एक देश एक चुनाव: लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव

2014 में हुए लोकसभा चुनावों में यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीति और नीयत पर भरोसा करने वालों की देश में कमी होती,  तो वे 282 सीटों पर कब्ज़ा कर के लोकसभा में न पहुंचे होते. किंतु उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले और बाद के मोदी जी और उनके सबसे बड़े बफादार अमित शाह द्वारा जिस तरह की जुमलेबाजी और बीजेपी की पैत्रिक संस्था द्वारा किसी न किसी बहाने जिस प्रकार से अराजकता/जातीय हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है, मोदी जी और उनके समर्थक घटकों से समाज के आम आदमी का दम घुटने लगा है. लगता तो ये है कि  मोदी जी की सरकार और सरकार के समर्थक हिन्दूवादी संगठनों ने 2019 में होने वाले चुनावों के मद्देनजर मतदाता के जड़ों में मट्ठा डालने का काम शुरु कर दिया है. इस कमी को पूरा करने के लिए मोदी जी का तानाशाही आचरण उजागर होने लगा है. यूं तो हमारे देश में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की चर्चा वर्षों से चली आ रही थी किंतु अपनी सरकार के दो साल पूरे होते ही, मोदी जी ने अपनी जिस मुहिम को तेज़ करने का कवायद की है, वह है लोकसभा, विधानसभा, नगर निकायों और पंचायतों के चुनाव एक साथ कराना. इस संबंध में मोदी जी का यह तर्क ज़रा भी यक़ीन करने लायक नहीं है कि वे चाहते हैं कि राजनीतिज्ञों को कभी कहीं,  कभी कहीं,  होने वाले चुनावों की उठापटक में ज़्यादा वक़्त देने के बजाय सामाजिक कार्यों पर ध्यान देने के लिए समय मिलेगा और राजनीतिक संस्थानों के चुनाव अलग-अलग कराने पर होने वाले सरकारी खर्च में हज़ारों करोड़ रुपयों की बचत भी होगी. सिद्धांततः मोदी जी की इन दोनों दलीलों से पवित्रता की ख़ुशबू आती है, लेकिन मोदी जी अगर इतने ही सतयुगी होते तो फिर बात ही क्या थी?  इसलिए उनके ये तर्क मानने को मन नहीं करता. असल में मोदी जी को चिंता हो रही है कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में उनकी काठ की हाँडी का क्या होगा. दोबारा चढ़ेगी कि नहीं? सत्ता के मद में शायद मोदी जी भूल गए कि काठ की हाँडी चूल्हें पर एक बार ही चढ़ पाती है. इस माने में मोदी जी की चिंता जायज ही है. इसलिए गुजरात से दिल्ली की छलांग लगाने की तैयारी के दौर में ही उन्होंने दिमाग़ बना लिया था कि दूसरी बार सिंहासन कब्जाने के लिए उन्हें देश भर में सारे चुनाव एक साथ करवाने का दांव खेलना होगा. इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा के पिछले चुनाव के लिए ज़ारी अपने घोषणा पत्र में चुपके से यह लिख दिया था कि सरकार में आने के बाद वह “लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का तरीक़ा निकालेगी.” इसका सीधा सा अर्थ है कि लोकसभा में ये प्रस्ताव आसानी से पास हो जाएगा किंतु राज्यसभा में जरूर पास नहीं हो पाएगा. तब मोदी जी को एक मुद्दा मिल जाएगा कि हमने जो वायदे जनता से किए थे, उन्हें विपक्ष लागू करने में टाँग अड़ा रही है. वैसे भी संविधान में संशोधन करने के लिए दो तिहाई सांसदों के समर्थन की जरूरत होती है. बीजेपी के साथ शायद इतना समर्थन नहीं है, यदि होता तो वो इस प्रस्ताव को केवल हवा में न उछालते, अब तक प्रस्ताव को लागू करा चुके होते. लगता तो यह है कि इस मुद्दे को हवा देने का आशय केवल और केवल अपनी नाकामियों का ठीकरा विपक्ष के सिर पर मढ़ना और अपने चिरपरिचित अंदाज में मतदाता को पुन: मूर्ख बनाने का एक प्रयास है. बीजेपी की सरकार बनने के बाद मोदीजी ने ख़ामोशी से अन्दरखाने अपना यह काम ज़ारी रखा. आर एस एस ने कस्बों और गांवों तक अपनी शाखाओं का तेज़ी से न केवल विस्तार करना शुरू किया अपितु किसी न किसी बहाने समाज में अराजकता फैलाने का काम शुरु कर दिया. मोदी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की एक बैठक में सभी चुनाव एक साथ कराने की अपनी योजना को पूरी तरह से समझाया और फिर सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक में भी इस पर ज़ोर दिया कि बड़े-छोटे सभी चुनावों का एक साथ होना क्यों ज़रूरी है. असल मे तमाम नुस्खे आजमाने के बाद भी बिहार और कई अन्य राज्यों के विधान सभाओं  के चुनावों में मात खाने के तुरंत बाद दिसंबर 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने “एक देश एक चुनाव” के मद्दे की जोर-शोर से वकालत करते हुए एक ठोस क़दम उठाया. और एक संसदीय समिति गठित की और लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं के बारे में अपनी रिपोर्ट देने को कहा. संसद में कार्मिक, जन-शिक़ायतें और क़ानून-न्याय मंत्रालय की स्थायी समिति ने जो रपट पेश की वह कहती है कि “बार-बार होने वाले चुनावों की परेशानियों से लोगों और सरकारी मशीनरी को राहत दिलाने का समाधान खोजा जाएगा.“ रपट में यह भी कहा गया कि “अगर भारत को एक मज़बूत लोकतांत्रिक देश के नाते विकास की दौड़ में दुनिया के अन्य देशों से मुक़ाबला करना है तो देश को आए दिन होने वाले चुनावों से निज़ात पानी ही होगी.” संसदीय समिति की रपट में एक साथ चुनाव कराने के तीन फ़ायदों पर ज़ोर दिया गया…. एक- इससे बार-बार चुनाव कराने पर अभी खर्च होने वाले सरकारी धन में काफी कमी आएगी; दो- चुनावों के समय लगने वाली आचार-संहिता की वज़ह से रुक जाने वाले कामों से होने वाला नुक़सान कम हो जाएगा; और तीन- सरकारी अमले के चुनाव के काम में लग जाने की वज़ह से सार्वजनिक सेवा के बाक़ी ज़रूरी कामों पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा. समिति के मतानुसार यदि देश में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इस परेशानियों से निजात मिल सकती है. रपट में विस्तार से यह भी बताया गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अंततः एक साथ कराने की स्थिति कैसे लाई जाए और इस बीच किस तरह विधानसभाओं के कार्यकाल को समायोजित किया जाए….. इस प्रकार की आंकड़ेबाजी से सहमत हुआ जा सकता है किन्तु इस प्रस्ताव के व्यावहारिक पक्ष पर समिति ने कोई बात नहीं की कि यदि ऐसा हो जाता है तो केन्द्र और राज्य सरकारों का व्यवहार क्या होगा. इस प्रस्ताव के पीछे की सत्ताशीन राजनीतिक दल की मंशा को सियासी अखाड़े का कोई भी खिलाड़ी बड़ी सहजता से भाँप सकता है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यदि केंद्र और राज्यों की सरकारों के लिए चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता एक ही राजनीतिक दल के पक्ष में मतदान करना पसंद करता है. यह एक आम अवधारणा है. इसमें कोई रहस्य की बात नहीं. ऐसा होने पर केन्द्र और राज्यों में किसी एक ही दल की सरकारें बनने की संभावना को नहीं नकारा जा सकता. जो न लोकतंत्र की परिभाषा को नकारता है अपितु लोकतंत्र की हत्या का द्योतक है.  1999 से अब तक देश लोकसभा और विधान सभाओं में एक साथ हुए चुनावों के आँकड़े इस बात का प्रमाण हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने पर 77 प्रतिशत मतदाताओं ने लोकसभा और राज्य विधान सभाओं लिए एक ही पार्टी को वोट देना पसंद किया. मोदी इतने भोले तो नहीं हैं कि इस सत्य से अवगत न हों. इसलिए संविधान की तमाम व्यवस्थाओं से इतर 2019 में सभी चुनाव एक साथ कराने की उनकी ललक आसानी से समझी जा सकती है. चिरपरिचित संविधान विशेषज्ञ माननीय आर. एल. केन के अनुसार संविधान की धारा 83 (2) में लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक से पांच साल तक के लिए तय है. इसी तरह धारा 172 (1) विधानसभाओं को भी पांच साल के कार्यकाल का अधिकार देती है. सामान्य स्थिति में यह कार्यकाल पूरा होना ही चाहिए. लोकसभा और विधानसभाएं समय से पहले भंग की जा सकती हैं. प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री यह भी तय कर सकते हैं कि चुनाव कब कराए जाएं. लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मक़सद से विधानसभाओं को समय से पहले भंग करना संविधान का दुरुपयोग ही माना जाएगा. असामान्य स्थित में राष्ट्रपति को किसी विधानसभा का कार्यकाल एक साल तक बढ़ाने का अधिकार है. अब जबकि काँग्रेस पार्टी द्वारा नियत किए गए वर्तमान राष्ट्रपति ने ही मोदी जी के “एक देश एक चुनाव” से सहमति व्यक्त कर दी है तो हमें 2017 के जुलाई-अगस्त में सत्तारूढ़ भाजपा की कृपा से मिलने राष्ट्रपति से “एक देश एक चुनाव” के नकार की कैसे आशा की जा सकती. जाहिर है कि अगला राष्ट्रपति निश्चित रूप से आर एस एस द्वारा ही प्रस्तावित होगा, बीजेपी की शायद राष्ट्रपति के चुनाव में केवल और केवल सहमति ही होगी. यह केवल शंका ही नहीं अपितु ऐसा सोचने के पीछे बीजेपी के सुब्रह्मनियम स्वामी का वो बयान है जिसमें उन्होंने दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग को हटाकर संघ के किसी व्यक्ति को दिल्ली के उप-राज्यपाल बनाने की वकालत की है. यहां एक सवाल उठना जरूरी है कि क्या किसी एक राजनीतिक दल की इच्छा पूरी करने के लिए अपने इस विशेषाधिकार का इस्तेमाल करना, क्या किसी भी राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक और नैतिक नज़रिए से उचित होगा? भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने भी भारत में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव को एक साथ करवाने पर जोर दिया है, हालाँकि इसके लिए सभी राजनीतिक दलों का एकमत होने के साथ-साथ संवैधानिक संशोधन भी जरूरी है. उन्होंने यह भी कहा कि यदि ऐसा हो जाता है तो चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव और राज्य विधानसभा के चुनावों को एक साथ करवाने के लिए तैयार है. न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक के अनुसार, “लोकसभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने में कई और भी व्यवहारिक दिक्कतें आएंगी. एक ही दिन पूरे देश में चुनाव कराने के लिए पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों की क़रीब चार हज़ार कंपनियां लगेंगी. अभी सरकार बमुश्किल एक हज़ार कंपनियों का इंतज़ाम कर पाती है. चार गुना ज़्यादा पुलिस-बल एकाएक हवा में से तो पैदा हो नहीं सकता. इसके लिए पैसा कहां से आएगा. एक ही दिन में सभी जगह चुनाव कराने के लिए लगने वाली मतदान मशीनों का इंतज़ाम भी एक मुद्दा है. एक साथ चुनाव कराने पर राज्यों में स्थानीय मुद्दे, राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में ग़ुम हो सकते हैं या इसके उलट स्थानीय मुद्दे इतने हावी हो सकते हैं कि केंद्रीय मसलों का कोई मतलब ही न रहे.”  …. हाँ! इस योजना को लागू किए जाने की वकालत करना राजनीतिक दलों के हित में तो हो सकता है किंतु देश और देश की जनता के हित में कतई लाभकारी नहीं हो सकता. उदाहरण के रूप में 2014 के लोकसभा चुनावों को ही लिया जा सकता है. मानलो कि यदि इस वर्ष के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ विधान सभाओं के चुनाव भी होते तो जनता का मत महज एक तरफ ही जाता. केन्दीय सरकार के मुद्दे और राज्य सरकारों के मुद्दे अलग-अलग न होकर घालमेल का शिकार हो जाते. इतना ही नहीं, यह भी जब केन्द्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के चलते सरकार दो साल पूरे होने तक समाज में, बीजेपी की पैत्रिक संस्था आर एस एस का फैला आतंक किस हद तक चला जाता यदि राज्य सरकारें भी बीजेपी की ही होतीं तो देश की क्या हालत होती, इसका सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है. सारांशत: कहा जा सकता है कि “एक देश एक चुनाव” की व्यवस्था देश में अधिनायकवाद या यूं कहें कि हिटलशाही और तानाशाही को ही जन्म देगी. देश में चौतरफा अराजकता का माहौल होगा. सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का आचरण लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हो जाएगा.  या यूं कहें कि यदि “एक देश एक चुनाव” की व्यवस्था देश में  लागू हो जाती है तो यह लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव ही सिद्ध होगा. – लेखक  लेखन की तमाम विधाओं में माहिर हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादन के साथ स्वतंत्र लेखन में रत हैं. संपर्क- 9911414511

