां चाहिए तो नए धर्म और दर्शन का विकल्प भी निर्मित करना होगा। असल सवाल यह है कि आपकी मौजूदा सत्ता या सरकार किस धर्म दर्शन से संचालित है?

क्या उसमे इंसान के श्रम की इज्जत करने का कोई संस्कार है? क्या उसमे महिलाओं के शरीर और उनके मन की स्वतंत्रता का सम्मान करने की कोई परंपरा है? क्या आपकी सरकार के नुमाइंदों की धार्मिक शिक्षाओं में मनुष्य को मनुष्य समझने की परंपरा है? अगर है तो आप उनसे उम्मीद कर सकते हैं और अगर नहीं है तो आपको सरकारों और सरकार की नीतियों का विकल्प निर्मित करने के लिए सबसे पहले समाज मे धर्म दर्शन का विकल्प भी खड़ा करना होगा। कल्पना कीजिए कि पूरे भारत में एक ही कंपनी की मोबाईल व इंटरनेट सेवा है तब क्या होगा? तब निश्चित ही वह मोबाईल कंपनी एकाधिकार या मोनोपॉली चलाएगी। तब वह अपनी शर्तों पर अपने दूसरे धंधों-व्यापारों को फैलाने के लिए सारे प्रपंच करेगी। फिर धीरे धीरे वह मोबाइल और इंटरनेट सेवा के जरिए समाज मे और गहरे पैठ बनाएगी।

यह हम सब देख चुके हैं। खेल (क्रिकेट) और तेल (खाद्य तेल और पेट्रोल) के रास्ते अब इन्होंने रेल को हथियाने का प्लान बना लिया है। इसके बाद अब आपके गाँव खेत खलिहान तक इनकी नीतियाँ पहुँच रही हैं। इन्हीं नीतियों के खिलाफ किसान दिल्ली की सीमा पर जमे हुए हैं। एक कंपनी की मोनोपॉली की तरह ही एक विचारधारा और एक धर्म की मोनोपॉली भी खतरनाक होती है। भारत जैसे बहुलतावादी देश में तो यह और भी जरूरी है कि अनेकों धर्मों की उपस्थिति सांकेतिक रूप से ही नहीं बल्कि व्यवहार में भी बनी रहे। इसीलिए कम से कम भारत के SC/ST और OBC को अपने प्राचीन श्रमण धर्मों की घोषणा और पालन शुरू कर देना चाहिए। इस तरह नए धर्म-दार्शनिक विचारों के प्रसार के साथ मनुष्य को मनुष्य समझने वाली परंपराओं का प्रचार करना होगा। जो परंपरा श्रम करने वाले मनुष्यों या महिलाओं को अछूत या नीच घोषित करती है उसके मुकाबले में महिलाओं की सृजन शक्ति और किसानों मजदूरों के श्रम का सम्मान करने वाली परंपराओं को लाना होगा। प्राचीन भारत की सभी श्रमण परम्पराएं आर्यों के धर्म की तुलना मे अधिक समतावादी और मानवीय रही हैं। भारतीय श्रमण परंपराओं में ईश्वर या सनातन आत्मा जैसा कोई अंधविश्वास नहीं होता है।

अब समय आ गया है कि शुरुआत करते हुए कम से कम बौद्ध धर्म को बड़े पैमाने पर भारत में फैलाया जाए। एक मोबाइल कंपनी की दादागिरी को संतुलित करने के लिए अन्य कंपनियों का होना जरूरी है। ठीक इसी तरह एक विशेष तरह की विश्वदृष्टि और विचारधारा या धर्म दर्शन के समानांतर अन्य धर्म और दर्शनों की सख्त आवश्यकता है। यही मूल रूप से भारत का वास्तविक चरित्र रहा है जिसे बीते कुछ समय मे बहुत नुकसान पहुंचा है। अब भारत के बहुजनों को वैकल्पिक राजनीति के समानांतर वैकल्पिक धर्मों की खोज व प्रचार को एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट की तरह हाथ मे लेना चाहिए। हालांकि यह पहल आरंभ हो चुकी है, इसमे और ऊर्जा और गति की जरूरत है।

सुप्रीम कोर्ट ने लगाई तीनों कृषि बिल पर रोक

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केंद्र सरकार द्वारा पास किए गए तीनों कृषि कानून के लागू होने पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। सर्वोच्च अदालत ने आज (मंगलवार 12 जनवरी 2021) को ये फैसला सुनाया, साथ ही अब इस मसले को सुलझाने के लिए कमेटी का गठन कर दिया गया है। सरकार और किसानों के बीच लंबे वक्त से चल रही बातचीत का हल ना निकलने पर सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला लिया। शीर्ष न्यायालय द्वारा चार सदस्यीय कमेटी गठित की गई है। इस कमेटी में भारतीय किसान यूनियन के जितेंद्र सिंह मान, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी, अशोक गुलाटी (कृषि विशेषज्ञ) और अनिल शेतकारी शामिल हैं।

माना जा रहा है कि अदालत के इस रुख से जहां सरकार की बदनामी होने से बच गई है, वहीं किसानों के आंदोलन की  जीत हुई है। लेकिन अब इस पर भी ध्यान देना होगा कि सरकार समिति क्या फैसला करती है और वह किसानों को कितना मंजूर होता है। एक आशंका यह भी जताई जा रही है कि फिलहाल सरकार कहीं समिति के बहाने किसानों के आंदोलन को उलझाने में तो नहीं लगी है। गौरतलब है कि किसानों के समर्थन में देश भर से लोग जुड़ते जा रहे थे।

असम में कड़ाके की ठंड में मिसिंग जनजाति के लोग क्यों दे रहे हैं धरना

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असम के तिनसुकिया बोरगुरी इलाके में बीते 21 दिसंबर से दो गांवों के 1480 लोग कड़ाके की ठंड में धरने पर बैठे हुए हैं। ठंड ने दो प्रदर्शनकारियों की जान ले ली है, बावजूद इसके लोग धरने से उठने को तैयार नहीं है। इंसानियत को शर्मसार करती एक सच्चाई यह भी है कि इनकी फिक्र न तो सरकार को है, न ही स्थानीय प्रशासन को। जिन दो गांवों के लोग धरने पर हैं, उस गांव का नाम- लाइका और दोधिया है। ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट में स्थित डिब्रू-सैखोवा नेशनल पार्क के मुख्य क्षेत्र में मिसिंग जनजाति के ये दो वन गाँव बीते 70 सालों से बसे हुए है। लेकिन राष्ट्रीय उद्यान होने के कारण वहां लोगों को मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी सरकारी योजनाओं को बंद कर दिया गया है। ऐसे में इन दोनों गांवों के लोग पिछले कई सालों से स्थायी पुनर्वास की मांग को लेकर आंदोलन करते आ रहे हैं। लेकिन अब इनकी मांग है कि जबतक सरकार किसी दूसरी ज़मीन पर इन्हें स्थायी तौर पर बसा नहीं देती ये धरना स्थल पर ही रहेंगे। कड़ाके की इस ठंड में प्रदर्शन स्थल पर अबतक दो महिलाओं की मौत हो चुकी है जबकि कई लोग लगातार बीमार पड़ रहे हैं। एक प्रदर्शनकारी दमयंती अपने विरोध और दर्द को मिसिंग जनजाति का एक गीत गाकर बयां करती हैं तो पास बैठी महिलाएं रोने लगती हैं। वो कहती हैं कि हमारा कोई ठिकाना नहीं है और हमें नहीं पता इस शिविर में हमारा आगे क्या होगा? हम ज़िंदा भी रहेंगे या नहीं। हमारे साथ सरकार क्या करेगी, जिस तरह ब्रह्मपुत्र का पानी बह रहा है उसे पता नहीं वो कहां जाकर गिरेगा, ठीक वैसा ही हमारा जीवन हो गया है।


बीबीसी संवाददाता दिलीप शर्मा की रिपोर्ट के आधार पर, फोटो क्रेडिट- दिलीप शर्मा बीबीसी

 

सुप्रीम कोर्ट में कृषि बिलः सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी रुख पर निराशा जताई, क्या SC खारिज करेगी किसान बिल?

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 जब यह साफ दिख रहा है कि किसान आंदोलन को हल निकालने के लिए सरकार तैयार नहीं है, अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है। किसान जहां इस बिल को रद्द करने पर अड़े हैं तो सरकार इसमें कोई बदलाव करने के मूड में नहीं है। ऐसे में अब सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट पर है। पिछले 47 दिन से किसानों का आंदोलन जारी है। आज (11 जनवरी) शीर्ष अदालत में किसानों का पक्ष मशहूर वकील प्रशांत भूषण रख रहे हैं। इसके अलावा भी अलग-अलग किसान संगठनों के अपने वकील है।

जो खबर आई है, उसके मुताबिक इस बिल पर सुनवाई के दौरान अपनी प्रतिक्रिया में चीफ जस्टिस ने कहा कि जिस तरह से प्रक्रिया चल रही है, हम उससे निराश हैं। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार से दो टूक कहा कि इन कानूनों को अमल में लाने पर केंद्र रोक लगाएं, वरना कोर्ट खुद ऐसा कर देगा। शीर्ष अदालत ने कहा कि “हम फिलहाल इन कृषि कानूनों को निरस्त करने की बात नहीं कर रहे हैं, यह एक बहुत ही नाजुक स्थिति है। हमें नहीं मालूम की आप (केंद्र) हल का हिस्सा हैं या फिर समस्या का लेकिन हमारे पास एक भी ऐसी याचिका नहीं है, जो कहती हो कि ये कानून किसानों के लिए फायदेमंद हैं।” शीर्ष अदालत ने आंदोलन के दौरान कुछ लोगों की खुदकुशी और बुजुर्ग और महिलाओं के भी इस आंदोलन में शामिल होने का संज्ञान लिया।

सुनवाई के दौरान किसान संगठनों ने कानूनों की वजह से होने वाले नुकसान के बारे में कोर्ट को बताया। एक-एक बात बारीकी से बताई। यह भी बताया गया कि किस तरह से उन्हें आंदोलन करने पर मजबूर किया गया।  जहां तक अदालत का सवाल है तो वह इस बिल को तभी रद्द कर सकती है, जब उसे यह लगेगा कि यह बिल संविधान के खिलाफ है। किसानों का पक्ष इसे किस तरह अदालत में संविधान विरोधी बताता है, यह देखना होगा।

एक किसान संगठन और वकील एमएल शर्मा ने चुनौती दी है। शर्मा ने याचिका में कहा है कि केंद्र सरकार को कृषि से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है। कृषि और भूमि राज्यों का विषय है और संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 2 (राज्य सूची) में इसे एंट्री 14 से 18 में दर्शाया गया है। यह स्पष्ट रूप से राज्य का विषय है। इसलिए इस कानून को निरस्त किया जाए।

कृषि बिल को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अब तक के रुख पर बात करें तो 16 दिसंबर 2020 को कोर्ट ने कहा था कि किसानों के मुद्दे हल नहीं हुए तो यह राष्ट्रीय मुद्दा बनेगा। वहीं 6 जनवरी 2021 को अदालत ने सरकार से कहा कि स्थिति में कोई सुधार नहीं, किसानों की हालत समझते हैं। मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन जजों की के समक्ष सोमवार को ये सुनवाई इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकार ने कहा है कि यदि सर्वोच्च अदालत किसानों के हक में फैसला देता है तो उन्हें आंदोलन करने की जरूरत नहीं रहेगी।

