कार्यकर्ताओं की नजर में मान्यवर कांशीराम

लेखक- डॉ. अलख निरंजन एवं अमित कुमार
राजनीति को ‘चाबियों की चाबी’ अर्थात् ‘गुरु किल्ली’ कहने वाले मान्यवर कांशीराम अपने जीवन में ही राजनीति के गुरु किल्ली बन गये थे। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों के राजनीतिक परिदृश्य पर कांशीराम का बहुत गहरा प्रभाव है। इसके बाद का दशक भी कांशीराम के प्रभाव से मुक्त नहीं है। भविष्य की राजनीति भी कांशीराम की भूमिका को बड़ी ही गहराई से रेखांकित करेगी। वैसे कांशीराम को उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति के दम पर दलित सत्ता को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। लेकिन भारतीय राजनीति में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध शूद्र क्रांति के प्रणेता के रूप में भी कांशीराम को याद किया जायेगा। वास्तव में कांशीराम बौद्ध श्रमण बहुजन परम्परा के अपने समय के उन्नायक थे।
कांशीराम राजनीति में किसी परम्परागत घराने या वैचारिकी के वारिस के तौर पर नहीं आये थे जो उनके समय में प्रभावी भूमिका में रही हो। हालांकि कांशीराम जिस वैचारिकी के वारिस है उसकी जड़ें भारतीय इतिहास में बहुत गहरी हैं लेकिन कांशीराम के समय यह धारा लगभग सूख गयी थी, जिसे कांशीराम ने अपने सूझबूझ, लगन, परिश्रम और त्याग के बल पर पुष्पित-पल्लवित किया। फलस्वरूप यह धारा इतनी विशाल बन गयी कि ब्राह्मणवाद के कई परम्परागत किले धूल-धूसरित हो गये। कांशीराम ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाकर क्रान्ति किया था जिसे ‘कमंडल’ की राजनीति से प्रतिक्रान्ति में बदला जा रहा है।

कांशीराम ने अपनी राजनीतिक यात्रा शून्य से शुरू की थी। प्रारम्भिक दिनों में केवल उनके दो साथी थे एक थे दीनाभाना तथा दूसरे डी.के. खापर्डे। 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के पश्चात कहा जाता है कि इन लोगों ने भी मान्यवर कांशीराम का साथ छोड़ दिया था। लेकिन देखते देखते कांशीराम के पीछे लाखों कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी हो गयी जो अपनी धन-दौलत एवं जीवन, सभी कुछ, कांशीराम पर न्यौछावर करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। सवाल है कि आखिर यह चमत्कार कैसे संभव हुआ। आखिर कांशीराम में ऐसा क्या था जिससे प्रभावित होकर देश के कोने-कोने से लाखों लोग कांशीराम के साथ चलने को तैयार हो गये?