मनुवाद के कंधों पर मानवतावाद का जनाजा

घटना पिछले दिनों की है। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के एक गांव में दबंग जातियों के लोगों ने एक मृतक दलित महिला का शमशान घाट पर अंतिम संस्कार नहीं होने दिया। क्योंकि शमशान घाट की जमीन पर दबंग जातियों के लोगों का कब्जा है, इतना ही नहीं उस जमीन पर दबंगों की फसल लहलहा रही है। जबकि खबर यह भी है कि गांव में ही तीन शमशान घाट मौजूद हैं। पर मजबूरन उक्त दलित महिला के शव का दाह संस्कार मृतका के घर के सामने ही करना पड़ा। दूसरी घटना उड़ीसा के कालाहांडी की है। कालाहांडी में दाना मांझी टीबी से पीड़ित पत्नी का इलाज सरकारी अस्पताल में करा रहा था। इलाज के दौरान दाना मांझी की पत्नी की मौत हो गयी। पत्नी के शव को गांव ले जाने हेतु एंबुलेस उपलब्ध कराने के लिए अस्पताल प्रशासन से गुहार लगायी, जो प्रशासन ने अनसुनी कर दी। फिर विवश होकर दाना मांझी पत्नी के शव को चादर और चटाई में लपेट कर कंधे पर रखकर चल दिया। 12 किमी से अधिक का सफर करने के दौरान जागरूक इंसान के रूप में उसे कुछ फरिस्ते मिले, जिन्होंने स्थानीय प्रशासन की मदद से एंबुलेंस बुलाकर शव को उसके गांव मेलघरा पहुँचाया। तीसरी घटना भी उड़ीसा की ही है। बालासोर का सरकारी अस्पताल तो एंबुलेस के बजाए डंडों से काम चलाता है। खासतौर से वंचित वर्ग के मामले में। बालासोर के उक्त अस्पताल में अल्पसंख्यक वर्ग की एक बुजुर्ग महिला की मौत के बाद, कर्मचारियों ने मृतक महिला की हड्डियॉं तोड़कर पहले तो उसकी गठरी बनायी और फिर शव को डंडे पर लटकाकर रेलवे स्टेशन तक लाया गया, ताकि उसे पोस्टमार्टम के लिए दूसरे स्थान पर पहुँचाया जा सके। हाल ही में मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के करैरा कस्बे में अलपसंख्यक वर्ग के एक व्यक्ति की तालाब में डूबने से मौत होने पर एंबुलेस को कई बार फोन किया, जब एंबुलेस नहीं आयी, तो मृतक का बेटा शव को हाथ ठेले में रखकर अस्पताल ले गया। देश में आमतौर पर ट्रैक्टर-ट्रॉली का प्रयोग कृषि कार्यों एवं सामान को लाने ले जाने के लिए किया जाता है, पर एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में चित्र सहित प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, अस्पताल के कर्मचारियों द्वारा एक आदिवासी के शव का पोस्टमार्टम ट्रैक्टर ट्रॉली में रखकर किया जा रहा था। हम चाहें राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की कामयाबी के लाख डंके बजाएं पर उक्त घटनाओं से लगता है कि आजादी के लगभग सात दशक बाद भी हमारा समाज वंचित वर्ग खासतौर से … दलितों एवं आदिवासियों के प्रति मानवीय संवेदनाओं से शून्य होता जा रहा है। पाशुविक व्यवहार की ऐसी घटनाएं हमारे समाज की आधुनिक सोच के दावों को खोखला साबित कर रही हैं। वंचित वर्ग खासतौर से दलितों एवं आदिवासियों के शवों के अंतिम संस्कार से जुड़े विवादित मामले सिर्फ सामाजिक ही नहीं हैं, बल्कि इन्हें सरकारी एवं राजनीतिक संरक्षण मे घटित होते हैं। शहरी क्षेत्रों में भी जातीय एवं वर्णव्यवस्था के अनुसार शवदाहगृहों का आवंटन किया जा रहा है। मसलन् माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को फटकार लगायी थी, कि जयपुर नगरपालिका द्वारा संचालित शवदाहगृहों में सभी वर्गों के लिए अंतिम संस्कार की समुचित सुविधाएं उपलब्ध करायी जाएं। यहॉं बताते चलें कि जयपुर नगरपालिका ने अंतिम संस्कार के लिए जातीय एवं वर्णव्यवस्था के आधार पर शवदाहगृहों का आवंटन किया है। जबकि शहरों में सरकार द्वारा स्थापित शवदाहगृहों पर सभी जातियों एवं वर्गों का समान अधिकार होता है। फिर भी दबंग जातियां दलितों-आदिवासियों को सार्वजनिक शवदाहगृहों पर अंतिम संस्कार नहीं करने देतीं। जिसके कारण दलितों के शवदाहगृह अलग होते हैं। देश में खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में अंतिम संस्कार के लिए लोगों ने जातीय या सामुदायिक आधार पर शवदाहगृह निर्धारित कर रखे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के शवदाहगृह बेशक ग्राम सभा की जमीन पर होते हैं पर गांवों में जातिवाद की जड़ें इतनी अधिक गहरी होती हैं कि उनका संचालन अलग-अलग जातियों एवं समुदायों  द्वारा किया जाता है। शवदाहगृहों के मामले में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, आंध्रप्रदेश, कनार्टक एवं तमिलनाडू आदि राज्यों में भी लगभग एक जैसा हाल है। गुजरात राज्य ग्राम पंचायत समाज न्याय समिति की सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश का विकास मॉडल माने जाने वाले गुजरात राज्य के 650 गांवों में से करीब 400 गांवों में दलितों के लिए शवदाहगृहों की व्यवस्था नहीं है। लगता है कि मनुवाद के कंधों पर मानवतावाद का जनाजा निकल रहा है। गुजरात में उना घटना के बाद दलित भय के वातावरण में जी रहे हैं। खास तौर से गुजरात में मरे पशुओं की खाल उतारने का काम करने वाली दलित जातियों के सामने आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति बनी हुई है। यानि कि वह मृत गाय की खाल उतारते हैं तो भी उन्हें सामाजिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है और खाल उतारने से मना करते हैं तो भी उनका उत्पीड़न हो रहा है। यानि कि चित्त भी दबंग जातियों की और पट्ट भी। कई घटित घटनाओं की प्रतिक्रिया में दलितों, आदिवासियों एवं मुस्लिमों द्वारा एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन करना हिन्दुत्वीय ताकतों के लिए खतरे की घंटी है। बाबा साहब डा0 अम्बेडकर ने महाराष्ट्र में महाड तालाब का पानी प्राप्त करने के लिए सांकेतिक आंदोलन विषमतावादी समाज को यह संदेश देने के लिए किया था कि जब दबंग जातियों के पशु उक्त तालाब का पानी पी सकते हैं, तो दलित वर्ग के लोग उस तालाब से पानी प्राप्त क्यों नहीं कर सकते। क्या दबंग जातियॉं दलितों को पशुओं से भी बदतर समझती हैं। दलितों-आदिवासियों के अधिकारों एवं उनके संरक्षण की संवैधानिक व्यवस्थाओं के वाबजूद समाज में दलितों एवं आदिवासियों के प्रति पाशुविक मानसिकता के लोग आज भी मौजूद है। यही कारण है कि ऐसी क्रूरतम घटनाएं आए दिन कहीं न कहीं पर घटित होती रहती हैं। उक्त घटनाएं मात्र कुछ समय के लिए मीडिया की खबरें तो बनती हैं, पर वे पीड़ितों को न्याय दिलाने के अंजाम तक नहीं पहुँच पाती हैं। क्योंकि ऐसी घटनाओं में अधिकांशतः स्थानीय प्रशासन पीड़ित दलितों एवं आदिवासियों के हितों के विपरीत दबंगों जातियों की दबंगई के आगे घुटने टेक देता है। ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया में मध्य प्रदेश सरकार ने निर्णय लिया है कि अगर कोई भी व्यक्ति दलितों को श्मशान घाट, कब्रिस्तान और मंदिर आदि का इस्तेमाल करने से रोकता है, तो सरकार पीड़ित परिवार को एक लाख रूपये का अनुदान देगी। अगर कोई सरकारी कर्मचारी या अधिकारी दलितों या आदिवासियों का उत्पीड़न करता है तो राज्य सरकार 2 लाख रूपये का मुआवजा एवं मृतक के आश्रितों को प्रति माह पॉंच हजार रूपये की स्थायी पेंशन देगी। यानि कि ओहदे में जितना बड़ा व्यक्ति दलितों एवं आदिवासियों का उत्पीड़न करेगा। पीड़ित परिवारों को उतना ही अधिक मुआवजा मिलेगा। यह कैसा न्यायिक मापदंड है। हमारे शासक वर्ग को यह बात समझ लेनी चाहिए कि दलित एवं आदिवासियों के उत्पीड़न की घटनाओं पर मुआवजों या अनुदानों की रोटियॉं सेकने का राजनीतिक खेल से उक्त वर्ग ऊब चुका है। आज उक्त वर्ग इतना जागरूक हो चुका है कि कई ऐसे मामलों में पीड़ित परिवार सरकारी मुआवजां या अनुदानों को ठुकरा चुके हैं। देश में अम्बेडकर विरोधी विचारधारा का पोषण करने वाली ताकतें स्वयं को अम्बेडकरवादी होने के ढ़ोंग की लाईन में खड़ी हैं। जिसके चलते चंद तथाकथित दलित नेता ऐसी ताकतों के दलित मुखौटे बनने को आतुर नजर आ रहे हैं। आज कहीं डा0 अम्बेडकर से जुड़े विदेशी स्थलों को खरीदा जा रहा है, तो कहीं डा0 अम्बेडकर द्वारा स्थापित बुद्ध भूषण प्रेस की ऐतिहासिक इमारत को ढ़हाकर उसे फिर से विकसित करने के प्रयास हो रहे हैं। इन तमाम प्रयासों का डा0 अम्बेडकर की वैचारिक स्मृतियों से कोई खास सरोकार नहीं हैं। क्योंकि इस बीच उनके विचारों को अमलीजामा पहनाने की चर्चा लगभग गायब है। और ऐसे कोई प्रयास भी नजर नहीं आ रहे हैं। डा0 अम्बेडकर चाहते थे कि उक्त उत्पीड़ित वर्गों को मात्र मुआवजा नहीं, इंसाफ भी चाहिए। क्या दलितों एवं आदिवासियों के उत्पीड़न की घटनाओं के प्रति निष्ठुर होता जा रहा हमारा शासक वर्ग, उक्त पीड़ित वर्ग को इंसाफ दिलाने की गारंटी देने को तैयार है।