हार्वर्ड युनिवर्सिटी में लेक्चर देंगे हेमंत सोरेन, करेंगे आदिवासी मुद्दों पर बात

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 दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटीज में से एक अमेरिका की हावर्ड यूनिवर्सिटी में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन वहां के वर्तमान और पुराने छात्रों को लेक्चर देंगे। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ‘आदिवासी अधिकार, सतत विकास और कल्याणकारी नीतियों’ पर अपना व्याख्यान देंगे। दरअसल हावर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा ‘एनुअल इंडिया कांफ्रेस’ का आयोजन किया जाता है। इस बार कोविड होने के कारण ये कार्यक्रम ऑनलाइन ही किया जा रहा है। हावर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा किए जाने वाले इस कार्यक्रम की ये 18वीं श्रृंखला है। इसी प्रोग्राम में एक लेक्चर देने के लिए हेमंत सोरेन को आमंत्रित किया गया है। इस बाबत छात्रों ने हेमंत के लिए एक पत्र लिखा, जिसे हेमंत सोरेन ने स्वीकार कर लिया है। हावर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा आयोजित किए जा रहे इस 18वें ‘वार्षिक भारत सम्मेलन’ का आयोजन 2021 की 19 फरवरी से 21 फरवरी तक किया जाना है। इसी बीच 20 फरवरी के दिन हेमंत सोरेन अपना व्याख्यान देंगे। गौरतलब है कि ‘वार्षिक भारत सम्मेलन’ भारत पर केंद्रित एक बड़ा फोरम है जिसपर पूरी दुनियाभर के छात्रों और बुद्धजीवियों की नजर रहती है। यह भी गौरतलब है कि साल 2020 के ‘हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस’ में दलित दस्तक के संपादक अशोक दास भी हिस्सा ले चुके हैं, जहां उन्होंने ‘कॉस्ट एंड मीडिया’ विषय पर अपनी बात रखी थी। अशोक दास के साथ इस पैनल में वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल, न्यूयार्क की पत्रकार यशिका दत्त और हिन्दुस्तान टाइम्स के ध्रुवो ज्योति भी शामिल थे। इसके मोडरेटर हार्वर्ड युनिवर्सिटी के पोस्ट डाक्ट्रेट फेलो सूरज येंगड़े थे।

सरकार और किसानों के बीच बैठक फिर बेनतीजा, किसानों का बड़ा ऐलान

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 केंद्र सरकार और किसानों के बीच कृषि बिल को लेकर मामला उलझता जा रहा है। आज दोनों पक्षों के बीच 8वें दौर की बातचीत हुई, लेकिन एक बार फिर बैठक बेनतीजा ही रही। आलम यह हो गया कि बैठक में सरकार की ओर से शामिल तीनों मंत्री बैठक से बाहर निकल कर चले गए। बैठक में कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर और उनके साथी मंत्री किसानों से बातचीत में शामिल थे।

8वें दौर की बैठक कुछ अलग थी। अब तक हुई शांति पूर्ण बैठक में आज किसान नाराज हो गए। खबर है कि एक समय ऐसा आया जब सरकारी नुमाइंदों और किसानों के बीच बहस होने लगी। ऐसे में एक वक्त बैठक में शामिल तीनों मंत्री बैठक से निकल गए। तीनों कृषि कानूनों को रद्द कराने की मांग पर अड़े किसान ने सरकार से बड़ी घोषणा करते हु दो टूक कहा कि उनकी ‘घर वापसी’ तभी होगी जब वह इन कानूनों को वापस लेगी। लेकिन सरकार ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया और कानून में बदलाव करने की बात कही। इसके बाद बैठक में बहस का दौर शुरू हो गया। इस दौरान सरकार ने दावा किया कि कई राज्यों में किसानों ने इन कानूनों का अच्छा मानते हुए इन्हें स्वीकार कर लिया है। आपको भी पूरे देश का हित समझना चाहिए। लेकिन किसान सरकार को ही कठघरे में खड़ा करने लगे।

मुक्ता साल्वेः सावित्रीबाई फुले की ऐसी शिष्या, जिनका विचार ज्ञानोदय अखबार ने छापा था

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 सुनो बता रही हूं कि हम मनुष्यों को गाय, भैंसों से भी नीच माना है, इन लोगों ने, जिस समय बाजीराव का राज था, उस समय हमें गधों के बराबर ही माना जाता था। आप देखिए, लंगड़े गधे को भी मारने पर उसका मालिक भी आपकी ऐसी-तैसी किए बिना नहीं रहेगा लेकिन मांग-महारों को मत मारो ऐसा कहने वाला भला एक भी नहीं था। उस समय दलित गलती से भी तालिमखाने के सामने से अगर गुज़र जाए तो गुल-पहाड़ी के मैदान में उनके सिर को काटकर उसकी गेंद बनाकर और तलवार से बल्ला बनाकर खेल खेला जाता था‌”

यह दलितों के अधिकारों की बात करने वाली आधुनिक युग की पहली दलित लेखिका मुक्ता साल्वे के शब्द हैं। इनके शब्दों में वेदना और आक्रोश साफ झलकते हैं। मुक्ता सावित्रीबाई और ज्योतिबाई फुले की पाठशाला की छात्रा थीं। मुक्ता क्रांतिवीर लहूजी साल्वे की पोती थीं, जो महाराष्ट के क्रांतिकारी हुआ करते थे। लहूजी ने महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले को लड़कियों के सबसे पहले स्कूल को खुलवाने में मदद की थी और उनका यह स्कूल 1 जनवरी 1848 पुणे में खुला था। 15 फरवरी 1855 को मात्र 14 साल की उम्र में उन्होंंने अपने निबंध में पेशवा राज (ब्राह्मणों का राज) में दलितों की स्थिति को शब्दों में व्यक्त किया था। उन्होंने इनके के दुखों, चुनौतियों और निवारण के उपायों के संबंध में विस्तृत निबंध लिखा था, जिसे मराठी पत्रिका ज्ञानोदय ने सर्वप्रथम ‘मांग महाराच्या दुखविसाई’ शीर्षक से दो भागों में प्रकाशित किया था। पहला भाग 15 फरवरी 1855 तथा दूसरा भाग 1 मार्च 1855 को प्रकाशित हुआ था। 5 जनवरी 2021 को उन्हीं मुक्ता सालवे की 177 वीं जयंती है। उन्हें नमन।

  • प्रस्तुतिः रंजन देव

बहुजन नायकों की जंयती के बहाने अन्य जाति-धर्मों और शास्त्रों को कोसना कितना सही?

 इन दिनों बहुजन नायकों की जयंती पर किसी अन्य जाति, धर्म और धर्म शास्त्रों को कोसने का जैसे चलन सा चल पड़ा है। पहले तो साल में बाबासाहब के नाम पर दो दिन ही होते थे। अब तो हमने कई बहुजन महापुरुषों को ढूंढ निकाला है, जिनके नाम पर दूसरे जाति धर्म को कोसने, चिढ़ाने व गालियां देने के मानो भरपूर अवसर मिल रहा है। विगत 3 जनवरी को माता सावित्रीबाई फुले की जयंती थी। सोशल मीडिया तो भर ही गया था। छोटी छोटी जगहों पर भी लोगों ने इकट्ठा होकर कोसने के एक सूत्रीय मिशन को सफल बनाने के भाषण दिए। सभा में एक युवक ने ज्योतिबा व सावित्रीबाई के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने मौहल्ले में बच्चों को दो घंटे पढ़ाने की योजना बताई तो सभी ने झिड़क कर बैठा दिया। विगत 25 दिसंबर को बहुजनों ने मनुस्मृति दहन दिवस खूब धूमधाम से मनाया। पानी पी पी कर दूसरे जाति धर्म को गालियां दी। मनुस्मृति से छांटे हुए श्लोकों का बार-बार पठन किया। सभा में जब बाबासाहब के एक उत्साही अनुयायी ने सुझाव दिया कि हमें मनुस्मृति को बार बार याद कर फिर से जिंदा करने की बजाय मानव कल्याण के लिए बाबासाहब की महान रचना ‘बुद्ध और उनका धम्म’ व ‘संविधान’ को घर घर पहुंचाने पर जोर देना चाहिए, तो सभी ने उसे डांटते हुए कहा- ‘यह काम हमारा नहीं है’। होली व रावण दहन का हम विरोध करते हैं लेकिन हर साल मनुस्मृति की होली जलाने का जश्न मनाते हैं। मजेदार बात तो यह है कि जिन्होंने मनुस्मृति लिखी उनकी संतानें मनुस्मृति को पढ़ना तो दूर देखते तक नहीं है, लेकिन कथित अंबेडकरवादी लोग इसको रस ले लेकर पढ़ते हैं ताकि एक जाति के खिलाफ बोलने का मसाला मिल जाए। आज डॉ. अंबेडकर होते तो अपने ही लोगों से लड़ना पड़ता। ज्योतिबा फुले जयंती के दिन हम जोशीले भाषण में युवाओं को यह चीख चीख कर बताते हैं कि ज्योतिबा को किन जाति के लोगों ने परेशान किया लेकिन इस बात पर चुप रहते है कि ऐसी मुश्किल हालात में भी वह अंग्रेजी में भी पारंगत हुए, सावित्री बाई को पढ़ाया, साहित्य का सृजन किया, गरीबों के लिए स्कूल खोले। इसलिए हमें भी अपनी आय का कुछ अंश देकर मौहल्लों में स्कूल खोलने चाहिए, कुछ घंटे गरीब बच्चों को पढ़ाना चाहिए। कबीर जयंती हो या सतगुरु रविदास का स्मृति दिवस, सामाजिक क्रांति के इन महान संतों द्वारा रचित अथाह ग्रंथों में से हम उन्ही चंद दोहों की रट लगाते हैं जो उन्होंने किसी जाति धर्म के पाखंड के खिलाफ कहे थे। लेकिन मन की शुद्धि, ज्ञान, ध्यान, दान, मानव सेवा के विचारों को जीवन में उतारने की उनकी वाणी के पन्नों को पलटते ही नहीं है, छुपा देते हैं। कोरेगांव जैसे शौर्य दिवसों पर हमारे बहादुर वीरों की गौरव गाथा का बखान करना जरूरी है लेकिन इसके साथ ही भारत के दूसरे राज्यों में छोटे छोटे गांवों में इस दिन आसपास की दूसरी जातियों को कोस कर, माहौल बिगाड़ कर स्थानीय गरीब बहुजनों के लिए परेशानियां पैदा करना कहां की समझदारी है? बुद्ध पूर्णिमा का दिन आता है। बात प्रेम, करुणा, मैत्री, शील, समाधि व प्रज्ञा की करनी होती है, लेकिन जब तक हम दूसरे धर्म, उनके शास्त्रों रीति रिवाजों को गालियां नहीं दे देते तब तक बुद्ध पूर्णिमा का समारोह सफल नहीं माना जाता. इस दिन बुद्ध की शिक्षाओं के बजाए दूसरे धर्म की विकृतियों को ज्यादा याद करते हैं और इसके बाद अलग अलग बौद्ध संस्थाओं के लोग आपस में भिड़ते नजर आते हैं। हमने बहुजन महापुरुषों के दिनों को उनकी शिक्षा, साहित्य व जीवन से प्रेरणा लेकर मौजूदा संकट के दौर में शांति से उनकी विचारधारा फैलाने की बजाए उनके नाम पर दूसरों को कोसने के बहाने ढूंढ लिए हैं। सारी ऊर्जा सृजन की बजाए नकारात्मक दिशा में बर्बाद हो रही है। उनको पढ़ने, समझने व जीवन में अपनाने के बजाय उनकी मूर्तियों को मालाओं से ढकने में ज्यादा रुचि ले रहे हैं। छाती पर बाबासाहेब के चित्र वाली बनियान पहनकर उछलना, दूसरों को चिढ़ाने के लिए नारे लगाते हुए गांवों में रैली निकालना उस महापुरुष का मिशन तो नहीं हो सकता। जिस मार्ग पर नहीं जाना उसका नाम क्यों लेना? लेकिन बहुजन समाज के लोग उसी मार्ग का रात दिन रोना रोते हैं, बार बार याद करते हैं जिसके लिए महापुरुषों ने मना किया था। इसके लिए बाकायदा मोटा चंदा इकट्ठा कर बड़े समारोह आयोजित किए जाते हैं, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि ये सामाजिक, वैचारिक, सांस्कृतिक और आर्थिक खुशहाली लाने की बजाय दूसरों को कोसने व आपस में भिड़ने के समारोह है। आखिर कहां आ गए हैं हम? चले थे मानव समाज में इनकी प्रेम, करुणा व मैत्री की विचारधारा फैलाने के लिए, लेकिन हमने अपने ही व्यवहार से महान संतों, महापुरुषों को आज दूसरे समुदायों की नजर में खलनायक बना दिया है।

