आने वाले वक्त में देश के महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होने को हैं. देश 1952 से चुनावी पर्व मना रहा है. हर बार दलों ने तरह-तरह के वादे किए. वोटरों ने यकीन भी किया. केंद्र में किसी न किसी दल की सरकार बनी और उन्हें अपने वादे को पूरा करने के लिए मौका भी मिला, लेकिन गरीबी नहीं मिटी, बेरोजगारी खत्म नहीं हुई, अशिक्षा दूर नहीं हुई, सबको स्वास्थ्य की सुविधा नहीं मिली, पानी-बिजली-सड़क की कमी दूर नहीं हो पाई, गरीबों-वंचितों-मजलूमों के लिए न्याय सपना ही रहा, जातिवाद का कलंक नहीं मिटा.
ये सभी समस्याएं देश के पहले आम चुनाव के समय भी विद्यमान थे और इस समय भी मौजूद हैं. उल्टे कालांतर में भ्रष्टाचार और महंगाई के मसले जुड़ गए. सामाजिक न्याय का लक्ष्य जटिल होता गया. गरीब और अमीर के बीच खाई और बढ़ गई. आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना ही गुनाह है. इससे साफ है कि किसी भी दल की सरकार ने न ही अपने वादे पूरे किए और न ही संविधान के लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में ही काम किया. चाहे और जितने चुनाव हो जाए, जनता के प्रति दलों का जो रवैया है, उससे जाहिर होता है कि देश की मौलिक समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. आखिर ऐसा क्यों? फिर इसका हल क्या है? एक शब्द में कहें तो देश के दलों के द्वारा डॉ. अंबेडकर के अर्थशास्त्र (आर्थिक विचारों) की अनदेखी इसकी वजह है और गरीबी दूर करने के लिए बाबा साहेब द्वारा सुझाए गए तरीकों पर अमल इसका हल है.
बाबा साहेब समाज से गरीबी को खत्म करना चाहते थे. इसके लिए वे आर्थिक आजादी की बात करते थे और जातिवाद का खात्मा चाहते थे. उन्हें लगता था कि जातिवाद भी गरीबी का एक बड़ा कारण है. अधिकांश दलित-पिछड़ी जातियां छोटे कामों पर निर्भर हैं, जिसके चलते उनकी आमदनी भी छोटी ही है, जिससे उनका जीवन स्तर उठ नहीं पाता है. इसलिए जातियों की दीवार को गिराना जरूरी है. उनका मानना था कि यह काम शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के सहारे संभव है. दोनों ही लक्ष्य पाने में वे राज्य सरकारों की बड़ी भूमिका देखते थे. वे जानते थे कि राज्य सरकार लक्ष्य तभी पूरा कर सकेगी, जब उसके खजाने भरे होंगे. इसके लिए उन्होंने उपाय भी सुझाए थे, जिस पर सरकारों को अमल करना था.
डॉ. अंबेडकर ने सबसे अधिक सार्वजनिक वित्त पोषण पर काम किया. वे राज्यों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे. इसके लिए वे सरकारी धन का विकेंद्रीकरण चाहते थे. ब्रिटिश शासन में क्या था कि सरकारी धन पर अधिकार सेंट्रल (केंद्र) का होता था, जबकि खर्च प्रोविंस (आज के राज्य) करते थे. इसमें क्या होता था कि सरकार के पास धन कहां से आएगा, इसके लिए सेंट्रल को सोचना पड़ता था, जबकि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए प्रोविंस खर्च करता था. इसमें प्रोविंस अक्सर अधिक पैसे की मांग करता था, जिसे केंद्र को पूरा करना होता था. बाबा साहेब ने इस व्यवस्था की खामियों के तरफ लोगों का ध्यान खींचा. उन्होंने आगाह किया कि प्रोविंस पर आय की जिम्मेदारी नहीं है, खर्च करने में वह गैर जिम्मेदार हो सकता है. इस कारण सरकारी धन के नियंत्रण का विकेंद्रीकरण होना चाहिए और अपना संसाधन जुटाने कि लिए राज्यों को स्वायत्त होना चाहिए.
विडंबना यह है कि आज भी केंद्र और राज्य की वित्त व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की तरह है. राज्य सीमित संसाधन ही जुटा पाता है और अपने खर्च के लिए केंद्र पर निर्भर है. इसका दुष्परिणाम है कि केंद्र तरह-तरह के टैक्स लगाकर धन जमा करता है. इससे कृषि, उद्योग, व्यापार और गरीब नकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं. गरीबों में सबसे अधिक दलित ही हैं, जबकि जनता की इस गाढ़ी कमाई का अधिकांश हिस्सा सैलरी, रक्षा, सेना प्रशासनिक जैसे अनुत्पादक मदों पर खर्च हो जाता है. जिससे शिक्षा-स्वास्थ्य पर खर्च कम हो जाता है. अंबेडकर इस अनुत्पादक खर्च को समीति करना चाहते थे और सरकारी धन का उपयोग जनहित में सुनिश्चित करना चाहते थे. उनका मानना था कि केंद्र और राज्यों के बीच सरकारी धन के स्रोतों का समझदारी से बंटवारा नहीं होने के कारण कई राज्य पिछड़ जाएंगे. आज उनका अंदाजा सही निकला है. देश में राज्यों का असमान विकास हुआ है. कई राज्य पिछड़े हैं. इसलिए केंद्र और राज्यों के बीच आर्थिक स्वतंत्रता विकसित करने की जरूरत है. बाबा का यह सपना अभी अपूर्ण है.
इसके पूरे होने की उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है. कारण राजनीति ही एक ऐसी चीज है, जिसमें राष्ट्र को आगे ले जाने की ताकत है, लेकिन अभी वह अटकी हुई प्रतीत हो रही है. इस आम चुनाव के प्रचार अभियानों पर गौर करें तो किसी भी दल के एजेंडे में आपको यह देखने को नहीं मिलेगा कि अगले पांच साल में हमारा देश कैसा होगा. हम तरक्की की राह पर किस तरह जाएंगे. हम किस क्षेत्र में कितना विकास करेंगे. नागरिकों को कैसे खुशहाल बनाया जाए, महंगाई कैसे दूर होगी, भ्रष्टाचार का खात्मा कैसे होगा, इस पर कोई चर्चा नहीं हो रही है. राज्यों को आत्मनिर्भर बनाने का एजेंडा किसी भी दल के प्रचार अभियान में शामिल नहीं है. बाबा साहेब ने राज्य सरकार के स्वामित्व में सहकारी खेती और उद्योग का मॉडल पेश किया था. वे राज्य की सहायता से हर परिवार को आय के स्थाई स्रोत मुहैया कराना चाहते थे. वे स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित समतावादी-कल्याणकारी समाज का निर्माण करना चाहते थे. यह राजनीति से ही संभव था. संविधान में उन्होंने इसकी व्यवस्था भी की, लेकिन लगता है आज उनका सपना राजनीति के बियाबान में कहीं बिला गया है. हालांकि उम्मीद कायम रहेगी, अगला आम चुनाव भी तो है.
– लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।