शाकाहार और मांसाहार की बहस

शाकाहार और मांसाहार में तुलनात्मक मेरिट की ही बात है तो ध्यान रखियेगा कि दुनिया में सारा ज्ञान विज्ञान तकनीक मेडिसिन चिकित्सा यूनिवर्सिटी शासन प्रशासन संसदीय व्यवस्था व्यापार उद्योग इत्यादि यूरोप के मांसाहारियों ने ही दिया है. भारत सहित अन्य मुल्कों को भी लोकतन्त्र, शिक्षा, विज्ञान और मानव अधिकार सिखाने वाले यूरोपीय ही थे. आज भी वे ही सिखा रहे हैं. मुल्क जिन भी व्यवस्थाओं से चल रहा हा वो सब उन्ही की देन है. अपने वेदों और पुराणों को भी ठीक से देखिये, देवताओ सहित ऋषि मुनि पुरोहित राजा और सभी देवियाँ मांसाहारी हैं. शाकाहारी खुद हजारो साल तक गुलाम रहे हैं और गुलामियों और भेदभाव को पैदा करने में विश्व रिकॉर्ड बनाते रहे हैं. शाकाहार की बहस असल में मुल्क को कमजोर कुपोषित और मानसिक रूप से दिवालिया बनाती है. शाकाहार में अव्वल तो आवश्यक पोषण होता ही नहीं या फिर इतना महंगा होता है कि भारत जैसे गरीब मुल्क में इसकी मांग करना गरीबों का मजाक है. पूरी दुनिया में भारत डाइबिटीज केपिटल बना हुआ है. कारण एक ही है, भारतीय थाली से प्रोटीन छीन लिया गया है. सबसे कमजोर और बोगस भोजन भारत का ही है. रोटी, चावल, घी, तेल, मक्खन, दूध दही शक्कर नमक सहित सभी अनाज सिर्फ फेट स्टार्च और कारबोहाइड्रेट देते हैं. बस चुल्लू भर दाल में ही थोडा सा प्रोटीन है वो भी अब आम आदमी की औकात के बाहर चली गयी है. इसीलिये भारत लंबे समय से कमजोर, ठिगने, मन्दबुद्धि और डरपोक लोगों का मुल्क रहा है. भारत की 15 प्रतिशत से ज्यादा आबादी पुलिस या सेना की नौकरी के लायक ही नहीं होती. मुल्क की जनसंख्या में इतने बड़े अनफिट प्रतिशत का उदाहरण पूरी दुनिया में और कहीं नहीं है. याद कीजिये मुट्ठी भर मुगलों और अंग्रेजों ने इस मुल्क पर हजारों साल राज किया था. ये शाकाहार की महिमा है. हालाँकि इसमें जाति और वर्ण व्यवस्था का भी हाथ है जिसने फ्री नॅचुरल सिलेक्शन को असंभव बनाकर पूरे मुल्क के जेनेटिक पूल को जहां का तहाँ कैद कर दिया है और समाज को हजारों टुकड़ों में तोड़ डाला है. इस देश में कोई जेनेटिक मिक्सिंग और सुधार नहीं हो सका है. बाकी सौंदर्यबोध के नाते आप शाकाहारी हैं तो ठीक है, आपकी मर्जी… लेकिन उससे आप महान नहीं बन जाते, न ही मांसाहारी नीच हो जाते हैं. अपनी महानता दूसरों पर थोपकर उनसे बदलने का आग्रह करना भी हिंसा है. मांसाहारियों ने शाकाहारियों की थाली को लेकर कभी बवाल नहीं किया. लेकिन शाकाहारियों को जाने क्या दिक्कत होती है उनकी नजर हमेशा भटकती रहती है. आपका स्वर्ग तो पक्का है, अकेले वहां जाकर खुश रहो न भाई, दूसरों की हांडी में झाँकने की क्या जरूरत है? शाकाहार और शुचिता का दावा करने वालों का आचरण देखिये. वे हजारों साल से इंसान का खून चूस रहे हैं. उनके देवी देवताओं को देखिये, वे हमेशा तीर तलवार लिए खड़े हैं. उनकी देवियां प्याले भर भर खून पी रही हैं. जिनको मांसाहारी कहा जाता है उनका एकमात्र मसीहा बिना तीर तलवार गंडासे के नंगा होकर सूली पर लटका है और सबको माफ़ करते हुए विदा ले रहा है. और जिन लोगों को आतंकी या खूंख्वार कहकर लांछित किया गया है; उन्होंने अपने खुदा की कोई तस्वीर और मूर्ति तक नहीं बनाई है.
– लेखक भोपाल में रहते हैं. सामयिक विषयों पर लेखन भी करते हैं।

… तो जेएनयू की लाल दीवारों पर चटख नीली स्याही पुत जाएगी

अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए जेएनयू छात्रसंघ के नतीजे एक नई उम्मीद लेकर आए हैं. अम्बेडकर-फुले विचारधारा के वाहक ””””””””बिरसा अम्बेडकर फुले स्टूडेंट एसोसिएशन”””””””” यानि बपसा ने जिस तरह से छात्रसंघ चुनाव में प्रदर्शन किया है, उसने यह साफ कर दिया है कि अगली बार अगर अम्बेडकर-फुले की विचारधारा से जुड़े सभी छात्र साथ आ गए तो जेएनयू की लाल दीवारों पर चटख नीली स्याही पुत जाएगी और जेएनयू में नीला झंडा लहराएगा. चुनाव के नतीजे को ध्यान से देखें तो प्रमुख मुकाबलों में बपसा ने कुछ में भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों पर बढ़त हासिल की है. चुनावी नतीजे में सभी चारों प्रमुख सीटों पर हालांकि लेफ्ट गठबंधन ने जीत हासिल कर ली है, लेकिन बपसा ने हार जाने के बावजूद लेफ्ट का पसीना निकाल दिया. जिस तरह से वोटों की गिनती होनी शुरू हुई. उससे शुरुआती कयास लगाने जाने लगे थे कि बपसा एक या दो सीटों को जीत जाएगी. हालांकि ऐसा हो ना सका. लेकिन बपसा ने अपने प्रदर्शन के आधार पर प्रतिद्वंदी छात्र संगठनों को यह चेतावनी और चुनौती दे डाली है कि वो बपसा को हल्के में ना ले. बपसा से जुड़े छात्रों और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को इस चुनाव के नतीजों को चुनौती के रुप में लेना चाहिए और जमकर मेहनत करनी चाहिए. अगर उन्होंने अपनी इस उम्मीद को मेहनत के पसीने से सींच लिया तो इसमें कोई शक नहीं की जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में अगली बार नीला झंडा लहराएगा. इस प्रक्रिया में इस विचारधारा से जुड़े विश्वविद्यालय के अन्य प्रोफेसरों को भी छात्रों का मार्गदर्शन करना चाहिए. इसका एक दूसरा पहलू यह भी हो सकता है कि देश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी बपसा के झंडे तले छात्र एकत्र होने लगे और यह छात्र संगठन देश के तमाम विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले फुले-अम्बेडकरी विचारधारा के छात्रों के लिए एक अवसर मुहैया करा दे. दलित दस्तक में बपसा के बारे में खबर प्रकाशित होने पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वहां बपसा की ईकाइ के गठन को लेकर दलित दस्तक के पास फोन भी आ चुका है. बपसा को इस दिशा में भी सोचना होगा.

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव से गायब रहा ”जय भीम-लाल सलाम” का नारा!

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जेएनयू छात्र संघ चुनाव के नतीजों पर सबकी निगाहें टिकी हुई है. शनिवार देर शाम तक नतीजों के आने की संभावना जताई जा रही है. इस बार के चुनाव में बाबासाहेब अम्बेडकर को फॉलो करने का दावा करने वाले लेफ्ट संगठनों का रुख बदला-बदला सा है. पिछले चुनावों में जहां जेएनयू में ‘जय भीम-लाल सलाम’ का नारा गूंजा करता था, इस बार के छात्र संघ चुनाव से यह नारा गायब है. अगर अम्बेडकर-फुले विचारधारा पर आधारित संगठन बपसा को छोड़ दें तो जय भीम का नारा तमाम मंचों से गायब है. इसी पर जेएनयू के छात्र अनिल कुमार का कहना है कि रोहित वेमुला के आत्महत्या से उपजे आक्रोश को कैश कराने के लिए और बाद में 9 फ़रवरी 2016 को फांसी की सजा के विरोध के नाम पर आतंकवादियो को महिमामंडित करने से उपजे हालात से बचने के लिए माओवादियों और सामंती मार्क्सवादियो ने “जय भीम: लाल सलाम” का नारा JNU में बुलंद किया था. लेकिन हकीकत में यह कितना चल पाया? अनिल कहते हैं, “मैं वामपंथ के गढ़ JNU में 7 सितंबर को यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (JNUSU) के Presidential Debate और 9 सितंबर को सुबह तक मतदान के समय मौजूद रहा, लेकिन एक बार भी “जय भीम: लाल सलाम” का नारा किसी ने नहीं लगाया. अनिल सवाल उठाते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? पूरा JNU और पूरा देश जानना चाहता है. बकौल अनिल, “मैं गंभीरता से सोच रहा हूं कि आखिर इस नारे को तब क्यों लगाया गया था और अब क्यों नहीं लगाया गया’?

बीबीएयू प्रकरणः निष्कासित छात्रों ने अनुसूचित जाति आयोग से लगाई गुहार

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बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ से आठ दलित छात्रों को निष्कासित कर दिया गया है. इन छात्रों को 8 सितंबर को निष्कासित किया गया. जबकि इन छात्रों ने अपने साथ विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर द्वारा किए गए उत्पीड़न और मारपीट में एक दिन पहले ही 7 सितंबर को न्याय की गुहार लगाई थी. अपने द्वारा हो रहे भेदभाव के खिलाफ छात्रों ने अनुसूचित जाति आयोग को पत्र लिखकर इंसाफ की मांग की है. छात्रों ने आयोग को पूरे घटनाक्रम से अवगत कराते हुए कहा है कि उन्हें इंसाफ दिलाया जाए. पीड़ित छात्रों ने अनुसूचित जाति आयोग के अलावा मानवाधिकार आयोग, यूजीसी चेयरमैन, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय सहित मानव संसाधन विकास मंत्रालय और पीएमओ को भी चिट्ठी लिखी है. साथ ही अपने द्वारा मारपीट किए जाने की पूरी जानकारी उत्तर प्रदेश के डीजीपी और लखनऊ के एसएसपी को भी दी है. सेवा में, श्रीमान चेयरमैन, अनुसूचित जाति आयोग, नई दिल्ली विषय: बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ में SC/ST छात्रों के साथ जातिगत उत्पीड़न एवं मारपीट के संबंध में महोदय, विनम्र निवेदन है कि हम सभी छात्र आज दिनांक 7 सितंबर 2016 को हॉस्टल से संबंधित समस्याओं के समाधान के लिए विश्वविद्यालय में कुलसचिव महोदय से मिलना चाह रहे थे लेकिन कुलसचिव महोदया दिन भर किसी मीटिंग में व्यस्त रही जिससे हम लोग उनसे मिल नही पाये. इससे पहले भी हम लोगों ने हॉस्टल की समस्याओं के लिए विश्वविद्यालय के DSW से शिकायत भी कर चुके थे, लेकिन DSW महोदय ने हमारी समस्या को नजर अंदाज कर दिया था. इस वजह से आज हम लोग अपनी समस्या के समाधान के लिए कुलसचिव महोदया से मिलने के लिए देर रात तक उनका इंतजार प्रशासनिक भवन के बाहर कर रहे थे. इतने में रात्रि 9 बजे के करीब प्रोफ. कमल जैसवाल ABVP के कार्यकर्ताओं के साथ हम लोगों के पास आये और हमारे खिलाफ जातिगत टिप्पणियां की, हम लोगों को मारा पीटा और हमारे कपड़े फाड़ दिए. विश्वविद्यालय में SC/ST छात्रों को चुन-चुनकर ABVP के कार्यकर्त्ताओं ने खदेड़कर मारा और जातिगत गालियां दी जिससे प्रोफ. कमल जैसवाल से कहासुनी और धक्का मुक्की हुई और ABVP के कार्यकर्ताओं ने हम लोगों के खिलाफ हमला बोल दिया. जिससे अधिकतर SC/ST के विद्यार्थी विश्वविद्यालय के बाहर अपनी जान बचाते हुये भागे. विश्वविद्यालय में और छात्रावास के अंदर ABVP के कार्यकर्ताओं ने कब्ज़ा कर रखा है जिसका नेतृत्व सत्यम गुप्ता, गौरव तिवारी अनुपम पाठक अन्य छात्र कर रहे थे. कमल जैसवाल और ABVP के कार्यकर्ताओं से हम सभी छात्र अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रहे है. इससे पहले भी प्रोफ. कमल जैसवाल ने हम लोगों के भविष्य को बर्बाद करने के लिए विश्वविद्यालय में चल रही अनियमितता के खिलाफ 3 मई 2016 को विश्वविद्यालय में शांतिपूर्वक धरना प्रदर्शन किया था. जिससे पूर्व प्रॉक्टर कमल जैसवाल ने हम लोगों के ऊपर पुलिस के माध्यम से लाठी चार्ज करवाया था और 19 SC/ST छात्रों के खिलाफ झूठी FIR भी दर्ज करवाई थी. इस वजह से यहाँ के छात्रों का भविष्य संकट में है. इसलिए महोदय से विनम्र निवेदन है कि उपरोक्त मामले की निष्पक्ष जांच करवाई जाए तथा दोषियों के खिलाफ उचित कार्यवाही की जाए. जिससे विश्वविद्यालय के अंदर SC/ST अपने आपको सुरक्षित महसूस कर सके. आपकी अति कृपा होगी । धन्यवाद प्रतिलिपि 1. चेयरमैन मानवाधिकार संगठन दिल्ली 2. चेयरमैन, UGC दिल्ली 3. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय दिल्ली 4. MHRD दिल्ली 5. PMO, भारत सरकार 6. राज्य अनुसूचित जाति आयोग लखनऊ 7. SSP लखनऊ 8. DGP उत्तर प्रदेश पूरा घटनाक्रम जानने के लिए पढ़ें- अम्बेडकर विवि, लखनऊ ने आठ दलित छात्रों को निष्कासित किया, छात्रों ने विवि पर लगाया गंभीर आरोप