आधुनिक भारत की पहली विद्रोही कवयित्री: सावित्रीबाई फुले

 अतीत के इन ब्राह्मणों के धर्मग्रंथ फेंक दो करो ग्रहण शिक्षा, जाति-बेड़ियों को तोड़ दो उपेक्षा, उत्पीड़न और दीनता का अन्त करो! -सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई फुले आधुनिक भारत की प्रथम भारतीय महिला शिक्षिका थीं, इस तथ्य से हम सभी वाक़िफ़ हैं। लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो इस तथ्य से परिचत होंगे कि वे आधुनिक भारत की पहली विद्रोही महिला कवयित्री और लेखिका थीं। उनकी कविताओं का पहला संग्रह, ‘काव्य फुले’ 1854 में प्रकाशित हुआ था। तब वे महज 23 वर्ष की थीं। इसका अर्थ है कि उन्होंने 19-20 वर्ष की उम्र से ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। उनका दूसरा कविता संग्रह ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ नाम से 1891 में आया। सावित्रीबाई फुले अपनी रचनाओं में एक ऐसे समाज और जीवन का सपना देखती थीं, जिसमें किसी तरह का कोई अन्याय न हो और हर इंसान मानवीय गरिमा के साथ जीवन व्यतीत करे।

उन्होंने अपनी कविताओं में सबसे ज़्यादा चोट मनुवाद, जाति-वर्ण के भेदभाव और स्त्री-पुरुष के बीच की असमानता पर की है। हम आपको सुनाते हैं, माता सावित्रीबाई की ऐसी ही चर्चित कविताएं-

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‘शूद्रों का दर्द’ शीर्षक कविता में वे लिखती हैं- दो हज़ार वर्ष से भी पुराना है शूद्रों का दर्द ब्राह्मणों के षड्यंत्रों के जाल में फंसी रही उनकी ‘सेवा’

जोतिराव फुले, डॉ. आंबेडकर और पेरियार की तरह सावित्रीबाई फुले को भी इस बात का बहुत दुःख होता था कि शूद्रों-अतिशूद्रों के बेहतर जीवन के सारे सपने मर गये हैं। वे अच्छी तरह समझती थीं कि शूद्रों-अतिशूद्रों के कर्मों का सारा फल ब्राह्मण हड़प लेते हैं और बिना फल की चिंता किए खटते रहने का उपदेश देते हैं। अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा-

शूद्रों-अतिशूद्रों की दरिद्रता के लिए अज्ञानता व रूढ़ीवादी रीति-रिवाज़ हैं जिम्मेदार परम्परागत बेड़ियों में बंधे-बंधे सब पिछड़ गये हैं सबसे देखो जिसका यह परिणाम है कि हम झुलस गये तेज़ाब में ग़रीबी के नहीं रहा अहसास कोई भी सुख-सम्मान, अधिकार का न कोई आशा और इच्छा आत्मसात कर दु्ःखों को समझा सुखी ही अपने को

           

अपनी एक अन्य कविता में उन्होंने ब्राह्मणवाद पर करारा प्रहार किया-

पोंगा पंडित, साधु-संत सब मांगें भीख बिना मेहनत कर घूमें गली-गली, जग को दें उपदेश बिना काम के चाहें फल यह लालच दिखा स्वर्ग-पुण्य का

     

ऐसा नहीं है कि सावित्रीबाई फुले सिर्फ ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों पर ही हमलावर हैं। बल्कि वह अज्ञानतावश पशुवत ज़िंदगी जीने के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को धिक्कारती हैं। अपनी कविता में वह लिखती हैं-

जीवन स्वीकारते पशु समान पशुवत जीने को सुख समझें है न यह घोर अज्ञान!

फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर का भी मानना था कि शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की दुर्दशा का कारण अज्ञानता है। सावित्रीबाई फुले भी अपनी कविताओं में मनुवादी बेडियों को तोड़ने और शिक्षित बनने का आह्वान करती हैं। लेकिन इसके साथ ही वे इस बात के लिए भी चेताती हैं कि तुम मनुवादी शिक्षा मत लेना। वो लिखती हैं-

उठो, अरे अतिशूद्र उठो तुम मर-मिट गये मनुवादी पेशवा ख़बरदार अब मत अपनाना मनु-अविद्या की… रची ग़ुलामी-परम्परा को

वे धिक्कारती हुई, समझाती हुई कहती हैं-

बिना ज्ञान के व्यर्थ सभी कुछ हो जाता बुद्धि बिना तो इंसान भी पशु कहलाता

   

वे अंग्रेजों द्वारा शिक्षा का द्वार सबके लिए खोलने को एक सुनहरे अवसर के रूप में देखती हैं और कहती हैं कि इस शिक्षा को ग्रहण करके अपनी दुर्दशा का अंत करो-

अब निठल्ले मत बैठो जाओ, शिक्षा पाओ पीड़ित और बहिष्कृतों की दुर्दशा का अंत करो सीखने का मिल गया है यह तुम्हें अवसर सुनहरा, सीख लो और तोड़ दो ज़ंजीरें ये जाति-व्यवस्था की सुनो फेंक डालो शीघ्र भाई ब्राह्मणों के धर्मग्रंथों को

 सावित्रीबाई फुले अपनी कविताओं में इतिहास की ब्राह्मणवादी व्याख्या को चुनौती देती हैं। वे कहती हैं कि शूद्र ही इस देश के मूलनिवासी और वीर योद्धा थे और यहां के शासक थे। उनका समाज अत्यन्त समृद्ध समाज था। बाद में आक्रामणकारियों ने शूद्र शब्द को अपमानजनक बना दिया। वे ‘शूद्र शब्द का अर्थ’ कविता में लिखती हैं कि-

शूद्र का असली मतलब मूलनिवासी था लेकिन सूर विजेताओं ने बना दिया ‘शूद्र’ को गाली ईरानी हों या हों ब्राह्मण ब्राह्मण हों या हों अंग्रेज सब पर अंतिम विजय प्राप्त की शूद्रों ने ही क्योंकि वे ही क्रांतिकारी थे मूलनिवासी थे, समृद्ध थे वही ‘भारतीय’ कहलाते थे ऐसे वीर थे अपने पूर्वज हम हैं उन लोगों के वंशज

वे साफ़ शब्दों में कहती हैं कि यह भारत देश, यहाँ के मूल निवासियों का देश है। वही इस धरती के असली हकदार हैं-

नहीं है भारत और किसी का न ईरानी लोगों का यह न यूरोपीय लोगों का न तातारों, न हूणों का इसकी नसों में रुधिर बह रहा मूलनिवासी शूद्रों का

सावित्रीबाई फुले ने अपनी कविताओं में बहुजन समाज को जगाने का प्रयास किया। सावित्रीबाई फुले की कविताएं आधुनिक जागरण की कविताएं हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में ब्राह्मणवाद-मनुवाद को चुनौती दी। शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति का आह्वान किया है। उनकी कविताएं इस बात की प्रमाण हैं कि वे आधुनिक भारत की प्रथम विद्रोही कवयित्री हैं।

कोरेगांवः घटना के तीन साल बाद भी न्याय के इंतजार में सामाजिक कार्यकर्ता

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 भीमा कोरेगाँव में एक जनवरी 2018 को हिंसक झड़प हुई थी। तब विजय दिवस के 200 साल पूरे हुए थे और इस उपलक्ष्य में हजारों लोग कोरेगांव स्थित उस स्थल देश भर से पहुंचे थे। इसको एक साजिश बताते हुए अब तक 16 सामाजिक कार्यकर्ताओं, कवियों और वकीलों को गिरफ़्तार किया जा चुका है। पुलिस और राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने जिन लोगों को गिरफ़्तार किया है, उनमें दलित समाज के बुद्धिजिवी आनंद तेलतुंबडे, मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा, कवि वरवर राव, स्टेन स्वामी, सुधा भारद्वाज, वर्नोन गोंजाल्विस समेत कई अन्य शामिल हैं। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका की सदस्यता लें, बहुजन आंदोलन एवं विचारधारा बढ़ाएं

दरअसल घटना से एक दिन पहले 31 दिसंबर 2017 को ऐतिहासिक शनिवार वाड़ा पर एल्गार परिषद का आयोजन किया गया था। इसमें प्रकाश आंबेडकर, जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद, सोनी सोरी और बी.जी. कोलसे पाटिल जैसी हस्तियों ने हिस्सा लिया था। इसके बाद एक जनवरी को हिंसा हो गई। भीड़ पर पत्थरबाजी हुई, गोलियां चली, तो वहीं कई स्थानीय लोगों के गाड़ियों के शीशे टूट गए। एक व्यक्ति मारा गया। दलित समाज इसके पीछे आरएसएस के कुछ लोगों की साजिश बताता रहा है तो पुलिस और जांच एजेंसियां इस मामले में बुद्धिजीवियों और प्रगतिशीलों को निशाना बनाती रही है। इनको तमाम आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया।

17 मई 2018 को पुणे पुलिस ने यूएपीए की धाराओं 13, 16, 18, 18B, 20, 39, और 40 के तहत मामला दर्ज किया। पुणे पुलिस की शुरुआती जांच के बाद केंद्र सरकार ने इस मामले को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दिया। एनआईए ने भी मामले के संबंध में 24 जनवरी 2020 को भारतीय दंड संहिता की धारा 153A, 505(1)(B), 117 और 34 के अलावा यूएपीए की धारा 13, 16, 18, 18B, 20 और 39 के तहत एफ़आईआर दर्ज की। एनआईए ने अक्टूबर के दूसरे हफ़्ते में एक विशेष अदालत के सामने 10,000 पन्नों की चार्ज़शीट पेश की थी। इस मामले में पहली चार्जशीट दायर करने के बाद पुलिस ने 21 फ़रवरी 2019 को एक पूरक चार्जशीट पेश की। एएनआई ने मुंबई में एक नई एफ़आईआर दर्ज की और 11 लोगों को अभियुक्त के तौर पर नामज़द किया। चार्जशीट में इन पर कई आरोप लगाए गए। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर हनी बाबू को भी मामले में गिरफ़्तार किया गया था. एनआईए ने उन पर अपने छात्रों को माओवादी विचारधारा से प्रभावित करने का आरोप लगाया।