इन कार्यकर्ताओं में हर तरह के लोग थे। कम पढ़े-लिखे लोगों से लेकर स्नातक, परास्नातक एवं पीएच.डी. धारक लोग तक। ये सब कांशीराम के साथ अपना घर परिवार छोड़कर चल पड़े। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से लेकर आई.ए.एस. तक ने आर्थिक सहयोग दिया। कई कर्मचारियों ने अपनी भविष्य निधि से कर्ज लेकर कांशीराम को आर्थिक सहयोग दिया। हजारों कर्मचारियों ने अपनी नौकरी छोड़ दी। साधारण बहुजन जनता ने एक वोट के साथ एक नोट दिया। कई विधानसभाओं में बहुज समाज पार्टी के प्रत्याशी को वोट से ज्यादा नोट मिल जाते थे। इसका अर्थ यह हुआ कि कुछ मतदाताओं ने एक रूपये से अधिक धन दिया होगा।
एक दिलचस्प किस्सा सुनिए। कुशीनगर के पास स्थित एक छोटे से गाँव कोटवा (अनिरुद्धवा) हेतिमपुर निवासी श्री कमला प्रसाद जिनकी उम्र लगभग 90 वर्ष है, अपनी स्मरण शक्ति पर जोर डालते हुए बताते हैं कि एक बार उनके गांव से कांशीराम गुजर रहे थे। गांव के लोगों को पता चला, तो गांव के लोगों ने कांशीराम के काफिले को रोका और आनन-फानन में लगभग एक हजार छः सौ रुपये इकट्ठा कर के कांशीराम को दिया। इस तरह के गहरे प्रेम का कारण पूछने पर श्री कमला प्रसाद बताते हैं कि हम सबको लगने लगा था कि कांशीराम हमारे समाज के मसीहा हैं इनको जितना भी सहयोग किया जाय कम हैं। कमला प्रसाद उन सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जिन्होंने नवम्बर 1956 में कुशीनगर में बाबासाहब का स्वागत किया था तथा माला पहनाया था और मान्यवर कांशीराम को भी सहयोग किया। वे मान्यवर कांशीराम द्वारा निकाले जाने वाले पत्र ‘बहुजन संगठक’ के नियमित पाठक रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि कांशीराम का सार्वजनिक जीवन आर्थिक रूप से बहुत खुशहाल था। समाज उनको देता था लेकिन समाज का धन वे पार्टी संगठन निर्माण में ही खर्च कर देते थे अपने ऊपर बहुत कर्म खर्च करते थे। वे अपने लिए कभी कपड़ा नहीं खरीदते थे। कार्यकर्ता ही उनके लिए कपड़ा खरीदते थे। कांशीराम के बहुत पुराने एवं प्रारम्भिक दिनों के सहयोगी, गोरखपुर (उ.प्र.) निवासी श्री. ई.विक्रम प्रसाद, जिन्हें मायावती के प्रथम कार्यकाल में मिनी मुख्यमंत्री कहा जाता था, ने बातचीत में बताया कि मान्यवर कांशीराम के शुरुआती दिन बहुत ही आर्थिक तंगी के रहे हैं। कई दिन भूखे सोने पड़ते थे। किराये के लिए भी पैसे नहीं रहते थे। यहां तक कि साइकिल में हवा भराने के भी पैसे नहीं रहते थे। श्री विक्रम प्रसाद बताते हैं कि एक बार गेस्ट हाउस में मान्यवर साहब रूके थे। उन्होंने स्वयं देखा कि उनकी बनियान फटी हुई थी। श्री विक्रम जी ने मान्यवर साहब को बिना बताये बनियान खरीदकर ला दिया और उनके कमरे में रख दिया। ठंढक लगने पर पांच रूपये की कोट श्मशान के खरीदने की घटना तो बहुतेरों को पता ही है।

कांशीराम का सादा जीवन और मिशन के प्रति लगन के कारण उनसे जो भी मिला उनका होकर रह गया। विक्रम प्रसाद बताते हैं कि उनकी पहली मुलाकात मान्यवर कांशीराम साहब से 1982-83 में हुई थी। उस समय कांशीराम करोल बाग में एक छोटे से कमरे में रहते थे। पहली मुलाकात में ही विक्रम प्रसाद ने पांच सौ रुपये का आर्थिक सहयोग किया था। उसके बाद मान्यवर साहब को निरंतर सहयोग करते रहते थे। विक्रम प्रसाद की आंखें उन दिनों की याद करके आंसुओं से भर जाती हैं। वे रूंधे कंठ से कहते हैं कि हमारी भावना ऐसी थी कि हम मान्यवर को क्या दे दे, लगता था जो हैं हमारे पास सब कुछ दे दें।

गोरखपुर के निवासी रामप्रीत ‘जख्मी’ ने अपना सम्पूर्ण जीवन मान्यवर साहब के मिशन और बहुजन समाज पार्टी के लिए लगा दिया। इन्होंने कई प्रदेशों में बसपा का प्रचार-प्रसार किया तथा कई वर्षों तक संगठन में जिला अध्यक्ष तथा इसके ऊपर की जिम्मेदारियों का भी निर्वाह किया, चुनाव भी लड़े। जख्मी इस समय पैरालाइसिस से पीड़ित हैं तथा मुफलिसी एवं अकेलेपन में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मान्यवर कांशीराम का नाम लेते ही उनके आंखों से आंसुओं की धार निकलने लगती है। वे भावुक होकर पुराने दिनों की यादों को संजोने लगते हैं। रामप्रीत जख्मी ऐसे कार्यकर्ताओं में से हैं जो जमीन पर कांशीराम की विचारधारा का प्रचार प्रसार करते थे। गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक करने का कार्य दुरुह एवं खतरनाक भी था। जान जाने का खतरा बना रहता था। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए जख्मी जी बताते हैं कि गोरखपुर जिले के हरनही गांव में इनका कार्यक्रम लगा हुआ था। इनका कार्यक्रम संगीतमय एवं साज़बाज के साथ रात में होता था। कार्यक्रम में इनके ऊपर गोली चल गयी। ये तो बाल-बाल बच गये लेकिन कुछ लोग घायल हो गये। गोली चलाने वाले भी पकड़ लिये गये। गोली चलाने वाले पुलिस के सिपाही थे जो सादे कपड़े में गांव के ठाकुरों के बुलावे पर आये थे।