अम्बेडकर विवि, लखनऊ ने आठ दलित छात्रों को निष्कासित किया, छात्रों ने विवि पर लगाया गंभीर आरोप

बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय में आठ छात्रों को निष्कासित कर दिया गया है. साथ ही आठों छात्रों को तत्काल हॉस्टल छोड़ने का भी फरमान सुना दिया है. विश्वविद्यालय का कहना है कि उसने इन छात्रों पर जनसंपर्क विभाग के डायरेक्टर प्रो. कमल जयसवाल पर हमला करने के आरोप में कार्रवाई की है, जबकि दलित छात्रों का आरोप है कि प्रोफेसर जयसवाल और उनके साथ के कुछ छात्रों ने उनके साथ मारपीट की और उन्हें जातिसूचक गालियां दी. अपने फैसले में विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस कार्रवाई की वजह बताते हुए कहा है कि प्रो. जयसवाल और डॉ. आर.के साहू (ए.आर. स्टोर एंड परचेज) पर 7 सितंबर को 9 बजे के करीब उन छात्रों ने हमला किया. इसके बाद गुरुवार 8 सितंबर को छात्रों पर कार्रवाई का आदेश जारी कर दिया गया. दूसरी ओर निष्कासित छात्र इस फैसले को जातिगत भेदभाव बता रहे हैं, उनका कहना है कि प्रो. जयसवाल शुरू से ही दलित छात्रों को पसंद नहीं करते हैं. निष्कासित छात्रों का कहना है कि वे 13 सितंबर को दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में विश्वविद्यालय के इस भेदभाव पूर्ण फैसले के खिलाफ शिकाय करेंगे और विरोध प्रदर्शन करेंगे. निष्कासित छात्रों ने अपने ऊपर कार्रवाई के एक दिन पहले ही सात सितंबर को विश्वविद्यालय प्रशासन पर गंभीर आरोप लगाया था. साथ ही अनुसूचित जाति आयोग सहित संबंधित मंत्रालय और विभागों से भी न्याय की गुहार लगाई थी. विश्वविद्यालय की इस कार्रवाई से छात्रों में रोष है और वह सकते में है. निष्कासित किए गए छात्रों के नाम (1) श्रेयात बौद्ध (एम.ए इतिहास) (2) संदौप गौतम (बी.एड) (3) जय सिंह (बी.एड) (4) रमेन्द्र नरेश (बी.एड) (5) अजय कुमार (पी.एच.डी स्कॉलर, केमेस्ट्री) (6) संदीप शास्त्री (एम.ए, इतिहास) (7) अश्विनी रंजन (फोरेंसिक साइंस) (8) सुमित कुमार (फोरेंसिक साइंस) संबंधित खबर पढ़िए- बीबीयूएः ABVP ने की दलित छात्रों से मारपीट, प्रोफेसर ने चलवाई लाठियां

बीबीयूएः ABVP ने की दलित छात्रों से मारपीट, प्रोफेसर ने चलवाई लाठियां

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लखनऊ। बाबासाहेब भीवराम अम्बेडकर विश्वविद्यालय में आरएसएस और एबीवीपी पर दलित छात्रों के साथ मारपीट का आरोप सामने आया है. यहां के छात्र श्रेयस बौद्ध ने आरोप लगाया है कि पुस्तकालय में आरएसएस और एबीवीपी के छात्रों ने दलित छात्रों के साथ-साथ दलित शिक्षकों से भी अभद्रता की. उनका आरोप है कि एबीवीपी के छात्रों के साथ प्रोफेसर कमल जयसवाल ने भी दलित छात्रों पर जातिगत टिप्पणियां की और उनसे मारपीट की और उनके कपड़े फाड़ दिए. इस घटना के बाद दलित छात्र डरे हुए हैं. उनका कहना है कि वो प्रोफेसर कमल जयसवाल और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं से अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रहे है. उनका आरोप है कि प्रोफेसर कमल जयसवाल शुरू से दलित छात्रों के भविष्य को बर्बाद करने की धमकी दे रहे थे. अपने साथ भेदभाव और विश्वविद्यालय में चल रही अनियमितता के खिलाफ दलित छात्र जब 3 मई 2016 को विश्वविद्यालय परिसर में शांतिपूर्वक धरना प्रदर्शन कर रहे थे तब भी प्रोफेसर कमल जयसवाल ने दलित छात्रों के ऊपर पुलिस के माध्यम से लाठी चार्ज करवाया था. और 19 एससी/एसटी छात्रों के खिलाफ झूठी एफआईआर भी दर्ज करवाई. इस वजह से यहां के छात्रों का भविष्य संकट में है. छात्रों ने अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार की शिकायत राज्य अनुसूचित जाति आयोग लखनऊ, चेयरमैन मानवाधिकार संगठन दिल्ली, यूजीसी चेयरमैन दिल्ली, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, एमएचआरडी, पीएमओ भारत सरकार, एसएसपी लखनऊ और डीजीपी उत्तर प्रदेश को की है.

अब दलित भी सवर्ण को पीटने की हिम्मत रखता है!

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आज कुछ अजीब सा हुआ. कुछ अजीब सा शब्द सुना. जिसने वह एक लाइन बोली थी. उसमे एक शब्द दलित था. उसकी जुबान से जैसे ही दलित शब्द निकला मेरा कान खड़ा हो गया और पूरी लाइन को बड़े गौर से सुना. अजीब इसलिए बोल रहा हूं कि यह लाइन ही कुछ ऐसी थी कि एक बारगी लगा कि बाबा साहब डॉ. भीम राव अम्बेडकर का सपना पूरा होने के करीब है. अगर बाबा साहब की आत्मा ने उस व्यक्ति की लाइन सुनी होगी, तो वास्तव में तृप्त हो गई होगी और ऊपर वाले को धन्यवाद दिया होगा कि मेरा बहुजन समाज अब अपने पैरो पर खड़ा हो गया है. बल्कि खड़ा होकर चलने भी लगा है. मेरे समाज की गति भले ही धीमी है, लेकिन वह लगातार आगे बढ़ता जा रहा है. अब आप भी कन्फ्यूजन में होंगे कि आखिर ऐसा क्या हो गया, जो शायद बड़े बदलाव की दस्तक दे रहा है. दरअसल, मैं आज ऑफिस में बैठा हुआ था. करीब 3 बजे सूचना आई कि कुछ बाइक सवार हमलावरों ने गोली मार कर चाचा भतीजे को घायल कर दिया है. चाचा को सीने में गोली लगी है और उसकी हालात गंभीर है. मैंने अपने बीट रिपोर्टर से कुछ जानकारी ली और न्यूज़ आने का इंतज़ार करने लगा. शाम करीब 6 बजे बीट रिपोर्टर ने न्यूज़ भेजी. मेरे बगल में बैठे साथी ने न्यूज़ की हेडिंग पढ़ी. न्यूज़ की हेडिंग थी ””””दलित भाइयों ने सवर्ण चाचा भतीजे को गोली मारी, चाचा की हालत गंभीर””””. हेडिंग पढ़ कर उन्हें बड़ा बुरा लगा. उन्होंने जोर से हेडिंग पढ़ा कि दलित भाइयों ने सवर्ण चाचा भतीजे को गोली मारी, चाचा की हालत गंभीर””””. इस लाइन को सुनते ही ब्यूरो ने भी इस न्यूज़ को देखनी शुरू की. उन्होंने कहा, मेरे यहां संपादकीय भी छपा था कि दलित क्यों पिटते हैं. तो मेरे बगल वाले साथी ने कहा, यहां दलित भाइयो ने गोली मारी है. आश्चर्य वाली बात ये है. दलितों की पिटाई तो आम बात है और सदियो से होता आ रहा है, लेकिन यहां तो दलितों ने ही पीटा है. तो ब्यूरो ने कहा, हां, कुछ दिन पहले एक और खबर छपी थी कि दलितों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा. दलितों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा शब्द जैसे ही सुना मैं तो तेज से हंस पड़ा. वैसे भी मेरी आवाज थोड़ी तेज है. मेरी दूसरी तरफ बैठे दूसरे साथी ने (जो जाति से ठाकुर हैं) कहा कि देखो आज तुम्हे यह सुनकर कितना खुशी मिली. दिल खोल कर हंस रहे हो कि दलित ने सवर्ण की पिटाई की. मैंने कहा, नहीं भाई साहब. मेरी हंसने की वजह ये नहीं है कि दलित ने सवर्ण की पिटाई की. बल्कि मेरे हंसने का कारण उस बीट रिपोर्टर की सोच है. वह भी सवर्ण है, उसके दिमाग में यह बात आती होगी कि जब दलित मार खाते हैं तो चिल्लाते हैं और अखबार में छपता है कि दलित को मार दिया. इस दलित शब्द का पूरा फायदा उठाते हैं और हमारे खिलाफ एससी/एसटी का मुकदमा भी ठोंक देते हैं. तो यह भी बात लोगों को पता चलनी चाहिए कि अब मार खाने वाला दलित ने आज एक सवर्ण के घर में घुस कर गोली मारी है. अब इस दलित को कानून और ये नेता लोग क्या सजा देंगे. क्या ये नेता लोग उस पीड़ित सवर्ण के घर आकर सांत्वना देंगे या आर्थिक मदद की घोषणा करेंगे या फिर धरना देंगे. इस तरह के ख्यालात आने पर ही उसने ऐसी हेडिंग लिखी है. बहरहाल, मैंने उस न्यूज को दुबारा लिखकर भेज दिया. इस खबर में कहीं भी मैंने दलित शब्द का उल्लेख नहीं किया, लेकिन हर लाइन में एक बार यह लाइन जरूर आ जा रही थी की दलित भाइयों ने सवर्ण चाचा भतीजे को गोली मारी, चाचा की हालत गंभीर””””. यह लाइन और दलित शब्द ने आत्मिक सुख दिया. ऐसा एहसास हुआ कि मेरे साथ बैठे सभी सवर्ण साथियों को यह जानकर दुःख हो रहा है कि अब हमारे ऐसे दिन आ गए कि मेरे ही पैरों की जूती मेरे सिर पर लग रही है. इन एहसासो के साथ ही अंतर्मन में लज्जित हो रहे होंगे और मुझे कोस रहे होंगे. ऐसा लगा कि वास्तव में बहुजन समाज आगे बढ़ रहा है. तरक्की कर रहा है. जो सपने बाबा साहब ने देखे और उसे पाने के लिए संविधान के जरिये रास्ते बताये, उस पर हमारा बहुजन समाज चल पड़ा है. मान्यवर कांशीराम जी साहब ने देश भर के बहुजन समाज में जो राजनितिक चेतना जगाई, उसे अब समझने लगा है. हमारा दलित बहुजन समाज जान चुका है कि हम ही यहां के असली राजा हैं और आज हमारी ही बिल्ली, हमें ही म्याऊं बोल रही है. यह समझ बसपा सुप्रीमो मायावती जी के त्याग ने तेजी से विकसित किया है. यही वजह है कि जहां देश भर से दबा कुचला बहुजन समाज को रोज सवर्णों की मार खाने की खबर आती है तो देश के किसी कोने से 10 में से एक खबर यह भी आती है कि दलितों ने सवर्णों की पिटाई की. जिनमें ज्यादार खबरें सवर्ण पत्रकार और लोग छुपा लेते हैं ताकि दलितों को पता न चले कि ठाकुर साहब या पंडित जी की पिटाई दलित ने की है. यदि यह बात बहुजन समाज को पता चलती है, तो वह हमारा मजाक उड़ाएगा. सामने उसकी हंसने की हिम्मत तो नहीं है, लेकिन अकेले में तो जरूर हंसता होगा. अगर बात सिर्फ शर्मिंदगी तक की सिमट जाए अच्छी बात होती, लेकिन इसकी जानकारी होने पर बहुजनो की हिम्मत बढ़ेगी. उनकी एकता बढ़ेगी. सवर्णों के इतना कुछ छुपाने के बावजूद बहुजन समाज जाग्रत हो रहा है, तो यह हमारे महापुरुषों और मायावती जी जैसे दलित नेताओं की बदौलत. यह बदलाव बहुजन समाज को सुखद सन्देश दे रहा है कि आने वाले समय में बहुजन समाज ही सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के सपने को साकार कर सकता है, क्योंकि बहुजन समाज ही महात्मा गौतम बुद्ध के सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के बौद्ध धर्म में विश्वास रखता है. यही एक मार्ग है, जिसपर चलकर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है.