कोरेगांवः अछूतों की वीरगाथा का स्वर्णिम अध्याय

देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली तब की महाराष्ट्र सरकार ने भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच के लिए 9 फ़रवरी 2018 को एक दो सदस्यीय न्यायिक आयोग गठित किया था। कोलकाता उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जे.एन. पटेल ने इस आयोग की अध्यक्षता की। इस आयोग को चार महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट पेश करनी थी, लेकिन अब तक कई बार और समय दिए जाने के बावजूद आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश नहीं की है और मामले को लगातार टाला जा रहा है।

2021 में बहुजनों के सामने चुनौतियां

2020 खत्म होने के साथ ही 21वीं सदी के दो दशक बीत गए हैं। ऐसे में हमें थोड़ा ठहर कर अपने समाज एवं आंदोलन की दशा और दिशा पर विचार करना चाहिए। हमें सोचना चाहिए की हमारा समाज और आंदोलन कहाँ तक पहुंचा है और हमारे समाज ने क्या खोया और क्या पाया है? ताकि हम 2021 में अपनी ताकत को सकारात्मक दिशा में लगा कर अपने समाज और आंदोलन को और भी मजबूत कर सकें ताकि कोई अन्य हमारा प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए न कर सके।

दलितों की आर्थिक दशा अगर हम दलितों में गरीबी की पड़ताल करें तो हम पाएंगे की 2004-2005 में भारत के सामजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के एक आंकड़े के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति के 27.7 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। कुछ राज्यों के ग्रामीण अंचल में दलितों की हालत और भी बदतर है जैसे- बिहार में 64, झारखण्ड में 57, उत्तराखंड में 54, उड़ीसा में 50 और उत्तर प्रदेश में 44 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। NSSO के 2011 के आकड़े के अनुसार कर्नाटक जैसे विकसित राज्य में स्व-रोजगार पर आश्रित अनुसूचित जाति के परिवारों में 37.4 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और अनुसूचित जनजाति में यह प्रतिशत 19.5 प्रतिशत नियमित रूप से वेतनभोगी लोगों के बीच है। अनुसूचित जाति में 15.7 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति में 8.1 प्रतिशत लोग आज भी गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। नेशनल सैंपल सर्वे के 73वें राउंड के अनुसार भारत में कुल 633.88 लाख सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमी हैं। इनमें से सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2019-2020 (पृष्ठ- 23) के अनुसार इनमें से अनुसूचित जाति एवं जनजाति की भागीदारी शहरी क्षेत्रों में क्रमश: 9.45 एवं 1.43 प्रतिशत ही है जो कि उनकी जनसंख्या के अनुपात में बहुत ही कम है।

दलितों की आवासीय स्थिति

अगर हम इस बात का आंकलन करें कि आज दलित समाज के बहुसंख्यक लोग कहां पर रह रहे हैं, तो हम पाएंगे कि आज भी लगभग 70% दलित समाज ग्रामीण अंचल में रहता है और किसी-किसी प्रदेश में तो यह प्रतिशत इससे भी ज्यादा है। कुछ प्रमुख राज्यों पर नजर डालें तो हिमाचल में 90, बिहार में 89, असम में 86, उड़ीसा में 83, मेघालय में 80, उत्तर प्रदेश में 78 और छत्तीसगढ़ में 77 प्रतिशत लोग आज भी गांवों में रहते हैं। दलित समाज में आज भी 71% लोग भूमिहीन किसान हैं जो मजदूरी करके अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर लगभग 11 लाख अनुसूचित जाति परिवार मलिन बस्तियों में रहते हैं। यह भी कहा जाता है कि अनुसूचित जाति की कुल 10 प्रतिशत आबादी स्लम में रहती है। भारत के अनेक शहरों में यह देखा गया है कि आज भी दलितों को किराये पर घर नहीं दिया जाता है।

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दलितों की उच्च-शिक्षा में स्थिति आज भी अखिल भारतीय स्तर पर दलितों में 27 प्रतिशत लोग साक्षर नहीं हैं। ग्रामीण अंचल में यह बढ़ कर लगभग 33 प्रतिशत हो जाता है। अगर हम उच्च शिक्षा को देखें तो हम पाएंगे कि अनुसूचित जाति के केवल 13.4 और जनजाति के 4 प्रतिशत छात्र/छात्राएं ही उच्च शिक्षा में अब तक पहुंच पाए हैं। दूसरी ओर 46 केंद्रीय विश्वविद्यालयों और एक ओपन केंद्रीय विश्वविद्यालय में केवल एक कुलपति अनुसूचित जनजाति (एसटी) से संबंधित है। मध्य प्रदेश में 19 विश्वविद्यालयों में से एक भी अनुसूचित जाति (SC) का कुलपति नहीं है और उत्तर प्रदेश में 25 राज्य विश्वविद्यालयों में SC वर्ग से कोई नहीं है। ये उदाहरण इस तथ्य समझने के लिए पर्याप्त हैं कि ये विश्वविद्यालय समावेशी नहीं हैं। सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के माध्यम से प्राप्त जानकारी के अनुसार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने खुलासा किया कि 2009-10 तक 1,688 स्वीकृत प्रोफेसरों और 3,298 एसोसिएट प्रोफेसर पदों में से केवल 24 प्रोफेसर और 90 एसोसिएट प्रोफेसर ही एससी श्रेणी से थे। 24 केंद्रीय विश्वविद्यालयों से एकत्र किये गए इन आकड़ों को प्रतिशत के लिहाज से देखे तो, यह क्रमशः 2.73 प्रतिशत और 4.4 प्रतिशत है। याद रहे एससी के लिए संवैधानिक रूप से केंद्र की नौकरियों में 15 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है।

इसी कड़ी में एक अन्य तथ्य जो भारत की उच्च शिक्षा में दलितों के प्रतिनिधित्व की पोल खोलती है वह है दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध 80 कॉलेजों में प्रधानाचार्यों की नियुक्ति। इन 80 प्रधानाचार्यों में एक भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति का नहीं है। 21 नवंबर, 2019 के ‘दि हिन्दू’ अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार मानव संसाधन मंत्री ने राज्यसभा को यह अवगत कराया कि भारत के 20 आईआईएम (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट) में केवल 11 शिक्षक अनुसूचित जाति /जन जाति के हैं। 20 में से 11 संस्थानों, जिनमें आईआईएम अहमदाबाद और आईआईएम कोलकत्ता भी शामिल है, में भी अनुसूचित जाति /जनजाति का शिक्षक नहीं नियुक्त किया गया है, जबकि संवैधानिक आधार पर उनको क्रमशः 15 एवं 75 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। अतः उपरोक्त आकड़ों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थान 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक तक भी समावेशी नहीं हैं और इसलिए लोकतांत्रिक भी नहीं हैं।

दलितों के साथ अस्पृश्यता और उन पर अपराध नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकनोमिक रिसर्च (National Council of Applied Economic Research: NCAER) और अमरीका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैरीलैंड द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर 42,000 परिवारों के अध्ययन के आधार पर ये निष्कर्ष निकला कि भारत में अभी भी व्यापक स्तर पर छूआछूत प्रचलित है। विशेष कर हिंदी भाषा भाषी प्रदेशों में जिसमें सबसे अधिक अस्पृश्यता का व्यवहार होता है, वो प्रदेश मध्य प्रदेश (53 %), हिमाचल प्रदेश (50 %) राजस्थान एवं बिहार (47 %) तथा उत्तर प्रदेश में 43 प्रतिशत है।

जहां तक दलितों पर सवर्णों द्वारा अत्याचार का मामला है, उस संदर्भ में ‘नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो रिपोर्ट’, 2019, वॉल्यूम 2, पेज 509, पर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार दलितों पर 2017 में 43203, 2018 में 42793 और 2019 में 45935 अपराध हुए हैं। अर्थात एक दिन में लगभग 125 अपराध। इसी रिपोर्ट के पेज 513 के अनुसार केवल वर्ष 2019 में दलित महिलाओं और बच्चियों के साथ कुल 3471 अपराध हुए हैं। अर्थात एक दिन में लगभग 10 बलात्कार की घटनाएं। इसी कड़ी में भारत में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की 2018 (वॉल्यूम 2, चैप्टर 7, पेज नं. 510) के अनुसार 2018 में 821 दलितों की हत्याएं हुई अर्थात लगभग 2-3 दलितों की हत्याएं रोज। यहां यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि ये वो अपराध के आंकड़े हैं जो पुलिस में दर्ज हुए। कल्पना कीजिए कितने दलित डर के मारे रिपोर्ट लिखाते ही नहीं है, या बहुतों की रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती। इन्हें मिला लें तो इन अपराधों की संख्या कहीं ज्यादा होगी।

कहाँ है अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के अध्यक्ष? ऐसे में सबसे अधिक दुखद बात तो यह है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति दोनों ही आयोग के अध्यक्षों के पद खाली पड़े हैं। यह इस ओर भी इशारा करता है कि सरकार दलितों के कल्याण एवं उत्थान के लिए कितनी अगंभीर है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338 के अंतर्गत राष्ट्रीय अनुसूचित जाति/ जनजाति आयोग ही है जिसका मुख्य काम यह देखना है कि इन समूहों को संविधान में दिए गये अधिकार विधिवत लागू हो रहे हैं या नहीं। आयोगों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण काम यह होता है कि वो हर वर्ष अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षणिक अवस्था तथा उन पर हिंसा आदि की रिपोर्ट तैयार कर राष्ट्रपति को सौपते हैं और बाद में राष्ट्रपति फिर उन रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखते हैं। इन रिपोर्टों पर संसद के दोनों सदनों में बहस होती है और फिर उस पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट तैयार कर सदन को सूचित किया जाता है कि इन समाजों की वास्तविक अवस्था क्या है। इस तरह संविधान के निर्माताओं में दलितों के मानव अधिकारों की सुरक्षा की व्यवस्था की थी परन्तु आज कल यह सब ताक पर रख दिया गया है।

दलित/ बहुजन आंदोलन: इतिहास और वर्तमान दलितों की उपरोक्त सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए वर्तमान समय में दलितों ने कम से कम 9 प्रकार के आंदोलन या संगठन स्थापित किए हैं और वे लगातार अपने संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं। यह 9 प्रकार के आंदोलन हैं- सामाजिक, राजनीतिक, कर्मचारी तंत्र, साहित्यिक, दलित महिला आंदोलन, दलित स्वयंसेवी संगठन का आंदोलन, दलित युवाओं का आंदोलन, दलित मीडिया का आंदोलन और विश्व के अनेकों राष्ट्रों में रह रहे अप्रवासी दलित भारतीयों का आंदोलन। इन आंदोलनों एवं संगठनों के माध्यम से दलित समाज ने उपरोक्त संस्थाओं में अपनी सदस्यता स्थापित करने एवं अपने अधिकारों को लेने की कोशिश की है। (इन आंदोलनों की पूरी जानकारी के लिए देखें दलित दस्तक अंक- जनवरी 2015, वर्ग 3 अंक 8; या फिर देखें दलित एजेंडा 2050- दास पब्लिकेशन, 2015)। यहां यह बताना भी समीचीन होगा कि वर्तमान आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है और वर्तमान आंदोलन उसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में उन्हीं आंदोलनों को आगे बढ़ा रहे हैं। अतः चंद शब्द उन आंदोलनों की ऐतिहासिकता जानने के लिए यहां जरूरी है।                                                                         50 बहुजन नायक खरीदें