एक दूसरी घटना का जिक्र करते हुए जख्मी जी बताते हैं कि वे, मान्यवर कांशीराम के निर्देश पर रांची गये हुए थे। वहां पर उन्होंने आदिवासियों के बीच 10-15 दिन कार्य किया। 10-15 दिनों के बाद एक मीटिंग बुलाई गयी। मीटिंग में जख्मी जी खड़े होकर भाषण दे रहे थे। उसी समय उनके घुटने पर एक तीर आकर लगी। ये तुरन्त गिर गये। खैर, मीटिंग में उपस्थित लोगों ने इनका अपनी विधि से इलाज किया। आदिवासियों ने अपनी परम्परा के अनुसार उस नौजवान को पकड़ा तथा तीर चलाने का कारण पूछा। नौजवान ने जो कहानी बताई वह खौफ़नाक और ध्यान देने योग्य है। उस नौजवान ने बताया कि एक ब्राह्मण ने उस युवक को बताया था कि यह व्यक्ति (जख्मी जी) तुम्हारे समाज को गुमराह कर रहा है तुम इसे जान से मार दो। वह नौजवान उस समूह का सबसे तेज तर्रार धनुर्धर था। मीटिंग के दिन उस ब्राह्मण ने आदिवासी नौजवान को खूब शराब पिलाई तथा भाषण दे रहे रामप्रीत जख्मी पर तीर चलाने को कहा। नौजवान शराब के नशे में था फिर भी उसे ब्राह्मण की बात पर पूरा भरोसा नहीं था। उस आदिवासी नौजवान को कहीं न कहीं इस बात का एहसास था कि ब्राह्मण झूठ बोल रहा है। इसलिए उसने तीर सीने में न मारकर घुटने में मारा। जिससे ब्राह्मण की बात भी रह जाये और उस आदमी की मृत्यु भी न हो। रामप्रीत जख्मी की तरह ही लाखों नौजवान मान्यवर साहब के मिशन के लिए अपनी जान को जोखिम में डालकर समाज में निकल पड़े थे। रामप्रीत जख्मी की मान्यवर कांशीराम से पहली मुलाकात गोरखपुर में हुई थी। बहुजन समाज पार्टी के तत्कालीन जिला महासचिव रमाशंकर यादव की हत्या बी.डी.ओ. की मिली भगत से ठाकुरों ने कर दी थी। रमाशंकर यादव की हत्या से कांशीराम विचलित हो गये थे तथा पार्टीजनों एवं परिवारजनों से मिलने गोरखपुर आये थे। मान्यवर कांशीराम, रमाशंकर यादव का एक स्मारक गोरखपुर में बनवाना चाहते थे जिसके लिए कार्यकर्ताओं ने सूरजकुंड, गोरखपुर में एक जमीन कांशीराम के नाम खरीदा। लेकिन इस योजना पर अमल नहीं हो सका। अभी भी यह जमीन खाली पड़ी है जो संभवतः कांशीराम के नाम पर एकलौती संपत्ति है।
डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव, पी.एच.डी. के छात्र थे तथा गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य करते थे। इनकी पहली मुलाकात गोरखपुर में हुई। कांशीराम एवं ‘बहुजन संगठक’ से उनका परिचय पहले से ही था। पहली ही मुलाकात में डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव, मान्यवर कांशीराम साहब के मुरीद हो गये। वे अपना अध्ययन और अध्यापन छोड़कर कांशीराम के साथ चल दिये। डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव, मान्यवर कांशीराम की बौद्धिक क्षमता, इतिहास दृष्टि एवं राजनीतिक समझ से बहुत प्रभावित थे। डॉ. दुर्गा प्रसाद यादव बताते हैं कि मान्यवर की इतिहास दृष्टि अलग थी। वे भारत के इतिहास को पांच काल खंडों में विभाजित करते थे। पहला- बुद्धकाल, दूसरा- ब्राह्मण काल, तीसरा- मुगल काल, चौथा- ब्रिटिश काल व पांचवा- संविधान काल। कांशीराम अपने आंदोलन को सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन कहते थे। उनका कहना था कि यदि सामाजिक परिवर्तन हो जायेगा तो सामाजिक न्याय अपने आप स्थापित हो जायेगा। शासन सत्ता अपने हाथ में लेना है जिसके हाथ में राजसत्ता होती है उसके ऊपर अन्याय नहीं होता है, बहन बेटियां भी सुरक्षित रहती हैं। मुट्ठी भर अंग्रेजों के ऊपर कभी अन्याय नहीं हुआ।