धनकोट में मान्यवर कांशीराम और तथागत बुद्ध की प्रतिमा तोड़ी, बवाल

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गुड़गांव। गुड़गांव से सटे गांव धनकोट में आखिरकार जाट समुदाय के लोगों ने मान्यवर कांशीराम और तथागत बुद्ध की प्रतिमा को तोड़ ही दिया. गांव के सरपंच ने बिल्डरों को जमीन बेचने के चक्कर में चोरी-छुपे रात को कुछ लोगों के साथ प्रतिमा को तुड़वा दिया. अगले दिन सुबह जब एक बौद्ध अनुयायी की नजर टूटी प्रतिमा पर पड़ तो उसने अन्य लोगों को भी बुलाया. गांव दलितों में इस घटना का रोष है. दलितों ने मान्यवर कांशीराम और तथागत की प्रतिमा तोड़ने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. दलित ग्रामीणों ने घटना से आहत होकर रोड जाम किया. ग्रामीणों ने गांव के सरपंच को हटाने की मांग की. इसके साथ उन्होंने सरपंच के इस कृत्य के लिए गिरफ्तारी की भी मांग की. घटना स्थल पर एसडीएम, एसएचओ, एसएसपी भी आए. ग्रामीणों ने उन्हें शिकायत दर्ज करवाई. एसडीमएम ने उन्हें आश्वासन दिया है कि वह इस घटना को अंजाम देने वाले को गिरफ्तार करेंगे और मुर्ति की पुर्नस्थापना भी करवाएंगे. दलित ग्रामीणों का कहना है कि हमने 2012 में हडवारी (हड्डी फेंकने वाली जगह) की जगह को साफ किया और पार्क बनाया. सरपंच की सहमति से पार्क में तथागत बुद्ध और मान्यवर कांशीराम की प्रतिमा स्थापित की. प्रतिमा स्थापित करने के लिए पूरे गांव के बुद्ध अनुयायी और दलित समाज के लोगों चंदा दिया था. प्रतिमा स्थापित होने के बाद यहां हर रविवार को ग्रामीण बुद्ध वंदना करने आते हैं. ग्रामीणों का आरोप है कि 6 महीने पहले बने जाट सरपंच ने जातिगत भेदभाव कर इन प्रतिमा को गिरवाया है. ग्रामीणों ने आरोप लगाया है कि सरपंच इस जमीन को बिल्डरों को बेचना चाहता है. क्योंकि जमीन के चारो ओर बड़े-बड़े मॉल खुल रहे हैं. गुड़गांव से सटे होने के कारण इस जमीन की कीमत भी बहुत है. एक ग्रामीण ने दलित दस्तक को बताया कि सरपंच ने उन मूर्तियों को नहीं तोड़ा जो पंचायत की जमीन पर बनी हैं. उन्होंने आरोप लगाया की जाटों ने सरकारी स्कूल की जगह पर कब्जा कर रखा है लेकिन सरपंच उस पर कार्रवाई नहीं कर रहा है क्योंकि वह उन्हीं के समुदाय है. जबकि हडवारी को हमने पवित्र जगह बनाई उस पर आपत्ति जता रहा है और प्रतिमा तुड़वा रहा है. आम्बेडकर सभा के अध्यक्ष मोहित सांभरिया ने जानकारी दी कि धनकोट में साहब कांशीराम और तथागत बुद्ध की प्रतिमाओं को तोड़ा गया है. मोहित ने बताया की ऐसी घटनाएं अब बर्दाश्त से बहार हो चुकी हैं. पहले आंबेडकर भवन में लगी साहब कांशीराम की प्रतिमा को तोड़ा गया और अब धनकोट में प्रतिमा को तोड़ा गया. मोहित ने बताया कि घटना पर हम चुप नहीं बैठेंगे और हरियाणा की मनुवादी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे. उन्होंने आरोप लगाया की सरकार ही ऐसी घटनाओं को बढ़ावा दे रही है. रविवार 4 सितंबर को भारी तादात बहुजन समाज सड़कों पर उतरेगा. फिलहाल पुलिस मौके पर पहुंच कर छानबीन में जुटी है. स्थिति को संभालने के लिए धनकोट गांव में भारी पुलिस बल भेजा गया है.

देखी हैं आपने बुद्ध की सोने-चांदी की किताबें?

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ये ख़ज़ाना हीरे जवाहरात का नहीं बल्कि किताबों का ख़ज़ाना है. ये वो किताबें हैं जो राहुल सांकृत्यायन ख़च्चर पर लादकर तिब्बत से बिहार लाए थे. 10 हज़ार से ज़्यादा इन ग्रंथो का डिजिटाइजेशन हो चुका है और जल्द ही इसे वेबसाइट के ज़रिए इसके ग्लोबल हो जाने की उम्मीद है.1929 से 1938 के बीच राहुल सांकृत्यायन चार बार तिब्बत गए थे. इन यात्राओं के दौरान वो बुद्ध के मूल वचन, तंत्र साधना, जीवन के रहस्य आदि से जुड़े कई अमूल्य ग्रंथों से परिचत हुए. इनमें कई ग्रंथों को वह बेहद कठिन परिस्थितियों में भारत लेकर आए. बिहार रिसर्च सोसाइटी में मौजूद इनमें से कई किताबों को स्ट्रांग रूम में रखा गया है. दरअसल इनमें से कई किताबें सोने और चांदी के चूर्ण से लिखी हुई है. स्वर्णप्रभा सूत्र और शतसाहस्रिका प्रज्ञा पारमिता ऐसे ही ग्रंथ है. स्वर्णप्रभा सूत्र पूरा सोने और चांदी से लिखा हुआ है. वही शतसाहस्रिका प्रज्ञा पारमिता का पहला पन्ना सोने की स्याही से लिखा हुआ है. इस ग्रंथ में बुद्ध के मूल वचन हैं. ग्रंथ में पहले पन्ने पर ही बुद्ध का चित्र है. ये भी सोने के पानी से बनाया गया है. 700 साल पुराना ये ग्रंथ तिब्बती में लिखा है. राहुल सांकृत्यायन अपने साथ कई किताबें जेलोग्राफ़ करवा के भी लाए. जेलोग्राफ़ यानी वो विधि जिसमें तिब्बत स्थित मंदिर मठों की दीवारों में लिखे हुए ग्रन्थों को हाथ से बने काग़ज़ पर छापा गया. तंत्र साधना से जुड़े कई ग्रंथों और चित्रों को राहुल जी जेलोग्राफ के ज़रिए बिहार लाए. बौद्ध साहित्य में 84 सिद्धाचार्यों का उल्लेख है. ये सिद्धाचार्य बौद्ध धर्म का प्रचार करने तिब्बत गए थे. इन 84 सिद्धाचार्यों की तस्वीर भी जेलोग्राफ़ करके बिहार लाई गई. इस तस्वीर में सबसे ऊपर बुध्द साधना करते दिखते है. एक अन्य चित्र तन्त्र साधना का है और चित्र के नीचे कुछ लिखा भी हुआ है. लेकिन क्या लिखा है, इसके बारे में जानकारी नहीं मिलती. दरअसल इस ख़ज़ाने के बारे में कम जानकारी होने की वजह ये है कि ज़्यादातर ग्रन्थ तिब्बती भाषा में है. पटना संग्रहालय के निदेशक जे पी एन सिंह कहते है, “हमारे लिए अब तक ये अनजान दुनिया है. एक बार इनका तिब्बती से इसका हिन्दी या किसी अन्य भाषा में अनुवाद हो जाए, तब ही ज़्यादा जानकारी हमें मिल सकेगी.” सारनाथ केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्दालय के साथ हिन्दी अनुवाद के लिए बातचीत हो चुकी है. वहीं वेबसाइट पर इन किताबों के आने के बाद दुनिया भर के तिब्बती भाषा के जानकार इसका अनुवाद कर सकेंगें. 1915 में बनी बिहार रिसर्च सोसाइटी में राहुल सांकृत्यायन ख़ुद भी अध्ययन करते थे. उनके नाम पर बने राहुल कक्ष में ही उनकी लाई किताबों का संग्रह किया गया है. इसमें तंज़ूर भी है. तंज़ूर यानी वो ग्रंथ जिसमें भारतीय विद्धानों ने बुध्द के मूल वचनों की व्याख्या तिब्बती भाषा में की है. रिसर्च सोसाइटी में 3500 तंज़ूर ग्रंथ है. इसके अलावा तिब्बती विधान बुस्तोन का काम भी यहां मौजूद है. बुस्तोन ने 107 ग्रन्थों की सूची बनाई थी. साथ ही राहुल सांकृत्यायन संस्कृत ग्रंथों की तस्वीरे जो खींचकर लाए जिसको 1998 में नारीत्सन इंस्टीट्यूट फ़ॉर बुद्धिस्ट स्टडीज जापान ने प्रकाशित किया था. दिलचस्प है कि 1938 तक राहुल सांकृत्यायन ये ख़ज़ाना ले आए थे लेकिन आज तक इनके बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है. हाल ही में सारनाथ केन्द्रीय तिब्बती संस्थान से 5 विशेषज्ञ रिसर्च सोसाइटी आए तो उन्होंने पहली बार कुछ किताबों का कैटलॉग तैयार किया. सोसाइटी में अभी भी 600 ऐसे बंडल हैं जिनके बारे में ये मालूम करना बाक़ी है कि आख़िर वो किस विधा से जुड़ी किताबें हैं.