अगर हम यह मान लें कि ज्योतिबा फुले ने अपना आंदोलन 1848 में आरंभ किया था तो आज 2021 में बहुजन समाज का उनका आंदोलन 173 वर्ष पुराना हो जाएगा। इस पड़ाव में आंदोलन को नवीन ऊंचाई देने के लिए नारायणा गुरु, साहू जी महाराज, ई.वी रामास्वामी नायकर (पेरियार), बाबासाहब आंबेडकर, स्वामी अछूतानंद, मंगू राम, भाग्यरेड्डी वर्मा, आदि अनेक दलित/ बहुजन नायकों ने अपना सर्वस्व निछावर कर इस आंदोलन की सेवा की। आधुनिक भारत में बाबासाहब ने अपने- सामजिक, राजनैतिक, संवैधानिक, धार्मिक एवं शैक्षिणक आंदोलनों से दलितों के आंदोलन को नयी दिशा एवं नए तरीके दिए जो आज भी उतने कारगर हैं जितने उस समय थे। 6 दिसंबर 1956 को उनके महापरिनिर्वाण के बाद 1972 तक आर पी आई एवं दलित पैंथर ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया जिसकी छवि उत्तर प्रदेश में भी दिखाई पड़ी। परंतु शीघ्र ही अपने शीर्ष नेतृत्व की अंतरकलह के कारण एवं लीडरों के अहम की लड़ाई (मैं बड़ा मै बड़ा) के कारण दोनों ही आंदोलन छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गए। वैसे उस दौरान (1971 में) दलित बहुजन आंदोलन को तोड़ने और उसके लीडरों को अपने दल में शामिल कर खत्म करने में कांग्रेस का बहुत बड़ा योगदान रहा है। और ऐसे लगने लगा कि जैसे दलित और बहुजन आंदोलन खत्म ही हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस ने बी पी मौर्य और आर.पी.आई के एजेंडे को ही आत्मसात कर उत्तर प्रदेश ही नहीं पुरे देश में दलित आंदोलन को ही नेस्तनाबूत कर उसकी नींव को ही ख़त्म करने का प्रयास किया।

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ऐसे अंधकार पूर्ण समय में मान्यवर कांशीराम के आंदोलन का उदय हुआ। सन 1971 में पहली बार बामसेफ की नींव डालकर 1973 में इसको और मजबूती प्रदान की और बाद में 1978 में दिल्ली में इस कर्मचारी आंदोलन ‘बामसेफ’ को अखिल भारतीय स्वरूप दिया। 1981 में उन्होंने अपने आंदोलन को और विस्तार देने के लिए डी एस-4 बनाई और 1984 में बहुजन समाज पार्टी को बनाकर अपने पूर्वजों के आंदोलन को आगे बढ़ाया। उत्तर प्रदेश जैसे भारत के सबसे बड़े प्रान्त में पांच-पांच बार सरकार बनाई और इसमें चार बार (1995, 1997, 2001, 2007) एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनाया। इस आंदोलन ने उत्तर प्रदेश में ही नहीं अखिल भारतीय स्तर पर बहुजनों का सशक्तिकरण किया और राज्य में सवर्णो की सत्ता को भी चुनौती दी। इस आंदोलन ने दलितों के प्रतीकों को पुनः स्थापित किया और सामाजिक न्याय की नींव को और मजबूत किया। साथ ही साथ दलितों और अत्यंत पिछड़ी जातियों में भी सत्ता की ललक पैदा की। भविष्य के आंदोलन की तैयारी

परन्तु 34 वर्ष पहले बनी बहुजन समाज पार्टी पिछले 12 वर्षों से सत्ता से बाहर है। इस बीच 2021 तक आते-आते राष्ट्र और राज्य की राजनीति में अमूल चूल परिवर्तन हो चुका है। राष्ट्र राजनीति में गोदी मीडिया और चंद कारपोरेट घरानो को ऐसी भूमिका में पहले कभी देश में नहीं देखा गया। साथ ही साथ इन 34 वर्षों में बहुजन समाज की एक नयी पीढ़ी, जिसने बहुजन समाज पार्टी की सरकार में सत्ता का स्वाद चखा था, भी खड़ी हो गयी है। यह पीढ़ी पुनः सत्ता प्राप्त करने के लिए व्याकुल है। उसे नेतृत्व भी चाहिए। परन्तु जैसे सभी समाजों की युवा पीढ़ी को फास्ट फ़ूड के ज़माने में हर एक चीज तेजी से चाहिए उसी तरह बहुजन समाज की इस नयी पीढ़ी को भी फ़ास्ट फ़ूड की तरह ही सत्ता और नेतृत्व भी चाहिए।

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बहुजन आंदोलन के इतिहास का आंकलन करने से यह बात सामने निकल कर आई है कि अक्सर दलित/ बहुजन समाज के लोग अपने आपको और अपने द्वारा स्थापित किए गए संगठन को सबसे बड़ा क्रांतिकारी घोषित करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। वे इतिहास में अपने आंदोलन और नायकों के संघर्षों पर जितना गर्व या उनका जितना सम्मान करना चाहिए उतना गर्व या सम्मान नहीं करते। सब को ख़ारिज कर, सबको बेकार और नकारा बता कर अपने संगठन और अपने नेतृत्व को सबसे क्रांतिकारी बता कर आगे निकलना चाहते हैं। इतिहास साक्षी है कि कोई पीढ़ी तब तक कामयाब नहीं होती जब तक वह अपने पूर्वजों के त्याग, संघर्षो और उनकी सलताओं का पर्व/उत्सव नहीं मनाती। उसके गीत नहीं गाती।

आंदोलन फास्टफूड जैसा नहीं होता आंदोलन फास्टफूड की मैगी या बर्गर नहीं है जिसे आर्डर किया और वह आ गया और आपने पेट भर लिया। आंदोलन त्याग-संघर्षों की एक लम्बी यात्रा है। यह यात्रा अपने आप को चमकाने या किसी स्थापित लीडर से तुलना करने के लिए नहीं होती। सफल आंदोलन ने लिए केवल मीडिया का सहारा नहीं लिया जाता, चाहे वह सोशल मीडिया हो या कॉर्पोरेट मीडिया। किसी अन्य दल या बिज़नेस घराने का सहारा लेकर भी बहुजन आंदोलन नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि सहारा लोगे तो इशारा भी लेना पड़ेगा। अखिल भारतीय स्तर पर मजबूत आंदोलन तैयार करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर मजबूत संगठन, न डिगने वाली विचारधारा, हर स्तर पर कैडर और उन कैडरों को तैयार करने के लिए एक दूरदर्शी पाठ्यक्रम, लगातार कैडर कैम्प का लगा कर कैडरों की विचारधारा को मांझना, संगठन के अल्पकालिक और दीर्घकालिक कार्यक्रम आदि कुछ ऐसे मूल मन्त्र हैं जिनसे एक सफल आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। आंदोलन खड़ा करने के लिए इतनी व्यापक तैयारी इसलिए क्योंकि हमारा प्रतिद्वंदी बहुत बड़ा है और उसकी पहुंच भी बहुत व्यापक है। उसके पास सभी प्रकार की संस्थाएं- राजनैतिक, संवैधानिक, शैक्षणिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि है और उन पर उसका कब्ज़ा है।

 अतः अगर हमने पुनः जल्दबाजी में बिना लम्बी तैयारी के कोई नया आंदोलन आरंभ किया तो हम फिर धोखा खाएंगे। हमारे साथ जैसे पहले छल हुआ 2021 में भी छल होगा। और जब तक हमारी तयारी पूरी न हो जाए हमें वर्तमान के अपने आंदोलन को उपरोक्त कार्यक्रमों के माध्यम से कैसे मजबूत किया जाय इसकी योजना बनानी चाहिए।

2021 में ऐसे बनेगा बहुजन भारत

दलित दस्तक अपने 9वें वर्ष में है। बीते आठ वर्षों में हमने समसामयिक विषयों पर चर्चा को अधिक तव्वजो दी है। लेकिन दर्जनों अन्य स्रोतों से आ रहे खबरों के प्रवाह ने समसामयिक विषयों पर चर्चा को काफी हद तक पूरा किया है। हम भी दलित दस्तक की वेबसाइट और यू-ट्यूब चैनल के जरिए समसामयिक विषयों पर लेखों का प्रकाशन और वीडियो के जरिए चर्चा करते रहते हैं। ऐसे में नए साल में दलित दस्तक मैग्जीन आपको समसामयिक विषयों के साथ वैचारिक मासिक पत्रिका के रूप में देखने को मिलेगी।

जब हम विचार की बात करते हैं तो हमारी विचारधारा तथागत बुद्ध के ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ को समर्पित है। हमारी विचारधारा सतगुरु रविदास के बेगमपुरा की परिकल्पना को समर्पित है। हमारी विचारधारा संत कबीर के आडंबर और अंधविश्वास रहित भारत की विचारधारा है। और जब हम विचारधारा की लड़ाई में उतरते हैं तो दलित, वंचित, पिछड़ा और आदिवासी कहे जाने वाले समाज के सामने अक्सर अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान की चुनौती महसूस की जाती है। ऐसे में जब एक ओर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने को अमादा देश की सरकार है तो देश के मूलनिवासी समाज के सामने अपनी बहुजन-मूलनिवासी और आदिवासी पहचान को बचाए रखने की चुनौती है। आज जब अपनी मूल पहचान को भूल कर बहुसंख्यक बहुजन (दलित-पिछड़ा-आदिवासी) तबका ‘हिन्दू’ बनने को आतुर है, यह चुनौती और बढ़ जाती है।

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ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं है कि बहुजन समाज अपनी ऐतिहासिक तारीखों, अपने नायकों, अपने पर्व-त्यौहारों और बहुजन संस्कृति को स्थापित करने की दिशा में और मजबूती से बढ़े। ‘दलित दस्तक’ के जरिए हम उन तारीखों, उन त्यौहारों को एक बार फिर से बहुजन समाज को अवगत कराने की कोशिश कर रहे हैं, जो हमारी बहुजन विरासत को समृद्ध करने वाले हैं। इसके लिए हमें महीने दर महीने उन 12 आंदोलनों को याद करना होगा, जिसने मूलनिवासी बहुजन संस्कृति के इतिहास को समृद्ध किया है। हमें उन नायकों को याद करना होगा जिन्होंने देश में बहुजन विचारधारा की मजबूती के लिए, अपनी मूलनिवासी पहचान को बरकार रखने के लिए शहादत दी। हमें उन नायक/नायिकाओं को याद करना होगा, जिन्होंने बहुजन समाज की सामाजिक मुक्ति के लिए अपना जीवन लगा दिया। इस कड़ी में सबसे पहले बात उन 12 बहुजन आंदोलनों की जिन्हें याद करना जरूरी है।

जनवरी (कोरेगांव की क्रांति) 01 जनवरी सन् 1818 में एक ऐसी घटना घटी थी, जिसने दलित समाज के शौर्य को दुनिया भर में स्थापित किया था। यह दिन कोरेगांव के संघर्ष के विजय का दिन है। यह लड़ाई महाराष्ट्र के पुणे स्थित भीमा-कोरेगांव में लड़ी गई थी। यह युद्ध लगातार 12 घंटे तक चला। इस महायुद्ध में पेशवा बाजीराव-II की 28 हजार सेना को ‘बॉम्बे नेटिव लाइट इन्फेंट्री’ के 500 ‘महार’ सैनिकों ने रौंद डाला था। इस युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक चौकोर मीनार बनाया गया है, जिसे कोरेगांव स्तंभ के नाम से जाना जाता है। इस मीनार पर उन शहीदों के नाम खुदे हुए हैं, जो इस लड़ाई में मारे गए थे। 1851 में इन्हें मेडल देकर सम्मानित किया गया। बहुजन समाज को नए साल की बधाई के साथ कोरेगांव विजय दिवस जिसे शौर्य दिवस कहा जाता है, उसकी भी बधाई देनी चाहिए। एक जनवरी को देश भर से हजारों लोग यहां पहुंच कर उन लड़ाकों को याद करते हैं।