कांशीराम का व्यक्तित्व बहुत ही सहज और सरल था। कार्यकर्ता प्रचार से जब थके मांदे लौटते थे और मान्यवर के साथ कुछ देर बैठ जाते थे तो सभी की थकान दूर हो जाती थी। मान्यवर कार्यकर्ताओं से बहुत ही आत्मीय संबंध रखते थे। प्रत्येक मीटिंग में कोई न कोई नयी बात कहते थे तथा नया नारा लगवाते थे। श्री जफर अली ‘जिप्पू’ के पिताजी ‘नई दुनिया’ नामक अखबार निकालते थे। इस अखबार में कांशीराम का लेख, कार्यक्रम और भाषण का अंश छपा करता था। इनके पिताजी नौजवान ‘जिप्पू’ को कांशीराम के विषय में बताते थे तथा कहते थे कि यही व्यक्ति हिंदू फासीवाद को भारत में आने से रोक सकता है। कई वर्षों तक गोरखपुर बसपा के जिलाध्यक्ष रहे जफर अली जिप्पू बताते हैं कि कांशीराम से उनकी मुलाकात इलाहाबाद के चुनाव में आस मुहम्मद अंसारी ने कराई थी। तभी से कांशीराम और मेरी घनिष्ठता इतनी बढ़ गयी थी कि मान्यवर कांशीराम जब भी कभी गोरखपुर आते थे, उनके ठहरने का प्रबंध मैं ही करता था। मान्यवर का व्यक्तित्व गजब का था वे कभी घबराते नहीं थे, मनोबल बहुत ऊंचा था। 1989 में गोरखपुर प्रवास के दौरान ही उन पर बम फेंका गया था, पर मान्यवर जरा भी नहीं घबराये। दलितों के विषय में मुसलमानों को जागरूक करते थे। उनका नारा था- दलित मुसलमां करो विचार, कब तक सहोगे अत्याचार। दलित मुसलमां जागा है, अपना हिस्सा मांगा है। जफर अली जिप्पू स्वीकार करते हैं कि हम लोग कांशीराम के आंदोलन से पहले दलितों को भी सवर्ण हिंदू जैसा मानते थे, लेकिन बसपा ने हमारे नजरिये को बदल दिया। मान्यवर साहब कहते थे कि दलितों की बस्तियों में रूको, उनका खाना खाओ तब हकीकत समझ में आयेगी। मंडल कमीशन के लिए बड़ा आंदोलन किया। उन्होंने नारा दिया- मंडल कमीशन लागू करो, वरना कुर्सी खाली करो।
एक घटना का जिक्र करते हुए ‘जिप्पू’ जी बताते हैं कि हमने लगभग 10-12 कार्यकर्ताओं के साथ बसपा का प्रचार करने के लिए बंबई जाने का प्रोग्राम बनाया। मान्यवर कांशीराम ने कहा कि ठीक है आ जाओ, ट्रेन का दिन और समय बता देना। जब हमारी ट्रेन मुंबई पहुंची तो हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। मान्यवर साहब स्वयं हम लोगों को रिसीव करने के लिए स्टेशन पर खड़े थे। वे सभी लोगों से मिले तथा स्थानीय कार्यकर्ताओं को होटल तक पहुंचाने के लिए लगा दिया। कुछ देर बाद होटल पहुंच कर भी हालचाल पूछा। उस समय उ.प्र. में बहन मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार बन चुकी थी।
भारत के सवर्ण बुद्धिजीवियों की नजर में विकट और अबूझ पहेली लगने वाले कांशीराम अपने कार्यकर्ताओं के लिए जीवन पर्यंत सहज एवं सरल व्यक्तित्व बने रहें। उन्होंने ब्राह्मणवाद के किलों को नेस्तानाबूद करने की न केवल वैचारिकी विकसित की बल्कि उसे जमीन पर उतार कर उसकी व्यहारिकता को भी सिद्ध किया। कांशीराम के बेबाक बोल, निर्भीक व्यक्तित्व, तीक्ष्ण बौद्धिक क्षमता, कार्यकर्ताओं से आत्मीय संबंध जैसे गुणों ने, उनके पीछे लाखों कार्यकर्ताओं की फ़ौज को खड़ा किया।


इस आलेख के लेखक डॉ. अलख निरंजन और अमित कुमार अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े हैं और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में रहते हैं।

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