नागपुरः बौद्ध स्थल के विकास के लिए सर्किट हाउस को मिलेंगे 100 करोड़

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नागपुर। दीक्षा भूमि, ड्रेगन पैलेस और चिंचोली पर्यटन स्थल के विकास के लिए नागपुर बुद्धिस्ट सर्किट हाउस को 100 करोड़ रूपए दिए जाएंगे. इसकी घोषणा केंद्रीय राज्य पर्यटन मंत्री डॉ. महेश शर्मा ने की. यह फंड केंद्र सरकार की स्वदेश दर्शन योजना के तहत दिया जाएगा. डॉ. महेश शर्मा ने कहा कि भारत बुद्ध की धरती है लेकिन जापान और श्रीलंका जैसे देश अपने देशों में बुद्ध पर्यटन स्थल पर अधिक खर्च करते हैं. भारत सरकार ने नागपुर बुद्धा सर्किट हाउस के विकास के लिए 100 करोड़ रूपए की स्वीकृति दे दी है. बाबा साहेब के लाखों अनुयायी ने नागपुर की दीक्षाभूमि में ही बौद्ध धर्म में धर्मातंरण किया था. ड्रैगन पैलेस और चिंचोली बाबा साहेब अम्बेडकर का संग्रहालय है. बुद्धिस्ट सर्किट के साथ यह बैठक परिवहन भवन में हुई. केंद्रीय पर्यटन राज्यमंत्री डॉ. महेश शर्मा, महाराष्ट्र टूरिज्म मंत्री जयकुमार रावल आदि नेता मौजूद थे.

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के दौर में डायन प्रथा !

देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान चलाया जा रहा है, ऐसे अभियानों का समाज पर प्रभाव भी पड़ता है. परिणामस्वरूप समाज में बेटियों के प्रति नजरिया बदल रहा है. आज देश में ऐसे सैकड़ों स्कूल मिल जाएंगे, जहां लड़कों की अपेक्षा लड़कियां अधिक पढ़ रही हैं. यानि कि बेटियां बचने के साथ-साथ पढ़ने भी लगी हैं. बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘अगर किसी समाज की तरक्की को देखना हो तो, उस समाज की महिलाओं और बहन-बेटियों की सामाजिक स्थिति को देखना चाहिए. क्योंकि महिलाओं के बिना परिवार और परिवार के बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती.‘‘ फिर भी यह सच है कि हम आजादी का कितना भी जश्न क्यों न मनाएं, महिला सशक्तिकरण के चाहें लाख दावे क्यों न करें, पर दिन-ब-दिन महिला उत्पीड़न, खास तौर पर डायन प्रथा के नाम पर दलित एवं आदिवासी महिलाओं की बढ़ती हत्याओं को देखकर लगता है कि हमारे आधुनिक समाज के एक कोने में कहीं पाशुविक प्रवृति का एक ऐसा वर्ग भी मौजूद है, जो महिला सशक्तिकरण के पक्ष खड़ा होने के बजाए मनुवादी व्यवस्था के पक्ष में खड़ा नजर हा रहा है. यही वर्ग महिलाओं उक्त वर्ग की महिलाओं के लिए जानलेवा तक साबित हो रहा है. जमशेदपुर की एक घटना ने सोचने को मजबूर कर दिया कि जब भारत “आजादी 70 साल, जरा याद करो कुर्बानी” थीम के साथ आजादी दिवस मनाने के जश्न में डूबा है, इसी बीच तंत्र-मंत्र या डायन प्रथा के नाम पर बर्बरता से महिलाओं की जानें क्यों ली जा रही हैं. रूढ़िवादी परंपराओं और अंधविश्वास के नाम पर दलित एवं आदिवासी महिलाओं को क्यों कुर्बान किया जा रहा है. खबर है कि जमशेदपुर में डायन या चुड़ैल आदि होने के आरोप में एक महिला को जान से मार दिया गया. कई दिनों बाद महिला की लाश पांच टुकड़ों में पुलिस ने बरामद की. खबर है कि गांव वालों ने पुलिस टीम की जांच प्रक्रिया में बाधा डालने के प्रयास भी किए. झारखण्ड के तीन जिलों में ही केवल आठ महीनों में डायन या चुड़ैल आदि के नाम पर करीब 30 महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में प्रतिमाह डायन प्रथा के नाम पर महिला उत्पीड़न के सैकड़ों मामले दर्ज होते हैं. प्रत्येक दिन कहीं न कहीं डायन समझकर महिलाओं को मार दिया जाता है. अधिकांश मामले आादिवासी बाहुल्य इलाकों में घटित होते हैं. उदाहरण के लिए अकेले झारखण्ड में ही वर्ष 2013 में करीब 50, वर्ष 2014 में 46 और वर्ष 2015 में करीब तीन दर्जन महिलाओं को डायन के नाम पर मार दिया गया. आदिवासी बाहुल्य राज्यों छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक और उड़ीसा में सामाजिक विकास के विज्ञापन समय-समय पर विभिन्न समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलते रहते हैं. सवाल है कि जहां डायन प्रथा या चुड़ैल के नाम पर महिलाओं की हत्याओं का सिलसिला आज भी जारी हो, उन राज्यों में सामाजिक विकास के दावे कैसे किए जा सकते हैं. हमारे पुरूष प्रधान समाज में हजारों पुरूष अंधविश्वास को बढ़ावा देने के लिए तंत्र-मंत्र या विभिन्न कर्मकाण्डों को अंजाम देने के लिए विभिन्न समाचार पत्रों में विज्ञापन तक देते हैं. जिनसे प्रभावित होकर कभी-कभी बड़ी घटनाएं घटित हो जाती हैं, फिर भी समाज का नजरिया तथाकथित मर्द तांत्रिकों के प्रति वैसा नहीं होता, जैसा डायन समझी जाने वाली महिलाओं के प्रति होता है. बल्कि ऐसे तमाम तांत्रिकों को सम्मान के साथ तांत्रिक बाबा कहा जाता है. यह समाज का लिंगभेदी नजरिया नहीं तो और क्या है. देश के प्रत्येक नागरिक का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वह समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पूर्ण व्यवहार करते हुए उसका प्रचार-प्रसार भी करें. ताकि किसी महिला को डायन के नाम पर मारा न जा सके. इस संवैधानिक कर्तव्य को पूरा करने की जिम्मेदारी देश का मीडिया भली-भांति निभा सकता है. लेकिन पिछले करीब दो वर्षों से टी वी चैनलों पर भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र को बढ़ावा देने वाले धारावाहिकों की बाढ़ सी आ गयी है. और हमारा समाज और सेंसर बोर्ड मूक दर्शक बना हुआ है. यही कारण है कि अंधविश्वास और ढ़ोंग की इस बाढ़ में अंधविश्वास के खिलाफ अलख जगाने वाले समाज सुधारकों की जिन्दगियां बही जा रही हैं. मसलन महाराष्ट्र में वर्षों तक अंधविश्वास के खिलाफ आन्दोलन चलाने वाले अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की अंधविश्वास के पोषकों ने हत्या कर दी. समाज सुधार की खातिर शहीद होने वाले दाभोलकर सरकार से अंधविश्वास के खिलाफ कानून बनाने की मांग कर रहे थे. पर ताज्जुब देखिए कि उनकी हत्या के चंद दिनों बाद ही महाराष्ट्र में वही कानून बना दिया गया.   लेकिन दाभोलकर के हत्यारों को सरकार अभी तक सजा नहीं दिला पायी है. जहां तक डायन के नाम पर महिलाओं की हत्याओं की बात है, तो आखिर इस प्रथा के बहाने अधिकांशतः आदिवासी, दलित एवं अति पिछड़ी जातियों की महिलाओं को ही शिकार क्यों बनाया जाता है. यह कैसी विडम्बना है कि एक तरफ हिन्दुओं से अधिक बच्चे पैदा करने की अपीलें की जा रही हैं, तो दूसरी तरफ उक्त वर्गों की जननियों यानि कि माताओं को डायन के नाम पर मारा जा रहा है. समाज में डायन प्रथा किस कदर गहरी पैठ बनाए हुए है. वर्ष 2014 में विभिन्न राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अनेकों पदक जीतने वाली असम के कार्बी अलंगा जिले में चेरेकुली गांव की रहने वाली एथलीट देबजानी को गांव वालों ने डायन होने के आरोप में बांधकर बड़े दर्दनाक तरीके से पीटा था. दूसरी तरफ लोगों को याद होगा कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एवं लाखों भारतीय युवाओं के रॉल मॉडल माने जाने वाले क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी ने ईष्ट देवी-देवता को खुश करने के लिए झारखण्ड में पशु बलि चढ़ाई थी. आंकड़े बताते हैं कि झारखण्ड में डायन के नाम पर सबसे अधिक महिलाओं की हत्याएं होती हैं. अंधविश्वास खास तौर पर डायन प्रथा के मामलों में समय-समय पर माननीय न्यायालय विभिन्न राज्यों को फटकार लगाते रहे हैं. परिणामस्वरूप कई कानून भी बने हैं. डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं को मौत के घाट उतारने के आरोपियों को दोषी पाए जाने पर सात साल तक की सजा का प्रावधान है. अगर कुछ क्षेत्रों को अपवाद के रूप में मान लिया जाए तो, पूरे देश में पंचायती राज चल रहा है. सरकारी पैसे से गांवों में नाली-खड़ंजे, सड़कें यहां तक कि मनरेगा जैसी योजनाएं भी चल रही हैं. हमने पंचायती राज के जरिए गांवों को पैसा देकर उनके आर्थिक विकास का बंदोबस्त तो कर दिया है. पर पंचायतों के जरिए सामाजिक विकास को हम सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं. यही वजह है कि पंचायती राज के नुर्माइंदों यानि कि पंचों की उपस्थिति मे गांव वालों द्वारा किसी भी महिला को डायन के नाम पर मार दिया जाता है. क्योंकि हमने पंचायती राज में ऐसी सामाजिक बुराईयों को दूर करने की कोई सुनिश्चितता तय नहीं की है. यह जरूरी है कि डायन प्रथा जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिए भी पंचायतों की भूमिका तय करनी चाहिए. दलितों, आदिवासियों एवं अति पिछड़ी जातियों में शिक्षित वर्ग को चाहिए कि वह समाज में डॉ. अम्बेडकर एवं डॉ. दाभोलकर की तरह अंधविश्वास के खिलाफ जन आन्दोलन चलाकर अपने समाज को इस जानलेवा परंपरा से बजाए. सुनीता सोनिक लेखक हैं.