फरवरी (चौरी चौरा आंदोलन) स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास चौरी चौरा के जिक्र के बिना अधूरा है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा नामक स्थान पर यह घटना 4 फरवरी (कुछ जगह 5 फरवरी भी दर्ज है।) 1922 को घटी। हुआ यह कि असहयोग आंदोलन के दौरान पुलिस ने दो क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। विरोध में आंदोलनकारी थाने के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे, जिस पर पुलिस ने गोलियां चला दी, जिसमें तीन क्रांतिकारी मारे गए। इससे भड़के क्रांतिकारियों ने रमापति चमार के नेतृत्व में चौरी-चौरा थाने में आग लगा दी, जिसमें थानाध्यक्ष समेत 22 पुलिसकर्मी जिंदा जल गए। भड़के अंग्रेजों ने 222 क्रांतिकारियों को आरोपी बनाया, जिसमें ज्यादातर दलित क्रांतिकारी शामिल थे। 2 जुलाई, 1923 को रमापति चमार सहित 19 क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई।

मार्च (चावदार तालाब क्रांति) चावदार तालाब नाम का यह आंदोलन बाबासाहब डॉ. आम्बेडकर की अगुवाई में 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिला स्थित महाड़ में चलाया गया। उस वक्त सार्वजनिक कुओं व तालाब पर अछूतों को पानी पीने की मनाही थी, चाहे वह प्यास से मर ही क्यों न रहे हों। नगर परिषद के आदेश के बावजूद सवर्ण हिन्दु मानने को तैयार नहीं थे। तब 20 मार्च को बाबासाहब के नेतृत्व में 10 हजार से ज्यादा दलितों ने सत्याग्रह करते हुए तालाब की ओर कूच किया और पानी पी लिया। भड़के सवर्णों ने इसको पवित्र किया। इसके खिलाफ डॉ. आंबेडकर अदालत गए। लंबी लड़ाई के बाद बाम्बे हाई कोर्ट ने दलितों को पानी पीने के हक का आदेश दिया। आज उसी चावदार तालाब के बीचो बीच बाबासाहेब की प्रतिमा है।

अप्रैल (महिला मुक्ति क्रांति) आज महिलाओं को जो भी अधिकार हासिल हैं, उसमें हिन्दू कोड बिल की बड़ी भूमिका है, जिसकी परिकल्पना डॉ. आंबेडकर ने की थी। विधवा पुनर्विवाह, पैतृक संपत्ति में हक, गोद लेने का अधिकार, मातृत्व अवकाश जैसी तमाम सुविधाएं जो महिलाओं को हासिल है, वह बाबासाहब की ही देन है। महिलाओं पर लादी गई सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने के लिए डॉ. आंबेडकर ने 11 अप्रैल 1947 को भारतीय संसद में हिन्दू कोड बिल पेश किया। लेकिन बिल संसद में पास नहीं हो सका। विरोध में डॉ. आंबेडकर ने नेहरू मंत्रीमंडल से इस्तीफा दे दिया। हालांकि 1952 में डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित बातें अमल में लाई गई और महिलाओं को वो अधिकार मिले, जिसकी परिकल्पना बाबासाहब ने की थी। इस तरह महिलाओं के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आया।

मई (दलित पैंथर क्रांति) वंचित समाज सदियों से साधन संपन्न और सत्ताधारी जातियों के अत्याचार का शिकार हुआ है। असहाय समाज अपने भीतर गुस्सा पाले सदियों तक इस अपमान को मजबूरी में सहता रहा। बाबासाहब डॉ. आंबेडकर द्वारा संविधान में मिले अधिकारों की बदौलत जब यह समाज थोड़ा उठ कर खड़ा हुआ तो अपने साथ हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने लगा। जाति उत्पीड़न के खिलाफ 29 मई 1972 को महाराष्ट्र में नामदेव ढसाल, जे.वी पंवार और राजा ढाले आदि युवाओं ने दलित पैंथर की स्थापना की। यह अफ्रीकी-अमरिकी संस्था ब्लैक पैंथर से प्रेरित था। इसने दलितों के खिलाफ होने वाले जुल्म का जवाब देना शुरू किया। यह एक बड़ा आंदोलन था, जिससे महाराष्ट्र प्रदेश में हलचल मच गई और दलितों पर अत्याचार करने से पहले अत्याचारी समाज डरने लगा।

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जून (हूल दिवस क्रांति) 1857 के विद्रोह को अंग्रेजो के खिलाफ पहला विद्रोह बताया जाता है, लेकिन सच यह है कि इससे पहले 30 जून, 1855 को आदिवासी वीरों सिदो, कान्हू और चांद, भैरव ने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका था। इन्होंने संथाल परगना के भगनाडीह में लगभग 50 हजार आदिवासियों को इकट्ठा करके अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। उन्होंने नारा दिया- ‘करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो’। अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और भीषण युद्ध हुआ, जिसमें 20 हजार आदिवासी क्रांतिकारी शहीद हुए। जबकि वीर सिदो, कान्हू को 26 जुलाई 1855 को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी। वीर शहीदों ने जिस 30 जून को क्रांति का बिगुल फूंका था, उसी दिन को ‘हूल क्रांति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

जुलाई (महिला शिक्षा क्रांति) भारतीय इतिहास में ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले को वंचित तबके की महिलाओं में शिक्षा क्रांति के लिए जाना जाता है। यूं तो ज्योतिबा फुले का महिला शिक्षा का आंदोलन 1848 में ही शुरू हो गया था, लेकिन 3 जुलाई 1851 को फुले दंपत्ति ने पुणा के बुद्धवार पेठ मुहल्ले में स्थित अन्ना साहेब वासुदेव चिपलूणकर भवन में जो स्कूल खोला उसे हम वंचित तबके की महिलाओं की शिक्षा क्रांति के आंदोलन की ठोस शुरुआत कह सकते हैं। इसके बाद ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने गरीब अछूत समाज की लड़कियों के लिए एक के बाद एक 18 विद्यालय शुरु किये, जो निस्संदेह महिला शिक्षा क्रांति आंदोलन की शुरुआत थी। महिला शिक्षा के इस आंदोलन में फातिमा शेख ने भी फुले दंपत्ति का पूरा साथ दिया।

अगस्त (मंडल आंदोलन) पिछड़े वर्ग की स्थिति की समीक्षा के लिए 20 दिसंबर 1978 को मोरारजी देसाई सरकार ने बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया। यह मंडल आयोग के नाम से चर्चित हुआ। दिसंबर 1980 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की गई। 1982 में यह रिपोर्ट संसद में पेश हुई और 1989 के लोकसभा चुनाव में जनता दल ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया। सत्ता में आने पर 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने रिपोर्ट लागू करते हुए ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा कर दी। सवर्णों ने इसका भारी विरोध किया, लेकिन तमाम विरोध के बावजूद 13 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी हो गई।

सितंबर (सत्यशोधक समाज क्रांति) सत्यशोधक समाज का उद्देश्य शूद्रों-अतिशूद्रों को ब्राह्मणों के शोषण से मुक्ति दिलाकर समानता लाना था। इसके सदस्यों ने यह प्रण किया कि वे बिना किसी मध्यस्थ के एक विश्वनिर्माता की आराधना करेंगे। इस संस्था के तहत कुनबी, माली, कुंवर, बढ़ई सहित शूद्र जातियों के 700 परिवारों ने निर्णय लिया कि वे आध्यात्मिक और सामाजिक मसलों पर ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्ति पाएंगे। स्थापना के पहले ही वर्ष में सत्यशोधक समाज ने अपने सदस्यों को विवाह समारोहों में ब्राह्मणों की मौजूदगी की जरूरत को खत्म करने के लिए प्रोत्साहित किया। सत्यशोधक समाज की स्थापना ज्योतिबा फुले ने 24 सितम्बर, 1873 को किया था। वह इसके प्रथम अध्यक्ष बने। इस तरह वंचितों के सामाजिक जीवन को ब्राह्मणमुक्त करने का अभियान शुरू हुआ। यह ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरुआती क्रांति थी।

अक्टूबर (धम्म क्रांति) 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में डॉ॰ भीमराव आंबेडकर ने पांच लाख से अधिक समर्थकों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर भारत में बौद्ध धम्म का पुर्नउत्थान किया। पहले डॉ. आंबेडकर ने कुशीनगर के भिक्षु महास्थवीर चंद्रमणी द्वारा पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद अपने लाखों अनुयायियों को त्रिरत्न, पंचशील और 22 प्रतिज्ञाएँ दिलाते हुए बौद्ध बनाया। ऐसा बड़ा कदम उठाकर बाबासाहब ने भारत के वंचित समाज को हिन्दू धर्म से निकालते हुए नया रास्ता दिखाया, जहां समता और बंधुत्व की बात थी। बौद्ध धम्म से जुड़ कर करोड़ों दलित, शोषित हिन्दू धर्म के भेदभाव से मुक्त हो चुके हैं। वंचित समाज के लिए यह एक बड़ी धार्मिक क्रांति थी। इसे धम्म क्रांति कहा जाता है।

नवंबर (संविधान दिवस क्रांति) अगर हम भारत की सबसे बड़ी क्रांति की बात करें तो यह 26 नवंबर 1949 को घटित हुई। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर ने भारत के संविधान को 2 वर्ष, 11 महीने और 18 दिन में पूरा कर 26 नवम्बर 1949 को राष्ट्र को समर्पित किया। संविधान प्रारुप समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ. आम्बेडकर ने संविधान को राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंप दिया। संविधान में मिले अधिकारों की बदौलत रातों-रात भारत में राजा और रंक कानूनी रूप से समान हो गए। जिस भारत में एक विशेष वर्ग को तमाम विशेषाधिकार प्राप्त था, और जाति की वजह से जिस वर्ग को तमाम जिल्लतें सहनी पड़ती थी, वो एक जगह पर आकर खड़े हो गए। दलितों-शोषितों के मुक्ति की कहानी शुरु हुई।

दिसंबर (मनुस्मृति दहन क्रांति) मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक ऐसा ग्रंथ है, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच असमानता की बात करता है। जो दलित, आदिवासी, पिछड़े और महिलाओं को तमाम अधिकारों से वंचित करने की वकालत करता है। 25 दिसंबर, 1927 को बाबासाहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने मनुस्मृति को सार्वजनिक तौर पर जलाकर इसमें लिखी अमानवीय बातों का विरोध किया। यह ब्राह्मणवाद के विरुद्ध दलितों के संघर्ष की अति महत्वपूर्ण घटना है। मनुस्मृति जलाने के कार्यक्रम को विफल करने के लिए सवर्णों ने कई अवरोध पैदा किया। उन्होंने पूरी कोशिश की कि हिन्दू समाज का कोई व्यक्ति उन्हें इस आयोजन के लिए जमीन न दे। तब फत्ते खां ने अपनी निजी ज़मीन उपलब्ध करायी थी। अत्याचार, शोषण और भेदभाव की पोषक मनुस्मृति को जलाने का सिलसिला आज भी जारी है।

सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले,  पुस्तक खरीदें

इन बहुजन क्रांतियों को याद रखना इसलिए जरूरी है, क्योंकि ये आंदोलन और क्रांति हमें हमारे इतिहास और हमारे पूर्वजों के संघर्ष के बारे में बताती है। ये बताते हैं कि आज दलित-आदिवासी-पिछड़ा समाज जिस स्थिति में है, उसके लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत आंदोलन किया है। इस समाज के जितने भी लोगों को आज स्वतंत्रता और बेहतर जिंदगी मिल सकी है, वो इन्हीं संघर्ष और क्रांतियों के बूते मिली है।

