अभी-अभी दस दिनों का दशहरा बीता है. मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि दुर्गा कौन थीं और उनका महिषासुर के साथ क्या संबंध था और राजा महिषासुर ने दुर्गा का क्या बिगाड़ा था जो उन्होंने उसे मार डाला. और मार भी डाला तो नौ दिनों का वह क्रम क्या था और उन नौ दिनों में क्या हुआ था? क्योंकि समाज के एक बड़े हिस्से से अब यह सवाल भी उटने लगा है. मैं यह भी नहीं समझ पाता कि दशहरे में रामलीला क्यों दिखाते हैं, जबकि होना यह चाहिए था कि दुर्गा और महिषासुर के बीच नौ दिनों में जो हुआ था उसे लोगों को बतातें, तब जाकर दशहरा ज्यादा सार्थक होता.
मैं तो महज यह पूछना चाहता हूं कि जो ”भक्तजन” इन दस दिनों तक धूनी रमाए रहें आखिर उन्हें मिला क्या? क्या आपका धन बढ़ा, या फिर यश में वृद्धि हो गई या फिर रातों रात आपके सभी कष्ट दूर हो गए. यह सवाल इसलिए है क्योंकि हर काम करने के पीछे इंसान की कुछ मंशा, कोई चाहत तो रहती ही है. उन्हें सोचना चाहिए कि उन्हें क्या हासिल हो गया. मैं यह सवाल इसलिए भी उठा रहा हूं क्योंकि मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं जो सालों से इन नौ दिनों भक्ति में आकंठ डूबते रहे हैं लेकिन आज भी वहीं हैं, जहा एक दशक पहले तक थे. जाहिर है कि इंसान की उन्नति मेहनत से होती है ना कि किसी औऱ तरीके से.
ऐेसे ही आने वाले दिनों में दीपावली है. हिंदू धर्म के मुताबिक कथित तौर पर राम उस दिन अयोध्या लौटे थे तो दिपावली का पर्व मनाया जाता है. ठीक. मान लिया कि राम लौटे थे तो फिर लक्ष्मी को क्यों पूजते हो? वह अचानक से कहां से बीच में आ जाती है. तर्क करने पर लोग इसे साफ-सफाई से जोड़ कर देखने लगते हैं कि इसी बहाने घरों की ठीक से सफाई हो जाती है. इस तर्क पर बड़ी हंसी आती है; क्योंकि भारत इस मायने में अनोखा देश है जहां घरों की सफाई के लिए ”दीपावली” और ठीक से नहाने के लिए ”होली” का इंतजार किया जाता है. खैर, यह आपकी श्रद्धा है, आपकी भक्ति है, आपकी इच्छा है, लेकिन यह बताओ कि उस एक रात में कथित तौर पर ”धन की देवी” के आगे रखे नोट दोगुने हुए या नहीं हुए?
अजब देश है भारत. यहां हर काम के लिए अलग देवता है. शक्ति के लिए अलग, धन के लिए अलग, ब्रह्मचर्य के लिए अलग, शादी कराने (अच्छा वर दिलाने) के लिए अगल, बारिश कराने के लिए अलग, पढ़ाई-लिखाई के लिए अलग, शुभ वाले अलग, अशुभ वाले अलग और तो और यहां भोग के लिए भी कामदेव जैसे देव हैं. और इतने सारे देवों के होने के बावजूद भारत गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूखा और बीमारी से बेहाल है. सवाल है कि जो लोग लाचार, बेरोजगार और बीमार है, क्या वो इस भगवान को नहीं मानते होंगे, फिर क्या आखिर इनके दुख क्यों नहीं दूर होते? सूखे से बर्बाद हुई फसलों को देख किसान रोज पेड़ों पर टंग जा रहे है फिर आखिर यह भगवान उन पर रहम कर उनके लिए बारिश क्यों नहीं कराता? शहीद भगत सिंह ने समाज में फैली इसी विषमता और गैरबराबरी को देखते हुए ईश्वर को मानने से इंकार कर दिया था और खुद को नास्तिक घोषित कर दिया था.
एक सवाल दलित/पिछड़े/आदिवासी समाज से है कि मंदिरों से लतिया कर भगा दिए जाने के बावजूद भी आप इसी ईश्वर को सालो से गोहराते रहे लेकिन देश का संविधान लागू होने से पहले करोड़ों भगवानों के इस देश में किसी इृकलौते ईश्वर ने भी आपके लिए रोटी, कपड़ा और मकान का जुगाड़ क्यों नहीं किया? आप गांवो के दक्षिण में पड़े सड़ते रहे, चमड़ा छीलते रहे, मैला, ढोते रहे, हल चलाते रहे, बेगार करते रहे, जूठन खाते रहे, बिन कपड़ों के रहे, बिना छत और बिस्तर के सोए, और यहां तक की गुलामी करते रहे तब चौरासी करोड़ ईश्वरों की यह फौज कहां थी? टीवी, बीवी, व्हाट्सएप और फेसबुक से वक्त नहीं मिले तो एक बार सोचिएगा जरूर और ऐसा भी नहीं है कि ये सवाल नए हैं और आप लोग जानते नहीं हैं बल्कि आपलोग शतुर्मुग हो गए हैं जो अपने सर को रेत में धंसा कर ऑल इज वेल के मुगालत में जी रहे हैं.
बात बस इतनी भर है कि आपका भला किसमें है? तीर्थ करने में या फिर पढ़ाई कर नौकरी हासिल कर लेने में. क्योंकि आपकी जमीनों पर हजारों साल पहले किसी और ने कब्जा कर लिया है और आपके पास खाने भर का अनाज उगा लेने तक की जमीन नहीं है. दलित/पिछड़े/आदिवासी समाज में आपको सैकड़ों ऐसे परिवार मिल जाएंगे जिनकी पिछली पीढ़ी के सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद वर्तमान पीढ़ी वापस उसी अंधकार की ओर लौटने लगी है, यह इसलिए हो रहा है क्योंकि मेहनत के जरिए खुद को सबल बनाने की बजाय ज्यादातर युवा धर्म और देवताओं पर निर्भर हो आर्शिवाद के जुगाड़ में लगे हैं. बंधु, आपको न तो आर्शिवाद मिला है और न ही आगे मिलने वाला है. इसलिए बेहतर यह होगा कि किसी धाम की ट्रेन पकड़िए. आपका उद्धार मंदिर की सीढ़ियां चढ़ कर नहीं बल्कि उच्च शिक्षा के माध्य से नौकरी हासिल कर के होगा. और नौकरी मंदिरों में नहीं बंटती, शायद इसीलिए बनाने वालों ने ”नौकरी दिलाने वाले” को ईश्वर को नहीं बनाया.

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