हेमंत बौद्ध को मिला टी-सीरिज का साथ

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”रोहित तेरी शहादत से क्रांति का आगाज हुआ”ये कोई नारा नहीं है, यह उस गीत की लाइन है जिसने बहुजन समाज में चेतना जगा दी है. बहुजन समाज से आने वाले हेमंत कुमार बौद्ध के साथ तरन्नुम बौद्ध ने इस गाने को गाया है. हेमंत कुमार बौद्ध द्वारा गाए गए इस गाने को गुलशन कुमार की म्युजिक कंपनी T-SERIES  ने रिलिज किया है. टी-सीरिज के जरिए अम्बेडकरी आंदोलन का म्यूजिक एल्बम रिलिज होना सिर्फ हेमंत ही नहीं बल्कि पूरे बहुजन समाज के लिए एक सफलता है. टी-सीरिज ने यह गाना अपने यू-ट्यूब चैनल पर चला दिया है और पहले ही दिन इस गाने को दो हजार से अधिक दर्शकों ने देखा और सुना. हेमंत कुमार बौद्ध की यह अब तक की सबसे बड़ी सफलता है. कहा जा सकता है कि इस म्यूजिक एल्बम से हेमंत बौद्ध और तरन्नुम बौद्ध के रूप में बहुजन समाज को अपने दो और गीतकार और गायक मिल गए हैं. इससे पहले 24 मई 2013 में हेमंत बौद्ध ने ‘मिलकर करें वंदना सम्यकसम्बुद्ध की’ के नाम से म्यूजिक एल्बम लांच किया था, जिसके सभी गाने बुद्ध की शिक्षा और उनके धम्म पर आधारित थी. हेमंत के इस एल्बम को भी लोगों ने खूब सराहा. यहां तक कि विदेशों में भी इसकी सीडी भेजी गई जिससे विदेशों में भी इस सीडी के गीतों को खूब सराहना मिली. इस म्यूजिक एल्बम के गीतकार आचार्य जुगल किशोर बौद्ध हैं. पहले एल्बम के लगभग डेढ़ वर्ष बाद हेमंत का अगला एल्बम 1 नवंबर, 2015 ‘जय हो भीम महान’ का लोकार्पण दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में किया गया. इस एल्बम में उन्होंने अपनी आवाज देने के साथ-साथ इसका संगीत निर्देशन भी किया, जिसने देश-विदेशों के अम्बेडकरी जगत के लोगों की खूब सराहना बटोरी. हाल ही में मुंबई के सम्मुखानन्द ऑडिटोरियम में आयोजित कार्यक्रम में हेमंत बौद्ध के नाम एक और सफलता जुड़ गई, जब बॉलीवुड मशहूर अभिनेत्री और पाकिस्तानी गायिका सलमा आगा ने उन्हें ‘भारतरत्न डॉ. आम्बेडकर अवार्ड’ से सम्मानित किया. यह आयोजन मुंबई के मशहूर फिल्म निर्देशक कैलाश मासूम के द्वारा किया गया. इस खास कार्यक्रम में पद्मभूषण उदित नारायण, सलमा आगा, अदनान सामी, शब्बीर कुमार, जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ हेमंत ने अम्बेडकरी गाने भी प्रस्तुत किए. हेमंत कहते हैं कि उनकी सफलता के पीछे बौद्ध विचारक शांतिस्वरूप बौद्ध और यूथ फॉर बुद्धिस्ट इण्डिया के अध्यक्ष हरि भारती का अहम योगदान रहा. हेमंत कुमार की एल्बम को अम्बेडकरी कार्यक्रम में सुना जाने लगा. इसके अतिरिक्त हेमंत भारत के लगभग सभी राज्यों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अम्बेडकर-बौद्ध पर आधारित गानों पर प्रस्तुतियां देते हैं. हेमंत ने जनवरी 2016 में प्रसिद्ध गीतकार एवं संगीतकार आयुष्मान राजेश ढावरे के साथ मुंबई में दो कार्यक्रम में आम्बेडकर-बौद्ध गाने गाए. राजेश ढावरे ””बुद्ध ही बुद्ध”” एलबम के निर्माता और गायक हैं. हेमंत का शुरू से आम्बेडकरी मिशन के प्रति लगाव था क्योंकि उनके पिता लक्ष्मण सिंह आम्बेडकरी मिशन से जुड़े हुए थे और मान्यवर कांशीराम के साथ काम किया था. बसपा का कैडर होने के नाते उनके पिता प्रचार-प्रसार में लगे रहते थे. हेमंत के पिता ने शुरू से ही बाबासाहेब के तीन मूल मंत्र-शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो का मर्म समझाते हुए बाबासाहेब की और उनके तीन मूल-मंत्रों वाला 3 बच्चों का कलैण्डर घर में लगा दिया था ताकि हेमंत और उसका छोटा भाई रोज उस पर ध्यान दें और उस पर अमल करें.

पंजाबः कॉलेज में एससी/एसटी छात्रों के लिए अलग बायोमेट्रिक उपस्थिति, विरोध

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लुधियाना। पंजाब के जगराओं में लाजपत राय डीएवी कॉलेज के एससी/एसटी छात्र कॉलेज प्रशासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. यह प्रदर्शन दलित छात्रों की बायोमेट्रिक अटेंडेंस व्यस्था के विरोध में किया जा रहा है. दलित छात्रों ने एससी/एसटी एक्ट के तहत प्रिंसिपल के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की मांग की है. एससी/एसटी छात्रों ने आरोप लगाया है कि प्रशासन की इस हरकत ने हमें नीचा दिखाया है. हमसे भेदभाव किया है. सोमवार को कॉलेज प्रिंसीपल डॉ. करन शर्मा को सस्पेंड कर दिया गया है. गौरतलब है कि कॉलेज प्रशासन ने दलित छात्रों के लिए बायोमेट्रिक अटेंडेंस की व्यवस्था कर दी है. बायोमेट्रिक उपस्थिति व्यवस्था का प्रयोग सिर्फ एससी/एसटी छात्रों के लिए ही किया गया जिससे की उनकी उपस्थिति के आधार पर छात्रवृत्ति दी जा सके. एससी/एसटी छात्र इसका विरोध कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि बायोमेट्रिक उपस्थिति व्यवस्था के आधार पर छात्रवृत्ति देने का नियम बिल्कुल गलत है. बायोमेट्रिक उपस्थिति व्यवस्था करनी है तो सभी तबको के छात्र के लिए की जाए. किसी छात्र विशेष के लिए नहीं.

बाबा साहेब की अंगुली का इशारा संसद की तरफ है

बाबा साहेब ने ”कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिये क्या किया’ में कहा है कि सत्ता ही जीवन शक्ति है. अतः उन्हें (दलितों को) शासक जमात बनाना है और सत्ता अपने हाथ में  लेनी है, वरना जो अधिकार मिले हैं, वे कागजी रह जायेंगे. चुनाव जीवन-मृत्यु का प्रश्न है. कांग्रेस दलितों पर होने वाले अन्याय व अत्याचारों को रोक नहीं सकती. आपकी उठी हुई अंगुली निरन्तर यही प्रेरणा देती है कि सत्ता के इस मंदिर (अंगुली का इशारा संसद की ओर है) पर कब्जा करो. एक सत्ताधारी व्यक्ति दूसरों के लिये बहुत कुछ कर सकता है. सत्ताधारी के पास असीमित अधिकार और देश के खजाने की चाभी होती है जिसे वह खर्च करने को स्वतन्त्र होता है. वह अपने विवेक से धन को जनता की खुशहाली के लिये खर्च कर सकता है, जनता के भले के लिये कानून बना सकता है और प्रशसन के जरिये कानून लागू करवा सकता है क्योंकि लोकतंत्र में सर्वोच्च शक्ति जनप्रतिनिधियों के पास निहित होती है. संविधान प्रदत्त आरक्षण के चलते सभी राजनैतिक पार्टियां अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों को आरक्षित सीटों पर टिकट देने हेतु विवश हैं. ये उम्मीदवार चाहे जाति के वोटों से जीतें चाहे पार्टी के बंधे हुए वोटों से, कार्य पार्टी के तयशुदा एजेंडे के हिसाब से ही करते हैं. फिर जाति अथवा वर्ग मायने नहीं रखता है. ये सम्बन्धित पार्टियों के अपने-अपने वर्ग या जाति में प्रतिनिधि मात्र होते हैं जो कि पार्टी की छवि को अच्छी बनाकर रखते हैं और पार्टी के वोटों को बांध कर रखते हैं. अगर ये अपने हिसाब से जाति की आवश्यकताओं को देखकर, महसूस करके कोई ऐसा कार्य कर बैठते हैं या घोषणा कर देते हैं जो कि पार्टी की गाईड लाईन के विपरीत हो तो इनका पार्टी में रहना मुश्किल हो जाता है, माफी मांगनी पड़ती है, अगली बार टिकट नहीं मिलता है या पार्टी से निकाल दिया जाता है. अगर दलित समाज के तथाकथित प्रतिनिधि अपने समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कार्य करते, लोगों के हित के लिये अपना कार्यकाल बिताते, तो क्या आजादी के लगभग 70 साल बाद भी दलितों को आधारभूत सुविधाओं के लिये जूझना पड़ता? दलितों की बस्तियों में आज भी पानी, बिजली, सड़क, नाली, पर्याप्त साफ-सफाई, सामुदायिक भवन, अस्पताल, विद्यालय, डाकघर और इसी प्रकार की अन्य सुविधाओं का नितान्त अभाव देखा जा सकता है. दलितों के रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं है, बेरोजगारी है. ये सब परेशानियां तो उस समय भी थीं जब भारत आजाद हुआ था. तब से आज तक निरन्तर दलितों के प्रतिनिधि भी चुने जा रहे हैं और काम भी कर रहे हैं. फिर यह सब क्यों? इसका कारण वही है जो पूर्व में बता चुके हैं. दलित समाज का दुर्भाग्य रहा कि बाबा साहेब मात्र 65 साल की उम्र में ही काल के ग्रास बन गये. भारत की स्वाधीनता के बाद उनको दलितों के लिये कार्य करने का मौका ही नहीं मिला. उनके देहावसान के बाद उनकी राजनैतिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया के टुकडे-टुकडे हो गये और उनके अनुयायी (न कि उत्तराधिकारी) अलग-अलग पार्टियों में चले गये, सवर्ण लड़कियों से शादियां कर ली, अपने घर-परिवार बसा लिये. जिस कांरवे की शुरुआत बाबा साहेब ने की थी, वह बिखरने लगा. उनके बाद जिन-जिन नेताओं पर दलितों  को भरोसा था और जो दलितो का भला कर भी सकते थे, वे सत्ता पाने के लिये दल-बदलू साबित हुए. फुटबाल की तरह कभी इस पार्टी में तो कभी उस पार्टी में. इनका कोई जमीर, कोई धर्म कोई आत्मविश्वास नहीं रहा. यह आज तक निरन्तर जारी है. जो लोग दलित हितों के पैरोकार बनते थे, दलित विरोधियों को पानी पी-पी कर कोसा करते थे, जब इन्हीं दलित विरोधी पार्टियों की तरफ से इनको लालच दिया गया तो झट इनके साथ हो गये और सब कुछ भूल गए. इसी प्रकार राज्यसभा में जाने वाले विभिन्न पार्टियों की तरफ से दलित समाज के लोग हैं जो इनके रिक्त स्थानों को भरने के अलावा कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नही करते हैं. बसपा को छोड़कर आज ऐसी कोई राजनैतिक पार्टी नहीं दिखती है जो दलितों के हितों की रक्षा करने वाली हो. सबको वोट लेने और शासन करने की पड़ी है, परन्तु जहां-जहां दलितो के हित मारे जा रहे हैं, वहां सब मौन हैं. एक छोटा सा उदाहरण देता हूं. किसी जमाने में पीएमटी, पीइटी आदि परीक्षाओं में एससी-एसटी के विद्यार्थियों को आधा शुल्क देना पड़ता था. कुछ सालों से बराबर ही देना पड़ रहा है, जबकि दलितों के एमपी, एमएलए, मंत्री-सब चुने जाते हैं. दरअसल इन नेताओं का रोल कठपुतली से अधिक कुछ नहीं होता है. ये दलितों के हित सम्बन्धी मामलों में हाईकमान के निर्देशों का इंतजार करते हैं और तदानुसार कार्य करते हैं. हाल ही में दलित समाज के कुछ लोग सत्ताधारी पार्टी की ओर से राज्यसभा में सांसद चुने गये हैं. मेरा उनसे सीधा सवाल है-क्या आप इस पार्टी में रहते हुए उन सिद्धान्तों की रक्षा कर पायेंगे जो जीवन भर आदर्शो के रुप में आपने दलितों के सामने रखे? मान लीजिये, आप तो दलित समाज के मोहल्ले में सरकारी विद्यालय खुलवाना चाहते हैं, परन्तु वहां पहले से ही आपकी ही पार्टी के बड़े नेता का ऊंची फीस वाला प्राईवेट स्कूल है. आपकी पार्टी आपको विद्यालय खुलवाने देगी? आजकल प्राईवेट स्कूल मनमानी फीस वसूल कर रहे हैं और महंगी-महंगी किताबें थोप रहे हैं. कहना न होगा कि यह सब नेताओं की मिली भगत बिना संभव नहीं है. क्या आप जनता को इन शिक्षा माफियाओं से मुक्त करा पायेंगे? यह दलितों का दुर्भाग्य है कि आज उनका रोना रोने वाला कोई नहीं है. जिनसे थोड़ी बहुत आस थी, वे सामाजिक इंजीनियरिंग के चक्कर में ऐसे पड़े कि बैक पर बैक आती गई और आज उनकी डिग्री कैंसिल होने की नौबत आ गई. गर्मागर्म खाने के चक्कर में मुंह जला बैठे, लोगों की आशाओं पर तुषारापात हो गया और हाथी का गणेश हो गया. ये अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते तो शायद अच्छा रहता, पर चौबेजी छब्बे जी बनने के चक्कर में दुबे जी रह गए. अब बाबा साहेब की उठी हुई अंगुली को कौन विश्राम दे पायेगा, यह तो भविष्य बतायेगा लेकिन इतना निश्चित है कि सत्ता को पाने के लिये दलितों को एक होना ही पड़ेगा, अन्यथा सत्तर साल निकल गये, सत्तर और निकल जायेंगे. श्याम सुंदर बैरवा सहायक प्रोफेसर है. संपर्क सूत्रः- 8764122431