बहुजन समाज के सामने एक और बड़ी दिक्कत पर्व और त्योहारों की है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को याद नहीं रखने के कारण हम अक्सर हिन्दू पर्व और त्योहारों में उलझे रहते हैं। लेकिन आप गौर से देखेंगे तो बहुजन समाज के भीतर कई ऐसे महत्वपूर्ण दिन है, जो ऐतिहासिक हैं और जिस दिन को बहुजन समाज को पर्व और उत्सव के रूप में मनाना चाहिए। कुछ का जिक्र हमने ऊपर किया है, लेकिन इसके अलावा और भी तारीखे हैं। आइए एक नजर उस पर डालते हैं।

गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) 26 जनवरी के दिन साल 1950 में भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया था। 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा की ओर से संविधान अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू कर दिया गया। भारत का संविधान डॉ. आम्बेडकर द्वारा बनाने की वजह से इस दिन का अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े लोगों में खासा महत्व है। यही वो दिन है, जिस दिन के बाद डॉ. आम्बेडकर द्वारा लिखे संविधान की बदौलत देश में वंचित समाज को न्याय मिलने की शुरूआत हुई और मनुस्मृति के दौर का अंत शुरू हो गया। यह दिन लोकतांत्रिक त्यौहार का दिन है।

सतगुरु रविदास जयंती (27 फरवरी) मध्यकालीन संतों में सतगुरू रविदास का स्थान श्रेष्ठ है। इसी कारण उनको संत शिरोमणि भी कहा जाता है। सतगुरु रविदास का जन्म संवत 1433 (1376 ईं.स) में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। यह जिस दिन और तारीख को होता है, उसी दिन दुनिया भर में रविदास जयंती मनाई जाती है। साल 2021 में यह तारीख 27 फरवरी को है। सतगुरु का जन्म बनारस के नजदीक मांडुर गढ़ (महुआडीह) नामक स्थान पर हुआ था। ये चमार जाति में पैदा हुए। गुरुग्रंथ साहिब में संकलित रविदास के पदों में उनकी जाति चमार होने का उल्लेख बार-बार आया है। सतगुरु रविदास राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु भी थे। सिक्ख धर्मग्रंथ में उनके पद, भक्ति गीत और दूसरे लेखन (41 पद) शामिल हैं। पांचवें सिक्ख गुरु अर्जन देव ने इसका संकलिन किया था। सतगुरु रविदास के ज्ञान का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने विद्वता के लिए प्रख्यात काशी (वाराणसी) के पंडों को ज्ञान की परीक्षा में पराजित कर दिया था। जिसके बाद शर्त के मुताबिक काशी के पंडों ने उन्हें पालकी में बैठाकर उसे अपने कंधों पर ढोकर पूरे शहर में घुमाया था। इस दिन को पूरे दलित-वंचित समाज को त्यौहार के रूप में मनाना चाहिए। इस दिन सतगुरु की जन्मभूमि वाराणसी में बहुत बड़ा मेला लगता है, जिसमें दुनिया भर से उनके अनुयायी शामिल होते हैं। आप भी इस दिन अपने परिवार क साथ वाराणसी जा सकते हैं।

11 अप्रैल ज्योतिबा फुले जयंती एवं 14 अप्रैल बाबासाहेब अम्बेडकर जयंती बहुजन समाज के लिए यह एक साकारात्मक संयोग है कि इसके दो महापुरुषों की जयंती महज चार दिन के बीच आती है। इसमें एक हैं महामना ज्योतिबा राव फुले और दूसरे हैं राष्ट्रनिर्माता बाबासाहब आंबेडकर। बाबासाहब आंबेडकर ने अपने जीवन में वंचित समाज की मुक्ति की जो मुहिम चलाई थी, उसकी नींव काफी पहले ज्योतिबा राव फुले डाल चुके थे। ये दोनों महापुरुष बहुजन समाज की मुक्ति के सूत्रधार बने थे। इनकी जयंती बहुजन समाज के लिए एक बड़ा दिन है। इसे उत्सव के रूप में मनाना चाहिए। आप अपनी सुविधानुसार इसे संयुक्त रूप से भी मना सकते हैं।

बुद्ध पूर्णिमा (26 मई) बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने बहुजन समाज को हिन्दू धर्म से मुक्ति के लिए बौद्ध धर्म की राह दिखाई थी। बाबासाहब ने खुद अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। तब से लेकर आज तक वंचित समाज के लाखों लोग अपने जीवन में बौद्ध बन चुके हैं। या फिर बौद्ध धर्म के प्रभाव में हिन्दु धर्म की रुढ़ियों और अंधविश्वास से बाहर निकल चुके हैं। साल 2021 में बुद्ध पूर्णिमा 26 मई को है। यह बहुजनों का एक बड़ा त्यौहार है।

संत कबीर जयंती (24 जून) रविदास जयंती की तरह कबीर जयंती भी तिथि के हिसाब से अलग-अलग तारीख को आती है। लेकिन यह अमूमन जून महीने में ही आती है। साल 2021 में कबीर जयंती 24 जून को है। कबीर 15वीं शताब्दी के एक विशिष्ठ कवि थे। कबीर का जन्म 1440 में जेठ महीने में पूरनमासी को हुआ बताया जाता है, जबकि उनका जन्म स्थान काशी माना जाता है। कबीर; सन्त कवि और समाज सुधारक थे। संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। कबीर की वाणी को हिंदी साहित्य में बहुत ही सम्मान के साथ रखा जाता है। गुरुग्रंथ साहिब में भी कबीर की वाणी को शामिल किया गया है। कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ (Bijak) नाम से है। वंचित समाज को ब्राह्मणवाद और आडंबर से बाहर निकालने के लिए संत कबीर अपने जीवन के आखिरी वक्त में मगहर चले गए थे, क्योंकि वह स्वर्ग-नरक और मोक्ष के उस मिथ्या प्रचार को झुठलाना चाहते थे, जिसमें ब्राह्मणवादी यह प्रचार करते थे कि काशी में मृत्यु होने पर लोगों को मोक्ष मिलता है। काशी और मगहर दोनों जगह संत कबीर से जुड़े स्थल है। काशी में कबीर मठ लोकप्रिय है तो मगहर में कबीर का मजर और मंदिर दोनों है। मगहर उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के पास है। अब इसे संतकबीर नगर के नाम से जाना जाता है। इस दिन बहुजन समाज को इन स्थलों पर जाकर त्यौहार के रूप में मनाना चाहिए।

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धम्मचक्क पवत्तन दिवस (14 अक्टूबर) 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर ने स्वयं और अपने लाखों समर्थकों के साथ त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। तब से हर वर्ष इस दिन को धर्मचक्र प्रवर्तन दिवस मनाया जाता है। भारत में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान इसी दिन से शुरू हुआ था। यह दिन भी बहुजन समाज के लिए महत्वपूर्ण है। इसे बड़े त्यौहार के रूप में मनाना चाहिए।

बिरसा मुंडा जयंती (15 नवंबर) बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के भगवान हैं। आदिवासी समाज के हित और आजादी के लिए उन्होंने पूरे जीवन लड़ाईयां लड़ी। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को चालकद ग्राम में हुआ। बिरसा मुंडा को अपनी भूमि और संस्कृति से गहरा लगाव था। उन्होंने न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया। उन्होंने गांव-गांव घुमकर लोगों को अपना संकल्प बताया। उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज (हमारे देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका। बिरसा द्वारा शुरू किया गया वह आंदोलन आज तक चल रहा है।

उन तमाम बहुजन नायकों की जयंती को भी विशेष दिन के रूप में मनाने का रिवाज बहुजन समाज के बीच चल ही पड़ा है, जिन्होंने देश की बहुत बड़ी आबादी को अपने-अपने वक्त में प्रभावित किया। इसमें सावित्री बाई फुले जयंती (3 जनवरी), बाबू मंगूराम जयंती (14 जनवरी), कर्पूरी ठाकुर जयंती (24 जनवरी), जोगेन्द्र नाथ मंडल जयंती (29 जनवरी), बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा जयंती (2 फरवरी), संत गाडगे जयंती (23 फरवरी), मान्यवर कांशीराम जयंती (15 मार्च), स्वामी अछूतानंद जयंती (6 मई), छत्रपति शाहूजी महाराज जयंती (26 जून), साहित्यकार अन्नाभाऊ साठे जयंती (1 अगस्त), नारायणा गुरु जयंती (20 अगस्त), राम स्वरूप वर्मा (22 अगस्त), अय्यनकाली जयंती (28 अगस्त), ललई सिंह यादव जयंती (1 सितंबर), पेरियार जयंती (17 सितंबर), मदारी पासी जयंती (24 अक्टूबर), उदा देवी शहादत दिवस (16 नवंबर), झलकारी बाई जयंती (22 नवंबर), क्रांतिकारी मातादीन जयंती (29 नवंबर), गुरु घासीदास जयंती (18 दिसंबर), और ऊधम सिंह जयंती (26 दिसंबर) शामिल है। इसके अलावा और भी बहुत से नाम हैं, जिन्होंने दलित-वंचित-आदिवासी और पिछड़े समाज को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। स्थानीय स्तर पर ऐसे सैकड़ों नाम हैं। बहुजन समाज को उनकी जयंती पर उन्हें जरूर याद करना चाहिए।

ये दिन दलित-वंचित समाज के असली त्यौहार के दिन हैं। किसी दूसरे के धर्म के दिन जश्न में डूबने से अच्छा है कि बहुजन समाज इन दिनों को जश्न के रूप में मनाए और इस दिन को स्थापित करने में भागीदारी निभाए। हालांकि भारत का बहुजन तबका इन दिनों को विशेष पर्व के रूप में कमोबश याद करना शुरू कर चुका है, लेकिन इसको और अधिक प्रचारित करने की जरूरत है। ऐसा कर के ही एक नए बहुजन भारत का निर्माण हो सकेगा।

कोरेगांवः अछूतों की वीरगाथा का स्वर्णिम अध्याय

 Written By- डॉ. नरेश कुमार ‘सागर’ भारतीय इतिहास और इतिहासकारों ने बेशक अपनी मानसिक विकृति के चलते भले ही अछूतों को सही स्थान नहीं दिया हो, मगर ये सच है कि जब भी इस मूलनिवासी समाज को मौका मिला उन्होंने अपने जौहर खुलकर दिखाये हैं। देशभक्ति हो या साहित्य कला हर क्षेत्र में इनका अपना एक अलग ही अंदाज रहा है। फिर चाहे- संत रैदास हो, वाल्मीकि हो, वेदव्यास हो, ज्योतिबा फूले हो या फिर बिरसा मुण्डा, गोविंद गुरू, हरिसिंह भंगी, चेतराम जाटव व बल्लू मेहतर और उधम सिंह, इनको भूलाया नही जा सकता है। हमारे महापुरूषों ने एक साथ दो-दो लड़ाईयां लडीं थी। एक ब्राह्मणवाद से अपने अपमान की और दूसरी तरफ अंग्रेजों से देश की आजादी की। बहुजन समाज दोनों गुलामी के पाटों के बीच लगातार पीस ही तो रहा था। बल्कि सच तो ये भी है कि बहुजन समाज आज भी अपनी आजादी की, सम्मान की और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ता दिखाई देता है।