अम्बेडकर बालपोथी में A से अम्बेडकर, B से बुद्ध

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अहमदाबाद। गुजरात के अहमदाबाद जिले के दलित बहुल इलाकों में अब बाबासाहेब अम्बेडकर बालपोथी पढ़ाई जा रही है. इन इलाकों में रहने वाले लोगों में अम्बेडकर बालपोथी की मांग तेजी से बढ़ी है. खास बात यह है कि इसे किसी स्कूल ने शुरू नहीं किया है, बल्कि इस किताब के हिन्दी और गुजराती संस्करण के लेखक धीरज प्रियदर्शी पेशे से दर्जी हैं. उन्होंने बड़ी सावधानी से मुख्यधारा की किताबों के ढांचे को तोड़ने की कोशिश की है और उसकी जगह पर इंग्लिश अलफाबेट में दलित प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल किया है. इस बालपोथी में A से अम्बेडकर और B से बुद्ध पढ़ाया जा रहा है. इस किताब की खासियत यह है कि ये बच्चों को हिन्दू प्रतीक चिन्हों से दूर ले जाती है और उसकी जगह पर बौद्ध प्रतीकों और बाबासाहेब अम्बेडकर के जीवन के बारे बताती है. इस किताब में बाबासाहेब से जुड़े प्रसंगों का सहारा लिया गया है. अम्बेडकर बालपोथी के इंग्लिश संस्करण को राजस्थान की कुसुम मेघवाल ने लिखा है. इसमें A का मतलब अम्बेडकर और B का मतलब बुद्ध है. इसी तरह धीरज द्वारा तैयार किए गए हिन्दी की किताब में ‘अ’ से अत्याचार और ‘क’ से कलम पढ़ाया गया है. अम्बडेकर साहित्य पर लाइब्रेरी चलाने वाले धीरज कहते हैं, ”क” से कमल की जगह के से कलम सीखना हमारे बच्चों के लिए ज्यादा बेहतर है. –  साभार नवभारत टाइम्स

क्रान्तिकारी परिवर्तन का दस्तावेज़ है ‘गुलामगिरी’

दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया. बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है. इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्सव और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व. अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है. क्योंकि मार्क्सक का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है. ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे. लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे. उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती. उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे. उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है. 1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी. आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है. 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है. क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई. उन्होंने 1848 में ही मार्क्सक और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था. 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था. उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी. नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया. सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया. जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया. 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ. दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया. महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है. वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते. वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं. उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था. इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की. महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया. फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी. उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था. उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है. इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है. न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है. महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी. उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया. उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया. कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए. उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी. ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे. वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे. महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है. उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए. फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है. यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है. महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा. उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी. उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है. ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे. स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे. वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे. उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके. वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे. ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्यह व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की. महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया. उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया. स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं. लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया. फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था. इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं. वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया. महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले. उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है. आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है. लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

छत्तीसगढ़ः नाई समाज ने किया सवर्णों का बहिष्कार

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अब तक हम यह खबर पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि सवर्णों ने दलितों का बहिष्कार कर दिया है. लेकिन एक खबर ऐसी आई है जिसने यह साबित किया है कि अगर कमजोर जातियों के बीच एकता हो जाए तो मनुवादी गुंडों को भी नाकों चने चबवा सकती है. घटना छत्तीसगढ़ की है. छत्तीसढ़ राज्य में एक गांव है हीरापुर. इस गांव के नाई समाज के लोगों ने सवर्णों का ही बहिष्कार कर दिया है. इस घटना से पूरे गांव के सवर्णों को करारा जवाब मिला है. मामला असल में छह महीने पुराना है. गांव के दो नाबालिग लड़कों का आपस में झगड़ा हो गया. दोनों लड़के अलग-अलग समुदाय के थे. इसमें नाई समाज का भी लड़का शामिल था. इस मामले ने काफी तूल पकड़ा. नाई समाज के लोगों को इंसाफ नहीं मिला तो उन्होंने बदला लेने का दूसरा तरीका निकाल लिया. असल में मामला हल होता नहीं देख नाई समाज के लोगों ने सवर्ण समाज के लोगों के बाल काटने बंद कर दिए और उनका बहिष्कार कर दिया. इससे सवर्णों में खलबली मच गई. पहले तो नाई समाज के लोगों को दबाने और डराने की कोशिश की गई, लेकिन सारा नाई समाज एक-दूसरे का हाथ थामे एकजुट खड़ा हो गया. हीरागांव के समर्थन में पड़ोस के परसुदा और खुरथुली के लोग भी आ गए. आखिरकार जातिवादी गुंडों की एक ना चली. आलम यह है कि अब यहां के सवर्ण अब खुद ही एक-दूसरे के दाढी बाल काटते हैं. यहां तक कि पिछले दिनों सवर्ण समाज के घर में मृत्यु होने के बावजूद हिन्दू रीति के मुताबिक दसवें दिन बाल काटने के लिए भी नाई समाज के लोग नहीं पहुंचे और सवर्ण समाज के लोगों को आपस में ही यह विधि करनी पड़ी.

देश ने पहली महिला अध्यापिका को भुला दिया?

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मेरे मायनों में शिक्षक वह होता है जो आपको जीवन जीने की विद्या सिखाता है. किसी बच्चे के लिए सबसे पहली शिक्षिका उसकी मां होती है, वही उसे शिक्षक का आभास कराती है. एक समाज दो लोगों से मिलकर बनता है, ””स्त्री और पुरूष””. एक अच्छे समाज का निर्माण तब होता है जब स्त्री और पुरूषों को समान अधिकार मिले. हमारे देश में स्त्री समाज सदियों से शिक्षा से वंचित रहा है. उस समय धार्मिक अंधविश्वास, रूढ़िवाद, अस्पृश्यता, दलितों और खासतौर से सभी वर्गो की महिलाओं पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार अपने चरम पर थे. बाल-विवाह, सती प्रथा, बेटियों को जन्मते ही मार देना, विधवा स्त्री के साथ तरह-तरह के अनुचित व्यवहार, अनमेल विवाह, बहुपत्नी विवाह आदि प्रथाएं समाज में व्याप्त थी. समाज में ब्राह्मणवाद और जातिवाद का बोलबाला था. ऐसे समय में मां सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबाफुले का इस अन्यायी समाज और उसके अत्याचारों के खिलाफ खड़ा हो जाना एक क्रांति का आगाज था. मां सावित्रीबाई फुले ने अपने निस्वार्थ प्रेम, सामाजिक प्रतिबद्धता, सरलता तथा अपने अनथक-सार्थक प्रयासों से महिलाओं और शोषित समाज को शिक्षा पाने का अधिकार दिलवाया. मां सावित्रीबाई फुले ने धार्मिक अंधविश्वास व रूढ़ियां तोड़कर निर्भयता और बहादुरी से घर-घर गली घूमकर संपूर्ण स्त्री व दलित समाज के लिए शिक्षा की क्रान्ति ज्योति जलाई, धर्म-पंडितों ने उन्हें अश्लील गालियां दी, धर्म डुबोने वाली कहा तथा कई लांछन लगाये, यहां तक कि उन पर पत्थर एवं गोबर तक फेंका गया. मां सावित्रीबाई द्वारा लड़कियों के लिए चलाए गए स्कूल बंद कराने के लिए अनेकों प्रयास किए जाते थे. मां सावित्रीबाई डरकर घर बैठ जाएं. इसलिए उन्हें उच्च वर्गीय द्वारा अनेक विधियों से तंग किया जाता था. एक बार तो उनके ऊपर एक व्यक्ति ने शारीरिक हमला भी किया, तब मां सावित्रीबाई फुले ने बड़ी बहादुरी की और उस व्यक्ति का मुकाबला करते हुए उसे दो-तीन थप्पड़ कसकर जड़ दिए. थप्पड़ खाकर वह व्यक्ति इतना शर्मशार हो गया कि फिर कभी उन्हें स्कूल जाने से रोकने का प्रयास नहीं किया. मां सावित्रीबाई फुले ने अपने अथक प्रयासों द्वारा शिक्षा पर षड्यंत्रकारी तरीके से एकाधिकार जमाए बैठी ऊंची जमात की जमीन हिला डाली. मां सावित्रीबाई फुले को देश की पहली भारतीय स्त्री अध्यापिका बनने का ऐतिहासिक गौरव हासिल है. मां सावित्रीबाई फुले ने न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया अपितु भारती. स्त्री की दशा सुधारने के लिए उन्होंने 1852 में महिला मण्डल का गठन कर भारतीय महिला आंदोलन की प्रथम अगुवाई भी की. इस महिला मण्डल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ स्त्रियों को तथा अन्य समाज को मोर्चाबंद कर सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया. उस समय में हिंदू स्त्री को विधवा होने पर उसका सिर मूंड दिया जाता था. मां सावित्रीबाई फुले ने नाईयों से विधवाओं के बाल न काटने अनुरोध करते हुए आंदोलन चलाया जिसमें काफी संख्या में नाईयों ने भाग लिया और विधवा स्त्रियों के बाल न काटने की प्रतिज्ञा ली. इतिहास गवाह है कि भारत क्या पूरे विश्व में ऐसा सशक्त आन्दोलन नहीं हुआ जिसमें औरतों के ऊपर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार के खिलाफ स्त्रियों के साथ पुरूष जाति प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो. इतिहास गवाह हैं कि हमारे समाज में स्त्रियों की कीमत एक जानवर से भी कम थी. स्त्री विधवा होने पर उसके परिवार के पुरूष जैसे देवर, जेठ, ससुर व अन्य संबंधियों द्वारा उसका शारीरिक शोषण किया जाता था. जिसके कारण वह कई बार मां बन जाती थी. बदनामी से बचने के लिए विधवा या तो आत्महत्या कर लेती थी या फिर अपने अवैध बच्चे को मार डालती थी. अपने अवैध बच्चे के कारण वह खुद आत्महत्या न करें तथा अपने अजन्में बच्चे को भी ना मारे. इस उद्देश्य से मां सावित्रीबाई फुले ने भारत का पहला ”बाल हत्या प्रतिबंधक गृह” तथा निराश्रित असहाय महिलाओं के लिए अनाथाश्रम खोला. स्वयं सावित्रीबाई फुले ने आत्महत्या करे जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण स्त्री काशीबाई जो कि विधवा होने के बाद भी मां बनने वाली थी को आत्महत्या करने से रोककर उसकी प्रसूति अपने घर में करवा कर उसके बच्चे को यशवन्त को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया. दत्तक पुत्र यशवन्त राव को खुद पाल-पोसकर डॉक्टर बनाया. उस अनाथालय की सम्पूर्ण व्यवस्था मां सावित्रीबाई फुले सम्भालती थी, अनाथालय के प्रवेश द्वार पर मां सावित्रीबाई फुले ने एक बोर्ड टंगवा दिया, जिस पर लिखा था, विधवा बहने, यहां आकर गुप्त रीति से और सुरक्षित तरीके से अपने बालक को जन्म दे सकती हैं, आप चाहे तो अपने बालक को ले जा सकती हैं या यहां रख सकती हैं, आपके बालक को यहां अनाथाश्रम एक मां की तर रखेगा और उसकी रक्षा करेगा. एक-दो वर्षो में ही इस आश्रम में सौ से ज्यादा विधवाओं ने अपने नाजायज बच्चों को जन्म दिया, मां सावित्रीबाई फुले का जीवन एक ऐसी मशाल है, जिन्होंने स्वयं प्रज्वलित होकर भारतीय नारी को पहली बार सम्मान के साथ जीना सिखाया. मां सावित्रीबाई के प्रयासों से सदियों से भारतीय नारियां जिन पुरानी कुरीतियों से जकड़ी हुई थी उन्होंने उन बंधनों से उनकों मुक्त कराया तथा पहली बार भारतीय नारी ने पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर खुली हवा में सांस ली. महिलाओं को उनको सानिध्य में शिक्षा का अधिकार मिला.