 भीमा कोरागांव की घटना भी उन्हीं एक घटनाओं में से एक है जो आश्चर्य चकित तो करती है ही साथ में बहुजन समाज की हिम्मत और हौसले की बुलंद कहानी कहती नजर आती है। पेशवाओं से परेशान बहुजन समाज के लोग निरन्तर प्रताड़ित किये जा रहे थे। पेशवाओं ने अछुतों के गले में थूकने के लिए जहां हंडिया तक बंधवा दी थी वही इन मानसिक विकृत लोगों ने अछूतों के पीछे झाड़ू तक बंधवा दी थी ताकि उनके पैरों के निशान जमीन पर ना रहे और ब्राहम्णो के पैर और धर्म नष्ट ना हो। ऐसी मानसिकता केवल भारत में ही देखने को मिलती है।

 इस अपमान को सहने वाले मूलनिवास समाज को जब साल 1818 में एक जनवरी को पेशवाओं से अपने अपमान का बदला लेने का मौका मिला तो उन्होंने ऐसी लड़ाई लड़ी, जो इतिहास में दर्ज हो गई। महाराष्ट्र के कोरेगांव भीमा नदी के तट पर पुणे के पास 1 जनवरी 1818 की हाड़ कंपाती ठण्ड में 500 महार सैनिकों ने 28000 हजार की पेशवाओं की सेना को अपने पराक्रम से रौंद डाला। पेशवाओं की सेना में 2000 घुडसवार थे वही दूसरी तरफ महार रेजिमेन्ट की सेना में कुल 500 सौ सैनिक ही थे, जिसमें सिर्फ 250 घुड़सवार थे। इस छोटी सी सेना ने 12 घंटो की वीरतापूर्वक लडाई में हजारों की पेशवाओं की सेना को हराया ही नहीं बल्कि पेशवाओं की पेशवाई का भी अंत कर दिया था। इस लड़ाई का जिक्र ना तो इतिहास करता है और ना इतिहासकार। क्योंकि इस महायुद्ध में हमारे मूलनिवासी योद्धाओं की जीत हुई थी।

 इस ऐतिहासिक घटना का जिक्र भारत के वीरपुत्र व बहुजनों के मसीहा बोधिसत्व भारत रत्न बाबासाहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने अपनी एक पुस्तक ‘‘राइटिंग्स एंड स्पीचेस’’ जो अंग्रेजी में लिखी गयी है के खण्ड 12 में ‘‘द अनटचेबल्स एण्ड द पेक्स ब्रिटेनिका” में इस तथ्य का वर्णन किया, तब जाकर समाज के सामने यह ऐतिहासिक सच्चाई आ पाई। आज भीमा कोरेगांव में इन महान योद्धाओं के नाम का एक स्तम्भ खड़ा है जो मूलनिवास महारों की वीरता की गवाही देता है। इस स्तम्भ पर सभी शहीदों के नाम खुदे हुए हैं जिससे समाज अपने वीर योद्धाओं की जानकारी रख सके। इस लड़ाई में मारे गये सैनिकों को 1851 में मेडल देकर अंग्रेजी सरकार ने सम्मानित भी किया था।

इस युद्ध के समाप्त होते ही पेशवाओं की पेशवाई का भी अंत हो गया था और अंग्रेजों को भारत में सत्ता मिल गयी। इसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने इस देश में शिक्षण का प्रचार भी किया जिससे हजारों सालों से बहुजन समाज वंचित था उनके लिए भी ये रास्ते खुले। ऐसा भी नहीं है कि हमेशा महारो ने अंग्रेजों की लडाई लड़ी बल्कि यही अछूत थे जिन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ भी युद्ध लड़ा। जिनमें हमारे समाज की स्त्रियों ने भी बराबर कदम बढाये थे। फिर चाहे उस लड़ाई को लड़ने वाले बिरसा मुण्डा हों, चेतराम चमार हों, हरिसिंह भंगी हों, बल्लू मेहतर हों, तेलंगा खडिया हों, तिलका मांझी हों या फिर रानी शवेश्वरी हों, झानू, फूलो, चाम्पी, साली, कैली दाई हों या फिर झलकारी बाई का पराक्रम हो। अछूतों का इतिहास वीरता के जौहरों से भरा पड़ा है, जिसके साथ आज तक न्याय नहीं हुआ है।

ऐसा लगता है कि बहुजन समाज को अपना अस्तित्व पाने के लिए अभी कोरेगांव जैसी एक और लड़ाई लड़नी होगी। नहीं तो ये वही इतिहासकार हैं जो अंग्रेजी सेना के सिपाही मंगल पाण्डे को तो देश भक्त बना देते हैं और मतादीन भंगी को नजर अंदाज कर देते हैं। हमारा समाज भी आज नए साल के मुबारकवाद के बीच अपने इतिहास को भूल जाता है, कोरेगांव के अपने शहीदों को भूल जाता है जालिम पेशवाओं की अंतिम यात्रा को भूल जाता है, जिसका खामियाजा हम उठाते रहते है। जबकि नए साल की बधाईयों के साथ कोरेगांव युद्ध की इस विजय गाथा को भी जरूर याद करना चाहिए। हमें नमन करना चाहिए कोरेगांव के उन सूरवीरों को जिन्होंने ओछी मानसिकता वाली पीढ़ी का अंत कर एक गौरवान्वित इतिहास रच दिया था।


लेखक यूपी के हापुड़ जिले निवासी हैं। डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप से सम्मानित हो चुके हैं। संपर्क- 9897907490

पढ़िए, वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने बहुजन कैलेंडर के बारे में क्या लिखा है

 बहुजन कैलेंडर
मेरी नज़र में काम की साधना का मतलब है उसमें डूब कर करते जाना। दलित दस्तक के अशोक दास अपने काम में साधक हैं। युवा अवस्था से ही उन्होंने अपना कुछ बनाने की चुनौती स्वीकार की है। उनके काम में प्रसार संख्या की प्रासंगिकता से मुक्त जुनून दिखता है। उनकी पत्रिका नियमित पहुँचती रहती है और साल ख़त्म होने पर कैलेंडर आ जाता है। भारत का इतिहास मुख्यधारा का इतिहास नहीं है। मुख्यधारा के चर्चित नामों के योगदान से इंकार नहीं कर रहा लेकिन इसमें एक क़िस्म का असंतुलन है।
इसे दूर करने का उपाय हर रोज़ किसी महापुरुष की याद में ट्विट करना भी नहीं है जो आज कल दिन भर झूठ बोलने वाले मंत्री करते हैं। वे सोमवार को शहीद उधम सिंह की जयंती मनाते हैं तो रविवार को अश्फ़ाक की। इसका पूरा मक़सद जताना होता है कि जानते हैं। स्मरण कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि ट्विट करने वाला मंत्री इससे अधिक कुछ नहीं जानता। राजनीति भी तो यही करती है। मूर्ति बनाती है। भूल जाती है।
बहुजन समाज के नायकों और घटनाओं का पाठ करने पर आप जान पाते हैं कि मुख्यधारा की तस्वीर कितनी एकांगी है। अशोक के इस कैलेंडर से काफ़ी कुछ पता चलता है। पहले तो यही कि कैलेंडर को पंचांग की तिथियों और रंगीन तस्वीरों के अलावा भी दूसरे नज़रिये से देखा जा सकता है।
शानदार प्रयास है। आप इसे देखते हुए कितना कुछ जानते हैं। पिछले साल के कैलेंडर में नायक थे तो इस साल आंदोलन हैं। उनका महत्व है। सोचिए फ़ोन पर जो तारीख़ों का कैलेंडर होता है वो कितना सादा होता है। केवल नंबर होता है। लेकिन इस पारंपरिक कैलेंडर में कितना कुछ नया है। अपनी दीवारों पर ऐसे कैलेंडर की जगह बचा कर रखिए। अशोक दास को शुभकामनाएँ।

वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक पेज से। उनके पेज पर यह पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

हैदराबाद में हुआ ब्राह्मण टूर्नामेंट, मचा बवाल

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 25 दिसंबर को जब देश के तमाम हिस्सों में बहुजनों द्वारा मनुवाद को पोसने वाली ‘मनुस्मृति’ की होली जलाई जा रही थी, हैदराबाद में एक ऐसा टूर्नामेंट हो रहा था, जो सिर्फ ब्राह्मणों के लिए था। हैदराबाद के नागोल में 25-26 दिसंबर को एक क्रिकेट टूर्नामेंट खेला गया, जिसमें सिर्फ उन्हीं को खेलने की अनुमति थी, जो ब्राह्मण जाति के थे।

खास बात यह है कि खेलने वाले खिलाड़ियों को अपना आईडी प्रूफ लेकर आने को कहा गया था। टूर्नामेंट के पोस्टर में साफ लिखा गया था कि इसमें सिर्फ ब्राह्मण खिलाड़ियों को ही खेलने की अनुमति होगी। क्रिकेट टूर्नामेंट का पोस्टर सामने आने के बाद सोशल मीडिया पर बहस का दौर जारी है। सवाल पूछा जा रहा है कि जब भारत में जाति के आधार पर भेदभाव प्रतिबंधित है, ऐसे में किसी जाति विशेष के टूर्नामेंट को स्थानीय प्रशासन ने कैसे अनुमति दे दी। बड़ा सवाल हैदराबाद के प्रशासन पर भी उठ रहा है।

दलित लेखक-पत्रकार भंवर मेघवंशी की किताब को मिला बड़ा सम्मान

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 लेखक-पत्रकार भंवर मेघवंशी की पुस्तक “मैं एक कारसेवक था” के अंग्रेजी संस्करण के नाम बड़ी उपलब्धि हासिल हुई है। इस पुस्तक को अंग्रेजी दैनिक द टेलिग्राफ के द्वारा वर्ष 2020 के नॉन फिक्सन की सूची में शामिल किया गया है। अंग्रेजी अनुवाद का नाम, I Could Not Be Hindu: The Story of a Dalit in The RSS है। यह पुस्तक नवयाना प्रकाशन ने प्रकाशित की थी। इस सूची में कुल 14 किताबों को शामिल किया गया है, जिसमें आक्सफोर्ड से लेकर कैम्ब्रिज, सेज और पेंगुइन आदि प्रकाशन से दिग्गज लेखकों की लिखी पुस्तकें शामिल हैं। इस सूची को ‘द टेलिग्राफ’ ने साल 2020 का बेस्ट नॉन फिक्सन कहा है।

जहां तक भंवर मेघवंशी की पुस्तक ‘मैं एक कारसेवक था’ (I Could Not Be Hindu: The Story of a Dalit in The RSS) की बात है तो यह पुस्तक मेघवंशी के उन दिनों के संस्मरण पर आधारित है, जब वो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता थे। यहां तक की उन्होंने राम मंदिर के लिए कार सेवा भी की थी। लेकिन उसी दौरान एक ऐसी घटना घटी, जिसने भंवर मेघवंशी के सामने आरएसएस में व्याप्त जातिवाद की कलई खोल कर रख दी। भंवर मेघवंशी का कहना है कि आरएसएस ने इस किताब को लेकर चुप्पी साध ली थी, ताकि उसके भीतर का जातिवाद बाहर लोगों के बीच न आ जाए।

इसके बाद से ही भंवर मेघवंशी ने आरएसएस छोड़ कर आंबेडकरवाद का दामन थाम लिया। उन्होंने बाबासाहब के विचारों को पढ़ा और आज एक बहुजन चिंतक के तौर पर जाने-माने नाम हैं। साथ ही आंबेडकरी आंदोलन में अपनी शानदार लेखनी के लिए जाने जाते हैं।


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वीडियो देखिए- एक दलित कारसेवक से सुनिए अयोध्या आंदोलन की सच्चाई